बितत दुइ चारि दिवस बहोरे । लेइ उबकाए बधु एक भोरे ॥
बधु समुझत छिनु लागहि नाहीं । कहि मन माह मैं गर्भ धराहीं ॥
पलभर हुँत बधुटी बिझुकाई । रहि चितबत सुधि बुध बिसराई ॥
होहहिं साँस नीचकिन नीचे / तँह पुनि गहनै अंतर खींचे ॥
मलिन बदन बधु दरसत पियाए / बूझत कहि भए सकल कुसलाए ॥
पलक नयन असमंजस बासे । बिचित्र रंग मुख रंजन रासे ।।
बिखरित आखर अधर जुहाने / भाव अर्थ लै जुग मुसुकाने ॥
पंच शब्द सूकुति संधाने / मृदुलित कहि हम गर्भा धाने ॥
ऐसेउ शब्द श्रवन कै,प्रियतम रहहि अवाक ।
सुस्मित मुख बिस्मै नयन अपलक बधु रहि लाख ॥
शनिवार, १७ अगस्त, २ ० १ ३
भाव प्रबनत बधू भइ रुआँसी । एहि कहत लेइ मुठिका कासी ।।
ए कह मुख दुइ धमुका धारे । जे सब भए किए कार तिहारे ।।
पुनि रद पद हँसि हंसक घारे । मुख मानस पिय हंस बिहारे ॥
कहिं माने हम कारन बारे । थोरइ न तवहु रचना कारे ॥
तब बधु के बार बदन अगासे । गहन मलिन चिंतन घन बासे ॥
बोली एक संकट तव ताईं । ता पर एक अरु सीस धराईं ॥
अब कारें तुहरे सेवकाए । कि धार गर्भ नउ जीउ जनाएँ ॥
कभु को तौ कभु कोउ प्रपंचे । माम जीवन का रचित बिरंचे ॥
भयऊ का आपन हाथ, कहत बधु के नाह ।
जैसे मानख आचरन, तैसे समउ के चाह ॥
रविवार, १८ अगस्त, २ ० १ ३
इहाँ लिखन आखर जुग टेरे । जुगल पीठ भू अवगत केरे ॥
दोउ जुगल रहि जेइ समाजे । रीत चरित तँह तेइ बिराजे ।।
पुर प्रियजन रहि पुत लोभाईं। पुतरी तुल पुत जनम सुहाईं ॥
जब जब ते दोनउ अनुहारी । तब तब परि पुत जातक भारी ॥
पुतरी गत बत संग पिया के । पुत रहहि सदा मात-पिता के ॥
पुत कर अन धन कर्म कमाई। पुतरी जातक भई पराई ॥
नारी पौरूख तिर्यक लाखें । ते कर तिनके राखन राखे ॥
एहि देसज भए पुरुख प्रधाने । नारि जात कँह भए सनमाने ॥
बिटवा के रजस सारत, आपन बंसज रेल ।
बिटिया के गर्भ घारत, दूजन के कुल बेल ॥
सोमवार, १ ९ अगस्त, २०१३
एहि मति सम्मति गहि समुदाई । पियहु तेइ मत जोग मिलाईं ॥
बधुटी के तौ मतिहि भरमाए । पुत जनाए कि पुतिका जन्माए ॥
घेरत गहन ज्ञान उजियारे । मति भरमत घन किए अँधियारे ॥
जेइ बखत कछु सूझ न पाईं । ते सूझै जौ जग बूझाईं ॥
जब लग जीवक जगत जिउताए । तब लग अंतस बहु झुर झुराए ॥
पावन जीवन प्रीत प्रतीती । परत निभावन जग के रीती ॥
का भए अघ अरु का पुन होहहि । मति भरमै तो कछु नहिं तोहहि ॥
तेइ करम कर कारन चाहे । जेइ जीउ धर सुख चर लाहे ॥
जीउ बुझौबल बूझत केरे । अवने गवने जन बहुतेरे ॥
आवत जो जग दरसन देखे । को निज को पर कुकरम लेखे ॥
सोइ लेखनी जगत सुहाई । जोइ लेखनी आप कहाई ॥
कुकर्म बहुस होत सरल, बरनन बर्नन आप ।
पर होवत बहुसहि कठिन, कथनत किए निज पाप ॥
मंगलवार, २० अगस्त, २ ० १ ३
एहि बिधि बधु बर जुगत बिबेका । रही सौतुख तीख प्रस्न अनेका ॥
सुरसा मुख सों छेक दुआरे । पावन उत्तर पंथ निहारे ॥
करत परस्पर संधित साथी । ऊरु फलक जुग जहि भलि भाँती ॥
जुगत चरण का लघु बर होहीं । बिकट प्रस्न मति पूछत जोहीं ॥
दूजत बूझत भये अधीरे । का प्रियतम भू चरिहि सुधीरे ॥
जे चरिहि तौ कर्म का किन्ही । गृह संचारन कण को दिन्ही॥
भए घर ते बिनु घर गोसाईं । कौन ठाँव कँह गृहस बसाईं ॥
बहुस कठिन भै बखतएँ भावइ । होहहि दुखकर बहुस भयावइ ॥
जों जों मन सुमिरत आगिन के । तों तों तन हहरत हारिन के ॥
पिय संकट अरु गर्भ गहीं कै । बयस भइ जस फंस नागिन के ॥
जस सुरसा बाढ़े बदन, करि अतिसय बढ़ खोर ।
तसहि ठहरे जीउ सदन, दुआरि प्रस्न कठोर ॥
बुधवार, २१ अगस्त, २ ० १ ३
एक चिंता रहि मोले घर के । बूझत मति तिन हरुबर धरके ॥
रोचमन नयन कहत कहानी । दिए ऊतरु तर पख के पानी ॥
संकट मुख कारत प्रस्नाई । पिया चरन बधु पंथ रचाई ॥
जुग धरि जे निधि कर्मन ताईं । ते करि चिंतन तनि लघुताई ॥
मित ब्यय करत गृह संचारे । मोले घर दुज अंस उतारे ।।
दंपति चातक गृह भए चंदू । सो संपद बहु देइ अनंदु ।।
गेहहु उसरत रहि बहु धीरे । बार बधुटीहु रहि न अधीरे ॥
एकै बस्तु जे भै सुख दाहीं । नहि त संकट रहि थोर नाहीं ॥
कठिन बिषय बय जे बड़ नाईं । लघुतम के तौ का कहि जाई ॥
जुगल दंपति जीवन उत, बिलोकित जल तरंग ॥
लेखनी बरन गहत इत, गत रत कहत प्रसंग ॥
गुरूवार, २ २ अगस्त, २ ० १ ३
इत बर के लघु बहिनइ ताई । लगन धरे दिन लगे अवाई ॥
लिखि बरनत करि लगन पतरिका । नाम धरे बर अरु बहिनहि का ॥
मात-पिता सह कँह जन्माईं । दोनौ कुल जन किए बरनाई ॥
बार सुन्दर अच्छर किए हेला । पानि गहन करि मंगल बेला ॥
अरु बरनत कहि भँवर लगाईं । समदन पुर थरि लगन बिठाईं ॥
पात पटल बल बरत बलीते । ता पर सुन्दर कलस कलीते ॥
प्रथम हुति जन गन अधिनाई । पुनि पुरप्रिय जन लिखि हूताईं ॥
कृपा करत कहि चरनन चिन्हें । नउ दम्पति निज असीस दिन्हें ॥
सकल जोइ कर पाए सुअवसर गुरुजन अयसु सिरु धरे ।
गवने पुर देहरि ससुर भसुर हरि, चरन लगन पत्र उहरे ॥
देव निमंत्रण गत भवन भवन, गवन प्रिय परि जन पुरे ।
बोधित श्री मन अवाई लगन बहु याचन करत कर जुरे ॥
लगन लग दिवस उत पिया, धरि बहु उरस उराउ ।
असक कसक परे खटिया, करि हठ गवनु बिहाउ ॥
शुक्रवार, २ ३ अगस्त,२ ० १ ३
हठ पद लगि जब चढ़न पहारी । बढ़ बहियर कर धरत ठहारी ॥
पपीया कलस करु परिहरु चाहीं । रिरिनत रत कहि नाहीं नाहीं ॥
रिर धरि भरक घरि भै रिसहाए । रिरत बधुटी एहि कहत बुझाए ॥
चरत बहनु लइ चरन हिलोरे । भयउ बिलग लग जोजित जोरे ॥
रलन लगन पिय गवनै ठाने । बधू के कही एकै न माने ॥
बहुरि पिहरु जन अरु ससुराई । चित चेतस बर बहु समुझाई ॥
कहइ गवनु अरु हठ ना धराहू । बेदउ मन्त्रन केर मनाहू ॥
जे मह रहि जी के कल्याना । मान भली तेइ बिधि बिधाना ॥
पहिलै हठ के परिहरै, लिए मन दूजन माँड़ ।
कह बधु तईं तुम गवनौ, मम सेवापन छाँड़ ॥
शनिवार, २ ४ अगस्त, २ ० १ ३
एहि श्रवनत बधु सोच जराही । अजहुँ परे पिय सयनइ माही ॥
बॉस बसन नित करमन कारें । भोजन जोजन साँझ सकारे ॥
जे मैं लगन गवन मेलाहूँ । ते पिया किमि खा अन्हवाहू ॥
कहत अंगारि भरके ऐसे । असहै रिसहै मनाउँ कैसे ॥
धरि साहस पुनि कहि सिरु नाई । पिय तुम महिम की लग्नाई ॥
श्रवनत एहि पिय कहिं रिसिहावत । करकत कह एक दूइ कहावत ॥
एकन्ह एक सन धुनी कहेही । रयन सयन माह परे परे ही ॥
अरु कहि एही मम आयसु होही । प्रिय लगन बधु नयन जल जोही ॥
पुनि कातर बधू नयन निहारे । कहत मृदुल पिय बचन सुखारे ॥
बधु होंत कुल बंस सोभाई । मिलन समदन लगन सोहाईं ॥
रे प्रान समा मोरि प्रियतमा तनि पिय के कहि लहनौ ।
मरजादा घर लावन श्री कर लगन के लाहन बनौ ॥
लगन घरी दिन, कुल बधु के बिन समुदाए जन का कही ।
मानु मम कहिन पुनि दैनंदिन जेइ सुअवसरु न लही ॥
भयउ बिधि बाम बखत एहि, किए मोहे असहाए ।
नहि त रिरत रह न तव सों, गवनै रहहि बिहाए ॥
रविवार, २५ अगस्त, २ ० १ ३
तिन अवसरु धरि बदन बिषादू । डरपत पिय परिहरत बिबादू ॥
कार सकल प्रियतम के काजू । जथा जोग करि साज समाजू ॥
श्रुत भँवरन हुँत नंदनि नादी । अँकबर पितु कर करबर बादी ॥
ललित कलित करि कंठ मालिका । अंगुरि धर चरि संग बालिका ॥
दोनउ एक संबंधिन संगे । चले मिलन सुभ लगन प्रसंगे ॥
चरत दोपहरि साँझ ढराई ॥ चंद्रोदय पूरब पैसाई ॥
जा गृह जन सन मेल मिलाई । जे पुर पैसएँ पहिलै ताईं ॥
भेस भरे बर लोग लुगाईं । अलिन्दन अँगन भवन बियाईं ॥
मंगल कालारंभ अचारहिं । चारत अष्टक बिप्र गुंजारहिं ॥
काम धुनी कर कोमल बानी । दै मंगल प्रद मौलिहि पानी ॥
भावी जुगल बर दंपति, बरे पंच परिधान ॥
तिलक रीति प्रीति पूरत, समदै गह सयान ॥
सोमवार, २६ अगस्त , २ ० १ ३
दोउ जामिनी लागि लुभावन । कोउ रागिनी रागि सुरागन ॥
बिरति तिलक कारत रतजागे । दूज दिवस किए सगुन सुहागे ॥
सोन सुरंगन साजि सिंहासन । एक पुर धुर ऊपर आसन ॥
बलि अलि अंबर बर अंबारी । दरस बिपद धर नग नख घारी ॥
फूल हार लरि झालरि साजी । भवन बसन बसि भा बर काजी ॥
भेरि दुंदुभी ढोल मृदंगे । घन घरजन कर नादित संगे ॥
सुर कम्पन कर ग्राम सुहाई । बिरधिन्ह कंठ मंगल गाईं ॥
सँवर समधि बार जनेत चढ़ाए । भाइ-बंधु सह जामा जमाए ॥
चढ़े रथ बाजि दुंदुभी गाजि रजबर राजि बाहिनी ।
भेस भरि भ्राजि साजत समाजि पथचर लाजि भामिनी ॥
जूँ साजि धाजि दामिनी दाजि रूप धर लाजि गामिनी ।
अगुवन बिराजि तारि तर ताजि छितकर छाजि जामिनी ॥
दरसत जनेत पख बधू, किए कल नंदत नाद ।
समधी समदनै अस जस, तज दौ दधि मरजाद ॥
मंगलवार, २७ अगस्त, २ ० १ ३
जनेत जन दिव दरसन दिन्हें । नभ मंडल प्रभ मलनइ किन्हें ॥
मौली मुकुट कटि कटारि साजे। लोकित बर जस को महराजे ॥
बार पख रहि बड़ हरिदै धारे। खान पान कर आप सँभारे ॥
बाज गाज सब साज समाजू । करि निज बिधि पर किए बर काजू ॥
सुधा सरिस नाना पकवाने । रचित सुरूचित बहुस बिधाने ॥
छरस भोग जन केरि बढ़ाई । कहुँ अपरम कहुँ बिधि उपराई ॥
मंडल मंडित मंडप देसे । पानि ग्रहन बधु बर उपबेसे ॥
भँवरे पुनि कर मह कर राखे । भरे बचन बनि अगनी साखे ॥
बरखे सुमन कुँअर कुँअरि , भररि भाँवरि जब सात ।
भए पुलक पाहुन प्रियजन, गहि सों साँवरि रात ॥
बुधवार, २८ अगस्त, २ ० १ ३
दुलहिन बर घर बहियर पाईं ।रितत रयन जन लेइ बिदाई ।।
बिलगत धिय रोदन करि कैसे । ह्रदय लगत घरि गिरिजा जैसे ॥
दान-मान दै बर उपहारे । धिया पिया दुल्हा कर धारे ॥
मात-पिता लै दुइ कर जोरीं । रहहि हमरि अजहुँत पत तोरीं ॥
नउ मास लगे उदरन घारी । जननि जिन्ह जा जनम जुहारी ॥
बिहउत बिहबल सजल निहारी । देइ दान करि झोरिन खारी ॥
उत बहुरत रत केत जनेता । इत बहुरन निज नगर निकेता ॥
दैं पर दुलहिन पख पहुनाई । जोए सँजोए गवनु हरुवाईं ॥
पाछिन परिहरु प्रियतम हेते । बधु चितबन धरि चिंतन चेते ॥
निंद मगन नंदिनी जगाई । जगे प्रात सन जामि बिहाई ॥
मान अधि सकल नेगि कर, बियाहु रीति निबेर॥
दान धी बेगि आप घर, निकसे मुँहू अँधेर ॥
गुरूवार, २९ अगस्त, २ ० १ ३
बिहनै चारत बधु थकि हारी । आवत प्रियबर जोखि सँभारी ॥
पूछत कार निज कवन किन्हें । जस तस कहत पिय उतरु दिन्हें ॥
सुरतत बहिनि नयन जल गाढ़े । करत काल घन पलकन बाढ़े ॥
बरख परे तब ली उसाँसे । ललकिन रत केसउ पत कासे ॥
बूझे उर भर धर तनि सांती । बिदा भइ बहिनइ भली भाँती ॥
थकित चिरित बधु कहि किए देहू । जे हमरे कहि पर संदेहू ॥
बोलसि कुटिल कटि भृकुटि ऐंचे। कहु त देखाएँ जे चित्र खैंचे ॥
तुम तौ बिय बन बरनन पेरू । कहि पिय लड़वन नित हुँत हेरू ॥
तुम चह आरती दिवस राती । देइ उतरु बधु बल खाती ॥
भाँवरि सात बचन भरे, कहि पिय भए तव नाथ ।
आरती करें चह लरें, बाँधे बंधन साथ ॥
शुक्रवार, ३० अगस्त, २ ० १ ३
करम सिराई बहिन बिहाई । भयउ मास एक परे सैनाइ॥
सीध सयन सइ पीठ लिलाई । बँधे बाहु किए दाहि न बाईं ॥
सुहाउ सुभाउ जे रहि अति चारू । रहत घरे बिगरे ब्यबहारू ॥
श्रम कर प्रिय अरु कारज हीना । यूँ तरपत जूँ जल बिनु मीना ॥
नित किरिया तँह तँहहि अन्हाएँ। असन बसन तँह देहिहि धराएँ ॥
दरसन गोचर न जग बहिराए । अंग प्रत्यंग सका अठियाएँ ॥
हत आहत हरि काल भली करि। आह करत पिय अह अह घरि घरि ॥
आहित स्वन बचन बिनयाने । आह्वयन भगवन अह्वाने ॥
गिरत परत बिनुधर चरत, ताप धरत दिनु रात ।
राम राम प्रतिपल करत पिय रहिं बखत बितात ॥
शनिवार, ३१ अगस्त २ ० १ ३
घरे घाउ भरि सका सुधीरे । संधिहि बंधन पर भए ढीरे ।।
बैदु अहोरन दै तिथि आई । दोइ चारि दिन अवर धराईं ॥
तेइ डगर चरि तेइ नगरिया । तेइ चरन पुनि तेइ चरइया॥
तेइ बाह पर दूसर बाही । चरे सकल तिन बैदक पाहीं ॥
लगे हरन मन दरसन डाहिर । बहुस दिवस पिय निकसे बाहिर ॥
चारि चरनि बहि सरनि सुधीरे । भावइ अति मन त्रिबिध समीरे ॥
कहुँ नग कहुँ नदि नन्द निनादे । कहुँ बन थरि फर फूरत राधे ॥
पिय श्री मुख जे लोकित सांति । बरनन बरन न सक कहुँ भांति॥
धरत दृष्टि पिय सुख बृष्टि, परत उरस संतोख ।
पर बधु चित पिछु बहि आगु, चरत रहहि बर चोख॥
शनिवार, १७ अगस्त, २ ० १ ३
भाव प्रबनत बधू भइ रुआँसी । एहि कहत लेइ मुठिका कासी ।।
ए कह मुख दुइ धमुका धारे । जे सब भए किए कार तिहारे ।।
पुनि रद पद हँसि हंसक घारे । मुख मानस पिय हंस बिहारे ॥
कहिं माने हम कारन बारे । थोरइ न तवहु रचना कारे ॥
तब बधु के बार बदन अगासे । गहन मलिन चिंतन घन बासे ॥
बोली एक संकट तव ताईं । ता पर एक अरु सीस धराईं ॥
अब कारें तुहरे सेवकाए । कि धार गर्भ नउ जीउ जनाएँ ॥
कभु को तौ कभु कोउ प्रपंचे । माम जीवन का रचित बिरंचे ॥
भयऊ का आपन हाथ, कहत बधु के नाह ।
जैसे मानख आचरन, तैसे समउ के चाह ॥
रविवार, १८ अगस्त, २ ० १ ३
इहाँ लिखन आखर जुग टेरे । जुगल पीठ भू अवगत केरे ॥
दोउ जुगल रहि जेइ समाजे । रीत चरित तँह तेइ बिराजे ।।
पुर प्रियजन रहि पुत लोभाईं। पुतरी तुल पुत जनम सुहाईं ॥
जब जब ते दोनउ अनुहारी । तब तब परि पुत जातक भारी ॥
पुतरी गत बत संग पिया के । पुत रहहि सदा मात-पिता के ॥
पुत कर अन धन कर्म कमाई। पुतरी जातक भई पराई ॥
नारी पौरूख तिर्यक लाखें । ते कर तिनके राखन राखे ॥
एहि देसज भए पुरुख प्रधाने । नारि जात कँह भए सनमाने ॥
बिटवा के रजस सारत, आपन बंसज रेल ।
बिटिया के गर्भ घारत, दूजन के कुल बेल ॥
सोमवार, १ ९ अगस्त, २०१३
एहि मति सम्मति गहि समुदाई । पियहु तेइ मत जोग मिलाईं ॥
बधुटी के तौ मतिहि भरमाए । पुत जनाए कि पुतिका जन्माए ॥
घेरत गहन ज्ञान उजियारे । मति भरमत घन किए अँधियारे ॥
जेइ बखत कछु सूझ न पाईं । ते सूझै जौ जग बूझाईं ॥
जब लग जीवक जगत जिउताए । तब लग अंतस बहु झुर झुराए ॥
पावन जीवन प्रीत प्रतीती । परत निभावन जग के रीती ॥
का भए अघ अरु का पुन होहहि । मति भरमै तो कछु नहिं तोहहि ॥
तेइ करम कर कारन चाहे । जेइ जीउ धर सुख चर लाहे ॥
जीउ बुझौबल बूझत केरे । अवने गवने जन बहुतेरे ॥
आवत जो जग दरसन देखे । को निज को पर कुकरम लेखे ॥
सोइ लेखनी जगत सुहाई । जोइ लेखनी आप कहाई ॥
कुकर्म बहुस होत सरल, बरनन बर्नन आप ।
पर होवत बहुसहि कठिन, कथनत किए निज पाप ॥
मंगलवार, २० अगस्त, २ ० १ ३
एहि बिधि बधु बर जुगत बिबेका । रही सौतुख तीख प्रस्न अनेका ॥
सुरसा मुख सों छेक दुआरे । पावन उत्तर पंथ निहारे ॥
करत परस्पर संधित साथी । ऊरु फलक जुग जहि भलि भाँती ॥
जुगत चरण का लघु बर होहीं । बिकट प्रस्न मति पूछत जोहीं ॥
दूजत बूझत भये अधीरे । का प्रियतम भू चरिहि सुधीरे ॥
जे चरिहि तौ कर्म का किन्ही । गृह संचारन कण को दिन्ही॥
भए घर ते बिनु घर गोसाईं । कौन ठाँव कँह गृहस बसाईं ॥
बहुस कठिन भै बखतएँ भावइ । होहहि दुखकर बहुस भयावइ ॥
जों जों मन सुमिरत आगिन के । तों तों तन हहरत हारिन के ॥
पिय संकट अरु गर्भ गहीं कै । बयस भइ जस फंस नागिन के ॥
जस सुरसा बाढ़े बदन, करि अतिसय बढ़ खोर ।
तसहि ठहरे जीउ सदन, दुआरि प्रस्न कठोर ॥
बुधवार, २१ अगस्त, २ ० १ ३
एक चिंता रहि मोले घर के । बूझत मति तिन हरुबर धरके ॥
रोचमन नयन कहत कहानी । दिए ऊतरु तर पख के पानी ॥
संकट मुख कारत प्रस्नाई । पिया चरन बधु पंथ रचाई ॥
जुग धरि जे निधि कर्मन ताईं । ते करि चिंतन तनि लघुताई ॥
मित ब्यय करत गृह संचारे । मोले घर दुज अंस उतारे ।।
दंपति चातक गृह भए चंदू । सो संपद बहु देइ अनंदु ।।
गेहहु उसरत रहि बहु धीरे । बार बधुटीहु रहि न अधीरे ॥
एकै बस्तु जे भै सुख दाहीं । नहि त संकट रहि थोर नाहीं ॥
कठिन बिषय बय जे बड़ नाईं । लघुतम के तौ का कहि जाई ॥
जुगल दंपति जीवन उत, बिलोकित जल तरंग ॥
लेखनी बरन गहत इत, गत रत कहत प्रसंग ॥
गुरूवार, २ २ अगस्त, २ ० १ ३
इत बर के लघु बहिनइ ताई । लगन धरे दिन लगे अवाई ॥
लिखि बरनत करि लगन पतरिका । नाम धरे बर अरु बहिनहि का ॥
मात-पिता सह कँह जन्माईं । दोनौ कुल जन किए बरनाई ॥
बार सुन्दर अच्छर किए हेला । पानि गहन करि मंगल बेला ॥
अरु बरनत कहि भँवर लगाईं । समदन पुर थरि लगन बिठाईं ॥
पात पटल बल बरत बलीते । ता पर सुन्दर कलस कलीते ॥
प्रथम हुति जन गन अधिनाई । पुनि पुरप्रिय जन लिखि हूताईं ॥
कृपा करत कहि चरनन चिन्हें । नउ दम्पति निज असीस दिन्हें ॥
सकल जोइ कर पाए सुअवसर गुरुजन अयसु सिरु धरे ।
गवने पुर देहरि ससुर भसुर हरि, चरन लगन पत्र उहरे ॥
देव निमंत्रण गत भवन भवन, गवन प्रिय परि जन पुरे ।
बोधित श्री मन अवाई लगन बहु याचन करत कर जुरे ॥
लगन लग दिवस उत पिया, धरि बहु उरस उराउ ।
असक कसक परे खटिया, करि हठ गवनु बिहाउ ॥
शुक्रवार, २ ३ अगस्त,२ ० १ ३
हठ पद लगि जब चढ़न पहारी । बढ़ बहियर कर धरत ठहारी ॥
पपीया कलस करु परिहरु चाहीं । रिरिनत रत कहि नाहीं नाहीं ॥
रिर धरि भरक घरि भै रिसहाए । रिरत बधुटी एहि कहत बुझाए ॥
चरत बहनु लइ चरन हिलोरे । भयउ बिलग लग जोजित जोरे ॥
रलन लगन पिय गवनै ठाने । बधू के कही एकै न माने ॥
बहुरि पिहरु जन अरु ससुराई । चित चेतस बर बहु समुझाई ॥
कहइ गवनु अरु हठ ना धराहू । बेदउ मन्त्रन केर मनाहू ॥
जे मह रहि जी के कल्याना । मान भली तेइ बिधि बिधाना ॥
पहिलै हठ के परिहरै, लिए मन दूजन माँड़ ।
कह बधु तईं तुम गवनौ, मम सेवापन छाँड़ ॥
शनिवार, २ ४ अगस्त, २ ० १ ३
एहि श्रवनत बधु सोच जराही । अजहुँ परे पिय सयनइ माही ॥
बॉस बसन नित करमन कारें । भोजन जोजन साँझ सकारे ॥
जे मैं लगन गवन मेलाहूँ । ते पिया किमि खा अन्हवाहू ॥
कहत अंगारि भरके ऐसे । असहै रिसहै मनाउँ कैसे ॥
धरि साहस पुनि कहि सिरु नाई । पिय तुम महिम की लग्नाई ॥
श्रवनत एहि पिय कहिं रिसिहावत । करकत कह एक दूइ कहावत ॥
एकन्ह एक सन धुनी कहेही । रयन सयन माह परे परे ही ॥
अरु कहि एही मम आयसु होही । प्रिय लगन बधु नयन जल जोही ॥
पुनि कातर बधू नयन निहारे । कहत मृदुल पिय बचन सुखारे ॥
बधु होंत कुल बंस सोभाई । मिलन समदन लगन सोहाईं ॥
रे प्रान समा मोरि प्रियतमा तनि पिय के कहि लहनौ ।
मरजादा घर लावन श्री कर लगन के लाहन बनौ ॥
लगन घरी दिन, कुल बधु के बिन समुदाए जन का कही ।
मानु मम कहिन पुनि दैनंदिन जेइ सुअवसरु न लही ॥
भयउ बिधि बाम बखत एहि, किए मोहे असहाए ।
नहि त रिरत रह न तव सों, गवनै रहहि बिहाए ॥
रविवार, २५ अगस्त, २ ० १ ३
तिन अवसरु धरि बदन बिषादू । डरपत पिय परिहरत बिबादू ॥
कार सकल प्रियतम के काजू । जथा जोग करि साज समाजू ॥
श्रुत भँवरन हुँत नंदनि नादी । अँकबर पितु कर करबर बादी ॥
ललित कलित करि कंठ मालिका । अंगुरि धर चरि संग बालिका ॥
दोनउ एक संबंधिन संगे । चले मिलन सुभ लगन प्रसंगे ॥
चरत दोपहरि साँझ ढराई ॥ चंद्रोदय पूरब पैसाई ॥
जा गृह जन सन मेल मिलाई । जे पुर पैसएँ पहिलै ताईं ॥
भेस भरे बर लोग लुगाईं । अलिन्दन अँगन भवन बियाईं ॥
मंगल कालारंभ अचारहिं । चारत अष्टक बिप्र गुंजारहिं ॥
काम धुनी कर कोमल बानी । दै मंगल प्रद मौलिहि पानी ॥
भावी जुगल बर दंपति, बरे पंच परिधान ॥
तिलक रीति प्रीति पूरत, समदै गह सयान ॥
सोमवार, २६ अगस्त , २ ० १ ३
दोउ जामिनी लागि लुभावन । कोउ रागिनी रागि सुरागन ॥
बिरति तिलक कारत रतजागे । दूज दिवस किए सगुन सुहागे ॥
सोन सुरंगन साजि सिंहासन । एक पुर धुर ऊपर आसन ॥
बलि अलि अंबर बर अंबारी । दरस बिपद धर नग नख घारी ॥
फूल हार लरि झालरि साजी । भवन बसन बसि भा बर काजी ॥
भेरि दुंदुभी ढोल मृदंगे । घन घरजन कर नादित संगे ॥
सुर कम्पन कर ग्राम सुहाई । बिरधिन्ह कंठ मंगल गाईं ॥
सँवर समधि बार जनेत चढ़ाए । भाइ-बंधु सह जामा जमाए ॥
चढ़े रथ बाजि दुंदुभी गाजि रजबर राजि बाहिनी ।
भेस भरि भ्राजि साजत समाजि पथचर लाजि भामिनी ॥
जूँ साजि धाजि दामिनी दाजि रूप धर लाजि गामिनी ।
अगुवन बिराजि तारि तर ताजि छितकर छाजि जामिनी ॥
दरसत जनेत पख बधू, किए कल नंदत नाद ।
समधी समदनै अस जस, तज दौ दधि मरजाद ॥
मंगलवार, २७ अगस्त, २ ० १ ३
जनेत जन दिव दरसन दिन्हें । नभ मंडल प्रभ मलनइ किन्हें ॥
मौली मुकुट कटि कटारि साजे। लोकित बर जस को महराजे ॥
बार पख रहि बड़ हरिदै धारे। खान पान कर आप सँभारे ॥
बाज गाज सब साज समाजू । करि निज बिधि पर किए बर काजू ॥
सुधा सरिस नाना पकवाने । रचित सुरूचित बहुस बिधाने ॥
छरस भोग जन केरि बढ़ाई । कहुँ अपरम कहुँ बिधि उपराई ॥
मंडल मंडित मंडप देसे । पानि ग्रहन बधु बर उपबेसे ॥
भँवरे पुनि कर मह कर राखे । भरे बचन बनि अगनी साखे ॥
बरखे सुमन कुँअर कुँअरि , भररि भाँवरि जब सात ।
भए पुलक पाहुन प्रियजन, गहि सों साँवरि रात ॥
बुधवार, २८ अगस्त, २ ० १ ३
दुलहिन बर घर बहियर पाईं ।रितत रयन जन लेइ बिदाई ।।
बिलगत धिय रोदन करि कैसे । ह्रदय लगत घरि गिरिजा जैसे ॥
दान-मान दै बर उपहारे । धिया पिया दुल्हा कर धारे ॥
मात-पिता लै दुइ कर जोरीं । रहहि हमरि अजहुँत पत तोरीं ॥
नउ मास लगे उदरन घारी । जननि जिन्ह जा जनम जुहारी ॥
बिहउत बिहबल सजल निहारी । देइ दान करि झोरिन खारी ॥
उत बहुरत रत केत जनेता । इत बहुरन निज नगर निकेता ॥
दैं पर दुलहिन पख पहुनाई । जोए सँजोए गवनु हरुवाईं ॥
पाछिन परिहरु प्रियतम हेते । बधु चितबन धरि चिंतन चेते ॥
निंद मगन नंदिनी जगाई । जगे प्रात सन जामि बिहाई ॥
मान अधि सकल नेगि कर, बियाहु रीति निबेर॥
दान धी बेगि आप घर, निकसे मुँहू अँधेर ॥
गुरूवार, २९ अगस्त, २ ० १ ३
बिहनै चारत बधु थकि हारी । आवत प्रियबर जोखि सँभारी ॥
पूछत कार निज कवन किन्हें । जस तस कहत पिय उतरु दिन्हें ॥
सुरतत बहिनि नयन जल गाढ़े । करत काल घन पलकन बाढ़े ॥
बरख परे तब ली उसाँसे । ललकिन रत केसउ पत कासे ॥
बूझे उर भर धर तनि सांती । बिदा भइ बहिनइ भली भाँती ॥
थकित चिरित बधु कहि किए देहू । जे हमरे कहि पर संदेहू ॥
बोलसि कुटिल कटि भृकुटि ऐंचे। कहु त देखाएँ जे चित्र खैंचे ॥
तुम तौ बिय बन बरनन पेरू । कहि पिय लड़वन नित हुँत हेरू ॥
तुम चह आरती दिवस राती । देइ उतरु बधु बल खाती ॥
भाँवरि सात बचन भरे, कहि पिय भए तव नाथ ।
आरती करें चह लरें, बाँधे बंधन साथ ॥
शुक्रवार, ३० अगस्त, २ ० १ ३
करम सिराई बहिन बिहाई । भयउ मास एक परे सैनाइ॥
सीध सयन सइ पीठ लिलाई । बँधे बाहु किए दाहि न बाईं ॥
सुहाउ सुभाउ जे रहि अति चारू । रहत घरे बिगरे ब्यबहारू ॥
श्रम कर प्रिय अरु कारज हीना । यूँ तरपत जूँ जल बिनु मीना ॥
नित किरिया तँह तँहहि अन्हाएँ। असन बसन तँह देहिहि धराएँ ॥
दरसन गोचर न जग बहिराए । अंग प्रत्यंग सका अठियाएँ ॥
हत आहत हरि काल भली करि। आह करत पिय अह अह घरि घरि ॥
आहित स्वन बचन बिनयाने । आह्वयन भगवन अह्वाने ॥
गिरत परत बिनुधर चरत, ताप धरत दिनु रात ।
राम राम प्रतिपल करत पिय रहिं बखत बितात ॥
शनिवार, ३१ अगस्त २ ० १ ३
घरे घाउ भरि सका सुधीरे । संधिहि बंधन पर भए ढीरे ।।
बैदु अहोरन दै तिथि आई । दोइ चारि दिन अवर धराईं ॥
तेइ डगर चरि तेइ नगरिया । तेइ चरन पुनि तेइ चरइया॥
तेइ बाह पर दूसर बाही । चरे सकल तिन बैदक पाहीं ॥
लगे हरन मन दरसन डाहिर । बहुस दिवस पिय निकसे बाहिर ॥
चारि चरनि बहि सरनि सुधीरे । भावइ अति मन त्रिबिध समीरे ॥
कहुँ नग कहुँ नदि नन्द निनादे । कहुँ बन थरि फर फूरत राधे ॥
पिय श्री मुख जे लोकित सांति । बरनन बरन न सक कहुँ भांति॥
धरत दृष्टि पिय सुख बृष्टि, परत उरस संतोख ।
पर बधु चित पिछु बहि आगु, चरत रहहि बर चोख॥