Wednesday, August 13, 2014

-----॥ सोपान-पथ १८ ॥ -----

शुक्रवार, ०७ अगस्त, २०१४                                                                                               

तिलछित नैन बैन सर छोरे । बोलि होरि कू ठौर न थोरे॥ 

अजहु देहिहु हेल तुअँ केतहु । फिरौं न मैं कहहु चहे जेतहु ॥ 
तिरछे नयन किए जब वांणी रूपी प्रचंड वाण छोड़े और कहा : -- वासियों को वास की अल्पता नहीं । अब से चाहे तुम कितना ही आह्वान करना चाहे जितना कहना फिर मेरा फेर न होगा ॥ 

फुलाउब गालु पचारत पाउँ । करत रोख  जा बसी दुज ठाउँ ॥ 

लिख लिपि पिछु जो कछु सुरताई । लेख तहाँ  नउ पीठ रचाई ॥ 
वधु वहां से गाल फुलाती, पाँव पटकती हुई, रोष व्यक्त करती किसी दूसरे ठौर में जा बसी ॥ ठौरन की अल्पता थोड़े ही थी ॥ वहां एक नविन पृष्ठ की रचना की । पिछ्ला लिखा जो कुछ भी स्मरण रहा उसे उस पृष्ठ पर लिपि बद्ध करती चली गई । 

नवल ठौर नउ भनित नउ गीति । रस जुगत 
सिंगारी सब रीति ॥ 
कहत बचन कृत कथन प्रबोधा । दमन  कारिनी नीति बिरोधा ॥ 
नवल निवास में नई कवितायेँ नई नई गीतिकाएं थीं  जिनका सभी रीतियों से सुंदरता पूर्वक श्रृंगार किया ॥ रचित वचन यथार्थ ज्ञान का कथन कहते हुवे दमन कारी नीतियों का विरोध करते । । 

कहुँ भाष बध सुभाषित भासी । कहूँ जमन उद्भास संभासी ॥ 
लिखनि लीक  भै गुन कोदंडा । बियंगित बचन बान प्रचंडा ।। 
कहीं हिंदी भाषा  तो कहीं यमन भाषा में लिखित कवित्तमय उक्ति आलोकित होकर परस्पर वार्त्तालाप करती ॥ कहीं लेखनी  धनुष एवं लीक प्रत्यंचा हो गई थी,  व्यंग वचन प्रचंड वाण हो चले थे ॥ 

धरिअ हस्त साध लस्तक, धर मुख सान सुधार ।  
 ताकि तमक अनुमान लछ , छाँडत करे प्रहार ॥ 
अब वधु शाण ( एक कृत्रिम पाषाण जिसपर लोहा तेज किया जाता है ) में सुधारती फिर मूठ हस्तगत किए धनुष  साधते हुवे लक्ष्य का अनुमान कर उद्वेग पूर्वक वाण रूपी उन व्यंग वचनों का प्रहार करने लगी ॥ 

सोमवार, ११ अगस्त २०१४                                                                                               

भए  सान सर बरन के कोषा । दुराचरन भए कारन रोषा । 
बरनै जब रीत प्रीत्यरथा ।  अर्थि गरुअ हनि करै अनरथा ॥ 
शब्द कोष शायक सुधारक शाण हो गए  । जगत में व्याप्त दुराचरण रोष का कारण  हो गए ॥ वधु जब रीति-काव्य में कुछ वर्णन करती ।  अर्थ कारी उसकी  गंभीरता को नष्ट करते हुवे अर्थ का  अनर्थ कर देते ॥ 

सत्य संध  तब छाँड़े लच्छा । काल सरप जिमि चले सुपच्छा ॥ 
सँधाने जब  दान नाराचे । मुखर होत मंजुल गति नाचे ॥ 
तब वधु ने सत्य-संध बाण नामक वाणों की वर्षा की , तब वे ऐसे चल मानो पंख वाले काल सर्प चल रहे हों ॥ जब दान के नाराच का संधान किया तब वे मुखरित हो उठे एवं मंजुल गति से नृत्य करने लगे ॥ 

धरि गुन त्याग बान त्यागे । धाए जहँ  तहँ सबइँ ते आगे ॥ 
प्रचरे प्रजर दयासर पुंजा । निकसे होत कुमुद कल कुंजा ॥ 
 त्यागनामक बाण को  प्रत्यंचा पर संधान किया तब वे सभी बाणों से अग्रसर  होका यत्र-तत्र  दौड़े ॥  दया -वाण समूह जब प्रचारित हुवे तब वह प्रज्वलित होकर कौमुद के सुहावने निकुञ्ज से होते हुवे निकले ॥ 

तरे तपस तर तीरत चापा ॥ अहंकारी भूरे निज आपा ॥ 
जैसे अहिँसा बान  चलाई । हिंसा हय हहरत  हिन्साई  ॥
 धनुष खैचकर जब तपस्या -वाण अवतरित हुवे तब अहंकारी अपना अहंकार भूल गए ॥ जैसे ही अहिंसा का वाण छूटा हिंसा के अश्व काँप उठे और भयवश हिनहिनाने लगे ॥ 

काल बाण बन गहन घन, किए गगन महा नाद । 
नदी परबत बन उपबन, करे मधुर संवाद ॥  

काल  बाण गहरे बादल बनकर गगन में महानाद करने लगे । इस नाद से निह्नादित होकर नदी -पर्वत, वन-उपवन परस्पर मधुर संवाद करने लगे ॥ 

बुधवार, १३ अगस्त,२०१४                                                                                                      

 बधु लेखोन्मद माहि खोई ।पिया पठन उत पूरन होई ॥ 
सेबक एकै दुइ सेवकाई ।  गेह भार पुनि गहन पढ़ाई ॥ 
इधर वधु लेखानुराग से अनुरागित हो चली थी  उधर  उसके प्रियतम का अध्ययन कार्य पूर्णता को प्राप्त हो गया ॥ सेवक एक और सेवकाई दो, फिर गृहस्थि का भार उसपर गहन अध्ययन ॥ 

लगे सो तेहि अवसर ऐसे । कोलहु जुते मेष के जैसे ॥ 
अंक सूचि लह अजहुँ समाजू । रहे सेष परिजोजन काजू ॥ 
उस समय प्रियतम  ऐसे दर्शित  हो रहे थे जैसे कोई कोल्हू में बैल जुता हुवा हो ॥ अंक सूची प्राप्त हो चुकी थी अब परियोजन कार्य तैयार करना शेष रह गया था  ॥  

साँझ रयन किए दिन कर कांति । कछुक काल बीते एहि भांति ॥ 
बाल बिरध घिरि गह जो कोई । सोइ सकल सुख सम्पद जोई ॥ 
संध्या काल को रयन में  परिवर्तित कर रयन काल से दिवस को कांतमान करते हुवे फिर समय कुछ इसी प्रकार व्यतीत हुवा ॥ बालक एवं वृद्धजनों से भरपूर गृह  में सुख की समस्त संपत्तियां संकलित रहती हैं ॥ 

गेहिनी जहां लखि संकासा । हरि निबास निभ गेहि निबासा ॥ 
प्रबंध के सब साधन साजे । भगवदीअ मन भाउ बिराजे ॥ 
जहां गृहणी श्री  का रूप  हो वह गृह श्रीधर का निवास हैं क्योंकि वहां गृहपति श्रीधर स्वरूप में निवास करते हैं । जहां चित्त में भगवद भक्ति का भाव विराजमान होता है वहाँ गृह प्रबंध के सभी साधन श्री को प्राप्त करते हैं ॥ 

असनासन हो कि वासन  लोचन सब सुख लाखि । 
आए सोइ दिन काल जब, देखे सम्मुख साखि ॥ 
उत्तम भोजन हो कि वसन हो की उत्तम निवास हो  वधु के लोचन ने सभी ऐहिक सुखों का दर्शन किया । और वह दिन भी आया जब उसने साक्षात काल के दर्शन किए ॥ 

बृहस्पतिवार, १४ अगस्त, २०१४                                                                                                    

ते अवसर बधु  लेवनु थाही । सबद सिंधु रहि गह अवगाही  ॥ 
तबहि द्वारि पिया दिए हेरी । हेर मुक्ति तुर बधु मुख फेरी ॥ 
उस समय  वधु  शब्दों के सिंधु में गहरे गोते लगाते हुवे उसकी थाह ले रही थी  कि तभी प्रियतम ने द्वार पर हाँक  लगाई । शब्द मुक्तियों का अन्वेषण करती वधु ने  तत्काल ही मुख फेरा ॥ 

चले पिय साँस धुकनि सकासे । मंद प्रभा मुख सीकर बासे ॥ 
कहे हहर उर होत  अधीरा । पिंड हरिअ हरि  होइहि पीरा ॥ 
और क्या देखा कि प्रियतम की सांस धूकनी के सदृश्य तीव्र थी । मुख की प्रभा धूमिल हो गई थी और उसपर श्रम सीकर का वास हो चला था ॥ काँपते स्वर में वे अधीर होते हुवे बोले : -- मेरे ह्रदय पिंड में हलकी पीड़ा हो रही है ॥ 

अस सुनत प्रिया भई अबाके । अचरज दीठ कंत मुख ताके ॥ 
प्रभहत चितबत चितब अचेती ।परिहरि सुधि पुनि हरि अरि चेती ॥ 
ऐसे वचन श्रवण कर  वधु अवाक रह गई । वह विस्मय भरी दृष्टी से  कांत के मुख को एकटक निहारने लगी ॥ हतप्रभता  एवं स्तब्धता के कारण  उसकी चेतना- शुन्य सी हो गई । तत्पश्चात निश्चेष्ट चित्त  शनै-शनै चैतन्य हुवा  ॥ 

हहरत  पहिले जीउ सँभारी । पठइ निअरई बैदु दुआरी ॥ 
रहे सकास एक सख नुरागीं । सुनी अघात पिय संग लागीं ॥ 
चकित होकर उसने प्रियतम की सांस को किसी भाँति संयत किया ॥  फिर निकट के चिकित्सक के पास प्रथमोपचार हेतु भेजा ॥ प्रियतम का एक अनुरागी सखा निकट में निवासित थे । जब उन्होंने आघात के विषय में जाना तब वह सखा प्रियतम के  संग हो लिए ॥ 

गहे घन गहन भइ रयन, घरि घरि किए घन नाद । 
छाए वधु मुख मंडल इत, रयनै सम अवसाद ॥ 
रात बहुंत ही गहरी हो चली थी बादल घड़ी घड़ी निह्नादित हो रहे थे । इधर  वधु के मुखमंडल पर भी रयनी के समृश्य ही अवसाद के बादलों का निवास हो गया था  ॥ 

शुक्रवार, १५ अगस्त, २०१४                                                                                                   

बहुत सिथिर मन चरन बहुराए । निगद जीवद सोइ आन बताए ॥ 
प्रथमहिं लै हिय कम्पन रेखे । लेख यन्त्र लिखि लिपि का देखें ॥ 
पृयतम् अत्यंत ही शिथिल चित्त एवं चरणों से घर लौटे । जैसा चिकित्सक ने कहा प्रियतम ने वैसे ही श्रुत निगदिन किया ॥ सर्वप्रथम ह्रदय कम्प आलेख लेवें । फिर देखते हैं की लेख यन्त्र  कैसी लिपि उद्भाषित  करता है ॥ 

ते अवसर तमरघन काल अधारी । बोलि बधू  कर चिंतन  भारी ॥ 
करो बिश्राम रहौ कर जोरे । गमनोचित होइहि जब भोरे ॥ 
उस समय अन्धेरे पर घनश्याम आधारित हो गया था । तब वधु ने भारी चंता करते हुवे कहा : -- युगीत हस्त स्वरूप में अभी आप विश्राम कीजिए । प्रभात काल में कहीं जाना उचित होगा ॥ 

भए अध निसि मर्म उर दाहू । फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥ 
डरपत जस तस रैन बिताई । नयन पलक पट देइ लगाईं ॥ 
अर्द्ध-रात्रि हो चुकी थी वधु के ह्रदय को मर्म जैसे दहन करने को ही तुला था । किन्तु उसके बाएं अंग फड़क रहे थे ॥ उसने भयविह्वल होकर नयनों में पलकों का पट दिए जैसे-तैसे वह रात काटी ॥  

मत मीर माहि डूबि तिराई  । मुख पट प्रथम किरन परसाई  ॥ 
बहुरि  पिया अरु बिलम न कारे । गत हरिदै बिग्यानि दुआरे  ॥ 
 वधु विचारो के सिंधू में डूबते उतरती रही, मुख पटल पर भोर की प्रथम किरण का स्पर्श प्राप्त हुवा  ॥ प्रियतम  ने फिर और अधिक विलम्ब नहीं किया । वे ह्रदय विशेषज्ञ के द्वार पर गए : --- 

लेइ अचिरम बिद्युति गति, हृदय स्पंदन लेख । 
पढेँ पिय बेदु  मुख रंग , बेदु लिपि रहे देख ॥ 
फिर विद्युत की गति सी शीघ्रता बरतते हुवे ह्रदय स्पंदन आलेख की लिपि लिए । इधर  चिकित्सक लिपि का निरक्षण कर रहा था  वह उसके मुख की रंगत पढने का प्रयास कर रहे थे ॥ 

शनिवार, १६ अगस्त, २०१४                                                                                                  

बाधित गति सँग हिय हिचकोले  ।  बैदु हहरत बानि मह बोले ॥ 
अनभल कँह हिय कंप लिखाई । तुर हिय ब्याधि भवन पठाईं ॥ 
 कुछ समय पश्चात चिकित्सक ने कंपकंपाती वाणी से कहा : -- किसी प्रतिरोध के कारण ह्रदय हिचकोले ले रहा है ॥  स्पंदन आलेख किसी हानि का संकेत कर रहे  है । और जीवाद ने तत्काल ही प्रियतम को ह्रदय चिकित्सालय भेज दिया ॥ 

पैठत भवन साँझ पग फेरी । रयनी काल बरन लिए घेरी ॥ 
अंतर भीड़ रह अति भारी । परिजन पीड़ित हिय कर धारी ॥ 
चिकित्सा भवन पहुंचते पहुंचते संध्या की पग फेरी हो चुकी थी  । काल वर्ण लिए रयनी घेरे हुवे थी ।   अंतर भवन में  जन संकुलता अति गहन थी । परिजन एवं पीड़ित हाथों में ह्रदय लिए निरिक्षण हेतु प्रतीक्षा रत थे ॥ 

अचिरम उर छत भवन पधारे । हराहरि ह्रदय कर मह धारे ॥ 
निरखए  बैदु हरिदयागासा । पडत कम्पन लेख के भासा ॥ 
शिथिल हो चुके ह्रदय को हाथ में लिए प्रियतम ने शीघ्रता करते हुवे ह्रदय चिकित्सालय में प्रवेश किया ॥ चिकित्सकों ने कम्पन आलेख की भाषा का अध्ययन करते हुवे संपूर्ण ह्रदय का निरीक्षण किया ॥ 

संगनक अंतरायन चाके । हहर बैदु बहुटी दिए हाँके ।। 
पूछि अरु को होइ तुअ संगा । भयऊ अतिसय गहन प्रसंगा ॥ 
संगणक ने अपने पटल  पर ह्रदय के अंतर जगत का दृश्य उकेर दिया । तब चिकित्सक गण ने घबरा कर वधु को पुकारा । उन्होंने प्रश्न किया  अति गम्भीर विषय हैं तुम्हारे साथ कौन कौन हैं॥ 

कहि पिय सख सह कौटुम होई । अबर हमहि अरु संग न कोई ॥ 
भाव भए प्रबन् सिथिरै अंगा । प्रतिभाषत मुख भयउ बिरंगा ॥ 
वधु ने उत्तर दिया : -- प्रियतम के मित्र सपरिवार हैं । हमारे संग अन्य कोई नहीं है ॥ ऐसा उत्तर देते हुवे वधु भावुक  हो गई उसके अंग शिथिल हो गए प्रतिभास करते हुवे मुख विवर्ण हो गया ॥ 

पडत जीवद बदन रेख, बहियर भई अधीर । 
डरपत पूछी का अहैं, सोए बिषय गम्भीर ॥ 
उस समय चिकित्सक के मुखाकृत की रेखाओं का अध्ययन कर वधु अत्यंत अधीर हो गई । भयभीत होकर उसने प्रतिप्रश्न किया वह गम्भीर विषय है क्या ॥ 

रविवार, १७ अगस्त, २०१४                                                                                                     


तीनि बाहिनिहि भयउ बिभंगा । जुगित जोइ मुख हरिदै संगा ॥ 
रुधिराभिसरन जौ रुध होही । साँसत हरिदै साँस न जोही ॥
तीन रक्त वाहिनियां अवरुद्ध हो गई हैं यह अवरोधन ह्रदय के मुख्य द्वार से सलंग्न हैं ॥ यदि रुधरिाभिशरण अवरुद्ध हो गया तब सांस रुकने की पीड़ा के सह ह्रदय स्वांस ग्रहण नहीं करेगा ॥ 

 स्वेद  दै  हिय तुर कम्पन किन्हे  । पहिले कभु अस लच्छन चिन्हे ॥ 
बधूटी सिरु कहे  नहि नाही । जीवद गहन सोच अवगाही ॥ 
तुमने पहले कभी रोगी में ऐसा लक्षण  है श्रम सीकर के सह ह्रदय तीव्र गति से स्पंदित हुवा हो ॥ उत्तर में वधु के सिर ने नहीं कहा । तब चकित्सक गहरी सोच में पड़ गए ॥ 

 प्रसन  निरंतरप्रस्नी पूछी । बधु प्रतिभासन भासत छूछी ॥ 
अरु बहु भाँति पूछ बुझाईं । थकित नयन बधु कह समुझाई ॥ 
प्रश्न पूछने वाले निरंतर प्रश्न कर रहे थे । वधु भासते भासते उत्तरों स रिक्त हो रही थी । और बहुंत प्रकार की पूछ को बुझाते वधु थकित नयन होकर कहती समझाती गई ॥ 

कहे जीवद तब हतप्रद बदन । जे अपने पो  अभिन्न प्रकरन ॥ 
स्थूल तन न ब्यसन न कोई । मधु मेह संग ग्रसित न होई ॥ 
तब हतप्रभ मुख से चिकित्सकों  ने कहा यह अपने आप में एक एकेला प्रकरण है ॥ कारण कि रोगी का शरीर न तो स्थूल है न उसे कोई व्यसन है न वह मधुमेह के रोग से ग्रस्त है ॥ 

चले सुधित बहु संजमित रुधिरू चरन के चाप । 
का कतहुँ कबहु परिखेहु,  पित सांद्रव संतापा ॥ 
उसके रुधिर के पद चाप भी व्यवस्थित एवं संयमित हैं । क्या कभी कहीं रक्त के पित्त गाढ़ेपन का अर्थात रक्तवसा  का परिक्षण किया है ॥ 

सोमवार, १८ अगस्त, २०१४                                                                                                         

अस कह बेदु  पद कतहुँ  बाढ़े । बहुरत बोलि पित्त अति गाढ़े ॥ 
रुधिरभिसरनु चाप अनियंता । लघु घात कृत बर किए अंता ॥ 
ऐसा कहकर चिकित्सक के चरण कहीं बढ़े और लौटकर कहा रक्तवसा स्निग्ध है ।  रक्त के  दाब की अधिकता उसके परिभ्रमण को अनियंत्रित कर देती है जो लघु आघात को भी वृहद कर रोगी का अंत करने में सक्षम होती है ॥ 

एहि भल पिय मधुमेह न जोई । नियंत चाप अरु भली होई ॥ 
न तरु मीच हरिदै दिए काँचे । जो किए अंत  पलक पै पाँचे ॥ 
यह भी एक भली बात हुई कि रोगी को मधुमेही नहीं है उसपर रक्त चाप भी  नियंत्रित है ॥ अन्यथा  मृत्यु ह्रदय को खंडित कर पालक भर में ही रोगी का अंत कर देती है ॥ 

अजहुँ एहि बचन  हमहि समझाएँ । गत रयन कतहुँ काहू न धाए ।। 
उरस पीर जब अल्पक देखे । अहइँ घात एहि हम नहि लेखे ॥ 
अब हमें यह समझाओ  बीती रात उपचार हेतु तुम कहीं गए क्यों नहीं ॥ ह्रदय की पीड़ा को जब अल्प स्वरूप में देखा तब हमें समझ नहीं अाया कि यह ह्रदय आघात है ॥ 

अस कह बधु धीरज गइ हारे । नयन पटल  जर  झर झर झारे ॥ 
कहत एहि बरन फूटी धारा । मूसक हेरि निकसे पहारा ॥ 
ऐसा कहकर वधु धीरज हार गई  नयन पटल से झर झर कर जल झरने लगा ॥ और ये शब्द कहते हुवे जल  की जैसे धारा ही फूट पड़ी ।मूसक ढूंडने चले थे, पहाड़ निकल आया ॥ 

अरु प्रतिभेदन क्रिया के, जीवद किए संभारि  । 
कहत अचिरम बोलि पठउ, रुधिरु हेतु परिबारि ॥   
तदनन्तर  चिकित्सक शल्यक्रिया की तैयारी करने लगे  । यह कहते हुवे कि रक्त दान हेतु  अपने कुटुंब को शीघ्रातिशीघ्र बुला भेजो ॥ 

मंगलवार, १९ अगस्त, २०१४                                                                                                           

देइ संग दिनुभर  के होरी । सखा कौटुम्ब सहित बहोरी ॥ 
बँधे धीर तिन पलक बिभंगे । बहे नीर बन नयन प्रसंगे ॥ 
 जो दिनभर चिकित्सालय में रुके रहे और वरवधु का साथ दिया  वह सखा अब कुटुंब सहित लौट चुके थे ॥  कुछ धीरज पलकों ने बांधे रखा था वह भी विभंगित होते हुवे  पलकों के संग नीर बनकर बह चला ॥ 

जासु सपन महु रहि न अँदेसा । सोइ केहि कस कहउँ सँदेसा ॥ 
भए घनबर तरंग के नाई । एक रंग अवाई एक जाईं ॥ 
जिस घटना का स्वप्न में भी कहीं अंदेशा नहीं था उसका  सन्देश किसे व् कैसे कहूँ ॥ ( यह विचार कर ) वधु का मुख तरंग की भाँती हो गया । उसपर एक रंग आता दुसरा लौट जाता ॥ 

ताप सिंधु उर कंठ भरे । उदहार बन लोचन कन झरे ॥ 
इत हिय बल्लभ ब्याधि भोगे । उत गह बालक पालक जोगे ॥ 
सन्तापित ह्रदय रूपी सिंधु,  कंठ में भर आया । वह बादल बनकर नयनों से बरसने लगा ॥ इधर ह्रदय वल्लभ  ह्रदय व्याधि से ग्रसित हैं उधर गृह में बालक अपने पालकों की प्रतीक्षा में हैं ॥ 

कवलन पिय  पथ काल जुहारी । होत बिलंबु उतारिहि पारा ॥ 
बैदु आन कहि बारहि बारे । बेगि करो तनि रुधिरू जुगारैं ॥ 
 कवलित करने हेतु काल प्रियतम की प्रतीक्षा कर रहा है विलम्ब होते ही वह जीवन नैया को संसार सिंधु से पार लगा देगा ॥ चिकित्सक वधु के पास आकर वारंवार कहते । थोड़ी शीघ्रता करते हुबे रुधिर की व्यवस्था करें ॥ 

पलक दसा सुभ रीत रही, अजहुँ  भई बिपरीत । 
जीवन मरन रनांगन  , होइहि बिधि के जीत ॥  
क्षण भर पहले जो दशा मंगलकारी थी वही अब विपरीत हो गई । जीवन -मरण के रणांगण  में अंतत: विधाता की ही विजय होती है ॥ 

बुधवार, २० अगस्त, २०१४                                                                                                       

दुर्दसा दर्प एहि सोच करे । सहुँ जनम मरन  के प्रसन खरे ॥ 
अस बिपति सँदेसु केहि दाईं । कौन सुहरिदै कौन सहाई ॥ 
 दुर्दशा दर्प से युक्त हो कर यही विचार करने लगी ।  सम्मुख जीवन-मरण का प्रश्न मुंह बाए खड़ा है ॥ ऐसी  विपत्ति का सन्देश किसे भेजूँ । कौन सरल हृदयी है कौन सहायता करेगा  ।

स्व अर्थ सहारथ आन पड़े ॥ पुरजन परिजन कि बिरधा बड़े बिरध बड़े 
परे बिपति पुनि कहन सँकोची । दोनउ तईं कहहि का सोची ॥ 
प्रियजन हो कि परिजन हो कि  घर के बड़े-बूढ़े हों स्वार्थ को उनके सहयोग की आवश्यकता आन पड़ी है । उन्हें सूचना देते हुवे वधु संकोच करने लगी कि वे दोनों के प्रति क्या सोचेंगे ॥ 

आरत के जस गेह बसाही । लिए बुलाए परिगह जब चाही ॥ 
छाँड़ साँस पुनि ऊपर खींची । कथन सँभार  दीठ किए नीची ॥ 
रोगों की तो जैसे इन्होने गृहस्थी ही बसा रखी है ।  एक साँस छोड़ कर उसे ऊपर खींचते,  दृष्टि नीची किए वधु ने शब्दों को संभाला ॥ 

मात पिता बिरधा बय  भोगहि । सेव सहारथ आपहि जोगिहि ॥ 
बहुरि बिनु अरु समउ चूकाही । बड़े भगिनि सब  कही बुझाई ॥ 
मात-पिता बृद्धावस्था को भोग रहे हैं सेवा सहायता की वह  स्वयं ही प्रतीक्षारत हैं ।ऐसा सोचते हुवे अधिक समय नष्ट न कर बड़ी भगिनी को सारा समाचार कह सुनाया  ॥ 

दिए सँदेसु सकल परिजन, पुनि उर धर बहु धीर । 
कहत नयन निर्झर भयो, झर झर झलके नीर ॥  
तत्पश्चात  धैर्यवान  ह्रदय से बारी बारी सभी परिजनों को सुचना देते हुवे वधु के नयन निर्झर हो गए उनसे झर झर करते हुवे जल की धारा फूट पड़ी ॥ 

बृहस्पतिवार, २१ अगस्त, २०१४                                                                                             

बालकिन्ह लिए सख बहुराई  ।  क्रमबध बधु सब दसा बुझाई ॥ 
प्रिय हो पुर हो दूर कि धूरे । हरियर भवन सबइ जन जूरे ॥ 
इधर प्रियतम के मित्र बालकों को लेते आए ।  वधु ने  उन्हें क्रमवार सारी घटना कह सुनाई ॥ प्रिय हो कि पर हो दूर के हो की निकट सम्बन्धी हों शनै: शनै: सभी निवारण भवन में एकत्रित हो गए  ॥ 
 
भगिनी भाबुक भौजि कि भ्राता । आनि संग लिए जात जमाता ॥ 
सुमिरि जननि अस आइहि धाई । बत्स रूप जिमि धेनु लवाई ।। 
भगिनी हो की भावुक हों भावज हो कि भ्राता हों सभी अपनी पुत्रों एवं जमाता सहित आए । प्रियतम का स्मरण कर जननी ऐसे दौड़े आईं जैसे वत्स-रूप ( छोटा बछड़ा )  को स्मरण कर गौवें दौड़ी आती हैं ॥ 

बरसन जस रस घन निकचाहिहि । पूछ प्रसन सब झरी लगाहिहि ॥ 
भई दसा जब अस गंभीरे । पूरब काहे नाहि कही रे ॥ 
 जैसे झड़ी बांधने हेतु नभ में मेघ संकलित होते हैं वैसे ही निवारण भवन रूपी गगन में परिगृह संकलित हुवे एवं पूछ-प्रश्न की सभी ने झड़ी सी लगा दी ॥ जब ऐसी गम्भीर दशा थी । तब तुमने हमें पहले क्यों नहीं कहा ( उन्होंने पूछा ) ॥ 

  सोक बिबस बधु कही न पारा । डूबे भयउ तृन के सहारा ॥ 
आगत संग चिंतत महतारी । कटोक्ति किए बत कही चारी ॥ 
वधु शोक से संतप्त थी विवशता के कारण वह कुछ उत्तर न दे पाईं । किंतु डूबे  को तृण का सहारा अवश्य प्राप्त हो गया था ॥  पदार्पण करते ही माता वधु के संग प्रियतम हेतु चिंतत हो उठी । और कटोक्ति कर चार बाते भी कह सुनाई ॥ 

दोनउ कुल भयउ दोउ कूला । धीरबान मन धीरज भूला ॥ 
दुःखकर लोचन जल भर लाई । बहियर भइ निर्झरनि के नाईं ॥ 
उस समय वर-वधु दोनों के कुल दो तट हो चले  । चित्त अत्यंत धैर्यवान था किन्तु ऐसे कटुक वचन श्रवण कर वह अपना धीरज भूल गया ॥ दुख करते हुवे वधु लोचन में जल भर लाई । पलक में ही वह निर्झरणी स्वरूप हो गई ॥ 

 लेखे हरुबारी निकसे भारी उरस छत आरत महा । 
पुनि सकल कहानी बधू बखानी बदन जस लच्छन कहा ॥ 
प्रतिभेद क्रियाहि सब संसय लाहि अबर नगर गवन कहे । 
जीबद बहु कुसल जुग साधन सकल जदपि अरुज भवन रहे ॥ 
जिसे  छोटा समझा ह्रदय को ग्रस्त करता हुवा वह रोग महा भारी निकला ।  देह ने जैसे लक्षण प्रदर्शित किए वधु ने वह सारी घटना कह सुनाई ॥ यद्यपि निवासित  नगर का निवारण भवन चिकित्सकीय संसाधनों एवं कुशल चिकित्सकों से  परिपूर्ण था तथापि  परिगृही शल्य क्रिया के प्रति संशय व्यक्त करते हुवे किसी अन्य नगर में निर्गमन हेतु कहने लगे ॥ 

पर पुर गमन निरखत नहि, मम नैन को निहोर ।  
कहत बधुरि नीर नीरज, करत करज के कोर । 
मेरी दृष्टि को पराई नगरी जाने का कोई उचित कारण गॉचर नहीं होता ।  अश्रु -मुक्ता को हस्त्यमाल  में संकलित करते हुवे वधु ने ऐसे वचन कहे ॥ 
शुक्र/शनि , २२/२३  अगस्त, २०१४                                                                                                  

जदपि कहि बचन सकल  परिबारि । पिय छत हिय कृत हेतु हितकारि ॥ 
स्यान नयन जिउ मरनि पेखे । अग जग लग के चरितर देखे ॥ 
कौटुम्बिक के कहे वचन यद्यपि प्रियतम के छतवत हृदय के हेतु हितकारी थे, उनकी अनुभवी दृष्टि ने जीवन-मरण को निकट से देखा था वह गृह क्या संसार तक के चरित्र से परिचित थे | 

यह  जी जोनि बहुत अनमोले । परिजन कह समुझावत बोले ॥ 
जो तुहरे मन धन के चिंता । तिन संजुत गत भयउ अचिंता ॥ 
परिजनों ने अबोध वधु का प्रबोधन करते हुवे कहा कि यह जीवन व् यह देह अतिशय अनमोल है, यदि तुम्हारे मनो-मस्तिष्क में धन-व्यय की चिंता है तब उक्त सम्बन्ध में  निश्चिन्त हो जाओ | 

भाव सरिबर  कंठ भर लाई । भगिनी पुनि पुनि कह समुझाई ॥ 
जे भाबुक तव पिता समाने । लगिहिं लाग  सो सन लए आने ॥ 
भगिनी भावों के सरोवर से कंठ भर लाई वह वधु को वारंवार कह कर समझाती कि ये भगिनोई तुम्हारे पिता तुल्य हैं जो कुछ धन व्यय होगा सो वो अपने साथ लाएं हैं | 

महा नगरि के  सुजस बखाने । सकल भवन जीवन बरदाने ॥ 
अहैं तहाँ बर बर बिग्यानी । पूछो त एकहु नाउ न जानी ॥ 
और महानगरों की कीर्ति का व्याख्यान करते बोली कि वहां सभी चिकित्सा भवन जीवन के हेतु वरदान तुल्य हैं वहां महातिमह विशेषज्ञ हैं  उनक पूछा तब वह एक का नाम भी न कह पाईं || 

को रोग को पीर धरत , रूप धरे उन्माद । 
अधुनातन घर घर चले  चलन पलायन वाद ॥ 
कोई किसी भी रोग से ग्रसित हो अथवा किसी भी पीड़ा से पीड़ित क्यों हो उसने उन्माद का स्वरूप धारण कर लिया है स्थानीय चिकित्सा संतषजनक होने के पश्चात भी अब तो घर घर उपचार हेतु पलायन वाद का चलन चल पड़ा है | 

पिहरारु पख हो कि ससुराई  । सब मह नगरि गवनु समुझाई  ॥ 
बहियर के चित भए दृढ़ चेता । निबारन निबास ह्रदय केता ॥ 
नैहर पक्ष हो कि ससुराल का पक्ष सभी उपचार हेतु महानगर में गमन हेतु ही प्रबोधन कर रहे थे | वधु के चित्त ने भी निवास स्थान में ही प्रियतम के ह्रदय केतन के रोग के निवारण का दृढ निश्चय कर लिया था | 

करत कीरत महा नगरी के । कहत इहाँ भरोस का जी के ।। 
को किछु कहई को किछु कहई । बधु मत संग असंगत रहई ॥ 

मात भ्रात पुनि पिय पहि गयऊ । पूछे तुहरे मति का कहऊ ॥ 
कराउ सोइ अरु सोच बिनाही । जो प्रान समा के चित चाही ॥ 

जोइ जिउ दे जिआवहि सोई । अगुसर किछु कर सके न कोई ॥ 
आकुल परिजन हिट अभिलाखी । कबहुँक पिय कबहु प्रिया लाखी ।। 

भयउ बिहान दुनहु कुल कूला । बर बधु के अनुमत अनुकूला ॥ 
आने एक  संसय उर माही।  कहीं सरबस  सुधित तौ नाही ॥ 

हृदय लेख  चित्र लेइ गत , आन जीवद दुआरि । 
मंद मलिन प्रभा मुख सों,  बहुरे सब किछु हारि ॥ 

रवि/सोम, २४/२५  अगस्त, २०१४                                                                                                    

इहाँ बिग्यानी जोई कहे । उहाँ  केहु  ग्यानि सोई कहे ॥ 

जस अंतर चित्र दरसनाई । सल्य चिकित्सा एकै उपाई ॥ 

बसित भवन हुँत संसितात्मन । आईटी बधु निज सम्मत संपोषन ॥ 

बड़ भाबुक कहि  अनुमत घारे । किजौ  सोइ जो मनस उचारे ॥ 

चिंता चित संसय उर लाहत । बिसाद सिंधु माहि अवगाहत ॥ 

भगिनि जोई धरोहरु  दाईं  । त्रयोदस लखा  सेष सँचाई ॥ 

एक अरु अरध लखा तिन माही । माँग अधि कोष करतल गाही  ॥ 

सरल सधारन  जीवन जीवा । जासु चरन निज छादन  सीवा ॥ 

तासु कठिन अनुमान धराना । सो दारिद अहैं कि धनवाना ॥ 

भगिनहि भाबुक दीन सोच किए । आनए सन लगे सो लाग लिए ॥ 

उर छत निबारन भवन, जब गुनि गिनि धन धारि । 
सल्य चिकित्सा के तबहि , जीवाद साज सँभारि 

मंगलवार, २६ अगस्त, २०१४                                                                                                    

साँस चढ़ाए रहे कर जूरे । जबलग भेदन होइ न पूरे ॥ 
अति संसय बसे मन माही । मरन जिअन परिजन डेराहीं ॥ 

काल के क्रम चारि खन धारीं । प्रिया पलक पल पल अनुहारीं ॥ 
उर दधि ताप नयन घन घोरे । नीरज माल करज किए कोरे ॥ 

रलिरए रै संसय बहुतेरे । जपत राम किए धाम घनेरे ॥ 
हस्त पटल मुख पटीक धराए । सल्य हृत गेह बाहिर आए ॥ 

मुरुझित  हास अलप हरषाईं । भेदन कृतफल कहत  बताईं ॥ 
हास हर्ष बय अजहूं आधा । अहन रयन लग रहि किछु बाधा ॥

जीवद के लेइ अनुमति,  बधु गए भेदन केत । 
टाँक लगे उर चरन कर, प्रीतम परे अचेत ॥ 


दोइ दिवस छय दोइ प्रभाता । भयउ समउ हिय पर अघाता ॥ 
चरण जुगत पिय पलन पौढ़ाए । दरसे बधू मुख कातरताए ॥ 

जस मेला एहि मेल बिहाना । जीवन के का हो अवसाना ॥ 
पलकन पंथ  नयन गह छाई । सुराग नरक के छबि दरसाई ॥ 

उर उमगेउ अम्बुधि नुरागे  । लोचन जल लिए जनि पद लागे ॥ 
चीरंजीउ कहि मात ब्याकुल । भयउ भयाकुल दोनउ के कुल ॥ 

मिलि बालकिन्ह कछ जाइ पुरब । बैन नैन रे मुख किछु न कहब ॥ 
तपित उर बधु पलक जल बोही । पौड़ पलन पिय बाढ़त जोही ॥ 

अरम्भे पतिभेद क्रिया समऊ बिते प्रभात । 
दिए रक्त दान सह भगिनि भ्रात जात जमात ॥ 

लौह एक कटनी दोई, दोनहु मुरुछित कारि । 
एक अघात अंत किए, एक अघात उपचारि ॥

बृहस्पतिवार, २८ अगस्त, २०१४                                                                                               

धरकत हृदय भयउ अधीरा । आनए चेतस धीरहि धीरा ॥ 
हस्त चरण उर लागिहि चीरा । मंद प्रभा मुख पीरहि पीरा ॥ 

ए गहन रोग अरु इ जुबताई । दसा पीया के देखि न जाई ॥ 
लिखे बिधान समउ बलबाना । काल करम गति अघटित माना ॥ 

स्वजन  सहित भेंटि पटि लागे । पिया बिलोकत अति अनुरागे ॥ 
मांगे बरदान जिए पिय मोरे । सुमिरत प्रभु दोनउ कर जोरे ॥ 

उपकृत होत बधु चरन बहुरे ।  नयन जलज  अचरा पट कूरे ॥ 
चेत भए चिंता  भई आधी ।  पूर्ण सन भै आध  ब्याधी ॥ 

जीवन निरीक्षत कहि अजहुँ , जी संकट बिरताइ  ॥ 
भले बचन अजहुँ आगिन  होहिहि परभु सहाइ ॥ 

शुक्रवार, २९ अगस्त, २०१४                                                                                                         

अस निगदत गह गहन उदासी । दूर सुदूर के कि संकासी । 
प्रियजन परिजन का पुर बासी । फिरि एक एक मुख ले उछबासी ॥ 

देउ पितर सम्मुख कर जोरी । भइ कृपा कह बहोरि बहोरी ॥ 
सुभ आकाछी मंगल कारी । मृदु हिय ममता मै महतारी ॥ 

रही संग लगि  पालउ साथा । बड़े भाग जग जोइ सनाथा ॥ 
बे परिनति माह एही ब्याधी । जब लगि जीवन तब लग बाधी । । 

महतारि तनुज लेख अभागे । साली क्रिया सों संका लागे ॥ 
गावं बिनु मह नगरी पराई । सलया क्रिया के दसा अनाई ॥ 

रह अरुजित रे मोरे ललना । इहँ काटि हिय पौढ़ाए पलना ॥ 
बानि बान किए मुख किए कोसा  । कोसे जीवद सह संक्रोसा ॥ 

मात सकल संक संदेहु  बुद्धि कोष संजोइ ।  
इत प्रीतमहु सिथिर देह, मात कहे सन होइ ॥ 

शनिवार, ३० अगस्त, २०१४                                                                                                  

पीरा होइ न जाहिं बखानी । माना मैं तुहरे मनमानी ॥ 
देखु देही सूत कस साँटे । परिच्छेद दए दुइ दुइ आँटे ।। 

जाब निबारन महा अगारा । होतब तहँ अरु भल उपचारा ॥ 
भए  उर छत इहँ फूरी बोले । लाह लबध हुँत उर पट खोले ॥ 

सुनी पिया के बधु भइ खिन्ना । तुहरे प्रकरन जगत अभिन्ना ॥ 
सो सब मोर करे परिनामू । भय कुठाहर जेहि बिधि बामू ॥ 

इहँ जीवद कहि सो सब काँचे । आए बात तब जब जी बाँचे ॥ 
प्रथमहिं अस कहु कहे न काहे । चुगि न खेह चिरि अरु पछिताहे ।। 

बोली  बधु अजहुँ तुहरे , मन आहि जहाँ जाउ । 
ताँस होत  घर आइ फिरि भरे कोप अरु ताउ ॥  

रविवार, ३१ अगस्त, २०१४                                                                                                        

निबारन भवन दिए अवकासा । श्रमित चरन पिय आनि निबासा ॥ 
धरि भुज सिखर लगि संग माई । जासु संगती परम सुखदाई ॥ 

संधिकाल हो रयन बिहाना । रखे राख बहु देइ ध्याना ।। 
बान सम बचन एहि दुखदाई । अबर गवन के ररन न जाई ॥ 

चरन कर उर काटि के डारे । ए जोग रहे न ललन हमारे ॥ 
हरिअ हहरन पीर गह थोरे । दुरोपचार करे धन जोरे ॥

मनुजाद मरन गति पैठाइहि  ।  मर्म घात अन्बेष बिनाइहि ॥
सुनत अस पिया आह पुकारे । जनि कहि पुनि पुनि हाँ रे हाँ रे ॥ 

को फूरि कही को सही, को आन समुझाए । 
बधूटि चित जनिजात के, भरम बचन भरमाए ॥ 








































Monday, June 16, 2014

----- ॥ सोपान पथ १६॥ -----

गवन धिअ नित बिद्या निकाई । एक रछित बाहि आन लवाई ।। 
लेइ बनाए बनाउनहारी । अजहुँ बहुस सुठि अली प्यारी ॥
धीआ प्रतिदिन विद्यालय जाती । एक सर्व सुरक्षित वाहनी उस लेने आती ॥   बनाने वाली ने अब तक बहुंत सी सुन्दर वाम प्यारी सखिया बना ली थीं ॥  

धनुगुन निकसत सर के नाई । एक दिन पढ़ जब धावत आई ॥ 
चढ़े बाहु अंतर हिन्दोली । ओदन मुख धर तोतरि बोली ॥ 
 धनुष की म्पत्यांचा से छूटे तीर के जैसे एक दिन वह पढ़कर दौड़ते हुव घर आई ॥ और जननी की गोद के हिंडोेले लेती हुई मुख में भात रखे तोतली भाषा में बोली ॥ 

जगत न्यारिहि हे री माई । मोरि सखी जे भेद बताई ॥ 
ऊँच चौंक जो करे बिश्रामा । सनगनक जिन साधनक नामा ॥ 
जगत से न्यारी हे री  मैया मेरी सखियों ने मुझे एक रहस्य वाली बात बताई है ॥ यह उपकरण जिसका नाम संगणक है,  जो ऊंची चौकी पर विराजित होकर विश्राम कर रहा है ॥ 

तिन्हनि मम पितु कहँ सों लाने । जेहि बिचित्र बहु दिब्य बिमाने ।। 
ते उपकरन उपजोग अधिका । करवावहै जे संगत संगनिका ॥ 
से मेरे पिता कहाँ से लाए थे ? यह बहुंत ही विचित्र एवं दिव्य विमान है (ऐसा सखियों ने मुझे कहा )॥ इस साधनक का उपयोग बहुंत अधिक है जो हम नहीं कर रहे हैं । यह संसार सहित समाज से संगती करवाता है  ॥ 

नवल बोध नउ जानपन, दिए जो सखिहि सुजान । 
अजहुँ लही धिए लघु बयस, पर जननी दिए ज्ञान  ॥ 
 यह नई बुद्धि नई जानकारी जो धिया को उसकी सखियों ने दी थी । अभी जिसने  लघु अवस्था ही प्राप्त की थी किन्तु जननी को वह बड़े के जैसे ज्ञान दे गई ॥ 

मंगलवार, १७ जून, २०१४                                                                                               

एहि कहत बधु मन सुख मानी । हमारी बिटिया भई सयानी ॥ 
जिन्हनि जननी जनक न जाने ।  जानपनी सो  ज्ञान बखाने ॥ 
हमरी बिटिया अभी से बड़ी हो गई यह  कहते हुवे वधु ने अपने मन में बहुंत ही सुख माना ।  जिस ज्ञान को जननी और जनक नहीं जानते थे । उस ज्ञान का वह बिटिया बड़ी चतुराई पूर्वक  व्याख्यान कर रही है ॥ 

पुचुकारत जनि रागित गाला । सँवारत सिरु लट परे भाला ॥ 
अँकवारी अस उतरुहु देई । ते साधन पितु मोलक लेई ॥ 
उसके कोमल एवं अनुरागित कपोलों को पुचकारते हुवे भाल पर पड़ी हुई केश गुच्छ को  शीश पर संवारकर । गोद में बैठी  बिटिया को माता ने ऐसे उत्तर दिया । कहाँ से लाए का क्या अर्थ है ? यह साधनक तुम्हारे पिता मोल लाए थे ॥ 

जब मैं बोलि जेइ का लाने । कहे बहु बिचत्र दिब्य बिमाने ॥ 
पहलै एक  रथ बाहिर ठाढ़े । सोचि तव जनि जान अरु बाढ़े ॥ 
जब मैने कहा ये क्या ले आए तब वे बोले यह बड़ा ही विचित्र एवम दिव्य विमान है पुष्पक है पुष्पक ॥ तुम्हारी माता ने सोचा पहले ही एक रथ घर के बाहिर खड़ा है अब यह पुष्पक और बढ़ गया ॥ 

रह पूरन तब नगर निबासी  । आन कही तव प्रिय संकासी ॥
तेहि जान हमहू संचारीं ।  जे दुर्भरति दीर्घाहारी ॥ 
उस समय  हम पुराने नगर में निवासरत थे पुराने नगर में निवासरत थे तब तुम्हारी प्रिय संकासिनी ने आकर कहा : -- इस यान को हम भी संचालित कर चुके हैं यह तो बहुंत ही दुर्भर एवं पेटू है तुम लोग नहीं चला पाओगे ॥ 

 सुनत संकासिनि सद बचन, हेरि ऊँच आधार  । 
तापर तिन पौढ़ाइ के, दिए मुख पट ओहार ॥ 
उस संकासिनी की ज्ञान युक्त वचन सुनकर तुम्हारी माता ने एक ऊंचा आधार ढूंढा । और इस साधनक के मुख पर आवरण से ढककर उसपर इसे सुला दिया ॥ ( उस समय से यह ऐसे ही विश्राम कर रहा है ) ॥ 

बुधवार, १८ जून,२०१४                                                                                                            

मति बिनु मत गति बिनु आहारे । एक बहि बाहिर एक भित ठारे ॥ 
बाहि गतागत  हेतुक  हेरे । तव जनि अंतर बैसत खेरे ॥ 
बुद्धि के बिना विचार नहीं आते और आहार के बिना संचरण नहीं होता । आहारहीन होकर यातायात का एक साधन  घर के बाहर अवस्थित था एक घर के भीतर ॥ वह वाहन आवागमन के हतु की प्रतीक्षा करता रहता है तुम्हारी जननी हेतु उत्पन्न न कर उसके साथ  केवल बाल क्रीड़ाएं करती रहती हैं |  

आन बसे अब नबल नबोकस । नभग के नभग रहे नभोकस ॥ 
भिते श्रुतत पिय बचन धिआ के । चपलइ धी गहि गो पिता के ॥ 
अब तो हम नए आकाश में भी  हम आ बसे  । किन्तु यह विहंग भाग्यहीन का भाग्यहीन ही रहा ॥ गृह में परवश करते हुवे जब प्रियतम ने धीआ की बातें सुनी । तब धिया चपलता पूर्वक अपने पिता की गोद में जा बैठी  ॥ 

करिहउँ संगत सखी सों निका । बाल मानस किए रगर अधिका ॥ 
पितु  प्रिय धिए हठ पूर्ण कारे । नभोचर उदर भोजन  घारे ॥ 
मुझे अपनी सखियों के समाज संग संगती करनी है । उसकी बाल बुद्धि ने हठ ही पकड़ ली ॥ तब पिता ने  प्रिय तनुभवा की हठ को पूर्ण करते हुवे उस गगनचर के उदर को भोजन से तृप्त कर दिया ॥ 

चारि जान भर भूसन भेसे । पहिले आपन नाउ प्रबेसे ॥ 
बैठि भीत अस धिअ दिए हेली। हेर हिरानइ हेलिन मेली ॥ 
अब वह संचरण हेतु तैयार था सर्वप्रथम उसने अपना नाम की प्रविष्ट की फिर तो वह सुन्दर सुन्दर भेष और आभूषण धारण कर उस बेमान में विचरने लगी ॥ भीतर बैठी धीआ ने ऐसी पुकार लगाई कि उसकी  विलुप्त प्राय एवं  विस्मृत हो चुकी सखियों ने भी उसे ढूंढकर सस्नेह मिलन किया ॥ 

 संगती संगनिका प्रति, जनि मन संसय होइ । 
जहँ गुन अवसि तहँ दोषहु होहिहि कोइ न कोइ ॥ 
इस सामाजिक संगती-फंगति के प्रति माता के मनो-मस्तिष्क में कन्चित संशय हुवा । ( उसने सोचा) यदि इस साधन यदि गुण  की वह घर बैठे सूचनाओं का आदान-प्रदान करने में सक्षम है तो कोई न कोई दोष भी अवश्य ही होगा ॥  

बृहस्पतिवार, १९ जून, २०१४                                                                                               

देवनहारे दिए निर्देसे । जुगता धारिहि खेत प्रबेसे ॥ 
दिए बयस सींव धिआ न गाही । ए कर जननि पथ दरसत जाही ॥ 
देने वाले ने आवश्यक निर्दश दिए थे योग्यता धारी ही इस सीमा बद्ध स्थान में प्रवेश करें । पुत्रिका ने दी गई आयु सीमा प्राप्त नहीं की थी ॥ इस कारण जननी  उसका पथ प्रदर्शन करती जाती ॥ 

बिद्या भवन सौं आवइ घर  । श्रम हारत चढ़ेउ ता ऊपर ॥
कौतूहल बस गगन बिहारे । सोइ खेत सन जननी चारे ॥ 
जब वह विद्यालय से जब घर लौटती तब अपनी थकान मिटाकर उस यान पर आरोहित हो जाती ॥ और कौतुहल वश गगन में विहार करने लगती । उस संगोष्ठी क्षेत्र में प्रवेश करते समय जननी उसके साथ रहती॥ 

जानै  कहुँ जनि बुद्धि बिसेखे  । दीठी भर भर चहुँ पुर देखे  ॥। 
को बिरदैत कपटी भेसा । को भोगी जटा  जुट केसा ॥ 
उस क्षेत्र की विशेष बुद्धि को परीक्षार्थ हेतु जननी अपनी दृष्टि को विस्तार देकर चारों और देखा करती ॥ वहां कोई बड़े नामवाला था जो कपटी वष धारण किए हुवे था कोई भोगी था जो जटाओं और जूट के सदृश्य केश रखे हुवे था ॥ 

बिरध बाल बन बालक बिरधा । दिवस राति कँह गरल कँह सुधा ॥ 
को भाँति भाँति के रूप धरे । छली जग छलन कोउ नर हरे ॥ 
वृद्ध वहां बालक हो गए थे बालक वृद्ध जो दिवस को रात कहते विष को अमृत कहते अर्थात ज्ञान से कच्चे थे ॥ कोई विभिन्न प्रकार के वेश धरे हुवे था । कोई छलिन था जो जग को छलने के लिए नर हरि बना हुवा था ॥ 

लिखि कुंजर को मसक समाने । मूसक निज बन केसरि माने ॥ 
 नर नारी नारी नर होई  नर कि नारी चिन्ह न कोई ।॥ 
कोई मच्छर था जो स्वयं को हाथी समझता था । और कोई अपने आप को वनराज कहता था था वो मूसक ही ॥ जो सम्मुख है वह नर है कि नारी  है यह रहस्य ही रहता । अर्थात यहां नर  नारी  नारी नर का रूप धारण किए हुवे था । सार यह है कि यहां बाह्य काया निर्गुण स्वरूप में एवं अंतरमन सगुण स्वरूप में था ॥ 

बेमान दिखाए बधु पुनि भाँति भाँति के देस । 
बैस निबासी भर जहाँ, आनि बानि के भेस ॥ 
उस विमान ने वधु को भाँती भांति के संगोष्ठी क्षेत्र दर्शाए । जहां इस भू लोक के निवासी विभिन्न प्रकार के वेश भरे बैठे दखाई देते ॥ 

शुक्रवार, २० जून, २०१४                                                                                                

भू कंटक कहुँ सेल बिसाला । कूप बाँपि के पड़े अकाला ॥ 
जान देइ आयसु सिरु धारे । कहत गत सोइ देस उतारे ॥ 
कहीं कंटक युक्त भूमि खंड कहीं  बड़े बड़े पत्थर थे । कूप बावली का तो अकाल था । विमान, चालक की आज्ञा सिरोधार्य करता । चालाक जहां कहता वह उसी देश में उतार देता ॥ 

ज्ञान नयन सद बचन प्यासे । भूरि घन बन न मिलै सकासे  ॥ 
कबहु मत घन गगन मन घेरहि । बरखन गिर बन कानन हेरहि । 
ज्ञान के चक्षु  सद्वचनों की तृष्णा थी  । घने वन ने उसे अवगुंठित किये हुवे था वह  निकट कहीं दृष्टि गत नहीं हो  रहा था ॥ कभी जब विचारों के घन चित के गगन को घेर लेते । फिर  वर्षण हेतु किसी सुदेश की निरूपण में लग जाते ॥ 

नवल पथिक पथ बहुस प्रकारे । जानइ पुरनइ जाननिहारे ॥ 
कबहु जान जब लिए आबरतन । बहुरे पथिक निज बासि सदन ॥ 
पथिक नए थे पथ बहुंत प्रकार के थे जिन्हें पुराने जानने वाले ही जानते ॥ । जब कभी विमान  भंवरी लेने लगता तब पथिक भयवश अपने निवासित सदन में लौट आते ॥ 

 बिरति रयन जब नवल बिहाने  । चढ़े जान पुनि पाख बिताने ॥ 
तनु भवा संग सखी समाजे । किए संगत निज भवन बिराजे ॥ 
रयनी का अवसान होता और नवल विहान होता तब यात्री पूण: उस पुष्पक विमान पर विराजित होकर उसके पंख विस्तारित कर देते ॥ पुत्रिका अपने भवन में ही विराजित होकर अपनी सखी मंडली के संग संगती करती ॥ 

जननि तेहि चेताबत चेते । अपरचन मिलत करे न हेते ॥ 
जननी उसे चेतावनी देते हुवे सावधान करती कि  यहां अपरिचित के संग मित्रता मति करियो । 

अहबानी सगात रूप जब लग लेइ न जान । 
चाहे मित बधाउन को, केतक दे अहबान ।।  
जब तक उस आह्वानी से सशरीर स्वरूप में परिचय न हो जाएं ॥चाहे वह सखिता हेतु कितना भी आह्वान करे ॥  

शनिवार, २१ जून, २०१४                                                                                                       

एक दिन एक सन गोठी खेहा । संकोचित चित सहित सनेहा ।\ 
गोठ करन बधु ठिआ रचाई । नाउ धरत दुइ गोठ गठाई ॥ 
एक दिन एक संगोष्ठी क्षेत्र में संकोचित चित्त से स्नेह सहित वार्तालाप करने हेतु वधु ने भी एक डेरा रचा । और अपना नामांकन कर दो बात गाँठ बाँधी ॥ 

 दिए खाँच बीच निज चित्र दाने । अह्वानत सखि पंथ जुहाने ॥ 
धिआ सखि बहु संख्यक होई । बधु सन सखिता बधे न कोई ॥ 
दिए गए खांचे के मध्य चित्र भी चित दिया ॥ और केवल वार्तालाप के हेतु किसी सखी की प्रतीक्षा करने लगी ॥ धीआ की मित्र बहु संख्यी हो चले थे । वधु के संग कोई मित्रता स्थापित नहीं करता ॥ 

ठोर ठोर प्रति बधु करि सोधा । देखी जहँ तहँ पथिक प्रबोधा ॥ 
कारभवन को नगर निबासे । को निज आँगन बैठ सुपासे ।। 
फिर वह प्रत्येक स्थान का अन्वेषण करने लगी ।  उसने जहाँ तहाँ प्रबुद्ध पथिकों को देखा ॥ कोई कार्यायल  कोई नगर में कोई  निवास में और कोई अपने  आँगन में सुखपूर्वक विराजित हो कर मैत्री किए॥ 

बृहद निकर को लघु समुदाया । हेलत हेतत् करहि मिताया ॥ 
जे नहि मित्र दुःख होहि दुखारी । तिन्हनि लोकत पातक भारी ॥  
कोई वृहद समूह में कोई लघु समुदाय में हेल-मेल करते हुवे मित्रता कर रहे थे ॥ जो मित्र अपने मित्र के दुःख में दुखित न हो  । धर्म एवं नीति के विरुद्ध किए जाने वाला आचरण उनकी प्रतीक्षा करता है ॥ 

बरे अग्यान होत पतंगा । दीप सिखा ग्यान सत्संगा ॥ 
जो को जन दुरसंगत कीन्हि । जग लग कुल कज्जल सम चीन्हि ॥ 
ज्ञान की सत्संगी दीप शिखा में ज्ञान रूपी पतंगा जा कर भस्म हो जाता है ॥ यदि कोई कुसंगति करता है,  उसका परिचय संसार भर में कुल कलंक के सदृश्य  होता है ॥ 

कुसंगी सोंह कोइरी, राजा हो की रंक । 
बरता करतल बार दे, बुझता देइ कलंक ॥   
कुसंगी चाहे राजा हो अथवा रंक वह कोयला के समतुल्य  है । उसका सम्बद्ध जाते हुवे कोयले के सदृश्य हथेली को जला देता है एवं सम्बन्ध विच्छेदन उसे कलंकित कर देता है ॥

रवि/सोम, २२/२३ जून, २०१४                                                                                                          

यह चितबन् चिद् गगन अवासा । अंतर बाहिर करत बिलासा ।। 
जाके लोचन ज्ञान बिबेका । दोइ पलक पट नाउ अनेका ॥ 
यह चित्त यह चित्त शुद्ध ज्ञान स्वरूपी ब्रह्म का आवास है । यह अंतर बाहिर दोनों स्थानों में रमण करता है ॥ ज्ञान और विवेक ही इसके नेत्र ( गवाक्ष ) हैं । इस नेत्र के दो पलक रूपी आवरण हैं जिसके अनेकों नाम है; दुर्बुद्धि, मंदमति आदि ॥ 

भाग अभाग भेद भय भ्रांति । भूख प्यास अलक के पांति ॥ 
दुर्भेवाग्रह उक्ति दुरासा । दुर्नय अन्वय किए प्रत्यासा ॥ 
भाग्य, अभाग्य, रहस्य, भय, भ्रान्ति, क्षुधा, तृष्णा आदि इस पलक की अलकावली हैं  ॥ यह आशंकाऐं दुराग्रह, बुरी युक्तियाँ, बुरी आशाएं अविनय, बुरे निष्कर्ष  की प्रत्याशा में रहता है ॥ 

हर्ष सोक इहाँ के निबासी  । काम क्रोध जहँ कारावासी  ॥ 
सम दम संजुग सद आचारा । दया कृपा सत राख दुआरा ॥ 
हर्ष शोक ताप आदि विषय यहां के निवासी हैं  । काम क्रोध मद लोभ जहां कारावासी हैं  ॥ समानता, संयम,सदाचार धर्म के चार चरण  इसके द्वार रक्षक  है  ॥ 

गुन गात सुधात ज्ञान ज्ञाता । सस रैन सुधात रबि प्रभाता ।। 
सुध्युपासय अगजग सुधाता । सुधात बिनु सब होत उत्पाता । ॥ 
गुण, गात्र को सुवस्थित करता है शशी रयन की व्यवस्थापिका है सूर्य प्रभात का व्यवस्थापक है ॥ ईश्वर समस्त संसार का व्यवस्थापक है । व्यवस्थापक के  बिना अर्थात ईश्वर पर अविश्वास के कारण समस्त उत्पातों कारण हैं ॥ 

उर बिनु पाँख चरै बिनु चरना । तन बिनु परस श्रुतत बिनु करना ॥ 
आनन रहित सकल रस भोगी । बिनु बानी बकता बर जोगी ॥ 
यह चित्त बिन पंख के ही उड़ान भरता है बिना चरण के गतिवान रहता है । यह त्वचारहित है तथापि  स्पर्श अनुभव  करता है कारण रहित है तथापि श्रवण करने में सक्षम है ॥ 

रसन रहित सब रसनी रसिका । गहने बास सब रहित नसिका ॥ 
बनु कर करम करै बिधि नाना । देह रहित पर देहि समाना ॥ 
यह रसना हीन है तथापि सभी रसों का आस्वादन करता है । यह नासिका रहित है  तथापि सभी गंधों का ग्राही है । यह हस्तहीन  है तथापि विविध प्रकार के कार्य क्रियान्वित करता है । सारांश में यह देह रहित है किन्तु देह धारियों  के सदृश्य है ॥ 

मन राग सब राग है, मन लागे सब लाग । 
मन जागे सब जाग है, मन धागे सब धाग ॥  
चित्त के अनुरागित होने से ही सभी रागों का अस्तित्व है । मन में  द्वेष होने से ही, द्वेष का अस्तित्व है । चित्त के विवेक की जागृत वास्तविक जागरण है । चित्त के सूत्र में सभी इन्द्रियों के सूत्र आबद्ध हैं अत: यह एक सूत्रधार भी है ॥ 

काम भाव गति मनस सुभावा ।  लहे  अनुभूति कृत उद्भावा ॥ 
अलख रूप धन बरन सनेहा । भाव सील सथ परम  उरेहा ॥  
अभिाषाएं, विचार और परिचारण यह मनोमस्तिष्क का स्वभाव है वह कल्पना कर उससे अनुभूति प्राप्त करता है ॥ यह अदृशय है रूप सम्पदा एवं वर्णों का स्नेही है । यह भावों से भरा हुवा एवं उसके लय में लीन एक परम चित्रकार है ॥ 

जिए जीवन उरेह रखि लाखे । जिन्ह न जिए तिन्हनि लिख राखे ॥ 
अपलक नैन पलक पट ढारे । चह जब दरसत दरसनहारे ॥ 
जितना जीवन जी लिया गया उसके उसके जाने कितने चित्र  चित्रांकित किए रखता है । जिस जीवन को नहीं जिया उसका भी  चित्रीकरण सहेजे रखता है  ॥ अपलक नेत्र में पलकों के पट ढार दर्शन करने वाले चाहे जब इनका दर्शन कर सकते हैं 

भूतबता को  होइ नहोई । एहि चितेरा सकल लिख जोई ॥ 
 होतबता को होवनि हारे। चितेरु पहलेही लिख धारे ।  
कोई भूतव्यता  हुई हो अथवा न हुई हो  । यह  चित्रकार सभी कुछ चित्रित कर संकलित रखता है ॥ कोई भवितव्यता होने वाली हो यह चित्रकार उसका पूर्वानुमान कर  प्रकल्पित कर लेता है ॥ 

यह बादिक मन परम लिखेरा । जान केत सुमिरन  लिख केरा ॥ 
बिरत काल जहँ कहँ कछु देखा । सुरत सकल झट मति पट लेखा ॥ 
यह वाचाल चित्त एक परम लेखक है । इसने जाने कितने संस्मरण लिख रखे हैं । बीते काल में जहां कहीं कुछ देखा उसे स्मरण कर इसने तत्काल ही चित्त के पट में उल्लखित कर दिया ॥ 

मन महा गनक महा कबि, मन महा कहनि कार । 
कतहुँ  कल्पना कृत  कथै , कतहुँ त  देख निहार ॥ 
यह चित्त महा लेखापाल महा कवि है यह चित्त एक महा कथा कार भी है । कहीं यह कल्पनाएं रचित कर कथा  करता है कहीं यह वास्तविकता को देखकर कथन करता है ॥ 

मंगलवार, २४ जून, २०१४                                                                                                    

चितबन् जब कोउ कथन गठिते । कल्पना त्वरित चरित रचिते ॥ 
कृत कृति चित छिति जुगत जुगाहे । गढे कथा कहुँ कहनइ चाहे ॥ 
चितवन जब कोई कथन गठित करता है कल्पना  तत्काल ही उस कथा के चरित्र की रचना कर देती है ॥ तब कृत एवं कृतियाँ चित्त के क्षितिज पर युक्तियाँ संकलित करती है ॥ और गढ़ी हुई कथाएं  कहीं कहने की अभिलाषा में रहती हैं ॥ 

भाव ब्यंजन साधन बानी । सह भंगिमन  गहै सब प्रानी ॥ 
भाषा साधन बिधि मनु  दाने । बुद्धि उपजोग दिए बरदाने ॥ 
भाव के अभिव्यंजन का साधन है वाणी , संग में भंगिमाएं । भाव भंगिमाएं विधि ने सभी प्राणियों को प्रदत्त किया है ॥  मनुष्य को जो भाषा का साधन प्रदान किया वह बुद्धि के उपयोग हेतु जैसे उसे वरदान सिद्ध हुई ॥ 

 रसना धनु बानी गुन माने । धुनी बान संधान बिताने ॥ 
जब करन रंध्र लख बीथि  चरे । सीध बँधे तो हरिदै उतरे ॥ 
जिह्वा यदि धनुष है तो वाणी प्रत्यंचा । जिसमें शब्द के बाण संधान कर यदि प्रस्तारित कर जब यह कर्ण रंध्र की लक्ष्य वीथी पर चलता है तब यदि सीध बंधा हो तो यह सीधे हृदय में उतरता है ॥ 

बधु चितहु रचे बहु उद्भावा । सुठि साधन बिनु कहन न आवा ॥ 
धुनी बरन बिनु गई न बखानी । अपरचन रहे मसि पथ धानी ॥ 
वधु के चित्त ने भी बहुंत सी कल्पनाए थी । किन्तु उत्तम साधन से रहित वह चित्त अपनी कल्पनाओं को उद्भाषित करने में असमर्थ था ॥ शब्द एवं वर्ण हीनता के कारण वह कल्पित कथन  कहीं कहे नहीं गए । इस प्रकार चित्त की लेखनी मसि धानी से भी अपरिचित ही रही ॥ 

जब सों गयउ बालकपन, गढे बहुतहि  कहाइ । 
प्रेरण लगन बिनु साधन, लिखेरन नहीं आइ ॥ 
जब से बचपन व्यतीत हुवा तब से चित्त ने बहुंत सी कहानियां  गढ़ी । प्रेरणा, लगन एवं साधन से रहित होकर अंतर भावों की कहीं व्यंजना नहीं हो सकी ॥ 

बुधवार, २५ जून, २०१४                                                                                                        

ते अवसर मन मनस अगासे ।  चरित्र गठित कछु कथा न्यासे ।। 
कल्पना कृत कथन क्रम जोगे । कहनि चरन पत्र पंथ बिजोगे ॥ 
उस समय मन मानस के आकाश में चरित्र  का गठन किए कुछ कथाएँ न्यासित थी । कल्पनाओं ने कथन के क्रम को संयोजित किया हुवा था । किन्तु उसके चरण पत्र के पंथ से वियोजित थे ॥ 

करत चित्रित एक चरित नाइका । जासु रचित संभृतभूमिका ॥ 

जोइ रहे एक चिकित्सिका ॥  लवंग कलिका लवन लसनिका ॥ 
यह कथा  एक चरित्र नायिका का चित्रण करती । जसमें उस चरित्र की  केंद्रीय भूमिका थी  ॥ वह चरित्र नायिका लवंग लतिका स्वरुप में एक लावण्य श्री चिकित्सिका थी ॥ 

कल केस रचित लमनी लसना । कमल नयन पूरन निभ बदना ॥ 

पुनि एक दिवस बैस  बैमाना । प्रचर चरन बधु  पांख बिताने ॥ 
उसके  केश सुरुचि पूर्ण होकर लम्बे एवं आकर्षक थे । नयन कमलिन होकर मुख पूर्ण चन्द्रमा के सदृश्य प्रतीत होता ॥ फिर एक दिन विमान में आरोहित हो  पंख को विस्तार दिए  वधु गगन वीथी में विहार कर रही थी ॥ 

चित प्रेरित सिरु लागि अकासा । परसत चरी मरुत उन्चासा ॥
गोठी खेह जब दिए दिखाई । खाँच खचित सब करत मिताई ॥ 
उनचास प्रकार की वायु के स्पर्श प्राप्त कर चित्त से वह ऐसी प्रेरित हुई कि उसका सिर आकाश से जा लगा और बहुंत दुखा । उसे जब वहां से फिर वही संगोष्ठी क्षेत्र दिखाई दिया जहां खाँचो में खचित होकर पुर्ववत सब मित्रता करने में व्यस्त थे॥ 

तबहि  विचार हंस चरन  तिरि मन मानस माहि । 
कल्प कारू रचे चरित्र , हेरए काहू नाहि ॥ 
तभी  उसके के मन-मानस में विचार का एक कल हंस तैरने लगा । वह विचार यह था कि कल्पकार रूपी चित्त ने जिस चरित्र को गढ़ा है क्यों न उसे ढूंडा जाए ॥ 

बृहस्पति वार, २६ जून, २०१४                                                                                          

को लिखेरी न को कबि होई । करए  बधूटी चित कह सोई ॥ 
तिन्ह तैं जेहि  साँच असंका । अनबोधित अति जड़ मति रंका ॥ 
वधु न तो कोई लेखनहार थी न कोई कवि ही थी । उसका चित्त जो कहता वह वही करती । उसके सम्बन्ध में यह असंकित सत्य है  कि वह एक अज्ञानी अत्यधिक जड़ एवं बुद्धि से निर्धन थी ॥ 

करत कथा चित अति इतराया । रूचि रंजन उद्भाव रचाया ॥ 
नारी जात सुभावहि होऊ । गहि सो कह बिन रहे न कोऊ ॥ 
उसकेचित्त ने  अति गर्वाचारी  होकर जिस  कथा की रचना की । यथार्तस उसे कल्पना ने  रूचि एवं मन रंजन हेतु रचा था ॥  नारी जाति का यह स्वभाव ही है की  वह अंतर जगत को प्रकट किए बिन नहीं रहती ॥   

मलिन मनस अवगुन बहुतेरे । रसालिक लेख रस गुन पेरे ॥ 
बिनु अनुमति के दूजइ  ठावा । प्रबसि बलइ जस चरन धरावा ॥  
 यह मलिन मानस अवगुणों से  पूर्णित है यह ईख के स्वरूप है जो  रूपी रसों को  कर केवल उनका ही उल्लेख करता है ॥ किसी निजी स्थल में अनुमति रहित प्रवेश बलपूर्वक व्यतिक्रमण के जैसे हैं ॥ 

समालोकन करी जो चाही । बिधि गत समुचित अहहि कि नाही ॥ 
तेहि अवसर नहीं सो जानहि । देई खाचित छमिअ सयानहि ॥ 
किसी संगोष्ठी स्थल पर किसी निजी स्थान में निरिक्षण के उद्देश्य से स्वामी के अनुमति से रहित प्रवेश,  विधि  के उपबंधों के अधीन उचित है अथवा नहीं ॥ तत्समय वधु को यह ज्ञात नहीं था इस भूलचूक  को विदुष गण  अवश्य ही क्षमा कर देंगे ॥ 

मूढ़ मूरख निपट पोच, बृद्धि हीन बधु मान । 

हेर दुर्हेतु दूर रह, कौतुकी एही जान ॥  
वधु को मुर्ख और निपट अधम व् बुद्धि की  दरिद्र समझते हुवे उसे किसी दुर्हेतु से रहित कृत्य के रूप में संज्ञापित कर  केवल कौतुक स्वरूप में देखना चाहिए ॥ ( अन्यथा किसी की संचित सामग्री की चोरी अवश्य ही एक अपराध है ।  )

शुक्रवार, २७ जून, २०१४                                                                                                   

खचे खांच चिता अंग अनेका। कहि नहि जाए कि कौन प्रबेका ॥ 
बिचित्र चरित्र सब रूप बिचेता । कूढ़ कूट कृत  केत न केता ॥ 

निरख परख अरु कछुक उरेहा । चित्रित चरित्र को किए न सनेहा ॥ 

चहहि ऐसोइ सुमुख सुसाचा । आपनि हरिदै आपहि बाँचे ॥ 

गिरि कंदर बन कानन हेरे । कबहुँ कोउ कबहूँ को डेरे ॥ 
एक नयनी को नयन बिहीना । एक करनी को कानन हीना ॥ 

पथ पर कंकर थर थर बिचरहि । मित पूरब जस हेरत फीरहि ॥ 
नाक कान हैं को बिकरारी । चिन्ह न कीन्ह पुरुख कि नारी ॥ 

बर अभरन धरे रूप रुचिरा । संजोइन सब रूप बहिरा ॥ 
दुष्ट हरिदै दुर्लखन लहिनी  । लागसि जस ब्यसन के बहिनी ॥ 

को जस कीर्ति को धन लाही । सबके अंतर लिखि मुख माही ॥ 

हेर हेर सब डेरे फिरि, भए बहु दिन गह काल । 
सोचे चित लागसि जगत, भयऊ रूप अकाल ॥  

शनिवार, २८ जून, २०१४                                                                                                  

एक दिवस जब देस दुआरी । जगाजोत जग लग उजयारी ॥ 
अरुनाई अचरा कर झूरे । बैभावरि मुख चंदु  प्रफूरे ।  

बरखा बिगत सरद धरि चरना । पथ पथ बिटप साख धरि परना ॥ 
बाली कनक साली कनि धरे । मानहु महि तन अभरन पहिरे ॥ 

दरसत कहुँ तरु साख बिताना । बैस छाईं पाठक थकि नाना ॥ 
संग परस्पर करत बत कही । पढ़त पुहुप पत मधुप गुंजही ॥ 

इत बधु प्रिय परिगह सुधि  हेरहि । नाउ धरे मुख हेरा दे रहि ॥ 
तबहि एक नारि दिए देखाई । परिगह सरिबर नाउ धराही ॥ 

उपमापमेय अलंकृत मुख करि सील श्लोक । 
रही बधु चितबन चितबत तेहि नारि अबलोक ॥  

रविवार, २९ जून, २०१४                                                                                                  

धवलिमन बदन बिगलित केसा । धवलिमन घन स्यामल भेसा ॥ 
अरुन रोचन अधर नुरागे । पलकोपबन नयन पुर लागे ॥ 

कुटिलक भृकुटि जस धनब धनुखा । तोरन तरसत तरन प्रत्युषा ॥ 
दुइ पदम अधर सुधा सरोबर । रोचन रदन मुकुताबली बर ॥ 

बरन पत्री बोलै बिनु बोले ।  कुमुद कुसुम जस कमन कपोले ॥ 
बसहि तेहि पुर सपन अनेका । मनस गगन भर भूषन भेका ॥ 

रूप तेज मुख आन निबासा । प्रतिमान जस करै अभिलाषा ॥ 
चित उलखित प्रतिमित प्रतिलेखे । लेखि का जेहि नयन न देखे ॥ 

पटतर बधिकार निकर सुहासा । लह सब लछन चरित्र जस भासा ॥ 
देखि रूप सुधी बिसारी । बेर लग  रही रूप निहारी ॥ 

बरन बरन बर बरन क्रम, रूप बरन बहिराए । 
सो बरनन बरने न जो, अंतर माहि समाए ॥ 

संचकित संचाइन मैं, सनचत कृत संचाइ । 
बहुरि  संचरत बैमान, संचर चरन फिराइ ॥ 

सोमवार, ३० जून २०१४ 
जोग कारन बिनु रीतहि रीते । पंच दस दिवस गए अरु बीते ॥ 
संगोठी के खेतक ताईं । अब लग भल बिधि लेख न पाईं ॥ 

एक दिन टोही जान तँह आए । नव संगी जहँ देइ देखाए ॥ 
सत संगति संगीति सुहाई । जात  पथिक जिमि लेत बुलाई ॥ 

सत संकलप सार दुइ पाँती । कहत कहबत कथिक बहु भाँती ॥ 
साधौ दरसन जान समुदाई । देखत बनिअ बरनि न जाई ॥ 

लेख परस्पर करत प्रसंसा । जिमि मानस बोलत कलहंसा ।। 
बचन छाजन बरन के छावा । दरस दिरिस  बधु हिय हर्षावा ॥ 

निरखत जोगत सुथर थरि कबिमय  तरुबट छाँउ । 
बधु तहँ तत्पर दंड दिए, रचि एक सुठि ठहराउ ॥