दुइ दिवस पूरब आए काके । लघुबर भ्रात संग रहि जाके ॥
तमकि ताकि बहु रोख गहाई । बधु तिन्ह चारि बात सुनाई ।
लगन तिथि से दो दिन पूर्व काका आए जिनके साथ लघुज भी थे । रोष धारण किये तमक कर ताकते हुवे वधु ने उन्हें चार बातें सुनाई ॥
प्रिय पुर परिजन मझन समाजे । आपनि कुल के कीर्ति भ्राजे ॥
आए आगंतुक अगोते । रखन लाज तुअँ मोहि नियोते ॥
प्रिय जनों पूर्जनों परिजनों औ समाज के मध्य अपने कुल की कीर्ति ही शोभायमान हो । एवं आए हुवे आगंतुक के सम्मुख अपनी आज रखने के िे तुमने चखे निमंत्रित किया है ॥
जो मन चाहे सकल कहेऊ । समुझ अपमान उरस दहेऊ ॥
सुनत कटु बचन रहि सिरु नाई । आवन कह पुनि लेइ बिदाई ॥
अपने अपमान को भान कर जाते हुवे ह्रदय से वधु के मन में जो आया वह सारा कह दिया । वे सर अवनत किये उन कटूक्तियों को सुनते रहे । और पश्च आने को कहकर विदा मांगे ॥
गवने भ्रात पुनि नगर पराए । प्रिय पुर परिजनहि सजेउ सजाए ।।
एक बार जोइ मन मह ठानए । काट सके न तिन्ह को सर बानए ॥
फिर भ्राता सारे सामग्री सुसज्जित कर प्रिय पुर जनों के साथ भाड़े भ्राता फिर पुत्री का ब्याह रचाने दूसरे नगर प्रस्थान कर गए ॥
साज सँजोई सन सँजूत, गवनै सकल बिहाति ।
बहिनी भ्रात सुता बिहाउ, गवनी ना एहि भाँति ॥
सभी बिछाती भी अपने अपने सामग्री संकेत किये उनके साथ चल पड़े । इस प्रकार भ्राता की पुत्री को व्याहने बहनें नहीं गईं ॥
बुधवार, ०२ अप्रेल २०१४
गवनहि चाहिअ गवनहिं नाही । बार बार नही भयउ बिबाही ।।
रह बड़प्पन गवनन माही । पॉच सोच करि अब पछ्ताही ।
जाना चाहिए था किन्तु गई नहीं । विवाह वारंवार नहीं होता ।जाने मन ही बड़प्पन था । निकृष्ट विचार धारण करन के पश्चात पश्चाताप ही रह गया ॥
हठ धरम गहे बहुत बुराई । अहम् रोष तिनके सहि भाई ॥
मेंल मिलाए जहाँ जे तिन्ही । लग अग जग जन जन अरि किन्ही ॥
हठ धर्मिता न बहुंत ही बुराई गरहन की हैं अहम् एवं रोष इसके सहोदर हैं । जहां ये तो\इनों मी जाएं । वहाँ ये लड़ाई छे के सारे जगत को अपना शत्रु बना ले ॥
जिन घर पीहर कहत पुकारे । अजहुँ रुँधे पट सबहि दुआरे ॥
लगन जाइअ रहई सुहाई । भलहि पाछु बधु जाइ न जाई ॥
जिस घर को नैहर कहकर पुकारा अब वहाँ समझौते के सारे पट सारे द्वार बंद हो गए । लगन में जाने में ही शोभा थी । लगन के पश्चात् भले ही जाते न जाते ॥
जहां ठाढ़ भए बाद बिबादा । तोरत तुरत सकल मरजादा ॥
कथन कुबादन के बल पावा । करि भंजन सो जोग जुरावा ॥
वाद-विवाद अवस्थित हो जाए वह मर्यादाओं भंग करने में तत्काल स्वरुप में सक्षम होता है । और यदि उसे कुवचनों कुवादन का बल प्रात हो जाए । तब वह जोड़-संबंधों को विभंजित कर देता है ॥
अस दुःख धर उर कहत बधु, पीहरु करत सनेह ।
अजहुँ पछिताइ होहि का, चिरी चुग गई खेह ॥
एस प्रकार ह्रदय में दुःख धारण कर पीहर से स्नेह करती वधु कहती है अब समय निकल जाने पर पश्चाताप से भी कोई लाभ नहीं है |
बृहस्पतिवार, ०३ अप्रेल, २ ० १ ४
बिदा करत जो बोली माई । सीस धरे कर दुइ गुण दाई ॥
चाहे रूसे जेइ संसारा । रूस न पावै प्रान पियारा ॥
विदा करते हुवे जो माता ने कहा था । सिर पर हाथ रखे दो गुण दिए थे । कि चाहे यह सारा संसार रूठ जाए । अपना प्राण-निधान रूठ न पाए ॥
एकै कूलिनी दोइ करारे । केहहि सुरतै केहि बिसारे ॥
जो जीवन सरलित पथ चारी । सिथिरचरन पाथर अनुहारी ॥
नदी तो एक ही है तट दो हैं । किसका तो स्मरण कर किसे भूलाए । जो जीवन सरल स्वरुप संचारित था । थकहार वह दूरी संकेतक चिन्ह पर बैठ गया ॥
गौर करत दिनु रयनि साँवर । भँवरत रहि अस भुइ पथ भाँवर ॥
कर जोग समउ जे बितत जाए । बैठा पंथ का सीस नवाए ॥
दिन को गौर वर्ण करती रयनी को सांवल करती हुई पृथ्वी अपने भ्रमण पथ पर भ्रमण करती है । अर्थात दिवस एक समान नहीं होता अरे पथिक पथ पर शीश झुका कर क्यूँ बैठा है । समय व्यर्थ जा रहा है इसे व्यर्थ न जाने दो इससे मोक्ष का उपाय करो अर्थात इसे कल्याण में लगाओ ॥
का हारा कीन्हनि बिचारा । तुम्ह सोंह ही जे जग सारा ।।
देखु देखु जे जगती दिरिसा । अंबर डम्बर जे चहुँ दिसा ॥
रे जीवन तू क्या हार गया, किसे विचार रहा है । यह समस्त संसार तुम से ही है ॥ जगत क इन दृश्यों को किंचित देखो । ये अम्बर के आडम्बर ये चार दिशाएं ॥
सूर प्रभा मुख पयस मयूखा । सांझ सेंदुरी जे प्रत्यूखा ॥
निहनाद करत नदि की धारा । लय गत निमगन कमन करारा ॥
सूर्य कि प्रभा का मुख देखो चंद्रमा की कांति देखो । इस सिंदूरी संध्या के राग में अनुरक्त उस प्रत्युष को देखो ॥ निह्नाद करती नदी की धारा के लय में निमग्न उस सुन्दर कगारे को देखो ॥
जे तन मन कौतुकी बन, जीवन क्रीड़ा सील ।
जहँ यह थकि बिश्राम लहे, जे बन कठिनइ मील ।।
यह तन यह मन एक कौतुक वन है, जहां जीवन क्रीड़ा शील है । जहां इसने ठकर विश्राम किया फिर यह कौतुक वन उसे अत्यंत ही कठिनतापूर्वक प्राप्त होगा ॥
शुक्रवार, ०४ अप्रेल, २ ० १ ४
जननी कहे बचन सुरताई । तब बधु मन जे कथन कहाई ॥
कहे जोइ मन प्रेरत सुहाए । सिथिर जीवन बहोरि उठी धाए ॥
जननी के कहे वचनों का जब स्मरण हो आया । तब वधु के चित्त ने उक्त कथन उद्धृत किये । उसने जो कुछ उद्धरित किया वह वचन प्रेरणा स्पद होकर बहुंत भले लगे । और शिथिल जो जीवन शिथिल हो गया था वह उठा और पुन: अपने लक्ष्य पथ पर दौड़ने लगा ॥
अरु उत बहियर के ससुरारा । दुनहु भ्रात सों पितु महतारा ॥
बिलगित बिलगित आपन बौने । देउर करि पितु मात बिजौने ॥
इधर वधु के ससुराल में तीनों भ्राता अपनी-अपनी वाप्य लेकर मात-पिता से पृथक हो गए थे । वधु के देवर ही मात-पिता के देख-रेख कर रहे थे और मात-पिता उसकी ॥
दुइ कुल आपन एकै अगारे । धरे सम्पद करे बटबारे ॥
एक आपन सह कारज कामा । कारए जेठुहु पुत के नामा ॥
दो साधृत्य और एक द्विभूमिक भवन जो मात-पिटा ने धारण की हुई थी उसका फिर विभाजन किया । काम-कमाई सहित एक साधृत्य ज्येष्ठ पुत्र के नाम कर दिये ॥
एक आपन प्रियबर कर देईं । नागर सन घर आपन लेईं ॥
अस प्रियबर कर पालक दाई । एकु सम्पद कर अरु बरधाई ॥
एक साधृत्य प्रियवर के हाथ में दाए और देवर के सह मात-पिता ने घर स्वयं के पास ही रखा ॥ इस प्रकार प्रियवर की कुल संपत्ति में पालक के दाय एक और संपत्ति जुड़ गई ॥
जे साधृत सम्पदा अस , बीच हाट बैठाए ।
जहँ भूषन बसन अन का, भूसी लाहन दाए ॥
साधृत कि यह सम्पदा ऐसी थी जो क्रय-विक्रय के मुख्य केंद्र पर स्थित थी । जहां वस्त्राभूषण अन्न क्या भूसा का विपणन भी लाभ देने लगे ॥
शनिवार, ०५ अप्रेल, २ ० १ ४
बाँट बटत तनि होइ बिबादे । जेठ पितु सों जेइ कहि बादे ॥
मम ही श्रम जे सम्पद जोरी । एहि बिधान भै सरबस मोरी ॥
बाँट-बटाई में थोड़ा बखेड़ा भी हुवा । वधु के ज्येष्ठ पिता से यह कहकर विवाद किये । मेरे ही श्रम से यह सम्पदा एकत्र हुई है । इस विधि से सबकुछ मेरा हुवा ॥
मझुरे तईं फूटि ममताई । पुत्ररत करकत बोलै माई ॥
जब तुम्हरे भयौ न बिबाहू । जे सम्पद तबहि सोंह लाहू ॥
मंझले पुत्र के निमत्ति ममता फूट पड़ी । उसकी आसक्ति में माता कड़ककर बोली ॥ जब तुम्हारा विवाहः भी नहीं हुवा था यह सम्पदा तभी से संकलित है॥
यह हम मान बनि तात सहाए । पन कारज तुअँ मूर बैठाए ॥
अस करमन तव ही कर दाईं । अजहुँ तिनके तुमहि गोसाईं ॥
यह मान लिया कि अपने पिता का सहायक बनकर व्यापार की जड़ों को सुदृढ़ किया । इस प्रकार काम-काज तुम्हारे ही हाथ में दिया । अबसे तुम ही उसके स्वामि होगे ॥
अरु पितु मात नेह धन धाने । सब सुत भाजित एकै समाने ॥
भयौ को भवन भूति बिभेदा । ममता करी न को सन भेदा ॥
और माता-पिता का स्नेह एवं धन-धान्य सभी पुत्रों में समान स्वरूप से विभक्त हुवा ॥ यदि किसी भवन में कोई विभूति विभक्त होती है तो ममता किसी से भी भेदभाव नहीं करती ॥
सकल सुता बिदाई भइ दसा काल जस देस ।
रहै समाई जेसोइ , दिए आभूषन भेस ॥
जैसी स्थिति हुई जैसा समय हुवा जैसा स्थान हुवा समस्त पुत्रियों का विदा कर जैसी सामर्थ्य अनुसार ही वस्त्राभूषण आदि दान स्वरूप दाए ॥
रविवार, ०६ अप्रेल, २ ० १ ४
पुनि दिवस एक जेठु घर आई । दुअर उघारत बधु अगुआईं ।
करे भाग बिनु तोख लहेऊ । बातही बातन बोलि कहेऊ ॥
फिर एक दिन वधु के भसुर घर आए । द्वार अनावरित कर वधु ने उनकी अगवानी की । वह उस विभाजन से असंतुष्ट थे उन्होंने बात ही बात में कहा ॥
मोहि धंधन पितु सँजोजिते । मैंहु रहिहु अधिकोष जोगिते ॥
जहां लगी मोरि सेउकाई । सन्मान गहि रहि चिरस्थाई ॥
इस धंधन में मुझे पिताश्री ने ही योजित किया था अन्यथा मैं अधिकोष की सेवा के योग्य था । जहां मैं नियुक्त हो गया था और यह नियुक्ति सम्मानित और चिरस्थायी थी ॥
थापन बाहिर न देउन जाई । लोचन नोर होर धरि माई ॥
जेठ सुत कह बचन सन बाँधे । परिवार भार तुहरे काँधे ॥
पद स्थापना निवास स्थान से अन्यत्र थी । इस हेतु माता के नेत्रों के अश्रुओं ने मुखे रोक लिया ॥ उन्होंने यह कहकर मुझे वचनों से बाँध लिया कि तुम ज्येष्ठ पुत्र हो परिवार का भार तुम्हारे कन्धों पर है ॥
जो सेउकाए जोग निहारी । मात पितु हुँत देइ परिहारी ॥
ए कारन मैं त्यागनहारु । सर्वस्व के एकै अधिकारू ॥
जो नियुक्ति मेरी प्रतीक्षा कर रही थी मैने उसे माता-पिता के लिए त्याग दिया ॥ इस कारण मैं त्यागी हुवा । और सम्पूर्ण संपत्ति का मैं एकमात्र अधिकारी हूँ ॥
जिन्ह सम्पद लाहन मह, बधु पियबर उकसाइ ।
सुनि श्रवन धर जेठ बचन, श्री मुख मौन धराइ ॥
जिस संपत्ति को प्राप्त करने किए वधु ने ही अपने प्रियतम को उकसाया था । ज्येष्ठ के मुख से उसके निमित्त बातें सुनती रही और अपने श्रीमुख पर मौन को ही विराजित रहने दिया ॥
सोम /मंग ,०७/०८ अप्रेल, २ ० १ ४
मध्यम कारज पोठ कमाई । जेठु श्रम संयम अरु बढ़ाईं ॥
जोर जुगित करि कछु धनरासी । मित ब्ययन कृत कृपनइ कासी ॥
काम साधारण ही था असाधारण कमाई थी ज्येष्ठ पुत्र के श्रम सिद्धि एवं संयमित आचरण ने उसे और बढ़ा दिया । । इस प्रकार मित व्ययिता व्यसन हीनता कृपण मुष्टि के कारकों ने कुछ पूंजी भी संकलित कर दी ॥
एक दिन तिन सों प्रियबर बोले । बिकाहि भू खन काहु न मोले ॥
मात पिता के छाई धूरे । चारि चरन चारै घर दूरे ॥
फिर एक दिन प्रियवर ने उनसे कहा । भूखंड विकृत हो रहे हैं आप क्यों नहीं क्रय कर लेते । फिर मात-पिता के छाया के पास ही चार चरणो एवं इतने ही घरों के दुरी पर : --
एक लघुबर खन पुनि लिए बिसाए । तल एकै भूमिक भवन ढराए ॥
बास नवल पुरान संकासे । तीनि सदनिन्ह बहुस सुपासे ॥
एक लघुवर खंड क्रय किया ता भूतल में एक भवन भी रच लिया ( कारण कि एक धंधा सौ घर बना दे सौ घर एक धंधा नहीं बना सकते ) त्रिसदनी वह बहुंत ही सुख दायक निवास नव नवल अवश्य था किन्तु ज्येष्ठश्री के पड़ोसी वही थे ।
सोह नवल तनु सुन्दर सारी । श्रृंगारी अतुलित छबि धारी ॥
चली भवन नउ बधु जिउठानी । जगदम्बिका रूप अवधानी ॥
देह पर एक सुन्दर सी नई साडी सुसज्जित कर और श्रगारित होकर अतुल्यनीय छवि धारण किये जगदम्बिका का स्वरूप अवधारित किये वधु की जेठानी नए भवन को चली ॥
वादन संगतिकर गीत मनोहर तान तरंग सन धुनी ।
ध्वजा प्रहरन सन सुमधुर सुरगन राग संगिन रागिनी ॥
बरनालंकारी नौरस घारी चरत सँग सँग कबिते ।
देहरी दुआरै चरन जुहारै नवल भवन कृत कलिते ॥
मनोहारी गीतों ने वाद्यों की संगती किए हुवे हैं और तान, तरंग, साथ में ध्वनियाँ भी हैं वायु के संग सुमधुर स्वरग्राम हैं रागों के संग उनकी रागिनियाँ हैं ।। वर्णों से अलंकृत होकर नाउ रास ग्रहण किये कविता साथ चल रही है और नव नवकृत नवभूषित नव भवन के द्वार की देहली उनके चरणों में प्रणाम अर्पित कर रही है ॥
कण्ठन कल हारा गुम्फित कारा सुरभित सुमन सुगंधे ।
बेनी संहारे बंदनी बारे केस जस रचन बंधे ॥
कृत कल रँगकारी चौखट डारी चितहारिहि चौंक पुरे ।
पट पलक नमामी भवन स्वामी जोगनरत भयौ रुरे ॥
सुरभित सुगन्धित पुषों से गुँथाए द्वारिका के कंठ में सुन्दर हार हैं । केस रचना से बंधधि हुई सुन्दर वेणियोन के जैसे तोरण माल हैं ॥ चौखटों पर चौंक पूरा कर मन को हरण करने वाली सुन्दर रंगोलियां उकेरी गई हैं ॥पट की प्रणमिन् पलकेँ भवन के स्वामी की प्रतीक्षा में और अधिक सुन्दर हो गई हैं ॥
राजित अनगारे सब गति घारे अन्नपूर्णेश्वरी ।
भोजन भंडारे गह अगियारे कन कन रसिकपन करी ॥
बहु सुस्वादू गहे प्रसादू छहु रस रचित रुचिरई ।
जस श्रीधर श्रामा सयनइ धामा धरे सुख कर सयनई॥
अन्न आगार में अन्नपूर्णेश्वरी अपनी सभी प्रणालियान ग्रहण किये विराजित हैं । और भोजन भण्डार में अग्नि ज्वाल ग्रहण कर कण कण को सुरुचिपूर्ण किये हैं ।। शास्त्रानुसार छहों रसों ने अतिशय निमग्न होकर प्रसाद को इस प्रकार रचा कि वह प्रसाद अत्यधिक रचकर हो गया है । और विश्राम सदनों ने इस प्रकार षयनिकाएं ग्रहण की हुई हैं कि जैसे वह श्रीधर का श्रम ही हो ॥
नउ गह तन अंगे बिचित्र रँग रँगे धौल गिरि रबिकर परे ।
त्रइ सदन सुधामा बहु अभिरामा पटीरइ पटलक घरे ॥
भूषना भूषिते करत सूचिते श्रील श्री सरणागतम् ।
मुखरित मुख द्वारि प्रफुरित नयन कहत पत सुस्वागतम ॥
नवल आवास के वपुरधर ऐसे विचित्र रंगो से रंगा हुवा है मानो धौल गिरी पर अवि की किरणे विकरित हो रही हों । ऊँचे पटलक धारण करने से वह त्रिसदनी सुखदायक धाम और अधिक सुन्दर हो गया ॥ वह भवन जिन भूषणों से आभूषित है वे जैसे सूचित का रहे हैं की श्रीधर श्री से युक्त होकर श्रम के शरण में आ गए हैं । तब मुख्य द्वारिका मुखरित हो गई और प्रफुल्लित नयनों से बोली हे मुखिया आपका स्वागत है ॥
नवन कृतकार भवन, भरे नवल नउ भेस ।
किए तहाँ जिउठानी के चारू चरण प्रबेस ॥
चारि दिवस परतस भवन जुगे सकल सुर षंड ।
रामायन के कल कंठ सन किए पाठ अखंड ॥
बुधवार, ०९ अप्रेल, २०१४
मंगल भवन अमंगलहारी । द्रवउ सो दसरथ अचिर बिहारी ॥
कल कण्ठन रुर सुर गूँजारे । कलिमल हरने चरित तुहारे ॥
वाद वृंद सों जगे अराधे । प्रभु गुण कथा बरहि बिनु बाधे ॥
एकै जगत जो नाम प्रतापू । हर भगता हरि जगप्रिय आपू ॥
कौसल्या के बनवन लाला । जग दुःख अहरन प्रगस कृपाला ॥
मन भावन बहु बालक लीला । कमन किसोरै भए गुण सीला ॥
तोर धनुष सिव सिया बिबाही । भगता परमानंद समाही ॥
चौदह बच्छर हुँत बनबासी । मात कैकेई भवन निकासी ॥
भयौ सीता हरन दुखदाई । हेर हनुमत लंका पठाई ।
उदधि जलधि पयोधिहि बँधाई । सेन सन किए लंका चढ़ाई ॥
भयऊ आँगन घोर रन, धनु धर सर एक तीस ।
बेध दनुपत प्रभु हत किए, सुधा कुंड दस सीस ॥
बृहस्पति १० अप्रेल, २ ० १ ४
सुनि अनुकथन परस्पर होई । सार गहत हरषिहि सब कोई ॥
छाए रहि घर साँति चहुँ पासा । भै जस पूर्न मनोभिलासा ॥
अजहुँ भोग को बिषय न भावा । हरि चरन पयस प्रसादु पावा॥
गए जो कोइ हरि गुन गाथा । गहे सुभाषित अन जल हाथा ॥
गेहस परस्पर प्रीति बाढ़े । सार सील सन सतगुन गाढ़े ॥
हरि नाम एक बिन्दुहु माही । भाव भगति के सिंधु समाही ॥
कथा कथन मैं जो सुख पाईं । वाके बरनन बरनि न जाई ॥
हरि हरा के मनोहरताई । कछुक दिवस रहि ह्रदय समाई ॥
लगे बहुरि सब गेहजन, आपन आपन धाम ।
आपनि उरझ आप जोग, आपन आपण काम ॥
शुक्रवार, ११अप्रेल, २ ० १ ४
सनेही पिया बालक दोहे । बितई जीवन वधु सुख सोहे ॥
पुत अपस्मार पर जब देखे । बदन गहन चिंतन अवरेखे ॥
भए किमि कारन रहि अवगुंठा । अपह रहित बालक गहि कुंठा ॥
रुजन गहन जब आनै घेरे । निदान भवनहि होहहि डेरे ॥
पैहि जतन बहु मनुज सरीरा । पर जस पियासु सागर नीरा ॥
प्रभुन्हि पालक सिरु कर दाही । को को बालक सोई नाही ॥
बिधि किए जग भर जेइ बिधाना । सब जग सब दिन न एक समाना ॥
लोकत उटंग दुःख हिय दाहे । नीचक दरसे को दुःख नाहे ॥
शनिवार, १२ अप्रेल, २ ० १ ४
एकै तपन घन बिंदु घनेरे । एकै कनिक संन कन बहुतेरे ।।
एक दुःख के सों दुःख बहुताई । अरु एक सुख सों सुख सहसाई ॥
ता पर माने दुःख मन काहू । करम बिबस सुख दुःख छति लाहू ॥
उद्भव पालन अरु लयलीना ॥ सब जग जान बिधात अधीना ॥
भयउ बर जीवन मह प्रेमा । प्यास हुँत जस सीतल हेमा ॥
होहहि जब को थिति प्रतिकूला । प्रेम प्रीति सों भए अनुकूला ॥
अस परस्पर राग रस पागे । जीवन बाहि चली तनि आगे ॥
जिउन धन रूप पैह सेउकाई । जो मन कहि जस मुख वादा ॥
असन बसन छाए छादन, भवं भूति सब भोग ।
भए बढ़ भागि बर अरु बधु, रहि न जिन्हके जोग ॥
रविवार, १३ अप्रेल, १०१४
भूतिहि वैभव जोइ जुगारे । सोइ रही कर सिद्धि अधारे ॥
अब लग रहि जोइ सेउकाई । रहि अस्थाइहि गहि ना थाई ॥
प्राविधिञ हुँत जान तंतरी के । पद चिर थाइ उपजंतरी के ॥
बहुरि राउ तानी पद निस्कासे । सूचक पटिका मह उद्भासे ॥
अर्हता जोइ हूँति नियोगे । प्रियबर के कर सबहि सँजोगे ॥
चयन हुँतएक परिखा योजिते । होत सफल पिय भयउ चयनिते ॥
जदपि आपनी ऐंठनि ऐठे । सबहि साधृत खोर के बैठे ।।
सबहि जंत्री छाए दरिदाई । होहि कर धन तोहि त दाई ॥
पुरान नियोजन गहि रहि अधिकारी अधिकार ।
नउ नियोजन पदावनत, होत भए कर्मकार ॥
सोमवार, १४ अप्रेल, २ ० १ ४
प्राग भृतिका भूति गहि जेतक । नवनै कर सिद्धिहि गहि तेतक ।।
संग बचन एक गहे सुपासे । पद थापन भए जहाँ निबासे ॥
अजहुँ सेउकाइ धरि दृढ़ावा । पुरइन चितवन बहु दुःख पावा ॥
कारन कारेछन् कहुँ जाहीं । लिखे लेख पिय आदर नाहीं ॥
कार अछम बानी कारन प्रधाना । खाए जानि अरु कछु नहि जाना ॥
कार कारि करि करतब घाटा । करन मेल किए बारह बाटा ॥
जैसेउ कारन बर अधिकारी । तेसेउ चरन अधिनइ चारी ॥
कही कछु तमकत तर्जत गर्जन । दिए बिनु कारन धमकि निकासन ॥
दोइ दिनमल संजात कर, श्रम सिद्धिहि धरि कास ।
सनै सनै भयऊ पिया, धंधन सोंह उदास ॥
मंगलवार, १५ अप्रेल, २ ० १ ४
एक बच्छर लग किए बैपारे । लाह लहे कबहुक छति कारे ॥
लाह छति दोहु जोग घटाईं । नतरु गहाईं नतरु गवाईं ॥
नव कार करन निस दिन जाईं । अरु कर आखर दे बहुराई ॥
करन जोग पर कार बिजोगे । जोइ होत प्राविधिग्य जोगे ॥
आप जोग जब माँग धराहीं । मिले जे उतरु अजहुँ त नाही ॥
जोगता धारि पिय प्राविधि के । भयऊ हार किए कार लिपि के ॥
उत दूज पदक अरु निकसाही । दिए परिखा भए चयनित ताहीं ।।
कार सोइ पर अबर बिभागे । करम लोभ तहहीं गत लागे ॥
भोजन बसन कहुँ छादन, देवन लागे लाग ।
दूषन करमन बिनु नहीं बुझी पेट की आग ॥
तमकि ताकि बहु रोख गहाई । बधु तिन्ह चारि बात सुनाई ।
लगन तिथि से दो दिन पूर्व काका आए जिनके साथ लघुज भी थे । रोष धारण किये तमक कर ताकते हुवे वधु ने उन्हें चार बातें सुनाई ॥
प्रिय पुर परिजन मझन समाजे । आपनि कुल के कीर्ति भ्राजे ॥
आए आगंतुक अगोते । रखन लाज तुअँ मोहि नियोते ॥
प्रिय जनों पूर्जनों परिजनों औ समाज के मध्य अपने कुल की कीर्ति ही शोभायमान हो । एवं आए हुवे आगंतुक के सम्मुख अपनी आज रखने के िे तुमने चखे निमंत्रित किया है ॥
जो मन चाहे सकल कहेऊ । समुझ अपमान उरस दहेऊ ॥
सुनत कटु बचन रहि सिरु नाई । आवन कह पुनि लेइ बिदाई ॥
अपने अपमान को भान कर जाते हुवे ह्रदय से वधु के मन में जो आया वह सारा कह दिया । वे सर अवनत किये उन कटूक्तियों को सुनते रहे । और पश्च आने को कहकर विदा मांगे ॥
गवने भ्रात पुनि नगर पराए । प्रिय पुर परिजनहि सजेउ सजाए ।।
एक बार जोइ मन मह ठानए । काट सके न तिन्ह को सर बानए ॥
फिर भ्राता सारे सामग्री सुसज्जित कर प्रिय पुर जनों के साथ भाड़े भ्राता फिर पुत्री का ब्याह रचाने दूसरे नगर प्रस्थान कर गए ॥
साज सँजोई सन सँजूत, गवनै सकल बिहाति ।
बहिनी भ्रात सुता बिहाउ, गवनी ना एहि भाँति ॥
सभी बिछाती भी अपने अपने सामग्री संकेत किये उनके साथ चल पड़े । इस प्रकार भ्राता की पुत्री को व्याहने बहनें नहीं गईं ॥
बुधवार, ०२ अप्रेल २०१४
गवनहि चाहिअ गवनहिं नाही । बार बार नही भयउ बिबाही ।।
रह बड़प्पन गवनन माही । पॉच सोच करि अब पछ्ताही ।
जाना चाहिए था किन्तु गई नहीं । विवाह वारंवार नहीं होता ।जाने मन ही बड़प्पन था । निकृष्ट विचार धारण करन के पश्चात पश्चाताप ही रह गया ॥
हठ धरम गहे बहुत बुराई । अहम् रोष तिनके सहि भाई ॥
मेंल मिलाए जहाँ जे तिन्ही । लग अग जग जन जन अरि किन्ही ॥
हठ धर्मिता न बहुंत ही बुराई गरहन की हैं अहम् एवं रोष इसके सहोदर हैं । जहां ये तो\इनों मी जाएं । वहाँ ये लड़ाई छे के सारे जगत को अपना शत्रु बना ले ॥
जिन घर पीहर कहत पुकारे । अजहुँ रुँधे पट सबहि दुआरे ॥
लगन जाइअ रहई सुहाई । भलहि पाछु बधु जाइ न जाई ॥
जिस घर को नैहर कहकर पुकारा अब वहाँ समझौते के सारे पट सारे द्वार बंद हो गए । लगन में जाने में ही शोभा थी । लगन के पश्चात् भले ही जाते न जाते ॥
जहां ठाढ़ भए बाद बिबादा । तोरत तुरत सकल मरजादा ॥
कथन कुबादन के बल पावा । करि भंजन सो जोग जुरावा ॥
वाद-विवाद अवस्थित हो जाए वह मर्यादाओं भंग करने में तत्काल स्वरुप में सक्षम होता है । और यदि उसे कुवचनों कुवादन का बल प्रात हो जाए । तब वह जोड़-संबंधों को विभंजित कर देता है ॥
अस दुःख धर उर कहत बधु, पीहरु करत सनेह ।
अजहुँ पछिताइ होहि का, चिरी चुग गई खेह ॥
एस प्रकार ह्रदय में दुःख धारण कर पीहर से स्नेह करती वधु कहती है अब समय निकल जाने पर पश्चाताप से भी कोई लाभ नहीं है |
बृहस्पतिवार, ०३ अप्रेल, २ ० १ ४
बिदा करत जो बोली माई । सीस धरे कर दुइ गुण दाई ॥
चाहे रूसे जेइ संसारा । रूस न पावै प्रान पियारा ॥
विदा करते हुवे जो माता ने कहा था । सिर पर हाथ रखे दो गुण दिए थे । कि चाहे यह सारा संसार रूठ जाए । अपना प्राण-निधान रूठ न पाए ॥
एकै कूलिनी दोइ करारे । केहहि सुरतै केहि बिसारे ॥
जो जीवन सरलित पथ चारी । सिथिरचरन पाथर अनुहारी ॥
नदी तो एक ही है तट दो हैं । किसका तो स्मरण कर किसे भूलाए । जो जीवन सरल स्वरुप संचारित था । थकहार वह दूरी संकेतक चिन्ह पर बैठ गया ॥
गौर करत दिनु रयनि साँवर । भँवरत रहि अस भुइ पथ भाँवर ॥
कर जोग समउ जे बितत जाए । बैठा पंथ का सीस नवाए ॥
दिन को गौर वर्ण करती रयनी को सांवल करती हुई पृथ्वी अपने भ्रमण पथ पर भ्रमण करती है । अर्थात दिवस एक समान नहीं होता अरे पथिक पथ पर शीश झुका कर क्यूँ बैठा है । समय व्यर्थ जा रहा है इसे व्यर्थ न जाने दो इससे मोक्ष का उपाय करो अर्थात इसे कल्याण में लगाओ ॥
का हारा कीन्हनि बिचारा । तुम्ह सोंह ही जे जग सारा ।।
देखु देखु जे जगती दिरिसा । अंबर डम्बर जे चहुँ दिसा ॥
रे जीवन तू क्या हार गया, किसे विचार रहा है । यह समस्त संसार तुम से ही है ॥ जगत क इन दृश्यों को किंचित देखो । ये अम्बर के आडम्बर ये चार दिशाएं ॥
सूर प्रभा मुख पयस मयूखा । सांझ सेंदुरी जे प्रत्यूखा ॥
निहनाद करत नदि की धारा । लय गत निमगन कमन करारा ॥
सूर्य कि प्रभा का मुख देखो चंद्रमा की कांति देखो । इस सिंदूरी संध्या के राग में अनुरक्त उस प्रत्युष को देखो ॥ निह्नाद करती नदी की धारा के लय में निमग्न उस सुन्दर कगारे को देखो ॥
जे तन मन कौतुकी बन, जीवन क्रीड़ा सील ।
जहँ यह थकि बिश्राम लहे, जे बन कठिनइ मील ।।
यह तन यह मन एक कौतुक वन है, जहां जीवन क्रीड़ा शील है । जहां इसने ठकर विश्राम किया फिर यह कौतुक वन उसे अत्यंत ही कठिनतापूर्वक प्राप्त होगा ॥
शुक्रवार, ०४ अप्रेल, २ ० १ ४
जननी कहे बचन सुरताई । तब बधु मन जे कथन कहाई ॥
कहे जोइ मन प्रेरत सुहाए । सिथिर जीवन बहोरि उठी धाए ॥
जननी के कहे वचनों का जब स्मरण हो आया । तब वधु के चित्त ने उक्त कथन उद्धृत किये । उसने जो कुछ उद्धरित किया वह वचन प्रेरणा स्पद होकर बहुंत भले लगे । और शिथिल जो जीवन शिथिल हो गया था वह उठा और पुन: अपने लक्ष्य पथ पर दौड़ने लगा ॥
अरु उत बहियर के ससुरारा । दुनहु भ्रात सों पितु महतारा ॥
बिलगित बिलगित आपन बौने । देउर करि पितु मात बिजौने ॥
इधर वधु के ससुराल में तीनों भ्राता अपनी-अपनी वाप्य लेकर मात-पिता से पृथक हो गए थे । वधु के देवर ही मात-पिता के देख-रेख कर रहे थे और मात-पिता उसकी ॥
दुइ कुल आपन एकै अगारे । धरे सम्पद करे बटबारे ॥
एक आपन सह कारज कामा । कारए जेठुहु पुत के नामा ॥
दो साधृत्य और एक द्विभूमिक भवन जो मात-पिटा ने धारण की हुई थी उसका फिर विभाजन किया । काम-कमाई सहित एक साधृत्य ज्येष्ठ पुत्र के नाम कर दिये ॥
एक आपन प्रियबर कर देईं । नागर सन घर आपन लेईं ॥
अस प्रियबर कर पालक दाई । एकु सम्पद कर अरु बरधाई ॥
एक साधृत्य प्रियवर के हाथ में दाए और देवर के सह मात-पिता ने घर स्वयं के पास ही रखा ॥ इस प्रकार प्रियवर की कुल संपत्ति में पालक के दाय एक और संपत्ति जुड़ गई ॥
जे साधृत सम्पदा अस , बीच हाट बैठाए ।
जहँ भूषन बसन अन का, भूसी लाहन दाए ॥
साधृत कि यह सम्पदा ऐसी थी जो क्रय-विक्रय के मुख्य केंद्र पर स्थित थी । जहां वस्त्राभूषण अन्न क्या भूसा का विपणन भी लाभ देने लगे ॥
शनिवार, ०५ अप्रेल, २ ० १ ४
बाँट बटत तनि होइ बिबादे । जेठ पितु सों जेइ कहि बादे ॥
मम ही श्रम जे सम्पद जोरी । एहि बिधान भै सरबस मोरी ॥
बाँट-बटाई में थोड़ा बखेड़ा भी हुवा । वधु के ज्येष्ठ पिता से यह कहकर विवाद किये । मेरे ही श्रम से यह सम्पदा एकत्र हुई है । इस विधि से सबकुछ मेरा हुवा ॥
मझुरे तईं फूटि ममताई । पुत्ररत करकत बोलै माई ॥
जब तुम्हरे भयौ न बिबाहू । जे सम्पद तबहि सोंह लाहू ॥
मंझले पुत्र के निमत्ति ममता फूट पड़ी । उसकी आसक्ति में माता कड़ककर बोली ॥ जब तुम्हारा विवाहः भी नहीं हुवा था यह सम्पदा तभी से संकलित है॥
यह हम मान बनि तात सहाए । पन कारज तुअँ मूर बैठाए ॥
अस करमन तव ही कर दाईं । अजहुँ तिनके तुमहि गोसाईं ॥
यह मान लिया कि अपने पिता का सहायक बनकर व्यापार की जड़ों को सुदृढ़ किया । इस प्रकार काम-काज तुम्हारे ही हाथ में दिया । अबसे तुम ही उसके स्वामि होगे ॥
अरु पितु मात नेह धन धाने । सब सुत भाजित एकै समाने ॥
भयौ को भवन भूति बिभेदा । ममता करी न को सन भेदा ॥
और माता-पिता का स्नेह एवं धन-धान्य सभी पुत्रों में समान स्वरूप से विभक्त हुवा ॥ यदि किसी भवन में कोई विभूति विभक्त होती है तो ममता किसी से भी भेदभाव नहीं करती ॥
सकल सुता बिदाई भइ दसा काल जस देस ।
रहै समाई जेसोइ , दिए आभूषन भेस ॥
जैसी स्थिति हुई जैसा समय हुवा जैसा स्थान हुवा समस्त पुत्रियों का विदा कर जैसी सामर्थ्य अनुसार ही वस्त्राभूषण आदि दान स्वरूप दाए ॥
रविवार, ०६ अप्रेल, २ ० १ ४
पुनि दिवस एक जेठु घर आई । दुअर उघारत बधु अगुआईं ।
करे भाग बिनु तोख लहेऊ । बातही बातन बोलि कहेऊ ॥
फिर एक दिन वधु के भसुर घर आए । द्वार अनावरित कर वधु ने उनकी अगवानी की । वह उस विभाजन से असंतुष्ट थे उन्होंने बात ही बात में कहा ॥
मोहि धंधन पितु सँजोजिते । मैंहु रहिहु अधिकोष जोगिते ॥
जहां लगी मोरि सेउकाई । सन्मान गहि रहि चिरस्थाई ॥
इस धंधन में मुझे पिताश्री ने ही योजित किया था अन्यथा मैं अधिकोष की सेवा के योग्य था । जहां मैं नियुक्त हो गया था और यह नियुक्ति सम्मानित और चिरस्थायी थी ॥
थापन बाहिर न देउन जाई । लोचन नोर होर धरि माई ॥
जेठ सुत कह बचन सन बाँधे । परिवार भार तुहरे काँधे ॥
पद स्थापना निवास स्थान से अन्यत्र थी । इस हेतु माता के नेत्रों के अश्रुओं ने मुखे रोक लिया ॥ उन्होंने यह कहकर मुझे वचनों से बाँध लिया कि तुम ज्येष्ठ पुत्र हो परिवार का भार तुम्हारे कन्धों पर है ॥
जो सेउकाए जोग निहारी । मात पितु हुँत देइ परिहारी ॥
ए कारन मैं त्यागनहारु । सर्वस्व के एकै अधिकारू ॥
जो नियुक्ति मेरी प्रतीक्षा कर रही थी मैने उसे माता-पिता के लिए त्याग दिया ॥ इस कारण मैं त्यागी हुवा । और सम्पूर्ण संपत्ति का मैं एकमात्र अधिकारी हूँ ॥
जिन्ह सम्पद लाहन मह, बधु पियबर उकसाइ ।
सुनि श्रवन धर जेठ बचन, श्री मुख मौन धराइ ॥
जिस संपत्ति को प्राप्त करने किए वधु ने ही अपने प्रियतम को उकसाया था । ज्येष्ठ के मुख से उसके निमित्त बातें सुनती रही और अपने श्रीमुख पर मौन को ही विराजित रहने दिया ॥
सोम /मंग ,०७/०८ अप्रेल, २ ० १ ४
मध्यम कारज पोठ कमाई । जेठु श्रम संयम अरु बढ़ाईं ॥
जोर जुगित करि कछु धनरासी । मित ब्ययन कृत कृपनइ कासी ॥
काम साधारण ही था असाधारण कमाई थी ज्येष्ठ पुत्र के श्रम सिद्धि एवं संयमित आचरण ने उसे और बढ़ा दिया । । इस प्रकार मित व्ययिता व्यसन हीनता कृपण मुष्टि के कारकों ने कुछ पूंजी भी संकलित कर दी ॥
एक दिन तिन सों प्रियबर बोले । बिकाहि भू खन काहु न मोले ॥
मात पिता के छाई धूरे । चारि चरन चारै घर दूरे ॥
फिर एक दिन प्रियवर ने उनसे कहा । भूखंड विकृत हो रहे हैं आप क्यों नहीं क्रय कर लेते । फिर मात-पिता के छाया के पास ही चार चरणो एवं इतने ही घरों के दुरी पर : --
एक लघुबर खन पुनि लिए बिसाए । तल एकै भूमिक भवन ढराए ॥
बास नवल पुरान संकासे । तीनि सदनिन्ह बहुस सुपासे ॥
एक लघुवर खंड क्रय किया ता भूतल में एक भवन भी रच लिया ( कारण कि एक धंधा सौ घर बना दे सौ घर एक धंधा नहीं बना सकते ) त्रिसदनी वह बहुंत ही सुख दायक निवास नव नवल अवश्य था किन्तु ज्येष्ठश्री के पड़ोसी वही थे ।
सोह नवल तनु सुन्दर सारी । श्रृंगारी अतुलित छबि धारी ॥
चली भवन नउ बधु जिउठानी । जगदम्बिका रूप अवधानी ॥
देह पर एक सुन्दर सी नई साडी सुसज्जित कर और श्रगारित होकर अतुल्यनीय छवि धारण किये जगदम्बिका का स्वरूप अवधारित किये वधु की जेठानी नए भवन को चली ॥
वादन संगतिकर गीत मनोहर तान तरंग सन धुनी ।
ध्वजा प्रहरन सन सुमधुर सुरगन राग संगिन रागिनी ॥
बरनालंकारी नौरस घारी चरत सँग सँग कबिते ।
देहरी दुआरै चरन जुहारै नवल भवन कृत कलिते ॥
मनोहारी गीतों ने वाद्यों की संगती किए हुवे हैं और तान, तरंग, साथ में ध्वनियाँ भी हैं वायु के संग सुमधुर स्वरग्राम हैं रागों के संग उनकी रागिनियाँ हैं ।। वर्णों से अलंकृत होकर नाउ रास ग्रहण किये कविता साथ चल रही है और नव नवकृत नवभूषित नव भवन के द्वार की देहली उनके चरणों में प्रणाम अर्पित कर रही है ॥
कण्ठन कल हारा गुम्फित कारा सुरभित सुमन सुगंधे ।
बेनी संहारे बंदनी बारे केस जस रचन बंधे ॥
कृत कल रँगकारी चौखट डारी चितहारिहि चौंक पुरे ।
पट पलक नमामी भवन स्वामी जोगनरत भयौ रुरे ॥
सुरभित सुगन्धित पुषों से गुँथाए द्वारिका के कंठ में सुन्दर हार हैं । केस रचना से बंधधि हुई सुन्दर वेणियोन के जैसे तोरण माल हैं ॥ चौखटों पर चौंक पूरा कर मन को हरण करने वाली सुन्दर रंगोलियां उकेरी गई हैं ॥पट की प्रणमिन् पलकेँ भवन के स्वामी की प्रतीक्षा में और अधिक सुन्दर हो गई हैं ॥
राजित अनगारे सब गति घारे अन्नपूर्णेश्वरी ।
भोजन भंडारे गह अगियारे कन कन रसिकपन करी ॥
बहु सुस्वादू गहे प्रसादू छहु रस रचित रुचिरई ।
जस श्रीधर श्रामा सयनइ धामा धरे सुख कर सयनई॥
अन्न आगार में अन्नपूर्णेश्वरी अपनी सभी प्रणालियान ग्रहण किये विराजित हैं । और भोजन भण्डार में अग्नि ज्वाल ग्रहण कर कण कण को सुरुचिपूर्ण किये हैं ।। शास्त्रानुसार छहों रसों ने अतिशय निमग्न होकर प्रसाद को इस प्रकार रचा कि वह प्रसाद अत्यधिक रचकर हो गया है । और विश्राम सदनों ने इस प्रकार षयनिकाएं ग्रहण की हुई हैं कि जैसे वह श्रीधर का श्रम ही हो ॥
नउ गह तन अंगे बिचित्र रँग रँगे धौल गिरि रबिकर परे ।
त्रइ सदन सुधामा बहु अभिरामा पटीरइ पटलक घरे ॥
भूषना भूषिते करत सूचिते श्रील श्री सरणागतम् ।
मुखरित मुख द्वारि प्रफुरित नयन कहत पत सुस्वागतम ॥
नवल आवास के वपुरधर ऐसे विचित्र रंगो से रंगा हुवा है मानो धौल गिरी पर अवि की किरणे विकरित हो रही हों । ऊँचे पटलक धारण करने से वह त्रिसदनी सुखदायक धाम और अधिक सुन्दर हो गया ॥ वह भवन जिन भूषणों से आभूषित है वे जैसे सूचित का रहे हैं की श्रीधर श्री से युक्त होकर श्रम के शरण में आ गए हैं । तब मुख्य द्वारिका मुखरित हो गई और प्रफुल्लित नयनों से बोली हे मुखिया आपका स्वागत है ॥
नवन कृतकार भवन, भरे नवल नउ भेस ।
किए तहाँ जिउठानी के चारू चरण प्रबेस ॥
चारि दिवस परतस भवन जुगे सकल सुर षंड ।
रामायन के कल कंठ सन किए पाठ अखंड ॥
बुधवार, ०९ अप्रेल, २०१४
मंगल भवन अमंगलहारी । द्रवउ सो दसरथ अचिर बिहारी ॥
कल कण्ठन रुर सुर गूँजारे । कलिमल हरने चरित तुहारे ॥
वाद वृंद सों जगे अराधे । प्रभु गुण कथा बरहि बिनु बाधे ॥
एकै जगत जो नाम प्रतापू । हर भगता हरि जगप्रिय आपू ॥
कौसल्या के बनवन लाला । जग दुःख अहरन प्रगस कृपाला ॥
मन भावन बहु बालक लीला । कमन किसोरै भए गुण सीला ॥
तोर धनुष सिव सिया बिबाही । भगता परमानंद समाही ॥
चौदह बच्छर हुँत बनबासी । मात कैकेई भवन निकासी ॥
भयौ सीता हरन दुखदाई । हेर हनुमत लंका पठाई ।
उदधि जलधि पयोधिहि बँधाई । सेन सन किए लंका चढ़ाई ॥
भयऊ आँगन घोर रन, धनु धर सर एक तीस ।
बेध दनुपत प्रभु हत किए, सुधा कुंड दस सीस ॥
बृहस्पति १० अप्रेल, २ ० १ ४
सुनि अनुकथन परस्पर होई । सार गहत हरषिहि सब कोई ॥
छाए रहि घर साँति चहुँ पासा । भै जस पूर्न मनोभिलासा ॥
अजहुँ भोग को बिषय न भावा । हरि चरन पयस प्रसादु पावा॥
गए जो कोइ हरि गुन गाथा । गहे सुभाषित अन जल हाथा ॥
गेहस परस्पर प्रीति बाढ़े । सार सील सन सतगुन गाढ़े ॥
हरि नाम एक बिन्दुहु माही । भाव भगति के सिंधु समाही ॥
कथा कथन मैं जो सुख पाईं । वाके बरनन बरनि न जाई ॥
हरि हरा के मनोहरताई । कछुक दिवस रहि ह्रदय समाई ॥
लगे बहुरि सब गेहजन, आपन आपन धाम ।
आपनि उरझ आप जोग, आपन आपण काम ॥
शुक्रवार, ११अप्रेल, २ ० १ ४
सनेही पिया बालक दोहे । बितई जीवन वधु सुख सोहे ॥
पुत अपस्मार पर जब देखे । बदन गहन चिंतन अवरेखे ॥
भए किमि कारन रहि अवगुंठा । अपह रहित बालक गहि कुंठा ॥
रुजन गहन जब आनै घेरे । निदान भवनहि होहहि डेरे ॥
पैहि जतन बहु मनुज सरीरा । पर जस पियासु सागर नीरा ॥
प्रभुन्हि पालक सिरु कर दाही । को को बालक सोई नाही ॥
बिधि किए जग भर जेइ बिधाना । सब जग सब दिन न एक समाना ॥
लोकत उटंग दुःख हिय दाहे । नीचक दरसे को दुःख नाहे ॥
शनिवार, १२ अप्रेल, २ ० १ ४
एकै तपन घन बिंदु घनेरे । एकै कनिक संन कन बहुतेरे ।।
एक दुःख के सों दुःख बहुताई । अरु एक सुख सों सुख सहसाई ॥
ता पर माने दुःख मन काहू । करम बिबस सुख दुःख छति लाहू ॥
उद्भव पालन अरु लयलीना ॥ सब जग जान बिधात अधीना ॥
भयउ बर जीवन मह प्रेमा । प्यास हुँत जस सीतल हेमा ॥
होहहि जब को थिति प्रतिकूला । प्रेम प्रीति सों भए अनुकूला ॥
अस परस्पर राग रस पागे । जीवन बाहि चली तनि आगे ॥
जिउन धन रूप पैह सेउकाई । जो मन कहि जस मुख वादा ॥
असन बसन छाए छादन, भवं भूति सब भोग ।
भए बढ़ भागि बर अरु बधु, रहि न जिन्हके जोग ॥
रविवार, १३ अप्रेल, १०१४
भूतिहि वैभव जोइ जुगारे । सोइ रही कर सिद्धि अधारे ॥
अब लग रहि जोइ सेउकाई । रहि अस्थाइहि गहि ना थाई ॥
प्राविधिञ हुँत जान तंतरी के । पद चिर थाइ उपजंतरी के ॥
बहुरि राउ तानी पद निस्कासे । सूचक पटिका मह उद्भासे ॥
अर्हता जोइ हूँति नियोगे । प्रियबर के कर सबहि सँजोगे ॥
चयन हुँतएक परिखा योजिते । होत सफल पिय भयउ चयनिते ॥
जदपि आपनी ऐंठनि ऐठे । सबहि साधृत खोर के बैठे ।।
सबहि जंत्री छाए दरिदाई । होहि कर धन तोहि त दाई ॥
पुरान नियोजन गहि रहि अधिकारी अधिकार ।
नउ नियोजन पदावनत, होत भए कर्मकार ॥
सोमवार, १४ अप्रेल, २ ० १ ४
प्राग भृतिका भूति गहि जेतक । नवनै कर सिद्धिहि गहि तेतक ।।
संग बचन एक गहे सुपासे । पद थापन भए जहाँ निबासे ॥
अजहुँ सेउकाइ धरि दृढ़ावा । पुरइन चितवन बहु दुःख पावा ॥
कारन कारेछन् कहुँ जाहीं । लिखे लेख पिय आदर नाहीं ॥
कार अछम बानी कारन प्रधाना । खाए जानि अरु कछु नहि जाना ॥
कार कारि करि करतब घाटा । करन मेल किए बारह बाटा ॥
जैसेउ कारन बर अधिकारी । तेसेउ चरन अधिनइ चारी ॥
कही कछु तमकत तर्जत गर्जन । दिए बिनु कारन धमकि निकासन ॥
दोइ दिनमल संजात कर, श्रम सिद्धिहि धरि कास ।
सनै सनै भयऊ पिया, धंधन सोंह उदास ॥
मंगलवार, १५ अप्रेल, २ ० १ ४
एक बच्छर लग किए बैपारे । लाह लहे कबहुक छति कारे ॥
लाह छति दोहु जोग घटाईं । नतरु गहाईं नतरु गवाईं ॥
नव कार करन निस दिन जाईं । अरु कर आखर दे बहुराई ॥
करन जोग पर कार बिजोगे । जोइ होत प्राविधिग्य जोगे ॥
आप जोग जब माँग धराहीं । मिले जे उतरु अजहुँ त नाही ॥
जोगता धारि पिय प्राविधि के । भयऊ हार किए कार लिपि के ॥
उत दूज पदक अरु निकसाही । दिए परिखा भए चयनित ताहीं ।।
कार सोइ पर अबर बिभागे । करम लोभ तहहीं गत लागे ॥
भोजन बसन कहुँ छादन, देवन लागे लाग ।
दूषन करमन बिनु नहीं बुझी पेट की आग ॥
नीतू सिंघल जी।
ReplyDeleteआपकी बात गले नहीं उतर रही है।
कहाँ है चर्चा मंच में विज्ञापन।
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यह बात अलग है कि आपकी पोस्ट कभी-कभार ही ली जाती है।
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वैसे भी आपका अपना सृजन तो कुछ भी नहीं है।
पुस्तक से नकल मार कर आप चट-पट पोस्ट लगाती हो।
हम केवल स्वरचित सृजन को ही चर्चा मंच पर स्थान देना पसंद करते हैं।