Tuesday, October 1, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 17 || -----

कहत पिया पुनि लै उछ्बासे । कुंजी धरि कल नवल निवासे ॥ 
गह बसन मन माह ललासे । पर बय़ अस नहि कि जाएं बासे ॥ 

अजहूँत  पानि करम दृढ नाही । का भरोस कब कर छुट जाहीं ॥ 
आगिन कारज करतल देवक । का जन मिलि न को पद सेवक ॥ 

होनिहार जी न जान अब की । न जान कस समउ आन अब की ॥ 
समझ बूझ बहु सोच बिचारू । मति पुर्बक तुम गह संचारू ॥ 

कहि बधू प्रभु तुम अंतर जामी । हम तव सेवक तुम्ह भए स्वामी ॥ 
पूरत आयसु जस तुम दिन्हा । चरन चरहि तुहरे पद चिन्हा ॥ 

तेहि बेर बर बधु संवादे  । अस जस को मुनि दम्पत वादें ॥ 
ज्ञान मई गम जोगित बानी । जोगित गुन सुभ लखन निधानी ॥ 

जिन गृह श्री मद हिन् रहे, रहे बहुस प्रद कार । 
तिन गृह श्री जुग बर लहे, निसदिन करत बिहार ।।  

बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                 

बहुरि भवन भरु किए बिनु देरी । भाटक देवन निरनइ केरी ॥ 
कहि भवन भाट रासि उगाहीं । गृह चारन ते होहि सहाहीं ॥ 

भवन भूयसह भबिल भबीला । तिन कर्षन जस कासित कीला ॥ 
भवन नयन जब लगे निहारे । दरसत चौंक चौंक चौबारे ॥ 

आए भवन के लेवनहारे । भूरिहि बहुसह दरस दुआरे ॥ 
आँगे बाँगे बन बहुरूपिये । करखन करून धन दिये न दिये ॥ 

जोगत जिखत आए एक सजन । पठ पाठन के सुठि कार करन ॥ 
तिनके सुभकर भवनन देई । मह्बर करक करषीनि लेई॥  

जोग करत भवन निज पत, लोचन पंथ लगाए । 
अवाइ पराइ ए श्रवनत, मलिन प्रभा मुख छाए ॥ 

गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                    

निज स्वामि सेवा अभिलाखे । भाउ भवन मन ही मन राखे ॥ 
ललसत पत पद पदुम परागा । बसित बसथ सथ बसति बिरागा ॥ 

भवन सुता सुठि बसन दसाई । केर नयन पट पलक निचाई ॥ 
सोचि अजहूँ लगि चौंक सगाहीं। जाने कब पितु लगन लगाही ॥

दुचंदु दिन जब चौंक न दरसे । लखन कखन सों दरसन तरसे ॥ 
बहुरि एक दिवस पलक उघारी । भाउ प्रबन पुर चौंक निहारी ॥ 

अदरस कारन पूछ बुझाईं । कखन बयस पल कह समुझाई ॥ 
भए बहु भाउक चौंक कथनाए । तव दरसन बिनु भव कछु न भाए ॥ 

छन भर कख प्रिय संगमन, नयन निवेदन दाए । 
पुनर मिलन के ले बचन, दूइ प्रनई बिलगाए ॥  

शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

मात-भ्रात पितु रहि नहि भाना । लवन नउ भवन दिए नहि काना ॥ 
कारन तिन मन भरि भीरुताइ । लेव न दइ भूमि हिन् भवनाइ ॥ 

लेवन गृह तिन परतइ काना । दरसत प्रबचन देवति नाना ॥ 
भइ केवल गह तीन कोठ खन । कहूँ बैठन न एकहु सुठि आँगन ॥ 

कहते चलन ए दरसे कहि ना । देहरि द्वार भू भित धरि ना ॥ 
तेइ बय कह तिन्ह समुझाना । बहस कठिन रहि कहत बुझाना ॥ 

नगर बीच बट धरनी धराए । एहि हूँते भवन भूहिन सुहाए ॥ 
बाट बीच भू मूलइ लैने  । बचे न अजहूँत को कर ठेने ॥ 

जे रही ते बहु मोल धराईं । ता पर लगि धन भवन बनाई ॥ 

सोचि करन चरन प्रबेस, अजहूँत भइ बहु बेर । 
तब लग कान देइ देहि,  तिन मन हेरन फेर ॥ 

शनिवार,०५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                           

एहि भाँति बधू जीवन साथे । धारइ निज कर करतल नाथे ॥ 
प्रीत पूरित तनि दिवस बिताइ । सूरत धरत पिय जगत परिहाइ ॥ 

उत बिरंचक छन छन चुन के । जोगत जुगबन दिन दिन बुनके ॥ 
सकल काल सुठि माल पिरोईं  । बरस कोष के भाल सँजोईं ॥ 

फिरत थिरत थर गृह बन ठोटी । मृदुल मुकुल मइ लवनइ होंटी ॥ 
कभु तात कभु मात कह हांक़ी । दिसत दिसत दुइ बरख नहाकी ॥ 

भोजन रस तन सारत सोषी । मनु कुमुदनि रस कौमुदि पोषी ॥ 
काइ कलेबर कोमलि कूटे । निभ नलिनी नउ पल्लउ फ़ूटे ॥ 

केस कुंडल कलिक अलिक,अलक पलक बल बृंद । 
लालनी लख लखे ललित, अंजन सार अलिंद ।।   

रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                        

काल गति सन सकल जन लोले । जड़ चेतन का धरनिहू रोले ॥ 
धिय तातहु बए भै पैतीसा । मातहु बए भइ भीरइ तीसा ॥ 

धिय अब लग सुठि नाउ न धारी । मनिया मुनिया कहत पुकारीं ॥ 
लवन नयन अरु राग कपोले । नाम करन कर आपएँ बोले ॥ 

धुलइ बदन जिमि धवालित धूपा । लालनी लबनइ लखि सरूपा ॥ 
माता गुनि तिन लाख अनुरुपा ।  सोच बिचार अनेक अनूपा ।।  

कनिक मानिक पोषन करि जोई । धरिअ नाम धिय कृषि अस होई ॥ 
धरत तिन बदन तात दुलारइ । कहत लालनइ बारहि बारइ ॥ 

अब अंगजा मुद पितु सन, बिहरन बाहन बाह । 
नाना रस चपल चितबन, खावन केरइ लाह ॥ 

सोमवार , ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

अरु बहियर बहोरि एक बारे । गर्भ धानि एक जीवन धारे ॥ 
मधुर मास सुधि पाख बिहानइ । पर दम्पत जेठे लग जानइ ॥ 

धियहु सवा दू बरख अहनाई । सुभ गुन लखन सकल समराई ॥ 
धुनी दूइ चंदू चरन उचेरे । पठन पठावन चिंतन घेरे ॥ 

पीठ भवन लगि पालक हेरे । पुनि किए भरती एक बर डेरे ॥ 
मात तात तब हटउ पठोई । लवन पेट पठि जोइ सँजोई ॥ 

एक तो बालक फिर मुख भोरे । तापर कंधर धर लघु झोरे ॥ 
चरन त्रान तन सुठि गनबेषा । लगि अति लावन धिय तिन भेषा ॥ 

सिस सूत सिखाकन शेखर बंधन गुंफन घन घन घारी । 
लेपित अलि अंजन, अरुनइ लोचन, केसिनि किलक निहारी ॥ 
कह जोटन जुगबन दिए जल भोजन, जोजित बहि बैठारी ॥ 
केर बाला बिदाई, हस्त फिराई, माता भइ बलिहारी ॥  
  
पलकन पथरावत धिय के आवत जोगत रहि डहारी । 
प्रिय धिय जब आई भर अँकबाई कहि आ राज दुलारी ॥ 
ममतै सिरु रोरी पूछी हो री कहु त उहाँ तुम लिखि का । 
तब बूझत डोरी, तोतरि बोरी, जे लिखबाई सिखिका ॥ 

श्रवनत तिन्ह उतरु माइ, मन ही मन मुसुकाइ । 
तात गहि गोद रतियाइ, अच्छर लेख दिखाइ ॥   

मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

उत पिय पुनि पुट माया मोही । कहत प्रिया कहु अब का होही ।। 
का तुमकौ कछु दरसत चिन्हे । पिय बूझ प्रिया उतरु न दिन्हे ॥ 

अगहु समउ सुध दृग फुरबारी । सोष ओस पत ढारि दुआरी ॥ 
उठि मुख उपबन दहन दवारी । बरख बुझाइ नयन जल बारी ॥ 

बदन भवन तरु लावन लाखा । दहर दहर भै कलुखित राखा ॥ 
पलक पवन जे सपन बिहंगे । बालक सन बन बरनन रंगे ॥ 

अवतर चितछत छतर छितराए । एक रंग आए एक रंग जाए ॥ 
भई भयाकुल सोहहि होही । जे भए पहिले होहहि सोई ॥ 

माई ममता कर धरे, गवनइ हरिदे पास । 
हरिदे तर्क बितर्क किए, मतिहि न्याय निवास ॥  

बुधवार, ०९ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                   

प्रियजन परिजन बिरुध समाजा । तिन्ह सन जितन भा बड़ काजा ॥ 
सुमत कुमत दोनौ किए आँठी । रीति-नीति मति दिए गाँठी ॥ 

संतति बिनु जी साठन नाठे । सुत हिनू जीवन आँट न आँठे ॥
कहत बचन एहि ते प्रिय लोगे । प्रदर्सन भवन दरसन जोगे ॥ 

बिहा पर नउ जीवनारम्भे । दू चंद बरख बिरधन अवलंबे ॥ 
जिन डगरी ते चारत आईं । तेइ सका कुल कुटुम चराईं ॥ 

को कुरीत जदि को बिरुधाई । तो मानौ दिए छेड़ लराई ॥ 
अनुचित मति मत कुटुम समुदाए । कहाबत समुझत हरि हरि बिहाए ।। 

रीति नीति जे जोग बनाई । बिरुदाबली कहत चलि आई । 
परमा मति मत हरत बुराई । अनुसर तिन जग होहि भलाई ॥ 

पुरखे पुरनइ जन रहत, अनुभव बोधि निधान । 
हमरे सों तिन्ह के दृग, दरसे जग अधिकान ॥  

गुरूवार, १० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                         

तनि पुर प्रिय जन बल दामा । बहुरि बधुटि तनि निज मन कामा ॥ 
बार बार जब प्रिय बल देईं । गर्भन परखन निराने लेईं ॥ 

परखन भ्रूनन बैद भवन गत । बधु निज लाखन कोसत निन्दत ॥ 
मन ही मन मति मंथत रोई । का मोरे हथ एक अरु हत होई ॥ 

केर बैद पुनि भ्रूण परीखा । दिसि अनुरेखन रेख सरीखा ॥ 
न जान का तिन निरखन किन्ही । कहत लिखत कछू लरिकन चिन्ही ॥ 

इत बधु भय हत कसकत साँसे । कम्पत हिय लइ एक उछ्बासे ॥ 
दरस मुदित पिय नयन अटारी । दोष भाग बन पलकन ढारी ॥ 

एक परखन किए पपर अपरापन । एक परखन किए पुनि अपराधन ॥ 
एक अपराहन पुतएँ अपूरन । एक अपराहन पतइ अपूतन ॥ 

जाम घोष घोषित करे, बजे साँझ के पाँच। 
इत बधु एक अरु भ्रून के, करन हतन गइ बाँच ॥  

शुक्रवार, ११ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                            

हर्ष नन्द बर घर बहुराईं । बधु मुख ब्यंग बान चराई ॥ 
कहि लो किए तुम अंगज रचना । कहु न कछुकन मनोहर बचना ॥ 

हमरे श्री मुख मधुरित धूरी । लय बढ़ गायां लावन लूरी ॥ 
दे गूँज मधुर रुर सुर बारी । तव कन करुखन लागत गारी ॥ 

जे तौ कहु तुम निज समुझएँ का । गरूइ गवइ गुरु कंठ कलइ का ॥ 
कहि बधु सों पिय तनि दौ काना । सुनु तव प्रियतम के गुन गाना ॥ 

करक धुनी रुनि राग रसाला । हमरे थापर धारी तिन ताला ॥ 
करत ओह बधू कर धर माथे । फिर किन कह बरछी सर भाथे ॥ 

कहत पिया ए साँच बचन, करत कुटिल कटि काख । 
भा जयन बहुस कठिन कर, जे नारि सोंह भाख ॥  

शनि/रवि, १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                

हँसत ठठहात भइ गंभीरे । छन मह बधु घनबर घन घीरे ॥ 
कहि बधु अब बस भा अधिकाई । कहहु न अज सों जनित जनाईं ॥ 

मनु के पूरन काम न होई । जिउते लग रहि कोइ न कोई ॥ 
पहिले जनो बहोरी पालौ । चित चिंतन कर देखो भालौ ॥ 

सोचु करु कब धुनी उच्चरहीँ । चारु चरन कब धरनी चरहीं ॥ 
चढ़ मति अम्बर पुनि मत गाढ़ी । हमरे लइकन कबहुँक बाढ़ी ॥ 

बाड़ बढ़े नउ लालस लाही । को सुभ बेला लगन लगाहीं ॥ 
बिहाउ परे मुख दरस लुभाहहि । जनि जनिमन कब जनित जनाहहि ॥ 

तिन्हहिं कहत भाव बंधन, तिन काह दहुँ भउ चाक । 
फेर फिरत जोनि जीवत जिउ चौरासी लाक ॥ 

सुत बर दान प्रभु सुनि बिनइते  । एहि कर पिया भा प्रसन्नचिते ॥ 
दंपत जीवन जासु अभावा । गर्भ धान पद पूरन पावा ॥ 

पर जब गए सुत दूइ सुरताही । मन दर्पन तिन मुख छबि छाई ॥ 
ते हिन् दम्पत तरपत कैसे । बछर बिना गौ तिलछत जैसे ॥ 

सों सुत सौंमुख जिउते रहते । अरु के जे मन लाह न लहते ॥ 
चरत कुपथ धर दोशित चारन । तनय लाह मह केरि भ्रून्हन ॥ 

को कर बिधि जे बयस रचाई । जानन मन के बंचकताई ॥ 
काल सकल जी बाँधत धारी । नहि त तिन्ह को पूछन हारी ॥ 

बयस महा रचना कार, काल महा बलिआर । 
का भगत जन का भगवन, तिन सों गए सब हार ॥ 

सोमवार, १४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                    

जब दम्पत बिनु आगिन बाढ़े । दरसे पाछिन एक छनु ठाढ़े ॥ 
सुख दुःख सों दूइ रंग समेटे । बीते पलछिन पूरत भेंटे ॥ 

छाँड़ लाए का खोए का पाए । का बिसराए धन का सुरताए ॥ 
का बिगराए अरु का रच आए । गुना भाग कर जोरे घटाए ॥ 

दिवस जाम जब पहर बिलोके ।  आगिन पाछिन मापत जोखे ॥ 
पाछिन जीवन लेइ लघुताए  । अगहुन अगोरत पंथ लमाए ॥  

जथारथ  समउ दरसन गोचर । पाए दम्पत तिन्ह तनि सुखकर ॥ 
सकल सुभ फल देइ गोसाईं । धन सम्पद संतति सब नाईं ॥ 

गुना भाग फल दरसाए, कतहूँ परब कहूँ सोक । 
कतहूँ कोत सुख अधिकाए, कतहूँ दिसित दुःख लोक ॥ 

मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

बहोरि आगिन चरन बढाई । बनत बधुटि पिय के परछाई ॥ 
जस जस चरनिहि चरनी चिन्हें । तस तस गर्भहु बढ़तइ लिन्हे ॥ 

कालहु करमन कृति सब रीते । रितु रुप अंतर कलित सुधीते ॥ 
एक दिन धियाहू अंतर कारी । केलि कल ले एक कोत  डारी ॥ 

माई बूझी काहू रि काहू । बोली मधुर अब हमहू बिहाहू ॥ 
होइ बड़ि बात यह मुख छोटे । कहत मात हठ धरि भू लोटे ॥ 

कहु को सन जनि भर अँकबारी । पूछी राम सम कि गिरिधारी ॥ 
लाज लवन लहि बदन सकुचाहि । कहि मृदुलइ ए मम तात बताहि ॥ 

भुज कंठन घारी भाग दुआरी पितु जब साँझ अवाई । 
कहि माई मारी कथना कारी निकसत बदन रुराई ॥ 
कर कुतिलक भोंही माता सोंही फ़ुरावत मुख फिराई । 
श्रुत मधुरित भासा भाव प्रकासा पिय दरसत मुसुकाईं ॥ 

लघुकर लोचन बिलोकत ललनी पितु मुख हास । 
करि क्रंद हिचकी बाँधत, घरि घरि लै उछ्बास ॥ 







  















  








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