Monday, July 1, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 11॥ -----

सोम/मंगल, ०१/०२ जुलाई, २ ० १ ३                                                                  

पद रहि मरजादित नित कृतिया । परिश्रम धन भृत हुँत अध भृतिया ॥
जोगता रहहि अभिधा यंता । महमुनि मतमह गति मंता ॥
पद संविदा पर आधारित एवं पूर्ण कालिक था । और परिश्रम धन भृत्य के पारिश्रमिक से भी आधा था ॥ और( न्यूनतम) योग्यता थी अभियंता की उपाधि साथ में ऊंचा अनुभव, बुद्धिमान और विचारवान ॥ 
   
कारु करतब सहज न होहिन्हि ।  रहत कठिनई करत बोधिन्हि ॥
पद थापन थरि रहि बहु दूरे । दोइ तिनी सौ जोजन धूरे ॥
कार्य कर्तव्य भी सरल नहीं था , करने में कठिन था जिसे  सोचा समझ कर क्रियान्वयित करना था ॥ पद स्थापना स्थल बहुंत ही दूर था यही कोई दो तीन सौ योजन के आस पास था ॥ 

दसा बिबस पिय भयउ निरासे । बहियर हुँत अस बचनन भासे ।।
सोचतहूँ लेइ सकल उपाधि । दुइ टूक कर कहु धरौं समाधि ।।
अपनी स्थिति से विवश होकर प्रियतम निराशा से भर गए । और वधु से इस प्रकार के वचन कहने लगे :-- सोचता हूँ साड़ी उपाधियों को लेकर उनके दो टूकड़े करके कहीं समाधि ले लूँ ॥ 

अस सुनि बधु बहु कह समुझाई । अधस मनोबल ऊंच उठाई ।।
करमही सई करमहि साईँ । तेहि परत अरु को न उपाई ।। 
ऐसा सुन कर वधु ने प्रियतम को बहुंत ही समझाया बुझाया । उनके गिरते मनोबल को ऊंचा उठाया ॥ । कर्म ही से बढ़ती है, कर्म ही में भगवान है कर्म ही समस्याओं का एक अंतिम उपाय है इसके पश्चात और कोई दूजा हल नहीं रह जाता ॥ 

श्रवनत पिय अस लै उछ्बासे । करमन करतन कर कटि कासे ।। 
पद पदवि रहि पुरातन नाहीं । रहे निजोजित पुरसहु ताहीं ॥  
जब पिया ने वधु के वचन सुने तो एक लम्बी सांस ली और कर्त्तव्य कारित करने हेतु करधनी कस ली । यह पद और यह पदवी कोई नवीन नहीं थी प्रियतम पहले भी इस पद पर नियोजित होकर कार्य कर चुके थे ॥ 

गवने पुनि कारज करन, अवली लिए कर धार । 
करत हस्त आखर चिन्ह, धारे कारज भार ।। 
कार्यालय जाकर फिर कार्य-सूचि हाथ में लेते हुवे उन्होंने हस्ताक्षर चिन्हित करते हुवे कार्यभार ग्रहण किया ॥ 

बुधवार ० ३ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                  

पथरील पथ परबत करि हेला । चरि थापन थरि किए जन भेला ॥ 
भँवरत कारज दरसन देखे । लै लिखनिहि आलेखन लेखे ।। 
पतःरिले पथ और पर्वतों को सेतु स्वरूप करते हुवे प्रियतम स्थापना स्थल को प्रस्थान किए और वहां के निवासियों से भेंट की ॥ लेखनी से आरेखन चित्र उकरते घूम घूम कर दिए गए कार्यों का निरिक्षण किया ॥ 

जीउति जीवन करतब कारे । एक कण श्रम धन कर नहि धारे ॥ 
गहति जितै धन मास पूराए । उतै छह दिन मह गयउ सिराए ॥ 
जीवित रहने हेतु आजीविका के कारण वो यह कर्त्तव्य कर रहे थे अभी तक श्रम धन का एक भी कण ग्रहण नहीं किया था ॥ जितना धन एक मास के पूर्ण होने पर प्राप्त होता उतना तो छह दिन में ही समाप्त हो गया ।। 

तँह पिय दुमन लिए दूर भासे । दूर बधुटि सन मधुरित भासे ॥ 
जेहि सेउकाए सौं गृह खाई । तुम्हहि कहु अब का करि जाई ॥ 
तत पश्चात प्रियतम खिन्न मन से दूर भास् लिए और दूर बैठी प्रियतमा के साथ, मधुरता पूर्वक ऐसे बोले । यह सेवा आजीविका तो घर को भी खाने वाली के सदृश्य है अब तुम्ही कहो क्या किया जाए ।। 

अधि का कहुँ कहि बधु सकुचाई । उहि करौ जौ सब सुख हिताई ॥ 
श्रुत अस प्रिय कहि मधु मुसुकावत। अध परिजोजन अधपद जावत ॥ 
तब वधु ने संकोच करते हुवे कहा अधिक और क्या कहें वही करो जो सब जनों के हीत एवं सुख के लिए हो ।। ऐसा सुनकर प्रियतम ने मुस्कराते हुवे कहा आधी बनी परियोजन आधा अधूरी ही रह जाती है ।। 

भवरौ पाथर परबत डोरी । श्रम धन केवल धरु सौ कोरी ॥ 
करक करम करमना दुकौरी । कपट लेखी कर बनौ करोरी ॥ 
पथरीली पर्वती भूमि में भ्रमण करो और श्रम धन के नाम पर केवल सौ कौरी ( एक कौरी = २० ) रखो ।कठोर कर्म और कर्मण्या दो कौड़ी की । छल कपट भ्रष्ट आचरण करो और करोडपति बनो यही है राजा की योजनाएं ।। 

चाहे पूरन तल गहे, कृतत तलैया ताल । 
चाहे तो अध तल लहे, कार कपट के जाल ॥  
सद आचरण कर अपने घर से धन लगा कर चाहे तो ताल-तालाब पूर्ण स्वरूप में खनन करो या भ्रष्ट आचरण करो और उसे आधा ही रहने दो ।। 


 गुरूवार, ० ४ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                        

जे  जन्पदि मह थापन थाई । तहहि पिया एक ठिया बनाईं ॥ 
खेत खलिहन खेत बन श्रामा । रहहि सेवक के करमन धामा ॥ 
जो जनपद, प्रियतम का स्थापना स्थल था । वहां प्रियतम ने एक निवास बना लिया था ॥ खेत खलिहान छोटे गाँव और वन आश्रय, राजा के उस सेवक की कर्म सथाली थी ॥ 

जदपि सेवा जोजन रत हुँते । कारत कपट धन रही बहुंते ॥ 
श्रमन कारजहु गहे न थोरे । बहुर रयनि पिय निकसत भोरे ॥ 
यद्यपि उस सेवानियुक्ति में लगे रहने से और कपट कार्य करने में धन बहुंत था किन्तु साथ ही श्रम कार्य भी थोड़ा नहीं था प्रियतम जनपद से भोर में निकलते तो लौटते लौटते रात हो जाती थी ॥ 

तमस तमा तस बन घन घोरे । रहे जिउ जंतु दन्तक खोरे ॥ 
कहु कोउ पूरा बीच पहारा । ता पर संचय जल की धारा ॥ 
काली रात के जैसे वन में घन घोर अन्धकार रहता और उस्समें जीव जंतु भी दांतों से काटने वाले थे ॥ कहीं कोई गाँव पहाड़ों के बीच स्थित था तो उस पर से निकलती जल की धारा को संचयित करना होता ॥ 

पथिक अपथि पद पदिक रचियाए । थकि हारत कभु छाए ना पाए ॥ 
कबहु एक बेर रहि भूखाईं। कंद मूल कभु फल फुल खाईं ॥ 
थे तो यात्री किन्तु बिना पथ के अपने ही पद चिन्ह से पथ बना लेते । थके हारे प्रियतम को कभी तो कहीं विश्राम भी नहीं मिलता ॥
  कभु को श्राम सयन सरन, रहहि न करपर ठोर । 
मारग अगम भूमि धरे, काँकर कंट कठोर ॥ 
कभी कोई शरण स्थली न कोई शरण न शयनिका न ही कोई सर के ऊपर अन्य छत ही होती ॥ कांटे कंकड़ और कठोर स्वरूप धारण किये भूमि और उस पर दुर्गम मार्ग का आवागमन ॥ 

शुक्रवार, ० ५ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                               

एहि बिधि कभु प्रिय सुरतित करती। चित चिंतत बधु सुमिरन धरती॥ 
को घरि पद गह पंथ बहूरे । रहि धूरे भए पंथी दूरे ॥ 
इस प्रकार वधु कभी प्रियतम का ध्यान करते हुवे, मन में चिंता धरते उनका स्मरण करती । कि जाने किस घडी  उनके चरण मार्ग पकड़ेंगे और वह वापस लौटेंगे । जो वधु  के निकट थे अब वह दूर के पथिक हो गए हैं ॥ 

बहुरत प्रियतम बहुतहि दिन पर । कबहु दस कबहुक पञ्च ऊपर ॥  
दिवस जात मुख अंत प्रभा से । प्रिय पपिहा से प्रेम पिपासे ॥ 
और प्रियतम बहुंत-बहुंत दिनों के पश्चात लौटते कभी दस दिन तो कभी पांच दिन ऊपर हो जाते । लौटते तो जैसे दिनभर का परिश्रम कर दिनान्त पर लौटती प्रभा और पपीहा के जैसे प्रेम के प्यासे रहते ॥  

ते बखतै धिय लै अरूनाई । रूप संपद के मह निधि पाई ॥ 
कंठ कलित कल केरि हुँकारे । मोह मुदित पितु गोदि उछारे ॥ 
उस समय बालिका बाल मुकुन्दनी ( कुछ मास की अवस्था को प्राप्त हो ) लावण्यता लेकर सुरूपता के महा भंडार से युक्त हो गई थी ।। उसका कंठ मधुर हुंकार भरने लगा  । और पिता  उसके बाल स्वरूप में मोहित होकर गोद में लेकर उछालते ॥ 

कोमल तन जल मल अन्हवाएँ । लइ पुर पन नउ बसन पहिनाएँ ॥ 
माइ करत कुम कुम सिंगारे । लोचन पथ पल मल मसि डारे ॥ 
उसके कोमल तन को जल से मल मल कर नहलाते । और नगर के हटवार से नए वस्त्र लाकर उसे पहनाते । माता कम कम का श्रृंगार करती ।  दृष्टि क्षेत्र एवं पलक आच्छादन को मल कर काजल  लगाती ॥ 

 मुख उचारित जब अति मृदु बानी । मधु मिस जनु खग कूजन सानी ॥ 
कटि किंकिन कल कर पद जोरी । चरि घुटरुन माई तृन तोरी ॥ 
जब वह मुख सी अति कोमल वाणी का उच्चारण करती तो वह मदरस से मिश्रित होती और ऐसी प्रतीत होती मानो कोई पक्षी चहचहा रहा हो ॥ 

धौली अरुन धिय गोद गहि, जनी पवित पय पाए । 
किलकत इत उत दोल रहि ओदन मुख लपटाए ॥  
श्वेत उस पर अरुणाई लिए हुवे वह बाल मुकुंदिनी गोद में भरी  का प्रेमरस प्राप्त कर मुख में भात लपटाए  किलकारी करते हुवे इधर-उधर डोलती फिरती ॥ 

शनिवार, ० ६ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                

एहि बरसहु जन नंदित दीठे । कृषि करमन पन श्रम पद पीठे ॥ 
हरी भरी भइ भूमि पहारे। सरस सरिल सर सरिता सारे ॥ 
इस वर्ष भी  कृषि कार्य, व्यापार श्रम आदि के पदों पर आसीत पुरजन सुखी व् आनंदित दिखाई दिए। भूमि पहाड़ हरे भरे हो गए सरोवर सरिताएँ अधिकाधिक जल धरान किये हुवे थे ॥ 

बास पुरी सुख देत सुहाई ।  रहि सब सुख प्रभु के प्रभुताई ॥ 
भोर भास् सन नयन मिलाई । साँझ सुरंगत सीस नवाई ॥ 
निवास नगर सुख देता हवा अत्यंत सुहावना प्रतीत होता । यह सब सुख एश्वर्य प्रभु की प्रभुता ही थी ॥ भोर में भानु के संग नयन मिलाते संध्या को सुन्दर रंग से युक्त होकर नगरी नत मस्तक हो जाती ॥ 

तापस के बस तापि दुपहरी । तपन तरंगन तन पौ पहरी ॥ 
तपनोपल अवतरे अवनि तल । जलधि चरण चल जोए गगन जल ॥ 
ग्रीष्म ऋतु के वशीकृत होकर दुपहरी तपती । ताप की तरंग धरे तन पर गर्म हवाओं के वस्त्र पहनी रहती ॥ सूर्यकांत मणि जैसे धरती पर ही अवतरित हो जाते और सागर पर पद संचारित कर गगन में जल संचित करते ॥ 

जल सुत सारी बहु सुख धारी । झनझन चहुँकन बरखी बारी ॥ 
अरन बरन कंचन कन जाई । खेतन खलिहन भू हरियाई ॥  
जल के इन मोतियों को एकत्र करते हुवे अत्यधिक सुख ग्रहण की हुई बरखा झन झन करती चारों और बरसती ॥ इन जल के कानों को ग्रहण कर खेत खलिहान की भूमि हरितमय हुई, सोने जैसे अन्न के कानों को उपजाती ॥ 

सीत काल तरि चरि चौबाई ।  रयनि अगनि भै बहु सुखदाई ॥ 
गहनि रयनि कर जल भरि लाईं। तनि रतिगर तनि साँझ धराईं  ॥ 
फिर शीत ऋतु अवतरी और चारो और शीतल हवा बहने लगी ।रात्रि में अग्नी बहुंत ही सुख देती । रात गहरी होती तो हाथों में ओस के कण भर लाती और थोड़े प्रभात को एवं थोड़े से संध्या को दे देती ॥ 

सहस मौली मुर्धन जब, निरखत तीनौ लोक । 
श्रव्य दृश्य कबित्त रचे सृजन समहित श्लोक ॥ 
जब सहस्त्र मस्तक धारी प्रभो जनन्नाथ की कृपा दृष्टी तीनों लोको पर रहती है होती है तब श्रिष्टी श्लोकों को संग्रहित कर दृश्य एवं श्रव्य काव्य की रचना करती है ॥ 

रविवार  ७ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                    

रहहि सब सुख बधू ससुराई । लाभ लब्ध कर काम कमाई ।। 
धिहा बिहावन चिन्तति माई । राम जोग जुग लागि सगाई ।। 
वधु के ससुराल में सभी प्रकार का सुख व्याप्त था,हाथ में काम था कमाई थी और उससे लाभ भी प्राप्त होता ॥ पुत्री के विवाह हेतु माता चिंता करती सो राम जी के जोड़ी मिलाने से पुत्री की सम्बन्ध भी ठहर गया॥ 

जे कर उजबल मन मल हीना । दया सील दृग दरसत दीना ।। 
जह सम सुख दुःख भाउ अभावा । तह गृह जन श्री श्रिय के पावा ।। 
जिसके कार्य उज्जवल एवं ह्रदय मलिनता से विहीन हों और दृष्टि दया शील हो जो दुर्दशा गर्स्तों पर कृपा बनाए रखती हो । जहां सुख दुःख एवं भाव/सम्पन्नताएवं अभाव/ विपन्नता  को समान दृष्टि से देखा जाता हो उस गृह के लोग सदा श्री के कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥ 

उहाँ बधू के मइकें ताईं । लब्ध नाम लखि लाभ रिसाईं ।। 
जदपि धरम के चारन चारी । रहहि सकल जन कृपा धिकारी ।। 
उधर वधु के मातृ-निवास में के निमित, पारिवारिक प्रतिष्ठा अपेक्षित उद्देश्यों को प्राप्त नहीं हो रही थी और ( कमाई से ) लाभ भी जैसे रूठ गया था ॥ यद्यपि गृह  धार्मिक आचरणों पर चलने वाला था  और गृहजन समस्त कृपाओं के पात्र थे ॥ 

प्रथमै मातु भइ देहि अन्ते । तात ह्रदय रहि घात गहंते ।। 
तिस पर अरु एक रोग लगाईं । पखा घात तन पा पैसाईं ।। 
पहले ही माता का देहांत हो चुका था । और वधु के पिटा को ह्रदयाघात का रोग भी था ॥ उस पर उन्हें एक और रोग ने पकड़ लिया, पक्षाघात ने भी उनके शरीर में अपने पाँव पसार लिए ॥ 

पीरत कसकत तात किए बास अरोग निकाइ । 
दोउ भ्रात सह भोजाइ, सेवा धरम निभाइ ।। 
कष्ट पाते कसकते हुवे पिता का  चिकित्सालय में निवास हो गया। वधु के दोनों भ्राता तथा साथ में दोनों भावज अपना सेवा धर्म निभा रहे 
थे ॥ 

सोमवार, ८ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                                

पितु उदन्त श्रुत बधु भरि छाँती । गइ प्रिय सन जेहिं तेहिं भाँती ॥ 
नलिन नयन जब तात निहारे । नीर निहार पलक परिहारे ॥ 
पिता का समाचार सुनकर वधु भरे ह्रदय से प्रियतम के साथ जैसे तैसे करके उअनके पास गई ॥ नलिन जैसे नयनों ने जब पिता को निहारा तो पलकें जल की बूंदों का त्याग करने लगीं ॥ 

दरस दसा तिन जी भर रोई । सोक मगन बहु नेहत सोई ॥ 
प्रथमहि प्रिय कर जननी खोई । ताके दुःख रहि हिरदै गोई॥ 
उनकी दशा देखकर और शोक मग्न होकर उनसे स्नेह करती वधु जी भर कर रोई । वधु पहले ही स्नेह रखने वाली जननी को खो चुकी थी और उनका दुःख हृदौ में दबाए हीन थी ( ऊपर से पिता की यह दशा व्याकुल करने वाली थी )॥ 

भयउ बाम जब दिरिस बिधाता । परे बैर तब आगिन गाता ॥ 
देहातीत ऐहि संसारा । सुख सुभाग सब होहिं दुखारा ॥ 
जब विधाता की दृष्टि विपरीत हो जाती है तो सबसे पहले इस देह ही से बेर करती है ॥ देह के रहित भी इस संसार में समस्त सुख-चेन और धन-मान  दुःख के ही समान हो जाता है ॥ 

रोग घात भै दुःख के जातक । काल कल्प कुल के सुख पातक ॥ 
मात पिता जिन जन के छाहीं । तिन्ह धूप के चिंतन नाहीं ॥ 
रोगों का प्रहार दुखों का उत्पादक है जो प्राणों का शत्रु और परिवार के सुखों का नाशक है ॥ जिन परिजनों के ऊपर मात-पिता  की छाँया रहती है उन जनों सुख-दुःख रूपी धूप की चिंता नहीं सताती ॥ 

भई सबहि कुल के संताना । मातु धरा पितु गगन समाना ॥ 
मात रहित जे जातक जाती । होहि ऋन ते चरन धन धाती ॥ 
कुल के समस्त संततियों हेतु माता धरती के समान और पिता गगन के समान होते हैं । जो संतानें माता विहीन होते हैं उंके चरण धरणी की युक्ति से निर्युक्तक हो जाते हैं ॥ 

जनिक जननी जनयित कर, तिन्ह के सुख असीस । 
जनम जीवन सफल करै, होहि जिन्ह के सीस ॥ 
जन्म देने वाले मात-पिता का श्री कर और उनका सुख आशीष, जिन संतानों के सिर  पर होता है, उनका जन्म एवं जीवन सफल हो जाता है ॥ 

मंगलवार, ९ जुलाई,२ ० १ ३                                                                                      

चहही तहही धिय लहि दूरें । मात पिता के पुत रहि धूरें ॥ 
जगत बिचित्र बिधि रचित समाजू । दान गहइ कर बर लघु दाजू ॥ 
चहेती होने पर भी बेटियाँ मातापीता से दूर होतीं हैं और पुत्र निकट होते हैं ॥ इस जगत में समाज ने विचित्र नियम बना रखे हैं दान ग्रहण 
करने वाले हाथ बड़ा होता है और दान देने वाला छोटा ॥ 

अस सुमरत बधु दृग जल झूरे । दुमन प्रिया ले पिया बहूरे ॥  
पैस भवन लिए तनिक अहारे । लइ उपबहरन सयन  सहारे ॥ 
ऐसा ध्यान करते वधु के लोचन में जल अश्रु आ गए । और दुखित प्रिया को पीया अपने साथ लेकर घर वापस लौट चले ॥ घर में प्रवेश किया और थोड़ा आहार लिया । फिर शयनिका और तकिये का आश्रय ले लिया ॥ 

पितु धन वैभव बधु दृग दीठे । पुरजन आसन बर पद पीठे ॥ 
दीन दया करि दानन दिन्हे । सकल पितु के नाम धर चिन्हें ॥ 
पिता  के धन संपती का वैभव, वधु के आखों देखा हुवा था । नगर जनों ने ने सम्मान रूपी उछ आसन में उन्हें बैठा रखा था ।। वे दिनों पर दया करते और यथा योग्य दान सहायता करते । पिटा को सभी लोग उनके नाम से पहचानते थे ॥ 

भोग तिस्न जग  बिषय बिलासे । अस पितु मति मह रहि न ललासे ॥ 
सरल सहज गृह  भोजन भेसा । लब्धिहि लोलुप रहहि न लेसा ॥ 
सांसारिक भोगों की कामना और इन्द्रियार्थ विलासिता की लालसा पिता के मस्तिष्क में कभी नहीं रही ॥ सामान्य सा घर, साधारण भोजन और उनकी वेश भूसा भी सहज ही थी। उपलब्धियों की लोलुपता उनके मन लेश मात्र भी नहीं थी ॥ 

तेहि दिवस पितु पर अनुरागी । सकल रयनि मृग नयनी जागी ॥ 
नींद रति रत अलसत भोरे । दोइ ओस कन पलकन छोरे ॥ 
उस दिन हिरन जैसी आँखों वाली वधु ने  पिता के स्नेह से आसक्त होकर सारी रात जागरण किया ॥ पौ फटते समय ही निद्रा पर आसक्त होते हुवे दो ओस रूपी अश्रु के कणों  को पलकों के कगार पर लिए उससे अनुलग्न हुई ॥ 

लावन लोचन लोइ, लखत ललामिन नलिन दोइ । 
मुकुलित मनुहर सोइ, मुख सरुवर वरे जल सुत ॥ 
लाल लोचन  लावण्यता लिए दो लाल कमलों के जैसे दर्शित हो रहे थे वे अधमुँदे कमल स्वरूप लोचन अत्यधिक मनोहर प्रतीत हो रहे थे । सरोवर रूपी उस मुखड़े पर उक्त नयन कमल अश्रु रूप में ओस सवरुप में मोतियों को वरण किये हुवे थे ॥ 

बुधवार, १ ० जुलाई, २ ० १ ३                                                                                        

बयस बिरध तन लहत कुरोगे। जाने पितु को करनी भोगे ॥ 
पाछिन के करि आगिन आईं । आगिन  के धरि पाछिन पाईं ॥ 
वृद्धावस्था में शरीर को  दुष्ट रोग ने पकड़ लिया था । पता नहीं वधु के पिता कौन सी करनी भुगत रहे थे ॥ पीची के कर्म कभी आगे आ जाते हैं कभी आगे के कर्मों का भोग पीछे ही प्राप्त हो जाता है ॥ 

गहन लखन गह बैद निवासे । जितै दिन कहि उतै दिन बासे ॥ 
लीख कहत सत औषधि लवने । दइ अवकास तौ निज गृह गवने ॥ 
वैद्यशाला में पिता गहन निरिक्षण में रहे वैद्य ने जितने दिन रहने का परामर्श पिता ने उतने दिन वहां निवास किये ॥  परामर्श के अनुसार यथोचित औषधियाँ ली । और जब अवकाश दिया तो अपने निवास चले आए ॥ 

भ्रात किये बहुत सेउकाई । करहि जोग दोनउ भोजाईं ॥ 
घटनाबली तुर जुग मिलाईं। बर बहिअर के  जीवन ताईं ॥ 
वधु के भ्राताओं ने पिता की बहुंत सेवा की । दोनों भावजों ने भी देखभाल की ॥ घटनाओं के क्रम ने बड़ी ही शीघ्रता पूर्वक वर वधु के जीवन से बड़ी ही शीघ्रता पूर्वक योग मिलाया ॥ 

बरस दिवस पहरइँ सिरु नाई । काल कवल तनि घरी बिहाई ॥ 
एक बरस तेइ जात न जाने । एक एक दिन मनु पल पल माने ॥ 
वर्ष और दिवस को पहरों ने प्रणाम किया । और समय के ग्रहण करने के कारण वश किंचित घड़ियाँ समाप्त हुई । एक वर्ष कैसे  व्यतीत हवा उन युगल दम्पति को ज्ञात ही न हुवा ॥ एक एक दिन मानो एक एक पल के समान था ॥ 

रूप निधि मुख पर सँजोई, भोजन देही पोष । 
धरि धिया बयस कर एक, काल ग्रंथि बय कोष ॥   
मुख पर सुन्दरता का आगार सँजोए और भोजन द्वारा देह का पोषण कर पुत्रिका ने एक स्वास्थ वर्द्धक वर्ष को अपने आयु कोष में ग्रहण कर लिया ॥  

गुरूवार, १ १ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                           

पद पत केसर कर मुख लाला । आकर घर कर कमलिक बाला ॥ 
उदर भीतर गहि नाभि नाला । जननि जनि तेहि सीतल काला ॥ 
पाँव पत्र और पाणि केसर के सदृश्य एवं लाल मुखाकृति कर उस कमल जैसी बालिका ने घर को कमलाकर कर दिया था ॥ जिसकी नाभि नाल को उदार में धारण कर उसकी जननी ने उसे शीत काल में जन्म दिया था ॥ 

नयन कमल कस कामिनि काखी । नउलि पल्लवन पलकन पाखी ॥ 
धौल सुरंगन अंगन रंगे । सरिस सीतर धूप कर संगे ॥ 
कमल नयन पर सुन्दर भौं कसी हुई थी । और पलक नव पल्लव के पंख के सरिस थी ॥  उसके अंग-प्रत्यंग श्वेत रंग के सह सुन्दर लाल रंग में अनुरक्त हुवे ऐसे प्रतीत होते मानो शीतल धूप में किरणों के कण घूले हों ॥ 

मुग्ध मुचक मुख अधर मुखरिते । जनक जनी दौ धूनि धवनिते ॥ 
धवनि धिया मुख लागत कैसे । प्रभु वंदन नीराजन जैसे ॥ 
सुकुमारता को प्राप्त हुवे मुख के अधर  शब्दायमान हो उठे जो माता-पिता स्वरूप में दो शब्दों का उच्चारण करने लगे ।। बिटिया के मुख से वे शब्द कैसे लगते जैसे की भगवान की वन्दना-आरती ही हो ॥ 

नीरद छादन दुइ रद झांके । सुकुति भवनु मनु मुकुतिक लाके ॥ 
लाल रसा प्रेम रस रसियाए । अन कन ओदन लवन लसियाए ॥ 
दन्त रहित अधरों की आड़ से दो दन्त दर्शित होने लगे । मानो मुख रूपी सीप में दो दन्त स्वरूपी मोती चमक रहे हों ॥ लालिमा ली हुई जिह्वा माता के अमृत रस का स्वाद लेकर अन्न कणों, नमक भात की लालसा करने लगे ॥  

चहचहत चिरिया चुनचुन, किलकत खेलत केलि । 
उपबन बाल सुमन बने , बेलि बेलि तरु बेलि ॥ 
चिड़ियों के जैसी आनंद भारी बोली लिए वह बालिका किलकती अटखेलियाँ करती । उपबन के नन्हे पुष्प उसके मित्र बन कर वृक्ष से बेलों के सदृश्य लिपट जाते ॥ 

शुक्रवार, १ २ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                              

जेई दिन दृग दरसन जोईं। तेई अगूत होए अगॊई ॥ 
जन्म दिन भै बरस धर पूरे। छा छबि धिय मुख भूरहि भूरे ॥ 
दृष्टि जिस दिवस के दर्शन की प्रतीक्षा कर रही थी । वह दिवस सम्मुख प्रकट हुवा ॥ वर्ष पूर्ण होने पर जन्म दिन आया । और ( एक वर्ष को होने पर) बालिका के मुख की शोभा और अधिक बढ़ गई॥ 

सीस सिखर जे कुंतल कूरे । उर भए पउने गवने दूरे ॥   
ऐसेउ रूप लहत रुराई । दरसत हाँसे सुमन सहाई ॥ 
उसके शीश पर जो केश राशि थी । उस राशि का दो तिहाई अंश उड़ कर कहीं दूर चला गया ॥ बालिका इस प्रकार के सवरुप में भी उसका रूप सुन्दर लगता । उसे उड़े हुवे केश भूषा में  उसके साथी बने हुवे सुमन उअसे देख-देखकर हंसते ॥ 

माए नउलि झगुली कर धारी । कली कलापक कारि कगारी ॥ 
भाउँति मनु तन लै पिन्हाई । एकटक रहे नैन पट ताईं ॥ 
माता के हाथों में नई झाबली थी । जिसके किनारियों एवं करधनी में कलियों की कलाकारी की गई थी ॥ मन को बहाने वाली उस बालिका को वह झाबली पहनाई गई ॥ नयन के पलक सथिर होकर उसे तकते रहे ॥ 

देवत हूतहि सकल बुलाईं । प्रिय पुर जन पिहरन ससुराईं ॥ 
कमल छबि मुख मौलि मह माई। तूल तिलक दुति निंदत लाई ॥ 
आमत्रण देते हुवे नगर के प्रिय जनों को पीहर और ससुराल से सबको बुलाया गया ॥ कमल की शोभा से युक्त मुखोपर  के माथे पर महामाता ने द्युति की भी निंदा करता हुवा लाल तिलक लगाया ॥ 

बर भेसु बनाई,नयन सुहाई, अरन बरनक्रम बरनै । 
मह पितु सह माई,धिय परनाई, मंदिर भगवन चरनै ॥

जोती उजयारी, पूजन कारी, मधुरपरक अधर धरे । 
पा पितु महतारी, कनी कनियारि, परसाए पद आपने ॥  
नयनाभिराम स्वरूप में सुन्दर रूप धरे अक्षर, वर्णों के क्रम से बने चित्र रूप में वर्णन रूप में बालिका के इस रूप का वर्णन कर रहे हैं ॥ पितामह एवं मातामह ने प्रभु के मंदिर में उनके चरणों में पुत्रिका का प्रणाम अर्पित किया ॥ जयोति प्रज्ज्वलित की पूजा अर्चना की, और अधरों से चरणामृत ग्रहण करवाया ॥ फिर जब माता-पिता  ने गोद में लिया तब उस कनकचम्पा स्वरूप कन्या ने देवी रूप में 
अपने चरण स्पर्श करवाए ।। 

मधु धूर धान कन मेल, गौ रस सारे क्षीर । 
सकल बाल उपवन खेल, लखे लोचन अधीर ॥  
 उद्यान में क्रीडारत रहने  के पश्चात सारे बालक शर्करा,चावल के  मिश्रण  और गाय का दुग्ध ग्रहण की हुई क्षीर को लालसा भरी हुई आँखों से देख रहे थे ॥ 

शनिवार, १ ३ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                  

वातारि दूध जुग दल द्राखा । तीख गंध कर केसर राखा ॥ 
खीर पूरी पो पूए पकाईं । लाग लगन जुग लोग लुगाईं ॥ 
बादाम से युक्त उस दूध में दाख मिलाई गई थीं । और छोटी इलायची एवं केसर से सुपोषित थीं । ऐसी क्षीर के साथ घर के सभी स्त्री-पुरुषों ने बड़े ही लगन पूर्वक मिलजुल कर पुड़ियाँ बेली और पूवे पकाए ॥ 

तेज पुहुप पत पूरिक लावन । तीख गंधा  रति रस भरावन ॥
दलित दाल दल तैल तिराई । पिष्ट पाक भित कनक सनाई ॥  

लवण-कचौरी, जिसमें लौंग, तेजपत्र, अजवाइन से युक्त  चटपटा भरावन  जो की दली हुई दाल-समूहों ( मूंग-मूठ उड़द आदि) के साथ  तेल में बघारा हुवा था जिसे  महीन गेहूं के गुँधे हुवे आटे की लोइयों में अनुलग्न कर  कडाही में तला गया ॥  

कहे रहि पिस पिस पिसन हारे । बड़ भारी जन दिवस तिहारे ॥ 
पन पन पंगत निकसत भीते । अन्न धन्न दे गाहक जीते ॥ 
पिसने वाले जब पिस पिस कर हार गए तो कहने लगे यह तुम्हारा जन्म दिवस भी न्यारा ही है॥ आवारिकाओं की पांतों से  पंक्तिबद्ध होकर विक्रेता बाहर निकलते और सेवा पूर्वक अन्न धन्न  दे कर ग्राहक का मन जीतते ॥ 

सब बालक सौ बधु धर थारी । खीर पूए सन पुरिका घारी ॥ 
बाल मुकुंद रसिक रस राधे । तूर चूर भरपूर सुवादे ॥ 
वधु ने सभी बालकों के सम्मुख थालियाँ रखीं क्षीर, पूड़ी के साथ कचौडियाँ परोसी । बालकों ने तत्काल ही कचौड़ियों को तोड़ कर उसके  स्वादिष्ट रसों के  स्वाद का आनन्द लिया । 

साध सकल एक बालक लौना । कहत सकुचित तनिक  अरु दौना ॥ 
असन रसन मुख अधर मधुराए । भरे भू भवन सबहि पहुनाए ॥ 
जब एक सुन्दर बालक ने सारा भजन समाप्त कर दिया तो संकोच करते हुवे कहने लगा किंचित और दो ना ॥ भवन में जितने भी अतिथि थे सभी ने उक्त भोजन के रसों का अपने मुख अधरों से स्वाद लिया ॥ 

उदित मुदित छुधा निवृते, तिसत तोए मुख धार  । 
पाछून पाहून बिदा लिए, धिय के कर दै उपहार ॥ 
भूख शांत करके सभी प्रसन्न चित होकर उठे और प्यास को जल धार कर शांत किया । तत पश्चात अतिथियों ने पुत्रिका के हाथों में उपहार देकर विदा ली ॥ 

रविवार, १ ४ जुलाई, २ ० १ ३                                                                                        

तटी तरंगित  गहि रहि रनियाँ । कबहु कोउ कबहुक को कनियाँ ॥ 
उपबन खावन खेलन खोई । ते दिन धी बहु नंदत सोई ॥ 
सुख और आनन्द से भरपूर रानी के जेसीइ पुत्रिका कभी किसी की गोद में तो कभी किसी की गोद में रही ॥ इस प्रकार गृह उद्यान में खेल-खाकर वह उस दिन बहुंत ही प्रसन्न चित मुद्रा में सोई ॥ 

भोर भई रय रयनि बिहाई । सरित चरन धर नगरि नहाई ॥ 
प्रात स्नात प्रिय गत सयनिका । मुख चुम्बत सुती पलन पुतिका ॥ 
रात समाप्त हुई और भोर हुई, सरिता में चरण उद्धृत किये सारी नगरी नहाने लगी ॥ परत: स्नान आदि के पश्चात प्रियतम शयन सदन में गए । और पलंग पर सो रही पुत्रिका के मुख पर चुम्बन अंकित किया ॥ 
  
 दरसे वधु के मुख ससि सोभा । खावन अँगार पी मन लोभा ॥ 
जुग अरु अंबर प्रान समाई । जावन प्रीतम लिये  बिदाई ॥ 
वधु की श्री मुख पर चंद्रमा की  शोभा का साक्षात्कार हो रहा था । चूँकि चकोर अंगार भक्षी है अत: पीया का ह्रदय भी अधरों पर के अंगारों की लालसा करने लगा । नयनों और अधरों को प्राण समा के अधरों से संयुक्त करने के पश्चात प्रियतम ने स्थापना  स्थली में जाने हेतु विदाई ली ॥ 

भए पट दौ पल नयन दुआरे । पूर उघारे पिया  निहारे ॥ 
दृग दर्पन दरसन छबि धारे । भए दरस तीत तब पट ढारे ॥ 
दो पलकें नयन भवन का द्वार हो गईं । जो पूर्णतया अनावृत होकरप्रियतम को निहारने लगी ॥ नयन दर्पण में प्रियतम  दर्शन की छवि को धारण किया और उनके दर्शानातीत होने पर द्वार बंद कर लिया ॥ 

हियरा हूते दौ दीठ, गवने प्रीतम पीठ । 
पर हरिदै बहुरे नहीं, बहुरी बहुरी दीठ ॥ 
ह्रदय को दो  ने आमंत्रण दिया,  और  प्रियतम के पीछे हो लिए । नयन तो वापस लौट आए, किन्तु वधु का ह्रदय वापस नहीं लौटा ॥ 

सोमवार,१ ५ जुलाई, २०१३                                                                                         

गवने तौ लघु बहिन बिहावन । बहुसहि  चिंतन रहि प्रिय के मन ॥ 
यतन जतन कर कारज सोई । सुरतत रहि तँह कोइ न कोई  ॥ 
गए तो प्रियतम के मन मस्तिष्क में छोटी बहिन के विवाह की बहुंत चिंता रहती । उससे सम्बंधित कोई न कोई युक्तियुक्त कार्य सम्पादन हेतु मनन करते रहते ॥ 

देवन द्रव धन दान दखीना । जोवन लगि रहि भाइहि तीना ॥ 
सब सँजोइ जूत जोइ जोऊ । को पुरतित भै अध भै कोऊ ॥ 
उपहार सामग्री एवं दान दक्षिणा देने हेतु उसके प्रबंध में तीनों भी लगे रहते । सभी साथ में दान योग्य सामग्री को संगढ़ित करते हुवे विवाह की तैयारी में जुटे थे । कोई तैयारी पूर्ण हो चुकी थी कोई शेष थी ॥ 

जोगवना जे धन पत पाईं । तेहि तात लै प्रिय कर दाईं ॥ 
तनि तिथि पूरित तानी रहि सेषा । जे रहि लावन भूषन भेषा ॥ 
वह पत्र स्वरूप में जो धन संचित था, पिता ने उन्हें प्रियतम के हाथ में थमा दिया //  उनमें से कुछ की तिथियाँ पूर्ण हो चुकी थी और कुछ की अवधि पूर्ण होनी शेष थीं // जो वसन -भूषण के क्रय करने हेतु था //

गवने ले पत जोग प्रयोका । दवने सत परखत अवलोका ।। 
असन  बसन क्रय कार पूरिते । निज रुचिकर को वर पख कहिते ॥ 
प्रियतम उन अवधि शेष पत्रों को लेकर महाजन के पास गए जिसको महाजन ने देख परख कर उसका  उचित मुल्य लिया \\ भोजन-वसन क्रय करने का कार्य पूर्ण हो गया जो कुछ तो वर पक्ष की रूचि के अनुसार था तथा कुछ अपनी रुचिनुसार था //

लागे लगन जथा जोग, परिजन सोहनु साज ।
आपन सम अर्थ पूरित, करत रही सब काज ।।   
विवाह की यथा योग्य शोभा सुश्रुता में परिजन लगे थे ,सभी अपने अपने सामर्थ्यानुसार,  कार्य कर रहे थे //




    









  

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