Thursday, January 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ ६॥ -----

जान पाए न काल कँह गमने । सो मंगल दिनहु अगमने ॥ 
एक पुर पुरइन वदन विषादे। दुज नउ गवनु आह्लादे ॥ 
समय खान गया ज्ञात हीई न हो पाया और वह मंगल दिवस भी आ गया ॥ एक ओर  पुरातन ( भवन ) मुख पर नैराश्य उत्पन्न कर रहा था । दूसरी ओर नव भवन का गौना आह्लादित कर रहा था ॥ 

पुरइन नउपवसित रहि भीरे । उपकलपनु गवनु  धीरहि धीरे ॥ 
बिते सुखद जँह बच्छर पाँचे । अनुरागि रँग केतक राँचे ॥ 
पुराना भवन नव भवन के निकट ही था । गृह के समस्त उपकल्प धीरे धीरे नवल उपवसित में जा रहे थे ॥ जहां जो सुखकर पांच वर्ष बिते वे अनुराग के रंग में कितने अनुरक्त थे ॥ 

छाँड़ि जासु तन मन नहि छाँड़े । अस भाव बधु नयन घन गाढ़े ॥ 
मुख हाँ पर चित कारत ना ना । साज सँजोए धारत नाना ॥ 
जिसे देह छोड़े जा रही है किन्तु ह्रदय नहीं छोड़ता । ऐसे भावों ने वधु के नयनों में घन आच्छादित कर दिए ॥ मुख पर हाँ किन्तु न ना कर चित कारते विभिन्न प्रकार की गृह सामग्र संजोए : -- 

बिहानै पिय हरिएँ पट ढारे । कर बध कुंडी दिए एक तारे ॥ 
चरत तरत पुर पौर दुआरी । पार करत हरियर बनबारी ॥ 
अंत में प्रियतम ने उस पुराण भवन के द्वार पट धीरे से आबद्ध ढलका कर आबद्ध कर दिए फिर कुण्डी देते हुवे वहाँ एक ताला लगा दिया ॥ घर के ड्योढ़ी की पौड़ियों पर चल कर उतरते, उासकी वनवाटिका को पार कर : -- 

सीस प्रणमित भाव सहित, किए कर जोग प्रनाम । 
हरिदै बहु सुमिरन गहित, चले चरन नउ धाम ॥           
वधु-वर ने प्रेम सहित शीश नवाकर फिर उसे प्रणाम अर्पित किया ॥ और ह्रदय बहुंत सी स्मृतियाँ संजोए उनके चरण नए धाम को चल पड़े ॥ 


शुक्रवार १७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

पैठ परब बहु सोह न लाहीं । भीत उमगि के सिंधु उछाहीं ॥ 
जोइ आगतिथि पाएँ हूँते । किंचित अहहि रहहि न बहूँते ॥ 
गृह -प्रवेश का उत्सव की शोभा अधिक  नहीं थी । किन्तु अंतर में उमंगो का सिंधु  उत्सादित था ॥ जो अतिथि गण निमंत्रण प्राप्त कर पहुंचे वे बहुंत नहीं थे किंचित ही थे ॥ 

एतिक कि केवल निकेत समाए । तिनके वादन भवन गुंजाए ॥ 
कंज कलस सिरोपर अदानी । अरु बधु भोज भवन अवधानी ॥ 
इतने कि जो केवल उस भवन में समा सके । उनके वार्तालाप से वह भवन गुंजायमान था ॥ अमृत से कलस कलश सिरोपर ग्रहण किये वधु ने फिर उसे भोजन कक्ष में स्थापित कर दिया ॥ 
गावैं  भामिनि मंगल गाने । बड़े बिरध जन असीस दानै ॥ 
जोइ सुजन गन  मान पधारे । कृत कारत किए अल्प अहारे ॥
सुन्दर स्त्रियां मंगल गान किया । बड़े-वृद्धों जनों ने आशीर्वाद प्रदान किया ॥ जिन गणमान्य सज्जनों ने पधार कर वर-वधु को उपकृत किया वे अल्पाहार करने में व्यस्त थे ॥ 

लेइ जोग सन ले ले हारे  । देइ जोग कर दिए उपहारे ॥ 
सबहि कहुँ सब भाँति सनमाने । बहुरत निज निज भवन पयाने ॥ 
प्राप्ति योग्य से उपहार प्राप्त किया ,दान योग्य को प्रदान किया ॥ फिर सभी जन सब प्रकार से मान सम्मान प्राप्त कर अपने अपने भवन को लौट गए ॥ 

जगती जोति जगती बिहाई । जगज नयन जग जगत जगाई ॥ 
जागृत ज्योति का जागरण समाप्त हुवा । जगज्जक्ष सूर्यदेव ने जागृत होकर संसार को जगाया ॥ 

करत उपजल्पित बधु सुधि उदयित गेह गवाखि । 
तटिनी तरित चिर परिचित, ललकित लोचन लाखि ॥ 
तत्पश्चात भरी भोर में वधु जागृत हुई एवं गृहाक्ष से वार्तालाप करते, पूर्व परिचित नदी में तैरती नैय्या को चाह भरे लोचन से निहारने लगी 
॥ 

शनिवार, १ ८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

तबहि बाल कोलाहल किन्हे । झूरत पाछु कंठ गह लिन्हे ॥ 
पूछी बधु कहु कस नउ धामा । तुर बोलि धिआ जस तव नामा ॥ 
तभी बालकों ने कोलाहल किया । एवं पीछे झूलते हुवे कंठ ग्रहण कर लिया । वधु ने पूछा कहो तो यह नया घर कैसा है ? तब तनया ने कहा जैसा आपका नाम है ॥ 

कहुँ पिय के हँसि देइ सुनाई । संकोचित बधु संगति दाईं ॥ 
अरु कहि दुहु पुरइन मन भाई । जस कौमुदि मन रयनि रिझाई ॥ 
कहीं पर प्रियतम कि हँसी सुनाई पड़ी । वधु ने भी संकोच करते हुवे उस हंसी का साथ दिया ॥ और कहने लगी तुम दोनों को पुराना घर ही अच्छा लगता है । जैसे कौमुद को रयनि ही रिझाती है ॥ 

पर घर भवन न होत पियारे । पिया रे पियारे घरबारे।। 
हीन निर्जन जँह जन श्रुताई । हाट बाट  घर गली कहाई ॥ 
पर घर आगार प्यारे नहीं होते । हे मेरे प्रियतम ही गृहजन ही प्यारे होते हैं । जहां जनशून्यता होती है वह स्थान निर्जन होता है जहां वसति हो, वही स्थान हटवार, बटवार, गृह बीथिका कहलाता है ॥ 

बहोरि बधु असन सन रसोई । लगत जुगत गह साज सँजोइ ॥ 
उहैं रहि अति सकल उपकल्पे । इहँ इत उत गत दरसत अल्पे ॥ 
तत पश्चात वधु लगते-भिड़ते भोज्य पदार्थों से रसोई एवं सज्जा-सामग्रियों से गृह संवारने में व्यस्त हो गई ॥ उस घर जो साज-सामग्री अधिक प्रतीत होती थी  वह इस घर में इधर-उधर हो अकिंचिन  स्वरुप में किंचित लग रही थी ॥ 

सुहँस प्रथमतस अस सरस, भयौ सुखप्रद बिभात । 
अरु गेह के प्रथम दिवस, बीते अति सुखदात ॥ 
हंसते हसाते, सुहास रस से युक्त होकर इस प्रकार में नव निकेत की प्रथम विभोर सुन्दर एवं सुखकारी हुई । एवं प्रथम दिवस सुख प्रदान करते हुवे व्यतीत हुवा ॥ 

रवि/सोम , १९/२० जनवरी , २ ० १ ४                                                                                       

जदपि सासकी गह महि कानन । बासे प्रीतम के अंतर मन ।। 
तदपि सनेहत पुलकित पाखे । नवनित निकेत ललकित लाखे ॥ 
यद्यपि शासकीय भवन उसकी भूमि एवं उसका उपवन प्रियतम के अंतरतम में अधिवासित था ॥ तथापि पुलकित पलकों से स्नेह करते वह नवल निकेत को चाह भरी दृष्टि से निहार रहे थे ॥ 

झरे नीर जँह एकै सँकेते । धारागारा भोजन केते ॥ 
पात पान भर भर अन्हाई । कहुँ कर कंठन तीस बुझाईं ॥ 
यहाँ जल एक ही संकेत में झरने के जैसे झरने लगता । कहीं धारागृह में कहीं  भोजन शाला में ॥ सबने घड़े भर भर के कमण्डलों से मन भर कर स्नान किया । कहीं कंठ में उतार कर तृष्णा को तुष्ट किया ॥ 

 दरसि लवन गह नयन बीथिका । तरे रयन चुप चरन चंद्रिका ॥ 
उदित उषपकर उषा सुरंगी । अंतर भित चित्रकारत रंगी ॥ 
गृह के नयन रूपी  झरोखों की वीथिका अति सुन्दर दर्श रही थी । जहां से रयनि में चंद्रिका के कोमल चरण चुपचाप उतरते ॥ सूर्योदय होते ही अरुणाई उषा भवन की अंतर भित्ति को चित्रकारी करते हुवे उसे रंग देती ॥ 

प्रथमक खन मह टिके अगारे । दुज दुआरि सन लगे दुआरे ॥ 
मिलन सार सुआसिनी बासे । सउँमुख परे त मधुरित भासे ॥ 
भवन, प्रथम खंड पर अवस्थित था । दूजे भवन की द्वारी, इस भवन -द्वार के साथ ही लगी थी ॥ जहां मिलनसार पड़ोसी बसे थे । जो सम्मुख होते ही मधुर भाषा में वार्तालाप करते ॥ 

पालक कही बत कारत, फूरत नहीं समाएँ । 
बालक निरखत केलि रत, किलकत इत उत धाएँ ॥ 
पालक भी परस्पर वार्तालाप करते फुले नहीं समाते । बालक, बालकों को देखकर क्रीडामग्न हो इधर-उधर दौड़ लगाते ॥ 

असन बसन बर आसन बासन । सदन भवन सब सँजुगे धन सन ॥ 
ए कारन जगनमई  सुहाई । मन रंजन कर तन सुख दाई ॥ 
उत्तम उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र, उत्तम ओड़-बिछावन उत्तम गृह-भवन इन सब का संयोग लक्ष्मी के साथ है  अर्थात लक्ष्मी से ही खान-पान रहन-सहन का वैभव आता है । इसी कारण जगन्मयी  पूज्यनीय है । मन को आल्हादित करने वाली वाली एवं तन को निरोग कर सुख देने वाली है ॥ ( कारण कि जगत की सम्पूर्ण वनस्पतियां जीव पर्वत नदी अर्थात समस्त चार-अचर में लक्ष्मी का ही वास है)  

भल भलाइ गह खल निचाई । कीच तरि रह कमल उपराई॥ 
जीव संजीवन सुधा चरिता । गरल बिपरीत चारित गहिता ॥ 
भला भलाई ग्रहण करते हुवे परम पद पर दृश्यमान होता है  दुष्ट बुराई कर नीचे ही दिखता है । जिस प्रकार कीचड़ जल से उत्पान होते हुवे भी जल के नीचे रहता है एवं कमल जल से उत्पन्न होते हुवे भी जल के ऊपर दृश्यमान होता है ॥ 

अवगुन जोगत दूषन कारन । सदगुन जुगत दोष निवारन ॥ 
दुःख आतुर देवन संतापा । सुख आतुर संतप उद्धापा ॥ 
अवगुण सदैव दोष कारण की प्रतीक्षा में रहते हैं । सद्गुण दोषों के निवारण की प्रतीक्षा में रहते हैं ॥ दुःख सदैव संताप देने को आतुर हैं एवं सुख अर्थात शान्ति उस संताप के उद्धरण को आतुर रहते हैं ॥ 

माया कर गहनत मति हीना । पास कसे अरु भयउ अधीना ॥ 
माया गरल लखी संजीवन । एक कर दूषन दुजे निवारन ॥ 
विषय विलासिता की साधन स्वरूपा माया मतिहीन का पाणि-ग्रहण करती है  । एवं अपने पाशों में बाँध ग्रहीता को अपने अधीन कर दास बना लेती है स्वामी नहीं ॥ 

दुहु अपावन दुःख दाई, दुहु पावन सुख दात । 
एक तमो गुन ग्राम गही, एक तमोहन कहात॥ 
लक्ष्मी एवं माया दोनों की ही अप्राप्ति दुःख दायक है एवं दोनों की प्राप्ति सुख दायक है । किन्तु माया आलस्य अज्ञानता क्रोध जैसे अवगुणों को ग्रहण करती है । एवं लक्ष्मी अवगुणों को दूर करती है जगत प्रकाशिनी, जगन्मयी, शक्ति स्वरूपा कहा गया ॥ 

मंगलवार, २ १ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                         

जगत तीस जब धन के ताईं । पानि गहे अरु संतुख पाईं  ॥ 
सेष त मृग के तिसन नियंगे । पाउ ना पाउ मोह न भंगे ॥ 
धन के निमित्त जब तृष्णा जागृत होती है ।  पाणि-ग्रहण किये और तृप्त हो गए ॥ शेष पिपासा मृग -तृष्णा  के जैसी है ।  प्राप्त हो या न हो उससे मोह भंग नहीं होता ॥ 

एहि बिधि ए भाउ श्राइहि रहईं । बर बधु के मन तोष न लहईं ॥ 
अजहुँ त संचै कर संजोगे । अजहुँ बास निबास परिभोगे ॥ 
इस प्रकार उक्त भावों का आश्रय ग्रहण करते वर-वधु के मन में भी संतुष्टि नहीं थी ॥ धन-सम्पति को संचित कर अद्यावधि वे उसके संग्रहकर्त्ता ही थे । अब निवास में वास करते हुवे वे उस सम्पदा के परिभोगी भी हो गए ( वस्त्र-भोजन आदि विषयों के भोग को उपभोग कहते हैं सम्पति के भोग को परिभोग कहते हैं ) ॥ 

असन बसन भूषन परितोषे । पर धन सम्पद लाहन पोषे ॥ 
मोह संतति लोभ पत पानी । क्रोध देवन काम सनमानी ॥ 
भोजन-वस्त्र आभूषण आदि विषयों से वे लगभग संतुष्ट थे । परन्तु धन-सम्पदा के लोभ का वे निरंतर पोषण कर रहे थे । इस असंतोष का कारण संतान के प्रति मोह, प्रतिष्ठा हेतु लोभ सम्मान की कामना थी हाँ किसी को देने से क्रोध भी होता था ॥ 

बालक सन दुहु आपनि कोई । दुःख सों दुखि सुख सों सुखि होईं ॥ 
चलन कलन सब करतब काजा । करत अनुसरन आप समाजा ॥ 
संतति के साथ दम्पति एवं परिजनों में कोई दुःख होता तो दुखी रहते, सुख होता तो सुखी हो जाते वास्तव सुख की परिभाषा है 'संतोष' । अर्थात जब संतुष्ट रहते तो सुखी होते असंतुष्ट रहते तो दुखी हो जाते ॥ रीतियाँ नीतियां सभी कार्य कर्त्तव्य व्यवहार में वह अपने समाज का अनुशरण करते ॥ 

आवन नउ भवन जब तें, सब कहुँ  मंगल छाए । 
जाहिं समउ एहि भाँति जुग , निसदिन मोद उछाए ॥ 
जब से उनका नए भवन में प्रवेश हुवा तब से सभी और मंगल छाया रहा । प्रत्येक दिवस आनंदोत्सव युक्त होकर इस प्रकार समय व्यतीत होता गया ॥ 

बुधवार, २२ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

कछुक दिवस अरु जात न जाने । तन मन संतोखन  सुख माने ॥ 
प्रीतम के नउन सेउकाई । तिनके बरनन बरनि न जाई ॥ 
तन-मन में सुख-संतोष का अनुभव करते कुछ दिवस और बीते, पर कहाँ यह ज्ञात न हो पाया ॥ प्रियतम कि नई सेवा-आजीविका थी । उसका वर्णन वर्णनातीत है ॥ 

सत रज तामस अलकौतारी । केतक सरिवर सरनिहि सारी ॥ 
आउ गमन कहूं गर्क न घारें । भली भाँति रच पच गच ढारे ॥ 
सार सत्व के सह धूल कणों एवं श्यामल अलक ( कोल ) उतारे , मार्ग का सार बराबर तो है, यदि नहीं है तो कितना ॥ आवागमन में कहीं गड्डे न हो जाएं । मार्ग रचा खचा भली प्रकार से निर्मित हुवा है कि नहीं ॥ 

धरे जोगतानुभवनुकूलं । प्रज्ञात्मन प्रवीन प्राविधिकम् ॥ 
चयन इ कारन पिय कर धारी । तिन करन भए भाराधिकारी ॥ 
प्रियतम ने अनुकूल योगयता एवं अनुभव धारण किया हुवा था । वे अपने तकनीकि कार्य में परम बुद्धिमान एवं सुयोग्य थे ॥ इस कारन उक्त कार्य विशेष के भार साधक अधिकारी के लिए प्रियतम का चयन हुवा, उक्त कार्य का प्रभार उनके हाथ सौंपा गया ॥ 

गमनागमन अद्भुद गय दाए । कारज भवन प्रारब्धि धराए ॥ 
तिन चरनोपर ढरे गदाला । परख प्रजोगन  धर कलसाला ॥ 
आने-जाने हेतु एक अद्भुद गज-वाहिनी दी गई । जो कार्यालय में गज बांधने के स्थान में बंधी रहती ॥ उसके चरणों के ऊपर एक गदाला ढला हुवा था । जिसमें ( अलकतार्,ईंट, मिटटी आदि के ) प्रयोग एवं परिक्षण हेतु यंत्रों की एक लघु शाला थी ॥ 

अब निरखन पिय कहुँ गवन गाँउ गहन घन घाट । 
ले निरगत पत गजबाहि , गामिन चौकस बाट ॥ 
 अब प्रियतम किसी मार्ग का निरिक्षण करने किसी गाँव गहन वन घाटियों में जाते । तब  महावत उक्त मार्गों पर गजवाहिनी को  कुशलता पूर्वक संचालन करते हुवे निकल पड़ता ( अर्थात अब पूर्व वर्णित दुर्घटना का संशय न रहा ) ॥ 

बृहस्पतिवार, २३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                 

जान अधिकारि सब बहु माने । सह कर्मी देवत सनमाने ॥ 
पहिले जोइ दरस न पहिचाने । सोइ करै अब जान बखाने ॥ 
वर अधिकारी है यह ज्ञात होते ही सब वर को बहुंत मानने लगे ॥ सहकर्मी सम्मान देने लगे । पहले जो देखकर भी नहीं पहचानते थे अब वह वर से परिचय का बखान करने लगे ॥ 

एक चिंतन रहि बाल मुकुन के । तिनके रोग पीर धी गुन के ॥ 
पल पल निसदिन बयस त बरधए । बूझ न कछुकन सूझ न अर्धए ।। 
एक चिंता थी तो वह बाल मुकुंद की थी । उसकी पीड़ा कि एवं उसके रोग से सम्बंधित प्रज्ञा एवं विचार-बुद्धि के गुणों की थी ॥ उसकी आयु तो प्रतिक्षण बढ़ती गई किन्तु उसे समझ कुछ भी नहीं थी बूझ आधी भी नहीं थी ॥ 

मुख भोजन निज बसन न धारै । जननी जनकहि सकल सँभारै ॥ 
कह बे बिद्या पीठ पठाऊ । कुंठ धरे कहि भवन बिठाऊ ॥ 
वह स्वयं भोजन नहीं करता वस्त्र धारण नहीं करता । उसके समस्त कार्य पालक ही करते ॥ आयु कहती इसे विद्यालय भेजो । मंद मति कहती नहीं नहीं घर में रहने दो ॥ 

सुर धारे  धुनी  न उद्धापे । रहे मगन सो आपनि आपे ॥ 
जगत भर के करत परजासे । एकै ब्रह्म बुद्धिहि के आसे ॥ 
वह स्वर करता किन्तु मुख से कोई शब्द नहीं उठाता । अपनेआप में निमग्न रहता ॥ एक ब्रह्म बुद्धि की आस में पालक ने जगत के सारे प्रयास कर लिए ॥ 

कहुँ  करावत रूज निदान, कहूं देखाई हाथ । 
नाना भाँती बिनइ करत, कहुँ गत नाएसि माथ ॥ 
कहीं रोग निदान-गृह में रोग का निदान कराते, कहीं हाथ दिखाते, कहीं फ़ूँकवाते । विभिन्न प्रकार की याचना कर सभी पूजन स्थलों में मस्तक भी झुकाते ॥ 

शुक्रवार, २४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

अरु सोइ दिवस जब नन्द भयो । केसव ललना जग जनम लयो ॥ 
 नौमी तिथि सो परम पुनीते । भइ अपराहन प्रातह बीते ॥ 
और वह दिन जब बाल कृष्ण ने जग में जनम लिया और आन्नद हुवा ॥ फिर प्रात: का व्यतित्त होने पर परम पुनीत उस  नवमी तिथि की दुपहरी हुई ॥ 

 बधूटी सास रहहि अवाईं । गोगा पीर पुजावन आईं ॥ 
जनि सुत सन बातन लगि भूरी । बधु गवनन संजोइन जूरी ॥ 
 वधु की सास का घर में आगमन हुवा ॥ गोगा पीर की पूजा अर्चना हेतु आई थी । जननी अपने पुत्र के साथ बातों में लग गई । वधु तैयारी में आगी हुई थी ॥ 

अरु एतिक समउ मह बाल मुकुन । खेलत छाजन पर आपनि धुन ॥ 
उरिन  नीचु तरि गिरे धड़ामा ।  गिरि बालक सब कहि  हे रामा ॥
 और इतने ही समय में बा मुकुंद अपनी धुन में छज्जे पर खेलते खेलते ऊपर तल से नीचे जा गिरा । सब कहने लगे बालक गिर गया हे राम बालक गिर गया  ॥ 

हहरत हंत करत उछ्बासत । पाए भान बधु बर गए धावत ॥ 
धावत प् किए घर घर पारे । छाँड़ेसि बहु आपनु दुआरे ॥ 
बालक के गिरने का संज्ञान होते ही घबराते विषाद व्यक्त करते उच्छवास लेते वधु-वर दौड़े । एवं दौड़ते हुवे पदों से घरों को पार कर बहुंत सी आपण की द्वारों को (पीछे ) छूटते रहे ॥ 

रुआँसहि मुख आह भरहि, आहत लहि हत आस । 
मति सरन्हि सौ मत चरहि, अहि की नहि उर साँस  ॥ 
रूआंसते मुख से आह करते आहात होते हतास स्वरुप में मति किए मार्ग में सौ विचार संचरण करने लगे । बालक के ह्रदय में सांस है अथवा नहीं ॥ 

कारत बिनती बेगि गति, पैठे जब तिन थाइ । 
दया धरत करुना  करत, को निज गोद ल्हाइ ॥ 
विनती करते अति तीव्र गति से जब वर वधु घटना स्था पर पहुंचे तब दया के भाव धारण करते करुणा उत्पन्न करते हुवे बालक को कोई गोद में लिए हुवे था ॥ 

शनिवार, २५ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                            

जन समूह सहुँ चहुँघाँ घेरे । द्रवित हो कहत बालक  हे रे ॥ 
उर घर पाँवर अगिन पिछावर । एक पद बाहिर एक कर अंतर ॥ 
सामने भीड़ बाक को चारों ओर से घेरे हुवे थी । और द्रवीभूत होकर आह रे बाक कह रही थी । ह्रदय भवन के देहली पर एक चरण बाहर एवं एक अंतर करते हुवे आगे पीछे स्वरुप में : --  

चकित चितब तब गामिन आसू । सांस कहे उर बास न बासूँ ॥ 
टेक धरत बर भँवर बिछेदे । पुनि मात मुकुन मर्मन भेदे ॥ 
स्तब्ध एवं विस्मय से युक्त द्रुतगामी सांस  कहे जा रही थी मैं तो भवन में निवास नहीं करूंगी ॥ वर ने आग्रह करते हुवे भीड़ के घेरे को विच्छेद किया फिर माता ने अपने बा मुकुंद के मर्म का भेद लिया ॥ 

हत बालक  टोहत कर टेरे । जोग जोख उर हहरन हेरे ॥ 
तरस परस जब अस्थिहि जोगे । संधि ग्रंथि परस्पर सँजोगे ॥ 
आहत बालक के हाथ की टोह कर उसे खींचा और  निरिक्षण करते हुवे ह्रदय कम्पन को अन्वेषण किया ॥ तरसते हुवे स्पर्श करते जब उसकी अस्थियों का निरिक्षण किया तब समस्त संधि ग्रंथियाँ परस्पर संयोजित थी अर्थात कोई अस्थि भंग नहीं हुई थी ॥ 

धरकत बालक बधु कहुँ भाँती । धरत गोदी लगावति छाँती ॥ 
सुरत ररत मुख प्रभु के नामा । बार बार मन करत प्रनामा ॥ 
भयाकुल हो वधु ने किसी प्रकार से बालक को अपनी गोद में लेकर अपने ह्रदय से लगा लिया ॥ स्मरण कर बार बार जाप करते उसने ईश्वर को मन ही मन में प्रणाम अर्पित किया  ॥ 

दरसत जीअत अह करत, सोही सोह सुभाग । 
निपतित तन निरखन करि  त, लागे तनिकहि लाग ॥ 
बालक को सौभाग्य से अपने सम्मुख जीवित  देखकर माता ने आह भरी । फिर नीचे गिरे बालक का शारीरिक निरक्षण उपरान्त यह निष्कर्ष निकाला कि बालक थोड़ा ही चोटिल हुवा है 

रविवार २६ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                   

बाल भाल कभु कर सिरु रोले । सब सज्जन मुख एक सुर बोले । 
करत प्रीत राखे जिन साईँ । जगत सकैं तिन कौन बिहाई ॥ 
बालक का कभी सिर तो कभी माथा सहलाते सब सज्जन के मुख एक समवेत स्वर बोले । ईश्वर जिससे स्नेह करते हैं ईश्वर जिसका रखवाला हो इस संसार में उसे कौन मार सकता है ॥ 

एतिक उरिन पर गिरे बापुरे । अस्थिहि संधि को जुरे न जुरे ॥ 
भयउ घात को भीत न जाने । लै गवनु अचिरभवन निदाने ॥ 
बेचारा इतने ऊँचे से गिरा है । जाने अस्थि की संधियां जुड़ी हैं अथवा नहीं ॥ जाने कोई अंतराघात आघात हो । इसे विद्युत् गति से निदान भवन ले जाएँ ॥ 

कही बधुबर रे ललन हमारे । हाँ हाँ के मुख बचन निकारे ॥
ममता में किए बाल अँकोरे । गए बैसत बहि बैदक ठोरे ॥ 
तब वधु-वर ने हाँ कर निदान भवन जाने का निश्चय करते हुवे बालक के प्रति स्नेह प्रकट करने लगे ॥ ममता के वश होकर उसे गोद में एकर फिर एक वाहन में बैठ वे चिकित्सालय गए ॥ 

निरखत अखत अंग प्रत्यंगे । बिषय बिसेषज जग एक संगे ॥ 
गिरे पीर  के भेषज लाखे । दोइ दिवस लग भरती राखे ।। 
वहाँ सम्बंधित विषय के विशेषज्ञों ने एक जुट हो बाक के  अंग प्रत्यंगों का परिक्षण किया ॥ गिरने से जो पीड़ा हुई उसकी औषधियां लिखीं । दो दिनों तक उसे निरिक्षण हेतु भरती रखा ॥ 

निदान भवन परिहार पद धरे आप आगार । 
जनि नयन निहार धरि रहि, लालन नयन निहार ॥ 
निदान भवन को छोड़कर जब माता  ने चरणों को जब अपने निवास में धरा तब वह तैरने जलकणों से युक्त नेत्रों से बालक के नेत्रों को निहारने लगी ।। 

सोमवार, २७ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

सीस टरे जब संकट भारी । हत पीर भई तनिक सुखारी ॥ 
जो जन अहहीं सम भगवाने । सब बरनन तब पूछत जाने ॥ 
सिर से जब यह भारी संकट मोचित हुवा  आघात एवं चोट की पीड़ा किंचित सुखमय हुई । जो ओग भगवान के समरूप थे । तब वर वधु ने घटना का विवरण पूछा ॥ 

रहे बँधे कस भाग हमारे । बाल रखे कस राखनहारे ॥ 
कहि जन जन जग जोइ जनावा । रखे साँस जुग सोइ जिआवा ॥ 
यह हमारा सौभग्य हुवा तो कैसे हुवा । रक्षक ने बालक की किस प्रकार रक्षा की ॥ तब  जो जग में जन्म देता है । वही सांस संजोता है और वही जीवन देता है ॥ 

जोइ कृतागम करता सोई । जीवन मरनी कारन कोई ॥ 
एक भल सज्जन बन कारनहारे । पतनत बालक भुज सिरु धारे ॥ 
जो परम आत्मा है वे ही कर्त्ता है । जीवन-मृत्यु का कारन कोई और होता है । एक भले सज्जन कारन हार बने । और गिरते हुवे बच्चे को अपने कंधो ले लिया ॥ 

पतनत रहि पुत भवन बियोगे । गवनत रहि तरि सोइ सँजोगे ॥ 
ए कारन हे मात तव बाला । अकाल जात गहे न काला ॥ 
जब  भवन से वियोजित हो रहा था उसी समय वह भला सज्जन संयोग वश उसके नीचे से जा रहा था ॥ इस कारण हे माता आपका बालक को का ने समय से पूर्व ग्रहण नहीं किया ॥ 

पुनि भेंट करत तिन जन कहे, बर बधु सीस नवात । 
प्रगसे हमहि हुँत अस तस, तुम्ह धन्य के पात ॥   

फिर वर-वधू उस सज्जन से भेंट कर सीस नवा कर बोले । हमारे लिए जिस प्रकार से प्रकट हुवे उस प्रकार से आप धन्यवाद के पात्र हैं ॥ 

मंगलवार, २८ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

कही बर मात संकट टारे । तुहारी बिगड़ी पीर सँवारे ॥ 
अज हुँत दुनउ धिआन करेहु । राखु सदा छाजन पट देहु ॥ 
वर के सम्मुख होते हुवे माता ने कहा चलो संकट टल गया । तुम्हारी बिगड़ी गोगा  पीर ने सँवार दी  ॥ अब से दोनों बच्चे का ध्यान करना । छज्जे के दुवार पट को सदैव बंद रखना ॥ 
  बसत रहि जो सन सुआसिनी ।  सोई अवसरु मृदुल वादिनी ॥ 
तुम्हरे तनय न एक अकेरे । ए पुर पंगत गिरे बहुतेरे ॥ 
जो पड़ोसिनी वहाँ निवासरत थीं । उस समय वे वधु से मधुर स्वर में कहने लगी ।। तुम्हारा पुत्र एक अकेला नहीं है । इन भवन पंक्तियों से पहले भी बहुंत बच्चे (पांच छह:) गिरे हैं ॥ 

बरदानत  जस भुइँ किए पावन । संज्ञान किमि कर न जान कवन ॥ 
गच कारू अस भवन रचाई । छाज मूठ धरि नीचकताईं ॥ 
यह ज्ञात नहीं है कि किस कारण से एवं किसने दिया किन्तु यह भूमि किसी का वरदान प्राप्त कर जैसे पवित्र हो गई है ॥ किन्तु रचयिता ने इन भवनों  को इस प्रकार से रचा कि छज्जे की मूठ को नीचा कर दिया ॥ 

पथ दरसन जो लालन झाँके । धरनि परे ले धमक धमाके ॥ 
एक कहि आँचर कटि कर पोटे । देखु देखु जे हमरे ठोटे ॥ 
अब यदि कोई बालक पथ दर्शन हेतु वहाँ से झांके तो धमाका उठा कर धरती पर आ गिरता है ॥ फिर एक पड़ोसिन ने करधन में आँचल खचते हुवे कहा । देखो देखो ये हमारे बछुआ को ॥ 

ए नपुत निपते दुजन खन ते । द्यु किरन धर पते भू अंते ॥ 
कहि मन महु वधु भइ भलसाई । जे भवन तिज भूमिक न पाईं 
यह नपुत तो दूसरे भूमिक गिरते हुवे बिजली की किरणों पकड़ कर फिर भूमि ऊपर गिरा था ॥  वधु मन में सोची  अच्छा हुवा कि इसकी तीसरी भूमिक नहीं है ॥  

भूमि निपते सो निपते, भयउ न को जन हानि । 
श्रवन बहियर निहाल भइ, सुआसिनी की बानि ॥   
फिर वह पड़ोसिन आगे कहने लगी भूमि में गिरे सो गिरे किन्तु कोई जन हानि नहीं हुई । पड़ोसिन के वचनों को सुनकर वधु निहाल हो गई ॥ 

बुधवार, २९ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                     

जीवन पग पग दै संदेसे । मन मानस लहे न लउ लेसे ॥ 
अभिलाखित मन सौ सुख चाहे । ए त अहहीँ कहे ए नहि काहे ॥ 

सीध उँगरी घिउ न निकसाई । दोष करत कर टेरत खाईं ॥ 
कूट करम के रस  मुख लागे । टिकत घिउ दै ताहु न त्यागे ॥ 

केहि लेख लिख दिए उपदेसे । हारी गए सो लागे न लेसे ॥ 
ऐसेउ चारत बर कु बाटे । दुषित किरिया कीट के काटे ॥ 

अवसरु पात जब तब लिए खाइ । बर कुकर्म बधु बनै सहाइ ।। 
सील चरन सत सद गुन हीना । सुधारत नहि भय दरसन बीना ॥ 

काम क्रोध मद अरु लोभ माया के भ्रम जाल । 
तिनके बस जब लग रहे, जब लग आए न काल ॥ 

बृहस्पतिवार, ३० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                          

अजहुँ त हस्त सिद्धि के संगे ।  लाहे ऊरूज सोइ नियंगे ॥ 
पुरइन भवन नयन सपनाई । आगत बै तिन पूरन ताईं  ॥ 

बियहुत परन पिय केकराई । जिनके अंस पितु जननि दाई ।। 

रही जो जीवन रछक प्रतिभूति । अवधी पूरनत पाए बिभूति ।। 

लहि कुल एक अरु अरधन लाखे । अध् दिए भवनन अध् ढुंग राखे ।। 

बहुरी बिय पिय हिय हिलकोरे । रथ के किरन करन कर कोरे ॥ 

बहियार मुख नहि नहि कह हारे । बार सम्मुख बहु अनुग्रह कारे ॥ 

कह जोगे न बिधि अस सँजोगू । फिरिअ फिरिअ अस जोग न जोगू ॥ 

बहुरी बहुरि कहत बुझात, बाक सैम हाथ धारि । 
पाछु परे पिय दिनु रात, बहियर हाँ ना कारि ॥ 

शुक्रवार, ३१ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                    

धुनी बरन के बाटइ बाती ।  उपमित कारत ठकुरसुहाती ॥ 
कभु करकस कभु कहि रस बोरे । कभु कहि करनन करत अँकोरे ॥ 

बधुरी कहु बहुत समुझाई । बात सुनु देखु मोरे साईँ ॥ 
बिषइ बिलासा के जग माही । भोगन अवसरु होवत नाही ॥ 

होत बिकल पिय मनहि न रोकें । ललकित नयन कातर बिलोके ॥ 
जान न तुम मम बालकताई । केत न केत अकाल गहाई ॥ 

बिभूति भरे भवन मन भावा । तिन का कहि जो गहे अभावा ॥ 
देखु तनिक पुर आपनी भ्राता । दरसन पर करू मम सो बाता ॥ 

जीवन अरथ के मनोरथ तब रथ बाहि राजित सोहिते । 
रुचिकर कारन बिनु काज अकारन रथि कहत बिप्रमोहिते ॥ 
बावरा भँवर चित तौ चाँचर बिषई सुमन पर भाँवरे । 
परिहरु रथ लाहन  कास किरन मन कासिहि मोरे साँवरे ॥ 

लिखीनी ना बरन सकै, तिनकी बानी बान । 
एक कान गहन करे जो निस्कासे दुज कान ॥ 




















Wednesday, January 1, 2014

----- ॥ सोपान पथ ५ ॥ -----

भोर भई पथ रबि धरि पाँवा । करम करन पिय गवनै गाँवा ॥ 
गेहस के सब कार उसारे  । रीति मतिहि बधु बैठहि ठारे ॥ 
भोर होती पथ पर रवि के चरण पड़ते ही, प्रियतम कार्य पर चले जाते ॥ गृह के सब कार्य निपटा कर रिक्त मष्तिस्क लिए वधु ठाली बैठे रहती ॥ 

एहि बिच चित उपजी जिग्यासा । दोष चरन तिन देइ बियासा ॥ 
बैसि बैसि मन ही मन बोले । चलौ तनिक निज बुद्धी तौले ॥ 
इसी बीच चित्त में एक जिज्ञासा उपजी । दूषित आचरण ने उस जिज्ञासा को विस्तार दिया । वह बैठे बैठे मन-ही-मन कहने लगी । चलो थोड़ी अपनी बुद्धि की जांच कर लें कि किसमें कितनी है ॥ 

उलट पुलट सब झोरन देखे । रहहि  उहि ब्यबहारी लेखे ॥ 
देखि नयन एक बाँधि पिटारी । कुंजी सहित अंक के तारी ॥ 
रखे गए सारे झोलों को उलट-पुलट कर देखा । उसमें वही व्यवहारी बही पत्र थे ॥ फिर एक बंधी पिटारी का निरिक्षण किया । उसमें कुंजी के ताले के सहित अंक का ताला था ॥ 

बिन कुंजी दवारि पट ढारे । सँजोजित अंक देइ उहारे ॥ 
चारि पल कुल छह घरी लागे ।  हेरन फेरन कौतुक जागे ॥ 
पिटारी की द्वारी में कुंजी लगी नहीं थी केवल अंक के ताले से ही वह आबद्ध थी । वधु ने उसे चार पल एवं कुछ ही घडी अर्थात कुछ ही समय में खोल दिया । फिर हेर-फेर का कौतुक जागा ॥ 

लेख लिखि लेखा पोथी, पतर्क माल पिरोए । 
तिन्ह सोंह धरे रहि कछु, धन संचइ पत्र जोए ॥ 
निरीक्षणोंपरांत उसमें लेखा-बही पत्रों की पंक्तियों के सह कुछ संचई धन-पत्र रखे हुवे थे ॥ 

बृहस्पतिवार, ० २ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                        

कछुक दिवस लह अवधि पूरिते । सन्चै पतर लख तिनी परिनिते ॥ 
जोख सकल बधु तिन्ह निकारी । अरु जस के तस बाँधि पिटारी ॥ 
अवधि पूर्ण होते ही कुछ ही दिवस में वे संचई पत्र रुपय तीन लाख में परिवर्तित होने वाले थे ॥ यह देख कर वधु ने उन पत्रों को निकाल लिया । शेष सभी सामग्री यत्रवत उस पिटारी में बाँध दी ॥ 

धनाहरन तिथि आगम पाही । पत्र प्रतिभू परिजन घर आही ॥ 
उलट-पुलट किए सकल सँजोई । हेरि पतर पर मिलै न कोई ॥ 
धनाहरण की तिथि निकट आ गई थी । पत्र के प्रतिभू वे परिजन फिर घर आए । और  सारे बही-पत्रों को उलटा-पलटा । परिजन उन संचई पत्रों को ढूंड रहे थे किन्तु वह मिले नहीं, होते तो मिलते ॥ 

सब जानि जे जग रीति होई । किरिया पथ प्रति किरिया जोई ॥ 
बिहान पिय सन पूछ बुझाईं । जान न कहतै खोटि सुनाईं ॥ 
जग की इस रीती को सभी जानते है है कि प्रत्येक क्रिया, प्रतिक्रया की प्रतीक्षा करती है ॥ अंत में उन्होंने प्रियतम से पूछ-ताछ की । प्रियतम ने जब उस सम्बन्ध में अनभिज्ञता प्रकट की तब वे परिजन खरी -खोटी सुनाने लगे ॥ 

सान  सुधित सर बिष मह बोरै ।  लान बचन मुख साधत छोरें ॥ 
जब पिय मान हरन उतराईं । तब मुखरित बधु कहि पलटाई ॥ 
फिर वे विष में बोड़े, सान में सँवारे हुवे बाण-वचन मुख में लाते और सधा-साध कर छोडते ॥ । और जब प्रियतम का सन्मान हरण करने लगे तब वधु का मुंह खुल गया वह पलट के बोली ॥ 

लेख-बही धरावन के, बस हम अनुमति दाए । 
धन सुबरन के कोउ पत, कहु कस धरे ढकाए ॥ 
हमने आपको केवल लेखा-बही  रखवाने की अनुमति दी थी । धन रुपया पैसा सोना-चांदी हीरे मोती  या कोई संचई-पत्र  रखने की नहीं ।  रखा और वो भी ढक के ॥ 

शुक्रवार, ०३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                      

धरैं कूट का आजुध गोरे । बोलइ बधु किए बचन कठोरे ॥ 
जो फूटन पर आवत कहहू । हमरे गोरे चौरन लहहू ॥ 
फिर वधु ने वचन कठोर करते हुवे कहा : -- क्या कोई छल करके किसी के यहाँ आयुध और अग्नि गोले रख दे । जो वह फूट जाए तो आकर यह तो नहीं पूछे कि कोई हताहत तो नहीं हुवा , उलटे यह पूछे कि हमारे अग्नि गोले कहाँ है ॥ 

होहि धरोहर तब को धरि धृति । जब धारक के लेइ स्वीकृति ॥ 
जो हमरे कर कहूँ गवाईं । तिन्ह धरोहर के हम दाईं ॥ 
"कोई धरी हुई धृति तभी धरोहर का स्वरुप लेती है,जब धारक उसे धारण करने की स्वीकृति दे "॥ फिर वह हमारे हाथ से कहीं खो जाती है अथवा हम उसका  उपयोग कर लेते है तब उस धरोहर पर दायित्व निरूपित होता है ॥ 

नैन जुरावत पुनि पिय बोरे । तिन पतरन का तुम चोरे ॥ 
सोचि बधु रे जो कहि हम लाहु । साहु चोर भै चौर भै साहु ॥ 
फिर प्रियतम ने वधु से नयन मिला कर कहा ''क्या तुमने उन पत्रों को चोरी किया है ''॥ वधु सोचने लगी यदि मैने यह कह दिया की हाँ चोरी की है तब चोर साहूकार सिद्ध हो जाएगा और साहूकार चोर हो जाएगा ॥ 

बुद्धि अँधरे गाँठि के पूरे । बहिनि तरु बेलरी बिनु मूरे ॥ 
परिजन धन सन भए मतवारे । पाँवर कस करत ब्यवहारे ॥ 
बुद्धि के अंधे गाँठ के पूरे । बहन रूपी वृक्ष पर बिना मूल के फुलतेफलती बेलरी कहीं के,ये स्वजन तो धन के मद में मतवारे हुवे जा रहे हैं । इनका व्यवहार मूर्खता पूर्ण परिलक्षित हो रहा है ॥ 

दोष दुहू  के आहि की नाहि । रच्छक पहि गत बाँधि ले जाहिं ॥ 
जे मतिहिन लिए देइ छुटाहीं । पर दीनन के कवन रखाही ॥ 
दोनों का दोष है कि नहीं है यह तो ईश्वर ही जाने । यदि ये राजा के रक्षकों के पास चले गए तो वे दोनों को बाँध के ले जाएंगे । ये मतिहीन ले-दे के छूट जाएंगे । किन्तु दरिद्र को कौन बचाएगा ॥ 

सह माया लोभन सन राँराँचे  । एक कोती दिखावत नाचे ॥ 
साथ में एक कोने में माया भी लोभ के रंग में अनुरक्त हो कर अपना मोहक नृत्य दिखाने लगी ॥ 

बिपल मत मान सरोबर, तीर तरंग लहाहि । 
अस सौ मत गतागत पर, बधु धीरहि कहि नाहि ॥  
विपल में ही मस्तिष्क के मान सरोवरके तट पर तरंगे उठने लगी । ऐसे सौ प्रकार के विचार आने-जाने के पश्चात वधु ने फिर धीरे से कहा ''नहीं''

शनिवार, ०४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                          

बिभावरी मुख तरत बिभावा । खेद जनक भावहि उपजावा ॥ 
नयन भवन के पलक अलारे । अस कह पर पिय चरन बुहारे ॥ 
पीले पड़े मुखड़े पर भाव के तीन अंगो एक भावोद्दीप्त अवस्था ने खेद को जन्म देने वाले भाव को प्रकट किया । नयन रूपी भवन में पलकों की द्वारी ने  ऐसा कहते हुवे प्रियतम के चरणों को बुहारने लगे ॥ 

नवल नवल के भए धनमानी । दुर्बादित अतिसय अभिमानी ॥ 
अपनपो ऐँठ दूर दुराई । हवन करत बर हाथ जराईं ॥ 
परिजन, नए नए धनवान हुवे थे ।अतिशय अभिमान से युक्त होकर वे दुर्वादन करते अपने आप में ऐंठे दूर हो गए । प्रियतम ने तो भलाई की किन्तु मिली बुराई ॥ 

कूट कुटिल कुबुद्धि कस जागी । बेनु बिपिन जागत जस आगी ॥ 
बधु नए स्वजन मेल बिगारी । तिन कारन कह लघुमति नारी ॥ 
छल कपट की बुद्धि ऐसे जागृत हुई जैसे करील के विपिन में अग्नि जागृत होती है । वधु ने परिजनों से बिगाड़ कर ली । इसी कारण कहते हैं कि स्त्रियों की बुद्धि अल्प होती है॥ 

पलक पहर भए पहरअहि रइना । भयो दिनमल संचत दिन दिना । 
जोगबनी दिनमल भए पाखे । पाख पाख जुग बत्सर लाखे ॥ 
क्षण पहरों में  पहर रात्रि में रात्रि दिवस में परिवर्तित होती गई, दिवस संचयित होकर मास में परिवर्तित हो गए | मास -मास का योग पक्ष में पक्ष-पक्ष का योग वर्ष में परिणित हो गया  | 

दोई बत्सल पूर्ण कारे । भयवन तीजन पथ पद धारे ॥ 
तिन्ह पत्र बधु धरे रखाई । कबहु पिया जब पूछ बुझाई ॥ 
दो वर्ष जाते देर न लगी और समय तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गया । वे पत्र वधु के पास ही रखे रहे । कभी प्रियतम तत्संबंध में पड़ताल करते : -- 

 मुख पटल करत गम्भीर, कहु का तुम तिन लाहि । 
कबहु हाँ कबहु नाहि कह, कभु इत उत टरकाहि ॥ 
और मुख के गगन पटल पर मेघ के सदृश्य गम्भीरता ओढे कहते कहो उन पत्रों को क्या तुमने लिया था । तब वधु कभी हाँ कहती कभी ना कहती कभी इधर उधर की कह कर बात टाल देती ॥ 

रवि/सोम , ०५/०६ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                           

पुनि बधु कर धर भाल बिचारी । अजहुँ न नुकूल चरत बयारी ॥ 
जोग काल  लागैं जब आहीं । तब प्रियतम मन साँच बताहीं ॥ 
फिर वहु सर पर हाथ धरे विचार करने लगी । अभी वायु का प्रवाह अनुकूल नहीं है । जब लगेगा कि देश काल एवं परिस्थितियां उत्तम होगी तब प्रियतम से सत्य कह दूँगी ( कदाचित यह वधु की एक त्रुटि थी ) ॥ 

असकर प्रस्तुत प्रकरन संगे । घटे जुत पुरब कथित प्रसंगे ॥ 
बसहि बसति एक पाहि निबासे । जँह कछुकन ब्ययसनी बासे ॥ 
इस प्रकार प्रस्तुत प्रकरण के सह पूर्वोक्त घटनाएं भी घटित होती रहीं ॥ जहां वरवधू का निवास था वहाँ निकट ही एक वसति में कुछ व्यवसनी वास करते थे ॥ 

बसि सासकी भवन एहि मज्झन । चारि बारिहि कुल चौरी करन ॥ 
चोर चकार पद घर चिन्हे । चोरित चोरितक गवनु लिन्हे ॥ 
इसी मध्य शासकीय भवन में निवास करते हुवे घर में कुल चार बारी चोरी हो गई ॥ चोर-उचक्कों के चरणों ने घर को चिन्हित किया हुवा था । वे छोटे मोटे समान चोरी कर ले जाते ॥ 

को कारन को काज बियावा । गवनै बरबधु बाहिर गाँवा ॥ 
साँझ ढरे अरु भए जब राता । चोर उचक तब मारै हाथा ॥ 
किसी कारणवश अथवा औचक कोई कार्य उत्पन्न हो जाने के कारण वरवधू को बाहिर गाँव-नगर में जाना पड़ता । जब सांझ ढाती एवं रात्रि होती तब चोर-उचक्के हाथ की कुशलता दिखाते ॥ 

कोषगार ढरि लौह पिटारी । तिन चौरन  लागहि एक बारी ॥ 
रजत मुद्रा कुल दसक दहाई । तीनि सहस रति सोन गढ़ाई ॥ 
क लोहे कि पिटारी में एक कोषागार था । एक बार तो चोर उसमें ही लग गए ॥ जिसमें कुल एक शतक रजत मुद्राएँ थीं तीन सहस्त्र रत्ती ( आठ रत्ती = एक माशा, बारह माशा= एक तोला )कुल स्वर्ण के आभूषण थे ॥ 

हिरनइ को गहन रजत के । कछुकन पतर अचर संपत के ॥ 
रहहि न कोइ दरस धन रासी । एतिक रहहि धन जोग बियासी ॥ 
आभूषण उज्जवल एवं हिरण्मयी थे । कुछ अचल सम्पति के  लेखा-पत्र थे । कोई  साक्षात धन राशि नहीं थी कारण कि सभी अचल सम्पति में संजोई गई थी ॥ 

बिहाउ परन जुगल जिन्ह, राखे जोग जुहार । 
नैहर ससुराइ दुहु जुट, देइ दान उपहार ॥ 
विवाहोपरांत वधूवर ने जिन्हें संजो कर रखा हुवा था जो पीहर एवं ससुराल दोनों और का दिया दानोपहार था ॥ 

भोर भइ कि कहुँ जागरन, उचाके गयउ भाग । 
लागसि  अस ते कारन, बाँचै सबहि सुभाग ॥ 
वे उचक्के भाग गए थे ,कदाचित भोर हो गई अथवा कहीं जाग हो गई लगा कि इसी कारण सौभाग्य से सभी कुछ बच गया था ॥ 

ठोटे रुज कारन उपचारी । कभु अवसर को मंगलकारी ॥ 
कहुँ जावन को मरन-जियाई । गहन रखन तब चिंतन खाई ॥ 
पुत्र के रोगोपचार के कारणवश अथवा कभी किसी शुभ किसी मांगलिक अवसर पर या किसी के मरने-जीने पर जब फिर कहीं जाने की आवश्यकता हुई तब उन आभूषणों के रक्षन की चिंता सताने लगी ॥ 

पुनि पिय पद जनु चकरी घारे । अधिकोष के चिक्करइँ कारे ॥ 
कोषागार को कहहुँ न पाए । बहुरत भोंदू भवन भितराए ॥ 
फिर प्रियतम के पैरों में जैसे कोई चकरी पहन लिए हों । वे अधिकोष की शाखाओं का चक्कर लगाने लगे ॥ वाहनं उन्हें कहीं भी कोषागार नहीं मिला और बुधु बनकर घर लौट आए ॥  

कही मन मैं बधु अब का कारौं । आपनि धरोहर को पहिं धारौं ॥ 
पिय कहि मात पिता के पाहीं । बधु मन मैं कहि नाही नाही ॥ 
वधु मन में कहने लगी अब क्या करूँ ? अपनी धरोहर को कहाँ धरूँ ? ॥ प्रियतम कहने लगे मेरे माता-पिता के पास ? वधु फिर मन में कहने लगी नहीं नहीं ॥ 

संचई पत्र के अग्नि गोरे । धरे हम अस भेद कस खोरें ॥ 
बहुरि जुगावत एक पेटारी । भ्रात भेद दे धरन गुहारी ॥ 
संचय पत्र के जो अग्नि गोले हैं । वह मेरे पास हैं यह भेद उन्हें कैसे दूँ ? फिर उसने एक पिटारी में सारा  धन एकत्र किया । और अपने भ्राता को उन संचई पत्रों का भेद देते हुवे उसे धृति स्वरुप धारण करने की गुहार लगाई ॥ 

अपने साज संजोवनी लवनै । भ्रात कहत धुत कहुँ अरु गवनै ॥ 
बहु अनुग्रह पर बहु कर जोरे । तब भ्राता धृति धरुवन होरे ॥ 
वे धुत-धुत करते बोले ये अपनी साज -सामग्री बटोरे  और कोई दुसरा घर देखो ॥ फिर अत्यंत ही आग्रह करने एवं वारंवार कर जोड़ने पर फिर भ्राता ने उस धृति को धरोहर स्वरुप ग्रहण कर लिया ॥ 

असकर बधुबर बहिर्गत, आगत चरन बहोर । 
धरे धरौहर ले गवनै, मांग करे निज ठौर ॥  
ऐसा करते जब वधु-वर कहीं बहिर्गमन करते और वहाँ से वापस लौटते ।  तब वे अपनी धरोहर मांगकर अपने घर ले जाते ॥ 

मंगलवार, ०७ जनवरी, २०१४                                                                                                    

जब कथित बातिन्ह मैं भूरे । पय योजनावधि भयउ पूरे ॥ 
जिन्ह करनानुबन्ध धराईं ।  अवधि पूरतै करम बिहाईं ॥ 
जब वर-वधू कही गई उपरोक्त बातों में निमग्न थे कि तभी वर की जल योजना की अवधि पूर्ण होकर वह समाप्त हो गई । जिस का कार्य करने हेतु वर ने अनुबंध किया था । अवधि पूर्ण होते ही अनुबंध भी पूर्ण हो गया और वर का सेवकाई भी जाती रही ॥ 

तहँ लख जो तिनु चारिन  आही । भ्रष्ट चरन चर जोगित लाहीं ॥ 
जुगे धन गेह गहस चराईं । सेष आपनु  भवन भुगताईं ॥ 
वहाँ ( लगभग अट्टारह बीस माह में )  भ्रष्टाचार करते हुवे वर ने  तीन-चार लाख  की धन राशि लाभार्जित की  । संगृहीत धन से गृह-गृहस्थी संचालित की एवं शेष को संपत्ति के अंश का भुगतान किया ॥ 

प्रान नाथ पुनि बिनु श्रम कामा । बैठे ठारे सिरु धर धामा ॥ 
सौचए अब कँह कर बिस्तारें । जँह गवनै  तँह ठोकर मारै ॥ 
वधू के प्राणनाथ फिर से कर्महीन हो गए सर थाम कर घर में बैठ गए ॥ सोचने लगे अब कहाँ हाथ पसारें । जहां जाते हैं वहीँ ठोकरेँ मिलती हैं ॥ 

फेर सकेरे सकल उपाधी । भ्रष्ट चरन के एक अपराधी ॥ 
बहुरत मह बिद्यालय सोईं । अंस काल अध्यापक होईं ।। 
फिर सारे उपद्रवों को एकत्र किये भ्रष्ट आचरण का एक अपराधी पुनश्च जहां पहले था उसी महाविद्यालय में अंश कालीन अध्यापक के रूप में नियुक्त हुवा॥ 

भए आपनु सहि भू भवनु,  अधम अधिक अपनोइ । 
कहि पिय अब मन चिंताए, पेट लपेटन होइ ॥ 
प्रियतम कहने लगे : -- भूमिखंड, भवन, एवं आपण के हम आधे से अधिक के स्वामी हो गए हैं, अब भोजन-वस्त्र की ही चिंता रह गई॥ 

बुधवार, ०८ जनवरी, २०१३                                                                                                      

बन उपबनी पलास बिकासे । फुरत फरत उत भै षट मासे ॥ 
एक दिन प्रियतम धावत आईं । जे सुखकर संदेस सुनाईं ॥ 
वन-उपवन में पलास के पुष्प विकसित होकर फलने फूलने लगे आधार छह: मास व्यतीत हो गए ॥ एक दिन प्रियतम लगभग दौड़ते हुवे से आए । और यह सुखकारी सन्देश सुनाया ॥ 

पट ज्ञापित किए कछुक पद राए । मग जोजन अभियंता सहाए ।। 
अहहिं उपजंती पदक बहूले । मम अर्हता भए अनुकूले ॥ 
राजा ने मार्ग योजना हेतु सहायक अभ्यंता के कुछ पदों को ज्ञापित किया है । जिसमें बहुंत से उपभियन्ता के भी पद हैं मेरी अर्हता भी उन पदों के अनुकूल है ॥ 

भाव प्रबन पिय बदन दरसाए । तिनके ब्यंजन बरनि न जाए ॥ 
कहि बधु पिय अरु बिलम न कारौ । कारत जाचन पद आहारौ ॥ 
प्रियतम के वदन में जो भावुकता प्रदर्शित हुई उसकी व्यंजना वर्णातित हैं ॥ फिर वधु ने हे मेरे प्रियतम अब और विलम्ब न करो । राजा के सम्मुख याचना करते हुवे उक्त पद को ग्रहण करो ॥ 

बिबरन पिय जब देइ धिआने । तिनके पन पिय बे न अधाने ॥ 
निर्दिसित रही जो बे सीवा । बैकर पिय तनि रहहिं अधीवा ॥ 
जब प्रियतम ने ज्ञापित पदों के विवरण को ध्यान से देखा । तो वे नियुक्ति नियमों के प्रतिज्ञा की पूर्णता को प्राप्त नहीं हो रहे थे ॥ जो आयु सीमा निर्दिष्ट की गई थी । वहाँ आयु वर्धन करते हुवे प्रियतम  किंचित अधिकता को प्राप्त थे ॥ 

जो आस मुख लाहि निरासा माहि छिनु मैं रूपांतरी । 
जनु मुख बन लाहू भवन उछाहू तापरचिरु द्युति गिरी ॥ 
सह कारज करमा पद अति परमा रहहि बहु आकर्षनै । 
बिनु काम कमाई, सों जिउताईं हस्त सिद्धि कहि न बने ॥ 
प्रियतम के श्री मुख पर की आशाओं की कांति वह निराशा की श्यामलता में परिवर्तित हो गई । यह निराशा ऐसी थी मानो मुख लालसाओं का उपवन है जिसमें उत्साह का एक भवन है और उसपर बिजली आ गिरे हो ॥ काम-काज के सह पद की शोभा अति आकर्षक थी । जो बिना काम-कमाई के हो उस जीवक के सम्मुख हस्त सिद्धि, वर्णनातीत थी ॥ 

हरिएँ कहत पिय  होहि पद जदपि धार अनुबंध । 
तिनके हुँत नियमित सोंह, जिनके को न प्रबंध ॥ 
प्रियतम ने धीरे से कहा : -- यद्यपि यह अनुबंधारित पद है । किन्तु जिसका कोई प्रबंध न हो, उस हेतु यह नियमित के ही सदृश्य है ॥ 

गुरूवार, ० ९ जनवरी, २०१४                                                                                                

एक त नहि कहि पद सेउकाई । भाग मिलै सो भाग बिहाई ॥ 
देखि बधु पिय चिंतन घेरे । भै चंचल चित चोर चितेरे ॥ 
एक तो कहीं सेवोपजीविका के पद रिक्त नहीं हैं । भाग्य वश जो मिला वह भी भागा जा आरहा है ॥ जब वधु ने अपने प्राणाधार को चिंता से घिरे देखा । तब उसके चित का चितेरा चोर चंचल हो गया ॥ 

मलिनइ तव मुख सोह न पावै । कही चलौ को जुगत लगावैं ॥ 
श्रुत बधु बत पिय दुइ पल होरे । पूछे पुनि जोरे का तोरें ॥  
वह कहने लगी तुम्हारे श्री मुख पर उदासी अच्छी नहीं लगती । चलो कुछ उपाय करत हैं । वधु की बात सुनकर प्रियतम एक प् के लिए ठहरे । फिर पूछे कहो तो क्या जोड़ें और क्या तोड़ें ॥ 

कही बधु जो पद तव मन चाही । हेर फेर बिनु दूर दुराही ॥ 
सिद्ध बयस पत्र काचि लिखाई । प्रतिलेखित धरु बै जुवताई ॥ 
वधु कहने लगी तुम्हारा चित्त जिस पद को प्राप्त करने को आकांक्षित है, वह बिना उअत-पुलट के तो पकड़ नहीं आएगा, और दूर भाग जाएगा ॥ जो पत्र आयु को प्रमाणित कर रहा है उस पत्र की लिखाई देखो, कच्ची है । इसे प्रतिलिखित कर थोड़े युवा हो जाओ ॥ 

 देह बसन घर नित कन चाही । जे अवसरु पुनि आहि कि नाहीं ॥ 
रूरत पथ पथ पद पत पानी । डरपत करि तनि आना कानी ॥ 
यह देह तो नित्य प्रति ही वस्त्र और अन्न मांगेगी । यह अवसर जाने फिर प्राप्त होगा कि नहीं ॥  तुम्हारे पद की प्रतिष्ठा पथ मारी मारी फिर रही है । प्रियतम भयभीत हो गए, किंचित टाल-मटोल कर : -- 

हेर फेर पिय करन पुनि कठिनइ साज समाजि । 
दरसै जब निज जोगता, अस कृत करनन लाजि ॥ 
फिर किसी भांति प्रियतम हेर-फेर करने हेतु तैयार हो गए । किन्तु जब उन्होंने अपनी योग्यता देखी, तब ऐसे कुकृत्य करते हुवे लज्जित हो उठे ॥ क्योंकि सुकृत्य कभी निष्फल नहीं जाते,  कुकृत्यों से अवसरों का  संयोग समाप्त होता जाता है ॥ 

शुक्रवार,१० जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                            

पद निहोरत सोइ अस आसहिं  । आस पीहु जस पयस प्यासहि ॥ 
लगे जोग पथ अस परिनामा । बिनु कार बनिहार को कामा ॥ 
पद हेतु  आवेदन कर वह इस प्रकार से आशान्वित हो गए । जैसे प्यासे पपीहा पयस के लिए आशान्वित हो  ॥ 
चयन-परिणाम हेतु वह ऐसे प्रतीक्षित हुवे जैसे बिना कार्य के कोई बनिहार,  कार्य प्राप्त करने की प्रतीक्षा कर रहा हो ॥ 

गत रौधानी पिय एक बारे । लोग जोग फर पूछत हारे ॥ 
किए चयनित जब नाम उजागर । भए मुदित तब आपनु दरसकर ॥ 
एक अवसर पर राजधानी  पहुँच गए । वहाँ लोगों से योगफल पूछ पूछ कर श्रमित हो गए ॥ ( कुछ समय  पश्चात) जब प्रशासन ने चयनित नाम प्रकाशित किए । वहाँ अपना नाम देखकर प्रियतम अतयंत ही हर्ष से भर गए ॥ 

उपजंती के किए अभिलाखे । बनए सहायक अस पत भाखै ॥ 
मिलै पदक जो सपन न अहाईं । गत प्रभु भवन कहत सिरु नाईं ॥ 
 अभिलाषा उपयंत्री की किए थे प्रकाशित पत्र सहायक दर्शा था ॥ प्रियतम ईश्वर के द्वार पर गए एवं 'जिस पद की स्वप्न में भी आस नहीं थी वह आपकी कृपा से प्राप्त हुवा' ऐसा कहते हुवे ईश्वर का धन्यवाद किया  ॥ 

पदक चयन जब कही सहुँ संगिनि । उलट बचन अस कहि मन रंजनि ॥ 
तव अनंदु अस जस जुबताई ।  कहूँ गवाईं बहुरत पाईं ॥ 
पद के चयन की बात जब संगिनी के सम्मुख कही । उस मन रंजनि ने उलटे वचन कहे ॥ वह खाने लगी तुम्हारा हर्ष ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी ने यौवन कहीं गँवा कर उसे पुन: प्राप्त कर लिया हो ॥ 

उमग चित बहु प्रनय सहित, सुहसित नयन जुराए । 
खर कर करधनी धर बर, बधु भुजांतर लाए ॥ 
प्रीतम उल्लास भरे चित्त से प्रणय सहित सुन्दर हंसी हंसते हुवे नयन चार किये ॥ 

शनिवार, ११ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                

लख अपलक लक अलक सँवारे । लवन मगन किए करन कगारे ॥ 
कपोलारून निज अधरं लैने । भए प्रनिसित पिय प्रनइत बैने ॥ 

बहुरि बदन कन धर करताला । आजानु हनु पत चुंबत भाला ॥ 
रसिक असिक रस किए रसिया रे । अधराधर निजधर अधिकारे ॥ 

दोई प्रनई प्रनय मैं रँगे । दुहु दुआराधर भए प्रतिसँगै ॥ 
बाहु सिखर रत परिगत कंठन । अनुरागिन के रवनै कंकन ॥ 

धरे अवर जब किए रस पाना । प्रिये अधर प्रिय दिए रद दाना ॥ 
आह कहत कहि हमसों लगाइ । लाह धरत बधु नयन निपताइ ॥ 

कह रहि लै गवनु नौ भवनु, कहे हरिएँ पिय जाहु । 
हाँ हाँ कही भइ भाव प्रवनु, बधु प्रीतम भर बाहु ॥  

रविवार, १२ जनवरी, २०१४                                                                                                      
पिय रत हहरत हीअ हिलगाए । तनि बिलम हरिअ बाहु बिलगाए ।। 
बधु बूझि जे भली समुझाई । ऐसी मति तव कहु को दाई ॥ 
प्रियतम में आसक्त कपकपाती हृदय से लगी रही । फिर कुछ समय पश्चात धरे से भुजाएं वियोजित कर वधु ने पूछा यह भली समझ ऐसी सदबुद्धि कहो तो तुम्हें किसने दी ॥ 

जे परम सुखद पद मैं लहेउँ । तात मात पहि जब गत कहेउँ ॥ 
कहत सोइ रे बाल सियाने । जो तव मति हमरे मत माने ॥ 
 मात-पिता  के पास जाकर जब मैने ऐसा कहा कि यह परम सुखद पद मैने  प्राप्त किया है। तब उन्होंने बोला, हमारे सयाने बालक जो तेरी बुद्धि हमारी कही माने ॥ 

काहु न तज घर भाटक लाहू । धरे अँट गँठ एतिक हठ काहू  ॥ 
एक बारि त को दे फाँसे । तिन खल बहु बल सन निस्कासै ॥ 
घर के भाटक के लोभ का त्याग क्यों नहीं कर देते । इतना हठ गाँठ क्यों बांधे हुवे हो ॥ एक बार तो उस घर को देकर फंस गए थे । उस दुष्ट को कितना बल लगा कर निकाला था ॥ 

जो निबास तुम्ह बास बसाए । बाल बधु तहँ बहुसहि दुःख पाएँ ॥ 
अजहुँ त भइ सुठि काम कमाई । नवल भवन काहु न लै जाईं ॥ 
जिस निवास में तुमने वसति वासित की है । वहाँ बाल-बच्चे बहुंत दुःख पा रहे हैं ॥ अब तो काम -कमाई भली हो गई ।  बहु को नए भवन में क्यों नहीं ले जाते ।।  

ए श्रुति रंजन बचन कबहु, हमसों को ना  केहिं । 
कही पिय तासु श्रवनै नहि, जोन बधिरन अहेहिं ॥  
कानों में रस घोलने वाले ऐसे सुमधुर वचन कभी हमसे तो किसी ने नहीं कहा । जब वधु ने ऐसा बोला तो प्रियतम ने उत्तर दिया कहा था किन्तु जो बहरे होते हैं, उन्हें सुनाई नहीं देता ॥ 

सोमवार, १३ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                                    


तात एक जोतिष बिद बुलाईं । पैठ मुहूरत पूछ बुझाईं ॥ 
तिनके कहि बर नखत सँजोगे ।  एक सुभ दिन धर लागै जोगे ॥
वर के पिता  ने एक ज्योतिर्विद को बुला भेजा । एवं गृह प्रवेश का मुहूर्त पूछा । उनके कहे अनुसार उत्तम नक्षत्र के संयोग में एक शुभ दिवस निर्धारित कर उसकी  प्रतीक्षा करने लगे ॥ 

भयउ भले भृतिका पद ताईं । थापन रहि जँह बास बसाईं ॥ 
इत प्रियतम गहिं  कारज भारे । उत बहियर घर साज सँभारे ॥ 
सेवा पद के निमित्त एक भली बात हुई । पद स्थापना स्थली वहीँ रही जहां की निवास स्थान था ॥ इधर प्रियतम ने पद भार ग्रहण किया । उधर वधु गृहोपकरण सभालने में लग गई ॥ 

भोजन भवन भाँड भंडारे । कहुँ चुग चुग अन कनी घारे ॥ 
कोन कोन कन कनख निहारे । जउँ नउँ केत सबहि कर धारे ॥ 
पाकशाला के के सभी भोजन पात्र, कहीं चुग बीन कर वधु अन्न कणिकाएं संजो रही थी ॥ कोने कोने के कण कनखियों से निरख रहे थे । कह रहे थे या तो जाओ मत या हम  भी नव भवन ले चाओ इस प्रकार सभी ने वधु का हाथ पकड़ लिया ॥ 

सभा सदन कहुँ सयन सँजोई । तासु संग बंधन पथ जोईं ॥ 
उत बनबारइ मुख कुमलाई । सन जावन तिन मन लोभाईं ॥ 
कहीं सभा सदन की कहीं सयन की सामग्री । सब उनके साथ बांधे जाने हेतु प्रतीक्षारत हो गए ॥ उधर वनवाटिका का मुख कुम्हला गया ॥ उसका ह्रदय भी साथ चलने को लालान्वित हो उठा ॥ 
  
पौध पुहुप धानी घर घारी ।  आएं पानि धर सख ससुरारी ॥ 
हर्ष सोइ हिर हिर हरियारे । फूर बहुरी बनाउ न हारे ॥ 
पौधे वे कुसुम कलियाँ जिन्होंने पौधे-धानी को घर बनाया हुवा था एवं जो सखि स्वरुप में ससुराल से ही वधु के साथ आई । वे हर्षित हो कर हिल्लोल कराती हरियान्वित हो उठी । वे प्रफुलित हो बार बार श्रृंगार करते न हारती ॥ 

एक तौ घर के जोगना, दूजन गवन समाज । 
अजहुँ गेह गेहनी के, बाढ़े अतिसय काज ॥ 
एक तो घर कि देखभाल, दूजे जाने की तैयारी । अब तो गृह में गृहणी का कार्य बहुंत ही बढ़ गया था ॥ 

मंगलवार, १४ जनवरी, २ ० १ ४                                                                                             

एक कर्मी अरु कार घनेरे । कहुँ पालउ कहुँ बसन सकेरे । 
नउ गह गवन उमगि दिन दूना । कबहु पुरइन मानि मन ऊना ॥ 

धरे करम कभु करम बियोगे । तहहि एतिक सुख सम्पद जोगे ॥ 
कूट कपट क्कभु किए चोरी । खेद प्रगट करि बधु कर जोरी ॥ 

जहँ जनमे दुहु थोटी ठोटा । रहत परिगत जिन्ह परकोटा ॥ 
होहि सुख दुःख त कोई न कोई । जे जीवन नित चरिआ होई ॥ 

रयन जिन सयन लगाइ जी ते । पिया सन लगन लगाइ बीते ॥ 
कबहु लगावन कबहु लगाई । कबहु उरझत बहु लरियाई ॥ 

जो रतियन  अलगावत गवनही । सो बिरहन कास न्यारी रही । 
बहुरत पिय हिलगावत गही । सो हिलगन कास पियारी रही ॥ 

बेस जिन सदन सलोने सपन के कण कर सम्पुट किए । 
पलक पट नयन के कल कल्पन धर हार पिरोई दिए ॥ 
हार मनोहर सोइ धरी दरसत कस नियारी रही । 
बालम के कर भाल घरी हरस कस मनियारी रही ॥ 

कानन कहि जो बात, हरुवर हरषात हँसात । 
बहियाँ गहि निसि प्रात, सो केतक सुहाइ रही ॥ 

भुज दल कण्ठन घार, अधरोपर अधरन धार । 
देइ परस उपहार, सो केतक सुहाइ रही ॥ 

बुधवार, १५ जनवरी, २० १ ४                                                                                         

छाँड़ चले जब भ्राता  के कर । जनक जनि घर जब भया नैहर ॥ 
कर साथै द्रव दाने भूरी । तिन सोन केतक सुरता जूरी ॥ 

जथा जोग बन जोउ नियंगे । बसन अभूषन दसन पलंगे ॥ 
दे गुन दो जौ सीख सीखाए । गह असीस बर देहरी आए ॥ 

जहाँ जन्माए पहिलौठा । बा मुकुन सुठि सोहनु ठोटा ॥ 
एक रयनि सुत रही गए सूते । सोइ सुपुत मुख सुरत बहूँते ॥ 

मोहनि मूर्ति चित मह समाए। ससुराइ भवान छाँड़ चले आए ॥ 
जेइ सदन जब बसति बसाई । आए तिन लेख कहि किमि जाई ॥ 

होत बियाहु जोइ पिया, मौले एक खन भूमि । 
एक बालक गर्भा धरे, जो जनि तेहि पहूमि ॥