Monday, December 16, 2013

----- ॥ सोपान पथ ४ ॥ -----

अजहुँ दू चारि दिवस के फेरे । गवनु गाँव पिय डारैं डेरे ॥ 
बसइँ गवइँ जँह अतिसय भोरे । ठारइँ रहँ सौमुख कर जोरे ॥ 
अब प्रियतम दो चार दिवस के फेर में ही गाँवों में जाते और वहीँ डेरा लगा लेते ॥ वे भारत के निवासी जो वहाँ बसे हुवे थे वे बहुंत ही भोले थे, वे हाथ जोड़े सम्मुख खड़े रहते ॥ 

पंच सचिव जन भवन रचियाए । फटिक मनि भित चित्र बिचित्र बनाए ॥ 
तिन आगिन सोहित बनबारी । सह हय गज रथ बाहिनि ठारी ॥ 
सरपंच एवं सचिवों ने भवन रचा इए थे । बिल्लौरी पत्थरों में अद्भुद चित्र अंकित रहते । उसके आगे सुन्दर वाटिकाएं सुशोभित रहती । साथ में हाथी,घोड़ों की वाहिनियां ,भवन के सम्मुख सुशोभित रहती ॥ 

कहत पिय रे पञ्च तुहारे । बिषय बिभूति बढ़त न हारे ।। 
मनि खचित रथ बहनि तनि देखो । बिहा परन दिए बछियन पेखो ॥ 
प्रियतम कहते रे सरपंच तुम्हारी विषयों के विभूतियां की बढ़नी बढ़ती ही जा रही है इसे हराने वाला कोई नहीं है ॥ ये मणि रत्नों  से खचित वाहिनियों को तो देखो । एक के साथ दूसरी ब्याह लाए हैं अब तो सुन्दर सुन्दर बच्चे भी दे रहीं है देखो देखो ॥ 

तुहरे डोरी बिय पथ जोगे । अरु तुम्ह रत बिषयन्ह भोगे ॥  
पञ्च को उतरु देंइ ना पाएँ । रद छानी सन दन्त डसाए ॥ 
तुम्हारी उपजाऊ भूमि बीजों की प्रतीक्षा कर रहीं है और तुम विषयों का भोग करने में लगे हो ॥ पञ्च कोई उत्तर नहीं दे पाते  केवल दांत निपोर कर रह जाते ॥ 

कारज निरखत लेखित लेईं । बहुरत पत्र पालक कर देईं ॥ 
तब कहि पालक एतिक न दौलैं । दुइ सहसै न ऐसेउ बोलैं ॥ 
निर्माण कार्यों का निरिक्षोपरांत उसका क्रम पत्र में लेखित कर प्रियतम जब वह पत्र कार्य पालन अधिकारियों को देते तो वे कहते इतना नहीं डोलते, दो सहस्त्र मानदेय पाने वाले ऐसे नहीं बोलते ॥ 

जहाँ न पूछें जोगता, पूछे धन अरु जात । 
ऐसे राजन के राज, मारो धर दुइ लात ॥ 
जहां योग्यता की पूछ न हो नियुक्ति से पूर्व केवल धन एवं जात पूछते हों ऐसे राजा के राज को दो लात मारनी चाहिए ॥ 

मंगलवार, १७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

दिवा संजातत साँझ बिहाए । आए प्रीतम जब सीस झुकाए ।। 
कार घर के कबहु  कहानी । तब बहियर अस बचन बखानी ॥ 
दिनभर का कार्य संपन्न कर जब संध्या का अवसान होता, तब प्रियतम शीश झुकाए आते । और कार्यालय की कभी राम कहानी सुनाते । तब वधु उन्हें उपरोक्त वचन कहती ॥ 

सुनु प्रानसमा कह पिय बाँचे । अजहुँ अवधि अहहीं एहि साँचे ॥ 

गाँव गँवइ भुइँ भीत धसाहैं । सेवक सचिब बढ़तइँ अहाहैं ॥ 
कहते सुनो प्राणों में समाने वाली प्रियतमा अद्यावधि यही सत्य वचन है कि गान में बसे लोग भूमि में गहरे धंसते जा रहे हैं । और सेवक-सचिव अर्थात शासन-प्रशासन उन्नतोन्नति करते जा रहे हैं ॥ 

हलधर भू धनि करइँ बिकाईं । जोगे जोइ धन छन सिराईं ॥ 
भएउ  कारक हमरेहु कामा । सबही मिल किए जे परिनामा ॥ 
कृषक अपनी खेतिहारी भूमि को धनिकों/उद्योगपतियों के हाथों विक्रय कर रहे हैं । जिसके रूपांतर जो धन प्राप्त हो रहा है वह क्षण में ही समाप्त हो जा रहा है ( कारण व्यसन के साधन सरल सुलभ हो गए हैं) ॥ हमारी भी महत्वाकांक्षाएं भी इसकी कारक हैं । क्या हैम क्या दूजे सभी की मिलीभगत का यह परिणाम है ॥ 

सत्य कहत सब हम अति लघुबर । कँह राजभोग कँह चिला चँवर ॥ 
पहले लरिबो आप लराईं । बहोरि दूजन  दोष धराईं ॥ 
सब सत्य ही कहते हैं हम बहुंत छोटे लोग हैं । कहाँ राजभोग और कहाँ चावल का चिला ॥ पहले अपनी महत्वाकाक्षाओं से ही लड़ लें फिर किसी दूसरे पर दोषारोपण करें ॥ 

भए मुख कान्त मलिन पिय, जब अपमानु हिय लाए । 
प्रियवर बदन निहारती, बहियर के जिउ दुखाए ॥ 
वधु ने जब अपमान को हृदय से लगाए प्रियतम को ऐसा मुरझाया हुवा मुखड़ा देखा तब उसका मन बहुंत ही आहत हुवा ॥ 


बुधवार, १८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                         

ऐसेउ करत लघुबर काजा । रहत बसत निज नगर समाजा॥ 
जिन्हु कोहु सन लोचन मिलाएँ । कभु कभु को जन नीच देखाएं॥ 
इस प्रकार से छोटे कार्य करते अपने नगर के समाज के मध्य वास करते जब वधु के प्रियतम जिस किसी से आँख मिलाते कभी-कभी कोई नीचा भी दिखाता ।। 

कार करन के त जहि बखाने । कभु को कभु को पालक आने ॥ 
तँह के निरादर के का ग्लानी । जँह पद लह पत अपदक हानी ॥ 
कार्यालय की तो यही राम-कहानी है । कभी कोई पालक आता है फिर कभी कोई आ जाता है ॥ वहाँ का निरादर की ग्लानी क्या। वहाँ पद प्राप्त करते ही प्रतिष्ठा है  पद से हटते ही प्रतिष्ठा भी हट जाती है॥ 

अपने जोगता आप सुहाए । संतन्ह के कछु काम न आए ॥ 
धरम चरन निज सद आचारे । संतन के जीवन उद्धारे ॥ 
स्वयं की योगयता स्वयं के लिए ही सुखकर होती है, वह संतानों के कुछ काम नहीं आती ( कमाऊ पिता से कमाऊ पुत उत्तम होता है)॥ धर्म के चार आचरण एवं सद्व्यवहार यही वे गुण है जो संतानों के जीवन को उद्दृत करते हैं ॥ 

जो पत परिजन नगर समाजा । तिन्ह के पतन होहहि लाजा ॥ 
अस पत पानी को बिधि धारें । सोचि बधु सुख सम्पद सँभारे ॥ 
जो प्रतिष्टा परिजनों एवं वासित नगर के समाज में होती है । उसके निपातन से लज्जित होना पड़ता है ॥ ऐसी प्रतिष्ठा किस विधि से वरण की जाए । तब बधु ने विचार किया, धन-सम्पदा संजो कर ?  

भवन आपनादि ए हेतु , एक एक कर जोहारि । 
पिय लगावन पत लगाए, लगी तिनकी लगारि ॥ 
जो भवन आपण भूमि इत्यादि एक एक कर संकलित किये थे वे वधु ने इस हेतु ही किये थे । प्रियतम के अनुरागवश उनकी पत-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त होकर अचल सम्पत्तियों के विक्रय का क्रम चल पड़ा ॥ 

 गुरूवार,१९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                             

कछुक दिनमल त रहि सन लाईं । बहोरि तनि पिय जुगत लगाईं ॥ 
निकट जनपद मह कारज पाए । जल गहन परिजोजन अधमाए ॥ 
कुछेक मास तो प्रियतम मुख्या कार्यालय में ही संलग्न रहे । फिर थोड़ा उपाय कर पास के जनपद में जो जलग्रहण कि एक अधूरी परियोजना का कार्य भार लिए ॥ 

किए थापन जिन खंड बिकासे । रहहि निकट सो नगर निबासे ॥ 
चढ़त तुरग गत प्रात अहोरे । कार करत ढरि साँझ बहारें ॥ 
जिस विकास खंड में पदस्थापना की गई थी वह निवास नगर के निकट था ॥ प्रियतम अश्वारोहित हो प्रात: प्रस्थान करते और दिवसावसान के पश्चात लौटते ॥ 

कार भार एहि कर लिए कासे । तँहा जोग के रहि बहु आसे ॥ 
दुज को पालक सीस न ठाढ़े । रहि अधकर्मी एकै अगाढ़े ॥ 
यह कार्य भर इस कारण से ग्रहण किया वहाँ भ्रष्टाचार के धन-प्राप्ति की आस थी ॥ दूसरे यहाँ कई कार्यपालक सिर पर खड़े रहते थे वहाँ केवल एक अधिकारी था अर्थात लज्जित करने वाला केवल एक ही था ॥ 

कारज सीकर श्रमकर गहिते । कर्मिकहु श्रम सील जित लहिते ॥ 
जोई कारज धन कन उपजाए । सोइ कर श्रम बिनयनहु सुहाए ॥ 
कार्य श्रम बिंदु योगित करने वाला था अर्थात सरल नहीं था किन्तु कर्मी भी परिश्रमी एवं श्रम कि जयता को प्राप्त था ॥ फिर जिस कार्य से धन की प्राप्ति होती हो उस कार्य की तो क्लान्ति भी सुहावनी हो जाती है ॥ 

पंथन के धूरी, जो पद जूरी पिय बपुरमन आ लहीं । 
कंत कर कासे हिरन संकासे, जस रतन मनि लालहीं ।।  
कभु गमनै उछँगे चढत तुरंगे, कभु लौह पथ गामिनी । 
कभु सांझ ढराईं, फिरि फिरियाईं कबहु गहनइ जामिनी ॥ 
पथ की धूली जो चरण से युग्मित होकर शरीर पर आ लगती । उनका चमकता हुवा प्रकाश स्वर्ण कण एवं माणिक्य लाल रत्नों के जैसे प्रतीत होता ॥ कभी प्रियतम अश्व की तो कभी लौह पथ गामिनी के गोद में चढ़ कर गंतव्य स्थान को प्रस्थान करते । कभी वे सांझ ढले ही लौट आते कभी लौटने लौटते गहरी रात हो जाती ॥  

कबहु बधु पिय सोंह कहत, लिए बहु चिंतन धार । 
पहिले भइ बहु अनहोनि, गवनहु जोग निहार ॥  
कभी मन में अतिशय छोटा करते हुवे प्रियतम से कहती पहले भी ( छोटी बड़ी ) दो चार अनहोनियां हो चुकी हैं तुम देख भाल कर ही यात्रा किया करो ॥ 

शुक्रवार, २० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                 

कलुख अचार त कलुख अचारे । भनित कबित सन पवित न घारे ॥ 
चोंच चरन जूँ बक ललनाई । चाल चरत कँह हंस कहाई ॥ 
भ्रष्ट आचरण तो भ्रष्ट आचरण है । वह छंदोबद्ध कथन के सह पवित्र ग्रहण नहीं करता । चोंच एवं चरण को रंग कर हंस की चाल चलता बगुला हंस कहाँ कहलाता है ॥ 

जो होवैं भूखे भंडारी । असन हुँते भए कलुख अचारी ॥ 
बसन हीन हो देह उहारे । दोष करम कर दिए ओहारे ॥ 
जो भूखे भंडारी हैं केवल भोजन हेतु कलुषित आचरण के हो गए हैं । जो वस्त्र हिन् है जिनके तन का ओहार नहीं है वह दूषित कर्म कर यदि तन ढंकते हैं । 

तिनते अगहुँत अधिकाधिकाए । जथा जोग कर्पर धरे छाए ॥ 
करत दोष  धन जोइ सँजोगे । सो दूषित जन छम के जोगे ॥ 
और आगे इससे अधिकाधिक जो यथा योग्य सिर ऊपर छाया धारण कर लेते हैं जो दोष करते हुवे धन संजोते हैं वह दूषित जन ( कदाचित ) क्षमा के अधिकारी  हों ॥ 

एक त दूज दूज ते तिज चिते । फटिक मनि भवन सुबरन रचिते ॥ 
उजबल बसन बिलास सँजोईं । सो दूषन छम जोग न होई ॥ 
एक से दूजा, दूजे से तीजे भवन उठा कर जो बिल्लौरी पत्थरों में स्वर्ण अट्टालिकाओं कि रचना करते हैं । उज्जवल वस्त्र एवं विलास सामग्रियों का संग्रह करते हैं वह भ्रष्टता क्षमा के योग्य नहीं होती ॥ 

 जे परबचन अबोध बधु, नित्य बढ़ात उछाहु ।  
प्रीतम दोष करम करन, धन सम्पद के लाहु ॥  
ऐसे प्रवचनों से अनभिज्ञ वधु धन सम्पदा की लालसा में प्रतिदिन प्रियतम को दूषित कर्म करने हेतु उत्प्रेरित करती ॥ 


शनिवार, २१ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                          

पिय जस अदयावधि अहाहीं । पहले रहि अस दूषित नाहीं ॥ 
कछु भए बधु के कहनहि केरे । कछुक गृहस के पासुल घेरे ॥ 
जैसे प्रियतम इस समय भ्रष्ट थे वैसे वह पहले नहीं थे । कुछ तो वधु के कहने से हो गए । कुछ घर-गृहस्थी की फांस ने घेर लिया ॥ 

दोषा चरन जो बिय बिआइहीं । बधु के उछाहु किए सिँचाइहीं ॥ 
अंग भूत धर अंकुर जागे । हरियर हरि धर  बाढ़न लागे । 
दोष आचरण का जो बीज जो बोया हुवा था उसे वधु के उत्साह ने सींच दिया । अंग-प्रत्यंग धारण कर वह बीज अंकुरित हो गया और धीरे धीरे हरियाली पकड़ कर बढ़ने लगा ॥ 

कहि कहि बधु बोधति कैसे । बिरवा बाढ़न उर्बर जैसे ।। 
बधु के कहनी मानेहु जी तें । जस सो कह पिय तैसेउ कृते ॥ 
वधु कह कह के कैसे समझाती जैसे उर्वरक किसी पौधे को बढ़ने के लिए कह रही हो ॥ प्रियतम वधु के कथन को ह्रदय से मानते जैसा वह कहती वे करते जाते ॥ 

कबहुक त सबहि कहनइ माने । कबहुक कहत बहुस खिसियाने ॥ 
जेतैक खाल के बिद्या होहीं । लागसि तुम्ह सिखावन मोही ॥ 
कभी सारे कथन मान एते कभी यह कहते हुवे रुष्ट हो जाते कि जितनी भी भ्रष्ट आचरण की जितनी भी विधाएं हैं तुम मुझे उसकी  शिक्षा दे रही हो ॥ 

जे भुँइ भवन आपन जे, धन सम्पद के लाहि । 
जाहि सन सद चरन सेष, सब जहि रहि जाहिं ॥  
यह भूमि यह भवन यह आपण , धन-सम्पदा का ऐसा लोभ ? । यह सब यहीं रह जाना हैं कुछ साथ जाएंगे तो वो सद्कार्य ही जाएंगे ॥ 

बुधवार, २५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                   

सब रह रहहि जथारथ जेई । पथ निहारत गेह धन देई ॥ 
उर प्रिय प्रियता भर ममताई । प्रिया संग रहि जात जनाई ॥ 
सभी बातों के रहते यथार्थता थी कि वरवधू  का घर धन की देवी की प्रतीक्षा कर रहा था ॥ ह्रदय में प्रियतम कि प्रियता एवं ममता गरहन किये वह प्रिया संतानों की जन्मदात्री भी थी ॥ 

अंस दाइ पर धरत उधारे । इत उत सम्पद त लेइ धारें ॥ 
मांगत रहि धन तिनके कूपा । कहुँ त एक भार कहुँ एक सूपा ॥ 
अंस दाई योजना के आधार पर इधर-उधर संपत्ति उधार में लेकर धारण तो कर लिए ॥ अब उनका उदार का कुँआ धन मांग रहा था । कोई सम्पति एक भार तो कोई एक सूप ॥ 

बहुरि एक दिवस पिय भुज  काखे । दुइ तिनु पोथी पंगत राखे ॥ 
बहुर करम थरि गेह पधारे । कँह हू कहत बधू हँकारे ॥ 
फिर एक दिन प्रियतम काख में दो तीन पोथियों की पंक्तियाँ दबाए कर्म स्थली से लौट कर घर में पधारे और कहाँ हो! ऐसा कहते हुवे वधु को पुकार लगाई ॥ 

आवत बधु कहि तनिक सुहाँसे । न्याय पति के पद निस्कासे ॥ 
आईं बड़ी बिधि कि ग्यानी । जे पद बरु त  भरे हम पानी ।। 
वधु के आते ही प्रियतम सुहासित होकर कहने लगे न्यायाधीश का पद निकला है ॥ बड़ी आई बिधि की ज्ञानी यदि ये पद वरन कर लो तो हम तुम्हारा पानी भर देंगे ॥ 

पढ़ लिख पहिले गुण गिन लेवें । नियत दिवस जा परिखा देवें ॥ 
तुहरे वरण पदासन जोगें । दोष करम जोगत  बहु लोगे ॥ 
पढ़ लिख कर पहले अपने गुणों को गिन लो फिर जाकर इस पद की परीक्षा दो । क्या है की उस पद का सिंहासन तुम्हारे वरण की प्रतीक्षा कर रहा है । और बहुंत से लोग तुम्हारे इस भ्रष्ट आचरण की प्रतीक्षा में हैं ॥ 

नीच पलक नयन अवनत, कहत बधू सकुचाइ । 
हम  कँह कहे तुमसे हम, बिधि ग्यानी धियाइ ॥ 
नयन नीचे कर पलक झुकाते हुवे वधु ने सकुचाते हुवे कहा । हमने तुमसे कब कहा था की हम बिधि की ज्ञानी ध्यानी हैं ॥ 

बृहस्पतिवार, २६ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                

नाहि नाहि तुम भै बहु भोरी । गाँठ गठित किए रस की कोरी । 
बिधि बिज्ञान का श्रुति का बेदा । जान भइ तुम गजाजुरबेदा ॥ 
नहीं नहीं तुम तो बहुंत ही भोली हो । गाँठ गठित की हुई ईख हो तुम ॥ क्या  विधि क्या विज्ञान क्या वेद-श्रुतियां तुम तो हाथी के दांतो की चिकित्सा भी जानती हो ॥ 

पुनि पिय बधु कर पोथी धराए । दुइ दिनमल लग नैन फुरबाए ॥ 
संग ले गत बाजी बैसाईं । नियत दिवस परिखिअहिं दिवाईं ॥ 
फिर प्रियतम ने वहु के हाथो में पोथियाँ पकड़ा दीं।  और दो मास तक आखें फुड़वाईं ॥ निर्धारित दिवस को अश्व पर आरोहित कर संग ले गए और परीक्षा दिलवाई ॥ 

प्रथम चरन दरसत परिनामा । इहाँ नहीं कहि तुहरे नामा ॥ 
करत उपधि का उपाधि जोई । रे मूर्ख तुम असफल होई ॥ 
प्रथम चरण के परिणाम दर्श कर प्रियतम कहने लगे यहाँ तुम्हारा नाम अंकित नहीं है ॥ ये उपाधियां तुमने छल-कपट कर संजोई थी क्या मूर्ख कहीं की तुम असफल हो गई ॥ 

कहुँ उपक्रम कहुँ साधन हीना । कहुँ श्रम तरतम भाव बिहीना ॥
दइ उतरु गिन कारन अनेका । कहि बधु का हम सिस परबेका ॥ 
कहीं कार्ययोजना की न्यूनता, कहीं साधनो की न्यूनता, कहीं श्रम तो कहीं तारतम्य की न्यूनता ॥ इस प्रकार अनेक कारण गिनाकर वधु ने ऊत्तर दिया  हम क्या कोई प्रावीण्य सूचि के शिष्य थे ? 

के तो सफल के असफल, परिखन के पख दोइ । 
जब कोउ को पद लहई, अनलहि कोइ न कोइ ॥ 
या तो सफल या असफल परीक्षा के ये दो पक्ष होते हैं । जब कोई किसी पद को ग्रहण करता है, तो कोई न कोई अग्राह्य भी होता है ॥ 

शुक्रवार, २७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                 

करत अध्ययन बधु दिन राती । दोई चारिन अरु एहि भाँती ॥ 
बिलगन बिलग परिखिअहिं दाईं । पर सकल गही असफलताईं ॥ 
दिन-रात अध्ययन करते हुवे वधु ने इस प्रकार और दो चार विभिन्न प्रकार की परीक्षाएं दीं किन्तु सभी में असफलता ही प्राप्त हुई ॥ 

ऐसेउ करत गहस के बाही  । ठेरत अरु तनि दूरहिं आही ॥ 
कहुँ जे धाँसी त लिए उठानै । उदर भरन दिए धन के दाने ॥ 
ऐसा करते घर-गृहस्थी की वाहिनी ठेलते हुवे थोड़ी और दूर आ गई ॥ कहीं पर  वह धंसी तो उसे दम्पति ने उठाकर उसके उदार में श्रमधन के दाने दिए तब वह फिर से चल पड़ी ॥ 

काल करम कहुँ किए अँधियारे । धर्म पुन कहुँ पंथ उजियारे ॥ 
दुःख संगत सुख सम्पद भ्राजी । कलह के सह सांति बिराजी ॥ 
काले कुकर्म कहीं अंधियारा करते । किये गए धर्म पुण्य कहीं उजाला भर देते । दुखों के सह सुख भी शोभायमान रहा कलह क्लेश के सह उस वाहिनी में शान्ति भी विराजित रही ॥ 

चरत चरत पथ कूल अहाहीं । प्रनय प्रीत की सरित प्रबाही ॥ 
भए मन तिसनित तो भइ कंजन । कण्ठन उतरी बिंदु बिंदु बन ॥ 
चलते-चलते पथ के कगारे प्रणय- प्रीती की सरिता प्रवाहित हो दृष्टिगत होती ॥ जब मन तृष्णा से भर उठता तब वह कंठ में बूंद बूंद उतर कर अमृत हो जाती ॥ 

लही तन त्रिबिध बायु सम, बालक के अनुराग । 
तिनके बिहसन अरु रुदन, जस को गाए बिहाग ॥ 
बालकों का अनुराग देह में शीतल-मंद-सुगन्धित वायु का आभास देता । उनका हँसना और रोना ऐसा होता जैसे कोई कहीं बिहाग राग गा रहा हो ॥ 

शनिवार, २८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                           

भावज भगिनी बंधुहु भाई । कै नैहर के कै ससुराई ॥ 
बधु बर बासित निलयं माही । हिलन मिलन आवहिं बहुताही ॥ 
वधु-वर के निवास स्थान में मिलने-जुलने को भावजें, बहने, भाई बंधू क्या तो नैहर के क्या ससुराल के ऐसे बहुंत से लोग आते ॥ 

को सन रहि न घन मित मिताई । आगंतुक रहि सबहि सजाईं ॥ 
तिनमें एक संबंधी अस रहहीं । बधुर ससुर तिन सब सिख दहहीं ॥ 
उनकी किसी के साथ घनिष्ठ मित्रता नहीं थी । सभी आगंतुक सगे-सम्बन्धी ही होते ॥ उनमें से एक सम्बन्धी ऐसे थे जिन्हें वधु के श्वसुर न सारी शिक्षाएं दी थीं ॥  

बालइ बै मह लिखाए पढ़ाए । ब्यवहारी सब काज सिखाए ॥ 
बित समउ सोइ भए धनमानी । बर बहुटी के परन बिहानी ॥ 
बालावस्था में ही उन्हें लिखाया पढ़ाया एवं व्यवहारी कार्य का सारा ज्ञान दिया था ॥ समय बीता वर-वधु के विवाह के पश्चात वे ( रातोंरात ) धनवान हो गए ॥ 

एक दिवस आगत सोइ सगाए । बर सन लागे बैस बतियाए ॥ 
बोलि रे हमरे पीछु घारे । गहियन बही राउ रखबारे ॥ 
एक दिन वे ही सम्बन्धी आए और वर से कहने वार्तालाप करते हुवे बोले सुन रे हमारी लेखा-बही पकड़ने के लिए राजा के रक्षक हमारे पीछे लगे हैं ॥ 

कहि बधु ऐसेइ जब तिन पिय जे बात बताए । 
परिजन्ह के संकट मह, परिजन होत सहाए ॥ 
 प्रियतम ने वधु को जब यह बात बताई तो उसने कहा ऐसी बात है तो संकट में परिजनों की परिजन ही सहायता करते हैं ॥ 

रविवार, २९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                            

नाथ सेष अब कीजिए सोई । जोइ उचित अरु सबहित होई ।। 
सो परिजन जब दुबरइ आहीं । प्रीतम जेइ बचन उचराहीं ॥ 
हे मेरे स्वामी ! अब आप वही कीजिए जो सर्वस्व उचित हो एवं सर्वहित हो ॥ जब वे परिजब दुबारा आए । तब प्रियतम ने उन्हें ऐसा कहा : -- 
लिखि बही के चिंतन न लेवें ॥ चाहु त हमरे घर धरि देवें ॥ 
लिखे पत्र भर एक झोरे । परिजन बर बधु के घर छोरे ॥ 
अब लिखे खाता-बही की चिंता न करें । यदि चाहें तो उन्हें हमारे घर में रख देवें ॥ फिर उन लिखे बही-पत्रों को एक थैले में भर कर परिजन ने उन्हें वर-वधू के घर पर छोड़ दिया ॥ 

धरे धरे भए बहुसहि मासे । बहोरि सगाए आए निबासे ॥ 
कुचित बचन पिय अरन पिरो लै । तिन झोरन लए जावन बोलै ॥ 
उन्हें रखे रखे बहुंत मास हो गए । फिर एक बार जब वाही परिजन मेल-जोल हेतु घर आए तब प्रियतम ने वचनों में संकोच के शब्द पिरो कर कहा अब आप अपने थैले को ले जावें ॥ 

ते समउ त सोइ लेइ गवनै । तनि दिनमल पर अरु लै अवनै ॥ 
झोरन गहि गरुबर एहि बारी । एक न दुइ रहहि तीनै चारी ॥ 
उस समय तो वे उस थैले को ले गए । फिर कुछ मास पश्चात और ले आए ॥ अबकी बार वे झोले अतिशय भार ग्रहण किये हुवे थे और एक दो नहीं तीन चार थे ॥ 

घारे एक बर पालना, छोटे सयनागार । 
तापर बर साजन पुनि, घेरे झोरे चार ॥  
एक छोटा शयनागार था उसमें एक बड़ा पलंग था । उसपर बड़े से साजन और फिर ये चार झोले घेर लिए ॥ 

सोमवार, ३० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

बाहु प्रलंबित परिगत कोटे । दुइ ठन बालक छोटे छोटे ॥ 
बहुरि एकै लघु बैठक ऐंठे । एतिक साज कहु कँह कँह बैठे ॥ 
एक हाथ जितना लंबा चहारभित से घिरा वह कक्ष फिर उसमें नन्हे मुन्ने  दो छोटे-छोटे  बालक । फिर एक छोटी सी बैठक इतराए । अब इतनी गृह-सज्जा कहो तो कहाँ बैठे कहाँ जाए ॥ 

दरसत तिन्हन गतागताईं । बधु बार सौंहे पूछ बुझाईं ॥ 
को छठी बरही को बिहाने । कहूं सन आनै कि कहु पयाने ॥ 
और फिर उन झोलों को आते जाते अतिथि गण तिरछी दृष्टि से देखते हुवे वर-वधु से पूछते । किसी के जन्मिवस पर किसी के विवाह अवसर पर कहो तो, कहीं से आए हो या कहीं जा रहे हो ॥ 

कवन को कवन को बतलाहीं । देत उतरु बधु भै सिथिराहीं ॥ 
अपन आप पुनि  कोसत सोची । निपट पाँवर होहि मति पोची ॥ 
किसी को कुछ कहते, किसी को कुछ कहते । उनका उत्तर देते देते वधु थक जाती,श्रमित हो जाती ॥ फिर वह अपने आप को कोसते हुवे सोचती रे निपट मूर्ख छोटी बुद्धि 

कौन गहरी को अनह फिराई । कपट क्रिया के बनह सहाई ॥ 
अनहुत झबारि कण्ठन घारी । बनइ अहुट न बनै ओहारी ॥ 
जाने कौन सी अमंगल घडी में, कौन से अशुभ दिवस में इसे फिरा ली । जो छल -कपट कि क्रियाओं में सहायक बन गईं ॥ बिन होई के जंजाल को गले में गरहन कर लिया जिसे न तो उबारते बने न घारते ॥ 

सहसह सहाए किये कवन के । भोग बिलास दास बिषयन के ॥ 
जो परिनेता नीच दिखाईं । तिन माह रहहि एहु एकताईं ॥ 
अचानक यह किसकी सहायता कर दी जो भोग विलास एवं विषयों के दास हैं ॥ जो जन प्रियतम को नीचा दिखाते आए जो उन्हीं में से एक हैं ॥ 

सुबुधी कहत चले आए, चौरन चोर सहाइ ।  
भूरि बहु भई सो भई, निजमन बधु समुझाइ ।।  
विद्वान सदा कहते आए हैं चोरों के तो चोर ही सहायक होते हैं ॥ भूल तो हो गई हो गई, हो गई सो हो गई, फिर वधु ने अपने मन को समझाया ॥ 

मंगलवार, ३१ दिसंबर, २०१३                                                                                  

पुनि एक दिन बधु सासु ससुराहिं । मेल मिलन गवनी तिन्ह पाहिं ॥ 
जोग भए जब सास बहुरानी । निज निज नैहर रर बर मानी ॥ 
फिर एक दिवस वधु सास-श्वसुर से हेल-मेल हेतु उअनके पास गई । जब सास-बहु एक स्थान पर एकत्र होते हैं तब वे अपने-अपने नैहर को श्रेष्ठ बताती हैं ॥ 

सैन सरासन बोलइ बाने । छाँड़सि उरस सास कस ताने ॥ 
सुधी बूधी बहु बिदित बिधाने । श्रमन सील  सब करमन जाने ॥ 
संकेतों का धनुष धारण कर बोलों के बाण लिए सास ने फिर तानों के गुण कस कर उन बाणों को ह्रदय पर छोड़े ॥सुद्धिमान, बुद्धिमान सभी विद्या में प्रवीण श्रमशील सभी कार्यों में कुशल : -- 
   सबहि के जात बिभूति लै पोटे  । रहि जहि तहि एक हमरे ठोटे ॥  
सिखि  तब न जब निबरै कलेसा । बधु भरि अभरन पुत तप भेसा ॥ 
सब लोगों के पुत्र विभूतियां धारण कर पुष्ट होकर प्रगति कर रहे हैं । और एक ये हमारे बेटे हैं कि वहीँ के वहीँ हैं ॥ कुछ सीखे तब न जब गृह के कलह-कलेशों से उबरें । वधुएँ  तो आभरण भरी हैं और बेटे तपस्वी वेश में वन -वन फिर रहे हैं ॥ 

जब तिनके मुख कहि पूर पाए । बाँच रहे त हमरे घर आए ॥ 
कोमलि कंटक कहि कटु बानी । श्रवनत कठिनत बधु अकुलानी ॥ 
जब इनके मुंह की कही पूरी हो जाए आयर कुछ बचे तो हमारे घर आए ॥ कोमल कंटिका सास ने इसप्रकार कटूक्तियां की जिसे वधुओं ने बड़े ही कठिनता पूर्वक सूना सुनते ही वे व्याकुल हो उठी ॥ 

सिरु अचरा डारी, लोचन थारी, मनियारी मुकुति भरे । 
सर हरिदै लाई बहु बहराई सास ससुर पाउ परे ।। 
द्वार देहराउ परे न पाउ मन मस जस तस भितरी । 
उर झाँकन लाखी, दिसि पिय झाँकी, कहि बहु बिद बल्लभ रे ॥ 
सिर पर आँचल  सास-श्वसुर के पड़ उनके बाणों को ह्रदय से लगाई, लोचन की थाली में चमकते मोतियों को सजाई फिर वधु लौट चली ॥ निवास द्वार की देहली पर पाँव नहीं धरा रहे थे कठिनता पूर्वक ही गृह के अंतर प्रवेश किया और जब ने वधु ह्रदय में झाँक कर देखने लगी,  तो उसे प्रियतम की ही झाँकी दिखाई दी, वह मन ही मन कहने लगी अरी प्रियतम कहाँ बुद्धू है वह तो विद्वान हैं ॥ 

तिनकी नित कि बानि रही, निसदिन के रहि माख । 
बहियर तिन हरुबर बचन, लहि मन गहनहि राख ॥     
सास-श्वसुर की ऐसे कहने की तो सदा की रीति रही ।प्रतिदिन का ही झींखना है,॥ वधु ने उनके हलके वचनों को मन में गहरे ही ले लिया ॥ 






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