शुक्रवार, ०२ मई, २ ० १ ४
साँझ बहुरि कर पौन पलौनी । पाँतिहि अवतर रैन सलौनी ॥
हरि करि केहरि हिरन बिलौनी । बाल बहुरि लय केलि खिलौनी ।।
अरुण की सेवा-टहल कर साँझ लौट गई । स्वजन वर्ग श्याम सलौनी रैनी के अवतरित होने पर लौटे । बालक वर्ग बन्दर, हाथी, सिंह, हिरन बिलौटने के खेल खिलाङी लेकर लौटे ॥
बहुरि भुजा दुहु तनय गहाई । धरि करज धिए पलन पौड़ाई ॥
भँवर दिनभर सिथिर भए सोई । छन भर सपन नगर मह खोई ॥
भुजांतर में पुत्र को औऱ धीया की उन्गली पकड़ें माता ने उन्हें पालने पर सुलाया । दिनभर से भ्रमणरत वह फ़िर थक हार कर सो गए । और क्षण भर में ही स्वपनों की नगरी में खो गए ॥
बासक बासक बास सजावै । बास बास जुग सेज रचावै ॥
पाँति पिया दे अर्पन लेखी । पयस मयूख मुख दर्पन देखी ॥
पटावरण ने शयनागार को सुसज्जित कर रहे हैं । वस्त्र और गंध परस्पर मेल कर सेज रचा रहे हैं ॥ पत्रपर्ण में समर्पण लिख कर प्रियवर को अर्पित कर वधु चन्द्रमा को ही दर्पंण किये अपना मुख देखने लगी ।।
अपलक तक अरु अलक झुकाई । बास सजित पथ पलक बिछाई ॥
देइ पिया पद चाप सुनाई । कंठ हार बन बाहु समाई ॥
अपलक निहारते हुवे नयन पटल पर अलकावली अवनत हो गई । श्रृंगार कर प्रतिक्षा में प्रेयषी ने पथ पर पलक पांवड़े बिछा दिए ॥ कि तभी प्रियतम के पद चाप सुनाई दिए, प्रेयषी जिनके कंठ का हार बनकर बाहु मेँ समा गई ॥
भरे हरिदै जोइ अनुरागे । आन कुसुम कपोल मह लागे
प्रात पिया बिन रयन अधूरी । सजनी साँवर के रँग घूरी ॥
हृदय में जो अनुराग भरा हुवाँ था वह कसुम-कपोलों में उतर आया ॥ प्रियकांत प्रभात के बिना रैन अधूरी रही । किन्तु वधु अपने सांवरे के रंग में घुलती चली गई ॥
सेज सागर प्रस्तर जर, लिखे तरंग तरंग ।
गाहि गहनई बधु अरु बर, रंगे एक ही रंग ॥
सेज सागर हो गई, जल आच्छादन हो गया, उसपर तरंग ही तरग उल्लेखित होती गई ॥ जिसमें वधु-वर एक रंग होकर गहरे अवगाहित होते चले ॥
शनिवार, ०३ मई, २०१४
पलक के बाहु नयन समाही । निदिरा चली सपन के बाही ॥
प्रात संजोगित कर रयन चली । सुम गंध मेल मिल पवन चलीं ॥
पलकों की भुजाओं में नयन का बसेरा हो गया ,सपनो की भुजाओँ में निद्रा समाहित हो गई ॥ प्रभात से अनुरक्त होने रयन प्रभात मेन अनुरक्त होने को रयन चली । कुसुम की कल सुगंध पवन से मेल करने चली ॥
सप्तास्व के रथ पर रोही । प्रभा पल्लबित लावन होहीं ॥
नदी ऊपर चरन धर उतरी । तरनिहि सङ्ग तैर तरन चली ॥
सप्ताश्व के रथ पर आरोहित हो प्रभा कांत युक्त होकर आउर अधिक लावण्यित हो गई ॥ वह नदियों के ऊपर चरण रखकर उतरी एवम अपने सूर्यकांत के साथ तैरती हुई उद्धरण हेतु चली ॥
रागारुन लिए रंजन जागे । मंदिर मंजरी रवन लागे ॥
लावनई श्री उठि सुधियाई । जगावन सयनई रमन चली ॥
राग की अरुणाई लेकर सँगीत जागृत हो गया । मंदिरों में मंजरियाँ रवन करने लगी । इस प्रकार लावण्या श्री भरी भोर मेँ ही जागृत हो गई । और अपने निद्रामग्न प्रियवर को जगाने की तैयारी करने लगी॥
प्रात पिया पुनि पूजन किन्हे । कि तबहि दूर भास् रवनिन्हे ॥
करि सौं मुख पिय हां हाँ कारी । पियाजी के कहनि सुनन चली ॥
प्रात: काल में नित्य क्रिया सम्पन्न कर प्रीतम पूजन क्रिया से निवृत्त हुवे ही थे कि तभी चलित दूरभास रवनमयी हो गया ॥ जिसे अपने सम्मुख किए प्रीयतां हाँ हाँ करते गे । फिर वधु पिया जी की कथनी सुनने में व्यस्त हो गई ॥
प्राबिधि के बिदया पीठ , देइ जेहि सनदेस ।
स्नातक उतरु क्रम पाठ, होहिहि पिया प्रबेस ॥
प्राविधिक के विद्या पीठ ने उन्हें यह सन्देश दिया कि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रियतम का प्रवेश हो गया ॥
रविवार, ०४ मई, २० १ ४
तासु पहिले बधु सोइ तांईं । पिया सोंह कछु पूछ बुझाईं ॥
कहे पिय अजहुँ मौनइ धरहू । सो संजुग बत बहुरत कहहू ॥
इससे पहले वधु इस सम्बन्ध में प्रियवर से कुछ पूछ परख करती । प्रियतम ने कहा अभी तो म्याउं ही साधो । लौटने पर ही इस सम्बन्ध में हम वार्तालाप करेंगे॥
सरन थरी महुँ कर जर पाना । निकसे भँवरन चढ़त बिहाना ॥
जान जीबिक जल तल उतारे । नभस नभौकस कलरव कारे ॥
शरण स्थली मेन ही जलपान ग्रहण कर, दिन चढ़े सभी पुन: भ्रमण पर निकले । जलयान के आजीविक, यान को जल में उतार रहे थे मेन नभस्चर कोलाहल कर रहे थे ॥
रबि संगिनि मुख जोबनु जोई । सघित्रित छबि जो पयोनिधि होई ॥
दूरए धुनी जर दिए सुनाई । नियरि तरंग चरन गहि आई ।।
रवि की संगिनी प्रभा के अपने मुख पर यौवन संजोए
धरनि आपनी गति सन भौरे। मीर मुदित मन ले हिलौरे ॥
किरनाकर्षन दाण्डिक दानी । जैसे कोउ बिलौरत पानी ॥
पृथ्वी अपनी गति से भ्रमणरत थीं । सागर का मन प्रमुदित स्वरुप में हिलोरे ले रहा था । आकर्षण रूप दन्ड समाहित किए किरणो से जेसे कोई उसके जल का मंथन कर रहा था ।।
अम्बर धरि दिग अन्त की सौहा जोग निहार ।
दरसनार्थी भरि कर, दरसन के सुख सार ॥
(उस समय) क्षितिज द्वारा वरण की हुई वेशभूषा की शोभा दर्शन योग्य थी । वह इस शोभा से युक्त होकर दर्शानार्थियों के कर में दर्शन के सुख का सार धर रही थी ॥
सोमवार, ०५ मई, २ ० १ ४
संवत्सर देसाबर आया। मानक मानत जगत मनाया ॥
जोइ दिए जिन्ह रूप उछाई । नउ बछर परे देउ बधाई ॥
यह संवत भारत देश का नहीं था यह परदेश से आया था । जिसे अखिल विश्व, मानक संवत्सर मान कर इसे उत्सव स्वरुप मनाता है । इसे उसी ने एक उत्साह दिवस का रूप देते हुवे यह कहा कि नव वर्ष के आगमन दिवस पर सभी परस्पर बधाई देवें ॥
तीज तौहारु सोइ बनावा । जोइ रहे आनंद अभावा ॥
उत्सउ कि रहि हमरिहि बानी । बरस मास हो पग पग आनी ॥
और इसे एक त्यौहार का रूप दिया । जो आनद उत्सवों के वंचित रहा होगा ॥ क्योंकि हमारे देश को तो ऐसे त्याहारों की बानि रही है । वर्ष हो की कोई मास हो यहां पग पग त्यौहार आते हैं ॥
भारत खन की जेइ पाहूमि । उत्सउ महुत्सउ की यह भूमि ॥
कोउ तौहारु जोंग निहारै । इहाँ जोगे आप तौहारे ॥
भारत खंड की यह भूमि उत्सव-महोत्सवों की भूमि है । कोई तो त्योहारों की प्रतीक्षा करता है कि वह कब आए। यहाँ त्यौहार प्रतीक्षाकर पूछते हैं मैँ कब आऊँ ॥
सोइ बछर सब साज सँजोई । आगंतुक सरनी पथ जोई ॥
मनोहारि मनि मञ्जरि झुरई । अरुनोपल अरुनाए अँगनई ॥
उसी नव वर्ष के उत्सव हेतु शरणस्थली सभी साज-सजाओं से युक्त होकर अपने अतिथि गन की प्रतिक्षा कर रही थी ॥ मन को हरण करने वाली मणि कि वल्लरियाँ झूल रही थी जिसके अरुण उपल से सारा प्रांगण अरुणित हो उठा था ॥
बनउनहरु रचइ जेउनारे । आउ भगत कर किएसत्कारे ॥
रचइत रही जो रंगरेला । हमहि बानि सों मेल न मेला ॥
रसोइये ने रसोई तैयार कर रखी थी । संयोजक सभी की आवभगत करते हुवे स्वागत सत्कार कर रहे थे ॥ जिस प्रकार की रंगरीला रची गई थीं । वह हमारी रंग लीला से मेल नहीं खा रही थी ॥
चरत पवन जहँ सींत तरंगे । सीतर रितु हहरत मन रंगे ॥
एक पुर अभरित अगनित बासे । देइ तपन सुख बरत निबासे ॥
वायु शीतल तरंगों को ग्रहण कर प्रवाहित हो रही थी शीत-ऋतु कंपकपाते हुवे मन के रंजन को वर्द्धित कर रही थी ॥ एक और अग्नि अपने संपूर्ण वेश में विराजित थी । जो प्रज्वलित होकर उस शीतल वातावरण मेँ इस भाँती की तापमयी अनुभुति दे रही थीं ॥
हबिर धूम धर हबि रसन, जेसे हबित्र इ होए ।
हित कारी भाव लिए पर, होम करे ना कोए ।।
जैसे कोई हवित्र मे हविर् धूम्रवरन किये अग्नि प्रज्वलित हो रही हो । किन्तु वह हविरकुंड कल्याण के भाव से रहित था और वहाँ कोई हवन कर्त्ता भी नहीं थे ॥
मंगलवार, ०६ मई, २ ० १ ४
नवल बछर कर मह कर धारे । लाए रैन जग धरा दुआरे ॥
अगुआन आन किए अगुवाई । वादित राग सुभागम गाईं ॥
रयन नवल वत्सर के हस्त को हस्त गत किए जगत के द्वार पर ले आई । अगुवानी करने वाले आगे आ कर नव वर्ष की अगुवानी की । वाद्य यन्त्र राग शुभागम् गाने लगे ॥
मंगल कारिन भीं सुभावा देइ परस्पर लोग बधावा॥
गगन दुनहु कर नख बलिहारे । कहुँ को करतल चाँद उतारे ॥
सब की मंगल- हुवे एक स्वभाव होकर लोग परस्पर बधाई देने लगे । गगन दोनों हाथों से तारे न्यौछवार कर रहा था कहीं किसी हथेली पर चाँद को ही उतार रहा था ॥
अगज-जगज निंदिया कर हारे । नवल केतु लिए भए भिनसारे ॥
नंदन प्रभवत नव नव नलिने । बरे नव जोबन कमन कलि ने ॥
सारा संसार जब नींद से हार गया । तब नई किरणों का संग किए नया सवेरा हुवा ॥ नलिनी नंदन में नए नए उत्पन्न हो रहे हैं । सुन्दर कलियों ने भी नव युवा हो गई हैं ॥
फुरित नयन बन बारि सुगंधै । करत कबिबर कबिता प्रबन्धे ॥
नील बरन नौ लोहित रंगी । सौम सिंधु गह नवल तरंगी ॥
वन वाटिकाएं प्रसन्नचित होकरसुगन्धित हो गई । कविवर कविताओं की रचना करने में व्यस्त हैं ॥ नाइल वर्ण से वर्णित हो नौ लोहित अनुभूति को प्राप्त होकर सौम्य सिंधु नवल तरंगों को ग्रहण किये था ॥
नव नव जल चल नव नव नउका । नवल बीथि गत नवल नभउका ।।
नवल नवल नभ नौ अवरेखे । दिब्य दिरिस अर्थी दृग् देखे ॥
नव नव जल के तल पर नई नई नौकाएं विहार कर रही थीं नव नव विहंग नवल वीथी पर गमन कर रहे थे ॥
नवन नभ नव चित्रकारी से युक्त था और दर्शानार्थी के दृग इस दिव्या दृश्य का दर्शन पान कर रहे थे ॥
रजस कनिका के कर पर, अरनौ लिखै आलेख ।
रे तटिनी तुँहर पथ यह ह्रदय रहा है देख ॥
रजस कणिकाओं के हस्त पत्र पर अर्णव ने एक आलेख लिखा हे री नदिया यह व्याकुल ह्रदय तुम्हारी प्रतीक्षा में है ॥
बुधवार, ०७ मई, २ ० १ ४
जोगनिहार उर प्रीति राखें । जलधि के भाखा जलहि भाखे ॥
उठि स्वजन चरन तट चीन्हि । लावनारनौ निमज्जन कीन्हि ॥
हृदय में प्रीत संजोए हुवे प्रतीक्षारत जलधि की भाषा जल ही जानता है । उस दिन स्वजन समूह के चरण पास के त -रेणु को चिन्हित किए । और उस लावण्यमय जलधि में स्नानं किये ॥
करत जल संग कौतुक केली । बालक गन हेरत निज बेली ॥
सोंह रजस तन चरं गहि आए । बाल जल कुण्ड मह धूरियाए ॥
बालकसमूह अपने साथियां को हेला दे दे कर जल के संग बहुंत सी लीलाएं करते ॥ उनके इस हेले को सुनकर देह के संग कुछ धूली कणिकाएं भी संग चली आई । बालकों ने जिसे आश्रय स्थली के निर्मल जल के कुण्ड में दूर किया ॥
ऐसेउ भै दुदिनु के बासा । बहोरि गंतुक आप निबासा ॥
फिरैं समउ आनए भूनेसर । दरसत नगरी भँवरे दिनभर ॥
इस प्रकार यह दो दिन की यात्रा पूर्ण हुई और सभ गन्तुक अपने-अपने निवास को लौट चले ॥ लौटते समय भुवनेश्वर नगरी में आकर दुवासभर उस नगरी का भ्रमण करते हुवे उसके दिव्य दर्शन का सुख पाया ॥
बसिजहन समदिन दुघरी हौरे । करे भोजन रयनए बहोरे ॥
सस केतु गगन उडुगन पिरोए । बधु चितबन् बहु सुमिरन सँजोए ।।
जहां निवासित समधी के यहां दो गहरी के लिए विश्राम किया । भोजआदि से निवृत होकर रात्रिकाल में ही गंतव्य स्थान को चल पड़े ॥
निरव रयन उद्घोष करत, बहिअर के कर कास।
देहर बाहिर गिर मिले, जो चलित दूरभास ॥
उस शांत रात्रि में वधु के हस्त मुकुल में कसा हुवा चलित दूरभास उद्घोषित हो उठा जो उसे जगन्नाथ -मंदिर के बाहर गिरा हुवा मिला था ॥
बृहस्पतिवार, ०८ मई, २ ० १ ४
पाए जहँ सों बाजए निरन्तर । लघुबर खंकन जस घन घन कर ॥
कूजै घरि घरि देइ न कानए। पथ गिरि सम्पद आपनि मानए ॥
देख धाम हरि सागर सुन्दर । दरसत माया के कौतूहर ॥
बास पुरी मध्यान्हि पैठे । श्रमित भए पथी बैसहि बैसे ॥
दोइ दीठ बर बरनन नाना । पुनीत धाम के करत बखाना ॥
सास ससुर जोहारिहि कीन्हि । जथा जोग दायन कर दीन्हि ॥
जीवन रथ के रस्मी धारत । अस दम्पत् जग पथ संचारत ॥
नाथ दुआरी दुइ छन हौरे । गह आसन दुहु चले बहोरी ॥
जगजमोहन नाथ भजन, गाहिहि जोइ सुजान ।
ज्ञान बिज्ञान के बिभूति, तिन्हहि देहि भगवान ॥
शुक्रवार, ०९ मई, २०१४
रहि पिया के रुचि अध्ययन में । स्नातक उतरु उपाधि जोगन मेँ ॥
थाइहि सेउकाइ नहि साधा । आन प्रबास अस भइ बाधा ॥
उपाधि के योगवर्द्धन का हेतु किए प्रियतम की रुचि यद्यपि अध्ययन में रही किन्तु उनकी अस्थायी सेवा-नियोजन एवम अन्यत्र प्रवास मार्ग की बाधा बनी हुई थी ॥ ( अब वह बाधा नहीं रही )
ज्ञान पीठ के धानी जोई । बॉस नगर सन दूरहि होई ।।
जहाँ लोह पथ गामिनि । भोर चले पैठए दुइ जामिनि ॥
( स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हेतु ) प्राविधिक ज्ञान पीठ जिस धानी में स्थित थी वह निवास नगरी से दूर ही थी । जहां लौह पथ वाहिनी से यदि भोर मेन चले तब वह दुसरे पहर को ही पहुँच सकते थे ॥
जब सों प्रीतम पाए सँदेसा । प्राबिधिक पीठ होइ प्रबेसा ॥
कहै बधू पुनि लेय बिचारी । पिय प्रबास के चिन्तन धारी ॥
जब से प्रियतम ने प्राविधिक पीठ में प्रवेश का सन्देश प्राप्त हुवा था । तब से वधु अनुत्तरा प्रवास कि चिन्ता धरे वधु कहती रही इस पर एक बार पुन: विचार कर लो ।
बिचार बिनु सँजोउन लम्भे । अचरम सिखनई बरस अरंभे ॥
कबहु जाए कभु जाइ न जाई । कबहु पयाई तुरत अवाई ॥
फिर बिना कोई विचार किए पाठन सामग्री प्राप्त की शीघ्र हि शैक्षणिक वर्ष आरम्भ हो गया ॥ जहां प्रियतम कभी जाते कभी जाते न जाते वाली नीति अपनाते कभी जाते तो तत्काल ही लौट आते ॥
एक कोत जीउति चिन्तन, दूजी अध्ययन घारि ।
लागे देहि दोए चरन, करम जोंग चक बारि॥
एक और आजीविका की चिन्ता दुसरी अध्ययन की घर कर ली । देह तो दो ही पैरों वाली थी, उनका कार्य चक्के वाली देहि के योग्य था ॥
शनिवार, १० मई, २ ० १ ४
उत बधु परिनेता के प्रेरी । पोथी पुरान के कर ढेरी ॥
जतन पूर्वक जोंग निपुनाइ । एक अनखौही परीछा दाइ ॥
उधर वधु परिणेता की प्रेरित करने पर पोथी-पुराण की ढेरी किए थी । जिससे चेष्टापूर्वक निपुणता धारण कर एक प्रतियोगी परीक्षा दायी ॥
खेह खेड़ जोगन हारी के । भरन पद राउ पटबारी के ॥
राज पात मह ज्ञापन दीन्हि । बहु अभ्यर्थी याचन कीन्हि ॥
गाँव-खेड़े की भूमि का रक्षा करने वाले लेखापाल के पद पूर्ति हेतु राजा राजपत्र में सूचनाऍ प्रकाशित की । जिसे देखकर बहुंत से अभ्यर्थियों ने याचना की ।
पढ़इ लिखइ जौ पहलहि जोई । निर्धारित बिषय रही सोई ॥
पूरब पाठत भइ तनि ज्ञानी । पड़त पड़त परिपाटी जानी ॥
जो पढ़ाई पहले से ही पढ़ी हुई थी उसका पाठ्यकम वही था । पूर्व में पाठाभ्यास कर वधु विषय की किंचित विशारद हो गई थी और पढ़ते-पढ़ते पढ़ाई कि परिपाटी का भी ज्ञान हो चला था ॥
करत भयउ परिनाम उजागर । सकल सुफल के नाम उजागर ॥
देखे पिया जब बधु के नामा । पाए काम कह रे बिनु कामा ॥
चयनित अभ्यर्थियों के साथ जब परिणाम उजागर हुवा । प्रीतम न उन नामों में वधु का नाम देखा तब वह कह उठे हे रे अकर्मण्य् को कर्म मिल गया ॥
हर्षातिरेक कहे हे लवनई श्री सरूप ।
दरसाए पत बहु नाम पर, तुहारे एकै अनूप ॥
और हर्षातिरेक में कहते चले गए हे लावण्य श्री का स्वरुप । इस परिणाम पुस्तिका में बहुंत से नाम प्रकाशित हैँ किन्तु तुम्हारा यह एक नाम अभिनव है ॥
रविवार, ११ मई, २०१४
आखर जननी पत बिय बोई । ज्ञानोदक से सींचत सोई ॥
प्रफुरत् फूर सुफल फल देखे । होहि पिया हिय हरख बिसेखे ॥
चैनित किए पतर ब्यौहारी । साछात करन हूँत हँकारी ॥
सकल उपाधि पाँति कर जोगे । तहवाँ पधारि चयनित लोगे ॥
पद हुँत जो जुगता रहि चाही । सोइ बहोरि पूरन न लाही ॥
गहे पढ़ सबहि उपाधि साँची । एकै सनगनक के नहि बाँची ॥
कठिनइ ते जे अवसर पाई । रे हत भागिन सोइ गवाईं ॥
कहत पिया अस भएउ निरासे । भए बिरथा पाठन अभ्यासे ॥
नहि जोगे एकइ उपाधि, कहत बधुरि सकुचाइ ।
मुँहू भराई रीत सौं, होहि सकल पुरताइ ॥
सोमवार, १२ मई, २ ० १ ४
श्रुत जे बचन क्षोभ मुख छावा । कहे मोहि छल कुसल दिखावा ॥
जुगता जग जो मोल बिसाहू । रहिहु जग माहि जोग न काहू ॥
कोप करत पुनि करक निहारै । धूत धूत कह बहु दुत्कारे ॥
दुइ सौ प्रतिभागी मह ऍका । भयउ तुअँ अति प्रबीन प्रबेका ॥
तिन मह होहि सनदेह न काहू । श्रम कारत अरु ज्ञान लहाहू ॥
आगिन पुनि पुनि परिखा दाहू । लोक सेवा पार कर जाहू ॥
जब को नयन ज्ञान छबि छावै । सफलोदर्क अर्क दरसावै ॥
तव लोचन दर्पन मैं देखउ । दृढ़ पाठ हुँत समर्पन देखउँ ॥
बहु भाँति के बचन सोंह पिय बरधाए उछाह ।
पर वधु के मनो चितबन्, परि प्रभाउ को नाह ॥
मंगलवार, १३ मई, २ ० १ ४
जे सेउकाई फेउकाई । साँची कहे हमहि न सुहाई ॥
हमरे करम तव गेह जोहे । बालक जनि के अचरा टोहे ॥
अबुध तनय अधबुद्धि अहाहीं । जोग रखें जो आपनु नाही ॥
देहिहि बास बसाउन जोगे । खवाए बिनु तो भूखन भोगै ॥
भयउ तृषालु ताल जल चाहे । देइ कुलीनस कंठ लहाहे ॥
तन बिनु बसन रसन बिनु बानी । अजहुँ त माता बोल न जानी ॥
करि जेतक जतन महतारी । तेतक तात सकै ना कारी ॥
अपस्मार के रोग कठोरा । माँगे जननी गोद हिंडोरा ॥
मृगनयनी नेह दरस पिय, भयऊ भाउ बिभोर ।
अश्रु कन उतरन चाह किए, सोंह नयन के कोर ॥
बुधवार, १४ मई, २ ० १ ४
प्रिया प्रेम मूर्ति उर माही । कहत नयन पिय मुख कहि नाही ।।
मुखरिते पुनि कंठ कर भारी । पूजन जोग रूप जे नारी ॥
भरे बधु हुँत भाव मन जेता । कही न जात लिख्या सों तेता ॥
निलयन नंदन नैन प्रफूरे । सोंह नलिन दुइ जल कन झूरे ॥
बिपल सम दिनु पलक सम राती । कछुक मास बिरते एहि भाँती ॥
पढ़न अबर पुर आवन जाई । समउ नसए अरु बिघनि पढ़ाई ॥
एक दिन पाठक बोल पठावा । कहाँ निबास तव पूछ बुझावा ।।
बासी निलय भेद जब खोले । पीठ नगरि निबासँन बोले ॥
गाहे एक कूट सँकेत , गिरा गहन गंभीर ।
प्रियतम सों अवनत नयन, जी जी कहई धीर ॥
बृहस्पतिवार, १५ मई, २ ० १ ४
गेह बाहर बहु सोचि बिचारी । सूझे नहि अजहुँ त का कारीं ॥
बसथ जसस् सथ बसे बसेरा । पालक छाईं अपने डेरा ॥
गेह उठौनी सहज न होई आन बसति बसि जान न कोई ॥
पुरंतर पुनि दूजे बसेरे । कहँ दरसैं कहँ गवनत हेरे ॥
रुजित तनय के मुख जब ताके । प्रियं बचन पुनि मात पिता के ॥
सिरु कर धार जस धीर धराईं । सुख फुर प्रफुरै दुःख भूराईं ॥
जे जग बिदित कह गए बिदुरबर । जननि जनि भुइँ सुरग सों गरिबर ॥
बिनहि बोलाइ संकट आई । समाधान सुझई कछु नाई ।।
एहि जनम निबासा बहस सुपासा जहां परिचित आपने ।
जहँ बरबधु दोई जनमन होई जननि सबहि जात जने ॥
जहां सबहि सम्पद बसती सुखप्रद भाइ बंधु सौं हरिदै ।
जहँ खेलन कीन्हि सुरता चीन्हि पथ पथ बालक पन के ॥
जाए न जाए पूछ बुझत, सुबुध स्यान सुजान ।
सबहि अभिप्राइ सँजोवत, आपनि मति मत मान ॥
मंगलवार, २७ मई, २०१४
एकु दिवा बधु जब भरी भोरी । हेतु उषा दुआर पट खोरी ॥
देखि देहरी बिपदा ठाढ़ी । धचकत पट घर भीतर बाढ़ी ॥
इत उत जित तित फिर तनि बेरी । पास गहन को कण्ठं हेरी ॥
बिगलित केस कपट कुट भेसी । धीरहि बैसक चयन प्रबेसी ॥
सबहि कोत झाँकत अनुरेखी । तबहि सोंह रुगनित सुत देखी ।।
बिना अर्थ के बाधा बाधन । चौकि धरि दूरदर्सन साधन ॥
कुंठक सुत तिन जस का धारे । परम क्रोध बस पग दे मारे ॥
आप काज कर बिपदा भागी । सुत के अंतर पीरा जागी ॥
चोट जनित पीर जनमित, रोदन सुन जब मात ।
धाइ आइ धरि भुजंतर, चोटिल सुत के गात ॥
बुधवार, २८ मई, २ ० १ ४
चोटिल सुत मुख रोदन रागी । उलट पग बधु जिउद पहि भागी ।।
धाइ जब करे घोर चिकारा । पैठी रोग निदान दुआरा ॥
टीस धरत बहु तड़फत कलपे । घरी पलक भए भारि बिपल पे ॥
चलत बेगि बधु सुनत जे धुनी । चोट चपेट अह गहन अधुनी ॥
निरख बैद अंतर चित्ररेखे । जंघास्थि भै दुइ टुक लेखे ॥
संधि बंध पटि जोग संहिते । दिए परामर्स बायस क्रृत हिते ।।
कछु त्रुटि बस जौ होहि न आढी । जस जस बाढ़ी होही गाढ़ी ॥
कहत बचन यहु साँतव बँधाए । अजहुँ त सून के बालताए ॥
तदपि गहनइ पीर भरी, चोट भए गंभीर ।
बिनु हिडोल राखत होहि सुखकर धीरहि धीर ॥
बृहस्पतिवार, २९ मई, २०१४
भरे नयन जब सुत मुख लाखी । पीर भाव उर आपहि भाखी ॥
मंद कंत अस रहि मलिनाई । काल घटा जस निभ नभ छाई ॥
भरे नयन से वधु ने जब पुत्र का मुख देखा । तब उसके मुख के भाव ह्रदय की पीड़ा को स्वमेव उद्भाषित कर रहे थे ॥ वह मंद कान्त हो कर ऐसा मलिन हो गया था जैसे उज्जवलित आकाश में काली घटा छा गई हो ॥
बाँध करक दुहु पद पटि जोगे । रुदन कहत हा कोउ बिजोगे ॥
बोलति मृदुलित हाँ रे हाँ ललना । झोलावत पलकन के पलना ॥
जीवद ने दोनों पदों को संधि बंध पटिका से कड़कता पूर्वक बाँध दिया था उसका रोदन कह रहा था हां कोई इसे विमुक्त करे ॥ वधु मृदुल स्वरूप में हाँ रे हाँ रे ललना कहे जा रही थी । और पलकों के पालने में उसे झूला कर भुला रही थी ॥
तपत उर सिंधु घटा उठावै । नयन धनब करुना बरखावै ॥
देख दसा पीड़ित सुत गाता । होत दुखित भै बिचलित माता ॥
दुःख से सन्तापित हृदय रूपी सिंधु से उठती घटा नयनों के अम्बर से करुणा बरस रही थी । पुत्र की पीड़ित शरीर एवं उसकी दुर्दशा देखकर वधु दुखित होकर व्यथित हो गई ॥
बिपद काल यह रे दुर्भागी । किमि कारन बस पिय सों लागी ॥
तेहि समउ पितु रहे न संगा । गवाने जाने को नभ गंगा ॥
विपदा काल और यह दुर्भाग्य की वह किसी कारण वश प्रीतम से शत्रुता बाँध बैठी ॥ उस समय पुत्र के संग पिता नहीं थे वे इतने बड़े हो गए थे कि किस आकाश गंगा की यात्रा पर थे वधु को ज्ञात ही न था॥
दुर्दसा गहि कातर बधु , चरण अघात प्रसंग ।
दौर ठिया जान बिनु पिय देइ सके न उदंग ॥
दुर्दशा से ग्रसित निरीह वधु प्रीतम की स्थिति जाने बिना पुत्र के चरण आघात की घटना का समाचार पहुचाने में असमर्थ रही॥
शुक्रवार, ३० मई, २ ० १ ४
अघात उदंत दिए ससुराई । पिय कहँ गवने पूछ बुझाई ।
सास ससुर जे सुचना दयऊ । कछु कारण बस धानी गयऊ ॥
संपर्क के साधन न साधे । आन परे जे बिरथा बाधे ॥
करत जुगत बहुतहि कठिनाई । पिय पहि सँदेसु पैठाईं ॥
पैह सँदेस पुनि सिरुनत अवने । सुत निबासित भवन लिए गवने ॥
चारि दिवस हुँत राखेहि भृते । बहुरि जीवद उन्मोचित कृते ॥
सोक सन्तापत तेहि समऊ । कोमल चित पिय बिकलित भयऊ ॥
कठिनइ बिरतइ सोइ काला । तनय भाग सुख भयउ अकाला ॥
बधे पटिक पद परे न चैना । न दिवस सुपास नींद न रैना ॥
मन माहि प्रबास चिंतन, उत पुत के पद पीर ।
घिरे संकट सों दम्पति, सोच करे धरि धीर ॥
साँझ बहुरि कर पौन पलौनी । पाँतिहि अवतर रैन सलौनी ॥
हरि करि केहरि हिरन बिलौनी । बाल बहुरि लय केलि खिलौनी ।।
अरुण की सेवा-टहल कर साँझ लौट गई । स्वजन वर्ग श्याम सलौनी रैनी के अवतरित होने पर लौटे । बालक वर्ग बन्दर, हाथी, सिंह, हिरन बिलौटने के खेल खिलाङी लेकर लौटे ॥
बहुरि भुजा दुहु तनय गहाई । धरि करज धिए पलन पौड़ाई ॥
भँवर दिनभर सिथिर भए सोई । छन भर सपन नगर मह खोई ॥
भुजांतर में पुत्र को औऱ धीया की उन्गली पकड़ें माता ने उन्हें पालने पर सुलाया । दिनभर से भ्रमणरत वह फ़िर थक हार कर सो गए । और क्षण भर में ही स्वपनों की नगरी में खो गए ॥
बासक बासक बास सजावै । बास बास जुग सेज रचावै ॥
पाँति पिया दे अर्पन लेखी । पयस मयूख मुख दर्पन देखी ॥
पटावरण ने शयनागार को सुसज्जित कर रहे हैं । वस्त्र और गंध परस्पर मेल कर सेज रचा रहे हैं ॥ पत्रपर्ण में समर्पण लिख कर प्रियवर को अर्पित कर वधु चन्द्रमा को ही दर्पंण किये अपना मुख देखने लगी ।।
अपलक तक अरु अलक झुकाई । बास सजित पथ पलक बिछाई ॥
देइ पिया पद चाप सुनाई । कंठ हार बन बाहु समाई ॥
अपलक निहारते हुवे नयन पटल पर अलकावली अवनत हो गई । श्रृंगार कर प्रतिक्षा में प्रेयषी ने पथ पर पलक पांवड़े बिछा दिए ॥ कि तभी प्रियतम के पद चाप सुनाई दिए, प्रेयषी जिनके कंठ का हार बनकर बाहु मेँ समा गई ॥
भरे हरिदै जोइ अनुरागे । आन कुसुम कपोल मह लागे
प्रात पिया बिन रयन अधूरी । सजनी साँवर के रँग घूरी ॥
हृदय में जो अनुराग भरा हुवाँ था वह कसुम-कपोलों में उतर आया ॥ प्रियकांत प्रभात के बिना रैन अधूरी रही । किन्तु वधु अपने सांवरे के रंग में घुलती चली गई ॥
सेज सागर प्रस्तर जर, लिखे तरंग तरंग ।
गाहि गहनई बधु अरु बर, रंगे एक ही रंग ॥
सेज सागर हो गई, जल आच्छादन हो गया, उसपर तरंग ही तरग उल्लेखित होती गई ॥ जिसमें वधु-वर एक रंग होकर गहरे अवगाहित होते चले ॥
शनिवार, ०३ मई, २०१४
पलक के बाहु नयन समाही । निदिरा चली सपन के बाही ॥
प्रात संजोगित कर रयन चली । सुम गंध मेल मिल पवन चलीं ॥
पलकों की भुजाओं में नयन का बसेरा हो गया ,सपनो की भुजाओँ में निद्रा समाहित हो गई ॥ प्रभात से अनुरक्त होने रयन प्रभात मेन अनुरक्त होने को रयन चली । कुसुम की कल सुगंध पवन से मेल करने चली ॥
सप्तास्व के रथ पर रोही । प्रभा पल्लबित लावन होहीं ॥
नदी ऊपर चरन धर उतरी । तरनिहि सङ्ग तैर तरन चली ॥
सप्ताश्व के रथ पर आरोहित हो प्रभा कांत युक्त होकर आउर अधिक लावण्यित हो गई ॥ वह नदियों के ऊपर चरण रखकर उतरी एवम अपने सूर्यकांत के साथ तैरती हुई उद्धरण हेतु चली ॥
रागारुन लिए रंजन जागे । मंदिर मंजरी रवन लागे ॥
लावनई श्री उठि सुधियाई । जगावन सयनई रमन चली ॥
राग की अरुणाई लेकर सँगीत जागृत हो गया । मंदिरों में मंजरियाँ रवन करने लगी । इस प्रकार लावण्या श्री भरी भोर मेँ ही जागृत हो गई । और अपने निद्रामग्न प्रियवर को जगाने की तैयारी करने लगी॥
प्रात पिया पुनि पूजन किन्हे । कि तबहि दूर भास् रवनिन्हे ॥
करि सौं मुख पिय हां हाँ कारी । पियाजी के कहनि सुनन चली ॥
प्रात: काल में नित्य क्रिया सम्पन्न कर प्रीतम पूजन क्रिया से निवृत्त हुवे ही थे कि तभी चलित दूरभास रवनमयी हो गया ॥ जिसे अपने सम्मुख किए प्रीयतां हाँ हाँ करते गे । फिर वधु पिया जी की कथनी सुनने में व्यस्त हो गई ॥
प्राबिधि के बिदया पीठ , देइ जेहि सनदेस ।
स्नातक उतरु क्रम पाठ, होहिहि पिया प्रबेस ॥
प्राविधिक के विद्या पीठ ने उन्हें यह सन्देश दिया कि स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में प्रियतम का प्रवेश हो गया ॥
रविवार, ०४ मई, २० १ ४
तासु पहिले बधु सोइ तांईं । पिया सोंह कछु पूछ बुझाईं ॥
कहे पिय अजहुँ मौनइ धरहू । सो संजुग बत बहुरत कहहू ॥
इससे पहले वधु इस सम्बन्ध में प्रियवर से कुछ पूछ परख करती । प्रियतम ने कहा अभी तो म्याउं ही साधो । लौटने पर ही इस सम्बन्ध में हम वार्तालाप करेंगे॥
सरन थरी महुँ कर जर पाना । निकसे भँवरन चढ़त बिहाना ॥
जान जीबिक जल तल उतारे । नभस नभौकस कलरव कारे ॥
शरण स्थली मेन ही जलपान ग्रहण कर, दिन चढ़े सभी पुन: भ्रमण पर निकले । जलयान के आजीविक, यान को जल में उतार रहे थे मेन नभस्चर कोलाहल कर रहे थे ॥
रबि संगिनि मुख जोबनु जोई । सघित्रित छबि जो पयोनिधि होई ॥
दूरए धुनी जर दिए सुनाई । नियरि तरंग चरन गहि आई ।।
रवि की संगिनी प्रभा के अपने मुख पर यौवन संजोए
धरनि आपनी गति सन भौरे। मीर मुदित मन ले हिलौरे ॥
किरनाकर्षन दाण्डिक दानी । जैसे कोउ बिलौरत पानी ॥
पृथ्वी अपनी गति से भ्रमणरत थीं । सागर का मन प्रमुदित स्वरुप में हिलोरे ले रहा था । आकर्षण रूप दन्ड समाहित किए किरणो से जेसे कोई उसके जल का मंथन कर रहा था ।।
अम्बर धरि दिग अन्त की सौहा जोग निहार ।
दरसनार्थी भरि कर, दरसन के सुख सार ॥
(उस समय) क्षितिज द्वारा वरण की हुई वेशभूषा की शोभा दर्शन योग्य थी । वह इस शोभा से युक्त होकर दर्शानार्थियों के कर में दर्शन के सुख का सार धर रही थी ॥
सोमवार, ०५ मई, २ ० १ ४
संवत्सर देसाबर आया। मानक मानत जगत मनाया ॥
जोइ दिए जिन्ह रूप उछाई । नउ बछर परे देउ बधाई ॥
यह संवत भारत देश का नहीं था यह परदेश से आया था । जिसे अखिल विश्व, मानक संवत्सर मान कर इसे उत्सव स्वरुप मनाता है । इसे उसी ने एक उत्साह दिवस का रूप देते हुवे यह कहा कि नव वर्ष के आगमन दिवस पर सभी परस्पर बधाई देवें ॥
तीज तौहारु सोइ बनावा । जोइ रहे आनंद अभावा ॥
उत्सउ कि रहि हमरिहि बानी । बरस मास हो पग पग आनी ॥
और इसे एक त्यौहार का रूप दिया । जो आनद उत्सवों के वंचित रहा होगा ॥ क्योंकि हमारे देश को तो ऐसे त्याहारों की बानि रही है । वर्ष हो की कोई मास हो यहां पग पग त्यौहार आते हैं ॥
भारत खन की जेइ पाहूमि । उत्सउ महुत्सउ की यह भूमि ॥
कोउ तौहारु जोंग निहारै । इहाँ जोगे आप तौहारे ॥
भारत खंड की यह भूमि उत्सव-महोत्सवों की भूमि है । कोई तो त्योहारों की प्रतीक्षा करता है कि वह कब आए। यहाँ त्यौहार प्रतीक्षाकर पूछते हैं मैँ कब आऊँ ॥
सोइ बछर सब साज सँजोई । आगंतुक सरनी पथ जोई ॥
मनोहारि मनि मञ्जरि झुरई । अरुनोपल अरुनाए अँगनई ॥
उसी नव वर्ष के उत्सव हेतु शरणस्थली सभी साज-सजाओं से युक्त होकर अपने अतिथि गन की प्रतिक्षा कर रही थी ॥ मन को हरण करने वाली मणि कि वल्लरियाँ झूल रही थी जिसके अरुण उपल से सारा प्रांगण अरुणित हो उठा था ॥
बनउनहरु रचइ जेउनारे । आउ भगत कर किएसत्कारे ॥
रचइत रही जो रंगरेला । हमहि बानि सों मेल न मेला ॥
रसोइये ने रसोई तैयार कर रखी थी । संयोजक सभी की आवभगत करते हुवे स्वागत सत्कार कर रहे थे ॥ जिस प्रकार की रंगरीला रची गई थीं । वह हमारी रंग लीला से मेल नहीं खा रही थी ॥
चरत पवन जहँ सींत तरंगे । सीतर रितु हहरत मन रंगे ॥
एक पुर अभरित अगनित बासे । देइ तपन सुख बरत निबासे ॥
वायु शीतल तरंगों को ग्रहण कर प्रवाहित हो रही थी शीत-ऋतु कंपकपाते हुवे मन के रंजन को वर्द्धित कर रही थी ॥ एक और अग्नि अपने संपूर्ण वेश में विराजित थी । जो प्रज्वलित होकर उस शीतल वातावरण मेँ इस भाँती की तापमयी अनुभुति दे रही थीं ॥
हबिर धूम धर हबि रसन, जेसे हबित्र इ होए ।
हित कारी भाव लिए पर, होम करे ना कोए ।।
जैसे कोई हवित्र मे हविर् धूम्रवरन किये अग्नि प्रज्वलित हो रही हो । किन्तु वह हविरकुंड कल्याण के भाव से रहित था और वहाँ कोई हवन कर्त्ता भी नहीं थे ॥
मंगलवार, ०६ मई, २ ० १ ४
नवल बछर कर मह कर धारे । लाए रैन जग धरा दुआरे ॥
अगुआन आन किए अगुवाई । वादित राग सुभागम गाईं ॥
रयन नवल वत्सर के हस्त को हस्त गत किए जगत के द्वार पर ले आई । अगुवानी करने वाले आगे आ कर नव वर्ष की अगुवानी की । वाद्य यन्त्र राग शुभागम् गाने लगे ॥
मंगल कारिन भीं सुभावा देइ परस्पर लोग बधावा॥
गगन दुनहु कर नख बलिहारे । कहुँ को करतल चाँद उतारे ॥
सब की मंगल- हुवे एक स्वभाव होकर लोग परस्पर बधाई देने लगे । गगन दोनों हाथों से तारे न्यौछवार कर रहा था कहीं किसी हथेली पर चाँद को ही उतार रहा था ॥
अगज-जगज निंदिया कर हारे । नवल केतु लिए भए भिनसारे ॥
नंदन प्रभवत नव नव नलिने । बरे नव जोबन कमन कलि ने ॥
सारा संसार जब नींद से हार गया । तब नई किरणों का संग किए नया सवेरा हुवा ॥ नलिनी नंदन में नए नए उत्पन्न हो रहे हैं । सुन्दर कलियों ने भी नव युवा हो गई हैं ॥
फुरित नयन बन बारि सुगंधै । करत कबिबर कबिता प्रबन्धे ॥
नील बरन नौ लोहित रंगी । सौम सिंधु गह नवल तरंगी ॥
वन वाटिकाएं प्रसन्नचित होकरसुगन्धित हो गई । कविवर कविताओं की रचना करने में व्यस्त हैं ॥ नाइल वर्ण से वर्णित हो नौ लोहित अनुभूति को प्राप्त होकर सौम्य सिंधु नवल तरंगों को ग्रहण किये था ॥
नव नव जल चल नव नव नउका । नवल बीथि गत नवल नभउका ।।
नवल नवल नभ नौ अवरेखे । दिब्य दिरिस अर्थी दृग् देखे ॥
नव नव जल के तल पर नई नई नौकाएं विहार कर रही थीं नव नव विहंग नवल वीथी पर गमन कर रहे थे ॥
नवन नभ नव चित्रकारी से युक्त था और दर्शानार्थी के दृग इस दिव्या दृश्य का दर्शन पान कर रहे थे ॥
रजस कनिका के कर पर, अरनौ लिखै आलेख ।
रे तटिनी तुँहर पथ यह ह्रदय रहा है देख ॥
रजस कणिकाओं के हस्त पत्र पर अर्णव ने एक आलेख लिखा हे री नदिया यह व्याकुल ह्रदय तुम्हारी प्रतीक्षा में है ॥
बुधवार, ०७ मई, २ ० १ ४
जोगनिहार उर प्रीति राखें । जलधि के भाखा जलहि भाखे ॥
उठि स्वजन चरन तट चीन्हि । लावनारनौ निमज्जन कीन्हि ॥
हृदय में प्रीत संजोए हुवे प्रतीक्षारत जलधि की भाषा जल ही जानता है । उस दिन स्वजन समूह के चरण पास के त -रेणु को चिन्हित किए । और उस लावण्यमय जलधि में स्नानं किये ॥
करत जल संग कौतुक केली । बालक गन हेरत निज बेली ॥
सोंह रजस तन चरं गहि आए । बाल जल कुण्ड मह धूरियाए ॥
बालकसमूह अपने साथियां को हेला दे दे कर जल के संग बहुंत सी लीलाएं करते ॥ उनके इस हेले को सुनकर देह के संग कुछ धूली कणिकाएं भी संग चली आई । बालकों ने जिसे आश्रय स्थली के निर्मल जल के कुण्ड में दूर किया ॥
ऐसेउ भै दुदिनु के बासा । बहोरि गंतुक आप निबासा ॥
फिरैं समउ आनए भूनेसर । दरसत नगरी भँवरे दिनभर ॥
इस प्रकार यह दो दिन की यात्रा पूर्ण हुई और सभ गन्तुक अपने-अपने निवास को लौट चले ॥ लौटते समय भुवनेश्वर नगरी में आकर दुवासभर उस नगरी का भ्रमण करते हुवे उसके दिव्य दर्शन का सुख पाया ॥
बसिजहन समदिन दुघरी हौरे । करे भोजन रयनए बहोरे ॥
सस केतु गगन उडुगन पिरोए । बधु चितबन् बहु सुमिरन सँजोए ।।
जहां निवासित समधी के यहां दो गहरी के लिए विश्राम किया । भोजआदि से निवृत होकर रात्रिकाल में ही गंतव्य स्थान को चल पड़े ॥
निरव रयन उद्घोष करत, बहिअर के कर कास।
देहर बाहिर गिर मिले, जो चलित दूरभास ॥
उस शांत रात्रि में वधु के हस्त मुकुल में कसा हुवा चलित दूरभास उद्घोषित हो उठा जो उसे जगन्नाथ -मंदिर के बाहर गिरा हुवा मिला था ॥
बृहस्पतिवार, ०८ मई, २ ० १ ४
पाए जहँ सों बाजए निरन्तर । लघुबर खंकन जस घन घन कर ॥
कूजै घरि घरि देइ न कानए। पथ गिरि सम्पद आपनि मानए ॥
देख धाम हरि सागर सुन्दर । दरसत माया के कौतूहर ॥
बास पुरी मध्यान्हि पैठे । श्रमित भए पथी बैसहि बैसे ॥
दोइ दीठ बर बरनन नाना । पुनीत धाम के करत बखाना ॥
सास ससुर जोहारिहि कीन्हि । जथा जोग दायन कर दीन्हि ॥
जीवन रथ के रस्मी धारत । अस दम्पत् जग पथ संचारत ॥
नाथ दुआरी दुइ छन हौरे । गह आसन दुहु चले बहोरी ॥
जगजमोहन नाथ भजन, गाहिहि जोइ सुजान ।
ज्ञान बिज्ञान के बिभूति, तिन्हहि देहि भगवान ॥
शुक्रवार, ०९ मई, २०१४
रहि पिया के रुचि अध्ययन में । स्नातक उतरु उपाधि जोगन मेँ ॥
थाइहि सेउकाइ नहि साधा । आन प्रबास अस भइ बाधा ॥
उपाधि के योगवर्द्धन का हेतु किए प्रियतम की रुचि यद्यपि अध्ययन में रही किन्तु उनकी अस्थायी सेवा-नियोजन एवम अन्यत्र प्रवास मार्ग की बाधा बनी हुई थी ॥ ( अब वह बाधा नहीं रही )
ज्ञान पीठ के धानी जोई । बॉस नगर सन दूरहि होई ।।
जहाँ लोह पथ गामिनि । भोर चले पैठए दुइ जामिनि ॥
( स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हेतु ) प्राविधिक ज्ञान पीठ जिस धानी में स्थित थी वह निवास नगरी से दूर ही थी । जहां लौह पथ वाहिनी से यदि भोर मेन चले तब वह दुसरे पहर को ही पहुँच सकते थे ॥
जब सों प्रीतम पाए सँदेसा । प्राबिधिक पीठ होइ प्रबेसा ॥
कहै बधू पुनि लेय बिचारी । पिय प्रबास के चिन्तन धारी ॥
जब से प्रियतम ने प्राविधिक पीठ में प्रवेश का सन्देश प्राप्त हुवा था । तब से वधु अनुत्तरा प्रवास कि चिन्ता धरे वधु कहती रही इस पर एक बार पुन: विचार कर लो ।
बिचार बिनु सँजोउन लम्भे । अचरम सिखनई बरस अरंभे ॥
कबहु जाए कभु जाइ न जाई । कबहु पयाई तुरत अवाई ॥
फिर बिना कोई विचार किए पाठन सामग्री प्राप्त की शीघ्र हि शैक्षणिक वर्ष आरम्भ हो गया ॥ जहां प्रियतम कभी जाते कभी जाते न जाते वाली नीति अपनाते कभी जाते तो तत्काल ही लौट आते ॥
एक कोत जीउति चिन्तन, दूजी अध्ययन घारि ।
लागे देहि दोए चरन, करम जोंग चक बारि॥
एक और आजीविका की चिन्ता दुसरी अध्ययन की घर कर ली । देह तो दो ही पैरों वाली थी, उनका कार्य चक्के वाली देहि के योग्य था ॥
शनिवार, १० मई, २ ० १ ४
उत बधु परिनेता के प्रेरी । पोथी पुरान के कर ढेरी ॥
जतन पूर्वक जोंग निपुनाइ । एक अनखौही परीछा दाइ ॥
उधर वधु परिणेता की प्रेरित करने पर पोथी-पुराण की ढेरी किए थी । जिससे चेष्टापूर्वक निपुणता धारण कर एक प्रतियोगी परीक्षा दायी ॥
खेह खेड़ जोगन हारी के । भरन पद राउ पटबारी के ॥
राज पात मह ज्ञापन दीन्हि । बहु अभ्यर्थी याचन कीन्हि ॥
गाँव-खेड़े की भूमि का रक्षा करने वाले लेखापाल के पद पूर्ति हेतु राजा राजपत्र में सूचनाऍ प्रकाशित की । जिसे देखकर बहुंत से अभ्यर्थियों ने याचना की ।
पढ़इ लिखइ जौ पहलहि जोई । निर्धारित बिषय रही सोई ॥
पूरब पाठत भइ तनि ज्ञानी । पड़त पड़त परिपाटी जानी ॥
जो पढ़ाई पहले से ही पढ़ी हुई थी उसका पाठ्यकम वही था । पूर्व में पाठाभ्यास कर वधु विषय की किंचित विशारद हो गई थी और पढ़ते-पढ़ते पढ़ाई कि परिपाटी का भी ज्ञान हो चला था ॥
करत भयउ परिनाम उजागर । सकल सुफल के नाम उजागर ॥
देखे पिया जब बधु के नामा । पाए काम कह रे बिनु कामा ॥
चयनित अभ्यर्थियों के साथ जब परिणाम उजागर हुवा । प्रीतम न उन नामों में वधु का नाम देखा तब वह कह उठे हे रे अकर्मण्य् को कर्म मिल गया ॥
हर्षातिरेक कहे हे लवनई श्री सरूप ।
दरसाए पत बहु नाम पर, तुहारे एकै अनूप ॥
और हर्षातिरेक में कहते चले गए हे लावण्य श्री का स्वरुप । इस परिणाम पुस्तिका में बहुंत से नाम प्रकाशित हैँ किन्तु तुम्हारा यह एक नाम अभिनव है ॥
रविवार, ११ मई, २०१४
आखर जननी पत बिय बोई । ज्ञानोदक से सींचत सोई ॥
प्रफुरत् फूर सुफल फल देखे । होहि पिया हिय हरख बिसेखे ॥
चैनित किए पतर ब्यौहारी । साछात करन हूँत हँकारी ॥
सकल उपाधि पाँति कर जोगे । तहवाँ पधारि चयनित लोगे ॥
पद हुँत जो जुगता रहि चाही । सोइ बहोरि पूरन न लाही ॥
गहे पढ़ सबहि उपाधि साँची । एकै सनगनक के नहि बाँची ॥
कठिनइ ते जे अवसर पाई । रे हत भागिन सोइ गवाईं ॥
कहत पिया अस भएउ निरासे । भए बिरथा पाठन अभ्यासे ॥
नहि जोगे एकइ उपाधि, कहत बधुरि सकुचाइ ।
मुँहू भराई रीत सौं, होहि सकल पुरताइ ॥
सोमवार, १२ मई, २ ० १ ४
श्रुत जे बचन क्षोभ मुख छावा । कहे मोहि छल कुसल दिखावा ॥
जुगता जग जो मोल बिसाहू । रहिहु जग माहि जोग न काहू ॥
कोप करत पुनि करक निहारै । धूत धूत कह बहु दुत्कारे ॥
दुइ सौ प्रतिभागी मह ऍका । भयउ तुअँ अति प्रबीन प्रबेका ॥
तिन मह होहि सनदेह न काहू । श्रम कारत अरु ज्ञान लहाहू ॥
आगिन पुनि पुनि परिखा दाहू । लोक सेवा पार कर जाहू ॥
जब को नयन ज्ञान छबि छावै । सफलोदर्क अर्क दरसावै ॥
तव लोचन दर्पन मैं देखउ । दृढ़ पाठ हुँत समर्पन देखउँ ॥
बहु भाँति के बचन सोंह पिय बरधाए उछाह ।
पर वधु के मनो चितबन्, परि प्रभाउ को नाह ॥
मंगलवार, १३ मई, २ ० १ ४
जे सेउकाई फेउकाई । साँची कहे हमहि न सुहाई ॥
हमरे करम तव गेह जोहे । बालक जनि के अचरा टोहे ॥
अबुध तनय अधबुद्धि अहाहीं । जोग रखें जो आपनु नाही ॥
देहिहि बास बसाउन जोगे । खवाए बिनु तो भूखन भोगै ॥
भयउ तृषालु ताल जल चाहे । देइ कुलीनस कंठ लहाहे ॥
तन बिनु बसन रसन बिनु बानी । अजहुँ त माता बोल न जानी ॥
करि जेतक जतन महतारी । तेतक तात सकै ना कारी ॥
अपस्मार के रोग कठोरा । माँगे जननी गोद हिंडोरा ॥
मृगनयनी नेह दरस पिय, भयऊ भाउ बिभोर ।
अश्रु कन उतरन चाह किए, सोंह नयन के कोर ॥
बुधवार, १४ मई, २ ० १ ४
प्रिया प्रेम मूर्ति उर माही । कहत नयन पिय मुख कहि नाही ।।
मुखरिते पुनि कंठ कर भारी । पूजन जोग रूप जे नारी ॥
भरे बधु हुँत भाव मन जेता । कही न जात लिख्या सों तेता ॥
निलयन नंदन नैन प्रफूरे । सोंह नलिन दुइ जल कन झूरे ॥
बिपल सम दिनु पलक सम राती । कछुक मास बिरते एहि भाँती ॥
पढ़न अबर पुर आवन जाई । समउ नसए अरु बिघनि पढ़ाई ॥
एक दिन पाठक बोल पठावा । कहाँ निबास तव पूछ बुझावा ।।
बासी निलय भेद जब खोले । पीठ नगरि निबासँन बोले ॥
गाहे एक कूट सँकेत , गिरा गहन गंभीर ।
प्रियतम सों अवनत नयन, जी जी कहई धीर ॥
बृहस्पतिवार, १५ मई, २ ० १ ४
गेह बाहर बहु सोचि बिचारी । सूझे नहि अजहुँ त का कारीं ॥
बसथ जसस् सथ बसे बसेरा । पालक छाईं अपने डेरा ॥
गेह उठौनी सहज न होई आन बसति बसि जान न कोई ॥
पुरंतर पुनि दूजे बसेरे । कहँ दरसैं कहँ गवनत हेरे ॥
रुजित तनय के मुख जब ताके । प्रियं बचन पुनि मात पिता के ॥
सिरु कर धार जस धीर धराईं । सुख फुर प्रफुरै दुःख भूराईं ॥
जे जग बिदित कह गए बिदुरबर । जननि जनि भुइँ सुरग सों गरिबर ॥
बिनहि बोलाइ संकट आई । समाधान सुझई कछु नाई ।।
एहि जनम निबासा बहस सुपासा जहां परिचित आपने ।
जहँ बरबधु दोई जनमन होई जननि सबहि जात जने ॥
जहां सबहि सम्पद बसती सुखप्रद भाइ बंधु सौं हरिदै ।
जहँ खेलन कीन्हि सुरता चीन्हि पथ पथ बालक पन के ॥
जाए न जाए पूछ बुझत, सुबुध स्यान सुजान ।
सबहि अभिप्राइ सँजोवत, आपनि मति मत मान ॥
मंगलवार, २७ मई, २०१४
एकु दिवा बधु जब भरी भोरी । हेतु उषा दुआर पट खोरी ॥
देखि देहरी बिपदा ठाढ़ी । धचकत पट घर भीतर बाढ़ी ॥
इत उत जित तित फिर तनि बेरी । पास गहन को कण्ठं हेरी ॥
बिगलित केस कपट कुट भेसी । धीरहि बैसक चयन प्रबेसी ॥
सबहि कोत झाँकत अनुरेखी । तबहि सोंह रुगनित सुत देखी ।।
बिना अर्थ के बाधा बाधन । चौकि धरि दूरदर्सन साधन ॥
कुंठक सुत तिन जस का धारे । परम क्रोध बस पग दे मारे ॥
आप काज कर बिपदा भागी । सुत के अंतर पीरा जागी ॥
चोट जनित पीर जनमित, रोदन सुन जब मात ।
धाइ आइ धरि भुजंतर, चोटिल सुत के गात ॥
बुधवार, २८ मई, २ ० १ ४
चोटिल सुत मुख रोदन रागी । उलट पग बधु जिउद पहि भागी ।।
धाइ जब करे घोर चिकारा । पैठी रोग निदान दुआरा ॥
टीस धरत बहु तड़फत कलपे । घरी पलक भए भारि बिपल पे ॥
चलत बेगि बधु सुनत जे धुनी । चोट चपेट अह गहन अधुनी ॥
निरख बैद अंतर चित्ररेखे । जंघास्थि भै दुइ टुक लेखे ॥
संधि बंध पटि जोग संहिते । दिए परामर्स बायस क्रृत हिते ।।
कछु त्रुटि बस जौ होहि न आढी । जस जस बाढ़ी होही गाढ़ी ॥
कहत बचन यहु साँतव बँधाए । अजहुँ त सून के बालताए ॥
तदपि गहनइ पीर भरी, चोट भए गंभीर ।
बिनु हिडोल राखत होहि सुखकर धीरहि धीर ॥
बृहस्पतिवार, २९ मई, २०१४
भरे नयन जब सुत मुख लाखी । पीर भाव उर आपहि भाखी ॥
मंद कंत अस रहि मलिनाई । काल घटा जस निभ नभ छाई ॥
भरे नयन से वधु ने जब पुत्र का मुख देखा । तब उसके मुख के भाव ह्रदय की पीड़ा को स्वमेव उद्भाषित कर रहे थे ॥ वह मंद कान्त हो कर ऐसा मलिन हो गया था जैसे उज्जवलित आकाश में काली घटा छा गई हो ॥
बाँध करक दुहु पद पटि जोगे । रुदन कहत हा कोउ बिजोगे ॥
बोलति मृदुलित हाँ रे हाँ ललना । झोलावत पलकन के पलना ॥
जीवद ने दोनों पदों को संधि बंध पटिका से कड़कता पूर्वक बाँध दिया था उसका रोदन कह रहा था हां कोई इसे विमुक्त करे ॥ वधु मृदुल स्वरूप में हाँ रे हाँ रे ललना कहे जा रही थी । और पलकों के पालने में उसे झूला कर भुला रही थी ॥
तपत उर सिंधु घटा उठावै । नयन धनब करुना बरखावै ॥
देख दसा पीड़ित सुत गाता । होत दुखित भै बिचलित माता ॥
दुःख से सन्तापित हृदय रूपी सिंधु से उठती घटा नयनों के अम्बर से करुणा बरस रही थी । पुत्र की पीड़ित शरीर एवं उसकी दुर्दशा देखकर वधु दुखित होकर व्यथित हो गई ॥
बिपद काल यह रे दुर्भागी । किमि कारन बस पिय सों लागी ॥
तेहि समउ पितु रहे न संगा । गवाने जाने को नभ गंगा ॥
विपदा काल और यह दुर्भाग्य की वह किसी कारण वश प्रीतम से शत्रुता बाँध बैठी ॥ उस समय पुत्र के संग पिता नहीं थे वे इतने बड़े हो गए थे कि किस आकाश गंगा की यात्रा पर थे वधु को ज्ञात ही न था॥
दुर्दसा गहि कातर बधु , चरण अघात प्रसंग ।
दौर ठिया जान बिनु पिय देइ सके न उदंग ॥
दुर्दशा से ग्रसित निरीह वधु प्रीतम की स्थिति जाने बिना पुत्र के चरण आघात की घटना का समाचार पहुचाने में असमर्थ रही॥
शुक्रवार, ३० मई, २ ० १ ४
अघात उदंत दिए ससुराई । पिय कहँ गवने पूछ बुझाई ।
सास ससुर जे सुचना दयऊ । कछु कारण बस धानी गयऊ ॥
संपर्क के साधन न साधे । आन परे जे बिरथा बाधे ॥
करत जुगत बहुतहि कठिनाई । पिय पहि सँदेसु पैठाईं ॥
पैह सँदेस पुनि सिरुनत अवने । सुत निबासित भवन लिए गवने ॥
चारि दिवस हुँत राखेहि भृते । बहुरि जीवद उन्मोचित कृते ॥
सोक सन्तापत तेहि समऊ । कोमल चित पिय बिकलित भयऊ ॥
कठिनइ बिरतइ सोइ काला । तनय भाग सुख भयउ अकाला ॥
बधे पटिक पद परे न चैना । न दिवस सुपास नींद न रैना ॥
मन माहि प्रबास चिंतन, उत पुत के पद पीर ।
घिरे संकट सों दम्पति, सोच करे धरि धीर ॥
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