Saturday, November 16, 2013

----- ॥ सोपान पथ २ ॥ -----

जननी धिय दुइ गुन समुझाई । बहु समदत पुनि किए बिदाई ॥ 
जोरत कर सब बाहिनि बैठे । सुभ घरि नउ बधु किए  घर पैठे ॥ 
वधु की माता ने उसे दो गुण समझा कर ,बहुंत प्रकार के उपहार  देते हुवे फिर उसे विदा किया ॥ सब बाराती भी हाथ जोड़ कर विदा  हेतु अनुमति लेते हुवे वाहनों में विराजित हुवे और शुभ घडी में नव वधु ने गृह प्रवेश किया ॥ 

तासु पूरतस हिल मिल हेले । जामि जुगबन खोरिया खेरे ॥ 
कोए बनबई बनरा नीके । कोउ बनाउन भरि बनरी के ॥ 
उसके पहले मेल मिलाप कर राग रंग सहित रास करते हुवे घर की बहु-बेटियां साथ में खोड़िया खेला ॥ किसी को बन्ना बनाया गया । किसी ने बन्नी का वेश धारण किया ॥ 

नउ बधु बिरध चरन परसावा । आवत बधु कारत बहु चावा ॥ 
आए पाहुन धरि कर सीसे । लीन्हि बिदा दीन्हि असीसे ॥ 
नव वधु के आते ही गृहजनों ने बहुंत ही लाड़-चाव किया और वृद्ध जनों के चरण स्पर्श करवाए ॥ जो अतिथि आमंत्रित थे उन्होंने उसके शीश पर हाथ रखते हुवे आशीष देते हुवे विदाई ली ॥ 

बहुरि बहुरि सब जनमन बिहाइँ  । तुहरी सास सुरसरि अन्हाइँ ॥ 
भरित बियाहु  उछाहु अनंदु । जात सराहत कहत बधु चंदु ॥ 
यह कहते हुवे कि हे बहुओं ! सारी संतानों का विवाह कर अब तो तुम्हारी सास गंगा नहा ली ॥ विवाह का उत्साह और आनंद को ह्रदय में भरे वे जाते हुवे नव वधु को चाँद कि उपमा देते गए ॥ 

दरसत बधुबर ऐसेउ,जस दुहंस के जोरि । 
नेग सहित रीति निबेर, पुनि का कंकन खोरि ॥  
और कहा : -- वर वधु ऐसे दर्श रहे हैं जैसे कोई हंस का जोटा हों । फि नेग सहित रीती पूर्णिंत करते हुवे वर वधु के खोले गए ॥ 

रविवार, १७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

काल कर्निक पलक जल कृते । पहर करन किए अहिरात सरिते ।। 
कलप धरा अस नौका चरिते । प्रीत पूरिते कछुक बय बिते ॥ 
समय कर्णधार हुवा ,क्षण एवं पल जल स्वरुप हुवे । जब  पहर पतवार अनुरूप  हुई  तो पलों को संजो कर दिवस और रात्रि सरिता प्रतिमान हो गए ॥ 

तमोगुन गहन किए अँधियारे । तमोहन जग उजरन न हारे ॥ 
पावनहार देयन उलासे । देवनहार पावन ललासे ॥ 
अज्ञान और आलस्य जैस दुर्गुण मानस के मन मस्तिष्क में अन्धेरा करते रहे । इस अन्धकार को नष्ट करने वाले प्रतिक हार नहीं मानते  और ज्ञान और चैतन्य का उजाला भरते ॥   

बहुरि बहुरि खल देइँ उजराए । उपबन फिर फिर फर फूर सुहाए ॥ 
पाए पवन पखि भरि भर्राटे । बहेलियन के जालन काटे ॥ 
दुष्ट वारम्वार उअपवन उजाड़ देते परन्तु वह पुनश्च:पुनरुज्जीवित होकर सुहावना हो जाता ॥ बहेलियों के जाल काटते हुवे , पवन का संग प्राप्त कर पक्षी अति तीव्रता पूर्वक उड़ान भरते ॥ 

तरल तपनोपल धुनन धूरी । गहनई रयनइ दिन को घूरी ॥ 
मनुज बल सोंह सिंह डिराहीं । ससा हिरन के बरनि न जाहीं ॥ 
मणि स्वरुप सूर्य की कांति तरलता को, वायु धूल को, गहन रात्रि दिवस की वैरी हो जाती ॥ मनुष्य से स्वयं वांके राजा सिंह को ही भय लगता फिर खरगोश एवं हिरन जैसे निरीह प्राणी तो वर्णनातीत हैं ॥ 

अगजग लेइ सकल जगत, छाए जीव उत्कर्ष । 
चहुँत दिसा ब्यापत रहि, जीवन के संघर्ष ॥ 
जगत के समस्त चराचर में जीवन के प्रति उत्कंठा बनी रही । संक्षेप स्वरूप, चारों दिशाओं में जीवन संघर्ष रत रहा ॥ 

सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

न्यूनाधिक परस्पर प्रीती । सब जन करहिं सुवारथ नीती ॥ 
दैहिक दैविक भौतिक तापे । बार बधूटि जीवन ब्यापे ॥ 
लोगों में आपस की प्रीति थोड़ी-बहुंत ही थी, सभी स्वार्थ परक नीतियां अपना रखी थीं ॥ दैहिक,दैविकऔर भौतिन वर-वधु का जीवन इन त्रयीताप से व्याप्त था ॥ 

अंगज के रहि रुजित सरीरा । अल्पायु अरु ऐ महा पीरा ॥ 
दोउ रोग भय सोक अधीना । संतति प्रति सुख लच्छन हीना ॥ 
वर-वधु के बाल मुकुंद का शरीर रोग ग्रसित था अल्पायु और रोग की यह महापीड़ा ॥ दोनों सुख के लक्षणों से विहीन होकर रोग, भय और शोक के अधीन थे जो संतानों के प्रति था ॥ 

केतक जलद सुधा बरखाईं । पर बेत प्रफुर फरइँ न पाईं ॥ 
ऐसेउ बहुस बयस गहाहे । दंपत पुत चलि फिरैं न पाहें ॥ 
बादल कितना ही सुधा बरसाए । पर बेत प्रस्फुटित होकर फलीभूत नहीं होता ॥ उसी प्रकार वह बालक भी चलने फिरने कि अवस्था पार करता जाता किन्तु पैरों से चल फिर नहीं पाता ॥ 

रूज गहन कर लिए झटकारे । कछुक दिवस के अंतर पारे ॥ 
नाना बैदु भवन किए फेरे । मात पिता करि जुगत घनेरे ॥ 
रोग, झटके देने वाला था और गहरा था । यह झटके उसे कुछ दिनों के अंतर पर आते ॥ विभिन्न प्रकार के वैद्यों एवं उनके भवनों के चक्कर काट काट कर माता-पिटा अतिशय युक्ति करते की किसी प्रकार से यह झटके अवरुद्ध हों ॥ 

भाँति भाँति के नेम किए, जथा जोग पुनि दान । 
दंपत जोगत जुगे रहि, पुत के साँसत प्रान ॥  
अनेको रीतियाँ अपनाईं, यथायोग्य दान-पुण्य भी किया ॥ इस प्रकार बालक के यंत्रणा में फंसे प्राणों की देख-रेख में ही जूटे रहते ॥ 

मेरा भाव गहे रहे, बहोरि किए पुनि दान । 
जोइ सकल जगती लहे सोइ करै कल्यान ॥  
चूँकि किया हुवा पुण्य दान यदि  'मेरा ' भाव ग्रहण किये हुवे हो तो वह सफल नहीं होता  । जिस पुण्य दान में समस्त चराचर के कष्ट निवारण की कामना की जाए वही कल्याण कारी होता है ( अत: दंपत का वह कृतकार्य वह असफल सिद्ध होता प्रतीत हुवा ) ॥ 

मंगलवार, १ ९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                            

मुखकृति सुठि रहि सौंह साँवरी । पर वाकी बुद्धि रहि बावरी ॥ 
भोजन जल तौ खालै हेरी ।  पर रसना कछू धूनि न केरी ॥ 
बालक की सुनार मुखाकृति सांवरे के सदृश्य थीं । किन्तु उसकी बुद्धि मंद थी । भोजन जल को तो उसकी जिह्वा ढूंड लेती किन्तु शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाती ॥ 

उदर ज्वाल बूझन ललसाए । उत्सर्जन कछू भान ना पाए ॥ 
तिन्ह आवइ न कछु जानपनी । रही चित्त भ्रमित वाकी नयनी ॥ 
क्योंकि उदराग्नि ऐसी है कि वह बूझण को लालायित रहती किन्तु उत्सर्जन का उसे ज्ञान नहीं था ॥ उसे कुछ समझदारी नहीं थीं जो उसकी आयु के बालक को होनी चाहिए उसके नेत्र भी भ्रमित रहते अर्थात नेत्र से नेत्र का मिलान करने पर  स्थिरता नहीं आती ।। 

आप नींद सुत केलि किलौले । दूजन अनमन कछु नहि बोले ॥ 
पालक हीं मुख असन धराईं । चरण त्रान तन बसन बसाईं ॥ 
वह अपने आप में मगन होकर आप अनुसार ही खेल करता दूसरे के भावों को ध्यान नहीं देता ॥ उसे पालक ही भोजन कराते और उसके वेश को भूषित करते ॥ 

बिहारन उदकत बारहि बारी। चलत बाहि जब त्रिबिध बयारी ॥ 
धरत उच्चलत उरस उछावा । तिन्ह परस अतिसय मन भावा ॥ 
वह विहार करने हेतु  वारंवार स्वरुप में उत्कंठित रहता । गतिशील अवस्था में  चलते वाहन की शीतल मंद और सुगन्धित वायु उसके हृदय को आनंदित करती उसका स्पर्श उसे बहुंत अधिक ही भाता ॥ 

पेख पालक बालक मुख, सुहेलाहि एहि भाँत । 
पेखत भानु उदयित जस, पदम् मुकुल सकुचात ॥ 
बालक के ऐसे मुदित मुख को देख कर उसके पालक , सुख की अनुभूति करते हुवे  इस प्रकार से  प्रसन्न होते जैसे मुरझाए हुवे मुकुलित पद्म पुष्प को देखकर उदितमान भानु प्रसन्न होता है ॥ 

बुधवार, २०  नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                    

करत लाल धिय बहु बिधि लालै । सीँच नेह दुहु गृहबन पालें ॥ 
एक  कलिका कल कोमलि अंकी । एक मन मोहक मुकुल मयंकी ॥ 
दंपत, बाल मुकुंद एवं बालिका का बहुत प्रकार से दुलार करते और अपने स्नेह से सिंचित कर  गृह रूपी उस उपवन में उनका लालन पालन करते ॥ 

कलिका पद पद फुरत बिकासे । मुकुल कंत मुख मलिनइ भासे ॥ 
जे रत सकल बिषय रस कोरी । यह अधम ग्राम धरत निचोरी ॥ 
कलिका तो चरण-चरण पर प्रफुल्लित होकर  संवृद्ध होती रही किन्तु, मुकुल का मुख मुरझाया हुवा सा धूमिल प्रभा का आभास देता ॥ कालिका संसार के विषयी रसदालिका  के सभी रसों में अनुरक्त थी किन्तु मुकुल विषय समूह के अधभागी होते हुवे केवल अवसृष्ट का
अधिकारी था ॥ 

चलत पयादे पयादेहि धिअ । धरि पद पुत पर अपद अबोधिअ ॥ 
चाहे जो धिय हठ करि लेईं । बाल मुकुन पुचुकारत देईं ॥ 
पुत्रिका पैर पैर चलती । पुत्र चरण धारी होते हुवे भी मंद मति के कारण चल नहीं पाता ॥ पुत्रिका हाथ कर जो चाहती ले लेती किन्तु बाल मुकुंद को मात-पिता पुचकार पुचकार कर देते ॥ 

जाति जनित जग धरम समाजा । बसत भवन करि हित के काजा ॥ 
बिकसित भाव बिषय गत बोधे । एहि कर मनु पसु बिलग बिरोधें ॥ 
उत्पत्ति, समूह, सांसारिक धर्म, और समाज  गृहस्थ जीवन, कल्याण कारी कार्य,विकसित भाव,विषयों का पूर्णकारी बोध गमन, ये कारक मनुष्य को पशुओं से भिन्न करते हुवे पृथक करता है ॥ 

ढोर हो चाहे पसु हो, हो को नर को नारि । 
जो प्रानि मतिहिन् का सो, ताड़न के अधिकारि ॥ 
ढोल हो, चाहे पशु हो, या कोई नर-नागर कि नारी हो । जो प्राणी मति हिन् हैं क्या वे मार खाने के योग्य होते हैं ॥ 

गुरूवार, २ १ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

उत बधु पितु बय बर्धन भूले । परे पालउ धरे रुज सूले ॥ 
अजहुँ त प्रात करम उहिं कारैं । मिल भावज करि सौच अचारें ॥  
उधर वधु के पिता जैसे स्वास्थ का लाभ लेना ही भूल गए रोगों से पीड़ित होकर पलंग ही पकड़ लिया । अब तो नित्य क्रिया भी वही होने लगी । भावज मिल जुल कर उनका शुद्धिकरण करती ॥ 

जे कभु दंपत के मन आईं । दोउ असुख कर दरसन जाईं ॥ 
सयनै संजुग जड़ता धारहिं । रसना असन अरसकर अलपतर धारहिं ॥ 
जो कभी दम्पति का मन होता तो दोनों शोक पूर्णित होकर दर्शन कर आते ॥  पलंग पकड़ने के पश्चात शरीर ने जड़ हो गया । स्वादेंद्रिय अब अल्प मात्रा में ही भोजन गर्हण करने लगी ॥ 

करक धूनि धरि तीख सुभावा । चार कोस जो देइ सुनावा ॥ 
बेगि बिहिन अरु गति छिन होई । मंदक सुर धरि धवनिहि सोई ॥ 
मुख ध्वनि जो कभी कर्कश एवं तीक्ष्ण स्वभाव की थी । जो चार कोस ऊरी पर भी सुनाई देती थी ॥ उसी ध्वनि के स्वर मंद हो गए उसकी गति मद्धम और तीव्रता क्षीण हो गई ॥ 

झुरत चरम छबि मुख मलिनाई । बिरध सिंधु तरंग धराई ॥ 
दिए दरस दीन दरपक हीनी । कर्दम भरि काया भइ झीनी ॥ 
मुख की त्वचा झूलने लगी और उसकी शोभा मलिन हो गई जैसे मुख कोई वृद्ध सिंधु हो और और झुर्रियां तरंग हों ॥ मांस से भरी काया कृषकाय हो कर विकलता दर्शाते हुवे दर्प हीन हो गई ॥ 

अजहुँत मम दिवस पूरे, कहत बहोरि बहोरि । 
जेइ जगमग जगती जग, अरु तनि बय के होरि ॥ 
पितु वारंवार कहते अब मेरे दिन पूरे हो गए । इस जगमग करते घर-संसार में, मैं कुछ ही समय का अतिथि हूँ ॥ 

शुक्रवार, २२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

देखत नातिन बहुस स्नेहे । रोग पीरान हरिदै लेहें ॥ 
बैस बर्धाहि धीरहि धीरे । कहत धिया सों भै न अधीरें ॥ 
पिता नातिन को देखते तो बहुंत स्नेह करते उसके रोग पीड़ा को हृदय में लेते हुवे द्रवित हो जाते ॥ यह धीरे धीरे ठीक हो जाएगा , तुम अधीर मत होओं पुत्री को ऐसा कहकर सांत्वना देते ॥ 

जब तब बधूटि पितु घर जाईं । मात चढत चित अति सुरताईं ॥ 
सुमिरत तिन्ह लोचन जल छाए । सयन सदन जब जननी न पाए ॥ 
वधु जब भी अपने पिता के घर जाती । तो माता का ध्यान चित्त में चढ़ जाता ॥ जब शयन सदन में वह नहीं दिखाई देती तब उन्हें स्मरण करते हुवे उसकी आँख भर आती ।  

बसन भूषन वाके बिछावन । रहि ऐतक कि उँगरीहि मह गन ॥ 
धर्म बचन अरु सत सदाचरन । रहि जेतैक के नख नभ अनगन ॥ 
उनके वस्त्र आभूषण शयनाच्छादन इतने थे की उँगलियों में गिना जा सके । और धर्म पूरित आचरण सत्य सद आचार इतने थे कि जितने आकाश में अनगिनत तारे हैं ॥ 

धारी मुठिका करन्हि दाना । कबहुँक चौरस कबहु लुकाना ॥ 
मानख मति  जस तस गति पाईं । जस कारज तरु तस फर आईं ॥ 
जब मन आया मुठिका धरी और दान कर दिया । कभी सबके सम्मुख कभी छीपा कर ॥ मानुष की जैसी बुद्धि होती है उसकी गत भी वैसी ही होती है । उसके जैसे कर्म वृक्ष होते हैं, उसमें वैसे ही फल लगते हैं ॥ 

जुग सिधाए सती बिहाइ, बिते बरस अह रात । 
तिन्ह संग लोग सिधाए, रह रहि तिनकी बात ॥ 
युग समाप्त हो जाते हैं शताब्दियां समाप्त हो जाती हैं वर्ष,दिवस, रात्रि  बितते जाते हैं । उनके साथ लोग भी परलोक पहुँच जाते हैं रह जाते हैं बस उनके विचार ॥ 

शनिवार, २३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

एक दिन बैसै सों बर भ्राता । बधूटि करत ऐसोइ बाता ॥ 
लालइ लाल अंक बैसाई । पुनि एतादिसी पूछ बुझाईं ॥ 
  एक दिन अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ बैठ कर वधु इस प्रकार वार्तालाप कर रही थी वह पुत्र को सस्नेह गोद में बैठाए हुवे उसने प्रश्न भ्राता से किया : - 

कभु कछु कभु कछु हेलत बुलाएं । कहु तौ तनुज का नाम धराएँ ॥ 
दुइ छन ठारत भ्रात बिचारे । तब मधुरित जे बचन उचारे ॥ 
 अभी तक ठोटे को भाँति -भाँति नामों से पुकारते थे । कहो तो इसका क्या नाम रखें ? तब भ्राता ने कुछ समय थाहा कर विचार कर  इस प्रकार के मधुरित वचनों का उच्चारण किया  ॥ 

केस सिखर तरि सीस अलिंदे । बैठि भेस भर जस अलि बृंदे ॥ 
अरुन नयन मुख सुधा अधारे । मनहु कंजन कंज पत धारे ॥ 
केश शिखर से उतर कर शीर्ष के चबूतरे पर ऐसे विराजित हैं जैसे मधुकर के समूह ने वेश भर लिया हो ॥ अरुणित लोचन और मुख सुधा के आधार हैं विधाता ने मानो वहाँ कमल ही प्रतिष्ठित कर दिया हो ॥ 

चंचर मन तन बदन स्यामा । तव सुत सुभ लच्छन के धामा ॥ 
कहत भ्रात एक नाम सुखारे  । धरे मात सो भविस कुमारे ॥ 
मन चंचल है, और शरीर और मुखाकृति सांवल है । तुम्हारा पुत्र  शुभ लक्षणों का जैसे धाम ही है ॥ फिर भ्राता ने एक सुख करने वाला नाम बताया । वह नाम था भविष्य कुमार जिसे माता ने ग्रहण कर लिया ॥ 

एहि भाँति भ्रात के कहे, नाम देइ जनि धार । 
पुचकारत बोलि मुख सन , हे रे भविस कुमार ॥   
इस प्रकार भ्राता के कहे अनुसार, माता ने अपने पुत्र का नामकरण किया । औ फिर प्यार से पुकारने लगी हे रे ! भविष्य कुमार !!

रविवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                   

उत बधूबर के कुटुंबी गन । श्री गया पुर पितु करमन करन ॥ 
सब हिल हेरत किये बिचारे । मंगल दिवस संकलप धारे ॥ 
उधर वधू-वर के कौटुंबिक गण ने हिलमिल कर श्री गया जी श्राद्ध कर्म-काण्ड करने का शुभ विचार किया ॥ और मंगल दिवस में संकल्प धरा ॥ 

जेइ करमन तबही सँजोई । जब सकल कुटुम जन सुध होईं ॥ 
को मरनी को जनम न धारें । जग मह रह जेतक परिबारे ॥ 
यह कर्म-काण्ड हेतु तभी कटिबद्ध होते हैं जब सर्व कौटुम्बिक पवित्र हों । अर्थात निश्चित अवधि के अंतर्गत जग में जितने भी कौटुम्बिक हों उनके गृह में किसी का न मरण हुवा हो न किसी का जन्म हुवा हो ॥ 

सब सास्त्र सब बेद पुराने । करतब रूप ते करम बख्नाने ॥ 
तिन्ह तईं उपदेस उचारे । श्री  भगवद गीता अनुहारे ॥ 
सभी शास्त्रों सभी वेद पुराणों ने कर्त्तव्य स्वरुप में इस कर्म-काण्ड का वर्णन किया है ॥ इसके सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता में किये गए उपदेशानुसार : - 

जो पितु करमन सकही कोई । सोइ जनित बड़ भागी होईं ॥ 
जो पितु मुकुतिहि अभिलाखे । पाए धर्म पद लाखन लाखे ॥ 
जो कोई संतति पितृ-कर्म काण्ड करने में समर्थ हो वह अतिशय भाग्यशाली होती है । जो अपने पितर जनों की मुक्ति की अभिलाषा करता है वह अधिकाधिक पुण्य का पात्र होता है ॥ 

सब हेली जोगत, भए सब सहमत दिए सबहि असीस बचन । 
जो जथा बिधाने, जोग प्रदाने, भए सम्भव आयोजन ॥ 
पुनि बंस चरित के, जोग लिखित के,  हेर पुर पट्टन गली । 
मिलजुल सब लोगे, साख सँजोगे, बनि बिटप बिरदावली ॥ 
फिर सभी कुम्ब जनों ने आह्वान कर सभी की सहमति एवं आशीर्वचन एकत्रित किया ॥ जो जैसे जिस प्रकार से भी योजन प्रदान करने में समर्थ था उसने वैसा किया और फिर यह आयोजन सम्भव हुवा ॥ फिर वंश का इतिहास अन्वेषण कर सभी स्थानों से लिखित में संकलित कर सबने परस्पर मेल करते हुवे उसकी शाखाएं निरूपित कर उसे वृक्ष का स्वरुप दिया ॥ 

डेढ़ सदी पूर्बीने, जे आयोजन कारि । 
अद्यावधि सोइ कुटुम, बहुरि संकल्प धारि ॥ 
वधू-वर के कौटुम्बिक ने जिस आयोजन को (लगभग) डेढ़ सौ वर्ष पूर्व किया था, अद्यावधि कुटुंब जनों ने पुनश्चर उसी आयोजन का संकल्प धरा ॥ 

सोमवार, २ ५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

तिन करम तईं बेद पुराना । लेखि कछुक कर नेम बिधाना ॥ 
पर पद परसन बर्जित अहहैं । ते अवधि कोउ दाए न लहहैं ॥ 
इस कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में वेद -पुराणों में किंचित नियम-विधान किये गए हैं ॥ जिसमें संकप अवधि में पराए जनों का चरण वंदन वर्जित होता है न किसी से कुछ लिया जाता है, न दिया जाता है ॥ 

जब लग परिजन किए संकल्पा । सुरति प्रभु मन आहारै अल्पा ॥ 
जस निगमागम जस श्रुति गाईं । जनम मरन मह कहहुँ न जाईं ॥ 
जब तक यह सकल्प पूर्ण नहीं होता तब तक अल्प आहार ही ग्रहण कर चित्त में केवल ईश्वर का स्मरण के निर्देश हैं ॥ जैसे वेद-शास्त्रों एवं श्रुतियों ने व्याख्यान किया है कि न तो किसी के जन्म में गमन करें एवं न ही किसी के मरण में गमन करें ॥ 

तेहि माझ मह पीहर देसे । आए जेइ आरत संदेसे ॥ 
बधुटि तव पितु रहि न जग माहे । छाड़े तन अरु सुरग सिधाहें॥ 
इसी बीच के पीहर देस से यह  दुखमय सन्देश आया ।। हे वधु ! तुम्हारे पिता अब इस लोक में नहीं रहे, वे देह त्याग कर लोकांतरित हो गए हैं ॥ 

होत सोकित बधु बै तिपाई । सँदेसी सौं कछु कह न पाईं ॥ 
कातर दृग भइ सोकत लोकी । अरु वाके मुख लोकत सोकी ॥ 
( यह सुनते ही ) वधु  दुखित होकर  पीड़ित  अवस्था में संदेशी से कुछ कह नहीं पाई ॥  कातर दृष्टी से शोकपूर्ण होकर वधु उसे और उसके मुख को रात्रि देखती  रही ॥ 

आरत रत बिलाप  करत, धारे दुःख उर भीत । 
रयनि श्रवनत सन क्रंदत, बधु के करुणा गीत ॥  
दुःख संकुलित ह्रदय से वह दुखपूर्ण विलाप करने लगी । उसके इस करुणा गीत को सुनकर साथ में रयनी भी रो पड़ी ॥ 

मंगलवार, २ ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

कवन भाँति बिरती तम राती । आइ भोर पितु जस गुन गाती ॥ 
किरन सोशन ओस कन कूखे । बधु के पोटल कनक न सूखे ॥ 
दुखभरी वह अंधेरी रात किसी भांति व्यतीत हुई । जनक के गुण गाती हुई फिर भोर प्रकट हुई ॥ किरणों के शोषण से ओस शुष्क होने के कारण कलपने लगे  किन्तु वधु के पलकों की जल बुँदे शुष्क नहीं हुईं ॥ 

पिहर गवन बात जब आई । करन जनक जग बिदा बिहाई ॥ 
गृह जन चिंतत पूछ बुझाने । बुधी सुधी सन सोंह सयाने ॥ 
और जब जनक कि अंतिम विदाई हेतु वधु के पीहर जाने की बात चली तब गृहजानों ने सोच विचार कर बड़े बूढ़ों के साथ बुद्धिवंत विद्वान की राय ली ॥ 

कहि सब बनउन नेम बनाईं  । मानन मैं ही भयउ भलाई ॥ 
जान समुझ रचि आपन नुग्रहन । एकांग होहि हेतु को कारन ॥ 
सबने यही कहा जब रचनाकार ने  नियम रचे ही हैं तो उन नियमों को मानने में ही भलाई होगी ॥ इन नियमों के रचित करने पीछे उनका अवश्य ही कोई कारण कोई उद्देश्य होगा जो हम कलयुगी जातक नहीं जानते ।  ये हमारे अनिष्ट के निवारण के िे जान समझ कर ही रचे गए होंगे ॥ 

पुनि सोंह बधू परिजन कहहीं । सोइ करौ जो तव मन चहहीं ॥ 
निगम रचिते नेम पुराने । तोर न तोरे मान न माने ॥ 
फिर वधु के सम्मुख होकर परिजनों ने कहा । जो तुम्हारा मन कह रहा है तुम वही करो ॥ निगमागम में रचे गए नियम यद्यपि पुराने हैं तोड़ना चाहो तो तोड़ दो मानना चाहो तो मान लो ॥ 

पितु पराए आपन ससुरारी । होइहि संतत पियहि पियारी ॥ 
बहोरि बधु के बुद्धि सुजाना । बिरध बचन देवत सनमाना ॥ 
पिता पराए होते हैं, स्त्री कि अपनी उसकी संतान होती है और वह प्रीतम की प्यारी होकर ससुराल की ही होती है ॥ फिर वधु की सुबुद्धित मति ने बड़े बूढ़ों के कथनों का सम्मान किया ॥ 

निगमागम निगदित नेम, कारत अंगीकार । 
नियमित भई संकल्पित, निज पितृ जन उद्धार ॥ 
वेद-शास्त्रों में वर्णित नियमों को अंगीकार करते हुवे उनके अधीन हो कर वह अपने पितृ जनों के उद्धरण हेतु कृत संकल्पित हुई ॥ ( पति पक्ष द्वारा आहूत कर्म काण्ड- क्रिया में पत्नी के माता-पिता  का भी उद्धरण होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है ) 

बुधवार, २ ७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                    

कैसेउ अहइ एहि बिडंबना । पितु के सिरान बधु गमन मना ॥ 
अंत समउ भइ मुख नहि देखें । उपल धात कस हरिदै लेखेँ ॥ 
यह कैसी विडंबना है, पिता का देहांत हो गया पर वधु का जाना मना है ॥ अंतिम समय में पिता का मुख भी न देखें । ह्रदय पर वधु कैसे तो पत्थर रखे और कैसे उसे समझाए  ॥ 

जन्में जग में रज सन तिनके । अजहुँ तरस गए दरसन तिनके ॥ 
प्रियति पिया नारी धिय धाती । पर मुख मौलि मूर्धन पाती ॥ 
जिनके राज से इस जगत में जन्म लिया । आज नयन उनके दर्शन को तरस गए ॥ प्रिय को अति प्रिय नारी पुत्री एवं माता होती है । किन्तु मुख मस्तक के शिखर पत्र पर : -- 

अंतर धर अह सों नर धाता । लिखे लेख का भाग बिधाता ॥ 
पौरुख के पहराइन नारी । पहरी के को पहरनहारी ॥ 
भाग्य विधाता ने ऐसे लेख लिखे नरनागर और नारी में अंतर किया ॥ नारी को पुरुष के पहरे में किया किन्तु उस प्रहरी का कौन प्रहरी हो यह उल्लेखित नहीं किया ॥ 

अस कह जब बधु बहस बिलापी । धुनी बरन सन हरिहर काँपी ॥ 
बेस निकट पिय कहि  समुझाईं । मोह करत निज दिए दोहाई ॥ 
ऐसा कहते हुवे फिर वह कुछ समय पश्चात अतिशय विलाप करने लगी और शब्द वर्ण भी जब हहर कर कांपने लगे ॥ तब निकट बैठे प्रियतम ने मोह करते हुवे अपनी दुहाई दे कर वधु को समझाया ॥ 

उत पितु कर कीर्ति करतूती । धर्म सील गुन गात बहूती । 
पुर परिजन सव सिबिका बाँधे । करत सवय धरि पुत के काँधे ॥ 
उधर पिता के कृत की कीर्ति कर उनकी धर्मशीलता, और गुणों की अतिशय प्रशंसा करते पुरजन एवं परिजन अर्थी जोड़ने लगे और अंतिम क्रिया के समय के समस्त कृत्य करते हुवे पिता के पार्थिव शरीर को पुत्रों के कन्धों पर रखा ॥ 

राम नाम है साँच, कहत पुत पितु लेइ चरे । 
इत लोचन जल राँच, बिलपत बधु धीर न धरे ॥  
राम नाम सत्य है, पुत्र ऐसा कहते हुवे पिता को लिए चले इधर वधु आँखों को अश्रु धारा में अनुरक्त कर धैर्य हिन् होते हुवे विलाप कर रही थी ॥ 

गुरूवार, २ ८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                               

जगत परिहरि गयउ सुर धामा । रहे रहि जनक जारन कामा ॥ 
जिनके असीस रहि सुख दाइ  । अनरथ कर तिन काल बिलगाइ ॥ 
संसार को त्याग कर पिता स्वर्ग धाम को चले गए । केवल उनके दाहन की क्रिया शेष रह गई ॥ जो जीवन हेतु सुखदायक थे ॥ काल ने अनर्थ करते हुवे उस स्नेहाशीष से पृथक कर दिया ॥ 

कहत बधु आह हे मम पितुरे । नलिन नयन जस सागर उतरे ॥ 
तपन उटाइँ न दुःख गहराई । धीर आपै आप अधिराईं ॥ 
ऐसा कहते हुवे वधु ने आह !भरी और उसके आँखों से जैसे अश्रु का सागर ही उमड़ पड़ा ॥ उसके कष्ट की तो ऊंचाई नहीं थी और दुःख की कोई गहराई नहीं थी ॥ धीरज, वह तो स्वयं ही अधीर हो रहा था ॥ 

तों  पिया सोंह गइ न सँभारी ॥ प्रिया तात हा तात पुकारी ॥ 
बिकल बिलोक ससुर समुझावति । कबहुँक सास छाँति लगावति ॥ 
उस समय प्रियतम से प्रिया सहेजी न गई, वह बार बार अपने पिता को स्मरण करती ॥ उसे ऐसे व्याकुल देख कर कभी श्वशुर सांत्वना देते तो कभी सास हृदय से लगा लेती ॥ 

कही धिय काहु बिलपहिं मम माता । कहत तात सिरु फेरत हाथा ॥ 
रे धिया मातामह तुम्हरे । छाँड़त  प्रान  अरु सुरग सिधरे ।। 
पुत्री ने जब माता को बिलपति देखा तो अपने पिता से प्रश्न किया, मेरी माता बिलाप क्यों कर रही हैं तब उन्होंने उसके सर पर हाथ फेर कर उत्तर दिया ॥ 

खंड खंड हरिदै किये, दरकन भरत बिषाद । 
फिर फिर धीर धरावहीं, पिया करत संबाद ॥ 
प्रिया का ह्रदय खंड खंड हुवा जा रहा था उसके दरक रेखाओं में विषाद भर गया था । प्रियतम बातचीत करते हुवे वारम्वार उसे धैर्य बंधाते ॥ 

शुक्रवार, २ ९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

आन पैठत पितु सव मंदिर । काठ साँठ सन अगरहु चंदिर ॥ 
नदी तीर रचि चिता पौढ़ाए । क्रिया करमन कर दाहन दाए ॥ 
पिता  का मरघटी में प्रवेश करने के पश्चात । अगर-कर्पूर के सह लकड़ियां संजो कर । नदी के तट पर रचाई हुई शव शयनिका पर सुलाया गया ॥ फिर शास्त्र विहित अंत्येष्टि कर्म कर उन्हें अग्नि के अधीन कर दिया ॥ 

पूर्णित क्रिया करम कलापे । हवि दान धूम गगन ब्यापे ॥ 
पाँच भूत जग भयउ सुवाहा । कहत सुता सुत स्वजन आहा ॥ 
अंत्येष्टि क्रिया कलाप पूर्ण होने पर हवं दान का धुंआ गगन में व्याप्त हो गया ॥ पञ्च भुत कि यह मूर्ति स्वाह हो गई । पुत्र-पुत्रियों के सह परिजनों के मुख से शोक सूचकोद्गार व्यक्त होने लगे ॥ 

महि मह जनमें महि माह लीने । महि सहि उपजे महिहि मिलीने ॥ 
महि जनि जननी महतिमहाही । महि के महिमन कहि नहि जाही ॥ 
( आह। हमारे तात ) धरा में ही जन्म लिए, धरा ही में विलीन हो गए । धरणी से उत्पन्न हुवे धरणी में ही सम्मिलित हो गए । यह धरणी जन्म देने वाली माता से भी महान है । इस धरणी का महात्म्य वर्णनातीत है ॥ 

कीन्ह त्रयदस गात बिधाने । द्विज गृह गरुढ़ कथा बखाने ॥ 
बिसुधि पर अनधन धेनु दाने । हेतु पितु चढ़े सुर सोपाने ॥ 
फिर विधि विधान से उनका त्रयोदश गात्र  किया गया । द्विज ने गृह में गरुड़ कथा का आख्यान किया । विशुद्ध होने पर यथायोग्य अन्न धन एवं धेनु आदि का दान किया गया । इस उद्देश्य से कि पिता स्वर्ग की सीडियां चढ़े ॥ 

सब सुख दरसत जगत के, भै परिपूरन काम । 
कुल करतब पूर्नित कर, गवनै पितु सुर धाम ॥  
संसार के समस्त सुख दर्श कर, पूर्णकामी स्वरुप में । कुल के सारे कर्त्तव्य पूर्ण कर फिर पिता स्वर्ग धाम को चले गए ॥ 

शनिवार, ३० नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                             

पुनि सील सरिल सागर सरिसे । जपत श्री रमन रमापति इसे ॥ 
सब गृह जन उर धारत साँती । कल्हार करहिं कहु न को भाँती ॥ 

भारत भूमि झारखन देसू । धन नगरि के दुआरि प्रबेसू ॥ 
बसहीं एक जन घनतम गाँवा । अहहीं झरिया वाके नावाँ ॥ 

निज सिरु धारे जे अवदाने । जोइ अजोजन कार प्रधाने ॥ 
ते बहु परिजन बासहिं तहहीं । धर्म चरन रुचि समरथ रहहीं ॥ 

कार करम किए एक जन धामा । जुग सब तँह तिन सरनइ श्रामा ॥ 
श्राद्ध पख अरु देव पुकारे । द्विज मुख भगवद कथा बिठारे ॥ 

बृंदा बन के बाँकुरे, राधा के प्रिय प्रान । 
मुरइधर मनोहर के, कारत गुन जस गान ॥ 













Friday, November 1, 2013

----- ॥ सोपान पथ १ ॥ -----

एक बार त बाल कठिनाई । लागै कोउ सपन के नाईं ॥ 
दरस प्रगस भए सोच बिमोचन । दारित मन भरे जल लोचन ॥
एक बार तो बालक का कष्ट, ऐसे प्रतीत हुवा जैसे कि वह कोई स्वप्न हो ॥ किन्तु विचार श्रंखला के भंग होने पर जस सब साक्षात देखा तो ह्रदय विदारित हुवा और आँखें जलयुक्त हो गई ॥ 

अजहुँत बय जुग भै नउ मासे । घरे उरस गिनती के साँसे ॥ 
लघुत पदम् सम लघुत पद भुजा । बिरलइ तन मन गहनइ रूजा ॥ 
अभी तो बालक कि अवस्था कुल नौ मास की हुई है । और ह्रदय में गिनती की ही साँसे संचित हुई है ॥ कमल मुकुल के सदृश्य उसके छोटे पाणि और चरण हैं । तन और मन विरल  है और रोग अति अविरल है ॥ 

सकल अंक बर अंकुर जोरे । कौतूहर पर कारत थोरे ॥ 
गहे न बाल पूरनित भावें । देखि जिन्ह पालक सुख पावें ॥ 
उस अंकुर के सारे अंग श्रेष्ठ है अर्थात कहीं रिक्ततता नहीं है ॥ किन्तु वह मोद-विनोद केलि-क्रीड़ा नाम मात्र के ही करता है ॥ और उसकी भाव भंगिमाएं भी पूर्णत:नहीं है कि जिसको देखकर पालक सुख प्राप्त करते हैं ॥ 

पिय चित निसदिन बालक सुमिरै । जीवन धन सन हेतु जुगावै ॥ 
जनि रहि जन्मन जोगन माही । सुरत मन तिन्ह अरु कछु नाहीं ॥ 
प्रियतम का चित्त प्रत्येक दिवस बालक की ही स्मृति लिए जीवन की आधार भूत आवश्यकताएं एकत्र करते ॥ और माता संतति की देखा भाल में ही लगी रही मन में और कुछ भी ध्यान नहीं आता ॥ 

पालक संतति दिए जनम, नित नउ सुखु के आस । 
पर कुकरम काख के सह, कारें तिनके बिहास ॥ 
माता-पिता संतति को जन्म देते ही उसकी नित्य नए सुख की आस में रहते हैं किन्तु पीछे के किए कुकर्म होते कटाक्ष के साथ उन सुखों का परिहास करने से नहीं चूकते ॥ 

शनिवार, ०२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

जेहि जेहि कारज किए राखा । तेहि तेहि तरु फर धरि साखा ॥ 
बोए न बिटप त होहि न छाईं । रहहि तिस जल ब्यर्थ बहाईं ॥ 
मनुष्य अपने जीवन में जो जो कार्य करता है यथार्थ के वृक्ष की शाखाओं में वही फल लगते हैं ॥ यदि विटप ही नहीं बोया तो फिर छाया नहीं मिलेगी, यदि जल व्यर्थ बहा तो प्यास शेष रहेगी ॥ 

बयस बरस बस पूरत राधे । पाए धुनी न पथ पद पयादे ॥ 
मुकहि रहि कछु बोले न चारे । आपै मन माहि किए हुँकारें ॥ 
(इसके ही फलस्वरूप) बालक की आयु एक वर्ष पूर्ण करने को है किन्तु पथ ने अभी तक उसके चरण चिन्हों के ध्वनी को नहीं सूना है ॥ बालक का मुख भी मौन मुद्रा लिए है,  उसमें शब्द प्रवेश नहीं किये हैं वह अपने मन से ही हुंकारे लेता है ॥ 

वाके बयसई इत उत भागे। तनुज अलप तर आसन लागे ॥ 
पालक लिखित बेर न कारे । बालक मन को  अहहैं बिकारे ॥ 
उसके समायु बालक इधर उधर भागने लगे हैं । पर वर-वधु का वह पुत्र, बैठने भर लगा हैं ॥ मात-पिता अब बिना देर किये यह समझ गए कि बालक के मानस में कोई रोग अथवा विकृति है ॥ 

लालन पालन लग बय लाहा । आरत जनि जन करइ न काहा ॥ 
जगत लबध सब केर उपाई । साँस बिहाइ न आस बिहाई ॥ 
रोगी बालक के पालक, संतति के पालन पोषण और उसके स्वास्थ प्राप्त करने हेतु क्या नहीं करते ।  संसार में जो उपाय उपलब्ध हैं  वे सारे उपाय कर  जब तक सांस होती है वे तब तक संतानों कि सुख की आस में रहते हैं ॥ 

बिधि रचित अरु काल बंच, लपट लहे सब कोइ । 
का धनी मन का निर्धन, वाके बस मह होइ ॥ 
जगत नियंता की रचना से और समय कि कुटिलता के लपेटे में सभी कोई आते हैं । क्या धनी और क्या निर्धन, इनके वश में तो सभी हैं ॥ 

सोमवार, ० ४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                               

फिरअ निज गति काल चाका । कोउ हुँते सिध को हुँत बाँका ॥ 
बिलग बिलग जन बिलग कहानी । लेखत लेखनि बहुस बखानी ॥ 
समय का चक्र अपनी गति से घूमता रहा । जो किसे के लिए सीधा तो किसे के लिए कुटिल चलता ॥ अलग-अलग जनों अलग आत्म कहानी है जिसे लेखनी ने लिख लिख कर बहुंत प्रकार से कहा है ॥ 

सत साधन जे जोग जुगावें । तिनके करमन सब सहरावैं ॥ 
संयम पथ चर जो दिए दाईं । तिनके गुन जग जुग लग गाईं ॥ 
सत्य के साधन से जो दहन की व्यवस्था करता है उसके शुभ कर्मों को सभी सहराते है । और जो संयम के पथ पर चलते हुवे उसका नियंत्रित प्रयोग कर दान देता है ऐसे जनों के गुणों को यह संसार युगों तक बखान करता है ॥ 

सृजन सहायक जग जन पोषक । गहस जीवन जदपि धन सोषक ॥ 
बिषय भोग रत काम बिलासे । को जन रह माया के पासे ॥ 
यद्यपि गृहस्थ जीवन धन का शोषक होकर सृष्टि सृजन में सहायक होते हुवे जगत के प्राणियों का पोषण करता है ॥ फिर भी कोई जन होते हैं जो माया के मोह पाश में बांध कर विषय के भोगों में अनुरक्त हो नित्य विलासों की ही कामना करते हैं ॥ 

दंपतहु रही तिन सों जोरे । अधिक नहीं तौ थोरइ थोरे ॥ 
नाम धरे बर माया होही । भरण भरे बहु नाचत मोही ॥ 
दंपत भी उन्ही के जोड़ी मित्र थे । अधिक  नहीं तो थोई थोड़े अवश्य ही थे ॥ माया ने नाम ही ऐसा श्रेष्ठ रखा था भेष भरे नृत्य करती जो  अत्यधिक लुभावनी लगती ॥ 

बिधि रचियाए रूपहि ऐसे । अपहरइँ चित कैसे न कैसे ॥ 
विधि ने उसका रूप ही ऐसा रचा है कि वह किसी भी विधि से चित्त का हरण करने में समर्थ है ॥ 

बिप्रबुध हो सुबुधित हो, चाहे परम प्रबीन । 
माया मोह जाल लिये, कारे सकल अधीन ॥  
चाहे ज्ञानी हो या बुद्धिमान हो या परम प्रवीण क्यों न हों माया अपने मोह का जाल लिए सभी को अधीन कर लेती है ॥ 

मंगलवार, ०५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                        

लागे दंपत भावी जोगन । कछु आप हुँत कछुक बालकन्ह ॥ 
नवल भवन के देवन रोके । मिता चरन मित ब्ययित होके ॥ 
फिर दम्पति अपने भविष्य की योजनाओं में लग गए । कुछ अपने लिए तो कुछ संतति के लिए ॥ (पहले) नए भवन के अंश दान को रोका फिर संयमित दिनचर्या एवं मित व्ययिता बरत कर : -- 

लिए मोल दुहु लघु धामा । रहहि दोउ पहले के दामा ॥ 
सासन बसति सन दूर बनाए । एहि कारन को गाहक न पाए ॥ 
दो छोटे छोटे भवन मोल लिए जो पूर्व में लिए गए भवन की रीत और उस एक भवन के मूल्य में दो थे ॥ यह छोटे भवन वसति से कुछ दूरी पर थे इस कारण से शासन को इसके ग्राहक नहीं मिल रहे थे ( अत: यह दम्पति को सरलता पूर्वक मिल गए)॥ 

अस दिवस एक बैठेइ ठारे । गृहस रहस पिय बचन उचारे ॥ 
जेइ नीति बर कहत अवाईं । बहोरि बधु सन्मुख दुहराईं ॥ 

हस्त सिद्धि घर पोष न पोषे । मम सेउकाइ राम भरोसे ।। 
छुटत काज जदि बिपद  सिरु परहिं । भाटक सह भाल घर त संचरहिं ॥ 
प्राप्त पारश्रमिक घर का पोषण करे ना करे मेरी यह नियोजन नियुक्ति भी स्थायी नहीं है ॥ यदि यह काम छूट गया और कोई वीपा सर ऊपर आ गई तो इन भवनों का भाड़े से घर तो भली प्रकार संचालित रहेगा ॥ 

भान न कोउ समउ के फेरे । बिपदा नउ झट कहुँ लै घेरे ॥ 
अजहुँत भए दुखि पुत लगि रूजा । जाने न कबहुँक आवै दूजा ॥ 
समय के फेर का कुछ पता नहीं है कोई नई विपदा कहीं से आए और घेर ले ॥ अभी तो हैम तनुज के रोग से ही दुखी है । अभी तो जाने और क्या समस्या उत्पन्न हो जाए ॥ 

सुनत बधु पिया के बचन, हाँ मह हाँ मेलाइ । 
सोची यहु पिय जी जान, कैसन करत कमाइ ॥ 
प्रियतम के ऐसे वचन सुनकर वधु केवल हाँ में हाँ मिलाती रही । सोचने लगी यह तो प्रियतम का जी ही जानता है कि कमाई कैसे की जाती है (और घर कैसे चलता है ) ॥ 

बुधवार, ० ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                         

चरन परस किन सों कर जोगे । खावै  कहुँकर डपट अजोगे ॥ 
कह निष्कासन को दिए धोंसे । मनहु सोइ जग पालै पोषें ॥ 
किसी के पैर पड़ो किसी के हाथ जोड़ो, कहीं पर किसी अयोग्य की फटकार खाओ । कोई काम से निष्कासन की धौंस दे रहा है मानो समस्त संसार का पालनहार वही है ॥ 

सिहान बस कहुँ को किए निंदा । धरत दोष परिहर गुन बृंदा ॥ 
तात-भ्रात करतन बनियाई । जान न सेवा जुग के नाईं ॥ 
कहीं पर कोई ईर्ष्या वश गुण समूहों का परित्याग कर केवल दोष ग्रहण करते हुवे कोई निंदा करता है । हमारे पिता और भ्राता का कार्य वाणिज्य करना है वो सेवा नियोजन की कुटिलता को नहीं जानते ( अत:अपनी भेद हे प्रिये तुम किसी से न कहना ) ॥  

देइ दान कर रहसइ निज घर । जोइ कहि न पर कँह तिन नागर ॥ 
कहत पिया सोई सुख पाई । घर के भेदी लंका ढाईं ॥ 
दिये हुवे दान और अपने घर के रहस्य का जो प्रचार नहीं करता वह चतुर कहलाता है ॥ और पीया कहते हैं वही सुखी भी रहता है । अपना भेद देने वाले अपने ही घर का नाश करते हैं (ऐसी कहावत है ) ॥ 

जाए कह कछु मात बहनाहीं । तिन्ह के उदर गाहे नाहीं ॥ 
हमरे घर के सकल कहानी । जाने सब तिनहि की बखानी ॥ 
यदि माता-बहनों को कुछ जाकर कहोगी तो उनका उदार भी कुछ ग्रहण नहीं करता ॥ अपने घर की सारी खानी जो जग जानता है इन्ही की तो बखानी हुई है ॥ 

जोगे का बरताएँ, का धरे रहे का दाए, । 
का कहे का ढकाएँ, रहहि पिया अस लेखी बहु , ॥ 
क्या रखें क्या दान करें क्या संभालें क्या उपयोग करें । क्या कहें क्या न कहें प्रियतम इन विषयों में बहुंत समझदार हैं ॥ 


गुरूवार, ०७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

कहत पिया मुख सुमिरत आगे । सुरति चरन पथ पाछिन भागे ॥ 
कछुकन कथनन बैनइ नैने ॥ कछु कथनन अधरन सन बैने ॥ 
स्मरण करते हुवे प्रियतम आगे आगे कहते जाते और स्मृति के चरण पीछे छूटे पथों पर भागते जाते ॥ कुछ कथन  नयन वर्णित कर रहे थे, और कुछ कथन अधर वर्णन कर रहे थे ॥ 

दुइ अच्छर सुख दुःख के बाते । दुइ बच्छर बिरते दिन राते ॥ 
दुइ टहल दोइ जोग जुगावा ।  दुइ लहल दोइ प्रीत पिरावा ॥ 
दो अक्षर में सुख दुःख की बातें थी । दो अक्षरों में बीते हुवे दिन और रातें थी ॥ दो अक्षरों में सेवा-नियुक्ति की बाते थीं दो अक्षरों में योजन की बाते थीं ॥ दो में उधार तो दो अक्षरों में प्रेम और उसकी पीड़ा की ॥ 

बिहा परत पर भए छह माही । कर अनाथ बधु मात सिधाही ॥  
धरे बिछोहन उर पहिलौठे । भ्रून हतन के दूषन ओटे  ॥ 
परिणय पश्चात छह:मास में ही वधु को अनाथ कर माता स्वर्ग वासी हुईं । फिर ह्रदय पर पहले पुत्र का वियोग का दुःख फिर भ्रूण हत्या के दोष का भार को धारण किया ॥ 

पितु पछ घाते सास ससुराए । तिनके कलह कलि बरनि न जाए ॥ 
भई धिया एक  गह रुप भारी ॥ दूजन ठोटे भव रुज धारी ॥ 
पिताको पक्ष घात का रोग और सास स्वसुर उनकी तो काह क्लेश का वर्णन ही नहीं हो सकता । फिर एक स्वरुप श्री बालिका का जन्म  और फिर दूजा रोगी पुत्र का जन्म ॥ 

कहत दंपत लेख कलप , छह बच्छर के जोग । 
जीवन एक मेला भयो, जामे मिलन बिजोग ॥ 
लगभग छह:वर्षों के अपने वैवाहिक जीवन का लेखा जोखा कर दंपत कहते हैं । यह जीवन एक मेला है जिसमें मिलन के सह वियोग है ॥ 

शुक्रवार, ०८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                      

जनसागर लहि बहु आकर्षन । पद पद दरसन लागे लावन । 
जहाँ सुख कंद सम हिंडोले । जीवन साधन रस के गोले ॥ 
समुद्रवत् विशाल जन समूह बहुंत ही आकर्षण लिए है ।  और देश, राज्य, नगर, ग्राम-भाग और वहाँ के वासी देखने में बहुंत ही सुन्दर लगते हैं ॥ जहां सुख देनेवाले (भाव) हिंडोलों के जैसे हैं और जीवन के साधन सम्पदा रस के गोलों  के जैसे है ॥ 

भोग बिषय के साजहि ठेले । गतागत कीरी सोंह रेले ॥ 
मानख सिंह पख भालु कपिसे । भव बंधन के घारे फनिसे ॥ 
भोग विषय के रेहड़ियां लगी हैं । जीवन-मरण तो जैसे चींटी के पंक्तियों के सरिस आवागमन कर रहा है ॥ मनुष्य, सिंह पक्षी, भालु , बन्दर आदि प्राणी जगत,ही वह चीटियां हैं जो इस सांसारिक चक्र की फांस को अपने कंठ में वरण किये हुवे हैं ॥ 

जो एक बार तर्जन बिहाईं । भयउ दूर बिछुरत बिलगाईं ॥ 
केतक हेरत हेली लगाएँ । बहोरि तिन्हैं मेली न पाएँ ॥ 
इस मेले में जो भी एक बार तर्जनी उँगली चूड़ा लेता है, वह बिछड़कर दूर होका वियोजित हो जाता है ॥ फिर उसे कितना ही ढूंडो, कितनी ही पुकार लो वह वापस नहीं आता ॥ 

रति रानि सिंगार रस राजा । भाव प्रबन समुदाए समाजा ॥ 
प्रानि जाति दुइ नर एक नारी । मानख सबके पालनहारी ॥ 
यहाँ रस राज श्रृंगार ही राजा है और उसका स्थायी भाव रति ही रानी है ॥ यहाँ का समुदाय और समाज उससे भावविभूत है ॥ प्राणियों की प्रथम दो ही जाति हैं एक नर दूजी मादा । और प्राणी जगत का मनुष्य ही पालन हार है ॥ 

ना यह रहे न वह रहे, रह यह रेलम पेल । 
चार दिवस का चाँदना, चार दिवस का खेल ॥ 
न यह रहा न वह रहा केवल यह जन समुद्र ही रह गया । चार दिनों का यह मेला है चार दिनों का ही यहाँ खेलना-खाना है ॥ 

जन्में जगत सब बँधाए, मरनी जगत छुड़ाए । 
धन धाम जे पुर पट्टन,सबहि यहहि रहि जाए ॥  
भाव सिंधु में यह जन्म ही बंधन का कारण है । मृत्यु बंधन से मुक्ति है ? यह धन संपत्ति यह बीथि ये  नगरी ये देस यह सारा संसार (एक दिन) यहीं रह जाता है ॥ 

शनिवार, ०९ नवम्बर, २०१३                                                                                            

अस दंपत परस्पर बतियाए । सोच के गहन सिंधु गहियाए ॥ 
पुनि कलपत बधु गहरइ राता । कहतई कही हमरे सुत गाता ॥ 
इस प्रकार दम्पति पासपर वार्तालाप करते विचारों के गहरे सागर में डूबते चले गए । फिर गहन रात्रि में वधू आह !किये कहती चली गई हमारे पुत्र का शरीर : -- 

लेइ अंक तुम गवनै कहहीं । सयनइ हमरी जननी जहहीं ॥  
लिए चलौ न देखाउब सोईं । पाए पयद ते पावन रोईं ॥ 
जिसे गोद में लिए तुम कहीं गए थे क्या वहाँ जहां हमारी माता सो रही हैं ॥ एक बार मुझे वहाँ ले जा कर उनके दर्शन करा दो वह प्यास और गोद प्राप् करने के लिए रो तो नहीं रहा है ॥ 

तासु रुदन आवइ मम काना । कहि भूखन जनि दौ ना दाना ॥ 
चारि चरन चर घर घर पारे । कंठी कल कूलिनी कगारे । 
उसका क्रंदन मेरे कानों में सुनाई दे रहा है वह कह रहा है हे माता भूख लगी है भोजन दो ना ॥ सुमधुर स्वर निकालती हुई नदी का तट, चार पग चलते हुवे कुछ घर पार करके ही तो है ॥ 

ठाढ़े हम देख़उ एक कूला ॥ दूज मम लल्लन झुरत झूरा ॥ 
कहत लाल भुज दंड पसारे । हे मात मोहि अंतर धारे ॥ 
मैं एक कगार पर खड़े होकर देख रही हूँ, दूजे कगार पर मेरा लाल झूला झूल रहा है ॥ और वह  भुजा प्रलंबित कर कह रहा है, हे माता !मुझे गोद में ले लो ॥ 

निर्झरी नलिन नयन पर, चमके जल की बूँद । 
तलहटी तर घनबर पथ, धारे अधर समूँद ॥  
पहाड़ के सदृश्य स्थिर हो चुकी वधु की आँखों में जल की बुँदे चमक उठी । और तलहटी से उतरते हुवे मुख पथ से होते हुवे, वे बुँदे अधरों के सागर में समा गईं ॥

रविवार, १० नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                          

अरु कहि बधु सोइ भवन निरुजा । धरे अंतर बस चारहि भुजा ॥ 
तँह गत कहऊँ बैद गुहारे । हमरे जनित हमहि हतियारे ॥ 
और वधु कहती है वह औषधालय जो कि केवल चार हाथ की दूरी पर स्थित है ॥ वहाँ चलो वहाँ मैं वैद्य को गुहार लगाकर कहूंगी कि हमारी संतति के हम ही हत्यारे हैं ॥ 

अरु वाके मैं चरन धराऊँ । बिनइत तिन सों पूछ बुझाऊँ ॥ 
सो बालक सह तोतरि बाता । त्राहि मोहि कहि का मम माता ॥ 
और उनके चरण पकड़ कर विनय पूर्वक उनसे पूछूंगी क्या वह बालक जिसकी मैने हत्या की थी, हे माता मेरी रक्षा करो वह तोतली भाषा में ऐसे वचन कह रहा था क्या ॥ 

सीस चरण कर अंगीकारे । हरहराहत का हिय हँकारे ॥ 
तासु प्रान कहु कास बिधि हेरे । पातत तिन तुम कहु कँह केरे ॥ 
क्या उसके शीश और चरण आदि अंग आकारित हो गए थे और उसका हृदय स्पंदित होकर चीत्कार रहा था ॥ फिर उसके प्राण किस प्रकार निकले ।  पतन करने के पश्चात  तुमने उस भ्रूण का क्या किया ॥ 

अधम कुटिल मम मति कुबिचारी । जो ऐसेउ कलुख कृत कारीं ॥ 
कहि बधु मम सम पापि न होई । अस कुकरमन कारे न कोई ॥ 
मेरी बुद्धि उस समय अधम और वक्र हो गई थी जो उसने मेरे हाथों से ऐसा कुकृत्य करवाया  ।। वधु कहती है कि, मेरे समान जग में कोई पापी न होगा ऐसा कुकर्म तो कोई भी न करे ॥ 

कछु अस कहबत बहियर रोवत मनो भावइ बोलहीं । 
बदन अलिंदाधर पट बृंदा धुतत दमकत दोलहीं ॥ 
गहियत रैना बधु के नैना सुभ्रा सलौने साँवरे । 
अपलक ठाढ़े घन रस गाढ़े भरे बिंदुक बावरे ॥ 
कुछ ऐसा कहकर वधु ने भावुक होकर अपने मनो भावों का वर्णन किया । मुख के चबूतरे पर अधरों के द्वार स्वरुप  पल्लव समूह, दमकते, एवं कांपते हुवे हिलने-डुलने लगे ॥गहरी रात्रि में सुन्दर भृकुटि एवं लावण्ययुक्त युक्त श्यामल नयन अपलक होकर स्थिर हो चले उनमें जल गहराने लगा , फिर वे बावरे नैन बिंदुओं से भर गए ॥ 

हरिदै बिकल नयनारुन, छाई अश्रु की धूँद । 
श्रवन बार बहियर बचन, लिए निज नयनन  मूँद ॥ 
व्याकुल ह्रदय एवं अरुण नयन पर अश्रु  की धूँध छा गई  । वधु की बातों को सुनकर वर ने ( दुखित होकर) अपनी आँखें मूँद ली ॥ 

सोमवार, ११ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

पुनि हरिहर बर लिए उछ्बासे । धारे बधु भुजअंतर कासे ॥ 
अधीर हरिदै धीर धराईं । मृदुल बचन सन कही समुझाईं ॥ 
फिर वर धीरे से गहरी साँस लेते हुवे वधु को भुजाओं के अंतर ग्रहण कर उसके अधीर  ह्रदय को धीरज धराते हैं । और मृदुल वचनों के सह यह कहते हुवे समझाया ॥ 

लखन लहे जिन तुहरे लोचन । कहत जगत तिन थरि पितु कानन ॥ 
न कोउ रुदने न बाहु पसारे । होहि बस चित्त भरम तुहारे ॥ 
तुम्हारे लोचन जिसे देखना चाह रहे हैं । संसार भ में उस स्थान को शव मंदिर कहते हैं ॥ वहाँ न तो कोई क्रंदन कर रहा है न ही कोई बाहु पसारे हैं ॥ यह केवल तुम्हारे चित्त का भरम है ॥ 

जे जीवन पथ जी पथचारी । पथ दर्सक नख इंदु तमारी ॥ 
चरत आए तँह बहु सरनाई । पर मरन सोइ सरन बिहाई ॥ 
यह जीवन एक पथ है और यह जीवात्मा एक पथिक हैं । ये चाँद सूर्य तारे पथ प्रदर्शक हैं ॥ इस पथ पर आगमन पर बहुंत से पड़ाव आते हैं  पर जब मृत्यु आती है तो यह अंतिम पड़ाव सिद्ध होता है ॥ 

जो एक बार पैठि तिन आधी । सोइ सदा हुँत लहै समाधी ॥ 
 मरनी पर धर पार्थिव वपुरधर । तँह गवनै बस भुज अंक सिखर ॥ 
इस स्थान पर जिसका एक बार प्रवेश हुवा वह फिर वह यहाँ सदा के लिए समाधिस्थ हो जाता है ॥ मृत्यु के पश्चात पार्थिव शरीर को लिये, यहाँ केवल गोद एवं कंधे ही आते हैं ॥ 

कातर करुणा सोक भर, हिय पर पाथर धार । 
रोवत रोवत रह जाएँ, वाके रोवनहार ॥ 
कातर स्वरुप में करुण होकर अति शोकाकुल हुवे ह्रदय पर फिर पत्थर धारा जाता है । और मरने वाले के प्रियजन केवल रोते ही रहा जाते हैं ॥ 

मंगलवार, १२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                 

जो जे जग जब लग जिउताई । सो बहु जीवन करम बँधाई ॥ 
माया कहुँ छल छाया छाई । पुनि का पातक जानत नाहीं ॥ 
 इस जगत में जो जब तक जीता है तब तक वह बहुंत से जीवन कर्मों के साथ बंधा रहता है ॥ कहीं मोह कारिणी शक्ति तो कहीं यथार्थ को छिपाए हुवे छ कपट की छ्या छाई है ॥ 

अग लग जोइ रीति चली आई । कु चाहे सु जोइ पंथ चराईं ॥ 
रहत माझ कुल कुटुम समुदाए । तिन्ह ते हम सकै ना पराए ॥ 
प्रारम्भ से ही से जो रीतियाँ चली आईं है । चाहे कु हो या सु जिस मार्ग पर चलते आए ॥ कुटुम्बियों एवं समाज के मध्य रहते हम उनका विरोध नहीं कर सकते ॥ 

अखिल बिस्व निज कुटुम पुकारे । पर पीरन मह होहिं दुखारे ॥ 
जन जन जो जन आपनु करईं । सकल बाल निज संतति कहईं ॥ 
जो समस्त विश्व को अपना कहे । पराई पीड़ा में जो दुखित होए । जो कोई सभी जनों को अपना बना ले । और संसार की समस्त संततियों का संरक्षक हो जाएं ॥ 

जनम न हरषएँ मरन न रोवें । तिनके सम कहु को जन होवें ॥ 
जोइ हरिदै सकल हित चाही । सोइ पदक को पावत नाही ॥ 
जो जन्म होने से हर्षित न हों और मृत्यु पर शोक न करे । कहो तो उसके सामान कोई है ॥ जो ह्रदय सभी का हित चाहे उसके स्थान को कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता ॥ 

आप कि पराई जन्मन जिन हूँते एक समान । 
तिन सों नाहि को उपमा, तिन सों नहि उपमान ॥ 
अपना कि पराई संतति, जिनके लिए एक ही समान है । उसके सदृश्य कोई नहीं है न वह किसी के सदृश्य है ॥ 

बुधवार, १३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                 

ऐसेउ दोउ गहनइ राता । करत करत दुःख सुख के बाता ॥ 
पैठि जस सोन सपन दुवारे । निसा सिरानी भयौ भिनुसारे ॥ 
इस प्रकार से दोनों गहरी रात्रि में सुख-दुःख की बातें करते करते स्वपनों की सवर्णों द्वारी में प्रवेश किये निशा का समापन हुवा और भोर हो गई ॥ 

इहाँ मनोहर सुठि साँवर के । सास ससुर ननंद देवर के ॥ 
अगित लगित दुआर लग्नाहे । मोद मुदित पयोधि अवगाहे ।। 
इधर मन को हरण करने वाले सुन्दर श्यामल देवर का,वधु की स्नेही सास,श्वसुर, नन्द, लग्न तिथि के द्वार पर  आ लगने से हर्ष एवं प्रसन्नता के सागर में डूबने लगे ॥   

जुग  परस्पर दोउ बर भाई । बिय भव भावज भई सहाई ॥ 
जोइँ सँजोइ रहि जग जेते । परतस  परि जन दिए हूत जनेते ॥ 
दोनों बड़े भाइयों ने मिलकर, दोनों कुशल भौजाइयों की सहायता लेते हुवे । जग में जितनी वैवाहिक तैयारियाँ होती हैं उतनी तैयार कर फिर परिजनों को बारात का न्योता दिया ॥ 

भरे भरन बहु भवन अटारी । चारु चँवर अम्बर पट घारीं ॥ 
स्याम मनि सोन सँजोगित लरी । लगि कगारी सुन्दर मंजरी ॥ 
भवन खण्डों ने बहुंत से  आभरण भरे सुन्दर झालर वाले द्वारावरण से सुसज्जित हुवे नीलम के सदृश्य स्वर्ण आभा से युक्त लड़ियाँ भवन के कगारों पर लगी सुन्दर मंजरियों सी प्रतीत होती ॥ 

आवत-जावत भवन छबि, लोग बिलोकन लागि । 
रंग संग घुरत सुर रस, बिहाउ राग बिहागि ॥ 
आते -जाते लोग भवन की शोभा को निहारने लगते  । और विवाह के बिहाग राग, वाद्य यंत्रों के संग प्राप्त कर सुर का रस में घुलते जाते ॥ 

बृहस्पतिवार, १४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                          

मध्य दुल्हाति सोह सुहावा । बहिनैं भावज रीति पुरावा ॥ 
तेल चढ़ाएँ बहोरि उतारैं । कलाई लगन कंकन घारैं ॥ 
बहनें और भोजाइयाँ रीतियाँ पूरी कर रही थीं । दुल्हा, बीच में अति सुशोभित हो रहा था ॥ तेल हल्दी चढ़ाई गई फिर उतारा गया । कलाईयाँ लग्न कंकण आभरित हुई ॥ 

पूछैं भावज सकुचत थोरे । कहु तौ छबि कस लागत मोरे ॥ 
सुन्दर सुखद नीकि चकिताई । यह कह भावज मुसुकाई ॥ 
फिर दुल्हे ने अपनी भावजों किंचित संकोच करते हुवे पूछा कहो तो मेरी शोभा केसी दर्श रही है ॥ तब भौजाइयों ने मुस्काते हुवे ऐसा कहा : --  'सुन्दर, सुखकारी, बहुंत अच्छी,विस्मयकारी,॥ 

देखु बिरंचि के बर काजा । एक दिवस के भयउ सब राजा ।। 
धर दुल्हा के भूषन भेसा । रूप कि कुरूप लगे रुपेसा ॥ 
देखो विधाता ने कितना सुन्दर प्रपंच किया है कि एक दिन के लिए सभी पुरुषों को राजा  होने का शौभाग्य प्राप्त होता है ॥ और फिर दुल्हे के वेश भूषा धारण करने से रूपवान हो या कुरूप हो सभी श्री रूप के स्वामी दर्शित होते हैं ॥ 

दरसत मुख छबि तुहरी कैसे । चले बिछावन नारद जैसे ॥ 
एक बार जोइ लेहु निहारी । दिन मलनाएँ रयन उजियारी ॥ 

तेइ समउ चित्र लेख उतारी । भावज बहु बिधि कौतुक कारी ॥ 
ब्यंग समझ उकसत अकुलाए । देउर दसा लिख कहि न जाए ॥ 

हाँस उराई भावज पर, धरे उरस बहु हेत । 
साँझ बरबधु के मस्तक, तेज तिलक मुद देत ॥ 

शुक्रवार, १ ५ नवम्बर, २०१३                                                                                  

चले बिहाउन देउर राजे । बोलएँ बहु बिधि बाजत बाजे ॥ 
झाँझ संख सन बाजि निसाना । साध सुधा सुर रागिन नाना ॥ 

बाजि तुरही किए मधु गायन । बृंद मिलि चले नारि नरायन ॥ 
बाज बहुसह दुंदुभी सुहाए । मानहु बरियातन दिए बधाए ॥ 

करत रीति सब दुआरि ढुकाइ । जँह तँह जुबतिन्ह मंगल गाइँ ॥ 
समधिक सब सादर सनमाने । समधियान समदत अगवाने ॥ 

जो काल रहि रयनि अँधियारी । जन शोभन सन जगमग कारी ॥ 
भेष भूषन किए कलाकारी । सकल सखिन्ह दुलहिन सँवारी ॥ 

सप्त पदिक सन भाँवरन , दंपत जोरे गाँठ । 
जस जस भँवर पँवर परे, तस तस गहनइ आँठ ॥ 

मंजु मुकुलित मंजरित, मंडल मंच बिलास । 
दुल्हा दुल्हन भाँवरे, मंजुल गति कर कास ।।