Sunday, February 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ ८ ॥ -----

कछु  कहुँ सूझत कभु को बूझत । कभु दिवस लगत कभु राति जगत ॥ 
कछु करि मंथन कछु कहुँ दरसन । कारत बिषइ गहनइ अध्ययन ॥ 
कभी गहरी भोर तो कभी रात्रि जागरण कर ॥  कुछ मंथन कर, कुछ कहीं देखकर । कुछ कहीं समझ कर कुछ कहीं बूझ कर । इस प्रकार कर सम्बन्धी विषयों का अध्ययन किया ॥ 

कबहुँक अंतर भै अँधियारे । घार सार प्रजोत उजियारे ॥ 
चास चकास चमक चकिताई । पथ रागि पर पाठ पठिताई ।। 
जब कभी अंतर में अज्ञान का अंधेरा छा जाता तब द्रव्य सार संजो कर ज्योति से उजियारा करती । उसकी चमक चाँदनी दृष्टि को चकित करते हुवे उसके पटल को यद्यपि रक्ताक्त कर देती तथापि अध्यायों का अध्ययन निरंतर रहता ॥ 

अस करत बधु आपनी जोगे । गन गुन ग्यान जोग सँजोगे ॥ 
सकल नेम उपबंध अधीना । गणक करत कर भार बिहीना ॥ 
ऐसा करते वधु ने अपनी योग्य गण गुण एवं ज्ञान के योग का संकलन कर लिया था । गणना को कर -भार से विहीन करते हुवे, आय कर अधिनियम के समस्त नियम एवं उपबंधों के अधीन : -- 

लेख लिखित निज कर कृत भ्राजे । आइ  कर पत्रक साज समाजे ।। 
एक नौ एक पूनर निर्धारन  । एक प्रियतम के एक रचि आपन ॥ 
वधु ने स्वयं के हस्त लिपि से लेखाबद्ध किया । इस प्रकार आयकर निर्धारण पत्र तैयार हो गए ॥ जो एक प्रियतम का एवं एक स्व्यं हेतु रचित  एक नव निर्धारण वर्ष का एवं एक पुराने वर्ष के पुनर्निर्धारण का प्रपत्र था ॥ था ॥ 

 गए दुइ तीनी मास ,समउ जोगे नवल बछर । 
लह एक लमनी साँस, कहत अब देखु का होत ॥ 
इस प्रकार दो तीन मॉस व्यतीत व्यय हो गए ।  समय नए वर्ष की आवक को जगाने लगा ॥ वधु ने एक लम्बी सांस ली और कहने लगी देखो अब क्या होता है ॥ 

सोमवार, १७ फरवरी, २०१४                                                                                                  

इत बधुरी अगुवानु अकुलाए  । उत निर्धारन बछर नियराए ॥ 
आई कर के कार निकाई । घर दोछाजन सन दरसाई ॥ 
इधर वधु नव निर्धारण वर्ष की आगवानी हेतु व्याकुल हो रही थी । उधर वह द्वार से आ लगा ॥ आयकर विभाग का कार्यालय घर की दुछत्ती से  दिखता था ॥ 

प्रियबर बहियर दरस पयानत । बोले तुहरे भ्रात रहि कहत ॥ 
तेहि बास बहु भूत निबासे । हम का डरपत कहि बधु हाँसे ॥ 
जब प्रियवर ने प्रियतमा को वाहन प्रस्थान करते हुवे देखा । तब वे बोले तुम्हारे भ्राता कह रहे थे उस भवन में बहुंत भूत बसते हैं । हैम क्या डरते हैं भूतों से, यह कह वहु ने परिहास किया ॥ 

जाके प्रियबर तुहरे जैसे । भूत पिसाच तिन धरे कैसे ॥ 
हँसै कहै बधु कलइ नचाई । परचत तव नाउ त कदराई ॥ 
फिर जिसके प्राणाधार तुम्हारे जैसे हो उसे भूत पिशाच कैसे धर लेंगे ॥ और हसते हुवे कलाइयां नचाते वह कहने लगी ये तुम्हारे नाम से परिचय करवा दिया तो वे डरने लगेंगे हम नहीं ॥ 

अरु सुनत सकुचि उतरु पिया के । चले नहि उहँ नाउ पतिया के ॥ 
गवनइ बधु पुनि सकपकिया के । फूरइ  कूटइ कटकटिया के ॥ 
और प्रियतम का यह प्रतिउत्तर सुन कर वधु संकुचित रह गई कि वहाँ तुम्हारे प्राणाधार का नाम नहीं चलता, पिता का नाम चलता है ॥  वधु ने सकपकाते हुवे एवं झूठ मूठ ही किटकिटाते वधु ने वहाँ केलिए प्रस्थान किया ।। 

लिए पत्रावलिक किए सोंह कर लिपिक भवन भीत चरन धरी । 
सिख नख लग निरखे, पत्र पत्र परखे, भूर चूक तनि निकरी ॥ 
उहिं ठारहि ठारे, करत सुधारे, पुनि सम्मुख धार दियो । 
मुद्रा लिपि चिन्हे, अंकित किन्हे, पूरित गुंफित हार कियो ॥ 
 पत्रावली  ग्रहण किये वहु ने आय कर कार्यालय के अंतर में प्रवेश कर उन्हें कर लिपिक के सम्मुख किया । लिपिक ने वधु एवं पत्रावली दोनों को शिखर से चरण तक देखा एवं एक एक पत्र का परिक्षण करते हुवे किंचित भूल चूक निकाली ॥ वधु ने तत्काल ही उन दोषों का
निवारण करते हुवे पत्रों को पुन: लिपिक के सम्मुख प्रस्तुत किया ॥ लिपिक ने मुद्राक्षरों को पत्रों पर अंकित किया और वधु ने उन्हें अधिकोष ऋण धारक के अपूर्ण हार में उन्हें पिरो कर उसे पूर्ण किया ॥ 

ढोरि डफरी खँजरी जस, करतल ताल मृदंग । 
श्रुति मधुरी कन घरी तस , धुनीहि मुद्रा नियंग ॥ 
जैसे ढोल डफ खंजरीमृदंग आदि वाद्य यंत्रों की करताल ताल कारणों को मधुर स्वर प्रदान करते हैं मुद्रा की चिन्हांकन ध्वनी भी कुछ उसी प्रकार की थी ॥ 

मंगलवार, १ ८ फ़रवरी, २०१४                                                                                              

प्रियतम मत मति सरन कुरंगे । बिहरि कुरखेत पवन प्रसंगे ॥ 
इत बधुरी के तुरग तुरंगे । गह गति दूजहि गगन बिहंगे ॥ 
प्रियतम के मस्तिष्क सरणि पर विचारों के हिरन जोता गया किन्तु बिना बोये हुवे खेत में पवन का प्रसंग प्राप्त कर विचरण करने लगे ॥ इधर वधु के मन के अश्व गहन गति प्राप्त कर किसी दूसरे ही गगन में उड़ने लगे ॥ 

प्रियतम मति मह  आपन लागएँ । कहि चलु चलु तुर धारन धारएँ ॥ 
बधु मन दूजन निर्धारए । तेहि भवन लिए एक अरु लागए ॥ 
प्रियतम की मति में आपण का ऋण था (समस्त पत्र माल को तैयार देख )अब विलम्ब न करो एवं शीघ्रता बरतते हुवे उस ऋण का आहरण करने चलो ॥ 

बास भवन के दुनहु स्वामी  । हाट सदन भै मोरै नामी ॥ 
बास भवन सब  जोग जमोगे । पंजीयनापन जोगन जोगे॥ 
निवास भवन दोनों के नाम से है एवं पण्य सदन मेरे नाम से है ॥ निवास सदन सभी योगों से युक्त है ॥ आपण के ऋण के सह पंजीयन की राशि प्रतीक्षारत है । 

पंजीयन पत्र भई  बँधाई । आपन लागन का चतुराई ॥ 
अरु आपन लगि अधिक ब्याजे । कहत बचन बहु पलन बिराजे ॥ 
पण सदन का पंजीयन पत्र भी निवास भवन के पत्र के जस बंधक हो जाएगा अत: पण सदन का ऋण धारण करने में क्या चतुराई है ॥ आपण के ऋण में निवास भवन की अपेक्षा ब्याज भी अधिक है । वधु ने पलंग पर विराजमान होकर अपने प्रियतम से ऐसे वचन कहे 

 प्रियतम तुम एक कारज कारौ । एकु पराकलन पतर उकारो ॥ 
लिखउ लिखित हुँत पुनि निर्मानए । कृपा करत एहि लागन दानए ॥ 
हे रे प्रियतम तुम एक कार्य किजौ । पुनर्निर्माण हेतु  लेख उल्लखित कर एक प्राकलन पत्र की रचना करो उसमें यह  लिखो कि कृपया करके हमें यह ऋण प्रदान करें ॥ 

रोष धरत मुख रिस करत, प्रियतम बहु खिसिआहि । 
सीधहि सीध मग जाएहु, तुम का सीखिहि नाहि ॥ 
'हमें यह ऋण प्रदान करें' यह रिस करते हुवे एवं कुपित हो प्रियतम फटकारते हुवे कहने लगे तुमने सीधे मार्ग में सीधा चलना कहीं सीखा नहीं क्या ॥ 

बुधवार, १९ फरवरी, २० १ ४                                                                                                

छ बरस पुरइन छहि लख मूला । पुनर रचन होहि प्रतिकूला ॥ 
तुम छटैल तौ सोइ छटेले । फिरि जस फिराहिं देहि न धेले ॥ 
केवल छह: लाख के मूल्य के छह वर्ष पुरातन भवन  की पुनर्रचना ऋण हेतु प्रतिकूल होगा । यदि तुम छंटी हुई हो तो वे भी छंटे हुवे ही हैं तुम्हे फिरकी क जैसे फिरा देंगे और धेला नहीं देंगे ॥ 

बैठेहि बधु जोइ चित चेता । जुगति जुगत जो संगत हेता ॥ 
तिन चिंतन को सकै न टारे । कहाँ बचन केतक बल धारें ॥ 
यदि वधु के चित मन कोई विचार बैठ गया और वह युक्तुयुक्त एवं तर्क संगत हुवा तब कोई चाहे कितने ही कहे कितना ही बल लगाए उस चिंतन को चित से विलग नहीं कर पाता ।। 

करत परस्पर दुहु संबादे । होइ अकारन बाद बिबादे ॥ 
बिहान कही बधु कहु का दाहू । जेहि लाग मैं धार दिखाहूँ ॥ 
इस प्रकार वर-वहु दोनों परसपर संवाद करते करते अकारण ही वाद विवाद करने लगे ॥ वधु ने अंत में खा कहो तो जो मैं ऋण को ले कर दिखा दूँ तो क्या दोगे ॥ 

कहत पिया मैं कातर प्रानी । जिते न को तव सन रन बानी ॥ 
कलि कारन के कर की बीना । प्रियतम की जो मानि कही ना ॥ 
प्रियतम कहने लगे मैं तो निरिह प्राणी ठहरा । तुम्हारे इस वाणी के रन से कोई विजय प्राप्त कर सकता ॥ कहने लगे अरी नारद के हाथों की कलह बीना । तुम प्रियतम का कहना नहीं मानती ॥ 

कारी कुटिल कपटि कल्हारी । दिए पिय पटतर भारिहि भारी ॥ 
अस कर बहुतक पदक उपाधी ।  कर भूषित बधु बानी साधी ॥ 
हानिकारणी  कुटिल-कपटी कलेश करने वाली फिर प्रियतम क्रोधवश वधु को भारी भारी उपमाएं देते हुवे इसप्रकार बहुंत से पाकों एवं उपाधियों से विभूषित कर वधु की वाणीं को ठीक किया ॥ 

लड़कर कछुक लड़बावर, किए सकल स्वीकार ॥ 
हँसत रद छादन दसनत, उधार कहु कर धार । 
कुछ लाग कर  कुछ लगाई कर वधु ने सारे पदक-उपाधियाँ  स्वीकार कर ली । एवं दांत बिछा कर हंसते हुवे कुछ को कर में धारण की कुछ उधार रहने दी ॥ 

बृहस्पतिवार, २० फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                         

हस्त जोग कर बिनै मनाई । प्रियतम सैं प्राकलन लिखाईं ॥ 
आगिन दिन गवनइ अधिकोषी । परख पत्रावलि भए परितोषे ॥ 
हाथ जोड़ कर विनय करते हुवे मनाई । एवं पिया जी से प्राकलन लिखवाई । और अगले ही दिन अधिकोष भवन पहुँच गई । पत्रावली को परख कर अधिकोष संतुष्ट हुवा ॥ 

पुनि भँवरत कर जोग जुहारी । करत बिनति बहु देइ उधारी ॥ 
अधिकोष के धनिक भुआलू । दीन दयालु धनहिन् कृपालू ॥ 
पूर्व के जैसे पुन: हाथ पाँव जोड़ कर चक्कर लगा कर बहुंत विनती कर यह कहते हुवे कि यहु लागा देइ दहु ।। अधिकोष के धनिमनी धनेश दीनों के दयाला धनहीनों कके कृपाला ॥ 

परन सन धरन तोल तराजू । मोल भाव कर मूल ब्याजू ॥ 
पहिले बहुकन बचन भराईं । पुनि दुआरि देहरि पर्नाईं ॥ 

कहनइ साथा लहनी दाता । करम परिश्रम करत दिनु राता ॥ 
समउ सीँउ लग लहान फिराहू । देइ बचन सन फिर नहि जाहू ॥ 

तीन अरु अरध लाख रिन किए कोष स्वीकारि । 
दोइ पदुम करतल धरत, अइसिहुँ बचन उचारि ।। 

शुक्रवार, २१ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                             

ऐतक मह चित कार दिखाऊ । बहुरि सेष धारुन लए जाऊ ॥ 
धार लहन कहि बधु मन ही मन । को करेसि अब तुहरे दरसन ॥ 
इतने में ही भवन का कार्य दिखाओ । तत्पश्चात सेष राशि ले जाओ ॥ इतनी ही लागा धारण कर वधु ने मन ही मन कहा अब तुम्हारे टोटे के दर्शन कौन करेगा ॥ 

धरे सिरौ पन सदन उधारे । घार तहाँ घरु गरु हरुबारे ॥ 
गनना किए रिन तनिकहि बाँचे । सकल सरबस सहस कुल पाँचै ॥ 
पण्य सदन का जो लागा सी पर बोझ बनकर रखा था । वह लागा फिर उस लाग में संयोजित कर वह बोझ हल्का हुवा ॥ जब गणना किये तो क्वचित ऋण ही शेष रह गया था कुल मिलाकर यही कोई पचास सहस्त्र 

पन सदन  प्यासत जस कोसे । धन के पयस पान परितोसे ॥ 
जस तोषित मुख देइ  असीसे । तसहि सदन कही धर कर सीसे ॥ 
आपण जैसे प्यासी मरती कोस रही थी । धन के जल पान करते ही वह तृप्त हो गई । जैसे किसी प्यासे का मुख प्यास के क्षय होने पर धन्यवाद देता है उसी प्रकार उस आपण ने भी वरवधू के शीश पर हाथ रखकर आशीर्वाद प्रदान किया ॥ 

 मूल गहनी ब्याज घड़ाई । लाग  कंठि के अवधि लमाई ॥ 
अंस कान कर सहस अढ़ाई । अधिकोषिन पिय चरन चढ़ाईं ॥ 
मूलधन आभूषण हुवा ब्याज उसका कार्यकर हुवा । ऋण-हार में अवधि लम्बाई हुई । अधिकोषितों ने उस ऋण को ढाई सहस्त्र प्रतिमास विभाजित कर प्रियतम क चरणों में चढ़ा दिया ॥ 

गाहे गरु रिन हार, केहरि कंधन सिरु सार । 
कहत कबि कबित कार, पूरि भई लहनी कहन  ॥ 
 प्रियतम ने उस ऋण-हार को सिर से उतार कर केसरी कन्धों में धारण कर लिया ॥ कवि कविता कर कहते हैं : -- इस प्रकार ऋण-माल्या की कहानी पूर्ण हुई ॥ 

शनिवार, २२ फ़रवरी, २ ० १ ४                                                                                             

उत बाहिर रथ किरन बँधानी । कहत आपनी बिलग कहानी ॥ 
ठाढ़ि खड़े  भए छह मासी । अजहुँ लग भई चारि निकासी ॥ 
उधर घर के बाहर रथ की बंधी किरणे अपनी अलग ही कहानी कह रही थीं ॥  वह रथ वाहिनी इसी भाँती बंधी खडी हुई छ: मॉस कि हो गई थी, अब तक उसकी चार ही निकासियां हुई थी ॥ 

पद बिनु पदेन पत बिनु पानी । मति बिनु मत राउत बिनु रानी ॥ 
पाँखि बिनु पाँख पाद बिनु पथी। रथ बिनु पथ रथी बिनु सारथी ॥ 
जिस प्रकार आसित बिना पद, प्रतिष्ठा बिना पति, मत बिना मति, राजा बिना रानी ॥ पंख बिना पक्षी, पद बिना पथिक, रथ बिना पथ होता है बिना चातुरिक ( गाड़ीवान ) के रथी भी उसी प्रकार होता है ॥ 
 
कबहुक जब को अवसरु आनी । बोलि पठइ सारथी ग्यानी ॥ 
जोइ राउन्हि सेउन जोगे । गज बाहिनीहि संग सँजोगे ॥ 
जब कभी कोई अवसर आन पड़ता तब उसी  कुशल चातुरिक को  बुलाया जाता जो राजा द्वारा सेवाकार्य हेतु प्रदान की गई गजवाहिनी के संग संयुक्त किया गया था ॥ 

हेट केत तुएअँ केट बुलाहू। एक दिन पिय कहि हमहि सिखाहू ।। 
गज बाहि सुत सिखाउब लागिन । बिहने पाठ पढाएसि आगिन ॥ 
फिर एक दिन पिया जी ने कहा अवसर जाने कितने ही हैं अब तुम्हे भी कितना बुला भेजेंगे, तुम मुझे ही रथ हाँकना सीखा दो ॥वह ठहरा  गज वाहिनी का सारथी , लगा सीखाने । ऐसा सीखाया ,ऐसा सिखाया कि  जिस अध्याय को सबसे अंत में पड़ना चाहिए उसे सर्वप्रथम पढ़ाने लगा ॥ 

करू करू कहि सुत पिय किए पाछे । छाँड़त पंथ छाँड़ेसि गाछे ॥ 
रोके पलक भाग धरि पाँचे । गहनइ गरत गिरत गिर बाँचे ।। 
चातुरिक ने उत्साह पूर्वक कहा  करो करो तब पिया ने वाहिनी को पीछे किया । तो वाहिनी पथ एवं पथ कगारे के वृक्षों को छोड़ते हुवे बढ़ती ही चली गई । प्रियतम ने   पलक के पाँचवे भाग का समय लगा कर उसे किसी प्रकार से रोका  और वह परिवार गहरे गर्त में गिरते गिरते बचा ॥ 

भयभीत बधु मुख निकसे तात मात हे नाथ । 
करत मन भगवन सुरति , नित नित नावत माथ ॥   
वधु यह देखकर भयभीत हो गई उसके मुख से हे तात ! हे मात !! हे नाथ!!!सारे पूज्य सम्बोधन निकल पड़े । मन में भगवान का स्मरण करते हुवे धन्यवाद स्वरूप में वह ईश्वर के सम्मुख नतमस्तक हो गई ॥ 

रविवार, २३ फरवरी, २०१४                                                                                                

बाल लाल लल लइकिनि मोरे । कठिनइ कर जे सम्पद जोरे ।। 
प्रान परन प्रिय प्रीतम अहहीं । रे सुत तुएं को पावँर कहहीं ॥ 
छोटे-छोटे प्यारे प्यारे बच्चे हैं हमारे, कितनी कठिनता पूर्वं हमने यह सम्पदा जुगाड़ी है ॥ प्राणों  से भी बढ़कर प्रियतम हैं अरे सारथि ( तुम्हारी ऐसी करनी से ) कोई तुम्हे मूर्ख ही कहेगा ॥ 

कहा चातुरिक सौ सिरु नाई  । हम को सिखक नहि री भुजाई ॥ 
तात निवेदन किए बहु याचन  । नहि नहि कारत लगे सिखावन ॥ 
तब गाड़ीवान ने खेद प्रकट करते हुवे कहा । अरी  भौजाई हम कोई प्रशिक्षक हैं का  ॥ ये तात हमारे सम्मुख निवेदन किये बहुरि बहुरि प्रयाचन किये नहीं नहीं करते हुवे भी हम प्रशिक्षण हेतु तैयार हुवे ॥ 

ते प्रसंग भय भीत ब्यापे । रथ किरनि धरत पिय कर कांपे ॥ 
सुतहिन निसदिन धोए अन्हाए । ठारि रखे अरु उहार डसाए ॥ 
इस घटना के पश्चात अंतर में भय व्याप्त हो गया । अब तो प्रियतम रथ की किरणे पकड़ने में भी कांप जाते ॥ सारथी हिन् उस रथ को प्रत्येक दिवस धोते नहलाते । एवं उस पर आवरण आच्छादित कर उसे घर के बाहर खड़े रखते ॥ 

उत बहियर मुख भिनभिन कारै । लाख लोइ रथ हियरा जारे ॥ 
धरे धाज को करे न काजा । खाए अघियाए मूलि बियाजा ॥ 
उधर वधूटी का श्रीमुख भिनभिनाता ।  रथ को देख देख कर उसका हृदय जलता ॥  सजा-धजा खड़ा रहता है काम करता न काज । खाने को मूल चाहिए ब्याज चाहिए ॥ 

प्रीतम हुँते दुनहु बाहि , कंठ कठंगर ठाए  । 
दुनहु कर बँधाई लिए, पर भयँ हाँकि न जाइ ॥  
प्रियतम के लिए दोनों ही वाहिनी  सदृश्य हो गई रथ भी व्याहता भी, कंठ में कड़े से दो वाहिकाओं की रस्सियां तो बांध ली किन्तु बढ़ाई कोई न जाए ॥  

सोमवार, २४ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                                

जुगल जिउन  लगि कर के फेरी । फँसे कंठ माया के घेरी ॥ 
जे घेरिहि करि बहुत बिगोवा । सुख संगिन को जागि न सोवा ॥ 
युगल का जीवन कर की फेरी में लगा रहा मन को फेरने में नहीं । जिसका परिणाम यह हुवा की कंठ  में माया का फंदा घिरता चला गया ॥ 

कलजुगी काल के बहु बेटे। लगे आपनै पेट लपेटे ॥ 
आपहि पूज्य आपहि पूजे । पराई पेट अगन न बूझे ॥ 

बिलग गा छड़ी बिलग बछेड़े । बिलगि खेड़ मह बिलग बखेड़े ॥
आपने राग आप अलापे । बड़े बिरध के कहन  न थापे ॥ 

बिलास बिषय अधिकाधिकाने । भए लोग भोग भृत अलसाने ।। 
दीन दया धन दान न जाने । त्याग तप सत धर्म न माने ॥ 

मह बिप्रय करमीन, बिमुख धरमीन, धूत चरित जंतु मने । 

परधनधारी कह बड़े अचारी, भरे धरा धरे घने ॥ 
कनक अटाला  कह आश्रम साला जँह जोगि बिरागि  रहे । 
अनुकूल बात धूरि धूरि गात, जिन जगजन मुनिहि कहे ॥ 

बेद बिधि भेद अन जान, जान न नवल पुरान । 
भए बकता अबर लबार, निराचार गुनबान ॥ 

हाँक लमाई लहि जेत, सोइ तेत महमंत । 
मिथ्यारंभ दंभ रत, कह सब संत महंत ॥

मंगलवार, २५ फरवरी, २ ० १४                                                                                               

चहुँ दिसि हो जब बयस दूषिता । एका कार किए पातक पुनिता  ॥ 
घाल मेल किए कंत मलीना । अधोगत अधम करम अधीना ॥ 

देस काल कुबेस सन साजा । कलुष कार उपबेस समाजा ॥ 
जैसिहु जगती तैसिहु प्रानी । जैसिहु पानी तैसिहु बानी ॥ 

काल वात के अंतर भावा । सकल जगत जन करत प्रभावा ॥ 
तपुस रितुहु जस ताप ब्यापे । सागर सरबर सरि सर तापे ॥ 

सीत काल कर सीतलताई । सौम सरूप आनंद दाई ॥ 
बरखा रितु मह बादर बरखे । फूर झरे खर हरिहर हरखे ॥ 

चहुँ पुर अस बाताबरन, बासत तिनके बीच । 
बरबधु केहु कारज अस कबहु ऊँच कभु नीच ॥  

बुधवार, २६ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                                  

लगे सगे सों निज परिवारा । देस नगरी सन उपबिचारा ॥ 
जुगत धरम निज जात समुदाई । समबेत रुप समाज कहाई ॥ 

जोग परसपर मेल मिलापें । आपन मूरि आपनी बापे ॥ 
प्रीत प्रतीत रख ब्यबहारू  । कहत जगत तिन्हनि परिबारू ॥ 

बहियरहु कुल कौटुम गहाई । एक पिहरारुहु एक ससुराई ॥ 
बड़की भगिनी बहु उपकारी । कुल पै पंच जिउत रहि चारी ॥ 

पालक हिन् बधु भई अनाथा । सदा रहे तिनके सिरु हाथा ॥ 
जब कभु आगे सुख दुःख कोई । सब सहाइ बन आगिन होई ॥ 

जथाजोग करमन भाव, जँह लग हो संभाउ । 
बहिन भ्रात कि भउजाई, किए बधु सोंह लगाउ ॥  

बृहस्पतिवार, २७ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                           

बहिन बहिन की आपनि  कहनी । कहत लिखनी कहत एक बहनी ।। 
जुगे लगन जब लगे बिहावा । आद्य काल बिलोकि अभावा ॥ 

दोइ बसन अरु डसना दोई । दोइ समउ के असना होई ॥ 
आभूषण बार भेस बियोगे । बालक फुर फर मधुअन जोगें ।। 

यापत काल ग्रंथि कछु अंतर । जोग करम श्रम मारे मंतर ॥ 
धर्म प्रताप पाहिले लखी हेलि । अधरम ताप दुज माया मेलि ॥ 

माया तेरो तीनै नामा । परसा परसी परसुहु रामा ॥ 
जँह जिउनी पथ चरनन चारी । फिरि तुरग बाहिनी संचारी ॥ 

जोइ कुटुम एक भवन समाई । बिलग बिलग सिरु बिलग ढराई ॥ 
उही फर फुर उही मधुराई । अजहुँ जोगि कैसे निपटाईं ॥ 

तिन्ह जगत  को पूछ नहि, छाई जबलग छूँछ । 
कुधन कि सुधन सदन ढरत, हो जग पूँछिहि पूँछ ॥ 
वो पूछारी नहीं है रे तेरी पूछ है तू जिनावर हो गया है 

शुक्रवार, २८ फरवरी, २ ० १ ४                                                                                                  

बहिनि जब सन भई धनबारी । तब सन लागे पिछु पूछारी ॥ 
पर भाऊ जाके मन माही । लगे सगे वाके सन लाही ॥ 

तीर त्रिबेनी गवनत कासी । एक दिवस सोइ भवन प्रवासी ॥ 
दात समदत  भेंट भेटाईं । सुख दुःख कारज पूछ बुझाई ॥ 

पार दरस जल जूँ रँग घोली । बाल बछर तैं चिंतत बोली ॥ 
बिहा सिहा का रोग रुजाई । लगहि रह हमहि बहिन्हि ताईं ॥ 

मम लरिकन भा जोग बिहाउन । जुगत अरु दस बंध बँधाउन ॥ 
आए जान को समउ अगारी । होब ना होब जोग जुगारी ॥ 

जेइ जोड़ आपन कर धारौ । केतक भए कहु गिनती कारौ ॥ 
गनत करत बधु सम्मुख राखे । रहे जोग दुइ तीनइ लाखे ॥ 

अजहुँ त तुअँ आपन पाहि, रखु जे जोग सँभार । 
मैं जब जस जस माँग करुँ, तस तस दीजौ धार ॥ 




























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