Sunday, September 1, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 15।। -----

रवि/सोम ०१/०२ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

मति सरनइ गवनइ अंतरिका । भइ तनमइ ले तरंग तरिका ॥ 
चरि घरि कोमलि चरन धरिते । प्रियबर के मुख बचन मुखरिते ॥ 

निज मति किए पुनि पुरुख बढ़ाई । धन सम्पद बिनु सुत न सुहाई ॥ 
सुत लालस लख लोचन लाहे  । होहहि भाल जातक जन्माहे ॥ 

सोहनि सुतिका एक घर आहीं । भए ग्लानि मोरे सुत नाहीं ॥ 
दुःख सुख निज पिय कहत सुनाईं । सुनत बधू मुख मौन धराईं ॥ 

कछु प्रियतम कहि कछु बहिनाई । कछु पुर प्रिय जन कछु ससुराईं ॥ 
जाए समुदाए सबहि समिझाएँ । ते मत बधु  के मति गति चराए ॥ 

तरस बरस दस घर बर भाई । ते पर जात जनी भोजाईं ॥ 
पुनि लघु मन जनिमन तरसे । लाग लगन बे भए दस बरसे ॥ 

भइ बधु गर्भन परिखन  राजी । कनिआ भ्रुन भै  पतन समाजी ॥ 
ते उदंत जब करनन पाईं । आए धाए बधु  के लघु भाईं ॥ 

कहत बचन करि कंठन भारी। गर्भ धरि तो पत काहु कारीं ॥ 
बोल बरन बार याचन घारे । सुनौ कठिन कर बचन हमारे ॥ 

गर्भ धरें तौ पालें पोषें । मास पूरतन पंथ जोखें ॥ 
जात जने रहि तुहरे ठौरे । जाता धारहु मोरएँ झोरे ॥ 

श्रुत बधु बर अरु बोलएँ भाईं । तेइ  बखत कछु कही न पाईं ॥ 
भयउ बात कह भाए बहोरे। बहुरि बारात पर बखतएँ थोरे ॥ 

दिए जे सुभ संदेस सुनाई । गर्भ धान किए लघु भौजाईं ॥ 
तरनि सरनि पथ पाछिन छोरे । जब पिय धर कंधन झकझोरे ॥ 

निर्झरि नीर झर झलके , हृदय उपल नग भीर । 
हरिएँ हर हलके हलके , ढलके धीरहि धीर ॥ 

तेइ बखत जुगल दम्पति, दरसै नागन नाग । 
जेइ कर कुकरम कारन, भयउ जगत हत भाग ॥   

मंगलवार, ०३ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                               

नगर बीथि बट हाट बिहारत । गवनु चरनु बहि बेगिन चारत ॥ 
ऐंठत पैठत बैदु निकाई । सकल अंग भए बैठ बिठाईं ॥  

संधि दोष भल कुसल संधाए । ऊरु पटल नउ पाट बंधाए ॥ 
इस बैदक प्रियबर पद निरखें । उत एक बधु के गर्भन परखें ॥ 

परखन पर कह तनि सकुचाईं । दै सूचन बधु भै कनियाई ॥ 
अयन  नयन पर पलक बिनीते । बहुरि चरन पथ रीतैं रीते ॥ 

पैठ पिय पाहिं दी संदेसे । पिय मुख चिंतन धरि लउ लेसे ॥ 
वधु के मति एहि सोच धराईं । जे भ्रुन हट मम हाथ लिखाईं ॥ 

मोह तमोगुन पिय धरे, नयन तनय अभिलाख । 
रह चितबत बहियार बरे, उर बादर जर पाख ॥ 

बुधवार, ०४ सितम्बर, २ ० १३                                                                                          

ते बैदक पुर दु दिवस होरे। धरे पटिक नउ चरन बहोरे ॥ 
संग ली अरु एक संदेसे । को बिधि जे भल रहहि न लउ लेसे ॥ 

जेहि भयउ भाव बंधन फाँसे । सुरत  तरप जब निकसै साँसे ॥ 
करे दोष जे दूषन कारी । रहे जिउति लग उर पर भारी ॥ 

दोष भाज धरि जेतक भावा । कारित तेतक कार प्रभावा ॥ 
होत जितै दूजन अपकारी । उतै दंड कर करता धारी ॥ 

कहे लेख लिख मनु भगवाना । भ्रून हतन दोष महाना ॥ 
भ्रून हतक के दरसन कारी । अन कन भोजन भए अनहारी ॥

दोष सार गुण जगत समेटे । बयस कोस दुइ चारत भेंटे ॥ 
गुण दोष जेइ चितबन जाने । तेइ जन जगत हंस समाने ॥ 

कहत आखर जननी इत, करत मंतु मत मंथ । 
बोहत बाहि बाहनि उत भँवरत भाँवर पंथ ।। 

गुरूवार, ०५ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                          

धरा बिंदु बिध फेरी फेरे । दिनकर दिन दुइ चंदु सकेरे ॥ 
गर्भ बयस भै दिन सत कोरी । करत पतन तिन बधु कर जोरी ॥ 

पुरुख हृदय भए काठ कठोरे । दोष करत पर हिले न थोरे ॥ 
वासे जनिमन जनन अभावा । रहित माइ के ममत अभावा ॥ 

जनि जनिमन धर पीर बिहाई । जनम जगत जग जननि कहाई ॥ 
नारि ह्रदय भए सिन्धु अगाधे । वाके गाहन कोउ न राधे ॥ 

पाए पीर जन दोनौ माहीं । कारि पतन चह जनमन चाही ॥ 
गर्भ पतन जब भवन प्रबेसे । ते ममता गवने को देसे ॥ 

जग मैं जनक रखक जगत, पाल कहत परिभाख । 
जब निपतितात्मन , जगत भखक अवलाख ॥ 

शुक्रवार,०६ अगस्त, २ ० १ ३                                                                                                

कार पतन बधू बहोरि धामा । दुइ चारि दिवस केरि बिश्रामा ॥ 
धुत कारत मन देइ दुहाई । लगे जिअत जी बहु कठनाई ॥ 

जिते जी जेइ भाव सकेरे । कार कलेवरात्मन केरे ॥ 
आए काल जब जन्म बिहाई । भाव नुरूप जिउ जोनि पाई ॥ 

सुभ असुभ जेइ कारज करिते । कारनी कारि जग हित अहिते ॥ 
को जग पतिते को उद्धारे । चह निज चह पर रूचित कारे ॥  

कारत जस कारज कर जोरे । बोए बीज जस तस फल तोरे ॥ 
पर जेइ चरन सदपथ चारिहिं । भलइ करत जग करम सुधारिहि ॥ 

काल कलुख कृत करन सँवारत । अगत जगत श्री बर्धन कारत ॥ 
तिन जन के किए कारि न निंदा । कहि गए बुध महा रिसि मुनिदा ॥ 

काम क्रोध मद अरु लोभ, भान ज्ञान के ढाँक । 
चारि ओहार अवतरे, दैं दौनौ मुख हाँक ॥   

शनिवार,०७  सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                           

पाटन पातक उर पर घारे । जोगत पिय बधु लघु धिय धारे ॥ 
नाज साज  लै मूल उधारी । जस तस कर घर गृहस सँभारी ॥ 

दिवस किरन रयनिहि ताम कोरे । बय सन श्रमधन केरि अँकोरे ॥ 
इत कर धन उत बय परिहाई । भरे मूठि मह रज के नाईं ॥ 

चरइ गृहस अब लग निर्बाधे । जोग जोख गिन साधन साधे ॥ 
बिषय राग भै बहस उपाधी । समरथ भंजन साध समाधी ॥ 

होए बुद्धि जब निज सनमाना । दुआरि अखि हिन् भवन समाना ॥ 
काम क्रोध मद लोभ लुभाईं । लहत भवन ते रहत दुराईं ॥ 

ससुर भसुर पितु बहिनै भाईं । तन मन धन ते रहहि सहाईं ॥ 
दुजन देइ घटे न धन घाटे । आपण धन ते पूरत पाटे ॥ 

कभु गति अधिक कभु अनधिक, साँस जस हृदय जोरि । 
अस रहि चरत गृहस रथ, बधु  कर कासित डोरि ॥ 

रविवार, ०८ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                        

बहोरि बैदक के मति मंते । कारत शयन श्राम पर्यंते ॥ 
संधि बंध पटि केरि मोचिते । किए प्रियतम श्रम चरन चारिते ॥ 

धरावतर जब चरनन चिन्हे । चाप चरन चर अंतर किन्हें ।
धरा तरी पल थीर न पाईं । भयउ दुबल ठारन कठिनाई ॥ 

उरस भवन भित भरत उसाँसे । पलक नवान मुख धरत निरासे ॥ 
मौलि मूर्धन जल कन कासे । अबल अचल किए सयन निवासे ॥ 

बहियार बरबस लेइ उठाई । धारत कर तर अधर ठराई ॥ 
भय कर धरकी तुर गत छाँती । ठार बने ना कहु को भाँती ॥ 

ते अवसर कोमलि कारि, बधु मुख बोल उचारि । 
कारत उर भय हिन कारि, चरु तनि धीरजु धारि ॥ 

सोमवार,०९ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                             

ऐसेउ सिरत दिन दुइ चारी । हरियर पिय पादंतर धारी ॥ 
पुनि बधु लिए पिय घर के बारी । चराइ चरनन करत सँभारी ॥ 

चरन प्रदेसन देय बिधाना । देइ उपकरन बैदक नाना ॥ 
ते साधन रहि बहुस सहाई । धरातर धुर चरन के नाईं ॥ 

बार बधूटी करतल कासे । बारम्बाररे किए अभ्यासे ॥ 
लागे चारन थोरहि थोरे । घर भीतर के उपबन ठौरे ॥ 

तेहि पर पद घर बहिर सिधाए । बहियर हरिअर कर धर चराए ॥ 
गवनु चरन जब पार दुआरे । तन के सह मन चरत बिहारे ॥ 


संधि बंध सह चरनन, चितबहु मुकुती पाए ॥ 
घर आँगन पंथ उपबन, सरयु सरन सुख दाए । 

मंगलवार,१० सितम्बर,२०१३                                                                                               

सनै सनै उपकरन परिहाए । आपन आप चरत लैंगराए ॥ 
आहि बार एक मन संदेहे । भंग पद कभु लघुत न लहेहे ॥ 

बहोरि छिनु बिनु एकहु बिआही । गवने डरपत भिषकन पाहीं ॥ 
भिषक दोउ पद मापत जोगे । कहत अस्थि भाल भाँति सँजोगे ॥ 

दोनौ पद एक रुप सम अंके । रहु एक चेतस  परिहरु संके ॥ 
तब प्रियतम के नयन झरोखे । तिलछ करत दम दरसे तोखे ॥ 

लै पुनि पिय उछ बास बिरामा । होरत दुछ्न फिरे जनि धामा ॥ 
पावएँ जब चारन संदेसे । पुर प्रिय जन गृह चरन प्रबेसे ॥ 

बैस अवाईं दरसत पिय,बूझे पद के पीर । 
चरत होत हरवा हरकै, कहि पिय जी के हीर ॥ 

बुधवार, ११ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                             

भली भाँति पद चरत बिहारे । रहहि बिषय ते अचरज कारे ॥ 
करक जुगे पद भंजन कारे । बाहि रुधिरु बिनु चीरत फारे ॥ 

सुधी भिषक भाल जे रहि थाई । जेइ परन पुर बैदु बुझाईं ॥ 
तेइ कोउ बिधि थाह न पाईं । पिय के भाल उपचारन  ताईं ॥ 

भिषक बदन ते पहिलै कथने । जे पद भंजन थंभन जतनै ॥ 
चीर फाड़ कर दंडक जोटें । नहि त रह जहि दुज चरन ते छोटे ॥ 

लेइ सकल पत चित्तर अंतर । पाठ पठन हुँत दूजन हितकर ॥ 
कहत ज्ञानि गुन बैदु निसंके । तव बिराम पर बर एक अंके ॥ 

तत छन बधु बोली मधुर, गवनत रहति पिरान । 
जे न छाड़िते मुख धनुर,कराकस बानी के बान ।।  

गुरूवार, १२ सितम्बर,२०१३                                                                                                

छुटत प्रीतम जवल कन छोरे । तिन तनु अगमनु अगनु अगौरें ॥ 
तुहरे कारन अरु अँधियाईं । बन एकहि एक न देइ दिखाईं ॥ 

गोल मोल भै बोल अगोही । मुहूरत मूँढ़ मारन टोही ॥ 
अगाउनी अगियन बैताला । अगोचर करक सूलक भाला ॥ 

भाव अगूढ़ अगुसर गूठे । तनिक साँच तौ भै तनि झूठे ॥ 
पर प्रिय आगति खरे अगारीं । निपुनत बधु के किए रखबारी ॥ 

आगति दरस पिय भृकुटि काछे । आउ भाउ भै आगिन पाछे  ॥ 
श्रवनत दंपत मुख मधु भासे । बैसे पाहुन लागन हाँसे ॥ 

हंस नाद हँसि धुनी जगाई । पावस पहिलै पय पद नाईं ॥ 
हँस पुहुप दाम पख पद धारे । रचियन भंजन भए प्रस्तारे ॥ 

भंजित शेखर हस्त मुकुलिते । प्रिया पिय चरनन कारित रिते ॥ 

सिरु धरत चरन रमन धूरि कन, फूरि फ़ूरि रसनत रसनाईं । 
रयन कनक कन कर आभूषन, रल्ल मल्ल रवकन रवनाईं॥ 
रह रह सन रहसन सन कन कन, कर रंजन कंगन खनकाईं ॥ 
रहि रहरूढ़भाव ते अभरन, रर रर करि रर्रत ररिहाईं ॥ 

धनवन देव नाथ धनुर, सकल रंग जुग बास । 
दम्पतहु सन करुर मधुर,धरे अनी अनुप्रास ॥   

शुक्रवार, १ ३ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                           

एक तौ चारत पीर धराईं  । बिनु सक बल पिय चरि लँगराईं ॥ 
ता  पर चिंतन धरें पराईं । को औरन को औरन नाईं ॥ 

पहलै चिंतन पेट लपेटे । दूजन भइ लपेट के पेटे ॥ 
तिजन रही कर्पर के छाईं । पुनि पटिया के झगर लराई ॥ 

गेहनी करतब गह सँभारे । धन जुगबन सिरु रहहि न भारे ।। 
जेइ भार गेही सिरु धारे । गह जिन्ह के जोह जुहारे ॥ 

सुधी बुधी लिख लिख उच्छारे । पोषत जग जन पालन हारे ॥ 
नयन पाल जस निमित निहारे । लिखित कबित सन कहित हुँकारे ॥ 

रज रज रचइत बहुस प्रकारे । दाता दिए जग बहु उदगारे ।। 
प्रानि प्रनिधानि करम अधारे । हेरत निज जीवन उद्धारें ।। 

उद्कार्थी हुँत जस उदगारे । कार कठिन कर हेर निकारे ॥ 
कनार्थी तस कर्म दुआरे । हेर हेर कर हेरन हारे ॥ 

नारी चिंतन कछु और, पौरूख चिंतन और । 
बासे दोउ एक निबास, जन्मने एकै ठौर ॥ 

शनिवार, १४ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                               

एक दिन प्रीतम मन का आई । गवनै जनि घर सन बर भाई ॥ 
चरत तुरतइ  ऐसेउ सिधाएँ । चरे बिहंग जस पंख निकसाएँ ॥ 

भाव बिहल बच्छल बिसराईं । जनिजा भुर मन जनि सुरताईं ॥ 
गेह गृहस अस गे छुटकारे । फाँस कोउ जस कंठन घारे ॥ 

चौपत पथ खन बिरहन घेरे । बहियर भइ घर अकै अकेरे ॥ 
बोले मन बोली न घनेरे । बढ़ एक तै एक भूरि बड़ेरे ॥ 

देइ उतरु भर भाव रुआँसे । तुम्हरे उपर रोएँ कि हाँसे ॥ 
प्रियाबर मुख छबि मंकुर राखे । करहु घात गहनए तिन पाखे ॥ 

कह बचन पुनि मन मानी होए । नयनाकर अब कितौ जल जोएँ ॥ 
कमल कुसुम कल कुमुद प्रफूरे । रयन भाव रति दिवस न फ़ूरे ॥ 

श्रवन मन मुख मधुर वचन, दे रद छादन दान । 
पेयुख मयूख वधु वदन, भयउ कान्त मलान ॥ 

रविवार, १५ सितम्बर, २ ० १ ३                                                                                        

लाग लगइ के लगन लगाई । राग जगइ जर नीर बहाई ॥ 
सदरी रैनी जग जग बिताइ । सेज सजन बिनु अंग न सुहाइ ॥ 
बैर करते हुवे झगड़ा लगा दिया फिर अनुराग जागृत कर पश्चाताप करते हुवे आँसू बह रहे हैं ॥ पूरी रात जाग जाग कर बीत रही है और प्रियतम के विरह में सय्या सुहावनी प्रतीत नहीं होती ॥ 
  दिरिस द्वीप करपूर घारे । द्रवीभूत द्रव रतनागारे ॥ 
रतन जोती रे रय रतनाइ। ज्वाल किरन जग लग उजियाइ॥ 

पलक पदुम पिय पंथ निहारे । नीर नुपूर रुर रूसत हारे ॥ 
सैन सदन सन केर सकलाइ  । सेष रहि तिन्ह रैन हेराइ ॥ 

रमनै रवनत रल रमझोरे । बधु बिरहन दुख जान न भोरे ॥ 
भविते बधु भइ भूर गहनाइ । ऐसेउ वचन काहू निकसाइ ॥ 

सुमिरत पिय लै बालक कोरे । बिह्बल उर भरि भाउ विभोरे ॥ 
जर जर काजर नैन बहाई । हाय ढरत सन रैनि सिराई ॥ 

बधु चितबन सुरत ना बन, फिरत फेरी प्रभात । 
तरुबर तूर फूर भरे, बिटप पंथ नउ पात ॥  



 










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