भए काल दुरघटना घटीते । जे कोइ चतुर दस पख बीते ॥
एक बार जननी सदन सिधाए । दिन बिहाए पिय बहुरि ना आए ॥
लाल लवन लोचन जलरासी । पात पलक पट पटल पलासी ॥
चकचौहन लइ भइ अबला सी । पिय मयंक मुख दरस पियासी ॥
पहिले लागी पुनि अनुरागी । प्रेम पात्र पत पेयुख पागी ॥
आपन पत आपन कर कारू । जस कारज तस पदक पधारू ॥
करत करत भै दिन दुइ चारे । एकै अंक दिसि दसम दिहारे ॥
बुद्धि घटिते घटि सेउकाई । लाग लगावत किए अलगाई ॥
फिर फिरी चौंक चौबारी । प्रति नउ नबल निनादे दुआरी ॥
परिखन प्रति चरन पट उघारी । बार बार रयनै बन बारी ॥
बनउ ना हार बन उनहारे । बनउना हार ? बन उन हाँ रे ॥
बनाबनहार बनाब न हारे । बना बनहार बना बन हारे ॥
जोहत रैनी जर जर रोवत दीप मुरझाए पिया नहि आए ।
रीतइ रबि रथ गह बन पथ सँदेस सुनाए पिया नहि आए ॥
कुंज बलय बेली मंडित पत कलिक मुसुकाए पिया नहि आए ।
अगोरत नैन हिय लोन लगत दिबस बहुराए पिया नहि आए ॥
लागे चाहे बिलगाए, लगे रहे पर भाउ ।
कभु लगाए कभु अलगाए, भाउ के एहि सुभाउ ॥
मंगलवार, १७ सितम्बर, २ ० १ ३
परगसे परब बार तिहारे । आन ढाड़ि सोंइ गह दुआरे ॥
बयस गह गृहस जान न जाने । पयनइ जस पायस पनियाने ॥
बिगरी बनाउ जस सुभ लाहा । सोचै बधू अस करुँ मैं काहा ॥
पुनि गृह बन पथ गवन गुहारे । ना रे कहत कातर निहारे ॥
मानस मति मत हंस बिहारे । आपन आहिं कहत हा हाँ रे ॥
अहंकार कर करत अहमिके । हितहुत न हुँते अह एव मति के ॥
आप निद्रा दोउ बत पर आइ । एक मन महा महि एक मनुसाए ॥
आपनपो बधु हार बिहाई । मनुहारनइ नीति अपनाई ॥
अपनय आपा छाँड़ के, ले गवनइ ससुराइ ।
दुचंद निमेष ढाड़ि के, प्रियतम लेइ अवाइ ॥
बुधवार, १८ सितम्बर, २ ० १ ३
प्रियंवदा वादन बल देईं । भार गृहस के कर धरि लेईं ॥
तिरछ नैन के सैन सहारे । सजन सलौने के सिरु धारे ॥
घर घन बर मंदर मुनि मौने । ररिहत रहि तनि द्रव दै द्रौने ॥
पंगुल पद लै पिय असहाई । दीन दसा तिन देख दुखाईं ॥
गवनै तब पितु पालक पाहीं । कहतएँ बूझे गृह कठिनाई ॥
तिन कर रहि कारज बहुतेरे । पानि करम फल लाह घनेरे ॥
लहि बार बिदया भए सेउकाए । परिहरु सब रहु मोरे सहाए ॥
बियाह पर रहि पितु के एहि ररना । बहुरि बहुरि पियबर मुख रहि ना ॥
दिवस श्राम रत निद्रा बियोगे । बहु श्रम पर बिदया कर जोगें ॥
तव पन पनपे तव गह पानी । बेषम पथ करमन कँह बानी ॥
पर जे पुत पातेबहुल, ते पितु के किन काम ।
ऐसेउ पिय मति मत लिए, बहुरे बसिते धाम ॥
गुरूवार, १९ सितम्बर, २ ० १ ३
लोही लल जस लाहत लाहे । कामिन मन जस कामिनि चाहे ॥
क्रोधि चाह जस कलह कलेषा । पिय मोहित तस धन लउ लेषा ॥
जैसे लोभी लाभ हेतु लालायित रहता है; कामी, कामिनी की कामना करता है । जैसे क्रोधी कलह और क्लेष की जुगत में रहता है, वैसे ही प्रियतम मोह स्वरूप में किंचित धन की चाह लिए हुवे थे ॥
बिदिया उपाधि धरि गुरुबर कर । पीठ भाज मंडलक ब्यवहर ॥
बहु श्रम पर तेइ मनि लाहे । दोउ जुगल ते अधार बिहाहे ॥
श्रेष्ठ विद्यालयों में,श्रेष्ठ पुस्तकालयों के सहयोग से, विद्वान गुरुजनों से शिक्षित होकर, व्यवसायिक विद्या की उपाधि ग्रहण की । यह विद्याधन बहुंत ही श्रम पूर्वक अर्जित किया गया था । जो वर वधु के विवाह का आधार बना ॥
इत गह बित्त बिजोगन जोगे । जोग रहत रहि जुगल बिजोगे ॥
रही बैदक भै बिदिया रोगी । राउ राज के कुकरम भोगी ॥
इधर गृह धन व्यवस्था की प्रतीक्षा में था, उधर योग्यता रहते हुवे भी दोनों युगल अयोग्य घोषित थे ॥ जो विद्या भिषक थी, वह रोग बन गई थी, और शासक के शासन की अराजकता को भुगत रही थी ॥
अंजन रंज न नयन न रंगे ?। अंज न रंज न नयन निरंगे ?॥
मोद मुदित जब रहि मन अंगे । दिवस रयनि रय रयन प्रसंगे ॥
यदि काजल न हो तो क्या नयन नहीं रंगेंगे । कमल या अमृत में रंग नहीं है तो क्या वह फीके कहलाएंगे । उसी प्रकार यदि हर्ष और प्रसन्नता मन के अवयव हों तो, दिवस एवं रयन में अनुरक्ति सदैव व्याप्त होगी ॥
कंचन कन धाम धन के, लाह करे न तिहार ।
जे मुद मुदित चितबन के, रहि नित पंथ निहार ॥
पर्व त्यौहार, न तो स्वर्ण कणों की , न ही धन संपत्ति की लालसा करते हैं । वे तो सदैव प्रसन्नचित ह्रदय दृष्टि की प्रतीक्षा में रहते हैं ॥
शुक्रवार, २ ० सितम्बर, २ ० १ ३
पहिल परब बर बधु अगवाईं । नउ नकत नौ कनिका जिवाईं ॥
अपर दिवस दसहेरा भेरी । हेर हेर घर घर दिए हेरी ॥
गाँउ नगरि गढ़ देस दुआरी । लोकित करत आइ देवारी ॥
दीप कली बल बरत अधारी । दीपत अलकत अलि उजियारी ॥
नौ घर भित उत थंब सहारे । बेषम करमन धरि ढलियारे ॥
अंस रासि कर पावन चाहीं । बार बधूटी पर धरि नाहीं ॥
बधु बर बहनइ माँग निहारी । दिए सपेम दुइ अंस उबारी ॥
इत जुग दम्पत कर रिन गाहीं । एक तरि एक चढ़ि भए उन्हाहीं ॥
उत बर चित्र कर तनि कन जोरे । लाइ धरे बधु के कर कोरे ॥
जे रहि सिरु संकट तत्काला । परिहरि दोनौ तेइ बियाला ॥
सद्गुन सरूप राम कर दुर्गुन रावन मारि ।
तमोध्न हर सकल घर ज्ञान दीप उजयारि ॥
शनिवार,२१ सितम्बर, २ ० १ ३
रचित दिवस सन रैन रचेता । जड़त जगत सन जीव सचेता ॥
तापन सन सुख कंद रचाईं । धीर धरन सन रचि अधिराईं ॥
कंत केत ससि मुख मसि मलिने । सागर सेत सूर वलि वलिने ॥
पुनित करम सन कारज कारे । बिष दायत दै अमरित धारे ॥
ऊँच नीच सन भाव अभावा । जीउ जात सन जनम बिहावा ॥
जल भूषन जल जलत ज्वाला । धरा गगन सन रचि भवजाला ॥
सकल कोष कल कर परितोषे । जीउ उद्धरन गुन सह दोषे ॥
मानाख मति दे ज्ञान बिबेके । तिन सह गुन गह ले एकइ एकै ॥
जब लाह चेतस चेते न, तब लग मति भरमाएँ ।
गुन धरमन दोष दूषन, जग जन परख न पाएँ ॥
रविवार, २२ सितम्बर, २०१३
जुगलहु रहि जन जगत समाना । बाहिर मनु मन भित भगवाना ॥
जिउ पथ संचारल कल काई । धरे रहि न को लकुटी माई ॥
रहहि न को साधन सोते । नाहि खलिहान जा जिन जोतें ॥
रहि न कोउ मुदरा बनबारी । लेइ तोर धन झोरिहि घारी ॥
मितहारिन ब्रत संजम नेमा । ते साधन कर धरे सपेमा ॥
दंभ मान मद करम निषेधा । लोभ लोलुप किए न मतभेदा ॥
जिन के सह को अहित न कारे । जिन संतति मन मोह बिकारे ॥
दुइ सन ब्यसन रहि न एकहू । रहि मति तेइ ज्ञान बिबेकहू ॥
मानख मटिया मूरती, बिधि खात रूप कार ।
चारि दिवस के खेलना, मति कुंजी आधार ॥
जग जारत जोत सरूप, अरु मनु देह पतंग ।
जनमत भँवरत जर मरे, अंत काल तिन संग ॥
सोमवार, २ ३ सितम्बर २०१३
पिया रहहि तिन बिषय प्रबीने । प्राबिधिक जे बिदिया लीने ॥
बहुरि एकु बिदिया महा पीठे । पाठन हुँत दिए याचन चीठे ॥
जोख जोगता गुरुबर लोगे । अंस कालिन निजोजित जोगे ॥
जेतक काल खंड करि कारें । तेतक कर्मन धन कर धारें ॥
कार करन ते भए कुसलाईं । कारत रहि जब रहि न बिहाईं ॥
पाठिन नउ पर पीठ पुरातन । पाठइ अलि क्रम आठ न आठन ॥
पनाधार जे कर्मना बँधे । गह चारन ते केरि प्रबँधे ॥
उत नव निर्मित नवल निवासे । चौपत ऊपर बहुस बिलासे ॥
लगे नयन पत पंथ निहारे । इत करतल पत कुंजी धारे ॥
गवन भवन देहरि सिरु नाईं । दरसत खन खन अति सुख पाईं ॥
दरसत नयन कछ दुआर, धारत हरिदे हेत ।
कहूँ परस कहुँ धरत कर, पुलकैं दम्पत सेत ॥
मंगलवार, २४ सितम्बर, २ ० १ ३
भवनानी एक भवन अनन्ता । भए दम्पत तिन अर्धन कंता ॥
अजहुँते अर्धन भाव चुकाईं । ते कारन दुइ अध् पद पाईं ॥
सेष रासि रस लहि दस भागे । एक एकंक दस बरस बिभागे ॥
भाज भीरे सहस कुल तीसा । भाउ गाँठ करि हरुबन सीसा ॥
भाऊ पर जे बँधे बियाजे । भार भूत बर तेइ बिराजे ॥
कहत पिया बधु निज मति मंते । जे भवन मूल लह श्री वंते ॥
भाविन दिन जे नगरि हमारी । भाव भवन भू बर्धन धारीं ॥
धारे धन ब्यय करहु थोरे । भूमि भवन मह लागत जोरें ॥
तेइ बेर बोले न मुख, बॉलत रहि पिय ज्ञान ।
भावानुभाव संचरत, मति गति भासत भान ॥
बुध /गुरु ,२५/२६ सितम्बर, २ ० १ ३
अचर जात मुख बोल न धारें । बाल कुसल तइ धुनी निकारें ॥
चित चेतस रा राज रस रोधें । बाल मानस सब बोध प्रबोधें ॥
बुध प्रबुद्ध कबि बर बिद्वाने । पसु पाखिं के भाख न जाने ॥
बालक भए बहु भाव प्रधाने । तिनके चित सब भाखन भाने ॥
पात फूर फर तरुबर बेरी । पाथर मिले त धर कर खेरी ॥
करत बात कछु झूरन लोले । जल खन खन पौ पवनहू बोले ॥
चारु चरन चर बाल कुँवारी । नवल भवन भू चौसहूँ धारी ॥
कलि मन कोमल अमल अबोधे । असन बसन बर भवन न बोधे ॥
बास्तु पौरूख कल्पन कारे । घर जस मानख अंग दुवारे ।
करत बात भित इत उत डोले । जब धर भवन नयन पट खोले ॥
दूर दिसा दस दिरिस दरसाए । दमके धूप कहूँ छाया छाए ॥
नभो चाष कहूँ चमक चमकाए । चरत बिहंगे पाख फैराए ॥
छादन धारे छत छतनारे बिटप मंडप मंडिते ।
दरसन कारे नयन उघारे भूबन भवन बन भिते ॥
कूलिनि कूला मंत्र उचारे मंदिर भीत पण्डिते ।
मसजिद मुल्ला कहूँ गुर द्वारे कहूँ घंटा घर घंटिते ॥
नन्दिन नादी नन्द निनादी नदी नदी न दीन नदने ।
धिन धिन धवनित धीदा तरि थित इत तित तरिता तरने ॥
दोउ कूल दल केलत कल कल सुर सप्तक कंप करे ।
कल भूषन जल बेली बल बल राग रंग रवन बरे ॥
दूज कगारे राज अगारे करपानि कीर्ति करे ।
निभ नभ परसत दृग दिसि दरसत सिखा चिन्ह चाक धरे ॥
ताल हटी ठिया कर्पर कुटिया सन सन भुइं भवन भरे ।
धूमित द्वार घर धुर ऊपर धूम ध्वजा पथ बरे ॥
धूरे दिसि धर चौहट सुन्दर सुबट रुचि रचना रचे ।
नगरी नागर चारु चरन चर रथ बरुथिन्ह चरिते ॥
तिर तरु बृंदे लखित अलिंदे, मनु को तपस्वी खरे ।
सिख सिख साखा ज्ञान बिसाखा जनु पत फर फूर फरे ॥
भूयस भूषित भेष, भीत भीत कृत कल केस ।
चंचल नवल निमेष, सकल सदन निभ नयन नए ॥
शुक्रवार, २७, सितम्बर, २ ० १ ३
हाट बाट बनि बाँधत जोरे । भूति भुगत दिन कर दिन बोरे ॥
दिब्य बसन मनि लाल लपेटे । अम्बर डम्बर सैल समेटे ॥
दरस भवन इत जुगल बहोरी । साँझ धरे कर काजर घोरी ।।
गृह पुरान जब चरनन धारी । घार नयन रुप रयनी धारी ॥
नभ गामिन जे दरसन दीना । बहुरि मगन तिन भयउ बिहीना ॥ गवन सदन मुख भोग निवासे । धावन पर प्रिय भूषन बासे ॥
भोजन पर निसि सायन निबासे । कहत पिया बदनन निस्बासे ॥
दुचंद दिनमल औरु बिहावइ । त हमरे लगन पञ्च बरस लइ ॥
जीवन न जान कितै छन, अहोरी अरु बहोरि ।
कोउ हरिदे लवन देइ, को सुख औषध जोरि ॥
शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३
कहत पिया उपरांत बिहाइ । घटित घटना बधु सुध सुरताए ॥
नयन फलक फिर फेर बंधाईं । छाया गह एक एक छबि छाई ॥
आइ लगन पर जब ससुराई । बहु प्रियकर सुन्दर बर पाई ॥
प्रीत करम धन रीतिहि राखे । दिए बर्द्धन प्रिया हरि लाखे ॥
बिहा पर छह दिनमल बिहाई । जनम जनयिता सुराग सिधाई ॥
जननी जात गर्भ गहियाई । पाछिं एक सुन्दर सुत जन्माई ॥
जनमे सुत हत भागन लिन्हें । रोग गहन दुःख दारुन दिन्हें ॥
रोग लखन को बैद न चिन्हे । गवने बहिर सुत अंक लिन्हे ॥
सकल रोग हूँत जगत लग, रहि औषध उपचार ।
आह पर लाल संजूत, भई न कौनो ढार ॥
रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३
एक दिन दिनकर गगन निकासे । त्ते उत्कासन किरण चकासे ॥
बधु मुख लिए बहु रुदन रुआँसे । उत्किरत कहि आज न कासे ॥
तिस रायनी ले अंतिम साँसे । रुसत मात पुत पितु बन बासे ॥
बहियर बहुरइ चाँद चढ़ाई । गर्भ धान लखि रुप धिय आई ॥
गात सममति जननी निवासे । जोउ सँजोवत दुसर घर बासे ॥
तँह पुरत भए गर्भन काला । जन्मी ससि मुख मंजुल बाला ॥
बारह मास भए धिय जनियाए । ऊरु फलक ले तात भंजाए ॥
सब सेवा पास पदक गवाईं । बय करत भवन पट पद पाईं ॥
बिते जीवन फेरि फेर, दरसे दृग दौ रूप ।
नन्द सोक घन नीर लिए, सुख छाईं दुःख धूप ॥
सोमवार, ३० सितम्बर, २ ० १ ३
अब आगिन का होवनहारी । अग्वान्हि सुख कौन दुखारी ॥
दुखित रयन सुख दीपक बारें । कहत सजन सुख दुःख न बिसारें ॥
बसित बास भू भाटक भारहिं । सिरु दम्पत अति अल्पत धारहिं॥
रहि एक पुर पितु घर ससुराई । लगी न लागत आवन जाई ॥
ज्ञान भवन के पठन पड़ाही । अजहूँत सिरु नहि धिया धराही ॥
रहहि गृहस ते बिषय ब्यय कर । तनिक हूँत असन बसन पलक भर ।।
लगे रोग न लगे औषधाए । असं बसन धरि सरल सुभाए ॥
रहि न गज को रथ हय कारी । पर देइ दिब्य दरस दुआरी ।।
दुइ पद रथ एक कुटुम बिहीना । चारु चरत जब भोजन दीना ॥
तिन बिबरन सह जे धन राधे । सकल आय ब्ययन रहि आधे ॥
कह कहबत बधु प्रान पत, चरण चरत चतुराइ ।
एसु जीवन चरत रहत त,सकल भाग चुक जाइ ॥
एक बार जननी सदन सिधाए । दिन बिहाए पिय बहुरि ना आए ॥
लाल लवन लोचन जलरासी । पात पलक पट पटल पलासी ॥
चकचौहन लइ भइ अबला सी । पिय मयंक मुख दरस पियासी ॥
पहिले लागी पुनि अनुरागी । प्रेम पात्र पत पेयुख पागी ॥
आपन पत आपन कर कारू । जस कारज तस पदक पधारू ॥
करत करत भै दिन दुइ चारे । एकै अंक दिसि दसम दिहारे ॥
बुद्धि घटिते घटि सेउकाई । लाग लगावत किए अलगाई ॥
फिर फिरी चौंक चौबारी । प्रति नउ नबल निनादे दुआरी ॥
परिखन प्रति चरन पट उघारी । बार बार रयनै बन बारी ॥
बनउ ना हार बन उनहारे । बनउना हार ? बन उन हाँ रे ॥
बनाबनहार बनाब न हारे । बना बनहार बना बन हारे ॥
जोहत रैनी जर जर रोवत दीप मुरझाए पिया नहि आए ।
रीतइ रबि रथ गह बन पथ सँदेस सुनाए पिया नहि आए ॥
कुंज बलय बेली मंडित पत कलिक मुसुकाए पिया नहि आए ।
अगोरत नैन हिय लोन लगत दिबस बहुराए पिया नहि आए ॥
लागे चाहे बिलगाए, लगे रहे पर भाउ ।
कभु लगाए कभु अलगाए, भाउ के एहि सुभाउ ॥
मंगलवार, १७ सितम्बर, २ ० १ ३
परगसे परब बार तिहारे । आन ढाड़ि सोंइ गह दुआरे ॥
बयस गह गृहस जान न जाने । पयनइ जस पायस पनियाने ॥
बिगरी बनाउ जस सुभ लाहा । सोचै बधू अस करुँ मैं काहा ॥
पुनि गृह बन पथ गवन गुहारे । ना रे कहत कातर निहारे ॥
मानस मति मत हंस बिहारे । आपन आहिं कहत हा हाँ रे ॥
अहंकार कर करत अहमिके । हितहुत न हुँते अह एव मति के ॥
आप निद्रा दोउ बत पर आइ । एक मन महा महि एक मनुसाए ॥
आपनपो बधु हार बिहाई । मनुहारनइ नीति अपनाई ॥
अपनय आपा छाँड़ के, ले गवनइ ससुराइ ।
दुचंद निमेष ढाड़ि के, प्रियतम लेइ अवाइ ॥
बुधवार, १८ सितम्बर, २ ० १ ३
प्रियंवदा वादन बल देईं । भार गृहस के कर धरि लेईं ॥
तिरछ नैन के सैन सहारे । सजन सलौने के सिरु धारे ॥
घर घन बर मंदर मुनि मौने । ररिहत रहि तनि द्रव दै द्रौने ॥
पंगुल पद लै पिय असहाई । दीन दसा तिन देख दुखाईं ॥
गवनै तब पितु पालक पाहीं । कहतएँ बूझे गृह कठिनाई ॥
तिन कर रहि कारज बहुतेरे । पानि करम फल लाह घनेरे ॥
लहि बार बिदया भए सेउकाए । परिहरु सब रहु मोरे सहाए ॥
बियाह पर रहि पितु के एहि ररना । बहुरि बहुरि पियबर मुख रहि ना ॥
दिवस श्राम रत निद्रा बियोगे । बहु श्रम पर बिदया कर जोगें ॥
तव पन पनपे तव गह पानी । बेषम पथ करमन कँह बानी ॥
पर जे पुत पातेबहुल, ते पितु के किन काम ।
ऐसेउ पिय मति मत लिए, बहुरे बसिते धाम ॥
गुरूवार, १९ सितम्बर, २ ० १ ३
लोही लल जस लाहत लाहे । कामिन मन जस कामिनि चाहे ॥
क्रोधि चाह जस कलह कलेषा । पिय मोहित तस धन लउ लेषा ॥
जैसे लोभी लाभ हेतु लालायित रहता है; कामी, कामिनी की कामना करता है । जैसे क्रोधी कलह और क्लेष की जुगत में रहता है, वैसे ही प्रियतम मोह स्वरूप में किंचित धन की चाह लिए हुवे थे ॥
बिदिया उपाधि धरि गुरुबर कर । पीठ भाज मंडलक ब्यवहर ॥
बहु श्रम पर तेइ मनि लाहे । दोउ जुगल ते अधार बिहाहे ॥
श्रेष्ठ विद्यालयों में,श्रेष्ठ पुस्तकालयों के सहयोग से, विद्वान गुरुजनों से शिक्षित होकर, व्यवसायिक विद्या की उपाधि ग्रहण की । यह विद्याधन बहुंत ही श्रम पूर्वक अर्जित किया गया था । जो वर वधु के विवाह का आधार बना ॥
इत गह बित्त बिजोगन जोगे । जोग रहत रहि जुगल बिजोगे ॥
रही बैदक भै बिदिया रोगी । राउ राज के कुकरम भोगी ॥
इधर गृह धन व्यवस्था की प्रतीक्षा में था, उधर योग्यता रहते हुवे भी दोनों युगल अयोग्य घोषित थे ॥ जो विद्या भिषक थी, वह रोग बन गई थी, और शासक के शासन की अराजकता को भुगत रही थी ॥
अंजन रंज न नयन न रंगे ?। अंज न रंज न नयन निरंगे ?॥
मोद मुदित जब रहि मन अंगे । दिवस रयनि रय रयन प्रसंगे ॥
यदि काजल न हो तो क्या नयन नहीं रंगेंगे । कमल या अमृत में रंग नहीं है तो क्या वह फीके कहलाएंगे । उसी प्रकार यदि हर्ष और प्रसन्नता मन के अवयव हों तो, दिवस एवं रयन में अनुरक्ति सदैव व्याप्त होगी ॥
कंचन कन धाम धन के, लाह करे न तिहार ।
जे मुद मुदित चितबन के, रहि नित पंथ निहार ॥
पर्व त्यौहार, न तो स्वर्ण कणों की , न ही धन संपत्ति की लालसा करते हैं । वे तो सदैव प्रसन्नचित ह्रदय दृष्टि की प्रतीक्षा में रहते हैं ॥
शुक्रवार, २ ० सितम्बर, २ ० १ ३
पहिल परब बर बधु अगवाईं । नउ नकत नौ कनिका जिवाईं ॥
अपर दिवस दसहेरा भेरी । हेर हेर घर घर दिए हेरी ॥
गाँउ नगरि गढ़ देस दुआरी । लोकित करत आइ देवारी ॥
दीप कली बल बरत अधारी । दीपत अलकत अलि उजियारी ॥
नौ घर भित उत थंब सहारे । बेषम करमन धरि ढलियारे ॥
अंस रासि कर पावन चाहीं । बार बधूटी पर धरि नाहीं ॥
बधु बर बहनइ माँग निहारी । दिए सपेम दुइ अंस उबारी ॥
इत जुग दम्पत कर रिन गाहीं । एक तरि एक चढ़ि भए उन्हाहीं ॥
उत बर चित्र कर तनि कन जोरे । लाइ धरे बधु के कर कोरे ॥
जे रहि सिरु संकट तत्काला । परिहरि दोनौ तेइ बियाला ॥
सद्गुन सरूप राम कर दुर्गुन रावन मारि ।
तमोध्न हर सकल घर ज्ञान दीप उजयारि ॥
शनिवार,२१ सितम्बर, २ ० १ ३
रचित दिवस सन रैन रचेता । जड़त जगत सन जीव सचेता ॥
तापन सन सुख कंद रचाईं । धीर धरन सन रचि अधिराईं ॥
कंत केत ससि मुख मसि मलिने । सागर सेत सूर वलि वलिने ॥
पुनित करम सन कारज कारे । बिष दायत दै अमरित धारे ॥
ऊँच नीच सन भाव अभावा । जीउ जात सन जनम बिहावा ॥
जल भूषन जल जलत ज्वाला । धरा गगन सन रचि भवजाला ॥
सकल कोष कल कर परितोषे । जीउ उद्धरन गुन सह दोषे ॥
मानाख मति दे ज्ञान बिबेके । तिन सह गुन गह ले एकइ एकै ॥
जब लाह चेतस चेते न, तब लग मति भरमाएँ ।
गुन धरमन दोष दूषन, जग जन परख न पाएँ ॥
रविवार, २२ सितम्बर, २०१३
जुगलहु रहि जन जगत समाना । बाहिर मनु मन भित भगवाना ॥
जिउ पथ संचारल कल काई । धरे रहि न को लकुटी माई ॥
रहहि न को साधन सोते । नाहि खलिहान जा जिन जोतें ॥
रहि न कोउ मुदरा बनबारी । लेइ तोर धन झोरिहि घारी ॥
मितहारिन ब्रत संजम नेमा । ते साधन कर धरे सपेमा ॥
दंभ मान मद करम निषेधा । लोभ लोलुप किए न मतभेदा ॥
जिन के सह को अहित न कारे । जिन संतति मन मोह बिकारे ॥
दुइ सन ब्यसन रहि न एकहू । रहि मति तेइ ज्ञान बिबेकहू ॥
मानख मटिया मूरती, बिधि खात रूप कार ।
चारि दिवस के खेलना, मति कुंजी आधार ॥
जग जारत जोत सरूप, अरु मनु देह पतंग ।
जनमत भँवरत जर मरे, अंत काल तिन संग ॥
सोमवार, २ ३ सितम्बर २०१३
पिया रहहि तिन बिषय प्रबीने । प्राबिधिक जे बिदिया लीने ॥
बहुरि एकु बिदिया महा पीठे । पाठन हुँत दिए याचन चीठे ॥
जोख जोगता गुरुबर लोगे । अंस कालिन निजोजित जोगे ॥
जेतक काल खंड करि कारें । तेतक कर्मन धन कर धारें ॥
कार करन ते भए कुसलाईं । कारत रहि जब रहि न बिहाईं ॥
पाठिन नउ पर पीठ पुरातन । पाठइ अलि क्रम आठ न आठन ॥
पनाधार जे कर्मना बँधे । गह चारन ते केरि प्रबँधे ॥
उत नव निर्मित नवल निवासे । चौपत ऊपर बहुस बिलासे ॥
लगे नयन पत पंथ निहारे । इत करतल पत कुंजी धारे ॥
गवन भवन देहरि सिरु नाईं । दरसत खन खन अति सुख पाईं ॥
दरसत नयन कछ दुआर, धारत हरिदे हेत ।
कहूँ परस कहुँ धरत कर, पुलकैं दम्पत सेत ॥
मंगलवार, २४ सितम्बर, २ ० १ ३
भवनानी एक भवन अनन्ता । भए दम्पत तिन अर्धन कंता ॥
अजहुँते अर्धन भाव चुकाईं । ते कारन दुइ अध् पद पाईं ॥
सेष रासि रस लहि दस भागे । एक एकंक दस बरस बिभागे ॥
भाज भीरे सहस कुल तीसा । भाउ गाँठ करि हरुबन सीसा ॥
भाऊ पर जे बँधे बियाजे । भार भूत बर तेइ बिराजे ॥
कहत पिया बधु निज मति मंते । जे भवन मूल लह श्री वंते ॥
भाविन दिन जे नगरि हमारी । भाव भवन भू बर्धन धारीं ॥
धारे धन ब्यय करहु थोरे । भूमि भवन मह लागत जोरें ॥
तेइ बेर बोले न मुख, बॉलत रहि पिय ज्ञान ।
भावानुभाव संचरत, मति गति भासत भान ॥
बुध /गुरु ,२५/२६ सितम्बर, २ ० १ ३
अचर जात मुख बोल न धारें । बाल कुसल तइ धुनी निकारें ॥
चित चेतस रा राज रस रोधें । बाल मानस सब बोध प्रबोधें ॥
बुध प्रबुद्ध कबि बर बिद्वाने । पसु पाखिं के भाख न जाने ॥
बालक भए बहु भाव प्रधाने । तिनके चित सब भाखन भाने ॥
पात फूर फर तरुबर बेरी । पाथर मिले त धर कर खेरी ॥
करत बात कछु झूरन लोले । जल खन खन पौ पवनहू बोले ॥
चारु चरन चर बाल कुँवारी । नवल भवन भू चौसहूँ धारी ॥
कलि मन कोमल अमल अबोधे । असन बसन बर भवन न बोधे ॥
बास्तु पौरूख कल्पन कारे । घर जस मानख अंग दुवारे ।
करत बात भित इत उत डोले । जब धर भवन नयन पट खोले ॥
दूर दिसा दस दिरिस दरसाए । दमके धूप कहूँ छाया छाए ॥
नभो चाष कहूँ चमक चमकाए । चरत बिहंगे पाख फैराए ॥
छादन धारे छत छतनारे बिटप मंडप मंडिते ।
दरसन कारे नयन उघारे भूबन भवन बन भिते ॥
कूलिनि कूला मंत्र उचारे मंदिर भीत पण्डिते ।
मसजिद मुल्ला कहूँ गुर द्वारे कहूँ घंटा घर घंटिते ॥
नन्दिन नादी नन्द निनादी नदी नदी न दीन नदने ।
धिन धिन धवनित धीदा तरि थित इत तित तरिता तरने ॥
दोउ कूल दल केलत कल कल सुर सप्तक कंप करे ।
कल भूषन जल बेली बल बल राग रंग रवन बरे ॥
दूज कगारे राज अगारे करपानि कीर्ति करे ।
निभ नभ परसत दृग दिसि दरसत सिखा चिन्ह चाक धरे ॥
ताल हटी ठिया कर्पर कुटिया सन सन भुइं भवन भरे ।
धूमित द्वार घर धुर ऊपर धूम ध्वजा पथ बरे ॥
धूरे दिसि धर चौहट सुन्दर सुबट रुचि रचना रचे ।
नगरी नागर चारु चरन चर रथ बरुथिन्ह चरिते ॥
तिर तरु बृंदे लखित अलिंदे, मनु को तपस्वी खरे ।
सिख सिख साखा ज्ञान बिसाखा जनु पत फर फूर फरे ॥
भूयस भूषित भेष, भीत भीत कृत कल केस ।
चंचल नवल निमेष, सकल सदन निभ नयन नए ॥
शुक्रवार, २७, सितम्बर, २ ० १ ३
हाट बाट बनि बाँधत जोरे । भूति भुगत दिन कर दिन बोरे ॥
दिब्य बसन मनि लाल लपेटे । अम्बर डम्बर सैल समेटे ॥
दरस भवन इत जुगल बहोरी । साँझ धरे कर काजर घोरी ।।
गृह पुरान जब चरनन धारी । घार नयन रुप रयनी धारी ॥
नभ गामिन जे दरसन दीना । बहुरि मगन तिन भयउ बिहीना ॥ गवन सदन मुख भोग निवासे । धावन पर प्रिय भूषन बासे ॥
भोजन पर निसि सायन निबासे । कहत पिया बदनन निस्बासे ॥
दुचंद दिनमल औरु बिहावइ । त हमरे लगन पञ्च बरस लइ ॥
जीवन न जान कितै छन, अहोरी अरु बहोरि ।
कोउ हरिदे लवन देइ, को सुख औषध जोरि ॥
शनिवार,२८ सितम्बर, २ ० १ ३
कहत पिया उपरांत बिहाइ । घटित घटना बधु सुध सुरताए ॥
नयन फलक फिर फेर बंधाईं । छाया गह एक एक छबि छाई ॥
आइ लगन पर जब ससुराई । बहु प्रियकर सुन्दर बर पाई ॥
प्रीत करम धन रीतिहि राखे । दिए बर्द्धन प्रिया हरि लाखे ॥
बिहा पर छह दिनमल बिहाई । जनम जनयिता सुराग सिधाई ॥
जननी जात गर्भ गहियाई । पाछिं एक सुन्दर सुत जन्माई ॥
जनमे सुत हत भागन लिन्हें । रोग गहन दुःख दारुन दिन्हें ॥
रोग लखन को बैद न चिन्हे । गवने बहिर सुत अंक लिन्हे ॥
सकल रोग हूँत जगत लग, रहि औषध उपचार ।
आह पर लाल संजूत, भई न कौनो ढार ॥
रविवार,२९ सितम्बर, २ ० १ ३
एक दिन दिनकर गगन निकासे । त्ते उत्कासन किरण चकासे ॥
बधु मुख लिए बहु रुदन रुआँसे । उत्किरत कहि आज न कासे ॥
तिस रायनी ले अंतिम साँसे । रुसत मात पुत पितु बन बासे ॥
बहियर बहुरइ चाँद चढ़ाई । गर्भ धान लखि रुप धिय आई ॥
गात सममति जननी निवासे । जोउ सँजोवत दुसर घर बासे ॥
तँह पुरत भए गर्भन काला । जन्मी ससि मुख मंजुल बाला ॥
बारह मास भए धिय जनियाए । ऊरु फलक ले तात भंजाए ॥
सब सेवा पास पदक गवाईं । बय करत भवन पट पद पाईं ॥
बिते जीवन फेरि फेर, दरसे दृग दौ रूप ।
नन्द सोक घन नीर लिए, सुख छाईं दुःख धूप ॥
सोमवार, ३० सितम्बर, २ ० १ ३
अब आगिन का होवनहारी । अग्वान्हि सुख कौन दुखारी ॥
दुखित रयन सुख दीपक बारें । कहत सजन सुख दुःख न बिसारें ॥
बसित बास भू भाटक भारहिं । सिरु दम्पत अति अल्पत धारहिं॥
रहि एक पुर पितु घर ससुराई । लगी न लागत आवन जाई ॥
ज्ञान भवन के पठन पड़ाही । अजहूँत सिरु नहि धिया धराही ॥
रहहि गृहस ते बिषय ब्यय कर । तनिक हूँत असन बसन पलक भर ।।
लगे रोग न लगे औषधाए । असं बसन धरि सरल सुभाए ॥
रहि न गज को रथ हय कारी । पर देइ दिब्य दरस दुआरी ।।
दुइ पद रथ एक कुटुम बिहीना । चारु चरत जब भोजन दीना ॥
तिन बिबरन सह जे धन राधे । सकल आय ब्ययन रहि आधे ॥
कह कहबत बधु प्रान पत, चरण चरत चतुराइ ।
एसु जीवन चरत रहत त,सकल भाग चुक जाइ ॥