Monday, May 19, 2014

----- ॥ सोपान पथ १४ ॥ -----

जब निरनय दृढ़चेतस भयऊ । मात पिता पहि प्रीतम गयऊ ।। 
बात करत गत बात बताई । कछु कारन बस हेतु गुँठाई ॥ 
जब प्रवास का निर्णय दृढ़ हो गया । तब प्रियतम माता-पिता के पास गए । बातो बातों में ही उन्हें प्रवास की बात बता दी  । कुछ कारणों से प्रवास के उद्देश्य को छुपाए रखा ॥ 

सुनत गत बचन नयन भर आए । मात उर अंतर कहि नहि जाए ॥ 
कथन करुक पर मन की भोली । एक पलक लग कछु नाहि बोली ॥ 
उन्होंने जैसे ही यह बात सुनी उनके नेत्र जल से भर गए माता के अंतरतम के भाव वर्णनातीत हैं  ।  कथनों से कड़वी किन्तु मन से अबोध माता एक पल को अवाक रह गई ॥ 

 ब्याकुलित पुनि होत अधीर । सोक जनत उर कहि बहु धीरे ॥ 
जाकी सींउँ  आपनी धामा । जान न सो जग दाहिन बामा ॥ 
फिर व्याकुल होते हुवे अधीर स्वरूप में शोक जनित ह्रदय से बहुंत ही धीरे से बोली । जिसकी सीमा अपने घर तक ही सिमित हो वह संसार के दाएं-बाएं को  क्या जाने ॥ 

होए बिधि जो तुहरे नयाऊ । करिए समझ सुत सोइ उपाऊ ॥ 
हमारी काया बिरधा जोही । बे हानि कृत बयोगत् होही ॥ 
जो विधायन तुम्हारे लिए हितकर हों हे पुत्र समझते बुझते हुवे तुम वही उपाय करना । हमारी काया तो वृद्ध अवस्था को प्राप्त हो गई है । आगे और आयु की हानि होगी और यह वयोवृद्ध होती जाएगी ॥ 

चोट चपेट कि को रुज धरहीं । बिना ठोट को जोहन करहीं ॥
लोचन तव दरसन तरसाहीं । सुबारथ  मन सेउ सब चाहीं ॥  
कोई चोट के चपेट में आने  अथवा रोग ग्रस्त हो  बिना तुम्हारे हमारी  देखरेख कौन करेगा ॥ ये नेत्र  पुत्र के दर्शन को भी तरस जाएंगे । यह मन बहुंत ही स्वार्थी है जो अपने सभी पुत्रों की सेवा चाहता है ।। 

-अकुलाइ  मात प्रिय जात, होरत सबहीँ भाँति । 
जात सोंह अवनत सीस, बर मुख मलिनै काँति ॥  
 व्याकुल माता अपने प्रिय पुत्र को सभी भांति से रोकती हैं । किन्तु पुत्र शीश अवनत किए है उसकी मुख की कांटी मलिन स्वरूप हो गई हैं ॥ 

मंगलवार, २० मई, २ ० १ ४                                                                                                             

प्रिय  मात केहि बिधि समुझाई । सिथिर चरन सह पिय बहुराई ॥ 
निज सम्मति सबहि तुलन तोले ।  पहुंचत गेह बधु सोंह बोले ॥ 
प्रिय माता को किसी भांति समझाकर प्रियतम शिथिल चरणों के सह लौटे । अपने प्रवास के विचार को  भली भांति परखते  घर पहुंचे और वधु से बोले ॥ 

जुगाउन सबइ साज समाजू । गवन परन पुर लागहु काजू ॥ 
बरे मुख परम गम्भिरि बानी । सह सम्मत  बधु आयसु मानी ॥ 
कार्य में लग जाओ, पराए नगरी में प्रवास हेतु सभी साज सामग्री एकत्र करो । प्रियतम के मुख ने गंभीर वाणी वरण की हुई थी उनके सम्मति से सहमत होकर वाणी को आज्ञा स्वरूप मानकर : -- 

बहुरि निसदिन भोर मह जागए  । गेहस जोग जमोगन लागए ॥ 
चिन्हत  एक एक सँजुग सँजोवए ।  होइ जोग जो सो सो जोगए ॥ 
प्रतिदिवस भोर ममें ही जागृत हो गृहस्थी की सभी आवश्यक साज-सामग्री एकत्र करती ॥ चिन्हित करते हुवे एक  सामग्री संजोती जो उपयोग के योग्य होता उसे संकलित कर लेती ॥ 

 गमन उदंग पाए संकासू । करत नेह भए बहुस निरासू ।। 
कहत बाल सों रे बड़ भागी । तुहरे गत हम भयउ एकागी ॥ 
प्रतिवेशी को जब प्रस्थान का सन्देश प्राप्त हुवा तब वह बहुंत ही निराश हुवे  एवं  स्नेह करते बालकों से कहने लगे हे रे सौभाग्यशील तुम्हारे जाते ही हम तो एकाकी हो जाएंगे ॥ 

संग करे सुठि हेरत हेली । जे अँगना को करिही केली ।। 
बाटिक बिटप बेलि कुम्लाहीं । जे जावन तो देखि न जाहीं ॥ 
 अपने सुन्दर साथियों का संग किए इस आँगन में अब कौन खेल करेगा । वाटिका के विटप एवं वल्ल्लरियां कुम्हला सी जाएंगी तुम्हारा जाना किसी से देखा नहीं जाएगा ॥ 

कहत पिया सों सब भाँति, सोचत निरनै कारु । 
जामे तुहारे हो भलइ, सोई बात बिचारू ॥   
फिर प्रियतम के सम्मुख होकर कहने लगे सभी भाँती से सोच कर प्रवास का निर्णय कर जो तुम्हारे हित में हो उसी बात पर विचार करो ॥ 

बुधवार, २१ मई, २०१४                                                                                                   

ऐसिहु सम्मति रहि प्रियजन की । सुनि सब की किए आपन मन की ॥ 
गवन पिया पुनि लय प्रभु नामा । देखि अबर पुर एक सुठि धामा ॥ 
प्रियजनों के भी ऐसे ही विचार थे । किन्तु प्रियतम ने सब के विचार सुने और अपने विचार का अनुशरण किया फिर प्रियतम  ईश्वर का नाम स्मरण करते हुवे पराए नगर गए  वहां निवास एक सुन्दर आवास देखा ॥ 

बनत भरैत भवन भरतारे । अगहन भाटक दे दृढ कारे ॥ 
बहुरि सुकुँअरी  सोई देसे । बिद्या निकेतन किए प्रबेसे ॥ 
भाटक वासी बनकर भवन -स्वामी को अग्रिम भाट प्रदाय कर भवन निवास हेतु सुनिश्चित किया ॥ फिर सुकुमारी को उसी देश के विद्या निकेतन में प्रवेश सुनिश्चित किया ॥ 

निबास नगर फिरैं तत्काला । लेइ अधिकोष मह एक आला ।। 
आभूषन सोन सकल धराऊ । आला महही धरे ढकाऊ ॥ 
फिर तत्काल ही निवास नगर लौट कर अधिकोष में एक लघु कोषागार लिया ॥ आभूषण सहित भूमि के पंजीयन पत्र आदि सभी आवश्यक समस्त संचयित धन को उस कोषागार में ही सुरक्षित रख दिया ॥ 

अधिकोष के प्रबंधन करता । धरे धराउन के भए धरता ॥ 
बहुरि एक धूरबाहिनी हेरे  । गेह संजुग  सब जोग सकेरे ।  ॥ 
अधिकोष के प्रबंधन कर्त्ता ही उस धरोहर के  धर्त्ता बने ॥ फिर एक भारवाहक वाहन ढूँडे । गृहस्थी का एकत्रित की गई सभी सामग्री को : -- 

जोगत सारथि भली भाँति  ,  सोइ बाहनी माहि । 
चरत वाके चरन चाँड़ आन नगर पथ लाहि ॥ 
 सारथी ने  साज-सामग्री को भली प्रकार से जोड़कर उस वाहिनी के चरणों को तीव्र गति से संचारित कर पराई नगरी के पथ पर ले गया ॥ 

बृहस्पतिवार, २२ मई, २०१४                                                                                           

बैठ प्रीतम सँग मह गवने । छाँड़त गह संजुग फिरि अवने ॥ 
मात-पिता के प्रनमत पावा । आसिर सिरु जल नयन लहावा ॥ 
प्रियतम साथ में ही बैठ कर गए । और भाटभवन में गृहस्थी साधन को छोड़ लौट आए । फिर माता-पिता के चरणों में प्रणाम किये और शीश पर आशीष एवं नयन में जल प्राप्तकर : - 
  
जोहत पुनि संजोइन सेसा । दे प्रतिबेसी गवन सँदेसा ॥ 

बालकिन्ह सँग चढ़ि रथ माही । अब भवन उठि बिदित कछु नाही ॥ 
पून: शेष सामग्री को संकलित किये  प्रतिवेशी को प्रस्थान का सन्देश देते हुवे बालकों के संग रथारूढ़ हुवे और कब जन्म भूमि से चना-चबेना उठ गया, विदित ही नहीं हुवा ॥ 

चरि प्रजवन रथ चरन प्रपाथा । बिकल धूरि पग लागए साथा ॥ 

नगज नदी तट देउ दुआरू । धरनि धाम धन पुर परिबारू ॥  
रथ वाहिनी के चरण द्रुत गति से लक्ष्य वीथी पर बढे जा रहे थे । धूल कनिका व्याकुल हो चरणों को पकड़े साथ हो ली थीं । पर्वत नदी देवल-द्वार निवास, भूमि, सम्पद, नगरी, परिवार : - 

जहँ जनम जहँ प्रारब्ध जूरे । हरिअरि होइ नयन सोन दूरे ॥ 

बास सोइ जहँ गहसी बासें । न त भए सव मंदिर संकासे ॥ 
जहां जन्म जुड़े था जहां  भाग्य जुड़ा था वह स्थान धीरे धीरे दृष्टि से ओझल हो रहा था । गृह वही हैं जहां गृहाथी बसी हो । अन्यथा वह मंदिर शव मंदिर के सदृश्य है  ॥  

जननी जनित्र  छाँड़ चले, निन्दत आपन आप । 
सोचत जेइ बत दम्पति , उरस भरे परिताप ॥  
जननी को जन्मभूमि को छोड़ जा रहे हैं  स्वयं की निंदा करते हुवे दम्पति का ह्रदय संताप से भरकर इसी विचार में निमग्न था  ॥ 

शुक्रवार, २३ मई, २०१४                                                                                                     

खेह खेड़ बन बाटिक छाँड़त । जूँ जूँ बाहिनि आगिन बाढ़त ॥ 
लागसि जस कहुँ हिय हेराहीं । सुरति बहु पाछि छुटत जाहीं ॥ 
ग्राम, क्षेत्र, वन एवं वाटिकाएं छोड़ते हुवे ज्यों ज्यों रथ वाहिनी आगे बढ़ती ॥ ऐसा गता जैसे कहीं ह्रदय छोड़ आए हैं । उसके सह बहुंत सी स्मृतियाँ भी पीछे छूट गई हैं ॥ 

जुगल उरस अस होहि दुखारे । जस पात कोउ तरु परिहारे ॥ 
छाँड़त पुर बिरहा दव ढाड़े । ताप धरत लोचन घन बाड़े ॥ 
युगल का ह्रदय इस भाँती दुखित था जैसे कोई पत्र अपने वृक्ष को त्याग कर दुखित  होता है ॥ 

पथिक चरन नव नगरी जोगे । करम प्रधान सत्य कहि लोगे ॥ 
सारथी चाँढ़ चरन  संचाए । दिवावसान पूरब पहुँचाए । 

जोरत कर हिचकत लउ लेसे । करें बहुरि नव भवन प्रबेसे ॥ 
बिबिध बसन उपधान तुराईं । कहुँ आसन कहुँ  पलन डसाई ॥ 

 मंदिर देवा मूरत धारी । मंजुल मनि दीपक उजियारी ॥ 
सुभोगमय भोजन भंडारे । बाँध मोच सब साज सँवारे ॥ 

बास  भवन जब नैन उघारी । रैन घिरि छाए अँधियारी ॥ 
अँध्यारिनु बिभावरी घेरे । विभासिनी मुख कांति हेरे ॥ 

दरसे ना कोउ परिचित दूर गगन परिवार । 
देवतीदेव धाम रचित न कहूँ नदी कठार ॥ 

शनिवार, २४ मई, २ ० १ ४                                                                                                       

तिरत कहुँ दरसत न नौका ।  उद्हारिनि न उरत नभौका ।। 
चौपथ पथि  निर्झर गिरिगन । पाए न लोचन को सुख दरसन ॥ 

गहन सांस ले पलक प्रनाई । गहन रैन भइ नयन लगाई ॥ 
जोइ जिउन माह प्रियतम संगे । सोइ निलयन भए सबहि रंगे ॥ 

प्रिया संग प्रिय रहत सुखारी ।  प्रियजन्हि सुरति गइ न बिसारी ॥ 
जब कभू पिय मन करत बिचारी । भ्रात बहिन सह पितु महतारी ॥ 

बालकिन्हि सोन सम्मुख प्रीता । लगन कहत कछु कथा पुनीता ॥ 
जब मन आवइ पर्सन चरने । मात-पिता प्रियजन पहि गवने ॥ 

अस मणिकाम मनोरथ हिना । गाढि परस्पर प्रीत निस दिना ॥ 
एही बिधि दाम्पत्य आन निबासे । पराइ नगरि पराए अबासे ॥ 

आन भए बस चारि दिवस, अरु मन भयउ उचाट । 
सुरताहि निज नगरी के कुञ्ज गली बट हाट॥ 

रविवार, २५ मई, २ ० १ ४                                                                                                         

निकटहि रहै निबास भवन सन । पिआ धीआ के बिदिआ केतन ॥ 
पोथि पंथ धिअ धार एक झोरे । भरे गनबेस गवनइ भोरे ॥ 

पठनसील  निज पितु के नाईं । दोइ पहर पाछिन बहुराई । 
पितु जो दुइ सेउकाए कीन्हि । दोनहु हुँत याचं पत्र दीन्हि ॥ 

लिखे कछुक बिबसता हमारू । ते कर हमहि थानांतर कारू ॥  
सेबक जब मुख भराइ धारे । चरन चाक कृत काज सँवारे ।। 

बिदया गाहन  अस मनि दाने । चन सदमन मन बिपनी जाने ॥ 
श्रमित पिया कहि मोरे भाऊ । अस कुबयबस्था अगन धराऊ ॥  
विद्या ग्रहण करने हेतु जो विद्याधन दिया उसे विद्व्ता हेतु प्रख्यात सदन को व्यापारी मान कर दिया ॥ 


अस नगर परबासँ माहि, लगे बहुतक लागि । 
लागए जैसे हबिर भुक,  गेह धूम धर आगि ॥ 

सोमवार, २६ मई, २०१४                                                                                                      

बहनिहि जोइ धरोहरू राखे । जोग धरत भै अठारि लाखे ॥ 
चारि लाख कंधन कर भारा । देइ पिया बधु कहत उधारा ॥ 

तप ब्रत नेम नीति सब डोलहि । माया पद जब खन खन बोलहि ॥ 
धरम चरन  बेसम अस्थूना । बिपरीत हरिए देवै धूना ॥ 

धरम गर्भ अन्याई लागे । रहे सदा न्याय के सागे ॥ 
सहज जीवन सरलै सुभावा । सनेहिल नयन मन प्रीत भावा ॥ 

काम क्रोध मद लोभ परायन । निर्दय कपटी कुटिल मलायन ॥ 
बयरु अकारन सब काहु सों । जोइ करि हित अनहित ताहु सों ॥ 

बेन चबेन लेन देन, जाके झूठइ झूठ । 
वाके हस्त मुकुल धरे, धाराधर बिनु मूठ ॥  

शनिवार, ३१ मई, २०१४                                                                                                   

एक तौ अपस्मार रुज तापर । भंजित पद पुत परे पलन पर ॥ 
पटिक जनित वके अकुलाई । मात-पिता सों देखि न जाई ॥ 

अधम बुद्धि मुख बानिहि हीना । धरत धुनी उर पीर कही ना ॥ 
राम राम कर जे दिन बीते । एक सुभ दिवा पटिका मोचिते  ॥ 

बदन के बचन धीर बँधाई । कछुक काल पर भल जुग जाही ॥ 
बारहि बार करत अभ्यासा । हरियर कर पद चले सुपासा ॥ 











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