Wednesday, October 16, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 18 || -----

पलक भवन खन घन अँधकारी  । बरखत रितु हिन् धारिन बारी ॥
जनक सीकर कलस कर जोरे । कासि कसत बाँधइ एक डोरे ॥
पलकों के भवन खण्डों में घना अन्धकार छाया हुवा था । और बिना चौमासे  के ही वर्षा धारा प्रवाह स्वरुप में वर्ष रही थी ॥ पितु ने उसकी बूंदों को हथेली में संचित करते हुवे, मुठिका में कस कर उसे एक डोरी से बाँध दिया ॥ 

अस दरसत धिय लइ अरु सुबुकी । लकत नयन कन लेइ डूबकी ॥
कहि कछु दिन पर भाइ जग आहि । एहि हूँते तुम्ह मोहि बिसराहि ॥
ऐसा दर्शकर बिटिया और अधिक सुबकी लेने लगी अलक्तक नेत्रों से बहते अश्रुजल में डुबकियां लेने लेते हुवे बोली -- कुछ दिवस पश्चात भैया इस संसार में आ जाएंगे इस हेतु आप मेरी अवहेलना कर रहे हो || 

पेम सनेह पयस मह पागी । बोले पितु बानी अनुरागी ॥
दोनउ जन्में जब एक अंगे । मान हठी कल केलएँ संगे ।।
प्रेम व् स्नेह रस में अनुरक्त अनुराग पूरित वाणी से पितु  बोले - जब दोनों का जन्म एक ही देह से हुवा हो तब हठ 
एके जनक जब एकेइ जाई । काहु तव मन भेद मति आई ॥
भ्रात सों तुम्ह अति मन भाईं। कारन तुम धन भई पराई ॥

तात बाल तनुजा ए सोंह, बुझात कह समुझाइ । 
सोन मुख हंसक हँसोंह, धिय सुहासिनि कहाइ ॥  

गुरूवार, १७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

अतिसय सुख पावत एहि भाँती । रतिरत रीते कछू दिनु राती ॥ 
दिन मुख उदइत रबि मुख भाला । सँजोइ धिय बधु पठोइँ साला ॥  

उत नवल भवन भाटक साईँ । छाँड़ि पुरब भवँ नौनित आईं ॥ 
सकल भाट जे कर सिध लेईं । नव मंदिर के लागा देईं ॥ 

इत धिय निसदिन केर पढ़ाईं । लिपि करमन बध ज्ञान बढ़ाईं ॥ 
भइ दछ ले चित दीछित पाठा ।  लिख लिख आखर आठ न आठा ॥ 

मात पिता गुरु जे सिख दिन्ही । केर कृपा कर जोगत लिन्ही ॥ 
उठाइ देह अलप कर डोली । हिरन नयन मुख मिट्ठू बोली ।।  

अब दंपत उद्यत कटि बाँधे । धारन गरू नउ जीवन काँधे ॥ 
साज समाजत जोइ सँजोई । दोउ जात जनमन पथ जोई ॥ 

अजहुँत दंपत प्रसुत के अनुभव थोर न होइ । 
ए कारन रहि प्रिय परिजन,छंटन हिन् तिन सोइ ॥ 

शुक्रवार, १८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                              

जगमग जरत जगत उजियारी । हस्त मुकुल मंजुल मनियारी ॥  
रज रथ पथ जल कन बरखाती । बहोरि अवाइ एक हिमराती ॥  

चक चकइ तिन्ह चितबत दरसे । करस परस रोमावलि हरसे ॥ 
सोए सकल जन निरवन जोईं । उत बधू गर्भ रवकन होई ॥ 

बिते प्रसूत समउ सों नाईं । मनहु आपनु आप दुहराईं ॥ 
बहि रितु सीतर भीतर जारे । रयनहि रय भय पीर पहारे ॥ 

प्रतन प्रसव पिय गवने जँहहीं । जेहि बारहु पयानै तँहहीं ॥ 
कहि बैदु तहाँ तनि पथ जोगू । अजहुँ प्रसव न बयस संजोगू ॥ 

नौ मास दिनु दुइ चंदु चाढ़े ।  सूल सलग सांती लग ठाढ़ें ॥ 

भरे बिहान के गवने, चढ़े केतु कर सीस । 
पीर ऊपर पीर पड़े, बढ़े बधू के टीस ॥  

शनिवार, १९ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

धरि गर्भोपर सूल असहाहि । औरु थमान के बयस रहि नाहि ॥ 
बैदु जोग लगि निरिखन कारे । लै गवने पुनि प्रसव दुआरे ॥ 

पहिलै पहर घरी दुइ छन में । नउ जात जगत रोदित जनमें ॥ 
बैदु सहाइक अँकबर सेजे । तात मह मात गोदि सहेजे ॥ 

दरसत मुख छबि बाल मयंके । जननि जनक मह पितु लिए अंके ॥ 
बदन मनोहर मीर मयूखा । मनहु रयन रइ पत प्रत्यूखा ॥ 

नील सरोरुह निटिल नयंगे । मीर मौलि मुख मेलि तरंगे ॥ 
मंजुल तन के मोहकताई । गहन धन्बन घटा घन छाई ॥ 

लाल ललाम स्याम सुहावन । ललकित लोचन अति मन भावन ।। 
जनमत पाए भगिनी कर सीसा ।  महा जनिक पितु देइ असीसा ॥ 

चारी फर लाग सुहाए, दम्पत के तरु साक । 
दोइ धरे दोइ सिराए, एक काचा एक पाक ॥ 

रवि/सोम  २०/१  अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                       

सुखद काल सुभ घरी जन्माए । ध्वजा दिवस सिसु चरण धराए । 
निरुज भवन जे प्रियजन जूरे । केरि सकल पितु बदन मधूरे ॥ 

बद्धपरब सब देइ बधाबन । अंगजवान भए अंगाजावन ॥ 
हरष पिय बड़ चरन सिरु नाई । सोंह बयस कर कंठ लगाईं ॥ 

ढार चार दिन निरुज निबासे । बहुरि बहुरि सिसु सन निज बासे ॥ 
चहुँतसहुँ मदन परब घन छाए । गुंजत कहत नउ जात अवाइ॥ 

छठ दिन लालन के छ्ठी आइ । बहु बिधि बादन बाजे बधाइ ॥ 
जागिन लागिन रागिन रंगे । करहि गान बहु तान तरंगे ॥ 

मृदु पल प्रसून पालन घारी । कबहुँक को कभु को हरुबारी ॥ 
बिरध श्रीकर सुमन बरखावहिं । बाल मुकुन के अस्तुति गावहिं ॥ 

रागि संग सुर भामिनी, कल नाद किये गूँज  । 
जेसे मधु स्वर मधुकर, मञ्जुल मन्जरि पूँज ॥ 

अधराविन्दम् वदनारवींदम् । हस्तारविन्दम चर्णार्विन्दं  । 
हृदयार्विंदे नयनार्विंदो । रोमावली श्यामल वर्णं ॥ 
जिसके अधर अलि वल्लभ के सदृश्य हैं, और मुख नीरज के सदृश्य हैं, जिसके चरणों -पाणि, पंकज और श्री कर के सदृश्य हैं जिसका ह्रदय नलिन के सदृश्य है जिसके नयन हरि नेत्र  के सदृश्य हैं उसकी रोमावली श्याम वर्ण की है ॥ 

पयसार्विंदे कंजार्विंदे । रसिकार्विंदे रसितार्विंदे । 
उदरार्विंदे जठरार्विंदं। भरितावली सुपोटल भरणं ॥ 
जिसका पीयूष पुण्डरीक के सदृश्य है, वह अमृत अरविन्द के सदृश्य है, जिसकी जिह्वा राजीव के सदृश्य हैं और पीयूष की टपकती बूंदे जलज के सदृश्य हैं, पोषिता स्वरुप नव अन्न उदर में भी प्रकार से शिशु का पोषण कर रहा है  ॥ 

रूपारविन्दम रुदनार्विंदं। स्वरार्विंदं मधुरार्विंदं ॥ 
कंठार्विंदं गंडार्विंदं । मालावली खमंडल वलयं ॥ 
जिसका स्वरुप उत्पल के सदृश्य है, उसका क्रंदन भी सरसिज के सदृश्य है,क्रंदन के स्वर सरोज  के सदृश्य है, उसकी मधुरता अम्बुज के सदृश्य है, जिसका कंठ अंभोज के सदृश्य है कंठ चिन्ह सरसीरुह के सदृश्य है, कंठ से लिपटी माला में सौर्य मंडल पंक्ति बद्ध है ॥ 

कनकार्विंदं कणिकार्विंदं । हंसार्विंदं मुक्तार्विंदे । 
गुंजार्विंद: पुंजार्विंद । रसनावली सुमेखल वलितं ॥ 
स्वर्ण अरविन्द के सदृश्य है स्वर्ण कण अरविन्द के सदृश्य है रजत अरविन्द के सदृश्य है रजत युक्त मुक्तिक अरविन्द के सदृश्य है मोतियों का समूह अरविन्द समूह के सदृश्य है और राशि अरविन्द की ही राशि हैं ।। जो ओरियों से सुन्दर करधनी में वलयित है ॥ 

भालारविन्दम लक्षणारविन्दम। ललितार्विन्दं लग्नार्विंदं ।  
तिलकारविन्दम तेजोर्विंदं । अक्षतावली अखिलखल अक्षितं ॥  
मस्तक दृषोपम के सदृश्य है, मस्तक के लक्षण चिन्ह दृशाकांक्ष्य के सदृश्य हैं तिलक रविप्रिय् है के सदृश्य है, तिलक तेज रवि बन्धु के समान है उसके ऊपर् के अक्षत पंक्तियाँ सम्पूर्ण भूमि में अनश्वर है  ॥

शीशारविन्दम शिखारविन्दम । असितार्विन्दं लसितार्विन्दं ।   
कृतकार्विन्दं करजार्विदं  । केशावली सुकुंडल कलितं ॥ 
शीश-शिखर  वनरुह के सदृश्य है,  कालिमा भी अरविन्द के सरिश्य है कालिमा की चमक अरविन्द के सदृश्य है जिसकी रचना अरविन्द के सदृश्य उँगलियों से की गई है केश की ऐसी पंक्तियाँ सुन्दर सवरूप  कुंडलिका ग्रहण किये हुवे है ॥ 

वेशार्विन्दं  श्रीलार्विदं | सुधितार्विन्दं वसितार्विन्दं |
दोलार्विन्दे चटुलार्विन्दं | पंचावली पल्लवल् पलितं || 
वेश भी अरविन्द के सदृश्य है वेश की शोभा अरविन्द से युक्त है और वह अरविन्द के जैसे ही रचा एवं पहनाया गया है । झूला भी अरविन्द के सदृश्य है उस पर चंचल अरविन्द के सदृश्य बालक को सुन्दर पलकों की सुन्दर पंक्तियों में वृद्ध जन रखे हैं ॥ 

गीतार्विन्दं अयनार्विन्दं | गीरार्विन्दे वंशार्विन्दे  || 
छंदार्विन्दं बंधार्विंदे | विरदावली वयुनकल वृन्दं || 
जिसके गीत श्रीपुष्प के समान हैं, वीणादि साधन सहस्त्रार के सदृश्य हैं  और वाणी कुशेशय के सदृश्य है और बाँसुरी इंदिवर के समान है ॥ जिसके छंद पद्म के सदृश्य है, उसका बंध पुष्कर के सदृश्य हैं, गुण कीर्तन कि पंक्तियाँ सुहावनी रीति से कोरस अर्थात समूह गान में आबद्ध हैं ॥ 

ऐसेउ बाल मुकुन के अंक अंक कल वृंद । 
अलंकरन कर रूपिने सकल सरुप अरविन्द ॥ 
इस प्रकार बाल मुकुंद कि समस्त सुन्दर देह और देह के समस्त चिन्ह-समूह (दोला, वस्त्राभूषणादि ) अलंकरन करते हुवे उसे अरविन्द के सवरूप में रूपांतरित किया गया ॥ 

लघु उपबन लघु लघु फुर लाखे  ।  लघु पत पादप लघुकर साखे ॥ 
लघुत गगन लघु लघु घन छाई । दुइ छन लघु लघु कन बरखाईं ॥ 

लघुत भवन उत्सव लघुताईं। लघु बालक लघु पालउ पाईं ॥  
लघुत पुंज सुर लघुत लगाईं । बहुत भामिनी गात सुहाईं ॥ 

लघुत काल पर दिन सुभ मंगल । लिखी लघुत पत द्विज लघु पल ॥ 
रीति कुल कर कूप कल पूजन । सीस कलस धर चक जल वंदन ॥ 

पूजै जस जनि तात भ्रात बर । जे जा बिथुरै बितै समउ पर ॥ 
आभरे भवन स्याम मनि सर । चौंक चौं पुर चारु चाँवर ॥ 

सौंहहि गृह बन पात सुमन फर । मंडित मंडप मंजुल भू तल ॥ 
प्रिय पुर प्रियजन ग्रहण निमंत्रण । चारु चरन चार करत आगमन ॥ 

आगत स्वागत तोरन, किए जन बिरध सुहास । 
तिनके सुख श्री बास सन, बासत सकल निबास ॥  

मंगलवार, २२ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

पितु भावज सह भ्रात पधारे । बनउन बालकिन्ह कर धारे ॥ 
अगउने सास ससुर समदाए । तिनके समदन बरनत न जाए ॥ 

लाए सँजो नाना उपहारे । हंस हिरन हरिमनि सिंगारे ॥ 
कंकन किंकनि नूपुर नौघर । मुख मधु बँसरी किसन बसन धर ॥ 

बाजि दुंदुभि बादन बृंदे । पाहुन भरि खान भवन अलिंदे ॥ 
चले सकल घरी सुभ मंगल । बिबिध बिधि बन पूजन कूप कल ॥ 

किए प्रबंधन बर जथा जोजन । स्वरुचित कर सकल रस भोजन ॥ 
भाव बहुँत पर सोभा थोरी । चाव बहुँ कर होड़ा होड़ी ॥ 

भूषण बसन धन जोग निधाने । सास ननद बधु दिए सनमाने ॥ 
पाए बयस बहु सूत बिआनी । कहत बचन कर असीस दानी ॥ 

दिवस सहित रजनी भोग, सहित रसित जल पान । 
बालक परब चरन जोग, चढ़ अंतिम सोपान ॥ 

बुधवार, २३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                    

आगत समद चले निज बासू । गहन असन जल पान सुपासू ॥ 
बाल परब की भइ सुभ रासी । सकल कार निपटै भल भाँती ॥ 

हॉट परब का समुझइ नाहीं । बाल मांस पर बहस उछाहीं ॥ 
फिरि बन मंडप खावत खेरी । बाल कनीका बेलन्हि घेरी ॥ 

पूछी जनि सन जे जन आहीं । का ए बालक तिन्ह सन जाहीं ॥ 
कहत जेहि सब अनुज पुकारे । तेहि भवन मह कँह त पधारे ॥ 

माइ बुझात बिहँस पुचकारी । तँह सन जँह सन तुम्ह पधारी ॥ 
अब जे रहहि तुम्हरे संगे । चरहि बढ़हि पढ़ि तवहि प्रसंगे ॥ 

माई बचन श्रवण सुरत, करत बहुस अनुराग । 
पाए हिलोरे धिय गाए, रस मस राग बिहाग ॥

गुरूवार, २४ अक्टूबर, २ ० १ ३                                                                                      

ते सरदा रितु रहि बहु सीतर । सरजु तरंगित अरु सिसु हरुबर ॥ 
ढक रल्लक तिन करत सिकाई । जस तस कर रितु  लेइ बिदाई ॥ 

एही बिधि बहुस प्रकार सँभारी । जोग निरख बहु पालक पारीं ॥ 
चारि मॉस तनि काया धराए । कमल कांत कोमल मुख छाए ॥ 

पुनि एक दिन बधु बालक काखी । बिचित्र चरित्र मुख मुदरा लाखी ॥ 
जोए दसा मुख रहि लव लेसे । सोए बाल पुनि मूँद निमेसे ॥ 

मान भरम बधु सुरति न सोई । अहोरि-बहोरि जे बत होई ॥ 
अब लग बालक मात रस पाए । बाहिर असन कछु मुख न लगाए ॥ 

पठन पठाबएँ पाहिलै, तब दुज जन्में जोएँ । 
दंपत चरित दिए संदेस, बाल भले एकु दोए ॥ 

शुक्रवार, २५ अक्तूबर, २० १ ३                                                                                       

अजहुँ भए दुइ बछर पितु माई । जगत जाल समुझत सुरझाईं ॥ 
गृह के चाक चरइँ भल भाँती । कभु सहूँ सांत कबहु असांती ॥ 

बासि नगरहिं बसित संबंधी । जिनके सनेह दंपत निबँधी ॥
कबहु कोउ जब आए निबासे । तिनके  भेस श्री गह बिलासे ॥

बात बचन कह साँस सुगंधे । गेह सन सकल उपबन गंधे ॥ 
कहत कहत जब हरुइँ सुहासे । रहे सेष अध् मुकुल बिकासे ॥ 

बूढ़े बिरध परम हितकारी । तेहि कर सिरु सनातन धारीं ॥ 
बहिनी भ्रात सह संगवारीं । संगहि सहाए सहक सुखारी ॥ 

भयउ भवन मुख मलिन प्रभ, लिए कर जोर बिदाए । 
अस जस को बधू भूषन, बसित बपुर परिहाए  ॥ 

शनिवार, २६ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                   

कबहुक दंपति समउ सुधीते । जाएँ  तिनके  मंदिर मंडिते ॥ 
किए पूजन जिमि देउ पधारीं । गेहिनी गेहि भए पूजारीं ॥ 

बधूटि पितु रहि बहु असहाई ।  ह्रदय घात पख रोग धराईं ॥ 
ते कारन पितु आइ ना पाएँ । बधू नाथ सन जा मेलि आएँ ॥ 

बंधे संबंध को दुइ चारे । बासित बास बसती बहारे ॥ 
भए को घर अवसरु पुनआही । छठी बरही कि परब बिहाही  ॥ 

तब दंपत लिए जोइ समाजे । गत बाहिन तिन भवन बिराजें ॥ 
हेल मेल कर सकल प्रसंगे । जोग जुगावइँ सब एक संगे ॥ 

कह परस्पर सुख दुःख बतियाएँ । असहाइ सामरथ केर सहाएँ ॥ 
छोटन को दै कर सिरु धारे । लेइ बड़े  सों कर उपहारै ॥ 

चरन फिरत नंदानंद, समद समद समदाए । 
आन मान दान तिनके, बरनन बरनि न जाए ॥ 

रविवार, २७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                  

बहुरि दिवस एकु मंदिर जेठे । मेल मिलन बधुबर पेठे ॥ 
सूर किरन सन साँझ सुबरनी । जन संकुल सन पुर पथ सरनी ॥ 

अरस परस सरि सर फुरबारी । चरत मुदित भइ त्रिबिध बयारी ॥ 
फिरत गगन सौगंध प्रसंगे । बिहरत रहि तिन संग बिहंगे ॥ 

कतहुँ चरे जब पूछत कूजे । हमरे ही घर पिय कह बूझे ॥ 
बरबधु जब गह भीत पेठौनी । किये अगवान बधु जेठौनी ॥ 

बैसत बत कहीं दुइ जामिनी । एक देउर एक भसुर भामिनी ॥ 
तनिक समउ लग लोकत अंका । भइ अंगज  तईं कहि ससंका ॥ 

तुहरे पुत भए अध् दस मासे । पर पल उलट पलते न हाँसे ।। 

ताहि बय के बाल लीला, करे बहुसहि बिधान । 
कहु अबलग का तुम्हरे, गयउ तिन्पर ध्यान ॥ 

सोमवार,२८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

बहुरै दंपत ले चित चिंतन । बाहि गमन गति रही चितबन सन ॥ 
जे संका मन रहहि अलपतर । ते भइ पोषित होहि पूर्न कर ॥ 

उत देउर गह गहस लसाही । पार धरी तिन बयस बिहाही ॥ 
रहि निहकरमन तिनके सुभाउ ।  पर निहकामी कलंक कषाउ ॥

गह गह भावज चरनन धारे । कह मात अहा  मात पुकारे ॥ 
भोग असन पितु मात सहारे ।  ते कारन बस रहहि  कुँआरे ॥ 

बिद्यालय लग बिद्या धारे  । नाम बरे श्री कमल कुमारे ॥ 
धरि ग्रन्थ जुग अनेक बिधाना । धर्म ग्रंथ पावन श्रुति पुराना ॥ 

पठत पाठत स्तुती भजत  मह रहि बहस प्रबीन । 
जे भयउ अकर्मन तिन्ह, कहत जगत मति हीन ॥ 

मंगलवार, २९ अक्तूबर,२ ० १ ३                                                                                  

बार बार पटु कह समुदाई । पुनि एक कनि पछ भवन पधाईं ॥ 
लरिकन गुन जोखत सब लोगे । कनियाँ हुँत लागे ते जोगे ॥ 

दरस कनियाँ समद समदाई  । अगन लगन धर भई सगाई ॥ 
कनियाहु रहि बहु सरल सुभाए । दरसत तिन्ह लोचन सुख पाए ॥ 

कहत सासु बर हमरे ठोटे । का करि प्रभु मिलाए जब जोटे ॥ 
बिहँस कहहि तब कछुक पड़ोसी । होहिं बाल ताऊ कहु को पोषी ॥ 

प्रथम भाग पुनि रचे सरीरे । तिन्ह सासु कहि बहुसहि धीरे ॥ 
कहि गये भचन तुआसी दासे । सुनत उतरु सब लिए उछ्बासे ॥ 

एहि भाँति पालन पोषन, भार बरे सब हाथ । 
अनुज लगन जोइ सँजोइ लगे दोउ बर भ्रात ॥ 

बुधवार, ३० अक्तूबर २०१३                                                                                           

उरझ जाल इत बधु जीवन के । धरि बधु चित चिंतन लालन के  ॥ 
चारिन घरी घटा कर छाई । कासत पुनि तन किरन तपाईं ॥ 

सिसु बैसन के बयस सिराहीं । अब लग बालक आसत नाहीं ॥ 
बिबिध तैल लइ साँझ सकारे । हस्त चरन सह तन मल्हारें ॥ 

प्रात जागे नाना उपाई । पूछत सब सथ  करत बिहाई ॥ 
कभु को कहि ऐसेउ बिठारे । तब मति सरनि तिन्ह अनुसारे ॥ 

देउँ बहस मंतर मनमानी । जान कि अजान बधू न जानी ॥ 
कोउ बालक आसत बिलंबे । देइ को बिरध मन अवलंबे ॥ 

बहुरि दिवस एक साँझ समउ, पियतएँ पियत सनेह । 
तिरछत नयन निर्निमेष, करक बाल किए देह ॥ 

बृहस्पतिवार, ३१ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                              

हिचकत बालक लिए उछबासे । आन फँसी साँसत मह साँसे ॥ 
दोइ पलक लग भइ साकारी । बहुरि बाल देही संचारी ॥ 

बालक पितु तब अचिरम आहीँ । धावत गवांए बैदक पाहीं ॥ 
भयउ जे चिन्ह लच्छन बोले । लेखि बैद ते भेषज मोले ॥ 

कहि बाल ग्रसे झटका रोगे । तिनके पीड़ित बहुसै लोगे ॥ 
एक दपमट एक बालक जोरी । बैद भवन ते चरन बहोरी ॥ 

बैद कथन पर मन नहि माने । लै बालक दूज नगरि पयाने ॥ 
पौर पौर चर देखे भलाए । तँह के बैद सोइ रूज बताए ॥ 

मंद कांत मुख प्रभ मलिनाइ । हार केर तँह तहुँ बहराइ ॥ 

आहत कहत बर बधु सउँ, किए बालक अँकवार । 
जीउन बहु लमे अजहुँ त, चरन धरे कुल चार ॥ 


































Tuesday, October 1, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 17 || -----

कहत पिया पुनि लै उछ्बासे । कुंजी धरि कल नवल निवासे ॥ 
गह बसन मन माह ललासे । पर बय़ अस नहि कि जाएं बासे ॥ 

अजहूँत  पानि करम दृढ नाही । का भरोस कब कर छुट जाहीं ॥ 
आगिन कारज करतल देवक । का जन मिलि न को पद सेवक ॥ 

होनिहार जी न जान अब की । न जान कस समउ आन अब की ॥ 
समझ बूझ बहु सोच बिचारू । मति पुर्बक तुम गह संचारू ॥ 

कहि बधू प्रभु तुम अंतर जामी । हम तव सेवक तुम्ह भए स्वामी ॥ 
पूरत आयसु जस तुम दिन्हा । चरन चरहि तुहरे पद चिन्हा ॥ 

तेहि बेर बर बधु संवादे  । अस जस को मुनि दम्पत वादें ॥ 
ज्ञान मई गम जोगित बानी । जोगित गुन सुभ लखन निधानी ॥ 

जिन गृह श्री मद हिन् रहे, रहे बहुस प्रद कार । 
तिन गृह श्री जुग बर लहे, निसदिन करत बिहार ।।  

बुधवार, ०२ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                 

बहुरि भवन भरु किए बिनु देरी । भाटक देवन निरनइ केरी ॥ 
कहि भवन भाट रासि उगाहीं । गृह चारन ते होहि सहाहीं ॥ 

भवन भूयसह भबिल भबीला । तिन कर्षन जस कासित कीला ॥ 
भवन नयन जब लगे निहारे । दरसत चौंक चौंक चौबारे ॥ 

आए भवन के लेवनहारे । भूरिहि बहुसह दरस दुआरे ॥ 
आँगे बाँगे बन बहुरूपिये । करखन करून धन दिये न दिये ॥ 

जोगत जिखत आए एक सजन । पठ पाठन के सुठि कार करन ॥ 
तिनके सुभकर भवनन देई । मह्बर करक करषीनि लेई॥  

जोग करत भवन निज पत, लोचन पंथ लगाए । 
अवाइ पराइ ए श्रवनत, मलिन प्रभा मुख छाए ॥ 

गुरूवार, ०३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                    

निज स्वामि सेवा अभिलाखे । भाउ भवन मन ही मन राखे ॥ 
ललसत पत पद पदुम परागा । बसित बसथ सथ बसति बिरागा ॥ 

भवन सुता सुठि बसन दसाई । केर नयन पट पलक निचाई ॥ 
सोचि अजहूँ लगि चौंक सगाहीं। जाने कब पितु लगन लगाही ॥

दुचंदु दिन जब चौंक न दरसे । लखन कखन सों दरसन तरसे ॥ 
बहुरि एक दिवस पलक उघारी । भाउ प्रबन पुर चौंक निहारी ॥ 

अदरस कारन पूछ बुझाईं । कखन बयस पल कह समुझाई ॥ 
भए बहु भाउक चौंक कथनाए । तव दरसन बिनु भव कछु न भाए ॥ 

छन भर कख प्रिय संगमन, नयन निवेदन दाए । 
पुनर मिलन के ले बचन, दूइ प्रनई बिलगाए ॥  

शुक्रवार, ०४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

मात-भ्रात पितु रहि नहि भाना । लवन नउ भवन दिए नहि काना ॥ 
कारन तिन मन भरि भीरुताइ । लेव न दइ भूमि हिन् भवनाइ ॥ 

लेवन गृह तिन परतइ काना । दरसत प्रबचन देवति नाना ॥ 
भइ केवल गह तीन कोठ खन । कहूँ बैठन न एकहु सुठि आँगन ॥ 

कहते चलन ए दरसे कहि ना । देहरि द्वार भू भित धरि ना ॥ 
तेइ बय कह तिन्ह समुझाना । बहस कठिन रहि कहत बुझाना ॥ 

नगर बीच बट धरनी धराए । एहि हूँते भवन भूहिन सुहाए ॥ 
बाट बीच भू मूलइ लैने  । बचे न अजहूँत को कर ठेने ॥ 

जे रही ते बहु मोल धराईं । ता पर लगि धन भवन बनाई ॥ 

सोचि करन चरन प्रबेस, अजहूँत भइ बहु बेर । 
तब लग कान देइ देहि,  तिन मन हेरन फेर ॥ 

शनिवार,०५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                           

एहि भाँति बधू जीवन साथे । धारइ निज कर करतल नाथे ॥ 
प्रीत पूरित तनि दिवस बिताइ । सूरत धरत पिय जगत परिहाइ ॥ 

उत बिरंचक छन छन चुन के । जोगत जुगबन दिन दिन बुनके ॥ 
सकल काल सुठि माल पिरोईं  । बरस कोष के भाल सँजोईं ॥ 

फिरत थिरत थर गृह बन ठोटी । मृदुल मुकुल मइ लवनइ होंटी ॥ 
कभु तात कभु मात कह हांक़ी । दिसत दिसत दुइ बरख नहाकी ॥ 

भोजन रस तन सारत सोषी । मनु कुमुदनि रस कौमुदि पोषी ॥ 
काइ कलेबर कोमलि कूटे । निभ नलिनी नउ पल्लउ फ़ूटे ॥ 

केस कुंडल कलिक अलिक,अलक पलक बल बृंद । 
लालनी लख लखे ललित, अंजन सार अलिंद ।।   

रविवार, ०६ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                        

काल गति सन सकल जन लोले । जड़ चेतन का धरनिहू रोले ॥ 
धिय तातहु बए भै पैतीसा । मातहु बए भइ भीरइ तीसा ॥ 

धिय अब लग सुठि नाउ न धारी । मनिया मुनिया कहत पुकारीं ॥ 
लवन नयन अरु राग कपोले । नाम करन कर आपएँ बोले ॥ 

धुलइ बदन जिमि धवालित धूपा । लालनी लबनइ लखि सरूपा ॥ 
माता गुनि तिन लाख अनुरुपा ।  सोच बिचार अनेक अनूपा ।।  

कनिक मानिक पोषन करि जोई । धरिअ नाम धिय कृषि अस होई ॥ 
धरत तिन बदन तात दुलारइ । कहत लालनइ बारहि बारइ ॥ 

अब अंगजा मुद पितु सन, बिहरन बाहन बाह । 
नाना रस चपल चितबन, खावन केरइ लाह ॥ 

सोमवार , ०७ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

अरु बहियर बहोरि एक बारे । गर्भ धानि एक जीवन धारे ॥ 
मधुर मास सुधि पाख बिहानइ । पर दम्पत जेठे लग जानइ ॥ 

धियहु सवा दू बरख अहनाई । सुभ गुन लखन सकल समराई ॥ 
धुनी दूइ चंदू चरन उचेरे । पठन पठावन चिंतन घेरे ॥ 

पीठ भवन लगि पालक हेरे । पुनि किए भरती एक बर डेरे ॥ 
मात तात तब हटउ पठोई । लवन पेट पठि जोइ सँजोई ॥ 

एक तो बालक फिर मुख भोरे । तापर कंधर धर लघु झोरे ॥ 
चरन त्रान तन सुठि गनबेषा । लगि अति लावन धिय तिन भेषा ॥ 

सिस सूत सिखाकन शेखर बंधन गुंफन घन घन घारी । 
लेपित अलि अंजन, अरुनइ लोचन, केसिनि किलक निहारी ॥ 
कह जोटन जुगबन दिए जल भोजन, जोजित बहि बैठारी ॥ 
केर बाला बिदाई, हस्त फिराई, माता भइ बलिहारी ॥  
  
पलकन पथरावत धिय के आवत जोगत रहि डहारी । 
प्रिय धिय जब आई भर अँकबाई कहि आ राज दुलारी ॥ 
ममतै सिरु रोरी पूछी हो री कहु त उहाँ तुम लिखि का । 
तब बूझत डोरी, तोतरि बोरी, जे लिखबाई सिखिका ॥ 

श्रवनत तिन्ह उतरु माइ, मन ही मन मुसुकाइ । 
तात गहि गोद रतियाइ, अच्छर लेख दिखाइ ॥   

मंगलवार, ०८ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                      

उत पिय पुनि पुट माया मोही । कहत प्रिया कहु अब का होही ।। 
का तुमकौ कछु दरसत चिन्हे । पिय बूझ प्रिया उतरु न दिन्हे ॥ 

अगहु समउ सुध दृग फुरबारी । सोष ओस पत ढारि दुआरी ॥ 
उठि मुख उपबन दहन दवारी । बरख बुझाइ नयन जल बारी ॥ 

बदन भवन तरु लावन लाखा । दहर दहर भै कलुखित राखा ॥ 
पलक पवन जे सपन बिहंगे । बालक सन बन बरनन रंगे ॥ 

अवतर चितछत छतर छितराए । एक रंग आए एक रंग जाए ॥ 
भई भयाकुल सोहहि होही । जे भए पहिले होहहि सोई ॥ 

माई ममता कर धरे, गवनइ हरिदे पास । 
हरिदे तर्क बितर्क किए, मतिहि न्याय निवास ॥  

बुधवार, ०९ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                   

प्रियजन परिजन बिरुध समाजा । तिन्ह सन जितन भा बड़ काजा ॥ 
सुमत कुमत दोनौ किए आँठी । रीति-नीति मति दिए गाँठी ॥ 

संतति बिनु जी साठन नाठे । सुत हिनू जीवन आँट न आँठे ॥
कहत बचन एहि ते प्रिय लोगे । प्रदर्सन भवन दरसन जोगे ॥ 

बिहा पर नउ जीवनारम्भे । दू चंद बरख बिरधन अवलंबे ॥ 
जिन डगरी ते चारत आईं । तेइ सका कुल कुटुम चराईं ॥ 

को कुरीत जदि को बिरुधाई । तो मानौ दिए छेड़ लराई ॥ 
अनुचित मति मत कुटुम समुदाए । कहाबत समुझत हरि हरि बिहाए ।। 

रीति नीति जे जोग बनाई । बिरुदाबली कहत चलि आई । 
परमा मति मत हरत बुराई । अनुसर तिन जग होहि भलाई ॥ 

पुरखे पुरनइ जन रहत, अनुभव बोधि निधान । 
हमरे सों तिन्ह के दृग, दरसे जग अधिकान ॥  

गुरूवार, १० अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                         

तनि पुर प्रिय जन बल दामा । बहुरि बधुटि तनि निज मन कामा ॥ 
बार बार जब प्रिय बल देईं । गर्भन परखन निराने लेईं ॥ 

परखन भ्रूनन बैद भवन गत । बधु निज लाखन कोसत निन्दत ॥ 
मन ही मन मति मंथत रोई । का मोरे हथ एक अरु हत होई ॥ 

केर बैद पुनि भ्रूण परीखा । दिसि अनुरेखन रेख सरीखा ॥ 
न जान का तिन निरखन किन्ही । कहत लिखत कछू लरिकन चिन्ही ॥ 

इत बधु भय हत कसकत साँसे । कम्पत हिय लइ एक उछ्बासे ॥ 
दरस मुदित पिय नयन अटारी । दोष भाग बन पलकन ढारी ॥ 

एक परखन किए पपर अपरापन । एक परखन किए पुनि अपराधन ॥ 
एक अपराहन पुतएँ अपूरन । एक अपराहन पतइ अपूतन ॥ 

जाम घोष घोषित करे, बजे साँझ के पाँच। 
इत बधु एक अरु भ्रून के, करन हतन गइ बाँच ॥  

शुक्रवार, ११ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                            

हर्ष नन्द बर घर बहुराईं । बधु मुख ब्यंग बान चराई ॥ 
कहि लो किए तुम अंगज रचना । कहु न कछुकन मनोहर बचना ॥ 

हमरे श्री मुख मधुरित धूरी । लय बढ़ गायां लावन लूरी ॥ 
दे गूँज मधुर रुर सुर बारी । तव कन करुखन लागत गारी ॥ 

जे तौ कहु तुम निज समुझएँ का । गरूइ गवइ गुरु कंठ कलइ का ॥ 
कहि बधु सों पिय तनि दौ काना । सुनु तव प्रियतम के गुन गाना ॥ 

करक धुनी रुनि राग रसाला । हमरे थापर धारी तिन ताला ॥ 
करत ओह बधू कर धर माथे । फिर किन कह बरछी सर भाथे ॥ 

कहत पिया ए साँच बचन, करत कुटिल कटि काख । 
भा जयन बहुस कठिन कर, जे नारि सोंह भाख ॥  

शनि/रवि, १२/१३ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                                

हँसत ठठहात भइ गंभीरे । छन मह बधु घनबर घन घीरे ॥ 
कहि बधु अब बस भा अधिकाई । कहहु न अज सों जनित जनाईं ॥ 

मनु के पूरन काम न होई । जिउते लग रहि कोइ न कोई ॥ 
पहिले जनो बहोरी पालौ । चित चिंतन कर देखो भालौ ॥ 

सोचु करु कब धुनी उच्चरहीँ । चारु चरन कब धरनी चरहीं ॥ 
चढ़ मति अम्बर पुनि मत गाढ़ी । हमरे लइकन कबहुँक बाढ़ी ॥ 

बाड़ बढ़े नउ लालस लाही । को सुभ बेला लगन लगाहीं ॥ 
बिहाउ परे मुख दरस लुभाहहि । जनि जनिमन कब जनित जनाहहि ॥ 

तिन्हहिं कहत भाव बंधन, तिन काह दहुँ भउ चाक । 
फेर फिरत जोनि जीवत जिउ चौरासी लाक ॥ 

सुत बर दान प्रभु सुनि बिनइते  । एहि कर पिया भा प्रसन्नचिते ॥ 
दंपत जीवन जासु अभावा । गर्भ धान पद पूरन पावा ॥ 

पर जब गए सुत दूइ सुरताही । मन दर्पन तिन मुख छबि छाई ॥ 
ते हिन् दम्पत तरपत कैसे । बछर बिना गौ तिलछत जैसे ॥ 

सों सुत सौंमुख जिउते रहते । अरु के जे मन लाह न लहते ॥ 
चरत कुपथ धर दोशित चारन । तनय लाह मह केरि भ्रून्हन ॥ 

को कर बिधि जे बयस रचाई । जानन मन के बंचकताई ॥ 
काल सकल जी बाँधत धारी । नहि त तिन्ह को पूछन हारी ॥ 

बयस महा रचना कार, काल महा बलिआर । 
का भगत जन का भगवन, तिन सों गए सब हार ॥ 

सोमवार, १४ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                    

जब दम्पत बिनु आगिन बाढ़े । दरसे पाछिन एक छनु ठाढ़े ॥ 
सुख दुःख सों दूइ रंग समेटे । बीते पलछिन पूरत भेंटे ॥ 

छाँड़ लाए का खोए का पाए । का बिसराए धन का सुरताए ॥ 
का बिगराए अरु का रच आए । गुना भाग कर जोरे घटाए ॥ 

दिवस जाम जब पहर बिलोके ।  आगिन पाछिन मापत जोखे ॥ 
पाछिन जीवन लेइ लघुताए  । अगहुन अगोरत पंथ लमाए ॥  

जथारथ  समउ दरसन गोचर । पाए दम्पत तिन्ह तनि सुखकर ॥ 
सकल सुभ फल देइ गोसाईं । धन सम्पद संतति सब नाईं ॥ 

गुना भाग फल दरसाए, कतहूँ परब कहूँ सोक । 
कतहूँ कोत सुख अधिकाए, कतहूँ दिसित दुःख लोक ॥ 

मंगलवार, १५ अक्तूबर, २ ० १ ३                                                                                     

बहोरि आगिन चरन बढाई । बनत बधुटि पिय के परछाई ॥ 
जस जस चरनिहि चरनी चिन्हें । तस तस गर्भहु बढ़तइ लिन्हे ॥ 

कालहु करमन कृति सब रीते । रितु रुप अंतर कलित सुधीते ॥ 
एक दिन धियाहू अंतर कारी । केलि कल ले एक कोत  डारी ॥ 

माई बूझी काहू रि काहू । बोली मधुर अब हमहू बिहाहू ॥ 
होइ बड़ि बात यह मुख छोटे । कहत मात हठ धरि भू लोटे ॥ 

कहु को सन जनि भर अँकबारी । पूछी राम सम कि गिरिधारी ॥ 
लाज लवन लहि बदन सकुचाहि । कहि मृदुलइ ए मम तात बताहि ॥ 

भुज कंठन घारी भाग दुआरी पितु जब साँझ अवाई । 
कहि माई मारी कथना कारी निकसत बदन रुराई ॥ 
कर कुतिलक भोंही माता सोंही फ़ुरावत मुख फिराई । 
श्रुत मधुरित भासा भाव प्रकासा पिय दरसत मुसुकाईं ॥ 

लघुकर लोचन बिलोकत ललनी पितु मुख हास । 
करि क्रंद हिचकी बाँधत, घरि घरि लै उछ्बास ॥