Monday, September 16, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 16 || -----

भए काल दुरघटना घटीते । जे कोइ चतुर दस पख बीते ॥ 
एक बार जननी सदन सिधाए । दिन बिहाए पिय बहुरि ना आए ॥ 

 लाल लवन लोचन जलरासी । पात पलक पट पटल पलासी ॥ 
चकचौहन लइ भइ अबला सी । पिय मयंक मुख दरस पियासी ॥ 

पहिले लागी पुनि अनुरागी । प्रेम पात्र पत पेयुख पागी ॥ 
आपन पत आपन कर कारू । जस कारज तस पदक पधारू ॥ 

करत करत भै दिन दुइ चारे । एकै अंक दिसि दसम दिहारे ॥ 
बुद्धि घटिते घटि सेउकाई । लाग लगावत किए अलगाई ॥ 

फिर फिरी चौंक चौबारी । प्रति नउ नबल निनादे दुआरी ॥
परिखन प्रति चरन पट उघारी । बार बार रयनै बन बारी ॥  

बनउ ना हार बन उनहारे । बनउना हार ? बन उन हाँ रे ॥ 
बनाबनहार बनाब न हारे । बना बनहार बना बन हारे ॥ 

जोहत रैनी जर जर रोवत दीप मुरझाए पिया नहि आए ।  
रीतइ रबि रथ गह बन पथ सँदेस सुनाए पिया नहि आए ॥ 
कुंज बलय बेली मंडित पत कलिक मुसुकाए पिया नहि आए । 
अगोरत नैन हिय लोन लगत दिबस बहुराए पिया नहि आए ॥ 

लागे चाहे बिलगाए, लगे रहे पर भाउ । 
कभु लगाए कभु अलगाए, भाउ के एहि सुभाउ ॥ 

मंगलवार, १७ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                             

परगसे परब बार तिहारे । आन ढाड़ि सोंइ गह दुआरे ॥ 
बयस गह गृहस जान न जाने । पयनइ जस पायस पनियाने ॥ 

बिगरी बनाउ जस सुभ लाहा । सोचै बधू अस करुँ मैं काहा ॥ 
पुनि गृह बन पथ गवन गुहारे  । ना रे कहत कातर निहारे ॥ 

मानस मति मत हंस बिहारे । आपन आहिं कहत हा हाँ रे ॥ 
अहंकार कर करत अहमिके । हितहुत न हुँते अह एव मति के ॥ 

आप निद्रा दोउ बत पर आइ । एक मन महा महि एक मनुसाए ॥ 
आपनपो बधु हार बिहाई । मनुहारनइ नीति अपनाई ॥ 

अपनय आपा छाँड़ के, ले गवनइ ससुराइ । 
दुचंद निमेष ढाड़ि के, प्रियतम लेइ अवाइ ॥ 

बुधवार, १८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                              

प्रियंवदा वादन बल देईं । भार गृहस के कर धरि लेईं ॥  
तिरछ नैन के सैन सहारे । सजन सलौने के सिरु धारे ॥ 

घर घन बर मंदर मुनि मौने । ररिहत रहि तनि द्रव दै द्रौने ॥ 
पंगुल पद लै पिय असहाई । दीन दसा तिन देख दुखाईं ॥ 

गवनै तब पितु पालक पाहीं । कहतएँ बूझे गृह कठिनाई ॥ 
तिन कर रहि कारज बहुतेरे ।  पानि करम फल लाह घनेरे ॥ 

लहि बार बिदया भए सेउकाए । परिहरु सब रहु मोरे सहाए ॥ 
बियाह पर रहि पितु के एहि ररना । बहुरि बहुरि पियबर मुख रहि ना ॥ 

दिवस श्राम रत निद्रा बियोगे । बहु श्रम पर बिदया कर जोगें ॥ 
तव पन पनपे तव गह पानी । बेषम पथ करमन कँह बानी ॥ 

पर जे पुत पातेबहुल, ते पितु के किन काम । 
ऐसेउ पिय मति मत लिए, बहुरे बसिते धाम ॥  

गुरूवार, १९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                              

लोही लल जस लाहत लाहे । कामिन मन जस कामिनि चाहे ॥ 
क्रोधि चाह जस कलह कलेषा । पिय मोहित तस धन लउ लेषा ॥ 
जैसे लोभी  लाभ हेतु लालायित रहता है; कामी, कामिनी की कामना करता है । जैसे क्रोधी कलह और क्लेष की जुगत में रहता है, वैसे ही प्रियतम मोह स्वरूप में किंचित धन की चाह लिए हुवे थे ॥ 

बिदिया उपाधि धरि गुरुबर कर । पीठ भाज मंडलक ब्यवहर ॥ 
बहु श्रम पर तेइ मनि लाहे । दोउ जुगल ते अधार बिहाहे ॥ 
श्रेष्ठ विद्यालयों में,श्रेष्ठ पुस्तकालयों के सहयोग से, विद्वान गुरुजनों से शिक्षित होकर, व्यवसायिक विद्या की उपाधि ग्रहण की । यह विद्याधन बहुंत ही श्रम पूर्वक अर्जित किया गया था । जो वर वधु के विवाह का आधार बना ॥ 
  
इत गह बित्त बिजोगन जोगे । जोग रहत रहि जुगल बिजोगे ॥ 
रही बैदक भै बिदिया रोगी । राउ राज के कुकरम भोगी ॥ 
इधर गृह धन व्यवस्था की प्रतीक्षा में था, उधर योग्यता रहते हुवे भी दोनों युगल अयोग्य घोषित थे ॥ जो विद्या भिषक थी, वह रोग बन गई थी, और शासक के शासन की अराजकता को भुगत रही थी ॥ 

अंजन रंज न नयन न रंगे ?। अंज न रंज न नयन निरंगे ?॥ 
मोद मुदित जब रहि मन अंगे । दिवस रयनि रय रयन प्रसंगे ॥ 
यदि काजल न हो तो क्या नयन नहीं रंगेंगे । कमल या अमृत में रंग नहीं है  तो क्या वह फीके कहलाएंगे । उसी प्रकार यदि हर्ष और प्रसन्नता मन के अवयव हों तो, दिवस एवं रयन में अनुरक्ति सदैव व्याप्त होगी ॥ 

कंचन कन धाम धन के, लाह करे न तिहार । 
जे मुद मुदित चितबन के, रहि नित पंथ निहार ॥  
पर्व त्यौहार, न तो स्वर्ण कणों की , न ही धन संपत्ति की लालसा करते हैं । वे तो सदैव प्रसन्नचित ह्रदय दृष्टि की प्रतीक्षा में रहते हैं ॥ 

शुक्रवार, २ ० सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                    

पहिल परब बर बधु अगवाईं । नउ नकत नौ कनिका जिवाईं ॥ 
अपर दिवस दसहेरा भेरी । हेर हेर घर घर दिए हेरी ॥ 

गाँउ नगरि गढ़ देस दुआरी । लोकित करत आइ देवारी ॥ 
दीप कली बल बरत अधारी । दीपत अलकत अलि उजियारी ॥ 

नौ घर भित उत थंब सहारे । बेषम करमन धरि ढलियारे ॥ 
अंस रासि कर पावन चाहीं । बार बधूटी पर धरि नाहीं ॥ 

बधु बर बहनइ माँग निहारी । दिए सपेम दुइ अंस उबारी ॥ 
इत जुग दम्पत कर रिन गाहीं । एक तरि एक चढ़ि भए उन्हाहीं ॥ 

उत बर चित्र कर तनि कन जोरे । लाइ धरे बधु के कर कोरे ॥ 
जे रहि सिरु संकट तत्काला । परिहरि दोनौ तेइ बियाला ॥ 

सद्गुन सरूप राम कर दुर्गुन रावन मारि  । 
तमोध्न हर सकल घर ज्ञान दीप उजयारि ॥ 

शनिवार,२१ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                    

रचित दिवस सन रैन रचेता । जड़त जगत सन जीव सचेता ॥ 
तापन सन सुख कंद रचाईं । धीर धरन सन रचि अधिराईं ॥ 

कंत केत ससि मुख मसि मलिने । सागर सेत सूर वलि वलिने ॥ 
पुनित करम सन कारज कारे । बिष दायत दै अमरित धारे ॥ 

ऊँच नीच सन भाव अभावा । जीउ जात सन जनम बिहावा ॥ 
जल भूषन जल जलत ज्वाला । धरा गगन सन रचि भवजाला ॥ 

सकल कोष कल कर परितोषे । जीउ उद्धरन गुन सह दोषे ॥ 
मानाख मति दे ज्ञान बिबेके । तिन सह गुन गह ले एकइ एकै ॥ 

जब लाह चेतस चेते न, तब लग मति भरमाएँ । 
गुन धरमन दोष दूषन, जग जन परख न पाएँ ॥ 

रविवार, २२ सितम्बर, २०१३                                                                                                  

जुगलहु रहि जन जगत समाना । बाहिर मनु मन भित भगवाना ॥ 
जिउ पथ संचारल कल काई । धरे रहि न को लकुटी माई ॥ 

रहहि न को साधन सोते । नाहि खलिहान जा जिन जोतें ॥ 
रहि न कोउ मुदरा बनबारी । लेइ तोर धन झोरिहि घारी ॥ 

मितहारिन ब्रत संजम नेमा । ते साधन कर धरे सपेमा ॥ 
दंभ मान मद करम निषेधा । लोभ लोलुप किए न मतभेदा ॥ 

जिन के सह को अहित न कारे । जिन संतति मन मोह बिकारे ॥ 
दुइ सन ब्यसन रहि न एकहू । रहि मति तेइ ज्ञान बिबेकहू ॥ 

मानख मटिया मूरती, बिधि खात रूप कार । 
चारि दिवस के खेलना, मति कुंजी आधार ॥ 

जग जारत जोत सरूप, अरु मनु देह पतंग । 
जनमत भँवरत जर मरे, अंत काल तिन संग ॥   

सोमवार, २ ३ सितम्बर २०१३                                                                                                

पिया रहहि तिन बिषय प्रबीने । प्राबिधिक जे बिदिया लीने ॥ 
बहुरि एकु बिदिया महा पीठे । पाठन हुँत दिए याचन चीठे ॥ 

जोख जोगता गुरुबर लोगे । अंस कालिन निजोजित जोगे ॥
जेतक काल खंड करि कारें । तेतक कर्मन धन कर धारें ॥ 

कार करन ते भए कुसलाईं । कारत रहि जब रहि न बिहाईं ॥ 
पाठिन नउ पर पीठ पुरातन । पाठइ अलि क्रम आठ न आठन ॥  

पनाधार जे कर्मना बँधे । गह चारन ते केरि प्रबँधे ॥ 
उत नव निर्मित नवल निवासे । चौपत ऊपर बहुस बिलासे ॥ 

लगे नयन पत पंथ निहारे । इत करतल पत कुंजी धारे ॥ 
गवन भवन देहरि सिरु नाईं । दरसत खन खन अति सुख पाईं ॥ 

दरसत नयन कछ दुआर, धारत हरिदे हेत । 
कहूँ परस कहुँ धरत कर, पुलकैं दम्पत सेत ॥   

मंगलवार, २४ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                          

भवनानी एक भवन अनन्ता । भए दम्पत तिन अर्धन कंता ॥ 
अजहुँते अर्धन भाव चुकाईं । ते कारन दुइ अध् पद पाईं ॥ 

सेष रासि रस लहि दस भागे । एक एकंक दस बरस बिभागे ॥ 
भाज भीरे सहस कुल तीसा । भाउ गाँठ करि हरुबन सीसा ॥ 

भाऊ पर जे बँधे बियाजे । भार भूत बर तेइ बिराजे ॥ 
कहत पिया बधु निज मति मंते । जे भवन मूल लह श्री वंते ॥ 

भाविन दिन जे नगरि हमारी । भाव भवन भू बर्धन धारीं ॥ 
धारे धन ब्यय करहु थोरे । भूमि भवन मह लागत जोरें ॥  


तेइ बेर बोले न मुख, बॉलत रहि पिय ज्ञान ।  
भावानुभाव संचरत, मति गति भासत भान ॥  

बुध /गुरु  ,२५/२६ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

अचर जात मुख बोल न धारें । बाल कुसल तइ धुनी निकारें ॥ 
चित चेतस रा राज रस रोधें । बाल मानस सब बोध प्रबोधें ॥ 

बुध प्रबुद्ध कबि बर बिद्वाने । पसु पाखिं के भाख न जाने ॥ 
बालक भए बहु भाव प्रधाने । तिनके चित सब भाखन भाने ॥ 

पात फूर फर तरुबर बेरी । पाथर मिले त धर कर खेरी ॥ 
करत बात कछु झूरन लोले । जल खन खन पौ पवनहू बोले ॥ 

चारु चरन चर बाल कुँवारी । नवल भवन भू चौसहूँ धारी ॥ 
कलि मन कोमल अमल अबोधे । असन बसन बर भवन न बोधे ॥ 

बास्तु पौरूख कल्पन कारे । घर जस मानख अंग दुवारे । 
करत बात भित इत उत डोले । जब धर भवन नयन पट खोले ॥ 

दूर दिसा दस दिरिस दरसाए । दमके धूप कहूँ छाया छाए ॥ 
नभो चाष कहूँ चमक चमकाए । चरत बिहंगे पाख फैराए ॥ 

छादन धारे छत छतनारे बिटप मंडप मंडिते । 
दरसन कारे नयन उघारे भूबन भवन बन भिते ॥ 
कूलिनि कूला मंत्र उचारे मंदिर भीत पण्डिते । 
मसजिद मुल्ला कहूँ गुर द्वारे कहूँ घंटा घर घंटिते ॥  

नन्दिन नादी नन्द निनादी नदी नदी न दीन नदने । 
धिन धिन धवनित धीदा तरि थित इत तित तरिता तरने ॥ 
दोउ कूल दल केलत कल कल सुर सप्तक कंप करे । 
कल भूषन जल बेली बल बल राग रंग रवन बरे ॥ 

दूज कगारे राज अगारे  करपानि कीर्ति करे । 
निभ नभ परसत दृग दिसि दरसत सिखा चिन्ह चाक धरे ॥ 
ताल हटी ठिया कर्पर कुटिया सन सन भुइं भवन भरे । 
धूमित द्वार घर धुर ऊपर धूम ध्वजा पथ बरे ॥ 

धूरे दिसि धर चौहट सुन्दर सुबट रुचि रचना रचे । 
नगरी नागर चारु चरन चर रथ बरुथिन्ह चरिते ॥ 
तिर तरु बृंदे लखित अलिंदे, मनु को तपस्वी खरे । 
सिख सिख साखा ज्ञान बिसाखा जनु पत फर फूर फरे ॥ 

भूयस भूषित भेष, भीत भीत कृत कल केस ।  
चंचल नवल निमेष, सकल सदन निभ नयन नए ॥  

  शुक्रवार, २७, सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                        

हाट बाट बनि बाँधत जोरे । भूति भुगत दिन कर दिन बोरे ॥ 
दिब्य बसन मनि लाल लपेटे । अम्बर डम्बर सैल समेटे  ॥ 

दरस भवन इत जुगल बहोरी । साँझ धरे कर काजर घोरी ।। 
गृह पुरान जब चरनन धारी । घार नयन रुप रयनी धारी ॥ 

नभ गामिन जे दरसन दीना । बहुरि मगन तिन भयउ बिहीना ॥  गवन सदन मुख भोग निवासे । धावन पर प्रिय भूषन बासे ॥ 

भोजन पर निसि सायन निबासे । कहत पिया बदनन निस्बासे ॥ 
दुचंद दिनमल औरु बिहावइ । त हमरे लगन पञ्च बरस लइ ॥ 

जीवन न जान कितै छन, अहोरी अरु बहोरि । 
कोउ हरिदे लवन देइ, को सुख औषध जोरि ॥ 

शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                               

कहत पिया उपरांत बिहाइ । घटित घटना बधु सुध सुरताए ॥ 
नयन फलक फिर फेर बंधाईं । छाया गह एक एक छबि छाई ॥ 

आइ लगन पर जब ससुराई । बहु प्रियकर सुन्दर बर पाई ॥ 
प्रीत करम धन रीतिहि राखे । दिए बर्द्धन प्रिया हरि लाखे ॥ 

बिहा पर छह दिनमल बिहाई । जनम जनयिता सुराग सिधाई ॥ 
जननी जात गर्भ गहियाई । पाछिं एक सुन्दर सुत जन्माई ॥ 

जनमे सुत हत भागन लिन्हें । रोग गहन दुःख दारुन दिन्हें ॥ 
रोग लखन को बैद न चिन्हे । गवने बहिर सुत अंक लिन्हे ॥ 

सकल रोग हूँत जगत लग, रहि औषध उपचार । 
आह पर लाल संजूत, भई न कौनो ढार ॥ 

रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                               

एक दिन दिनकर गगन निकासे । त्ते उत्कासन किरण चकासे ॥ 
बधु मुख लिए बहु रुदन रुआँसे । उत्किरत कहि आज न कासे ॥ 

तिस रायनी ले अंतिम साँसे । रुसत मात पुत पितु बन बासे ॥ 
बहियर बहुरइ चाँद चढ़ाई । गर्भ धान लखि रुप धिय आई ॥ 

गात सममति जननी निवासे । जोउ सँजोवत दुसर घर बासे ॥ 
तँह पुरत भए गर्भन काला । जन्मी ससि मुख मंजुल बाला ॥ 

बारह मास भए धिय जनियाए । ऊरु फलक ले तात भंजाए ॥ 
सब सेवा पास पदक गवाईं । बय करत भवन पट पद पाईं ॥ 

बिते जीवन फेरि फेर, दरसे दृग दौ रूप । 
नन्द सोक घन नीर लिए, सुख छाईं दुःख धूप ॥  

सोमवार, ३० सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                                

अब आगिन का होवनहारी । अग्वान्हि सुख कौन दुखारी ॥ 
दुखित रयन सुख दीपक बारें । कहत सजन सुख दुःख न बिसारें ॥ 

बसित बास भू भाटक भारहिं  । सिरु दम्पत अति अल्पत धारहिं॥  
रहि एक पुर पितु घर ससुराई । लगी न लागत आवन जाई ॥

ज्ञान भवन के पठन पड़ाही । अजहूँत सिरु नहि धिया धराही ॥ 
रहहि गृहस ते बिषय ब्यय कर । तनिक हूँत असन बसन पलक भर ।। 

लगे रोग न लगे औषधाए । असं बसन धरि सरल सुभाए ॥ 
रहि न गज को रथ हय कारी । पर देइ दिब्य दरस दुआरी ।।  

दुइ पद रथ एक कुटुम बिहीना । चारु चरत जब भोजन दीना ॥ 
तिन बिबरन सह जे धन राधे । सकल आय ब्ययन रहि आधे ॥ 

कह कहबत बधु प्रान पत, चरण चरत चतुराइ । 
एसु जीवन चरत रहत त,सकल भाग चुक जाइ ॥   


  

   



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