Wednesday, April 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ १२॥ -----

बिधि कहि रे लहुरी ओहारे । धूत जंतु पग बहिर पसारे ॥ 
को को के सिरु धरनी चराए । लमनत चरन दिए गगन पठाए ॥ 
विधाता ने मनुष्य ( उसे उत्पन्न करने के पश्चात ) से कहा था अपनी आवश्यकताएं सिमित रखना । किन्तु उस धूर्त जंतु की आवश्यकता की सीमाएं इतनी विस्तृत हो गई कि  किसी किसी  के पैर इतने लम्बे होते हैं कि वह अम्बर पर चलते हैं सिर धरती पर ॥ 

चित भित जूँ जूँ लाहन गाढ़े । जे उदर अगन तों तों बाढ़े ॥ 
लब्धि लगार लग लाग लगाए । संतोख समन सन ही बुझाए ॥ 
चित्त के अंतर में ज्यों ज्यों लोभ अपने पैर पसारता है । उदर में प्राप्तियों की अग्नि त्यों त्यों बढ़ती जाती है ॥ उपलब्धियों की अधिकता बुराइयों को बढ़ावा देती हैं । संतोष का शामन ऐसी बुराइयों की आग को  बुझा सकता है ॥ 

दुज करनहु को करम न धारी । दुहु सेउकाइ सँग सँग चारी ॥ 
दास चतुर बनौनि पुर राजा । आँखि मूँदि कर दिए सब काजा ।। 
दूसरे कार्यालय ने भी कुछ कार्य नहीं सौपा । फिर दोनों ही सेवाएं साथ साथ चलने  लगी । चतुर दास ने , राज्य का राजा बनने के लिए आँख बंद करके भ्रष्टाचारियों को भी शरण देते हुवे नियोजन के द्वार खोल दिए ॥ 

भोगन हेतु राजसी ठाटे । जान के धन करि बाँदर बाटें ॥ 
लाह लहे मन दुविधा घेरे । को कर गाहे कवन निबेरे ॥ 
वह राजसी ठाट-बाट भोगना चाहता था उसने जनता के धन का बन्दर बाँट कर दिया । लोभ को प्राप्त चित्त को  दुविधा में घिर गया  । वह किस सेवा  का त्याग करे किसे निरंतर रखे ॥ 

सामंजस्  कर दोउ निजोगे । हस्त सिद्धि दोनहु संजोगे ॥ 
एक के थापन बासित ठावा । दूजन  रहही पहिं के गाँवा ॥ 
फिर बुद्धि ने दोनों ही नियुक्तियों में सामंजस्य बैठाया और वार-वधु को दोनों ही कार्यालयों से हस्त सिद्धि प्राप्त होती रही ॥ एक सेवा का स्थापना-स्थल निवास स्थान ही थी।, दूसरी का स्थल  पास का गाँव था ॥ 

रहै सबहि कर कार बिनु, योजित जेतक लोग । 
पाए सो उत्कोच दाए,  लगे लगाउन जोग ॥ 
इस उपक्रम में जितने भी लोग नियोजित किये गए थे उनमें किसी को भी कार्य नहीं सौपा गया था । कार्य उसी को मिला जिसने इसकी प्राप्ति हेतु घूस दी थी । ऐसे अभ्यर्थी  अपनी लागत समुद्धार करने में लग गए ॥ 

वृहस्पतिवार, १७ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                        

रहि भली गवनइ सेउ काई  । रथ संचारन कौटुम दाई ॥ 
रथ बाहि गहे भए रथ बिहिना । अवसरु परे गवनै रथ बिना ॥ 
गाई हुई भृतिका बहुंत भली थी । जिसने रथ के संचायन हेतु कौटुम्ब की व्यवस्था का दी थी ॥ अब दम्पति रथ वाहिनी के होतु हुवे भी उससे विहीन हो गए थे । 

अबलग बर बधु होत प्रबोधे । ब्याजु सहि सब रथ रिन सोधे ॥ 
तेल तरल  भोजन जल दानी । ठाढ़ि बाहि बहु देखि रिसानी ॥ 
अबतक ववधु ने जागरूक होकर  रथ के समस्त ऋण को ब्याज सहित चुकता कर दिया था ॥ फिर उसे तरलतेल भोजन जल दे दे कर भी वधु अचलित वाहिनी को देखती और क्षोभ करती ॥ 

कहत पिया सों कस खिसियाई । परस करत हय हिन्हिन्हाई ॥ 
जे को बधुटी लाए बिहावन । घर सँजोउन कि साज सजावन ॥ 
और अपने प्रियतम से कहती देखो कैसे खिसिया रही है । स्पर्श मात्र से ही हिनहिनाने लगती है । यदि कोई वधु को ब्याह कर लाता है तो घर सजाने के लिए लाता है कि  घर संवारने के लिए ॥ 

लाए  बिसाए सो मोल न थोरे । सूत भुराइहि ओड़ पटोरे ॥ 
कहि पिय दिए कर धन गिन गिन के । लवाइ गए उरझन निस दिन के ॥ 
जिस धन से इस क्रय किया था वह थोड़ा था ? और यह है कि ओढ़कर सोने में ही निमग्न है ॥  हाँ गिन गिन के रूपए दिए थे । और बदले में ये नित्य की उलझन मोल ले लिए ॥ 

कुकरम हो कि सुकरम हो, तुम प्रबीन सब माहि । 
कहत पिया सीखी लैह,  तुमही काहू नाहि ॥ 
प्रियतम बोले कुकरम हो कि  सुकरम हो तुम तो दोनों करने में प्रवीण हो फिर तुम ही क्यूँ नहीं सीख लेती रथ दौड़ाना ॥ 

शुक्रवार, १८ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                

कहत कोच बधु तनिक लजाई । देखि त कहिँ का लोग लुगाई ॥ 
झगड़ा मूरि कलह की नेई । दसरथर्धांगिनि कैकेई ॥ 
फिर वधु ने संकोच करते हुवे किंचित लजाते हुवे कहा । लोह लगी देखेंगे तो क्या कहेंगे ॥ प्रियतम ने उत्तर दिया क्या कहेंगे ?  झगड़े की जड़ और कलह की नींव दशरथ की अर्द्धांगिनी कैकेई और क्या ॥ 

अरु तुअँ पिय नेई के भवना । तीनी पतिनी के प्रिय रमना ॥ 
प्रान ते अधिक प्रिय पिय मोरे । सेष कहँ कहु प्रियतमा तोरे ॥ 
और प्रियतम तुम उस नीव के भवन कहीं के तीन पत्नी के प्रिय पति है ना ॥ पानों से भी प्यारे मेरे प्रिय कांत । ये तो कहो तुम्हारी शेष कांताएं कहाँ हैं ॥ 

राम सिया सह पूत पुतोहू । परिहासि बधु पूछि कर ओहू ॥ 
सकान धर जिन के मन मैले । प्रेम रहित भए तिनके थैले ॥ 
राम और सीता के सदृश्य पुत्र एवं पुत्र वधु कहाँ हैं परिहा सकरते हुवे ओह का उच्चरण कर वधु ने ऐसा प्रश्न किया ॥ शंकाओं से युक्त होकर जिनके ह्रदय में मलिनता होती है । उनकी झोली सदैव प्रीत से रिक्त रहती है ॥ 

 कहन चरे घर राज तुहारे । तव पिय हिय तवहि सोंह हारे ॥ 
मैं राम सरिस तुम सैम सीता । बँधे नेम एक प्रिय एक प्रीता ॥ 
यह घर तुम्हारे ही ऐश से चलता है अत: यहां तुम्हारा ही राज है। तुम्हारे प्रियतम का ह्रदय जिसे तुमने जीत लिया है वह एक तुमसे ही हारा है ॥ यदि मैं राम के सदृश्य हूँ तुम सीता के सदृश्य हो । हम दोनों एक ही प्रिय एक ही प्रियतम के नियम से निबंधित हैं ॥ 

 सत्य सौच दय अरु दान, तपस संहिता चारि । 
श्री रामायन गहि ब्रत, एक नर एक नारि ॥ 
सत्य शौच दया और दान के धर्म एवं तप -संहिता के आचरण से युक्त  श्री रामायण ने एक नर एवं एक नारी व्रत ( विवाह स्वरूप में हो अथवा बिना विवाह के अर्थात कैसे भी हो केवल एक पुरुष हेतु एक नारी और एक नारी हेतु एक ही पुरुष के परस्पर सम्बन्ध का नियम एक नर नारी व्रत कहलाता है ) के नियम को ग्रहण किया है ॥ 

राम चरित रामाचरन, अगजग लग हितकारि । 
हरि कथा कहत ए कारन, कलजुग कलिमल हारि ॥  
भगवान श्री रामचन्द्र का चरित्र एवं उनका आचरण विद्यमान परिवेश में समस्त संसार के लिए हितकर है यही कारण है कि भगवान की कथा को कलयुग के मलिनता उसकी कलुषता को हराने वाली कथा कहते हैं ॥ 

शनिवार, १९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                   

लहे पिया एक प्रसिछक सेवा । रथ बाहिन चारन सिख देवा ॥ 
दोइ पुंज कर कारत गाँठे । पहले पढ़ाई पहलए पाठे ॥ 
फिर प्रियतम ने रथ वाहिनी के संचालन की शिक्षा देने वाले एक प्रशिक्षक की सेवाएं अर्जित की ॥ वह एक रथ वाह से गुंफित द्वि किरण पुंज वाली वाहिनी से युक्त था । उसने सबसे पहले प्रथम अध्याय को पढ़ाया ॥ 

 एक प्रसिछक एक बधु धारी । कुसा बूझ करि बारहि बारी ॥ 
रहे चलइ जस प्रसिछक कहहीं । संचारै हरियर गति लहहीँ ॥ 
एक किरण पुंज वधु के हस्तगत था दुसरा उस प्रशिक्षक ने धारण किया था ॥ वधु ने प्रशिक्षक के निर्देशों का पालन करते हुवे रथ वाहिनी को उसी के दिशा निर्देशन में संचालित किया । आरम्भ में धीमी गति से ही वाहिनी का संचालन किया ॥ 


एक दिन जब पिय बैसि पिछाहू । कही तुअँहु सिख लेहुँ न काहू ॥ 
पाछिन घटना भूरि न पाहीँ । डरपत पिय कहि नाहि रे नाहि  ॥ 
एक दिन जब प्रियवर पीछे बैठे थे । तब वधु ने उनसे कहा तुम भी ये शिक्षा काहे नहीं ग्रहण कर लेते ॥ प्रियवर पीछे घटित हुई घटना  को भूला नहीं पाए थे ॥ और उन्होंने भयवश कहा नहीं नहीं  ॥ 

लाएँ हमहि श्रम सिद्धि जुगित कर । गृहस भार हमरेहि भुज सिखर ॥ 
दुर्घटना जोइ कहुँ होइ जाही । घर श्रम धन कहु कँह सोन आही ॥ 
गृहस्थी संचालन हेतु आवश्यक धन मेरे ही श्रम एवं योग्यता द्वारा सिद्ध होता है । इस प्रकार गृहस्थी का सारा भार मेरे ही बाहु शिखर पर आधारित है ॥ यदि कोई दुर्घटना हो गई तो कहो घर में धन कहाँ से आएगा धन पेड़ में थोेड़े  न  लगता है ॥ 

 एक बार बाजि सों गिरे, अस्थि भै टूक दोइ । 
धनाभाव गहे तब तुअँ,  केतक कठिनइ होइ ॥  
एक बार जब घोड़े से गिर गया था और हड्डी के दो टुकड़े हो गए थे । और राजा ने काम से निकाल दिया था । तब धन का अभाव होने के कारण तब तुम्हें कितनी कठिनाइयाँ हुई थी । 

 रविवार, २० अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

सिछा लहत दिनु दस धन पाँचे । लगन मगन धिआन चित रॉंचे ॥ 
बहुरि लहत भए जब एक मासे । पिय प्रसिछक दिए अवकासे ॥ 
शिक्षा ग्रहण करते हुवे लगभग पंद्रह दिवस व्यतीत हो गए थे । वधु ने एक मास तक बड़े ही लग्न पूर्वक एवं ध्यान मग्न होकर शिक्षा ग्रहण की तत्पश्चात  प्रियतम ने उस प्रशिक्षक को अवकाश दे दिया ॥ 

कारन  प्रशिछक जो धन चाहीं । तिन देवन समर्थ रहि नाहीं ॥
योजिते एक सेवा सुत के । देख परख पुनि कर संजुत के ॥ 
कारण की प्रशिक्षक को जीतनी हस्त सिद्धि की चाह थी । प्रियतम उसे देने में असमर्थ थे ॥ फिर उन्होंने एक रथ सारथी को रथ से संयोजित कर उसकी परीक्षा  ली और  उसे सेवा में नियोजित कर किया ॥ 

कार कुटुम के प्रशिछन दाजए  । एक पंथ सोंह भए दुहु काजए ।।  
मन आए लेइ नगरिहि रमने । परत अवसरु कहुँ लेइ गवने ॥ 
वह रथ कौटुम्ब के सह वधु को रथ सन्चालन हेतु प्रशिक्षित भी करता । अवसर पड़ने पर कहीं ले भी जाता ॥ मन में आया तो नगर विहार किए ॥ 

पावए मन सुख जब करि सेवा । भई दुखित बधु श्रम धन देबा ॥ 
सुख साधन जेतक बिस्तारै । भव भूतिहि को लाह न कारे ॥ 
जब वह सेवा करता तब मन बहुंत सुख पाता । किन्तु जब सिद्धि देने का समय आता तब वधु का मन दुखित हो जाता ॥ सुख के साधन का विस्तार करने से भव की विभूतियाँ अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं होती ॥ 

तन के सोहा तजन में, धन के देवन दान । 
दान के सोहा हित में, करत जगत कल्यान ॥ 
तन की शोभा त्याग में है सुख साधनो के उपभोग में नहीं, धन की शोभा दान में  है साधन संयोग में  नहीं । दान की शोभा संसार का कल्यान करते हूवे सर्व जनों के हित में है , उसके दुरुपयोग में नहीं ॥ 

 सोमवार, २१ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                   

जेत बिधि दिए तेत ओहारे । ता सो जीवन धन जोगारे ॥ 
सुख साधन सब गहै सँकोची । जे पंगत बधु सुमिरत सोची ।। 
विधाता ने जितना दिया है उतने में ही अपने ढकने ढके । उतने से ही मूलभूत आवश्यकताओं क पूर्णित करें । समस्त सुख साधन से युक्त वधु ने संकोच करते हूवे इन पंक्तियों क स्मरन कर विचार-मंथन किया ॥ 

गह गेहस सब साधन साधै । को को जन तौ एहु ना राधे ॥ 
चित निबरित सब सँजोउ लाहे । भयउ दुखित रे मनवा काहे ॥ 
गृह की गृहस्थी सभी सज्जाओं से युक्त है किसी किसी को तो कुछ भी प्राप्य नहीं है ॥ जब चित्त को निवृत्त करने वाले सभी सुख साधन सकलित हैं हे मन ! तुखे फ़िर खिसका दुख है ॥ 

रथ के सथ नाना बिधि चीरा । तोख रहित मन भयउ अधीरा ॥ 
गए परिजन हुँत मन दुःख लाहीँ । एक न एक दिन सबहि जन जाहीं ॥ 
रथ वाहिनी के सह विभिन्न पर्कार के वस्त्र हैं । मन है कि यह संतोष से रहित होकर धैर्यहीन हो रहे है ॥ जो चले गए उन प्रियजनों का  दुख है? एक न एक दिन इस संसार से सभी को  जाना है ॥ 

कबहुँ भयउ जब मनस उचाटे । दिवस रैनी कटे नहि काटे ॥ 
तब बहु बड़की बहिनहि ताहीं । दूरभास मुख जग बतियाही ॥ 
इस प्रकार जब कभी वधु का मन उदास हो  जाता और दिवस रयन व्यतीत नहीँ होते  ॥ तब वह अपनी बड़ी सहोदराओं से दूरभास के सम्मुख होकर वार्तालाप करती ॥ 

बोलत आपनी उरझन, भगिनि कहत समुझाइ  । 
भाव पूरन कि दान धन, सब बिधि भयउ सहाइ ॥  

मंगलवार, २२ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                 

पीहर भयउ अवसरु बिहाई । गवने प्रियजन बहिन न जाईं ॥ 
एहि कर अवगहत सरित  निरासा। खिन्न मनस सब रहहि उदासा ॥ 
पितृ निवास में विवाह का अवसर हुवा । सभी प्रियजन सम्मिलित हुवे किन्तु बहने नाहीं गई । इस पकारण निराशा की सरिता मेन डूबते सभी का मनस वितृष्ण होकर उदास हो गया था ॥ 

तब एक कहि सब जोग जुआरे । बाँपी बन भू को देस बिहारें ॥ 
बिहरन रत मन रंजन लाहीँ । खेद बिषाद भूर परि जाहीं ॥ 
तब एक सहोदरा ने कहा सभी सन्योग भि मिल रहे हैँ क्योँ न हम  किसी क्रिड़ा स्थली मेँ विहार करने चलें ॥ जहां रँजन के सभी लक्षण हो ॥ विहार रत मन जब रंजन को प्राप्त होगा तब खेद विषाद के चिन्ह धुंधले हो जाएंगे ॥ 

देखे तिथि तब बस संजोगे । नवल बछर आवन पथ जोगे । 
सब के सम्यक सम्मति लाखे । त्रइ दिवस के कार क्रम राखे ॥ 
जब विहार हेतु तिथि निर्धारित की जा रही थी तब संयोग वश नव वत्सर पणे आगमन हेतु  प्रतिक्षारत  था ॥ सभी गन्तुक की उचित सहमति जान कर तीन दिवस का कार्यक्रम रचा गया ॥ 

जगन नाथ जग जीवन धामा  । किए तय इ थरी एहि मनकामा ॥ 
बिहरन के सौं होत कृतार्थ । सफल मनोरथ होहि तीरथ ।  
समस्त जगत को जीवन देने वाले प्रभु श्री हरि के धाम को सभी ने  तय किया  इस हेतु कि विहार के सह कृतार्थ होते हुवे मन की कामनाएँ भि सेफल हींगी आउर एक तीर्थ के दर्शन होंगे ॥  

बहुरि बहुरि बिहार करन, बहुतहि प्रमुदित होए । 
कहुँ भूषन कहुँ बसन कहुँ नाना साज सँजोए ॥ 
फिर वह कुल यामिनी  विहारकरन हेतु बहुंत हि प्रमुदित हुई । कहूँ आभूषण तो कहीं वासर कहीं विविध  श्रृंगारिक सामग्रियाँ संजोने लगी ॥ 

बुधवार, २३ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

लेन लगे त हटबारि दौड़े ।  जावन जोगित संजुग जोड़े ॥ 
पूर्ण भए जब साज सँजोगे । ब्यय करन तब धन कर जोगे ॥ 
 क्रय करने योग्य हुवा तो उसे लेने हटवारी दौड़े । ले जाने योग्य सब संयोग एकत्र करे । जब साड़ी तैयारियां पूर्ण हो गईं तब व्ययकरण हेतु धन योजित किया ॥ 

गुना भाग ब्यकलित जुगाई । कर अकिंचन ब्यय अधि पाई ॥ 
सास नन्दि सों परि प्रिय लोगहि । मज्जन बसन देंन धन जोगहि ।।
गुना भाग करते जोड-घटा कर हस्त को अकिञ्चित  एवं अतिव्यय विहित पाया ॥ सास, नन्द के सह परिजन , एब्वम् प्रियजन थे । जो तीर्थाटन के अवसर पर वस्त्रा-भूषण धन आदि भेंट प्रतीक्षित थे ॥ 

त्रइ दिवस हुँत प्रबन्ध प्रबासा । बहुरि रथ बाहि के प्रत्यासा ॥ 
बिहरन ब्ययन भोजन पूजन । नाना सत्कृत हुँत  लागहि धन ।। 
तीन दिवस के प्रवास हेतु व्यवस्था की गई थी । फिर रथ वाहिनी का भोजन-पानी । विहार हेतु भोजन पूजन पर होने वाला व्यय । फिर नान प्रकार के सत्कार्य हेतु लगने वाला धन ॥ 

बड़की दयालु कृपा निधानी । लहुरि बहिनी दसा सब जानी ॥ 
कहिँ धन धन हुँत चिँता न लेहू । सकल ब्ययित धन हमहि देहू ॥ 
बड़ी भगिनियाँ अत्यन्त दयालु स्वभाव की थीँ । वह लघु भगिनियों की दशा से भिग्य थीँ ॥ उन्होंने खान धन हेतु तुम करो । यात्राव्यय हम ही वहन करेँगे ॥ 

बहिनि सकल चिंतन हारि, करत बहूसहि हेत । 
तेत ब्यय बधु भार गहि, संचित करि कर जेत ॥  
 इस प्रकार अत्यन्त स्नेह करते हुवे बड़ी भगिनियों ने सभी चिंताएं हर लीँ ॥ फिर वधु व्यय वहां कर सकति थी उसने उतना संकलित कर लिया  ॥ 

बृहस्पतिवार, २४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                              

गतागत हूँत लौहु पथ बाहि । बसी बहिनि जहँ तहाँ रहि नाँहि ॥ 
एतेव सब रथ किरन सँभारे । पथ साधन सौं गवन बिचारै ॥ 
भगिनियाँ जिस देश मेन वसित थिन उस देश मेँ आवागमन हेतु लौह पथ वाहिनी का साधन नहीं था । एतदर्थ सभी ने रथ वाहिनियों की किरण संभाली पाषाणिक मार्ग के साधन से ही जाने यात्रा करने का विचार किया ॥

गह भोजन सब साज सँभारे । जोग सकल परिबार बिठारे  ॥ 
संग सारथी चरी रथ बाहि ।  गहि गति पैठत लखी पथ माहि ॥ 
भोजन-पानी ग्रहण कर सभी आवश्यक सामग्रियों की संभाल किये समस्त परिवार को बैठा, सारथी की संगती किये, रथ वंही अपने गन्तव्य को चल पड़ी । लक्ष्य पथ में प्रवेश करते ही उसने गति पकड़ ली ॥ 

ताप बात दुर्गन्ध समाही । बिरलइ भै मन त्री बिधि बाहीं ॥ 
चले पद चारिन कोस दूरइ । बदन बसन लहि धूरइ धूरइ ॥ 
उष्मीय वायु दूषण से युक्त होकर दुर्गन्धित दे रही थी, और मन को शीतल मंढ सुगन्धित वायु वायरल स्वरुप मेन कहिन कहिन ही मिल रही थी ॥ रथ के चरण द्वारा चार कोस की दूरी तय करते ही मुख एवम वस्त्र धूल धूल हो गए ॥ 

कहूँ बिरचित कहुँ कहुँ बिरथ्या । गर्त गहे कहुँ रज रज पथ्या ॥ 
दूजन रद अरु रथ पद धचके । सकल संधि जग देहिहि हचके ॥ 
कहीं केवल कथित स्वरुप मेन रचित मार्ग था, तो कहीं औघट स्वरुप लिये था । कहीं वह गर्त धारण किये था तो कहीं कोई पथ रज रज हुवा जा रहे था ॥ 

बालक करि जब त्राहि मम त्राहि । जोग कलस कर मात जल दाहि ॥ 
अध पदन्तर रथिक दिए देई । राज पथ पुनि चरन पैठेई ॥ 
ऐसे पंथ पर गमन करते हुवे बालक जब त्राहि त्राहि की पुकार करने लगे । तब माता ने कर कलश योगित कर उन्हेँ जल पिलाया । प्रथम पड़ाव के अर्ध दूरी पर रथिक कर चुका कर रथ के चारण एक राजपत मेन प्रवेश किये ॥ 

अचिरम द्युति सम द्रुत गति धरि  एक नगरी नियराए  । 
भँवरन रत पथ रथ चरन,  साँभर पुर पैठाए ॥
विद्युत की सी तीव्र गति  धृत किए फ़िर रथ एक नगरि के निकट था । रथ के चरण पथ पथ भ्रमण रत रहे फ़िर रथ ने रथिकों को साम्भर पुर नामक स्थान में पहुचाया ॥ 

 शुक्रवार, २५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

चरत आपुनी ढोर ठियारे । सब गंतु जुगे एकै दुआरे ॥ 
रहे तहाँ एक बहिनि निबासा  । भए प्यान के प्रथम प्रवासा ॥ 
अपने अपने ठोर- ठीया से चलते फ़िर सभी यात्रि के दुआर मेन एकत्र हुवे ॥ जहां कि एक भगिनी का निवास था । वह उस यात्रा का प्रथम पड़ाव था ॥ 

अनुग्रह पूरित कर जल पाने । बिते भोर मह बहुरि पयाने ॥ 
चरत बाहि कोलाहल होई । जय जग नाथ करात सब कोई ॥ 
यात्रियों ने वहाँ आग्रह पूर्णित जल पान किया । भोर के व्यतीत होने के पश्चात पुन: प्रस्थान किये । वाहिनी संचारीत ध्वनि से कोलाहल होता । सभी यात्री जगत के स्वामी श्री विष्णु का  जय जय कार करते चलते ॥ 

राजित भरु सौं  आपुनि भामिनि । हों जस भ्राजित घन सों दामिनि ॥ 
 बढ़त पंथ  पुनि भयउ दुपहरी । धूप न्हाइ ताप मह गहरी ॥ 
स्वामी गन अपणी अपनी स्वामिनियों के साथ विराजित हुवे ऐसे सुशोभित हो रहे थे जेसे  दमकती  शोभित होती है ॥ पथ पर अग्रसर होते दप पहरै हो गाई जो शीत काल मेँ दुप से नहाई गहन ताप से युक्त थी ।। 

जोगे संग मह  स्वरचि भोजन  । रचयित रुचिकर सब मन भावन ॥ 
कहुँ कर्परी पूरि कचौरी । कहुँ मधुरन्न अमिअ रस बोरी ॥ 
यात्रीगण स्वयं द्वारा रचित भोजन साथ में लिए चल रहे थे जो सुरुचिपूर्वक तैयार किया गया वह भोजन सभि की रुचि अनुसार था ॥ कहीं पीठी की पकौड़ियाँ रचइ गाई थी कहिन भरवाँ  पुरियां एवम कचौड़ियां थि ॥ कहीं अमृत के जैसे रास मेन दूबाँ हुवाँ मिष्ठान्न नैवैद्य स्वरुप मेँ था ॥ 

पैठि बाहि जथ एक लघु गाँवा । बैठि सबहि एक बटु के छावां ॥ 
जथा जोग सब  लिए आहारे । बहोरि बाहिन गवन पधारे ॥ 
रथ वाहिनी ने जब एक लघु ग्राम में प्रवेश किया । तब सभी एक वाट वृक्ष की छाया में बैठ कर सभी ने यथाः योग्य आहार ग्रहण किया और पुन: प्रस्थान करने हेतु वाहिनी मेन बैठी ॥ 

हरि दरसन प्रमुदित मन होत सगुन चहुँ पास । 
दिसा दिसत पन्थ प्रसन्न, प्रसन्न अन्त अगास ॥ 
मन हरि के दर्शन हेतु प्रमुदित था चारोँ ओर शुभ सगण हो रहा था । दासों दिशाएं पंथ  दर्शा कर प्रसन्न हो रही थीं आकाश अपना अन्त दर्शा कर प्रसंन हो रहा था ॥ 

शनिवार, २६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                      

पैठत भरि सँध्या कटक नगर । पार गमनत भुवनेस्वर॥
भये सिथिर रथ बैसहि बैसे । जगन नाथ के गौपुर पैठे ॥

चरत आन बहु लमनइ डगरी । अरध कोस चर भीते नगरी ।
तत्पर बाहि तहाँ चलि आवां । उदकत उदधि जहँ परम सुहावा ॥

चढ़त उतरत तरंग अलिंदे । नादि जस कल कूजिका बृन्दे ॥   
निरत करत कल कुलिनी कूला । कूलिनस कण चरन रमझूला ॥ 

उतर धरा पर ससि रतनारी । दधि दर्पन धर रूप सँवारी ॥
मयूखि मुख महि दरसत कइसे । बिहा भवन नौ दुलहिनि जइसे ॥ 

  अद्भुद दृग दरसन दरस , श्रवन  सिन्धु कल बानि ।   
बालक मुख  किलकत कहे, केत न केतक पानि ॥ 

रविवार, २७ अप्रेल, २०१४                                                                                                      

कहूं दरसन अर्थी के कलबल । कहूँ बारिधि करत कोलाहल ॥ 
धिआ सिन्धु छबि चित्र मह देखीं । सम्मुख पहलै बारहि पेखी ॥ 

  तोए तीर तरंग उठि  धाई । बार बार तट परसन आईं ॥ 
दरसि बाल ड्रैग बालक दिरिसे । देइ पटतर सस बाल सरिसे ॥ 

तोए तीर तरंग मचलाही । आए धाए तात बाहु समाही ॥ 
बधु दीठ दइत दइता दिरिसे । देइ पटतर को जुगल सरिसे ॥ 

प्रियतम नयन सस लवन लखाए । प्रिये मयूखि मुख छब दरसाए ॥ 
दरसे अद्भुद दरसन गोचर । करे सुबरन सस केतु छिछ कर ॥ 

इत उदरथि उत रथ पथी चरे पद पँथ करारु । 
सुभागमन कहि रजस कन, अतिथि देउँ पधारु ॥   


सोमवार, २८ अप्रेल २०१४                                                                                                                  

 पार गमन कल कुञ्ज गली सॉ । पैठ रयन एक सरन थली सो ।। 
लए चारि सदन सैयां सुजोगे । आउ भगत मह लगै दु लोगे ॥ 

को सिरु सरनै सयनाई के । जुगल जोग रहि धरम काइ के ॥ 
सबहि सोंह बिबस्ता आनी । ऐसेउ बास रहि न बानी ॥ 

सरन भवन  भीते । अल्प छाज धन तनिक सुभीते ॥ 
दाए जोग जो रहे न जो गे । सोइ जग रहे न रमतु लोगे ॥ 

जगपति पावन मंगल धामा । श्रमित पथिक पुनि करे बिश्रामा ॥ 
उदय प्रात गवनत तट देखे । रयन तरंगिन कृत चित लेखेँ ॥ 

लाल बसन लाली लसे, द्यु पत द्योति मंत । 
रोह रथ सुत रसन कसे, द्युत मती के कंत ॥  

मंगलवार, २९ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                          

प्रात न्हाए गावँ सब साथा । प्रथम भ्रमण किए दरसन नाथा ॥ 
दरसी दीठ भर नाथ दुआरी । भ धन्य मन सकल परिबारी ॥ 

पाएं परत पुन्य पंगत लागे । भितरे भाव भगति रस पागे ॥ 
दोइ घरी नाथ दरसनु दाए ।  नमनत माथ प्रनमिन प्रनमाए ॥ 

त्रान हीन जन चरै पयादे । पाए पद पयस पवित प्रसादे ॥
परदर्सनु जब दरसिन दरसे । मान मनुहार कर बहु हरसे ॥ 

प्रथित अस्थान प्रथित प्रदखिने । जथा जोग लिए दान दक्खिने ॥ 
करे पाथ भोजन मध्याना । फिरैं आए तट दिन अवसाना ॥ 

चितबत चितरेखे फिर फिरि देखे सील सै सागर मुखीं ।
चौंक चौबारीहि घिर घर घारिहि बासत निबासी सुखी ॥
बाहिर पाँवरिया, सुम साँवरिया,  भाँवरि भँवरें ।
पथ जोगत साजन, कर सहुँ दर्पन,साँझ सलौनी सँवरें ॥

कहुँ उद प्लबित कहुँ उदप, उदकत उदख उछारि। 
कहुँ हलबत हुलारि हुलस, मुकुता मुख उद्गारि ॥ 

बुध/बृहस्पत, ३०/०१  अप्रेल/मई , २ ० १ ४                                                                                                    

चरनी चरन रज चिन्ह खचितए । तीर तीर राज भवन रचितए ॥ 
रचितए सारं भवन जाँच ढारी । तीर तीर नागर जन चारी ॥ 

पांथ पयधि पथ पांथ फिरी । पाँति पयादै पथ पाँति घिरी ।। 

रस्बत श्री फल कल जल धारी । रसालिक रास भँवर श्रम हारी ॥ 

पूर्ण पूरी सब मन भाई । मधुराधर करि रस मधुराई ॥ 

पास देस सुत आप धिआना । खाए खेरे खेर कर नाना ॥

उत धिअ सब बालकिन्हि संगें । हेल मेल जल रज रज रंगी ॥ 
रंगोरी रँग भरी अल्पना । आईटी बधु मगन आपनि कल्पना ॥ 

सों स्वजन पॉय हॉस किए, बैठी बहुरि करार । 
कंठ हार की आस किए, अपलक रही निहार ॥   


निसा निरंजन नभ तर छाई । लसत लवन पूर्न जुबताई । 
नील नलिन नभ आभ नियंगे । पूर्णनानी प्रभा प्रसंगे ।। 

प्रभ नाथ पल्लवित एक संगें । निभ निभ नभ निज रंजन रंगे ।।  
असितरनव पत लसत ललाई । धरा धानि सेंदूर धराई ॥ 

कहत बधु  मैहु कुमकुम कर लूँ । केस न्यास कलित कर भर लूं ॥ 
केतु नाथ के कंचन बर लूं । भँवर भरन कृत कंगन कर लूँ ॥ 

अरुन कर कासि किरन उतारूँ । पूर नुपूर चरण लिए घारूँ ॥ 
कलोलित कूल कलापक धारु । कोमल कृत करधनी सवाँरु ॥ 


रयनइ नयन कज्जल भरुँ, अधर कुसुम अनुराग । 
सागर सस्तर सेज करूँ, बरु मैं सुहाग ॥      
    

Tuesday, April 1, 2014

----- ॥ सोपान पथ १ १ ॥ -----

दुइ दिवस पूरब आए काके । लघुबर भ्रात संग रहि जाके ॥ 
तमकि ताकि बहु रोख गहाई । बधु तिन्ह चारि बात सुनाई । 
लगन तिथि से दो दिन पूर्व काका आए जिनके साथ लघुज भी थे । रोष धारण किये तमक कर ताकते हुवे वधु ने उन्हें चार बातें सुनाई ॥ 

प्रिय पुर परिजन मझन समाजे । आपनि कुल के कीर्ति भ्राजे ॥
आए आगंतुक अगोते । रखन लाज तुअँ मोहि नियोते ॥ 
प्रिय जनों पूर्जनों परिजनों औ समाज के मध्य अपने कुल की कीर्ति ही शोभायमान हो । एवं आए हुवे आगंतुक के सम्मुख अपनी आज रखने के िे तुमने चखे निमंत्रित किया है ॥ 

जो मन चाहे सकल कहेऊ । समुझ अपमान उरस दहेऊ ॥ 
सुनत कटु बचन रहि सिरु नाई । आवन कह पुनि लेइ बिदाई ॥ 
अपने अपमान को भान कर जाते हुवे ह्रदय से वधु के मन में जो आया वह सारा कह दिया । वे सर अवनत किये उन कटूक्तियों को सुनते रहे । और पश्च आने को कहकर विदा मांगे ॥ 

गवने भ्रात पुनि नगर पराए । प्रिय पुर परिजनहि सजेउ सजाए ।।
एक बार जोइ मन मह ठानए  । काट सके न तिन्ह को सर बानए ॥ 
फिर भ्राता सारे सामग्री सुसज्जित कर प्रिय पुर जनों के साथ भाड़े भ्राता फिर पुत्री का ब्याह रचाने दूसरे नगर प्रस्थान कर गए ॥ 

साज सँजोई सन सँजूत, गवनै सकल बिहाति । 
बहिनी भ्रात सुता बिहाउ, गवनी ना एहि भाँति ॥ 
सभी बिछाती भी अपने अपने सामग्री संकेत किये उनके साथ चल पड़े । इस प्रकार भ्राता की पुत्री को व्याहने बहनें नहीं गईं ॥ 

बुधवार, ०२ अप्रेल २०१४                                                                                       

गवनहि चाहिअ गवनहिं नाही । बार बार नही भयउ बिबाही ।। 
रह बड़प्पन गवनन माही । पॉच सोच करि अब पछ्ताही । 
जाना चाहिए था किन्तु गई नहीं । विवाह वारंवार नहीं होता ।जाने मन ही बड़प्पन था । निकृष्ट विचार धारण करन के पश्चात पश्चाताप ही रह गया ॥ 
हठ धरम गहे बहुत बुराई । अहम् रोष तिनके सहि भाई ॥ 
मेंल मिलाए जहाँ जे तिन्ही । लग अग जग जन जन अरि किन्ही ॥ 
हठ धर्मिता न बहुंत ही बुराई गरहन की हैं अहम् एवं रोष इसके सहोदर हैं । जहां ये तो\इनों मी जाएं । वहाँ ये लड़ाई छे के सारे जगत को अपना शत्रु बना ले ॥ 

जिन घर पीहर कहत पुकारे । अजहुँ रुँधे पट सबहि दुआरे ॥ 
लगन जाइअ रहई सुहाई । भलहि पाछु बधु जाइ न जाई ॥ 
जिस घर को नैहर कहकर पुकारा अब वहाँ समझौते के सारे पट सारे द्वार बंद हो गए । लगन में जाने में ही शोभा थी । लगन के पश्चात् भले ही जाते न जाते ॥ 

 जहां ठाढ़ भए बाद बिबादा  । तोरत तुरत सकल मरजादा ॥ 
कथन कुबादन के बल पावा । करि भंजन सो जोग जुरावा ॥ 
वाद-विवाद अवस्थित हो जाए वह  मर्यादाओं  भंग करने में तत्काल स्वरुप में सक्षम होता है । और यदि उसे कुवचनों कुवादन का बल प्रात हो जाए । तब वह जोड़-संबंधों  को विभंजित कर देता है ॥ 

अस दुःख धर उर कहत बधु, पीहरु करत सनेह । 
अजहुँ पछिताइ होहि का, चिरी चुग गई खेह ॥  
एस प्रकार ह्रदय में दुःख धारण कर पीहर से स्नेह करती वधु कहती है  अब समय निकल जाने पर पश्चाताप  से भी कोई लाभ नहीं है | 

बृहस्पतिवार, ०३ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                

बिदा करत जो बोली माई । सीस धरे कर दुइ गुण दाई ॥ 
चाहे रूसे जेइ संसारा । रूस न पावै प्रान पियारा ॥ 
विदा करते हुवे जो माता ने कहा था । सिर पर हाथ रखे  दो गुण दिए थे । कि चाहे यह सारा संसार रूठ जाए । अपना प्राण-निधान रूठ न पाए ॥ 

एकै कूलिनी  दोइ करारे । केहहि सुरतै केहि बिसारे ॥ 
जो जीवन सरलित पथ चारी । सिथिरचरन पाथर अनुहारी ॥ 
नदी तो एक ही है तट दो हैं । किसका तो स्मरण कर किसे भूलाए ।  जो जीवन सरल स्वरुप संचारित था । थकहार वह दूरी संकेतक चिन्ह पर बैठ गया ॥ 
  गौर करत दिनु रयनि साँवर । भँवरत रहि अस भुइ पथ भाँवर ॥ 
कर जोग समउ जे बितत जाए । बैठा पंथ का सीस नवाए ॥ 
दिन  को गौर वर्ण करती  रयनी को सांवल करती हुई पृथ्वी अपने भ्रमण पथ पर भ्रमण करती है । अर्थात दिवस एक समान नहीं होता अरे पथिक पथ पर शीश झुका कर क्यूँ बैठा है । समय व्यर्थ जा रहा है  इसे व्यर्थ न जाने दो इससे मोक्ष का उपाय करो  अर्थात इसे कल्याण में लगाओ ॥  

का हारा कीन्हनि बिचारा । तुम्ह सोंह ही जे जग सारा ।। 
देखु देखु जे जगती दिरिसा । अंबर डम्बर जे चहुँ दिसा ॥ 
रे जीवन तू क्या हार गया,  किसे विचार रहा है । यह समस्त संसार तुम से ही है ॥ जगत  क इन दृश्यों को किंचित देखो । ये अम्बर के आडम्बर ये चार दिशाएं ॥ 

सूर प्रभा मुख पयस मयूखा । सांझ सेंदुरी जे प्रत्यूखा ॥ 
निहनाद करत नदि की धारा । लय गत निमगन कमन करारा ॥ 
सूर्य कि प्रभा का मुख देखो चंद्रमा की कांति देखो । इस सिंदूरी संध्या  के राग में अनुरक्त उस  प्रत्युष को देखो ॥ निह्नाद करती नदी की धारा के लय में निमग्न उस सुन्दर कगारे को देखो ॥ 

जे तन मन कौतुकी बन, जीवन क्रीड़ा सील । 
जहँ यह थकि बिश्राम लहे, जे बन कठिनइ मील ।।  
यह तन यह मन एक कौतुक वन है, जहां जीवन क्रीड़ा शील है । जहां इसने ठकर विश्राम किया फिर यह कौतुक वन उसे अत्यंत ही कठिनतापूर्वक प्राप्त होगा ॥ 

शुक्रवार, ०४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                     

जननी कहे बचन सुरताई । तब बधु मन जे कथन कहाई ॥ 
कहे जोइ मन प्रेरत सुहाए । सिथिर जीवन बहोरि उठी धाए ॥ 
जननी के कहे वचनों का जब  स्मरण हो आया । तब वधु के चित्त ने उक्त कथन उद्धृत किये । उसने  जो कुछ  उद्धरित किया वह वचन प्रेरणा स्पद होकर बहुंत भले लगे । और शिथिल जो जीवन शिथिल हो गया था वह उठा और पुन: अपने लक्ष्य पथ पर दौड़ने लगा ॥ 

अरु उत बहियर  के ससुरारा । दुनहु भ्रात सों पितु महतारा ॥ 
बिलगित बिलगित आपन बौने । देउर करि पितु मात बिजौने ॥ 
इधर वधु के ससुराल में  तीनों भ्राता अपनी-अपनी वाप्य लेकर मात-पिता से पृथक हो गए थे । वधु के देवर ही मात-पिता के देख-रेख कर रहे थे और मात-पिता उसकी ॥ 

दुइ कुल आपन एकै अगारे । धरे सम्पद करे बटबारे ॥ 
एक आपन सह कारज कामा । कारए जेठुहु पुत के नामा ॥ 
दो साधृत्य और एक द्विभूमिक भवन जो मात-पिटा ने धारण की हुई थी उसका फिर विभाजन किया । काम-कमाई सहित एक साधृत्य ज्येष्ठ पुत्र के नाम कर दिये ॥ 

एक आपन प्रियबर कर देईं । नागर सन घर आपन लेईं ॥ 
अस प्रियबर कर पालक दाई । एकु सम्पद कर अरु बरधाई ॥ 
एक साधृत्य प्रियवर  के हाथ में दाए और देवर के सह मात-पिता ने घर स्वयं के पास ही रखा ॥ इस प्रकार प्रियवर की कुल संपत्ति में पालक के दाय एक और संपत्ति जुड़ गई ॥ 

 जे साधृत सम्पदा अस , बीच हाट बैठाए । 
जहँ भूषन बसन अन का, भूसी लाहन दाए ॥ 
साधृत कि यह सम्पदा ऐसी थी जो  क्रय-विक्रय के मुख्य केंद्र पर स्थित थी । जहां वस्त्राभूषण अन्न क्या भूसा का विपणन भी लाभ देने लगे ॥ 

शनिवार, ०५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                       

बाँट बटत तनि होइ बिबादे । जेठ पितु सों जेइ कहि बादे ॥ 
मम ही श्रम जे सम्पद जोरी । एहि बिधान भै सरबस मोरी ॥ 
बाँट-बटाई में थोड़ा बखेड़ा भी हुवा । वधु के ज्येष्ठ पिता से यह कहकर विवाद किये । मेरे ही श्रम से यह सम्पदा एकत्र हुई है । इस विधि से सबकुछ मेरा हुवा ॥ 

मझुरे तईं फूटि ममताई । पुत्ररत करकत बोलै माई ॥ 
जब तुम्हरे भयौ न बिबाहू । जे सम्पद तबहि सोंह लाहू ॥ 
मंझले पुत्र के निमत्ति ममता फूट पड़ी । उसकी आसक्ति में माता कड़ककर बोली ॥ जब तुम्हारा विवाहः भी नहीं हुवा था यह सम्पदा तभी से संकलित है॥ 

यह हम मान बनि तात सहाए । पन कारज तुअँ मूर बैठाए ॥ 
अस करमन तव ही कर दाईं । अजहुँ  तिनके तुमहि गोसाईं ॥ 
यह मान लिया कि अपने पिता का सहायक बनकर व्यापार की जड़ों को सुदृढ़ किया । इस प्रकार काम-काज तुम्हारे ही हाथ में दिया । अबसे तुम ही उसके स्वामि होगे ॥ 

अरु पितु मात नेह धन धाने । सब सुत भाजित एकै समाने ॥ 
भयौ को भवन भूति बिभेदा । ममता करी न को सन भेदा ॥ 
और माता-पिता का स्नेह एवं धन-धान्य सभी पुत्रों में समान स्वरूप से विभक्त हुवा ॥ यदि किसी भवन में कोई विभूति विभक्त होती है तो ममता किसी से भी भेदभाव नहीं करती ॥ 

सकल सुता बिदाई भइ दसा काल जस देस । 
रहै समाई जेसोइ , दिए आभूषन भेस ॥ 
जैसी स्थिति हुई जैसा समय हुवा जैसा स्थान हुवा समस्त पुत्रियों का विदा कर जैसी सामर्थ्य अनुसार ही वस्त्राभूषण आदि दान स्वरूप दाए ॥  

रविवार, ०६ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

पुनि दिवस एक जेठु घर आई । दुअर उघारत बधु अगुआईं । 
करे भाग बिनु तोख लहेऊ । बातही बातन बोलि कहेऊ ॥ 
फिर एक दिन वधु के भसुर घर आए । द्वार अनावरित कर वधु ने उनकी अगवानी की । वह उस विभाजन से असंतुष्ट थे उन्होंने बात ही बात में कहा ॥ 

मोहि धंधन पितु सँजोजिते । मैंहु  रहिहु अधिकोष जोगिते ॥ 
जहां लगी मोरि सेउकाई । सन्मान गहि रहि चिरस्थाई ॥ 
इस धंधन में मुझे पिताश्री ने ही योजित किया था अन्यथा मैं अधिकोष की सेवा के योग्य था । जहां मैं नियुक्त  हो गया था और यह नियुक्ति सम्मानित और चिरस्थायी थी ॥ 

थापन बाहिर न देउन जाई । लोचन नोर होर धरि माई ॥ 
जेठ सुत कह बचन सन बाँधे । परिवार भार तुहरे काँधे ॥ 
पद स्थापना निवास स्थान से अन्यत्र थी । इस हेतु माता के नेत्रों के अश्रुओं ने मुखे रोक लिया ॥ उन्होंने यह कहकर मुझे वचनों से बाँध लिया कि तुम ज्येष्ठ पुत्र हो परिवार का भार तुम्हारे कन्धों पर है ॥ 

जो सेउकाए जोग निहारी । मात पितु हुँत देइ परिहारी ॥ 
ए कारन मैं त्यागनहारु  । सर्वस्व के एकै अधिकारू ॥ 
जो नियुक्ति मेरी प्रतीक्षा कर रही थी  मैने उसे माता-पिता के लिए त्याग दिया ॥ इस कारण मैं त्यागी हुवा । और सम्पूर्ण संपत्ति का मैं एकमात्र अधिकारी हूँ ॥ 

जिन्ह सम्पद लाहन मह, बधु पियबर उकसाइ । 
सुनि श्रवन धर जेठ बचन, श्री मुख मौन धराइ ॥  
जिस संपत्ति को प्राप्त करने किए वधु ने ही अपने प्रियतम को उकसाया था । ज्येष्ठ के मुख से उसके निमित्त बातें सुनती रही  और अपने श्रीमुख पर मौन को ही विराजित रहने दिया ॥ 

सोम /मंग ,०७/०८  अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                    

मध्यम कारज  पोठ कमाई । जेठु श्रम संयम अरु बढ़ाईं ॥ 
जोर जुगित करि कछु धनरासी । मित ब्ययन कृत कृपनइ कासी ॥ 
काम साधारण ही था असाधारण कमाई थी ज्येष्ठ पुत्र के श्रम सिद्धि एवं संयमित आचरण ने उसे और बढ़ा दिया । । इस प्रकार मित व्ययिता व्यसन हीनता कृपण मुष्टि के कारकों ने कुछ पूंजी भी संकलित कर दी ॥ 

एक दिन तिन सों प्रियबर बोले । बिकाहि भू खन काहु न मोले ॥ 
मात पिता के छाई धूरे । चारि चरन चारै घर दूरे ॥ 
फिर एक दिन प्रियवर ने उनसे कहा । भूखंड विकृत हो रहे हैं आप क्यों नहीं क्रय कर लेते । फिर मात-पिता के छाया के पास ही चार चरणो एवं इतने ही घरों के दुरी पर : -- 

एक लघुबर खन पुनि लिए बिसाए । तल एकै भूमिक भवन ढराए ॥ 
बास नवल पुरान संकासे । तीनि सदनिन्ह बहुस सुपासे ॥ 
एक लघुवर खंड क्रय किया ता भूतल में एक भवन भी रच लिया ( कारण कि एक धंधा सौ घर बना दे सौ घर एक धंधा नहीं बना सकते ) त्रिसदनी वह बहुंत ही सुख दायक निवास नव नवल अवश्य था किन्तु  ज्येष्ठश्री के पड़ोसी वही थे ।  

सोह नवल तनु सुन्दर सारी । श्रृंगारी अतुलित छबि धारी ॥ 
चली भवन नउ बधु जिउठानी । जगदम्बिका रूप अवधानी ॥
देह पर एक सुन्दर सी नई साडी सुसज्जित कर और श्रगारित होकर अतुल्यनीय छवि धारण किये जगदम्बिका का स्वरूप अवधारित किये वधु की जेठानी नए भवन को चली ॥ 

वादन संगतिकर गीत मनोहर तान तरंग सन धुनी । 
ध्वजा प्रहरन सन सुमधुर सुरगन राग संगिन रागिनी ॥ 
बरनालंकारी नौरस घारी चरत सँग सँग कबिते । 
देहरी दुआरै चरन जुहारै   नवल भवन कृत कलिते ॥ 
मनोहारी गीतों ने वाद्यों की संगती किए हुवे हैं और तान, तरंग, साथ में ध्वनियाँ  भी हैं  वायु के संग सुमधुर स्वरग्राम हैं रागों के संग उनकी रागिनियाँ हैं ।। वर्णों से अलंकृत होकर नाउ रास ग्रहण किये  कविता साथ चल रही है  और नव नवकृत नवभूषित नव भवन के द्वार की देहली उनके चरणों में प्रणाम अर्पित कर रही है ॥ 

कण्ठन कल हारा गुम्फित कारा सुरभित सुमन सुगंधे । 
बेनी संहारे बंदनी बारे केस जस रचन बंधे ॥ 
कृत कल रँगकारी चौखट डारी चितहारिहि चौंक पुरे । 
पट पलक नमामी भवन स्वामी जोगनरत भयौ रुरे ॥ 
सुरभित सुगन्धित पुषों से गुँथाए द्वारिका के कंठ में सुन्दर हार हैं ।  केस रचना से बंधधि हुई  सुन्दर वेणियोन के जैसे तोरण माल हैं ॥ चौखटों पर चौंक पूरा कर मन को हरण करने वाली सुन्दर रंगोलियां उकेरी गई हैं ॥पट की  प्रणमिन् पलकेँ भवन के स्वामी की प्रतीक्षा में और अधिक सुन्दर हो गई हैं ॥ 

 राजित अनगारे सब गति घारे अन्नपूर्णेश्वरी । 
भोजन भंडारे गह अगियारे   कन कन रसिकपन करी ॥ 
बहु सुस्वादू गहे प्रसादू छहु रस रचित रुचिरई । 
जस  श्रीधर श्रामा सयनइ धामा धरे सुख कर सयनई॥ 
अन्न आगार में अन्नपूर्णेश्वरी अपनी सभी प्रणालियान ग्रहण किये विराजित हैं । और भोजन भण्डार में अग्नि ज्वाल ग्रहण कर कण कण को सुरुचिपूर्ण किये हैं ।। शास्त्रानुसार छहों रसों ने अतिशय निमग्न होकर प्रसाद को इस प्रकार रचा कि वह प्रसाद अत्यधिक रचकर हो गया है । और विश्राम सदनों ने इस प्रकार षयनिकाएं ग्रहण की हुई हैं कि जैसे वह श्रीधर का श्रम ही हो ॥ 

नउ गह तन अंगे बिचित्र रँग रँगे धौल गिरि रबिकर परे । 
त्रइ सदन सुधामा बहु अभिरामा पटीरइ पटलक घरे ॥ 
भूषना भूषिते करत सूचिते श्रील श्री सरणागतम् । 
मुखरित मुख द्वारि प्रफुरित नयन कहत पत सुस्वागतम ॥ 
नवल आवास के वपुरधर ऐसे विचित्र रंगो से रंगा हुवा है मानो धौल गिरी पर अवि की किरणे विकरित हो रही हों । ऊँचे पटलक धारण करने से वह त्रिसदनी सुखदायक धाम और अधिक सुन्दर हो गया ॥ वह भवन जिन भूषणों से आभूषित है वे जैसे सूचित का रहे हैं की श्रीधर श्री से युक्त होकर श्रम के शरण में आ गए हैं । तब मुख्य द्वारिका मुखरित हो गई और प्रफुल्लित नयनों से बोली  हे मुखिया आपका स्वागत है ॥ 

नवन कृतकार भवन, भरे नवल नउ भेस । 
किए तहाँ जिउठानी के चारू चरण प्रबेस ॥ 

चारि दिवस परतस भवन जुगे सकल सुर षंड । 
रामायन के कल कंठ सन किए पाठ अखंड ॥ 

बुधवार, ०९ अप्रेल, २०१४                                                                                              

मंगल भवन अमंगलहारी । द्रवउ सो दसरथ अचिर बिहारी ॥ 
कल कण्ठन रुर सुर गूँजारे । कलिमल हरने चरित तुहारे ॥ 

वाद वृंद सों जगे अराधे । प्रभु गुण कथा बरहि बिनु बाधे ॥ 
एकै जगत जो नाम प्रतापू । हर भगता हरि जगप्रिय आपू ॥ 

कौसल्या के बनवन लाला । जग दुःख अहरन प्रगस कृपाला ॥ 
मन भावन बहु बालक लीला । कमन किसोरै भए गुण सीला ॥ 

तोर धनुष सिव सिया बिबाही । भगता परमानंद समाही ॥ 
चौदह बच्छर हुँत बनबासी । मात कैकेई भवन निकासी ॥ 

भयौ सीता हरन दुखदाई । हेर हनुमत लंका पठाई । 
उदधि जलधि पयोधिहि बँधाई । सेन सन किए लंका चढ़ाई ॥ 

भयऊ आँगन घोर रन, धनु धर सर एक तीस । 
बेध दनुपत प्रभु हत किए, सुधा कुंड दस सीस ॥   

बृहस्पति १० अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                              

सुनि अनुकथन परस्पर होई । सार गहत हरषिहि सब कोई ॥
छाए रहि घर साँति चहुँ पासा । भै जस पूर्न मनोभिलासा ॥ 

अजहुँ भोग को बिषय न भावा । हरि  चरन पयस प्रसादु पावा॥ 
गए जो कोइ हरि गुन गाथा । गहे सुभाषित अन जल हाथा ॥ 

गेहस परस्पर प्रीति बाढ़े । सार सील सन  सतगुन गाढ़े ॥ 
हरि नाम एक बिन्दुहु माही । भाव भगति के सिंधु समाही ॥ 

कथा कथन मैं जो सुख पाईं । वाके बरनन बरनि न जाई ॥ 
हरि हरा के मनोहरताई । कछुक दिवस रहि ह्रदय समाई ॥ 

लगे बहुरि सब गेहजन, आपन आपन धाम । 
आपनि उरझ आप जोग, आपन आपण काम ॥  

शुक्रवार, ११अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                       

सनेही पिया बालक दोहे । बितई जीवन वधु सुख सोहे ॥ 
पुत अपस्मार पर जब देखे । बदन गहन चिंतन अवरेखे ॥ 

भए किमि कारन रहि  अवगुंठा । अपह रहित बालक गहि कुंठा ॥ 
 रुजन गहन जब आनै घेरे । निदान भवनहि होहहि डेरे ॥ 

पैहि जतन  बहु मनुज सरीरा । पर जस पियासु सागर नीरा ॥ 
प्रभुन्हि पालक सिरु कर दाही । को को बालक सोई नाही ॥ 

बिधि किए जग भर जेइ बिधाना । सब जग सब दिन न एक समाना ॥ 
लोकत उटंग दुःख हिय दाहे । नीचक दरसे को दुःख नाहे ॥ 

शनिवार, १२ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                       

 एकै तपन घन बिंदु घनेरे । एकै कनिक संन कन  बहुतेरे ।। 
एक दुःख के सों दुःख बहुताई । अरु एक सुख सों सुख सहसाई ॥ 

ता पर माने दुःख मन काहू । करम बिबस सुख दुःख छति लाहू ॥ 
उद्भव पालन अरु लयलीना ॥ सब जग जान बिधात अधीना ॥ 

भयउ बर जीवन मह प्रेमा । प्यास हुँत जस सीतल हेमा ॥ 
होहहि जब को थिति प्रतिकूला । प्रेम प्रीति सों भए अनुकूला ॥ 

अस परस्पर राग रस पागे । जीवन बाहि चली तनि आगे ॥ 
जिउन धन रूप पैह सेउकाई ।  जो मन कहि जस मुख वादा ॥ 

असन बसन छाए छादन, भवं भूति सब भोग । 
भए बढ़ भागि बर अरु बधु, रहि न जिन्हके जोग ॥  

रविवार, १३ अप्रेल, १०१४                                                                                                     

भूतिहि वैभव जोइ जुगारे । सोइ रही कर सिद्धि अधारे ॥ 

अब लग रहि जोइ सेउकाई । रहि अस्थाइहि गहि ना थाई ॥ 

प्राविधिञ हुँत जान तंतरी के । पद चिर थाइ  उपजंतरी के ॥ 
बहुरि राउ तानी पद निस्कासे । सूचक पटिका मह उद्भासे ॥ 

अर्हता जोइ हूँति नियोगे । प्रियबर के कर सबहि सँजोगे ॥ 
चयन हुँतएक परिखा योजिते । होत सफल पिय भयउ चयनिते ॥ 

जदपि  आपनी ऐंठनि ऐठे । सबहि साधृत खोर के बैठे ।।  
सबहि जंत्री छाए दरिदाई । होहि कर धन तोहि त दाई ॥  

पुरान नियोजन गहि रहि अधिकारी अधिकार ।
नउ नियोजन पदावनत, होत  भए कर्मकार ॥

 सोमवार, १४ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                  

प्राग भृतिका भूति गहि जेतक । नवनै कर सिद्धिहि गहि तेतक ।। 
संग बचन एक गहे सुपासे । पद थापन भए जहाँ निबासे ॥ 

अजहुँ सेउकाइ धरि दृढ़ावा । पुरइन चितवन बहु दुःख पावा ॥ 
कारन कारेछन् कहुँ  जाहीं । लिखे लेख पिय आदर नाहीं ॥ 

कार अछम बानी कारन प्रधाना । खाए जानि अरु कछु नहि जाना ॥ 
कार कारि करि करतब घाटा । करन मेल किए बारह बाटा ॥ 

जैसेउ कारन बर अधिकारी । तेसेउ चरन अधिनइ चारी ॥ 
कही कछु तमकत तर्जत गर्जन । दिए बिनु कारन धमकि निकासन ॥

दोइ दिनमल संजात कर, श्रम सिद्धिहि धरि कास । 
सनै सनै भयऊ पिया, धंधन सोंह उदास ॥  

मंगलवार, १५ अप्रेल, २ ० १ ४                                                                                                  

एक बच्छर लग किए बैपारे । लाह लहे कबहुक छति कारे ॥ 
लाह छति दोहु जोग घटाईं । नतरु गहाईं नतरु गवाईं ॥ 

नव कार करन निस दिन जाईं  । अरु  कर आखर दे बहुराई ॥ 
करन जोग पर कार बिजोगे । जोइ  होत प्राविधिग्य  जोगे ॥ 

आप जोग जब  माँग धराहीं । मिले जे उतरु अजहुँ त  नाही ॥ 
जोगता धारि पिय प्राविधि के । भयऊ हार किए कार लिपि के ॥ 

उत दूज पदक अरु निकसाही । दिए परिखा भए चयनित ताहीं ।। 
कार सोइ पर अबर बिभागे । करम लोभ तहहीं गत लागे ॥ 

भोजन बसन कहुँ छादन, देवन लागे लाग । 
दूषन करमन बिनु नहीं बुझी पेट की आग ॥