Sunday, June 1, 2014

----- ॥ सोपान पथ १५॥ -----

छहहि मास भए बसत निबासा । चारत सुत भए कुल दुइ मासा ॥ 
तनिक दिवस लग चले सुपासा । पाछिन मुख पर छाइ हतासा ॥  
पराई नगरी में नवासित होकर बसते हुवे कुल छ: माह हो गए ।  विमोचित चरण पट्टिका के सह पुत्र को चलते दो मास हो गए थे । कुछ दिनों तक तो वह बहुंत ही सुख पूर्वक चला । बाद में उसके मुख पर विचित्र प्रकार की हताशा छाई रहती ॥ 
  
गिरे भूमि पर रोदत टसके । चरन न अजहूँ वाके बस के ॥ 
बिचरत होवै पीर घनेरी ॥ दम्पति मन नउ चिंतन घेरी ॥ 
जब कभी वह भूमि पर गिर जाता तो टसकते हुवे क्रंदन करता ॥  चलना उसके वश  में नहीं रहा कारण की विचरण से गहन पीड़ा होती । अब दम्पति के मनो-मस्तिष्क एक नई चिंता से घिर गया ॥ 

बहुरि एकु  जोग जीवद दिखाए । तेहि निरखत उपचर्जा बताए ॥ 
चारि दिवस ता पीरा छाँड़े । तनिक काल मह अस्थिहि गाढ़े ॥ 
उन्होंने   उसे एक योग्य अस्थि के विशेषज्ञ चिकित्सक को दिखाया । उसने पुत्र का भली प्रकार से निरक्षण कर कुछ उपचार निर्दिष्ट किया । चार दिवस लगे  तन से पीड़ा मिट गई, कुछ समय पश्चात उसकी अस्थियां दृढ़ हो गई ॥  

 धीरहि पद संचारन लागे । सुत के सुपुत भाग जस जागे ॥ 
मात पिता लिए सुख उछबासा । आयब तनिक  साँस महु साँसा ॥ 
धीरे धीरे उसके चरण संचालित हो गए जैसे उसके सोए हुवे भाग्य जागृत हो गए हों ॥ माता- पिता ने  एक सुख की उच्छवास ली उनके थोड़ा ही सही किन्तु जी में जी आया ॥ 

कटे पुत के एकु संकट बिरते सुखमय राति । 
जोगित अस्थि संग परे, उर अंतर महु साँति ॥ 
इस प्रकार पुत्र का एक संकट तो कटा  उसकी रात्रि सुख पूर्वक व्यतीत होने लगी । संयोजित अस्थि के सह उसके अशांत हृदय में शांति छा गई ॥ 

सोमवार, ०२ जून २०१४                                                                                                       

अपस्मार जब चिक्कर घारी । पीर जनत  उर तड़पत भारी ॥ 
सतत रूप जब गहनै घेरे । निदान गृह महु जाइ निबेरे ॥ 
अपस्मार का जब चक्कर घेरता ।   पीड़ा जन्य तड़प  से ह्रदय भारी होती ॥  और चक्कर  सतत स्वरूप में सघन स्वरूप में घेर लेते । तब वह निदान गृह में ही विमुक्त होते  ॥ 

जग एक पथ जीवन एक गारी । कबहु हरिएँ कभु  द्रुत संचारी ॥ 
पथिक अनेक मिलहि मग जाता ।  घरी पलक प्रति छिनु दिनु राता ॥ 
यह भव सागर एक पथ है जीवन एक  यान  है । यह कभी तीव्र गति से कभी गतिअवरोधक के कारण मंद गति से संचारित  होता है ॥ मार्ग में जाते हुवे पल प्रतिपल  दिन हो कि चाहे रात में अनेक पथिक से मेल होता है । 

को मन उजरे देहि स्यामहि । को रावन रूपी को रामहि ॥ 
को वितथवदन को सत वादी । को सुखचर को अवसादी ॥ 
कोई मन से उज्जवल एवं तन से स्यामल  है । को रावण रूप में है कोई राम का ही स्वरूप है ॥ को मिथ्यावादी तो कोई कोई सत्यवादी है ॥ कोई सुखपूर्वक गतिवान है  तो कोई अवसाद ग्रहण किए है ॥ 

को धनी मनि  को बहु दीना । को असुरि माया के अधीना  ॥ 
को अति कोमल सुमधुर भासी । को सौ हरिदए सुख की रासी ॥ 
कोई धनवंत है कोई बहुंत दीन है कोई आसुरी माया के आधीन है ॥ कोई अत्यधिक कोमल प्रयंवद /वदा  है । कोई सौहृदय है जो सुख की राशि स्वरूप है ॥ 

कहूँ नख नेमा दरसे सपेमा कहूँ उर दिनकर तरे । 
कहूँ भय भरि राति कहूँ कल गाति प्रत्युष के हस्त बरे ॥ 
कभु दिवस रुआंसे पिय प्रत्यासे लवण लोचन जल झरे । 
कहूं जन गवाईं, बहोरि जाई घर सुघर भुइ हरि करे ॥ 
 कहीं सनेह दर्शता चन्द्रमा कहीं ह्रदय में उतरता हुवा तपन कहीं भयधन रात्रि कहीं  प्रत्युष का पाणि-ग्रहण किए निह्नादित निशा ॥कहीं दिवस रुदनशील  और प्रियतम  की आस किए  लावण्यमयी लोचन से झरता  अश्रुजल ॥ कहीं जन्म दे कर संतति खोई पुनश्च जन्माया और गृह भूमि को सुन्दर एवं भरापूरा किया ॥ 

देह धूपित चरन ताप, कहुँ तरुबर के छानि । 
जब मन पूर्ण काम रहे, लगे सुपासी धानि ॥ 
धूपित देह है चरण संतप्त है कही तरुवर की छाँव है । जब मन पूर्ण कामी होता है वसिधानी अत्यधिक सुखदायी प्रतीत होती है ॥  

मंगलवार, ०३ जून, २० १ ४                                                                                                   

जेइ कहाउत अगजग जाने । कर्म सोंह सब भाग बँधाने ॥ 
भागाधीन भाग पथ जोई । तिन कर्महिन कहत सब कोई ॥ 
यह  कहावत  संसार भर के संज्ञान में है कि कर्म के सह भाग्य का अभ्युदय होता है ॥ जो भाग्य के अधीन हैं और  भाग्य की प्रतीक्षा रत हैं संसार उन्हें अकर्मण्य कहता है ॥ 

बसे बसित  पिय नगर पराई । गह करतल दुनहु सेउकाई ॥ 

एक पद थापिन जहाँ निबासे । दूज निबास नगर के पासे ॥ 
इस प्रकार दोनों वृत्ति करतल में ग्रहण किए दम्पति पराई नगरी के पराए वसथ के वासी  हो गए । एक पद की स्थापना वासित नगरी में ही हो गई । दूसरे की पार्श्व देश के गाँव में ॥ 

कारभवन दुहु गवन निरंतर । दिए  प्रतिदिन मुख कृत हस्ता खर ॥ 
रहहि तहहि के कहनी सोई । करन जोग को कार न होई ॥ 
प्रियतम दोनों ही कार्यालय में निअंतर उपस्थित होते एवं केवल हस्त अक्षर अंकित कर लौट आते । यहां की भी वही कहानी थी करने योग्य कोई कार्य ही नहीं दिया गया ॥ 

कृत क्वचित कर्मिन अधिकाई । पाए दिए जोइ मुँहू भराई ॥ 
कर्मकर जाचक लिख चीन्हे । ठीकाहर अजाचक कीन्हे ॥ 
कदाचित कार्य किंचित थे एवं कर्मी अधिक हो गए थे । अत: 'जो देता वही पाता ' । दुसरा कारण यह कि कर्मकार भिक्षुक के जैसे चिन्हांकित किए गए । ठेकेदार को संपद वान कर दिया गया था ॥ 

दुरमाया बस मतिमंद, भए सब मिथ्यावादि । 
भोग बिषय जय कार किए, करत बिरथा प्रमादि ॥ 
ऐसी दुर्व्यवस्था हो गई है कि  आसुरी माया के वश होकर सभी मंद बुद्धि एवं मिथ्यावादी हो गए  हैं । और भोग विषयों की जय जय कार करते हुवे व्यर्थ का अभिमान करने लगे हैं चार कुकृत्य करके स्वयं को दनुपति समझने लगे हैं ॥ 

 बुधवार, ०४ जून, २ ० १ ४                                                                                                        

सीस छादन बसन अनुप्रासन । जनिमन जनमद जीउ जमोगन ॥  
जुगता बर्धन ज्ञान अधाने । योजन को कर्मन बर थाने ॥ 
शीर्षाच्छादन आवरण अनुप्राशन  आदि जीवन भूत साधन, जन्मदाता के जीवन संरक्षण, योग्यता वर्द्धन , ज्ञान ग्रहण, अन्य किसी श्रेष्ठ स्थान पर कार्य नियोजन

पठत पदोनत जिबिका जोई । पिया के अवर हेतु न होई ॥ 
ए कर पढ़े बिनु होत गभीरे । बिषय सिंधु सो तीरहि तीरें ॥ 
पदोन्नति कर जीविकार्जनादि हेतु के अतिरिक्त  प्रियतम की अध्ययनशीलता का और कोई हेतु न था ॥ यही कारण था कि वह अध्ययन के प्रति गंभीर नहीं थे । उनका विषय सिंधु के सदृश्य और वे तट ही  के तैराक थे ॥ 

गहे घर गहस चारिन भारा । बाही हरुबर बोह अपारा ॥
गवन पीठ पर बहुत उछाही । उपाधि पर एक उपाधि चाही ॥ 
गृह संचालन का भार भी  तो उन्होंने ही ग्रहण किया हुवा था  भार वाही तो दो तोले का और भार एक सेर का ॥  वह भारवाही  विद्या भवन अतिशय उत्साह से जाता, पता नहीं क्यों जाते कदाचित मा सा बनने के लिए ॥ हाँ एक उपाधि पर एक और उपाधि की चाह थी इसीलिए ॥ 

परीछा के समउ जब अवने   । पढ़े बिषय  प्रीतम बहु गहने ॥ 
एकु पुनि दुइ छह  माही दाई । दोनहु मैं पिय कृतफल  पाईं ॥ 
 परीक्षा का समय जब आता  तभी विषयों का गहन अध्ययन किया जाता  ॥ पहले एक तत्पश्चात उन्होंने दूसरी छ मासिक परीक्षा दी । दोनों में ही वह सफल हुवे ॥ 

सनातकोतरु ब्रत गहन, अस बासित पर धाम । 
दुइ कार भवन कर्म जुग, तापर रहि निहकाम ॥  
इस प्रकार  स्नातकोत्तर शिक्षा  ग्रहण करने हेतु  दम्पति पराए धाम के निवासी हो गए । और दो कार्यालयों का कार्य हस्तगत होते हुवे भी अकर्मण्य् ही रहे ॥ 

बृहस्पतिवार, ०५ जून,२०१४                                                                                                 

समउ आपुने पाँख बिताने । उरिन कवन  नभ होहि न भाने ॥ 
बधु जब तब पिय सों हँसि कारें । प्राण तेहि प्रिय नाथ हमारै ॥ 
यह समय अपने पंख विस्तारित किए किस गगन में उड़ा इसका  भान ही नहीं  हुवा ॥   प्रियतम से परिहास कर कहती हे हमारे नाथ प्राणों से प्रिय हैं ॥ 

अधुनातिन्हि राउ के नाई । जोगए सिद्धिहि बैठ बिठाई ॥ 
बधु त कहिब पूरित अनुरागे । पिया उरसिज तीर सम लागे ॥ 
अब तो वह आाजकल के राजाओं जैसे हो गए हैं बस भूति झोके और घर में बैठ गए ॥ वधु ने तो यह अनुराग से पूरित हो कर कहा किन्तु प्रियतम के हृदय में वह शब्द दो तीर के सदृश्य लगे एक ने पार हो गया एक ने प्यार किया ॥ 

कहत  सुहासित रे मम भामा । जनित सिद्धि लहि का बिनु कामा ॥ 
बात बनाउन बहुस कुसलाइ । अवरहि लहत हमरे अभिप्राइ ॥ 
वह सुहासित मुख से बोले हे री मेरी प्यारी भामा । ये लइकिंनिहि के भूति क्या बिना काम के प्राप्य हुई हैं ॥ बात बनाने में तो बहुत कुशल हैं । हमारे अभिप्राय  को अन्यथा ही लेते हैं ( वधु ने उत्तर दिया ) ॥ 

बलित पानि  प्रिय कण्ठन हेरी । तमकि थपकि  दय धुकित निबेरी ॥ 
कर अंतर पुनि पिय लिए घेरी । नयन जुड़ावत बोले हे री ॥ 
और प्रियतम के कंठ से प्रिया ने दोनों हाथों को  लगभग ढूंढते हुव छद्म आवेशपूर्वक थपकी देते हुवे और धकियाती हुई बाहु को  बंधन से विमुक्त की ।  प्रियतम ने पुनश्च अँकवार मुद्रा धारण कर सौम्य लोचन होते हुवे कहा  हे री ॥ 

श्रीमन पतिनी हे गह भ्राजा । सेबक प्रतिमुख  दौ कछु काजा ॥ 
लगन धरावत पिया सुहासै । छेड़ लगा कर मह कर  कासै ॥ 
हे गृह देव की देवी घर की शोभा स्वरूप ,सेवक तुम्हारे सम्मुख है कुछ काम दो ना ॥ । इस प्रकार प्रिया के प्रति परम आसक्त होते हुवे  प्रियतम ने जब परिहास किया और  करतल में करतल कसते हुवे नोंक-झोंक हों लगी ॥ 

कहत बधु ए महनिआ मुख, लगे न मतिवति कोइ । 
दोइ ज्ञान के बात कहत, सब कहि बिरथा होइ ॥ 
तब वधु ने कहा इस महनीय के मुह कौन मतिवती लगे । दो ज्ञान की बातें कहो सो सब व्यर्थ है ॥ 

शुक्रवार, ०६ जून, २०१४                                                                                                                

 कासि करक जब करष कलाईं । कसमसत फूरि गालु फुलाई ॥ 
बोली सुमधुर निलज कहीं के । जो कछु अहै सो आप ही के ॥ 
ऐसा कहते ही प्रियतम ने  जब कोमल कलाइयों को अपनी मुष्टिका में कसी तब वधु झूठ मुठ के गाल फुलाते हुवे कुलबुलाने लगी ॥ और सुमधुर स्वर में कहने लगी निर्ल्लज.....कहीं के......तब प्रियतम ने उत्तर दिया जो भी हैं सो आपके ही हैं ॥ 

अस सुनि  बधु अस दीठी मोड़ी । ह्रदय भवन पिय पीठी जोड़ी ॥ 
बाहु सिखर धरि हनु जब रागे । रूप लुभावन  अति प्रिय लागे ॥ 
ऐसा सुन कर वधु ने अपनी दृष्टि फेर ली  तो  प्रियतम ने पृष्ठक को  अपने ह्रदय भवन से संलग्न कर लिया ॥ और वधु के बाहु शिखर पर अपनी हनु रखकर अनुराग से परिपूरित हो उठे । प्रियतम  का ऐसा लुभावना रूप वधु के अतिशय मन भावन लगा  ॥ 

जो को कारज कर ना दाही । सोइ  दास कहू त  कहँ जाही ॥ 
पढ़े पोथि जो पलक न पंथा । रागन बिनु नर होहि न संता ॥ 
यदि कोई कार्य हस्तगत नहीं करेगा । कहो तो वह दास फिर  कहाँ जाएगा , क्या करेगा ॥ और यदि वह पलक पंथ की पोथी भी नहीं पढ़ेगा । तो विरक्त होकर वह नर साधू न बन जाएगा ? ऐसा प्रियतम का कहना था ॥ 

प्रीति काज जो करतल गाही । जस तुम लेखि सरल तस नाही ॥ 
सो बय केहि बिधि बात सँवारे । प्रिया बचन पर मन मह घारे ॥ 
प्रीति का कार्य ? उसका क्या ? जो करतल ने पहले से ही ग्रहण किया हुवा है ?  जैसा तुमने इसे सरल समझा है यह उतना सरल नहीं है ॥ उस समय तो प्रियतम ने  किसी प्रकार बात संवार ली । किन्तु प्रिया के वचन उनके चित्त में कहीं गहरे अवस्थित हो गए ॥ 

बहुरि कर्मन हेर लगे, चिंत ब्याकुल होइ  । 
निसदिन ज्ञापित पत्र  लखे, कभु कोइ कबहु कोइ ॥ 
तत्पश्चात प्रियतम उद्धिग्न स्वरूप में कार्य ढूंढने लगे  । वह नित्य प्रति दिवस विभिन्न प्रकार के ज्ञापन पत्र का पर दृष्टि रखते ॥ 

शनिवार, ०७ जून, २ ० १ ४                                                                                                       

एकु निजि बिद्या गह दिए ज्ञापन । चहहि कछुक जन हुँत अध्यापन ॥ 
पढ़त करे याचन अरु जोगे । अस पुनि पाठन करम निजोगे ॥ 
एक निजी विद्या निकेतन ने ज्ञापन दिया । अध्यापन कार्य हेतु कुछ अधयापकों की आवश्यकता है ॥ उसे पढ़कर उस पद हेतु अभ्यर्थना की इस प्रकार वह पुनश्च अध्यापन कार्य इन नियोजित हो गए ॥ 

दुइ पुरनई चयने एकु भृते । वाके श्रम भूति हस्त न कृते ॥ 
सोइ पदक पूरन परिहारे । पिया मुख धुनी  कहि अनुसारे ॥ 
दोनों पुरानी वृत्ति में से एक वृति का चयन किया । उस चयनित वृत्ति का प्राश्रयक फिर उन्होंने फिर हस्तगत नहीं किया । प्रियतम के कहे हुवे शब्दों के अनुसार उस पद को उन्होंने पूर्णत: त्याग दिया ॥ 

जेतक परिहरु पद भृति लहहीँ । नवल नियोजन  तेतहि गहही ।। 
कहुँ  पुतिका कहुँ पिता पढ़ाई । कहुँ जनित्र भवन लागन दाईं ॥ 
जितनी हस्त सिद्ध त्यागित पद से प्राप्त होती थी । नए नियोजन में भी लगभग उतनी ही सिद्धि धार्य होती थी ॥ कहीं  पुत्रिका की पढ़ाई कहीं उसके पिता की पढ़ाई । कहीं जन्मस्थान में क्रय किये हुवे भवन के ऋण शोधन अंश का व्यय । 

पेट लपेट गह भाटक हुँते । नहि नहि कृत रहि ब्ययहु बहुँते ॥ 
जनमन सन पूरन परिबारा । धन सोंह तोष तहँ दुःख हारा ॥ 
 पेट के लपेट के लिए कहीं गृह-भाटक के लिए, नहीं नहीं करते भी धन अधिक व्यय हो  रहा था ॥ संतान धन के संग जहां परिवार पूर्ण हो ऐहिक सुखों के साधन भूत द्रव्यों के प्रति संतोष के भाव हों वहाँ दुःख  पराजित हो जाता है ॥ 

तथापि कबहु बधु के मति, पथ यह अभिमत आए । 
को सत्कृत को हेतु बिनु, जिउन बिरथा सिराए ॥  
तथापि वधु का मनो-मस्तिष्क की सरणी में इस मत विचरण करता कि किसी सत्कृत एवं हेतु से रहित, उत्तम देह साधन के सह यह जीवन व्यर्थ में समाप्त हो रहा है ॥ 

रविवार, ०८ जून, २०१४                                                                                                              

प्रियतम लेखि मृषा सम पुंजी  । रसना कोष अधर  कर कुंजी ॥ 
प्रिया कहति बनु लाह निकाई । बरतौ तिन  करत कृपनाई ॥ 
प्राण कान्त के लिए मृषा  पूंजी के सरिस थी । अधर को कुंजी किए जिह्वा ही उस पूंजी की कोष थी ॥ प्राण प्रिया  कहती यह बिना लाभ का आगार है । इसे कृपणता पूर्वक व्यय करना चाहिए ॥ 

अधुनातन जे भू संसारा । जेतक  अवगहु तेत अपारा ॥ 
पहिले जग जन सिरु धरि ज्ञाने । सद कृत गुन गन किए सनमाने ॥ 
अद्यावधि में इस भूलोक में जितना बुढो यह उतनी ही अपार है अर्थात ससे पार नहीं पाया जा सकता । पूर्वकाल के सांसारिक लोग ज्ञान को सिरोधार्य कर सदकृत एवं सद्गुणों के समूह का सम्मान करते थे ॥ 

अजहुँ कुचालि चलन मह आहिहि  । सत दुत्कारत झूठ सराहहिं ॥ 
जहां जुगत जुगता कूप झाँखे  । फलाराम भाखन फल लाखे ॥ 
तुम किस धरती पर हो, इस समय तो दुराचरण का चलन है । यहां सत्य दुत्कारा जाता है असत्य प्रशंसित होता है । यहां  सद्युक्तियां  एवं योग्यता द्वार द्वार भटकती हैं । फलों का उत्पादक किसान फल को ही  तरसता है ॥ ॥ 

कपट बेस बयसनी कुपंथा । कुबिचारी लेखे  मह ग्रन्था ॥ 
दुरा चरन के बहि जहँ नाला । चीन्ह नहि तहँ कौन ब्याला ॥ 
कपट वेशी (अर्थात जिनकी कथनी में राम और करनी में छुरी है ),व्यसनी, दूषित विचारी दुष्ट यहां नियम-निबंधित करते हैं, रावण मर्यादा निर्धारित करता है ॥ जहां दुराचरण का परनाला बहता हो । वहां  शठ दुष्ट एवं हिंसक जंतुओं में भेद करना कठिन है ॥ 

 मतिबत  सठ सठ कह कह मतिबंता । तहँ सबहि नाउ सौधौ संता ॥ 
जीव जग सबहि जन अपराधी । जोइ गहे गए सो भए आधी ॥ 

जहां मतिवन्त  डकैत एवं डकैत मतिवन्त कहलाते हों वहां सभी साधू-संत कहलाते हैं अत: तुम किसी को दुराचारी मत कहो ॥ इस जीव-जगत में सभी अपराधी हैं काल सभी को दंडित करता है । जो जीते जी पकड़ा गया वह बंधक है ॥ 

जाके कोष अधिकाधिक, गाहे मृषा के जोग । 
ते हुँत सबहि  बिषय सुलभ, सब साधन संजोग ॥    
जिसके जिह्वा कोष ने जितना  अधिक असत्य -धन संजोया हुवा  है । उस हेतु सुख के सभी साधनों का संयोग होते हुवे भोग के सभी विषय सुलभ हैं ॥ 

सोमवार, ०९ जून, २०१४                                                                                                 

छुधा तीस छादन ओहारे । इहिं लग ग्यान सीउँ तुहारे ।। 
कस काम लहे कस धन जोगेँ । कस छत छादन असन सँजोगें ॥ 
क्षुधा, तृष्णा, छादनाच्छादन तुम्हारे ज्ञान की परिधि यहीं तक है । कार्य किस प्रकार प्राप्त  किया जाता है जीवन धन किस प्रकार अर्जित किया जाता है भोेजनाच्छादन किस प्रकार एकत्र किया जाता है ॥  

दुअरि बहिर् कहुँ चरन  न दानै । सो तिय जग प्रपंच का जानै ॥ 
सदा चरन चर जो सत भाखे । होत भेखारि कन कन लाखे ॥ 
जिसके चरण द्वार स बाहिर कहीं पड़े नहीं वह स्त्री जग किए प्रपंच को क्या जाने ॥ संचरण का व्रत करकके जो सत्यभाषी होता है वह भिक्षुक होकर कण कण को जोगता है ॥ 

मानहि जग धन वंत  कुलीना । भोग बादि हिन  कह जग दीना ॥ 
सो घर सोई सुघर समाजे । जहँ सुख के सब साधन  भ्राजे ॥ 
यह जीव-जगत  धनवंत को ही कुलीन कहता है ॥ भोग वादिता का तिरस्कार   करने वाले यहाँ अकिंचन कहलाते हैं ॥ वह घर वह समाज ही सुरूप है जहाँ आमोद के सभी साधन सुशोभित हों ॥ 

भोग बिषय जिन भवन बिलासे । तहँ आदर सन्मान निबासे ॥ 
जे धन सम्पद कहँ सो आही । केहि सोंह जे को बूझत नाहीं ॥ 
उपभोग के सभी विषय जिन भवनों मन क्रीड़ा करते हों वहां आदर एवं सन्मान निवास करता है ॥ श्रम तो सभी करते हैं ये सिद्धियां प्राप्त करने हेतु  धन कहाँ से आया (पेड़ से पेड़ से ) कहीं गोले फोड़े ? या देश बेच दिया ? अथवा उसकी धरती बेच दी या पूरी रेल जला के आया ।यह किसी से पूछा नहीं जाता । 

पाखन वाद बिनसि सत पंथा । तिन्हते लुपुत होहि सद ग्रंथा ॥ 
सत भाखिनि जे सत्कृत प्रबचन । कान करज दिए कह तिन भाषन ॥ 
इन पाखंडी विचारों के प्रसार ने सत्य के पंथ का नाश कर दियाहै इसने ही सद्ग्रन्थ विलुप्त कर दिए हैं अत: पथ रहित पथिक कैसा ॥  सत्य विभाषण और यह सत्कृत का प्रवचनों को लोग कान में उंगली देकर कोरा भाषण कहते हैं ॥ 

जे अधुनातम जुग  इहाँ , बिनै जोग अपमान । 
ब्याल काल कलुष संग, पूजत इहँ अभिमान ।। 
यह अधुनातन युग है यहां विनयी अपमान का अधकारी होता है । दुष्ट, हिंसक, धृष्ट, पापाचारी के संग यहां अहंकार की पूजा होती है ॥ 

मंगलवार, १० जून, २०१४                                                                                         

ते समउ पिय रूप लखि कैसे । बिकल हीन मनि फनिधर जैसे ।। 
बहियर हाँ में हाँ मेलाई । अबर रहेहि न कोउ उपाई ॥ 
उस समय प्रियतम कैसे दर्श रहे थे । जस मणि के वियोग में सर्प विचलित होता है ॥ वधु हाँ में हाँ ही मिलाती गई और कोई चारा भी नहीं था ॥ 

कारन कि अस जुगता  न जोगी । कोउ कार कृत बन सहजोगी ॥ 
घर दसा न रहि ऐसिउ तापर ।  रुगनित पुत हस्त धरे आँचर ॥ 
कारण कि उसकी ऐसे योग्यता नहीं जुटाई थी जिसके सह वह कुछ कार्य कर श्रमधन से गृह संचालन में प्रियतम  सहयोगी बने ॥ इर उसपर घर की ऐसी नहीं थी पुत्र अपस्मार रोग से ग्रस्त था उसे प्रतिक्षण ममता की  आवश्यकता थी ॥ 

अहइ दोष आपुनि मन माही । नित निस दिवस बिषय नउ चाही ॥ 
बासन अभरन रसवर भोजन । सुठि सुठि छादन सुठि सुठि साधन ॥ 
दूजे अपने ही चित्त में जब दोष है उसे णतीय प्रतिदिन नए नए विषयों की अभिलाषा रहती है ॥ वस्त्रोभूषण के संग रवार भोजन सुन्दर सुन्दर गृह छाया और बाहर बढ़िया -बढ़िया -साधन-वाहन-कानन- चाहिए ॥ 

धनिमन स्वजन धनी समाजे । भोग बिषय जहँ घर घर साजे ॥ 
तिनके सोंह दुर अनख जगाएँ । पूरनित लाहन लाग लगाएँ ॥ 
जब स्वजन धनवंत हों और समाज भी धनी हो झा भोग विषय घर घर में शोभा प्राप्त कर रहे हों ॥ तब उनके संग एक  दुर्स्पर्धा होने लगती है । तब अभिलाषाओं को पूर्ण करने हेतु घर घर में जुझाऊ बाजे बजने लगते हैं ॥ 

अतिसय जीवन धन संग, भोग बिषय की चाह । 
मृषा भाष बिनु कपट के, पूरन होहिहि नाह ॥ 
जीवन की आधार भूत आवश्यकताओं को अधिकाधिक करते हुवे फिर भोग विषयों की चाह । यह सब मृषा वाद एवं छल-कपट एवं अपराध किए बिना पूर्ण नहीं हो सकती ॥ 

बुधवार, ११ जून, २०१४                                                                                                          

सबते प्रथमक आपन पेखे  । पुनि पिय संग दुजन उर देखे ॥ 
तापुनि आपुनि आप सुधारौ । तदनन्तर दुज  दोष निकारौ ॥ 
प्रथमतस स्वयं को देखना चाहिए  फिर प्रियतम के सह दूसरों के भीतर झांकना चाहिए ॥ तत्पश्चात स्वयं का   सुधारीकरण करन कर फिर दूसरों के दोष निकलना चाहिए ॥ 

रोचिस रोचन रूप सलौना । चह सिंगारी साज सजौना । 
कहुँ भूषन बर भेस लुभावै  । सौरन सँवरन नारि सुभावै ॥ 
यह प्रकट होती हुई शोभा,प्रिय लगने वाला सलोना रूप,श्रृंगार प्रसाधनों युक्त होकर श्रृंगारित होने की चाह करता है ॥ कहीं उत्तम आभूषण कही बढ़िया बढ़िया वेशभूषा लुभाती हैं । सारांश यह है कि सजना-सँवरना नारी का स्वभाव ही है ॥ 

हस्त रस्मि गाहे रथ नीके ।  लिखे आप जो आपनि लीके ॥ 
चारु चरण सन सनलग बाही । तेहिं रसमइ असनहु त चाही ॥ 
जब हस्त  सुसुन्दर रथ की रश्मियाँ ग्रहण किये हो । जो अपना पंथ अपनी मर्यादा स्वयं लिख रहा हो ॥ जिसके कुमकुम से युक्त चरण हों जिसमें उत्तम अश्व बंधे हों । तब ऐसे रथवाही को रसमयी भोजन भी तो चाहिए ॥ 

छतर चँवर धर तिलकित भाला । चहही बासन सुठि सुख साला ॥ 
नारि संग गहि एहि कठिनाई । बिषय बिरति एहि जाति न भाई ॥ 
और जब वह छत्र एवं चँवर तिलकित भाल जैसे उत्तम चिन्हों से युक्त हो   तो उसे एक उत्तम रथ शाला भी चाहिए, वो खोली में थोड़े खड़े होएगा ॥ नारी  के संग यही समस्या है, यह ऐसी जाति है जिसे विषयों की विरक्ति नहीं भाती ॥ 

का गहे अरु का परित्यागें ।सबहि बिषय मनभावन लागे ॥ 
भेस भरन जग बहुस बढ़ाई । गह परिबारु सदन सुखदाई ॥ 
वह क्या तो स्वीकारे क्या त्यागे । उसे तो सभी विषय मनभावन लगते हैं ॥ मायावयी वेशभूषा से सज्जित कुल का , परिवार का, सुखदाई सदन से युक्त जीवन का जगत में बड़ा सम्मान है ॥ 

जगज जगज जननी सिया चरित्र  जो नर सिरुधारि । 
कहि गए बुध होहिहि सोहि अवसहि प्रत्याहारि ॥ 
फिर क्या करें ?  विद्वान कह गए हैं जो नारी जगजजननी माता सीता के सद्चरित्र को सिरोधार्य करती है । ऐसी नारी  अवश्य ही विषयों के बंधन से विमुक्त रहेगी ॥ 


बृहस्पतिवार, १२ जून, २०१४                                                                                               

बिषय भोग तैं नर नागर के । नेम बंध को निगदै वाके ॥ 
राम चरन चित किए भाव रमाई। जथा जोग बिषअन परिहाई ॥ 
पुरुषों में  विषय भोग की प्रवृत्ती का क्या ? उसके नियम बंधनों की कौन कहे ? ईश्वर के चरणों में चित्त लगाके उसकी भक्ती में नियग्न होकर पुरुषों को विषयों का यथा-योग्य परित्याग करना चाहिए ॥ 

जद्यपि मैं  अनभल अपराधी । भै  मम  कारन सकल उपाधी ॥ 
जे बिपलौ पिय कृतकर जोही  । गेह गृहस  के हुतेहि होही  ॥ 
यद्यपि मैं भलमानस नहीं हूँ अपराधी हूँ । पिछले जितने उपद्रव हुवे हैं वह मेरे ही कारण  हुवे हैं ॥ जो प्रियतम के द्वारा विप्लव हुवा है वह घर-गृहस्थी  संचालन हेतु हुवा है ॥ 

ब्ययई के त बहुत उपाया । ब्यसनी को पार न  पाया ॥ 
जेइ खल मल संकुल समाजा । बिलासिता के जान बिराजा  । 
अति व्ययी के तो बहुंत उपाय हैं किन्तु व्यसनी को सुधाना टेडी खीर है ॥ और अब यह दूषित कार्यों में  प्रवृत्त समुदाय एवं समाज जो विलासिता के विमान में विराज कर : -- 

चरनहार बन बिहगेसा । न जान गत को बिदिस बिदेसा ॥ 
छाए जगत बिपलव चहु ओरा । काल धर्म निज देस न थोरा ॥ 
पैरवाला है किन्तु बिहगेस बना फिरता है । जाने किस दुरदिशा में किस विदेश में विचरता है ॥ अब विधाता जीव-जगत इन यदि कोई नव निरूपण करेंगे तो पंख वाले मनुष्य ही निरूपित करेंगे ॥ । अधुनातन जगत में चारों िशाओं में विप्लव छाया हुवा है । दूषित प्रवृत्ति अपने देश में किंचित नहीं है ॥ 

भव सागर गन अवगुन सोधै । जो अबयब बाहिर जग बोधे ॥ 
भयउ गगन मन मेघ बिचारे । बरखन को भू जोग निहारे ॥   
इस संसार रूपी सागर ने गुण एवं अवगुण दोनों ग्रहण किये हैं । जिन अवयवों से बाह्य-जगत का बोध होता है । वे इसका शोधन करते हैं ॥ इस चिद घन गगन में विचार मेघ बने हुवे हैं और वर्षं हेतु किसी सुदेश की प्रतीक्षा में हैं ॥ 

मानस चरन नदी नग धारे । पलक पाँखि रत  गगन बिहारे ॥ 
ऐसेउ चिंतन ब्ययगाढ़े । ज्ञान कोष सम्पद नित बाढ़े ॥  
मनो-मस्तिष्क के चरण आदि एव पर्वतों पर धरकर पलक के पंक्षी गगन विहारने मन रत रहते ॥  इस प्रकार चिंतन में निमग्न हुई वधु के ज्ञान कोष की संपदा नित्य बढ़ती गई  ॥ 

 जिग्यास अधीना, अस बन मीना ज्ञान सिंधु अवगाहे । 
मनसौकस मन जग सब साधन तापर थाह न लाहै ॥ 
कहुँ सुख आधारा, सुधित सुखारा, मानस जग बिरचे । 
जहाँ धर्माचारी, चिंतन हारी, जीवन प्रपाथ प्रपचे ॥  

आपुनि दुआरि धाम  राज किए कछू काज किए,। 
॥ 
प्रतिछन मननसील रहे 
शुकवार, १३ जून, २०१४                                                                                                       

का असाँच अहहीं का साँचे । को काल मलिन को छल राँचे ॥ 
को खल बादए को कल बाँचे । को कोटि कोटि को पै पाँचे ॥ 

परखनबैया हंस सुभावा । अजहुँ चित गहि नहीं सो भावा ॥ 
रतन  काच  दुहु एकरस कासे । को हरिनय अरु को संकासे ॥ 

जे दृढ मत अंतर दुहु राखे । गाहे गूहन नयन न लाखे ॥ 
काहे के को उतरु न  देई । अस बहुस पूछ  संचेई ॥ 

निज भीतर जब कलेस कलुखा । यह बाहिर जग भयंकर सुखा ॥ 
भोग प्रबन रत बिषय प्रलोभा । चहे भव भाव सकल जग सोभा ॥ 

अस बधु मन मानस बिहग, तिरत गगन चहुँ ओर । 
भँवरत आ फिरैं तहहिं, पावहि ना को छोर ॥  

शनिवार, १४ जून, २०१४                                                                                                          

बसे  नौ नगर नवल निवासा । सुखद जिउ न  के कृत प्रत्यासा ॥ 
काल माल एक गांठी गूँथे । घरी पुहुप पल पंख बरूथे ॥ 

अर्थ दसा रहि सब बिधि दाहिन । गहे गेह अभाव को नाहिन ॥ 
छिमा दया दम सौच सुभावा । हरी पद रति पर तोष अभावा ॥ 

जिनकी मति भव भोगन माही । जीवन धन जोरत जाहीं ॥ 
तिन हुँत दंपति गह अवनाई । अतिथि गहन होहहि कठिनाई ॥ 

जोग अभोग रोग जब देखे । सकुचित भौ  नक लक बल रेखे ॥ 
आगत पूजत पति कहि देबा । अनागत जुहारत कृत सेबा ॥ 

एक सुठि तनुभव एक भवा, एक सुठि प्रानाधार । 
एक लघु गृह कानन रूप, एक लघुबर संसार ॥ 

 रविवार, १५ जून, २०१४                                                                                                     

बाल लसित सस रथ अवरोही । तनु भवा दस बरिस बय जोही ॥ 
पैह पोषन देह भर बाढ़े । लह लावन रूप धन गाढ़े ॥ 

चाप चरण जस बाजि पखावज । बधे नुपूर रुर खनकै सों रज ॥ 
अधर धुनी हर जब कछु बोले । सुर सपतक लिख नदि पद दोले ॥ 

नौ बरिस बरग मैं अधिरोही ।जोग बुद्धि सह संजुग होही  ।। 
रहे मनस अति बाल प्रबोधन । बे संधि हेतु गहत प्रबोधन ॥ 

सत बरसि तनय  बे कृत कारी । बोध गम बुद्धि कुंठ अधारी ॥ 
बाहि भँवरन पाछिन भागे । उदार धरत कन खेलन लागे ॥ 

दोइ भाँति  के रसायन, अरु इत उत के उपचार । 
अपसमार के रुज माहि , होहिहि अलप सुधार ॥ 





















  

   
   

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