गवन धिअ नित बिद्या निकाई । एक रछित बाहि आन लवाई ।।
लेइ बनाए बनाउनहारी । अजहुँ बहुस सुठि अली प्यारी ॥
धीआ प्रतिदिन विद्यालय जाती । एक सर्व सुरक्षित वाहनी उस लेने आती ॥ बनाने वाली ने अब तक बहुंत सी सुन्दर वाम प्यारी सखिया बना ली थीं ॥
धनुगुन निकसत सर के नाई । एक दिन पढ़ जब धावत आई ॥
चढ़े बाहु अंतर हिन्दोली । ओदन मुख धर तोतरि बोली ॥
धनुष की म्पत्यांचा से छूटे तीर के जैसे एक दिन वह पढ़कर दौड़ते हुव घर आई ॥ और जननी की गोद के हिंडोेले लेती हुई मुख में भात रखे तोतली भाषा में बोली ॥
जगत न्यारिहि हे री माई । मोरि सखी जे भेद बताई ॥
ऊँच चौंक जो करे बिश्रामा । सनगनक जिन साधनक नामा ॥
जगत से न्यारी हे री मैया मेरी सखियों ने मुझे एक रहस्य वाली बात बताई है ॥ यह उपकरण जिसका नाम संगणक है, जो ऊंची चौकी पर विराजित होकर विश्राम कर रहा है ॥
तिन्हनि मम पितु कहँ सों लाने । जेहि बिचित्र बहु दिब्य बिमाने ।।
ते उपकरन उपजोग अधिका । करवावहै जे संगत संगनिका ॥
से मेरे पिता कहाँ से लाए थे ? यह बहुंत ही विचित्र एवं दिव्य विमान है (ऐसा सखियों ने मुझे कहा )॥ इस साधनक का उपयोग बहुंत अधिक है जो हम नहीं कर रहे हैं । यह संसार सहित समाज से संगती करवाता है ॥
नवल बोध नउ जानपन, दिए जो सखिहि सुजान ।
अजहुँ लही धिए लघु बयस, पर जननी दिए ज्ञान ॥
यह नई बुद्धि नई जानकारी जो धिया को उसकी सखियों ने दी थी । अभी जिसने लघु अवस्था ही प्राप्त की थी किन्तु जननी को वह बड़े के जैसे ज्ञान दे गई ॥
मंगलवार, १७ जून, २०१४
एहि कहत बधु मन सुख मानी । हमारी बिटिया भई सयानी ॥
जिन्हनि जननी जनक न जाने । जानपनी सो ज्ञान बखाने ॥
हमरी बिटिया अभी से बड़ी हो गई यह कहते हुवे वधु ने अपने मन में बहुंत ही सुख माना । जिस ज्ञान को जननी और जनक नहीं जानते थे । उस ज्ञान का वह बिटिया बड़ी चतुराई पूर्वक व्याख्यान कर रही है ॥
पुचुकारत जनि रागित गाला । सँवारत सिरु लट परे भाला ॥
अँकवारी अस उतरुहु देई । ते साधन पितु मोलक लेई ॥
उसके कोमल एवं अनुरागित कपोलों को पुचकारते हुवे भाल पर पड़ी हुई केश गुच्छ को शीश पर संवारकर । गोद में बैठी बिटिया को माता ने ऐसे उत्तर दिया । कहाँ से लाए का क्या अर्थ है ? यह साधनक तुम्हारे पिता मोल लाए थे ॥
जब मैं बोलि जेइ का लाने । कहे बहु बिचत्र दिब्य बिमाने ॥
पहलै एक रथ बाहिर ठाढ़े । सोचि तव जनि जान अरु बाढ़े ॥
जब मैने कहा ये क्या ले आए तब वे बोले यह बड़ा ही विचित्र एवम दिव्य विमान है पुष्पक है पुष्पक ॥ तुम्हारी माता ने सोचा पहले ही एक रथ घर के बाहिर खड़ा है अब यह पुष्पक और बढ़ गया ॥
रह पूरन तब नगर निबासी । आन कही तव प्रिय संकासी ॥
तेहि जान हमहू संचारीं । जे दुर्भरति दीर्घाहारी ॥
उस समय हम पुराने नगर में निवासरत थे पुराने नगर में निवासरत थे तब तुम्हारी प्रिय संकासिनी ने आकर कहा : -- इस यान को हम भी संचालित कर चुके हैं यह तो बहुंत ही दुर्भर एवं पेटू है तुम लोग नहीं चला पाओगे ॥
सुनत संकासिनि सद बचन, हेरि ऊँच आधार ।
तापर तिन पौढ़ाइ के, दिए मुख पट ओहार ॥
उस संकासिनी की ज्ञान युक्त वचन सुनकर तुम्हारी माता ने एक ऊंचा आधार ढूंढा । और इस साधनक के मुख पर आवरण से ढककर उसपर इसे सुला दिया ॥ ( उस समय से यह ऐसे ही विश्राम कर रहा है ) ॥
बुधवार, १८ जून,२०१४
मति बिनु मत गति बिनु आहारे । एक बहि बाहिर एक भित ठारे ॥
बाहि गतागत हेतुक हेरे । तव जनि अंतर बैसत खेरे ॥
बुद्धि के बिना विचार नहीं आते और आहार के बिना संचरण नहीं होता । आहारहीन होकर यातायात का एक साधन घर के बाहर अवस्थित था एक घर के भीतर ॥ वह वाहन आवागमन के हतु की प्रतीक्षा करता रहता है तुम्हारी जननी हेतु उत्पन्न न कर उसके साथ केवल बाल क्रीड़ाएं करती रहती हैं |
आन बसे अब नबल नबोकस । नभग के नभग रहे नभोकस ॥
भिते श्रुतत पिय बचन धिआ के । चपलइ धी गहि गो पिता के ॥
अब तो हम नए आकाश में भी हम आ बसे । किन्तु यह विहंग भाग्यहीन का भाग्यहीन ही रहा ॥ गृह में परवश करते हुवे जब प्रियतम ने धीआ की बातें सुनी । तब धिया चपलता पूर्वक अपने पिता की गोद में जा बैठी ॥
करिहउँ संगत सखी सों निका । बाल मानस किए रगर अधिका ॥
पितु प्रिय धिए हठ पूर्ण कारे । नभोचर उदर भोजन घारे ॥
मुझे अपनी सखियों के समाज संग संगती करनी है । उसकी बाल बुद्धि ने हठ ही पकड़ ली ॥ तब पिता ने प्रिय तनुभवा की हठ को पूर्ण करते हुवे उस गगनचर के उदर को भोजन से तृप्त कर दिया ॥
चारि जान भर भूसन भेसे । पहिले आपन नाउ प्रबेसे ॥
बैठि भीत अस धिअ दिए हेली। हेर हिरानइ हेलिन मेली ॥
अब वह संचरण हेतु तैयार था सर्वप्रथम उसने अपना नाम की प्रविष्ट की फिर तो वह सुन्दर सुन्दर भेष और आभूषण धारण कर उस बेमान में विचरने लगी ॥ भीतर बैठी धीआ ने ऐसी पुकार लगाई कि उसकी विलुप्त प्राय एवं विस्मृत हो चुकी सखियों ने भी उसे ढूंढकर सस्नेह मिलन किया ॥
संगती संगनिका प्रति, जनि मन संसय होइ ।
जहँ गुन अवसि तहँ दोषहु होहिहि कोइ न कोइ ॥
इस सामाजिक संगती-फंगति के प्रति माता के मनो-मस्तिष्क में कन्चित संशय हुवा । ( उसने सोचा) यदि इस साधन यदि गुण की वह घर बैठे सूचनाओं का आदान-प्रदान करने में सक्षम है तो कोई न कोई दोष भी अवश्य ही होगा ॥
बृहस्पतिवार, १९ जून, २०१४
देवनहारे दिए निर्देसे । जुगता धारिहि खेत प्रबेसे ॥
दिए बयस सींव धिआ न गाही । ए कर जननि पथ दरसत जाही ॥
देने वाले ने आवश्यक निर्दश दिए थे योग्यता धारी ही इस सीमा बद्ध स्थान में प्रवेश करें । पुत्रिका ने दी गई आयु सीमा प्राप्त नहीं की थी ॥ इस कारण जननी उसका पथ प्रदर्शन करती जाती ॥
बिद्या भवन सौं आवइ घर । श्रम हारत चढ़ेउ ता ऊपर ॥
कौतूहल बस गगन बिहारे । सोइ खेत सन जननी चारे ॥
जब वह विद्यालय से जब घर लौटती तब अपनी थकान मिटाकर उस यान पर आरोहित हो जाती ॥ और कौतुहल वश गगन में विहार करने लगती । उस संगोष्ठी क्षेत्र में प्रवेश करते समय जननी उसके साथ रहती॥
जानै कहुँ जनि बुद्धि बिसेखे । दीठी भर भर चहुँ पुर देखे ॥।
को बिरदैत कपटी भेसा । को भोगी जटा जुट केसा ॥
उस क्षेत्र की विशेष बुद्धि को परीक्षार्थ हेतु जननी अपनी दृष्टि को विस्तार देकर चारों और देखा करती ॥ वहां कोई बड़े नामवाला था जो कपटी वष धारण किए हुवे था कोई भोगी था जो जटाओं और जूट के सदृश्य केश रखे हुवे था ॥
बिरध बाल बन बालक बिरधा । दिवस राति कँह गरल कँह सुधा ॥
को भाँति भाँति के रूप धरे । छली जग छलन कोउ नर हरे ॥
वृद्ध वहां बालक हो गए थे बालक वृद्ध जो दिवस को रात कहते विष को अमृत कहते अर्थात ज्ञान से कच्चे थे ॥ कोई विभिन्न प्रकार के वेश धरे हुवे था । कोई छलिन था जो जग को छलने के लिए नर हरि बना हुवा था ॥
लिखि कुंजर को मसक समाने । मूसक निज बन केसरि माने ॥
नर नारी नारी नर होई नर कि नारी चिन्ह न कोई ।॥
कोई मच्छर था जो स्वयं को हाथी समझता था । और कोई अपने आप को वनराज कहता था था वो मूसक ही ॥ जो सम्मुख है वह नर है कि नारी है यह रहस्य ही रहता । अर्थात यहां नर नारी नारी नर का रूप धारण किए हुवे था । सार यह है कि यहां बाह्य काया निर्गुण स्वरूप में एवं अंतरमन सगुण स्वरूप में था ॥
बेमान दिखाए बधु पुनि भाँति भाँति के देस ।
बैस निबासी भर जहाँ, आनि बानि के भेस ॥
उस विमान ने वधु को भाँती भांति के संगोष्ठी क्षेत्र दर्शाए । जहां इस भू लोक के निवासी विभिन्न प्रकार के वेश भरे बैठे दखाई देते ॥
शुक्रवार, २० जून, २०१४
भू कंटक कहुँ सेल बिसाला । कूप बाँपि के पड़े अकाला ॥
जान देइ आयसु सिरु धारे । कहत गत सोइ देस उतारे ॥
कहीं कंटक युक्त भूमि खंड कहीं बड़े बड़े पत्थर थे । कूप बावली का तो अकाल था । विमान, चालक की आज्ञा सिरोधार्य करता । चालाक जहां कहता वह उसी देश में उतार देता ॥
ज्ञान नयन सद बचन प्यासे । भूरि घन बन न मिलै सकासे ॥
कबहु मत घन गगन मन घेरहि । बरखन गिर बन कानन हेरहि ।
ज्ञान के चक्षु सद्वचनों की तृष्णा थी । घने वन ने उसे अवगुंठित किये हुवे था वह निकट कहीं दृष्टि गत नहीं हो रहा था ॥ कभी जब विचारों के घन चित के गगन को घेर लेते । फिर वर्षण हेतु किसी सुदेश की निरूपण में लग जाते ॥
नवल पथिक पथ बहुस प्रकारे । जानइ पुरनइ जाननिहारे ॥
कबहु जान जब लिए आबरतन । बहुरे पथिक निज बासि सदन ॥
पथिक नए थे पथ बहुंत प्रकार के थे जिन्हें पुराने जानने वाले ही जानते ॥ । जब कभी विमान भंवरी लेने लगता तब पथिक भयवश अपने निवासित सदन में लौट आते ॥
बिरति रयन जब नवल बिहाने । चढ़े जान पुनि पाख बिताने ॥
तनु भवा संग सखी समाजे । किए संगत निज भवन बिराजे ॥
रयनी का अवसान होता और नवल विहान होता तब यात्री पूण: उस पुष्पक विमान पर विराजित होकर उसके पंख विस्तारित कर देते ॥ पुत्रिका अपने भवन में ही विराजित होकर अपनी सखी मंडली के संग संगती करती ॥
जननि तेहि चेताबत चेते । अपरचन मिलत करे न हेते ॥
जननी उसे चेतावनी देते हुवे सावधान करती कि यहां अपरिचित के संग मित्रता मति करियो ।
अहबानी सगात रूप जब लग लेइ न जान ।
चाहे मित बधाउन को, केतक दे अहबान ।।
जब तक उस आह्वानी से सशरीर स्वरूप में परिचय न हो जाएं ॥चाहे वह सखिता हेतु कितना भी आह्वान करे ॥
शनिवार, २१ जून, २०१४
एक दिन एक सन गोठी खेहा । संकोचित चित सहित सनेहा ।\
गोठ करन बधु ठिआ रचाई । नाउ धरत दुइ गोठ गठाई ॥
एक दिन एक संगोष्ठी क्षेत्र में संकोचित चित्त से स्नेह सहित वार्तालाप करने हेतु वधु ने भी एक डेरा रचा । और अपना नामांकन कर दो बात गाँठ बाँधी ॥
दिए खाँच बीच निज चित्र दाने । अह्वानत सखि पंथ जुहाने ॥
धिआ सखि बहु संख्यक होई । बधु सन सखिता बधे न कोई ॥
दिए गए खांचे के मध्य चित्र भी चित दिया ॥ और केवल वार्तालाप के हेतु किसी सखी की प्रतीक्षा करने लगी ॥ धीआ की मित्र बहु संख्यी हो चले थे । वधु के संग कोई मित्रता स्थापित नहीं करता ॥
ठोर ठोर प्रति बधु करि सोधा । देखी जहँ तहँ पथिक प्रबोधा ॥
कारभवन को नगर निबासे । को निज आँगन बैठ सुपासे ।।
फिर वह प्रत्येक स्थान का अन्वेषण करने लगी । उसने जहाँ तहाँ प्रबुद्ध पथिकों को देखा ॥ कोई कार्यायल कोई नगर में कोई निवास में और कोई अपने आँगन में सुखपूर्वक विराजित हो कर मैत्री किए॥
बृहद निकर को लघु समुदाया । हेलत हेतत् करहि मिताया ॥
जे नहि मित्र दुःख होहि दुखारी । तिन्हनि लोकत पातक भारी ॥
कोई वृहद समूह में कोई लघु समुदाय में हेल-मेल करते हुवे मित्रता कर रहे थे ॥ जो मित्र अपने मित्र के दुःख में दुखित न हो । धर्म एवं नीति के विरुद्ध किए जाने वाला आचरण उनकी प्रतीक्षा करता है ॥
बरे अग्यान होत पतंगा । दीप सिखा ग्यान सत्संगा ॥
जो को जन दुरसंगत कीन्हि । जग लग कुल कज्जल सम चीन्हि ॥
ज्ञान की सत्संगी दीप शिखा में ज्ञान रूपी पतंगा जा कर भस्म हो जाता है ॥ यदि कोई कुसंगति करता है, उसका परिचय संसार भर में कुल कलंक के सदृश्य होता है ॥
कुसंगी सोंह कोइरी, राजा हो की रंक ।
बरता करतल बार दे, बुझता देइ कलंक ॥
कुसंगी चाहे राजा हो अथवा रंक वह कोयला के समतुल्य है । उसका सम्बद्ध जाते हुवे कोयले के सदृश्य हथेली को जला देता है एवं सम्बन्ध विच्छेदन उसे कलंकित कर देता है ॥
रवि/सोम, २२/२३ जून, २०१४
यह चितबन् चिद् गगन अवासा । अंतर बाहिर करत बिलासा ।।
जाके लोचन ज्ञान बिबेका । दोइ पलक पट नाउ अनेका ॥
यह चित्त यह चित्त शुद्ध ज्ञान स्वरूपी ब्रह्म का आवास है । यह अंतर बाहिर दोनों स्थानों में रमण करता है ॥ ज्ञान और विवेक ही इसके नेत्र ( गवाक्ष ) हैं । इस नेत्र के दो पलक रूपी आवरण हैं जिसके अनेकों नाम है; दुर्बुद्धि, मंदमति आदि ॥
भाग अभाग भेद भय भ्रांति । भूख प्यास अलक के पांति ॥
दुर्भेवाग्रह उक्ति दुरासा । दुर्नय अन्वय किए प्रत्यासा ॥
भाग्य, अभाग्य, रहस्य, भय, भ्रान्ति, क्षुधा, तृष्णा आदि इस पलक की अलकावली हैं ॥ यह आशंकाऐं दुराग्रह, बुरी युक्तियाँ, बुरी आशाएं अविनय, बुरे निष्कर्ष की प्रत्याशा में रहता है ॥
हर्ष सोक इहाँ के निबासी । काम क्रोध जहँ कारावासी ॥
सम दम संजुग सद आचारा । दया कृपा सत राख दुआरा ॥
हर्ष शोक ताप आदि विषय यहां के निवासी हैं । काम क्रोध मद लोभ जहां कारावासी हैं ॥ समानता, संयम,सदाचार धर्म के चार चरण इसके द्वार रक्षक है ॥
गुन गात सुधात ज्ञान ज्ञाता । सस रैन सुधात रबि प्रभाता ।।
सुध्युपासय अगजग सुधाता । सुधात बिनु सब होत उत्पाता । ॥
गुण, गात्र को सुवस्थित करता है शशी रयन की व्यवस्थापिका है सूर्य प्रभात का व्यवस्थापक है ॥ ईश्वर समस्त संसार का व्यवस्थापक है । व्यवस्थापक के बिना अर्थात ईश्वर पर अविश्वास के कारण समस्त उत्पातों कारण हैं ॥
उर बिनु पाँख चरै बिनु चरना । तन बिनु परस श्रुतत बिनु करना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बर जोगी ॥
यह चित्त बिन पंख के ही उड़ान भरता है बिना चरण के गतिवान रहता है । यह त्वचारहित है तथापि स्पर्श अनुभव करता है कारण रहित है तथापि श्रवण करने में सक्षम है ॥
रसन रहित सब रसनी रसिका । गहने बास सब रहित नसिका ॥
बनु कर करम करै बिधि नाना । देह रहित पर देहि समाना ॥
यह रसना हीन है तथापि सभी रसों का आस्वादन करता है । यह नासिका रहित है तथापि सभी गंधों का ग्राही है । यह हस्तहीन है तथापि विविध प्रकार के कार्य क्रियान्वित करता है । सारांश में यह देह रहित है किन्तु देह धारियों के सदृश्य है ॥
मन राग सब राग है, मन लागे सब लाग ।
मन जागे सब जाग है, मन धागे सब धाग ॥
चित्त के अनुरागित होने से ही सभी रागों का अस्तित्व है । मन में द्वेष होने से ही, द्वेष का अस्तित्व है । चित्त के विवेक की जागृत वास्तविक जागरण है । चित्त के सूत्र में सभी इन्द्रियों के सूत्र आबद्ध हैं अत: यह एक सूत्रधार भी है ॥
काम भाव गति मनस सुभावा । लहे अनुभूति कृत उद्भावा ॥
अलख रूप धन बरन सनेहा । भाव सील सथ परम उरेहा ॥
अभिाषाएं, विचार और परिचारण यह मनोमस्तिष्क का स्वभाव है वह कल्पना कर उससे अनुभूति प्राप्त करता है ॥ यह अदृशय है रूप सम्पदा एवं वर्णों का स्नेही है । यह भावों से भरा हुवा एवं उसके लय में लीन एक परम चित्रकार है ॥
जिए जीवन उरेह रखि लाखे । जिन्ह न जिए तिन्हनि लिख राखे ॥
अपलक नैन पलक पट ढारे । चह जब दरसत दरसनहारे ॥
जितना जीवन जी लिया गया उसके उसके जाने कितने चित्र चित्रांकित किए रखता है । जिस जीवन को नहीं जिया उसका भी चित्रीकरण सहेजे रखता है ॥ अपलक नेत्र में पलकों के पट ढार दर्शन करने वाले चाहे जब इनका दर्शन कर सकते हैं
भूतबता को होइ नहोई । एहि चितेरा सकल लिख जोई ॥
होतबता को होवनि हारे। चितेरु पहलेही लिख धारे ।
कोई भूतव्यता हुई हो अथवा न हुई हो । यह चित्रकार सभी कुछ चित्रित कर संकलित रखता है ॥ कोई भवितव्यता होने वाली हो यह चित्रकार उसका पूर्वानुमान कर प्रकल्पित कर लेता है ॥
यह बादिक मन परम लिखेरा । जान केत सुमिरन लिख केरा ॥
बिरत काल जहँ कहँ कछु देखा । सुरत सकल झट मति पट लेखा ॥
यह वाचाल चित्त एक परम लेखक है । इसने जाने कितने संस्मरण लिख रखे हैं । बीते काल में जहां कहीं कुछ देखा उसे स्मरण कर इसने तत्काल ही चित्त के पट में उल्लखित कर दिया ॥
मन महा गनक महा कबि, मन महा कहनि कार ।
कतहुँ कल्पना कृत कथै , कतहुँ त देख निहार ॥
यह चित्त महा लेखापाल महा कवि है यह चित्त एक महा कथा कार भी है । कहीं यह कल्पनाएं रचित कर कथा करता है कहीं यह वास्तविकता को देखकर कथन करता है ॥
मंगलवार, २४ जून, २०१४
चितबन् जब कोउ कथन गठिते । कल्पना त्वरित चरित रचिते ॥
कृत कृति चित छिति जुगत जुगाहे । गढे कथा कहुँ कहनइ चाहे ॥
चितवन जब कोई कथन गठित करता है कल्पना तत्काल ही उस कथा के चरित्र की रचना कर देती है ॥ तब कृत एवं कृतियाँ चित्त के क्षितिज पर युक्तियाँ संकलित करती है ॥ और गढ़ी हुई कथाएं कहीं कहने की अभिलाषा में रहती हैं ॥
भाव ब्यंजन साधन बानी । सह भंगिमन गहै सब प्रानी ॥
भाषा साधन बिधि मनु दाने । बुद्धि उपजोग दिए बरदाने ॥
भाव के अभिव्यंजन का साधन है वाणी , संग में भंगिमाएं । भाव भंगिमाएं विधि ने सभी प्राणियों को प्रदत्त किया है ॥ मनुष्य को जो भाषा का साधन प्रदान किया वह बुद्धि के उपयोग हेतु जैसे उसे वरदान सिद्ध हुई ॥
रसना धनु बानी गुन माने । धुनी बान संधान बिताने ॥
जब करन रंध्र लख बीथि चरे । सीध बँधे तो हरिदै उतरे ॥
जिह्वा यदि धनुष है तो वाणी प्रत्यंचा । जिसमें शब्द के बाण संधान कर यदि प्रस्तारित कर जब यह कर्ण रंध्र की लक्ष्य वीथी पर चलता है तब यदि सीध बंधा हो तो यह सीधे हृदय में उतरता है ॥
बधु चितहु रचे बहु उद्भावा । सुठि साधन बिनु कहन न आवा ॥
धुनी बरन बिनु गई न बखानी । अपरचन रहे मसि पथ धानी ॥
वधु के चित्त ने भी बहुंत सी कल्पनाए थी । किन्तु उत्तम साधन से रहित वह चित्त अपनी कल्पनाओं को उद्भाषित करने में असमर्थ था ॥ शब्द एवं वर्ण हीनता के कारण वह कल्पित कथन कहीं कहे नहीं गए । इस प्रकार चित्त की लेखनी मसि धानी से भी अपरिचित ही रही ॥
जब सों गयउ बालकपन, गढे बहुतहि कहाइ ।
प्रेरण लगन बिनु साधन, लिखेरन नहीं आइ ॥
जब से बचपन व्यतीत हुवा तब से चित्त ने बहुंत सी कहानियां गढ़ी । प्रेरणा, लगन एवं साधन से रहित होकर अंतर भावों की कहीं व्यंजना नहीं हो सकी ॥
बुधवार, २५ जून, २०१४
ते अवसर मन मनस अगासे । चरित्र गठित कछु कथा न्यासे ।।
कल्पना कृत कथन क्रम जोगे । कहनि चरन पत्र पंथ बिजोगे ॥
उस समय मन मानस के आकाश में चरित्र का गठन किए कुछ कथाएँ न्यासित थी । कल्पनाओं ने कथन के क्रम को संयोजित किया हुवा था । किन्तु उसके चरण पत्र के पंथ से वियोजित थे ॥
करत चित्रित एक चरित नाइका । जासु रचित संभृतभूमिका ॥
जोइ रहे एक चिकित्सिका ॥ लवंग कलिका लवन लसनिका ॥
यह कथा एक चरित्र नायिका का चित्रण करती । जसमें उस चरित्र की केंद्रीय भूमिका थी ॥ वह चरित्र नायिका लवंग लतिका स्वरुप में एक लावण्य श्री चिकित्सिका थी ॥
कल केस रचित लमनी लसना । कमल नयन पूरन निभ बदना ॥
पुनि एक दिवस बैस बैमाना । प्रचर चरन बधु पांख बिताने ॥
उसके केश सुरुचि पूर्ण होकर लम्बे एवं आकर्षक थे । नयन कमलिन होकर मुख पूर्ण चन्द्रमा के सदृश्य प्रतीत होता ॥ फिर एक दिन विमान में आरोहित हो पंख को विस्तार दिए वधु गगन वीथी में विहार कर रही थी ॥
चित प्रेरित सिरु लागि अकासा । परसत चरी मरुत उन्चासा ॥
गोठी खेह जब दिए दिखाई । खाँच खचित सब करत मिताई ॥
उनचास प्रकार की वायु के स्पर्श प्राप्त कर चित्त से वह ऐसी प्रेरित हुई कि उसका सिर आकाश से जा लगा और बहुंत दुखा । उसे जब वहां से फिर वही संगोष्ठी क्षेत्र दिखाई दिया जहां खाँचो में खचित होकर पुर्ववत सब मित्रता करने में व्यस्त थे॥
तबहि विचार हंस चरन तिरि मन मानस माहि ।
कल्प कारू रचे चरित्र , हेरए काहू नाहि ॥
तभी उसके के मन-मानस में विचार का एक कल हंस तैरने लगा । वह विचार यह था कि कल्पकार रूपी चित्त ने जिस चरित्र को गढ़ा है क्यों न उसे ढूंडा जाए ॥
बृहस्पति वार, २६ जून, २०१४
को लिखेरी न को कबि होई । करए बधूटी चित कह सोई ॥
तिन्ह तैं जेहि साँच असंका । अनबोधित अति जड़ मति रंका ॥
वधु न तो कोई लेखनहार थी न कोई कवि ही थी । उसका चित्त जो कहता वह वही करती । उसके सम्बन्ध में यह असंकित सत्य है कि वह एक अज्ञानी अत्यधिक जड़ एवं बुद्धि से निर्धन थी ॥
करत कथा चित अति इतराया । रूचि रंजन उद्भाव रचाया ॥
नारी जात सुभावहि होऊ । गहि सो कह बिन रहे न कोऊ ॥
उसकेचित्त ने अति गर्वाचारी होकर जिस कथा की रचना की । यथार्तस उसे कल्पना ने रूचि एवं मन रंजन हेतु रचा था ॥ नारी जाति का यह स्वभाव ही है की वह अंतर जगत को प्रकट किए बिन नहीं रहती ॥
मलिन मनस अवगुन बहुतेरे । रसालिक लेख रस गुन पेरे ॥
बिनु अनुमति के दूजइ ठावा । प्रबसि बलइ जस चरन धरावा ॥
यह मलिन मानस अवगुणों से पूर्णित है यह ईख के स्वरूप है जो रूपी रसों को कर केवल उनका ही उल्लेख करता है ॥ किसी निजी स्थल में अनुमति रहित प्रवेश बलपूर्वक व्यतिक्रमण के जैसे हैं ॥
समालोकन करी जो चाही । बिधि गत समुचित अहहि कि नाही ॥
तेहि अवसर नहीं सो जानहि । देई खाचित छमिअ सयानहि ॥
किसी संगोष्ठी स्थल पर किसी निजी स्थान में निरिक्षण के उद्देश्य से स्वामी के अनुमति से रहित प्रवेश, विधि के उपबंधों के अधीन उचित है अथवा नहीं ॥ तत्समय वधु को यह ज्ञात नहीं था इस भूलचूक को विदुष गण अवश्य ही क्षमा कर देंगे ॥
मूढ़ मूरख निपट पोच, बृद्धि हीन बधु मान ।
हेर दुर्हेतु दूर रह, कौतुकी एही जान ॥
वधु को मुर्ख और निपट अधम व् बुद्धि की दरिद्र समझते हुवे उसे किसी दुर्हेतु से रहित कृत्य के रूप में संज्ञापित कर केवल कौतुक स्वरूप में देखना चाहिए ॥ ( अन्यथा किसी की संचित सामग्री की चोरी अवश्य ही एक अपराध है । )
शुक्रवार, २७ जून, २०१४
खचे खांच चिता अंग अनेका। कहि नहि जाए कि कौन प्रबेका ॥
बिचित्र चरित्र सब रूप बिचेता । कूढ़ कूट कृत केत न केता ॥
निरख परख अरु कछुक उरेहा । चित्रित चरित्र को किए न सनेहा ॥
चहहि ऐसोइ सुमुख सुसाचा । आपनि हरिदै आपहि बाँचे ॥
गिरि कंदर बन कानन हेरे । कबहुँ कोउ कबहूँ को डेरे ॥
एक नयनी को नयन बिहीना । एक करनी को कानन हीना ॥
पथ पर कंकर थर थर बिचरहि । मित पूरब जस हेरत फीरहि ॥
नाक कान हैं को बिकरारी । चिन्ह न कीन्ह पुरुख कि नारी ॥
बर अभरन धरे रूप रुचिरा । संजोइन सब रूप बहिरा ॥
दुष्ट हरिदै दुर्लखन लहिनी । लागसि जस ब्यसन के बहिनी ॥
को जस कीर्ति को धन लाही । सबके अंतर लिखि मुख माही ॥
हेर हेर सब डेरे फिरि, भए बहु दिन गह काल ।
सोचे चित लागसि जगत, भयऊ रूप अकाल ॥
शनिवार, २८ जून, २०१४
एक दिवस जब देस दुआरी । जगाजोत जग लग उजयारी ॥
अरुनाई अचरा कर झूरे । बैभावरि मुख चंदु प्रफूरे ।
बरखा बिगत सरद धरि चरना । पथ पथ बिटप साख धरि परना ॥
बाली कनक साली कनि धरे । मानहु महि तन अभरन पहिरे ॥
दरसत कहुँ तरु साख बिताना । बैस छाईं पाठक थकि नाना ॥
संग परस्पर करत बत कही । पढ़त पुहुप पत मधुप गुंजही ॥
इत बधु प्रिय परिगह सुधि हेरहि । नाउ धरे मुख हेरा दे रहि ॥
तबहि एक नारि दिए देखाई । परिगह सरिबर नाउ धराही ॥
उपमापमेय अलंकृत मुख करि सील श्लोक ।
रही बधु चितबन चितबत तेहि नारि अबलोक ॥
रविवार, २९ जून, २०१४
धवलिमन बदन बिगलित केसा । धवलिमन घन स्यामल भेसा ॥
अरुन रोचन अधर नुरागे । पलकोपबन नयन पुर लागे ॥
कुटिलक भृकुटि जस धनब धनुखा । तोरन तरसत तरन प्रत्युषा ॥
दुइ पदम अधर सुधा सरोबर । रोचन रदन मुकुताबली बर ॥
बरन पत्री बोलै बिनु बोले । कुमुद कुसुम जस कमन कपोले ॥
बसहि तेहि पुर सपन अनेका । मनस गगन भर भूषन भेका ॥
रूप तेज मुख आन निबासा । प्रतिमान जस करै अभिलाषा ॥
चित उलखित प्रतिमित प्रतिलेखे । लेखि का जेहि नयन न देखे ॥
पटतर बधिकार निकर सुहासा । लह सब लछन चरित्र जस भासा ॥
देखि रूप सुधी बिसारी । बेर लग रही रूप निहारी ॥
बरन बरन बर बरन क्रम, रूप बरन बहिराए ।
सो बरनन बरने न जो, अंतर माहि समाए ॥
संचकित संचाइन मैं, सनचत कृत संचाइ ।
बहुरि संचरत बैमान, संचर चरन फिराइ ॥
सोमवार, ३० जून २०१४
जोग कारन बिनु रीतहि रीते । पंच दस दिवस गए अरु बीते ॥
संगोठी के खेतक ताईं । अब लग भल बिधि लेख न पाईं ॥
एक दिन टोही जान तँह आए । नव संगी जहँ देइ देखाए ॥
सत संगति संगीति सुहाई । जात पथिक जिमि लेत बुलाई ॥
सत संकलप सार दुइ पाँती । कहत कहबत कथिक बहु भाँती ॥
साधौ दरसन जान समुदाई । देखत बनिअ बरनि न जाई ॥
लेख परस्पर करत प्रसंसा । जिमि मानस बोलत कलहंसा ।।
बचन छाजन बरन के छावा । दरस दिरिस बधु हिय हर्षावा ॥
निरखत जोगत सुथर थरि कबिमय तरुबट छाँउ ।
बधु तहँ तत्पर दंड दिए, रचि एक सुठि ठहराउ ॥
लेइ बनाए बनाउनहारी । अजहुँ बहुस सुठि अली प्यारी ॥
धीआ प्रतिदिन विद्यालय जाती । एक सर्व सुरक्षित वाहनी उस लेने आती ॥ बनाने वाली ने अब तक बहुंत सी सुन्दर वाम प्यारी सखिया बना ली थीं ॥
धनुगुन निकसत सर के नाई । एक दिन पढ़ जब धावत आई ॥
चढ़े बाहु अंतर हिन्दोली । ओदन मुख धर तोतरि बोली ॥
धनुष की म्पत्यांचा से छूटे तीर के जैसे एक दिन वह पढ़कर दौड़ते हुव घर आई ॥ और जननी की गोद के हिंडोेले लेती हुई मुख में भात रखे तोतली भाषा में बोली ॥
जगत न्यारिहि हे री माई । मोरि सखी जे भेद बताई ॥
ऊँच चौंक जो करे बिश्रामा । सनगनक जिन साधनक नामा ॥
जगत से न्यारी हे री मैया मेरी सखियों ने मुझे एक रहस्य वाली बात बताई है ॥ यह उपकरण जिसका नाम संगणक है, जो ऊंची चौकी पर विराजित होकर विश्राम कर रहा है ॥
तिन्हनि मम पितु कहँ सों लाने । जेहि बिचित्र बहु दिब्य बिमाने ।।
ते उपकरन उपजोग अधिका । करवावहै जे संगत संगनिका ॥
से मेरे पिता कहाँ से लाए थे ? यह बहुंत ही विचित्र एवं दिव्य विमान है (ऐसा सखियों ने मुझे कहा )॥ इस साधनक का उपयोग बहुंत अधिक है जो हम नहीं कर रहे हैं । यह संसार सहित समाज से संगती करवाता है ॥
नवल बोध नउ जानपन, दिए जो सखिहि सुजान ।
अजहुँ लही धिए लघु बयस, पर जननी दिए ज्ञान ॥
यह नई बुद्धि नई जानकारी जो धिया को उसकी सखियों ने दी थी । अभी जिसने लघु अवस्था ही प्राप्त की थी किन्तु जननी को वह बड़े के जैसे ज्ञान दे गई ॥
मंगलवार, १७ जून, २०१४
एहि कहत बधु मन सुख मानी । हमारी बिटिया भई सयानी ॥
जिन्हनि जननी जनक न जाने । जानपनी सो ज्ञान बखाने ॥
हमरी बिटिया अभी से बड़ी हो गई यह कहते हुवे वधु ने अपने मन में बहुंत ही सुख माना । जिस ज्ञान को जननी और जनक नहीं जानते थे । उस ज्ञान का वह बिटिया बड़ी चतुराई पूर्वक व्याख्यान कर रही है ॥
पुचुकारत जनि रागित गाला । सँवारत सिरु लट परे भाला ॥
अँकवारी अस उतरुहु देई । ते साधन पितु मोलक लेई ॥
उसके कोमल एवं अनुरागित कपोलों को पुचकारते हुवे भाल पर पड़ी हुई केश गुच्छ को शीश पर संवारकर । गोद में बैठी बिटिया को माता ने ऐसे उत्तर दिया । कहाँ से लाए का क्या अर्थ है ? यह साधनक तुम्हारे पिता मोल लाए थे ॥
जब मैं बोलि जेइ का लाने । कहे बहु बिचत्र दिब्य बिमाने ॥
पहलै एक रथ बाहिर ठाढ़े । सोचि तव जनि जान अरु बाढ़े ॥
जब मैने कहा ये क्या ले आए तब वे बोले यह बड़ा ही विचित्र एवम दिव्य विमान है पुष्पक है पुष्पक ॥ तुम्हारी माता ने सोचा पहले ही एक रथ घर के बाहिर खड़ा है अब यह पुष्पक और बढ़ गया ॥
रह पूरन तब नगर निबासी । आन कही तव प्रिय संकासी ॥
तेहि जान हमहू संचारीं । जे दुर्भरति दीर्घाहारी ॥
उस समय हम पुराने नगर में निवासरत थे पुराने नगर में निवासरत थे तब तुम्हारी प्रिय संकासिनी ने आकर कहा : -- इस यान को हम भी संचालित कर चुके हैं यह तो बहुंत ही दुर्भर एवं पेटू है तुम लोग नहीं चला पाओगे ॥
सुनत संकासिनि सद बचन, हेरि ऊँच आधार ।
तापर तिन पौढ़ाइ के, दिए मुख पट ओहार ॥
उस संकासिनी की ज्ञान युक्त वचन सुनकर तुम्हारी माता ने एक ऊंचा आधार ढूंढा । और इस साधनक के मुख पर आवरण से ढककर उसपर इसे सुला दिया ॥ ( उस समय से यह ऐसे ही विश्राम कर रहा है ) ॥
बुधवार, १८ जून,२०१४
मति बिनु मत गति बिनु आहारे । एक बहि बाहिर एक भित ठारे ॥
बाहि गतागत हेतुक हेरे । तव जनि अंतर बैसत खेरे ॥
बुद्धि के बिना विचार नहीं आते और आहार के बिना संचरण नहीं होता । आहारहीन होकर यातायात का एक साधन घर के बाहर अवस्थित था एक घर के भीतर ॥ वह वाहन आवागमन के हतु की प्रतीक्षा करता रहता है तुम्हारी जननी हेतु उत्पन्न न कर उसके साथ केवल बाल क्रीड़ाएं करती रहती हैं |
आन बसे अब नबल नबोकस । नभग के नभग रहे नभोकस ॥
भिते श्रुतत पिय बचन धिआ के । चपलइ धी गहि गो पिता के ॥
अब तो हम नए आकाश में भी हम आ बसे । किन्तु यह विहंग भाग्यहीन का भाग्यहीन ही रहा ॥ गृह में परवश करते हुवे जब प्रियतम ने धीआ की बातें सुनी । तब धिया चपलता पूर्वक अपने पिता की गोद में जा बैठी ॥
करिहउँ संगत सखी सों निका । बाल मानस किए रगर अधिका ॥
पितु प्रिय धिए हठ पूर्ण कारे । नभोचर उदर भोजन घारे ॥
मुझे अपनी सखियों के समाज संग संगती करनी है । उसकी बाल बुद्धि ने हठ ही पकड़ ली ॥ तब पिता ने प्रिय तनुभवा की हठ को पूर्ण करते हुवे उस गगनचर के उदर को भोजन से तृप्त कर दिया ॥
चारि जान भर भूसन भेसे । पहिले आपन नाउ प्रबेसे ॥
बैठि भीत अस धिअ दिए हेली। हेर हिरानइ हेलिन मेली ॥
अब वह संचरण हेतु तैयार था सर्वप्रथम उसने अपना नाम की प्रविष्ट की फिर तो वह सुन्दर सुन्दर भेष और आभूषण धारण कर उस बेमान में विचरने लगी ॥ भीतर बैठी धीआ ने ऐसी पुकार लगाई कि उसकी विलुप्त प्राय एवं विस्मृत हो चुकी सखियों ने भी उसे ढूंढकर सस्नेह मिलन किया ॥
संगती संगनिका प्रति, जनि मन संसय होइ ।
जहँ गुन अवसि तहँ दोषहु होहिहि कोइ न कोइ ॥
इस सामाजिक संगती-फंगति के प्रति माता के मनो-मस्तिष्क में कन्चित संशय हुवा । ( उसने सोचा) यदि इस साधन यदि गुण की वह घर बैठे सूचनाओं का आदान-प्रदान करने में सक्षम है तो कोई न कोई दोष भी अवश्य ही होगा ॥
बृहस्पतिवार, १९ जून, २०१४
देवनहारे दिए निर्देसे । जुगता धारिहि खेत प्रबेसे ॥
दिए बयस सींव धिआ न गाही । ए कर जननि पथ दरसत जाही ॥
देने वाले ने आवश्यक निर्दश दिए थे योग्यता धारी ही इस सीमा बद्ध स्थान में प्रवेश करें । पुत्रिका ने दी गई आयु सीमा प्राप्त नहीं की थी ॥ इस कारण जननी उसका पथ प्रदर्शन करती जाती ॥
बिद्या भवन सौं आवइ घर । श्रम हारत चढ़ेउ ता ऊपर ॥
कौतूहल बस गगन बिहारे । सोइ खेत सन जननी चारे ॥
जब वह विद्यालय से जब घर लौटती तब अपनी थकान मिटाकर उस यान पर आरोहित हो जाती ॥ और कौतुहल वश गगन में विहार करने लगती । उस संगोष्ठी क्षेत्र में प्रवेश करते समय जननी उसके साथ रहती॥
जानै कहुँ जनि बुद्धि बिसेखे । दीठी भर भर चहुँ पुर देखे ॥।
को बिरदैत कपटी भेसा । को भोगी जटा जुट केसा ॥
उस क्षेत्र की विशेष बुद्धि को परीक्षार्थ हेतु जननी अपनी दृष्टि को विस्तार देकर चारों और देखा करती ॥ वहां कोई बड़े नामवाला था जो कपटी वष धारण किए हुवे था कोई भोगी था जो जटाओं और जूट के सदृश्य केश रखे हुवे था ॥
बिरध बाल बन बालक बिरधा । दिवस राति कँह गरल कँह सुधा ॥
को भाँति भाँति के रूप धरे । छली जग छलन कोउ नर हरे ॥
वृद्ध वहां बालक हो गए थे बालक वृद्ध जो दिवस को रात कहते विष को अमृत कहते अर्थात ज्ञान से कच्चे थे ॥ कोई विभिन्न प्रकार के वेश धरे हुवे था । कोई छलिन था जो जग को छलने के लिए नर हरि बना हुवा था ॥
लिखि कुंजर को मसक समाने । मूसक निज बन केसरि माने ॥
नर नारी नारी नर होई नर कि नारी चिन्ह न कोई ।॥
कोई मच्छर था जो स्वयं को हाथी समझता था । और कोई अपने आप को वनराज कहता था था वो मूसक ही ॥ जो सम्मुख है वह नर है कि नारी है यह रहस्य ही रहता । अर्थात यहां नर नारी नारी नर का रूप धारण किए हुवे था । सार यह है कि यहां बाह्य काया निर्गुण स्वरूप में एवं अंतरमन सगुण स्वरूप में था ॥
बेमान दिखाए बधु पुनि भाँति भाँति के देस ।
बैस निबासी भर जहाँ, आनि बानि के भेस ॥
उस विमान ने वधु को भाँती भांति के संगोष्ठी क्षेत्र दर्शाए । जहां इस भू लोक के निवासी विभिन्न प्रकार के वेश भरे बैठे दखाई देते ॥
शुक्रवार, २० जून, २०१४
भू कंटक कहुँ सेल बिसाला । कूप बाँपि के पड़े अकाला ॥
जान देइ आयसु सिरु धारे । कहत गत सोइ देस उतारे ॥
कहीं कंटक युक्त भूमि खंड कहीं बड़े बड़े पत्थर थे । कूप बावली का तो अकाल था । विमान, चालक की आज्ञा सिरोधार्य करता । चालाक जहां कहता वह उसी देश में उतार देता ॥
ज्ञान नयन सद बचन प्यासे । भूरि घन बन न मिलै सकासे ॥
कबहु मत घन गगन मन घेरहि । बरखन गिर बन कानन हेरहि ।
ज्ञान के चक्षु सद्वचनों की तृष्णा थी । घने वन ने उसे अवगुंठित किये हुवे था वह निकट कहीं दृष्टि गत नहीं हो रहा था ॥ कभी जब विचारों के घन चित के गगन को घेर लेते । फिर वर्षण हेतु किसी सुदेश की निरूपण में लग जाते ॥
नवल पथिक पथ बहुस प्रकारे । जानइ पुरनइ जाननिहारे ॥
कबहु जान जब लिए आबरतन । बहुरे पथिक निज बासि सदन ॥
पथिक नए थे पथ बहुंत प्रकार के थे जिन्हें पुराने जानने वाले ही जानते ॥ । जब कभी विमान भंवरी लेने लगता तब पथिक भयवश अपने निवासित सदन में लौट आते ॥
बिरति रयन जब नवल बिहाने । चढ़े जान पुनि पाख बिताने ॥
तनु भवा संग सखी समाजे । किए संगत निज भवन बिराजे ॥
रयनी का अवसान होता और नवल विहान होता तब यात्री पूण: उस पुष्पक विमान पर विराजित होकर उसके पंख विस्तारित कर देते ॥ पुत्रिका अपने भवन में ही विराजित होकर अपनी सखी मंडली के संग संगती करती ॥
जननि तेहि चेताबत चेते । अपरचन मिलत करे न हेते ॥
जननी उसे चेतावनी देते हुवे सावधान करती कि यहां अपरिचित के संग मित्रता मति करियो ।
अहबानी सगात रूप जब लग लेइ न जान ।
चाहे मित बधाउन को, केतक दे अहबान ।।
जब तक उस आह्वानी से सशरीर स्वरूप में परिचय न हो जाएं ॥चाहे वह सखिता हेतु कितना भी आह्वान करे ॥
शनिवार, २१ जून, २०१४
एक दिन एक सन गोठी खेहा । संकोचित चित सहित सनेहा ।\
गोठ करन बधु ठिआ रचाई । नाउ धरत दुइ गोठ गठाई ॥
एक दिन एक संगोष्ठी क्षेत्र में संकोचित चित्त से स्नेह सहित वार्तालाप करने हेतु वधु ने भी एक डेरा रचा । और अपना नामांकन कर दो बात गाँठ बाँधी ॥
दिए खाँच बीच निज चित्र दाने । अह्वानत सखि पंथ जुहाने ॥
धिआ सखि बहु संख्यक होई । बधु सन सखिता बधे न कोई ॥
दिए गए खांचे के मध्य चित्र भी चित दिया ॥ और केवल वार्तालाप के हेतु किसी सखी की प्रतीक्षा करने लगी ॥ धीआ की मित्र बहु संख्यी हो चले थे । वधु के संग कोई मित्रता स्थापित नहीं करता ॥
ठोर ठोर प्रति बधु करि सोधा । देखी जहँ तहँ पथिक प्रबोधा ॥
कारभवन को नगर निबासे । को निज आँगन बैठ सुपासे ।।
फिर वह प्रत्येक स्थान का अन्वेषण करने लगी । उसने जहाँ तहाँ प्रबुद्ध पथिकों को देखा ॥ कोई कार्यायल कोई नगर में कोई निवास में और कोई अपने आँगन में सुखपूर्वक विराजित हो कर मैत्री किए॥
बृहद निकर को लघु समुदाया । हेलत हेतत् करहि मिताया ॥
जे नहि मित्र दुःख होहि दुखारी । तिन्हनि लोकत पातक भारी ॥
कोई वृहद समूह में कोई लघु समुदाय में हेल-मेल करते हुवे मित्रता कर रहे थे ॥ जो मित्र अपने मित्र के दुःख में दुखित न हो । धर्म एवं नीति के विरुद्ध किए जाने वाला आचरण उनकी प्रतीक्षा करता है ॥
बरे अग्यान होत पतंगा । दीप सिखा ग्यान सत्संगा ॥
जो को जन दुरसंगत कीन्हि । जग लग कुल कज्जल सम चीन्हि ॥
ज्ञान की सत्संगी दीप शिखा में ज्ञान रूपी पतंगा जा कर भस्म हो जाता है ॥ यदि कोई कुसंगति करता है, उसका परिचय संसार भर में कुल कलंक के सदृश्य होता है ॥
कुसंगी सोंह कोइरी, राजा हो की रंक ।
बरता करतल बार दे, बुझता देइ कलंक ॥
कुसंगी चाहे राजा हो अथवा रंक वह कोयला के समतुल्य है । उसका सम्बद्ध जाते हुवे कोयले के सदृश्य हथेली को जला देता है एवं सम्बन्ध विच्छेदन उसे कलंकित कर देता है ॥
रवि/सोम, २२/२३ जून, २०१४
यह चितबन् चिद् गगन अवासा । अंतर बाहिर करत बिलासा ।।
जाके लोचन ज्ञान बिबेका । दोइ पलक पट नाउ अनेका ॥
यह चित्त यह चित्त शुद्ध ज्ञान स्वरूपी ब्रह्म का आवास है । यह अंतर बाहिर दोनों स्थानों में रमण करता है ॥ ज्ञान और विवेक ही इसके नेत्र ( गवाक्ष ) हैं । इस नेत्र के दो पलक रूपी आवरण हैं जिसके अनेकों नाम है; दुर्बुद्धि, मंदमति आदि ॥
भाग अभाग भेद भय भ्रांति । भूख प्यास अलक के पांति ॥
दुर्भेवाग्रह उक्ति दुरासा । दुर्नय अन्वय किए प्रत्यासा ॥
भाग्य, अभाग्य, रहस्य, भय, भ्रान्ति, क्षुधा, तृष्णा आदि इस पलक की अलकावली हैं ॥ यह आशंकाऐं दुराग्रह, बुरी युक्तियाँ, बुरी आशाएं अविनय, बुरे निष्कर्ष की प्रत्याशा में रहता है ॥
हर्ष सोक इहाँ के निबासी । काम क्रोध जहँ कारावासी ॥
सम दम संजुग सद आचारा । दया कृपा सत राख दुआरा ॥
हर्ष शोक ताप आदि विषय यहां के निवासी हैं । काम क्रोध मद लोभ जहां कारावासी हैं ॥ समानता, संयम,सदाचार धर्म के चार चरण इसके द्वार रक्षक है ॥
गुन गात सुधात ज्ञान ज्ञाता । सस रैन सुधात रबि प्रभाता ।।
सुध्युपासय अगजग सुधाता । सुधात बिनु सब होत उत्पाता । ॥
गुण, गात्र को सुवस्थित करता है शशी रयन की व्यवस्थापिका है सूर्य प्रभात का व्यवस्थापक है ॥ ईश्वर समस्त संसार का व्यवस्थापक है । व्यवस्थापक के बिना अर्थात ईश्वर पर अविश्वास के कारण समस्त उत्पातों कारण हैं ॥
उर बिनु पाँख चरै बिनु चरना । तन बिनु परस श्रुतत बिनु करना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बर जोगी ॥
यह चित्त बिन पंख के ही उड़ान भरता है बिना चरण के गतिवान रहता है । यह त्वचारहित है तथापि स्पर्श अनुभव करता है कारण रहित है तथापि श्रवण करने में सक्षम है ॥
रसन रहित सब रसनी रसिका । गहने बास सब रहित नसिका ॥
बनु कर करम करै बिधि नाना । देह रहित पर देहि समाना ॥
यह रसना हीन है तथापि सभी रसों का आस्वादन करता है । यह नासिका रहित है तथापि सभी गंधों का ग्राही है । यह हस्तहीन है तथापि विविध प्रकार के कार्य क्रियान्वित करता है । सारांश में यह देह रहित है किन्तु देह धारियों के सदृश्य है ॥
मन राग सब राग है, मन लागे सब लाग ।
मन जागे सब जाग है, मन धागे सब धाग ॥
चित्त के अनुरागित होने से ही सभी रागों का अस्तित्व है । मन में द्वेष होने से ही, द्वेष का अस्तित्व है । चित्त के विवेक की जागृत वास्तविक जागरण है । चित्त के सूत्र में सभी इन्द्रियों के सूत्र आबद्ध हैं अत: यह एक सूत्रधार भी है ॥
काम भाव गति मनस सुभावा । लहे अनुभूति कृत उद्भावा ॥
अलख रूप धन बरन सनेहा । भाव सील सथ परम उरेहा ॥
अभिाषाएं, विचार और परिचारण यह मनोमस्तिष्क का स्वभाव है वह कल्पना कर उससे अनुभूति प्राप्त करता है ॥ यह अदृशय है रूप सम्पदा एवं वर्णों का स्नेही है । यह भावों से भरा हुवा एवं उसके लय में लीन एक परम चित्रकार है ॥
जिए जीवन उरेह रखि लाखे । जिन्ह न जिए तिन्हनि लिख राखे ॥
अपलक नैन पलक पट ढारे । चह जब दरसत दरसनहारे ॥
जितना जीवन जी लिया गया उसके उसके जाने कितने चित्र चित्रांकित किए रखता है । जिस जीवन को नहीं जिया उसका भी चित्रीकरण सहेजे रखता है ॥ अपलक नेत्र में पलकों के पट ढार दर्शन करने वाले चाहे जब इनका दर्शन कर सकते हैं
भूतबता को होइ नहोई । एहि चितेरा सकल लिख जोई ॥
होतबता को होवनि हारे। चितेरु पहलेही लिख धारे ।
कोई भूतव्यता हुई हो अथवा न हुई हो । यह चित्रकार सभी कुछ चित्रित कर संकलित रखता है ॥ कोई भवितव्यता होने वाली हो यह चित्रकार उसका पूर्वानुमान कर प्रकल्पित कर लेता है ॥
यह बादिक मन परम लिखेरा । जान केत सुमिरन लिख केरा ॥
बिरत काल जहँ कहँ कछु देखा । सुरत सकल झट मति पट लेखा ॥
यह वाचाल चित्त एक परम लेखक है । इसने जाने कितने संस्मरण लिख रखे हैं । बीते काल में जहां कहीं कुछ देखा उसे स्मरण कर इसने तत्काल ही चित्त के पट में उल्लखित कर दिया ॥
मन महा गनक महा कबि, मन महा कहनि कार ।
कतहुँ कल्पना कृत कथै , कतहुँ त देख निहार ॥
यह चित्त महा लेखापाल महा कवि है यह चित्त एक महा कथा कार भी है । कहीं यह कल्पनाएं रचित कर कथा करता है कहीं यह वास्तविकता को देखकर कथन करता है ॥
मंगलवार, २४ जून, २०१४
चितबन् जब कोउ कथन गठिते । कल्पना त्वरित चरित रचिते ॥
कृत कृति चित छिति जुगत जुगाहे । गढे कथा कहुँ कहनइ चाहे ॥
चितवन जब कोई कथन गठित करता है कल्पना तत्काल ही उस कथा के चरित्र की रचना कर देती है ॥ तब कृत एवं कृतियाँ चित्त के क्षितिज पर युक्तियाँ संकलित करती है ॥ और गढ़ी हुई कथाएं कहीं कहने की अभिलाषा में रहती हैं ॥
भाव ब्यंजन साधन बानी । सह भंगिमन गहै सब प्रानी ॥
भाषा साधन बिधि मनु दाने । बुद्धि उपजोग दिए बरदाने ॥
भाव के अभिव्यंजन का साधन है वाणी , संग में भंगिमाएं । भाव भंगिमाएं विधि ने सभी प्राणियों को प्रदत्त किया है ॥ मनुष्य को जो भाषा का साधन प्रदान किया वह बुद्धि के उपयोग हेतु जैसे उसे वरदान सिद्ध हुई ॥
रसना धनु बानी गुन माने । धुनी बान संधान बिताने ॥
जब करन रंध्र लख बीथि चरे । सीध बँधे तो हरिदै उतरे ॥
जिह्वा यदि धनुष है तो वाणी प्रत्यंचा । जिसमें शब्द के बाण संधान कर यदि प्रस्तारित कर जब यह कर्ण रंध्र की लक्ष्य वीथी पर चलता है तब यदि सीध बंधा हो तो यह सीधे हृदय में उतरता है ॥
बधु चितहु रचे बहु उद्भावा । सुठि साधन बिनु कहन न आवा ॥
धुनी बरन बिनु गई न बखानी । अपरचन रहे मसि पथ धानी ॥
वधु के चित्त ने भी बहुंत सी कल्पनाए थी । किन्तु उत्तम साधन से रहित वह चित्त अपनी कल्पनाओं को उद्भाषित करने में असमर्थ था ॥ शब्द एवं वर्ण हीनता के कारण वह कल्पित कथन कहीं कहे नहीं गए । इस प्रकार चित्त की लेखनी मसि धानी से भी अपरिचित ही रही ॥
जब सों गयउ बालकपन, गढे बहुतहि कहाइ ।
प्रेरण लगन बिनु साधन, लिखेरन नहीं आइ ॥
जब से बचपन व्यतीत हुवा तब से चित्त ने बहुंत सी कहानियां गढ़ी । प्रेरणा, लगन एवं साधन से रहित होकर अंतर भावों की कहीं व्यंजना नहीं हो सकी ॥
बुधवार, २५ जून, २०१४
ते अवसर मन मनस अगासे । चरित्र गठित कछु कथा न्यासे ।।
कल्पना कृत कथन क्रम जोगे । कहनि चरन पत्र पंथ बिजोगे ॥
उस समय मन मानस के आकाश में चरित्र का गठन किए कुछ कथाएँ न्यासित थी । कल्पनाओं ने कथन के क्रम को संयोजित किया हुवा था । किन्तु उसके चरण पत्र के पंथ से वियोजित थे ॥
करत चित्रित एक चरित नाइका । जासु रचित संभृतभूमिका ॥
जोइ रहे एक चिकित्सिका ॥ लवंग कलिका लवन लसनिका ॥
यह कथा एक चरित्र नायिका का चित्रण करती । जसमें उस चरित्र की केंद्रीय भूमिका थी ॥ वह चरित्र नायिका लवंग लतिका स्वरुप में एक लावण्य श्री चिकित्सिका थी ॥
कल केस रचित लमनी लसना । कमल नयन पूरन निभ बदना ॥
पुनि एक दिवस बैस बैमाना । प्रचर चरन बधु पांख बिताने ॥
उसके केश सुरुचि पूर्ण होकर लम्बे एवं आकर्षक थे । नयन कमलिन होकर मुख पूर्ण चन्द्रमा के सदृश्य प्रतीत होता ॥ फिर एक दिन विमान में आरोहित हो पंख को विस्तार दिए वधु गगन वीथी में विहार कर रही थी ॥
चित प्रेरित सिरु लागि अकासा । परसत चरी मरुत उन्चासा ॥
गोठी खेह जब दिए दिखाई । खाँच खचित सब करत मिताई ॥
उनचास प्रकार की वायु के स्पर्श प्राप्त कर चित्त से वह ऐसी प्रेरित हुई कि उसका सिर आकाश से जा लगा और बहुंत दुखा । उसे जब वहां से फिर वही संगोष्ठी क्षेत्र दिखाई दिया जहां खाँचो में खचित होकर पुर्ववत सब मित्रता करने में व्यस्त थे॥
तबहि विचार हंस चरन तिरि मन मानस माहि ।
कल्प कारू रचे चरित्र , हेरए काहू नाहि ॥
तभी उसके के मन-मानस में विचार का एक कल हंस तैरने लगा । वह विचार यह था कि कल्पकार रूपी चित्त ने जिस चरित्र को गढ़ा है क्यों न उसे ढूंडा जाए ॥
बृहस्पति वार, २६ जून, २०१४
को लिखेरी न को कबि होई । करए बधूटी चित कह सोई ॥
तिन्ह तैं जेहि साँच असंका । अनबोधित अति जड़ मति रंका ॥
वधु न तो कोई लेखनहार थी न कोई कवि ही थी । उसका चित्त जो कहता वह वही करती । उसके सम्बन्ध में यह असंकित सत्य है कि वह एक अज्ञानी अत्यधिक जड़ एवं बुद्धि से निर्धन थी ॥
करत कथा चित अति इतराया । रूचि रंजन उद्भाव रचाया ॥
नारी जात सुभावहि होऊ । गहि सो कह बिन रहे न कोऊ ॥
उसकेचित्त ने अति गर्वाचारी होकर जिस कथा की रचना की । यथार्तस उसे कल्पना ने रूचि एवं मन रंजन हेतु रचा था ॥ नारी जाति का यह स्वभाव ही है की वह अंतर जगत को प्रकट किए बिन नहीं रहती ॥
मलिन मनस अवगुन बहुतेरे । रसालिक लेख रस गुन पेरे ॥
बिनु अनुमति के दूजइ ठावा । प्रबसि बलइ जस चरन धरावा ॥
यह मलिन मानस अवगुणों से पूर्णित है यह ईख के स्वरूप है जो रूपी रसों को कर केवल उनका ही उल्लेख करता है ॥ किसी निजी स्थल में अनुमति रहित प्रवेश बलपूर्वक व्यतिक्रमण के जैसे हैं ॥
समालोकन करी जो चाही । बिधि गत समुचित अहहि कि नाही ॥
तेहि अवसर नहीं सो जानहि । देई खाचित छमिअ सयानहि ॥
किसी संगोष्ठी स्थल पर किसी निजी स्थान में निरिक्षण के उद्देश्य से स्वामी के अनुमति से रहित प्रवेश, विधि के उपबंधों के अधीन उचित है अथवा नहीं ॥ तत्समय वधु को यह ज्ञात नहीं था इस भूलचूक को विदुष गण अवश्य ही क्षमा कर देंगे ॥
मूढ़ मूरख निपट पोच, बृद्धि हीन बधु मान ।
हेर दुर्हेतु दूर रह, कौतुकी एही जान ॥
वधु को मुर्ख और निपट अधम व् बुद्धि की दरिद्र समझते हुवे उसे किसी दुर्हेतु से रहित कृत्य के रूप में संज्ञापित कर केवल कौतुक स्वरूप में देखना चाहिए ॥ ( अन्यथा किसी की संचित सामग्री की चोरी अवश्य ही एक अपराध है । )
शुक्रवार, २७ जून, २०१४
खचे खांच चिता अंग अनेका। कहि नहि जाए कि कौन प्रबेका ॥
बिचित्र चरित्र सब रूप बिचेता । कूढ़ कूट कृत केत न केता ॥
निरख परख अरु कछुक उरेहा । चित्रित चरित्र को किए न सनेहा ॥
चहहि ऐसोइ सुमुख सुसाचा । आपनि हरिदै आपहि बाँचे ॥
गिरि कंदर बन कानन हेरे । कबहुँ कोउ कबहूँ को डेरे ॥
एक नयनी को नयन बिहीना । एक करनी को कानन हीना ॥
पथ पर कंकर थर थर बिचरहि । मित पूरब जस हेरत फीरहि ॥
नाक कान हैं को बिकरारी । चिन्ह न कीन्ह पुरुख कि नारी ॥
बर अभरन धरे रूप रुचिरा । संजोइन सब रूप बहिरा ॥
दुष्ट हरिदै दुर्लखन लहिनी । लागसि जस ब्यसन के बहिनी ॥
को जस कीर्ति को धन लाही । सबके अंतर लिखि मुख माही ॥
हेर हेर सब डेरे फिरि, भए बहु दिन गह काल ।
सोचे चित लागसि जगत, भयऊ रूप अकाल ॥
शनिवार, २८ जून, २०१४
एक दिवस जब देस दुआरी । जगाजोत जग लग उजयारी ॥
अरुनाई अचरा कर झूरे । बैभावरि मुख चंदु प्रफूरे ।
बरखा बिगत सरद धरि चरना । पथ पथ बिटप साख धरि परना ॥
बाली कनक साली कनि धरे । मानहु महि तन अभरन पहिरे ॥
दरसत कहुँ तरु साख बिताना । बैस छाईं पाठक थकि नाना ॥
संग परस्पर करत बत कही । पढ़त पुहुप पत मधुप गुंजही ॥
इत बधु प्रिय परिगह सुधि हेरहि । नाउ धरे मुख हेरा दे रहि ॥
तबहि एक नारि दिए देखाई । परिगह सरिबर नाउ धराही ॥
उपमापमेय अलंकृत मुख करि सील श्लोक ।
रही बधु चितबन चितबत तेहि नारि अबलोक ॥
रविवार, २९ जून, २०१४
धवलिमन बदन बिगलित केसा । धवलिमन घन स्यामल भेसा ॥
अरुन रोचन अधर नुरागे । पलकोपबन नयन पुर लागे ॥
कुटिलक भृकुटि जस धनब धनुखा । तोरन तरसत तरन प्रत्युषा ॥
दुइ पदम अधर सुधा सरोबर । रोचन रदन मुकुताबली बर ॥
बरन पत्री बोलै बिनु बोले । कुमुद कुसुम जस कमन कपोले ॥
बसहि तेहि पुर सपन अनेका । मनस गगन भर भूषन भेका ॥
रूप तेज मुख आन निबासा । प्रतिमान जस करै अभिलाषा ॥
चित उलखित प्रतिमित प्रतिलेखे । लेखि का जेहि नयन न देखे ॥
पटतर बधिकार निकर सुहासा । लह सब लछन चरित्र जस भासा ॥
देखि रूप सुधी बिसारी । बेर लग रही रूप निहारी ॥
बरन बरन बर बरन क्रम, रूप बरन बहिराए ।
सो बरनन बरने न जो, अंतर माहि समाए ॥
संचकित संचाइन मैं, सनचत कृत संचाइ ।
बहुरि संचरत बैमान, संचर चरन फिराइ ॥
सोमवार, ३० जून २०१४
जोग कारन बिनु रीतहि रीते । पंच दस दिवस गए अरु बीते ॥
संगोठी के खेतक ताईं । अब लग भल बिधि लेख न पाईं ॥
एक दिन टोही जान तँह आए । नव संगी जहँ देइ देखाए ॥
सत संगति संगीति सुहाई । जात पथिक जिमि लेत बुलाई ॥
सत संकलप सार दुइ पाँती । कहत कहबत कथिक बहु भाँती ॥
साधौ दरसन जान समुदाई । देखत बनिअ बरनि न जाई ॥
लेख परस्पर करत प्रसंसा । जिमि मानस बोलत कलहंसा ।।
बचन छाजन बरन के छावा । दरस दिरिस बधु हिय हर्षावा ॥
निरखत जोगत सुथर थरि कबिमय तरुबट छाँउ ।
बधु तहँ तत्पर दंड दिए, रचि एक सुठि ठहराउ ॥