Sunday, June 16, 2013

----- ॥ सूक्ति के मणि 10॥ -----

गहराए रयनि  धीरहिं धीरे । हरियर बाढ़त गयऊ पीरे ॥
धारत पीर तनि अवधिहि बिते । लागे साजन बाहन सुधिते ।। 
धीरे धीरे रात गहरी हो रही थी और पीड़ा भी धीरे धीरे बढ़ रही थी ॥ पीड़ा सहते हुवे थोड़ा समय बिता तो प्रियतम वाहन 
 की व्यवस्था करने में लग गए ॥ 

धरनी तल रजनी जल रीसे । भइ रजताकर कर रजनीसे ॥ 
गहत रजोरस गगन अवासे । लहत दिवस बस पूरन मासे ॥ 
धरती पर ओस टपक रही थी और वह चंद्रमा की किरणों से वह चांदी की खान के सदृश हो गई ।। गगन गृह अधेरा ग्रहण 
करते गया और और पूर्णिमा दिवस बस होने ही वाला था ॥ 

प्रसूति प्रसवन वेदन गहती । एक ते ऊपर एक अरु लहती ॥ 
प्रसवन धर्मन सथरी पावन । भए उदयत पिय बधु लै जावन ॥ 
प्रसूति फल उत्पन्न करने की वेदना सहती गई ।  एक के ऊपर एक उठती लहरों सी वेदना को प्राप्त होती गई ॥ प्रियतम 
सन्तति प्राप्त करने हेतु वधु को प्रसव स्थली में ले जाने की तैयारी करने लगे ॥ 

ततपर कर बधु बहनु बिठारे । कहत बाहि ले जाहू ढारे ॥
जुग दम्पति पथरन पथ चारी । सरद ऋतु उपर बरखत बारी ॥
 शीघ्रता करते हुवे वधु को वाहन में बैठाया और चालक से कहा वाहन को ढुलकाते हुवे सावधानी पूर्वक ले चलना ॥ युगल 
दम्पति जब पत्थरों के पथ पर चलने लगे तो एक तो शरद ऋतु  उसपर वर्षा बरस रही थी ॥ 

जल कन कंचन चरनन चिन्हे । साथ बात बहु सीतल किन्हें ॥
आलबाल कर माल तरंगे । बाँधत सकल अंग प्रत्यंगे ॥
जल के स्वर्ण स्वरूप कण चरणों को चिन्हांकित करने लगे | साथ ही उन्होंनेहवा को भी शीतल कर दिया | मेघ ने शीत तरंग मालाओं को अपने हाथों में ले लिया | और समस्त अंग प्रत्यंगों को बाँध लिया //

उदरन जिउ चित मह पीर, बधु मुख प्रभु के नाम । 
बहनु धीर पिया अधीर, असने औषधि धाम ॥   
वधू के उदर में जीव, अंतस मन में पीड़ा और मुख पर ईश्वर का नाम था वाहन धीरे धीरे चल रहा था किन्तु प्रियतम की मति सरणी की गति तीव्रता लिए हुवे औषधालय पहुँच गई || 

सोमवार, १ ७ जून, २ ० १ ३                                                                                         

देखि दसा बैदक प्रसविन्ही । प्रसूति गृह भित करि पट दिन्ही ।। 
गवनत जनी गृह मुँह अँधेरे । देवन उदंग पिय पग फेरे ॥ 
बैद्यगण ने जब प्रसूता की दशा देखी, तो उसे गर्भ मोचन गृह में भरती कर द्वार बंद कर दिया // जननी के गर्भ मोचन गृह जाते ही मुंह अँधेरे ही प्रियतम (गृह जनों को) ततसम्बंधित समाचार देने हेतु उलटे पाँव हो लिए //

बित जामिनि सित प्रभा प्रभासी । निरखे सरुबर पाख प्रवासी ॥ 
सरसे सर सर सरसिक सरूजे ।  कुर्कुट कलबल कुलकत कूजे ॥ 
रात्रि व्यतीत हुई शुक्ल पक्ष की की दीप्ती, देदीप्यमान हुई /  सरोवर में प्रवासी पक्षी दर्शन देने लगे / जलसारस  अति शीघ्रता पूर्वक गति करने लगे और कमल तेजी से पनपने लगे / मुर्गे कोलाहल करते हुवे हरिषित होते हुवे बांग का स्वर देने लगे //

सीस ससी सुख रयनि सुहाही । हरिएँ गवनी प्रात  की बाहीं ॥ 
नदी दीन नद नदन निनादे । नंदिनी नंद नन्दिन नादे ॥ 
शीर्षोपर शशि धारण किये हुवे  वह शांत, आनंद दायक एवं सुहावनी रात्रि धीरे से प्रभात की बाहु में समा गई / ( छोटी)  नदी विकलता से भरी हुई और बड़ी नदी गंभीर गर्जना करते हुवे निनाद करने लगी, और  शब्दायमान होते हुवे प्रसन्नता पूर्वक प्रीतम से पूछने लगी पुत्र या पुत्री ? 

श्रवनत नमनत पिय सुहसाए । कहे नंद कहु का कही जाए ॥ 
पैठत बाहनि जननि दुआरे । छ्न मह पद पँवरी पइसारे ॥ 
ऐसा सुन कर प्रियतम नत मस्तक होते हुवे मुस्कराते हुवे हर्षयुक्त वचनों से कहने लगे कहो तो क्या कह सकते हैं इस प्रकार वाहनी जननी द्वार पर पहुँच गई  छंभर में उनके चरणों ने ड्योडी पार  की 

सुत भुर मगन गेह प्रियजन, रसमस अलस बिहान । 
पिय अवनत किए जागरन,  दसा सकल लिए कान ॥    
घर के सभी प्रियजन जो भरी भोर के समय श्रांत क्लांत अवस्था में  निद्रामग्न थे / प्रियतम के आते ही वो जागृत हो उठे और  स्थिति का पूर्ण संज्ञान लिया //

मंगलवार, १ ८ जून, २०१ ३                                                                                            

जोग संजोग किये प्रबंधे । सुरत पितर सब भगवन वंदे ।। 
लिए प्रियतम एक बहनु बैठाए । औषधी सदन जननी पठाए ॥ 
यथा उपयुक्त सामग्री का प्रबंध करते हुवे सबने पितृजनों के सह ईश्वर का स्मरण किया  तत पश्चात प्रियतम ने एक वाहन में बैठा कर माता को औषधालय भेजा //

गवनत प्रिय बधु पीहर देसे । तात भ्रात दिए सब संदेसे ॥ 
जलपान गहत  दुइ छन होरे । तत्पर औषधि भवन बहोरे ॥ 
जाते हुवे प्रियतम वधु के पीहर घर में भी पिता-भ्राता सहित सभी को प्रसव सम्बंधित साड़ी सूचनाएं दी / दो छानों के लिए ठहरते हुवे  थोडा जलपान  किया, फिर तत्परता से औषधालय के लिए प्रस्थान किये //

प्रसूति गृह सूलोपर सूले । गर्भिनी सहत गहनत बहुले ॥ 
भई गर्भ ते मंडप मोचे । चें चें करि जन जातक चोंचे ॥ 
प्रसूति गृह में पीड़ा के ऊपर गहरी पीड़ा को  गर्भवती वधु सहन करती रही / और गर्भगृह में गर्भस्थ शिशु का जन्म हुवा, जन्मते ही बच्चे के मुख ने चाऊं-चाऊं की ध्वनी उच्चारित की //

बैदिका बहुरि देइ उदंते । जनम भयउ तुम्हरे कुलवंते ॥ 
पूछे पिया नंदकि नंदिनी । कर अंक कहि लौ तव करिषनी॥ 
फिर चिकित्सिका ने शुभ समाचार दिया तुम्हारे कुलवंत का जन्म हो गया है // जब प्रियतम ने पूछा कि पुत्र ने जन्म लिया अथवा पुत्री ने तो चिकित्सिका ने शिशु को गोद देते हुवे खा लो तुम्हारी लक्ष्मी //

मुलकत मुख मंजुल घोषि , मेरुक मेलत मौलि । 
मानहु मनिमत कर कोष, देवत गिरिबर धौलि ॥  
अप्सराओं के जैसा मंद मंद मुस्कराता हुवा मुखड़ा धूप से मिलता हुवा माथा मानो सूर्य अपनी किरणनिधियों को गिरी शेर्ष्ठ हिमालय को सौंप रहा हो //

बुधवार १ ९ जून, २ ० १ ३                                                                          

लाल ललामिक लहत बालिका । चन्द्र वदनि लौ लखित लालिका ।। 
रूप लावन अंग रंग रुपिका । लवकत लखि इव लवंग कलिका ॥ 
माणिक्य रत्न जैसी सौन्दर्यता ग्रहण किये हुवे बालिका का प्यारा सा मुख चन्द्रमा के समान ज्योतिर्मय दिखाई दे रहा था // उसके अंगो के रंगरुप का सौंदर्य मदार के पुष्प के सदृश्य था // और उसके रूप के चमक शोभा ऐसी प्रतीत होती मानो वह कोई लौंग की कालिका हो //

जोग पल कोमल नैन नलिने । कलस कलित किये कोउ कलि ने ।।
तिलकावलि लखि ललित अलीके । अलकावलि बल बलय लली के ॥ 
कोमल पलकों से युग्मिल्ट नलिन के सदृश्य नयन मानो किन्ही कलियों को कलश में विभूषित किया गया हो // लावण्यित ललाट  तिलक चिन्हों से  लक्षित हो रहा था //

दौ पद धार अधरारविंदे । वृत धृत अमृतभृत अंसु अलिंदे ॥ 
कोमल कल कपोल पर रागे । आलोकित अलि बल्लभ फागे ।   
अरविन्द पत्र रूपित अधरों के दो पद, गोलाई लिए हुवे सुधा के आधार स्वरूप पूर्ण चन्द्रमा का द्वारालिंद ( द्वार का चबूतरा)  थे  // सुन्दर कोमल कपोलों पर पाटल वर्ण सुशोभित हो रहा था //

लघु कर उँगरी ताल कस कासे । पट दल पाद पदुम संकासे ॥ 
काम बान के कर्नक काना । सीस सकल दृड़ मूल समाना ॥ 
छोटे छोटे उँगलियाँ  हथेली में कसी हुई थीं / और चरण की उँगलियाँ पदम् पत्र के सदृश्य अति कोमल थे //उसके कान, आम के पत्र एवं उसकी शाखाओं के सदृश्य और पूरा सिर असित फल अर्थात नारियल के समान था //

सिर दृड़ मूल समान, काम बाण पत्र कान  । 
देही कलसी दान, रुप सरूप तनु भवा के ॥ 
इस प्रकार नारियल जैसा सिर और आमके पत्रों के सदृश्य कर्ण,  कुल मिलाकर पुत्रिका के शरीर का स्वरूप एक कलश दान के जैसा था //

शनिवार, २ २ जून, २ ० १ ३                                                                                

नंदिनी नलिन रूप अभिरामा । नयन पलक पल देइ बिश्रामा ।। 
प्रेम पूरित गृहजन लिए गोदे । भयउ सकल मन मोदु प्रमोदे ॥ 
किन्तु उस नंदिनी का रूप नलिन के सदृश्य नेत्रों को प्रिय लगाने वाला और पलकों को शांति प्रदान करने वाला था/ प्रेम से परिपूर्ण होकर उसे गोद में लेते हुवे सभी गृहजनों का मन बहुंत ही हर्षित हते हुवे आह्लादित हो उठा //

भरे ह्रदय धिय पिय कर कोरे । सुमिरन सुत जल नयनन जोरे ।। 
मूर्द्धन बदन मेल मिलाएँ । नीक अधिक कह तनु भव ताएँ ॥ 
भरे हुवे ह्रदय से दिवंगत पुत्र का स्मरण करते हुवे नयनों में जल संग्रह कर प्रियतम ने पुत्रिका को बाहु में लिया // उअसके माथे और उसके मुख को मेल करते हुवे कहने लगे यह तो अपने पुत्र से भी अधिक सुन्दर है //

आरोग भवन तिनु दिवस होरे । भए मोदित बहुरत निज ठोरे ॥ 
गृह बन लग लस सुमनस साखे । ललनि लवन मुख ललकत लाखे ॥ 
 तीन दिवस तक चिकित्सालय के शरणागत हो फिर हर्षित होते हुवे अपने निवास को लौटे // गृह वाटिका में शाखों पर प्रस्फुटित पुष्प आकर्षित होकर ललनि के मुख छवि के दर्शनाभिलाषित हुवे //

बाल ससी वधु बदन दिखाईं । सुरति ललन नयनन भरि लाईं ॥ 
रल मल सकल सुमन समुझाईं । जीउ जाति जन जनम सिराईं ॥ 
वधु ने जब उस बाल चन्द्रमा के दर्शन करवाए तो उसके लोचन पुत्र का ध्यान करते हुवे छलक गए // सभी पुष्पों ने मिलकर फिर वधु को समझाया कि जीवों की उत्पत्ति जन्म और जीवनांत हेतु ही हुई है //

फूरी फूरी खिले मुख सोहती सकल साख । 
एक पात एक अंक भरे, दौनो लावन लाख ॥

फूल-फूल और उंके प्रफुलित मुख सभी शाखों पर अत्यधिक शोभायमान हो रहे थे एक को पत्रों ने  तो दूसरी को गोद ने तो एक को गोद ने भरी हुई थी दोनों ही सुन्दरता से अतिरेक थे //

रविवार, २ ३ जून, २ ० १ ३                                                                         

पंच दिवस बय तनुजा पाई । छठ दिन छठी बरही मनाई ॥ 
लतर लरी लग छड़ी छटाँका । पहनि झगुलि रुम केसर टाँका ॥ 
पांच दिवस की आयु अवस्था को प्राप्त बाल तनुजा की छठवे दिवस, छठी उत्सव मनाया गया बेल की पंक्तियों से और झालर की बनावट से सुसज्जित किया हुवे उस अनोखे झबले को बाल तनुजा ने पहना 

सिरु चौतन बर चरनन राखे । लखत ललनि जस पदमिन पाखे ॥  
सिसिर अंसु मुख अंजन नैना । लखि अलखित दिवस अरु रैना ॥ 
शीश पर चौकोर पगड़ी और सुन्दर चरणत्राण धारण कर ललानी ऐसी दर्शित हो रही थी जैसे वह कोई पद्म पंखुड़ी हो // चन्द्रमा जैसा मुख और आँखों में काजल ऐसा प्रतीत होता था मानो लक्षित और अलक्षित दिवस -रयनि ही हों //

कंठन अभूषन कनिक कलिते । हिरन प्रभा नभ मंडल वलिते ॥ 
काल कलापक कलित कलाई  । चारू चरन निभ पाइल पाई ॥ 
बाल कन्या के कंठ में विभूषित आभूषण मानो स्वर्ण प्रभा लिये हुवे सम्पूर्ण आकाश मंडल ही गूँथा हुवा हो // काले मोतोयों की लड़ियों से विभूषित कलाई और सुन्दर चरण चमकती हुई पायल से युक्त थे //

मात पिता मह लै कर झौरें । बाल कली बन इत  उत डोरै ॥ 
कबहु पाल कर पाल उछंगे ॥ कबहु पालिका कर भरि अंगे ॥ 
मातामह और पितामह फिर उस बाल-कली को हाथों के झूले में लेकर गृह वन में इधर-उधर घुमने लगे // कभी तो बाल-कन्या के पालक के हाथों के पालने में उछालते कभी पालिका उसे गोद ले लेतीं //

अलि बल्लभी बसन वरे, भर बर भूषन भेस । 
लवकत लौ लागत मनहु कुल के अंजनि केस ॥  
लाल कमलिन पुष्प के सदृश्य वस्त्रों को वरण किये और सुन्दर आभूषणों का वेश धरे चमकती हुई वह कुछ ऐसी दिखाई दे रही थी मानो वह कुल की दीपिका हो //

सोमवार, २ ४ जून, २ ० १ ३                                                                                       

दिब्य बसन धर दिन उल्लासे । रत रयनिहि चर रतियन कासे ॥ 
बिरत सिसिर रितु अति सुखदाई   । अंत परस बासंतिक छाईं ॥ 
सूर्य का प्रकाश धारण कर दिवस आह्लादित हो उठे और चन्द्रमा में अनुरक्त होकर रात्रि चमकने लगी / शीत ऋतु बहुंत ही सुख पूर्वक व्यतीत हुई, जिसके अंत होने के पश्चात वसंत उत्सव छा गया // 

पीठ उदर पद करक कलाई । दोइ बखत सिसु मर्दनि माई ।। 
मास चतुर बय अँगजा धारी । भाउ भंगिमन करि मनुहारी ॥ 
पीठ, पेट पाँव, हाथ और कलाइयों को माता दोनों समय मल्हारती // जब बाल कन्या ने चार मास की आयु प्राप्त कर ली । तो उसकी अंग चेष्टाएँ बहुंत ही मनोहारी प्रतीत होती //

कार करन कर पूरन कामा । बखतै बहोरि पिय निज धामा ॥ 
बर भ्रात के बर बेलि बौने । बाल कलिक  कर केलि किलौने ॥ 
कार्यालय कार्य पूर्ण कर प्रियतम समय पर लौट आते / बड़े भ्राता के सुन्दर साथी निकल कर बाहर आ गए थे जो बाल -कन्या के हाथों के खिलौने बन कर विनोद पूरित क्रीडाएं करते ॥ 

गुड्डा गुड्डी ठुमकत ढारे  । गढ़ गढ़ कारे ढोल नगारे ॥ 
झूलन ऊपर चँवर बँधाई । डोर कलस कर झोर झुराई ॥
गुड्डा एवं गुड्डी खड़े होकर ठुमके लगाते, गढ़ गढ़ करते हुवे ढोल नगाढे // झूलों के ऊपर फूँदे बंधे हुवे थे // डोरियों को हाथ हाथों में लेकर (मात-पिता ) झौंके देते हुवे झुलाते ॥ 


धिदा सुधाधर पर छाए, मंद मंद मुसुकानि । 
हुँकारी भरि हुँ करि गाए मानहु मधुरित गान ॥  
बाल-कन्या के सुधा युक्त अधरों पर मंद-मंद मुस्कान छाई हुई थी और हुंकार भर हूँ हूँ करती हुई मानो वह कोई मधुरित गान गा रही हो ॥ 

मंगलवार, २ ५ जून, २ ० १ ३                                                                                                

धिय जनमत बय चातुर मासे । को जाने जा को करि बासे ।। 
प्रात साँझ मन भर अनुरागे । सकल समउ बधु धिय महि लागे ॥ 
बिटिया के जन्म लिए चार मास हो गए / जो किस प्रकार व्यतीत हुवे इसका भानही नहीं हुवा // मन में अनुराग भरे सवेरे से लेकर सांझ तक वधु का सारा समय बाल-कन्या में ही व्तातित हो जाता ॥ 

बितत रहहि दिन बहु सुख दाई । तबहु अवधि  एक संकट लाईं ॥ 
जे पद कर राउ सेवकाई । ते पद पर पिय रहहि अथाई ॥ 
इस प्रकार दिन बहुंत ही सुख पूर्वक व्यतीत हो  कि  तभी समय, एक संकट लेकर आया // प्रियतम जिस पद पर राउ की सेवा कर रहे थे वह पद पर वह अस्थाई थे । 

पिय दिन एक आयसु पत लाईं । जामें रहि ए सँदेस लिखाईं ॥
सकल अथाइहिं राउ निकासे ॥ तामें पिय नामहु  उत्कासे //
एक दिन प्रियतम एक आज्ञा पत्र लेकर आए जिसमें यह संदेस लिखा था कि समस्त अस्थाई कर्म चारियों को राजा ने निकाल दिया है  उअस्मेन प्रियतम का नाम भी आदेशित था ॥ 
पा आयसु मुख भरे बिषादे । दोनउ दरसै दीन अगाधे ॥
चितबत चितब गृह चित्त बंदे । अजहुँत गृह कस होहिं प्रबंधे ॥
इस प्रकार के आदेश को प्राप्त कर दोनों कका मुख विषाद को भरे अत्यधिक दीनता दर्शाने लगे ॥ स्तब्ध होकर घर के स्वामी ने ऐसे वचन कहे कि अब घर संचालन हेतु धन की  व्यवस्था किस प्रकार से  होगी //

सुनि अस बधु पिय कह समुझाई । कह अस चिंतन अगन बुझाई ॥ 
राजन के बिधि राजन के गाने । आपन बिधि जे रचित बिधाने ॥ 
ऐसा सुनकर वधु ने प्रियतम को समझाया और ऐसे वचन कहते हुवे चिंता की अग्नी को बुझाया । राजा के विधि-विधान राजा ही का बखान है / अपनी विधि-विधान वही है जो सृष्टि के रचेता ने रचा है ॥ 

कन तन सीस आछादन, दाता के सब देन । 
ते मद मूर्खा जे कहि सब हमारे ही लेन ॥ 
यह तन,अन्न और सिर पर की छाया सभी दाता का ही  दिया हुवा है /वे जन अहंकारी और निपट मुर्ख हैं जो यह कहते हैं कि सब हमारा ही दिया हुवा है ॥ 
   
बुधवार, २ ६ जून, २ ० १ ३                                                                                           

तन परिपोषत मन के सारे । मन कौ पोषत परम बिचारे ॥ 
बैभव भूतिहि कर परिवारे । माया कर कुल कज्जल कारे ॥ 
तन का परिपोषण मन का सत्य करता है मन के सत्य का पोषण उत्तम विचार करते हैं । परिवार का पोषण, वैभवएवं श्री के हाथों में है । और माया  वंश के अपमान  कारण बनती है //

बिन करम बिनु कर्मना राखे । बिते बरस के चारि छह पाखे ॥ 
कार करन पिय पूछत लेखे । मोर करम चिन कहुँ कर देखे ॥ 
कार्य हीन एवं पारिश्रमिक रहित होकर डेढ़ माह व्यतीत हो गया // कार्यालय में प्रियतम लिखापढ़ी कर पूछते रहे मेरे भाग्य को कहीं देखा है? 

लिख लिख पाति पथ मसि बुहाई । पर कोउ न प्रतिउत्तर पाईं ॥ 
पुरजन के गृह बास्तु कारे । अस जस तस गृहस सँवारे ॥ 
लिख लिख कर पत्रों के पृष्ठ काले कर दिए किन्तु उन्हें कोई प्रति उत्तर नहीं मिला॥ तब नगर जनों के घरों का वास्तुकार्य करना प्राम्भ कर दिया / इस प्रकार से जैसे तैसे घर संचालन हेतु धन की व्यवस्था की ॥ 

पुनि चिंतन रहि बन कुटि ताईं । कर्म बिनु कभू छूट न जाई ॥ 
एहि बिचारत तनि जोड़ जुगाए । एक निज सदनन मोल मुलाए ॥ 
फिर उस वाटिका गृह की चिंता हो गई कर्म बिना कहीं उसे राऊ वापस न ले ले // ऐसा विचार कर थोड़ी योग-युक्ति कर स्वयं के स्वामित्व का एक सुन्दर सदन क्रय किया //

समाचार पत्र ज्ञापन दिन्ही । राज सासन तेहिं चित चिन्ही ॥ 
भवन रहि भाटक क्रय अधारे । भयउ स्वामी दै अध सारे ॥ 
इस सदन के परिपेक्ष समाचार पत्रों में ज्ञापन दिया हवा था कि राज्य शासन इन भवनों का निर्माता होगा । भवन भाडा क्रय पर आधारित था । जो इस प्रकार था "मूलधन का आधा अंश दो-गृह स्वामी बनो"( इस मूल धन के आधे धन को भी अंशों में चुकाना था )
  पत्रोपचारिक करि दिये, मुद्रा कुल सहस साठ । 
प्रथम अंस दै कर लिये, तीन कछ कूल बाट ॥ 
पत्र औपचारिकताए पूर्ण कर कुल षष्टिसहस्त्र पत्र मुद्राएँ जो की प्रथम अंश स्वरूप थीं चुकाईं और मार्ग के कगार पर तीन कक्ष क्रय किये ॥ 

गुरूवार, २ ७ जून, २ ० १ ३                                                                             

जोग मुद्रा कुल सहस चालिसा । एक भू खन मोले कूल दिसा ॥ 
जे रहि निकटइँ रहन दुआरि । अरु भए एक लघु भूम धिकारी ॥ 
जोड़ी हुई मुद्राएं जो कुल सहस्त्र चालीसा थीं ।जिससे नदी किनारे पर एक भूमि खंड मोल लिया ॥  जो वर्तमान निवास के निकट ही था । और इस प्रकार वर-वधु एक छोटे से भूमि के स्वामी भी हो गए ॥ 

पा समउ पिय सुभ करम किन्हीं । जे कुँअरी लघु रहहि बहिन्ही ॥ 
डगरी नगरी बहु कर पेखे । निरख परख एक जुग बर देखे ॥  
समय मिला तो प्रियतम ने एक शुभ कार्य किया / जो कुँआरी लघु भगिनी थी उसके योग्य नगर-नगर अतिशय निल्रिक्षण-परीक्षण करते हुवे एक वर देखा॥ 

दक्ष बहिनिहि बर रहि अभियंता । भावइ मात पिता के मंता ॥ 
समदित समदिहि सगन मिलाईं । गवनु  समधियन दानत दाईं ॥ 
सर्व गुण संपन्न बहन हेतु वर भी अभियंता था जो माता-पिता के मन को भी प्रियकर था ॥ और पुत्री की ससुराल में जाकर बड़े ही प्रसन्नता पूर्वक दान दक्षिणा स्वरूप शगुन मिलाई, भेंट की ॥ 

समउ पहर दिनु मास दिखाईं । सुभ दिन लगनहि तिथि ठहराईं ॥ 
देखन बर तन ते श्रम कारे । पर पिय उपर रहि न धन भारे ॥ 
समय पहर दिन मास दिखलाते हुवे शुभ दिवस में लगन की तिथि निर्धारित कर दी ॥ यद्यपि वर के ढूँडने में प्रियतम ने शारीरिक परिश्रम किया किन्तु उनके ऊपर दान-धन का भार नहीं था ॥ 

भोजन छादन दान धन , भूषन बसन सँजोग  । 
मात पिता कर तल पाहि,रहहि बियाहन जोग ॥  
विवाह के योग्य भोजन-आच्छादन, वस्त्र-आभूषण आदि दान सामग्री हेतु धन माता-पिता के पास पर्याप्त था  ॥ 

शुक्रवार, २ ८ जून, २ ० १ ३                                                                                       

पुनि पिय जीउति चित सुरताही । चिंतन भए गृह चारन ताही ॥ 
जोड़ जुगत भू भवन निवेसे । अब कँह हुँत घर  जुग कन  भेसे ॥ 
(यह सब कार्य संपन करने के पश्चात ) फिर प्रियतम के चित में आजीविका का ध्यान आया । और गृह संचालन की चिंता हो आई॥ युक्तियुक्त धन भूमि और भवन में निवेश किया अब कहीं से घर हेतु भोजन-वस्त्र का जुगाड़ हो ॥ 

त्रसत गयउ न्याय धीस पाहिं । न्यायलय कहि त्राहि मम त्राहि ॥ 
कहत भर के न्याय दुआरे । नाम बर करे  न्याय न धारे ॥ 
और फिर राजा के शासन व्यवस्था से त्रस्त  होकर न्यायाधीश के सन्मुख दैन्यपूर्वक रक्षा की गुहार लगाई । वह न्याय आलय केवल कहने भर का था जिसका नाम बड़ा था उसके पास न्याय नहीं था ॥ 

बहु सह पत्र आवेदन किन्हें । कोउ कर्मथरि करम न दिन्हें ॥ 
अंतत: सब थरि पिय थकि हारे । सुरती पुरातन करम दुआरे ॥ 
बहुंत से पत्र आवेदन लिखे किन्तु किसी भी कार्यालय किसी भी कारखाने ने काम नहीं दिया ॥ अंत में सभी स्थान से निराश होकर पुराने कार्यालय ही ध्यान में आया ॥ 

बार बार गत कारज धामा । कार पाल के प्रनत प्रनामा ॥ 
कहत दया कर को पद दाईं । चाहे लघु ते लघुतम नाईं ॥ 
कार्यालय में बार बार जाने और कार्य पालक के सम्मुख निवेदन करके कहा की दया कर के कोई योग्य पद प्रदान करें चाहे वह पद छोटा से छोटा ही क्यूँ न हो ॥ 

जोग परख बहु बिनति पर, कार पालन अधिकारि । 
जोजनै समनवयक के अथाइ पद कर धारि ॥ 
बहुंत ही विनती करने के पश्चात योग्यता की परीक्षा करते हुवे कार्य पालन अधिकारी ने फिर वर को योजना समन्वयक के अस्थाई पद पर नियोजित किया ॥


    











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