हवि मंत्र श्रवन गगन हरषाए । बहनु धूम गह बूँद बरखाए ॥
तपित तोए पा भू गंधाई । तृषा तोख क्षय सौंधि सुहाई ॥
हवन के मंत्र सुन कर गगन भी हरिषित हो गया । और हवनाग्नि के धूम्र प्रसाद को ग्रहण करते हुवे बूंदों की वर्षा की ॥ तपती
हुई भूमि जल प्राप्त कर भूमि सुगन्धित हो उठी । और अपनी तृष्णा का अंत कर सौंधती हुई भली लगी ॥
पूजित कर लिए भगवन नामा । भू भवन भए परम सुख धामा ॥
गावत गुन बन एहि गृह माहीं। बासन देवन के मन चाहीं ॥
पूज्यनीय होकर एवं भगवान् के नाम से गुंजित होते भवन और उसकी भूमि परम सुख का धाम हो गए ॥ उपवन उसका गुणगान
करते हुवे कहने लगा कि इस भवन में निवास करने हेतु तो स्वयं देवगन भी लालायित होंगे ॥
बिटप लतिक तृन पर्न प्रसंगे । नीड़ नीक नौ बिरचि बिहंगे ॥
यत तत फरवत झूरत डारी । जुगल संग भए अचर सुखारी ॥
वृक्ष, लताएँ, तृण एवं पर्ण इत्यादि के साथ पक्षी नए नीड़ की रचना कर रहे हैं ॥ यत्र-तत्र सर्वत्र फलयुक्त होकर डालियाँ झूल रही है ।
युगल दम्पती के साथ समस्त अचर ( नदी पर्वत वन कंदर आदि ) सुख पूर्वक वासित हैं ॥
तेहि बखत बधु गर्भन धारी । प्रिय सह सुर बन करत सँभारी ॥
गंध बल्लरी बहुंत सुहाई । सागर ताप घन गगन चढ़ाई ॥
उस समय वधु गर्भ धारण किए हुई थी । प्रीतम के साथ देव स्वरूप उपवन भी वधु की देखरेख कर रहे थे ॥ गंध वाहिनी वायु अत्यंत
ही सुहावनी प्रतीत होती । सागर भी तपकर गगन पर मेघ को आवृत कर रहे थे ॥
सिबेष्ट रही बहुत फर भृते । सारे गर्भ सब को रहि न रिते ॥
भाग खंड लै रसिक बनाई । प्रिय परिजन निज मुख रुचि पाई ॥
( शिवेष्ट= बेलफल ) बेल वृक्ष फलों से पूरित था । सभी फल सार ग्रहण किये हुवे थे कोई भी सारहीन न था ॥ उसके मीठे भाग को
लेकर वधु ने उसका रस बनाया और प्रियतम एवं स्वयं सहित प्रिय परिजनों के मुख में स्वाद भर दिया ॥
प्रियतमा अरु पिया परस , सोहत कुञ्ज निकेत ।
धूरिहि कन कंचन भये, जलसुत कलकल रेत ॥
प्रियतमा और प्रिया स्पर्श से, निकुंज निकेत अत्यधिक सुशोभित हो रहा था । धूल स्वर्ण कण हो उठी कल कल जल मोती स्वरूप
हो गए ।।
रवि/सोम, २/३ जून, २ ० १ ३
एक दिवस बहुरि पीहर ताईं । आगमनु सन बाल भोजाईं ॥
बर बधु अगुवन आए दुआरे । कर जोरत सादर बैठारे ॥
पुन: एक दिवस के पीहर से बालकों सहित उसकी भोजाइयों का आगमन हुवा ।। वर-वधू उनके स्वागत हेतु द्वार पर आए
और सम्मान देते हुवे आदर सहित उनको बैठाया ॥
एक बालक कहि दूजन काना । कहु तौ एहि भू कौन समाना ॥
एक कही करे नैनन तिरछन । ए तौ चित्रकूट के तीरथ बन ॥
तब एक बालक ने दुसरे बालक के कान में कहा । कहो तो तुम्हें यह भूमि कैसी प्रतीत होती है ॥ तो उअनमेन से एक बालक
ने आँखों से संकेत करते हुवे कहा: - मुझे तो ये भूमि चित्रकूट तीर्थ के उपवन के समान प्रतीत होती है ॥
जे रही पहिले अवध निवासी । इहँ बसत भए तपो बन बासी ॥
फ़ूरत फरत बहु कानन सोहा । नीक धरा निभ नभ उपरोहा ॥
जो पहले अवध देश के निवासी थे, यहाँ बसने के पश्चात वे तपोवन के वासी हो गए ॥ फलता फूलता यह चित्रकूट का उद्यान
कितना सुन्दर लग रहा है नीचे सुन्दर धरा और ऊपर प्रखर प्रकाशित्त गगन अवस्थित है ॥
देखु त उत गिरि कंदर खोही । वाल्मीकि इ थरि दिठाए होहीं ॥
सैल कटक मृग पख बहु रंगे । सुदूर बहत जात मह गंगे ।।
देखो तो दूर महा गंगा (महानदी ) बही जा रही है । और ये पहाड़ों की ढलान पर के मृग, बहुत से रंग लिए हुवे पक्षी चित्रकूट की सी शोभा
लिए हुवे हैं ॥ और उधर देखो तो पर्वत दीमक के टीले की कंदर और गुफाएँ । महर्षि वाल्मीकि ने ही यह स्थान निर्दिष्ट किया
होगा ॥
नदी धार नौ प्रीत पुरानी । सोए समोए संत के बानी ॥
चुम्बत मंद समीरन साँसे । हर अलहर तरंग उद कासे ॥
नदी की धाराएं नवीन थीं किन्तु उसकी प्रीत अर्थात अस्तित्व प्राचीन था । जिसमें संतों की परम वाणी का समावेश था ॥ मंद
सुखद वायु उस नदी को चुम्बित कर रही थी । और हिलकोरे लेती अलहड़ तरंगे उत्तोलित होती हुई आकर्षित हो रही थीं ॥
एक कहि कस पवित बाताबरन । लागत मोहे एहि दंडक बन ॥
नियराइ तट गोदावरी के । बहत पवन पै परस सरी के ॥
एक बालक ने कहा कैसा पवित्र वातावरण है । मुझे तो यह दंडक अरण्य प्रतीत होता है ॥ देखो वरवधू गोदावरी के निकट वासित हैं ।
और वायु उस सरिता का जल स्पर्श कर सुख पूर्वक प्रवाहित हो रही है ॥
जदपि भवनु ढारी पे टीके । लाहत छाईं परन कुटी के ॥
देखू तौ कस धाए गिलहरी । मनहु भई गृह उपबन पहरी ॥
यद्यपि वरवधू का भवन ढलाई पर स्थापित है । किन्तु यह पर्ण कुटी की प्रतिच्छाया का आभास दे रहा है ॥ देखो तो गिलहरी कैसे
दौड़ रही है । मानो यह इस घर एवं उसके उद्यान की पहरी हो ॥
मधुकर मंद्र मध तान सुनाए । बिटप बलित बर बेलि बौराए ॥
तब एक गत देखत छत छत्रिके । कहि नहि एहि आश्रम मुनि अत्रि के ॥
भँवरे स्वर्सप्तकों जैसे मंद्र, मध्य,और तान सूना रहे हैं । वृक्षों पर वलयित सुन्दर बेल कैसे बौराई हुई हैं ॥ । तब उनमें से एक
बालक ने भवन के छत छाते का अवलोकन कर कहा । कहीं यह मुनीश्वर श्री अत्रि का आश्रम तो नहीं है ॥
सोहत धर घट अवघट घाटे । बर बधु निज गह बाटिक बाटे ॥
थान बान धर चार पद चिन्हे । मगन गगन घन छाया किन्हें ॥
भूमि घाट, दुर्गम घाटियाँ आदि धारण करके सुशोभित हो रही हैं । वर वधू सुन्दर पगडण्डी युक्त गृह वाटिका में सुशोभित हैं ॥ यह
स्थान किसी धनुर्धर के पद चिन्ह से युक्त है । और गगन मगन होकर मेघ की छाया कर रहे हैं ( इस प्रकार बालक ने मुनि अत्रि के
आश्रम के चिन्ह बतलाये ) ॥
बाल बहिन कहि सुनि तौ भइया । पर इहाँ नही को अनुसुइया ॥
रिसि पतनी ना ही परखाई । नारि धर्म बधु को समुझाई ॥
फिर लघु वयस बहन ने कहा किन्तु सुनो तो भैया! यहाँ तो कोई माता अनुसुइया नहीं है । उस ऋषि पत्नी के एवं किसी पारखी के न
होने से अब वधु को नारी का धर्म कौन समझाएगा ?
पतिब्रता के अचार बिधि, ज्ञान के चारि बात ।
बेद पुरान संतन के, बधु गुन गहि को साथ ॥
पतिव्रता की आचरण विधि, ज्ञान के चार बातें संत सज्जनों तथा वेद पुराणों के ज्ञान गुण वधु किससे प्राप्त करेगी ॥
पंचवटी के बन भूमि, भये अलि अली अलिंद ।
निरखत कंदर सैल गिरि निरख न मुनि बर बृंद ॥
(यद्यपि) यह पंचवटी की वन भूमि के सरिस है यहाँ के भवन अटारी में तो भँवरों की भरमार है ॥ शैल पर्वत और कंदराएं तो लक्षित
हैं किन्तु मुनिवर का समूह लक्षित नहीं हो रहा ॥
मंगलवार, ० ४ जून, २ ० १ ३
सो का भइ कहत भाए छोटे । देखु तनिक उत गृह परकोटे ॥
निर्जन थर जाने को रेखे । हरिन नयनि हरि हरनन लेखे ॥
तो क्या हुवा ऐसा कहते हुवे छोटे भाई ने कहा । थोड़ा देखो तो उधर उस चारो और की भित्ति को । ऐसे निर्जन स्थल पर इसे जाने
किसने रेखांकित किया है । कोमल हृदया से हरण करने वाले को दूर करने हेतु मानो इसे चिन्हांकित किया हो ॥
एक बालक मुख मधुकर भासे । तनि मेटहु तौ मोर जिगासे ॥
तुम कहु एहि रामायन के बन । नाम धरे बर संकट मोचन ॥
फिर एक बालक का मुख भ्रमर के जैसे मुखरित हुवा और कहने लगा किंचित मेरी जिज्ञासा को भी शांत करो तो ॥ तुम सब कह
रहे हो की यह रामायण का वन है किन्तु वर ने तो संकट मोचन का नाम धारण किया हुवा है ( अत: ये कैसी रामायण हुई )
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । दसा धर बधुन्ह भौं टेरे ॥
श्री कर लघु एक लकुट उठाई । सकल बाल के पाछिन धाई ॥
प्रिय जनों के प्रिय लगने वाले ऐसे वचनों को श्रवण कर वधु के मुख पर विहास छा गया और उसने भृकुटी कुटिल कर हाथ में एक
लघु छड़ी उठाई और सारे बालकों के पीछे भागने लगी ॥
गृह बाटिक इत उत छिटकारे । नादत बालक कलरव कारे ॥
धरत बधू कानन कस खैंचे । कहि पुनि लड़ाहु बातन पैंचे ॥
सारे बालक कोलाहल युक्त मधुर ध्वनि उत्पन्न करते गृह वाटिका में इधर उधर बिखर गए ॥ जिनके कान वधु ने पकड़ कर खींचे
और कहा कहो तो पुन: ऐसे बात के पेंच लडाओगे ॥
पुनि बाल मनोहर, सरि बन सुन्दर, धवनि मोद गूँज करे ।
बधु चीढ़ लगावत, हा हा कारत, धाए नीक कुञ्ज घरे ।।
कर लकुटी कास कै, तिरछन लखि के, धाए बाल धरी लिए ।
पुनि भ्रकुटी कस कै, अधरन दसि कै, दोउ साँट धरी दिये ॥
मनोहर बालक पुन: सुन्दर वन के सरिस उस वन में मन मुदित करने वाली ध्वनि गुंजारित करते । और वधु को चीड लगाते । हां हां
कर हंसते हुवे उस भवन के सुन्दर वन में भागे ।। फिर वधु ने हाथ में छड़ी कसते तिरछा देखते हुवे दौड़ते बालको को पकड़ लिया
और फिर से क्रोदित किन्तु बनावटी मुद्रा धारित कर, अधरों पर विहास लिए उनको दो सौंटी लगा ही दी ॥
एक दुजे के करनन मैं, करतहि कलबल नाद ।
कहत कबि बिनोद पूरित दुर्लभ एहि संवाद ॥
एक दूसरे के कानों में फुसफुसाते हुवे बालकों को देखकर कविगण कहते हैं कि बालकों का यह विनोद पुर्नित संवाद अति दुर्लभ है।।
बुध/गुरु, ० ५/६ जून, २ ० १ ३
अरस परस कर पंगत पारे । एक पलछिनु कर दूसर धारे ॥
सनै सनै कर चर दिनमाना । धरत पहर पद पथ सोपाना ॥
परस्पर आलिंगित होकर पंक्ति युक्त होकर एक पल ने क्षण में ही दुसरे पल का हाथ पकड़ लिया । और धीरे धीरे पहरों के सोपान
पथ पर चरण विराजित करते हुवे दिवस के मापक संचारित होने लगे ॥
दुःख सुख के एहि बिधि लिए घेरे । नियति नटी नत नित नउ केरे ॥
पावत दम्पत के कर छाही । चहल पहल कर सकल सिहाहीं ॥
इस प्रकार दुःख और सुख से घेरते हुवे नियति, नत मस्तक होकर नित नए क्रिया कलाप करती ॥ उन दम्पति का हाथ का आशीर्वाद
प्राप्त कर उस गृह वन के चर-अचर सभी आनंदित होकर प्रसन्न चित रहते ॥
रहे ना बसति बसिक अवासे । बासित नियरे लसित सँकासे ॥
मेल मिलावन आएँ निवासे । बैस भवन भित मधुरित भासें ॥
यह आवास बसाहट से रहित नहीं था । पास में ही पड़ोसीयों का आवास भी था जो आँखों से दिखाई देता था ॥ उस बसति के निवासी
मेल जोल करने आते और भवन के भीतर विराज कर मीठी वाणी में वार्तालाप करते ॥
दोउ संग मह रहत सुखारी । सुरतत प्रियजन होहिं दुखारी ॥
प्रेम प्रीति जब गहनहि बाढ़े । बर लोचन तर बादर गाढ़े ॥
वर-वधु दोनों वहां साथ-साथ सुख पूर्वक निवास करने लगे । किन्तु प्रियजनों का स्मरण होते ही दुखी हो जाते जब यह प्रेम-प्यार
अधिक बढता तो वर के लोचन से अश्रु रूपी बादल गहरे होकर उतरने लगते ॥
सर सुन्दर बर नदि नद धूरे । तात -मात भगिनी पर दूरे ॥
जदपि भए निकट कारज धामा । श्रम साध्य करि तनिक बिश्रामा ॥
सुन्दर सरोवर, श्रेष्ठ नद नदीयाँ निकट थीं किन्तु मात-पिता भगिनी दूर थीं ॥ यद्यपि कार्यालय( नए आवास के ) निकट था सो श्रम
साधना करके थोड़ा विश्राम प्राप्त हो जाता था ॥
बासन बसे जुग दम्पति, इते इरा एवम एव ।
बसत रँह जस पंचवटी, सिया राम स्वमेव ॥
युगल दम्पति का यहाँ की भूमि के आवास में इस प्रकार से वासित थे जैसे की पंचवटी में स्वयं भगवान श्री राम चन्द्र एवं माता
सीता स्वयम आवासित हों ॥
वपु अंतर जस ह्रदय अवासे । वधुबर स्याम छबि अस बासे ॥
प्रान समा प्रिय जोगे कैसे । अंतस रुधिरु ह्रदय गति जैसे ॥
सुख छाया बनी और दुःख धूप बने । सुख-दुःख, धूप-छाया दोनों ही जगत का हीत कारी हुवे ॥ अंतर में रोदन ऊपर अधरोंपर सुहास
धारण किए । बहुंत ही सोच समझ कर युगल दम्पति उस वन भवन मे रह रहे थे ॥
पालक सन तनु भव बिलगाईं । भेस भूसा ए घर घर छाईं ।।
बानी होवत बान अचूके । समरथ भए कुटुंब कर टूके ॥
मात-पिता से पुत्र दूर हो रहे हैं, और यह चलन घर घर व्याप्त हो रहा है ॥ वाणी एक ऐसा अचूक वाण है, जो कुटुम्ब के तुकडे करने में समर्थ है ॥
जे कभु परिजन सुरति सताईं । दोनौ जा करि जोग मिताईं ॥
एहि जग मह को होवत काके । बालक सुख दुःख मात-पिता के ॥
वर-वधु को जब कभी परिजनों का स्मरण हो आता,तो दोनों जाकर उनसे मेल-मिलाप कर आते ॥ इस संसार में कौन किसका होता है । बच्चों के सुख-दुःख को माता और पिता ही जतनते हैं ॥
बिरतित बालक सुधि जब करहीं । नभो गज गति नयन नभ चरहीं ॥
ते बारिहि थिर को न उपाई । लिये परस्पर धीर बँधाई ॥
वर-वधु को जब दिवंगत बालक का स्मरण होता तब नयनों के आकाश में मेघ विचरने लगते ॥ परस्पर धीरज बंधाते हुवे फिर उस वर्षा को थामने का कोई उपाय नहीं रहता ॥
अस दुःख के ताप जुहार, सुखद छाए अधिकाए ।
पल पहर काल खन हार गहि बहति बहि सुहाए ॥
इस प्रकार दुखों के सूर्यों को संगृहीत करते और सुख की छाया पर अधिकार धरते हुवे, पल; पहर और काल खंड की मालिकाएं धारण किये हवाएँ अपनी गति से प्रवाहित होती रही ॥
चैत्र तरे चाँद चढ़ाए, जरत जेठ बैसाख ।
आषाढ़ अवनु जल पाए, धरनी सीतल लाख ॥
चैत्र आया शुक्ल पक्ष में वधु गर्भ वती हुई । जेठ और बैशाख बहुंत जले । आषाढ़ महीने के आते ही जल प्राप्त कर धरती शीतल स्वरूपा दिखाई देने लगी ॥
शुक्रवार, ० ७ जून, २ ० १ ३
गर्भ दिवस चढ़ लिये अकारे । अंक अंकुरत अंग सहारे ॥
बिरतत पाखे आए असाढ़े । घन स्याम सर घर भर गाढ़े ॥
दिवस बीते और गर्भ ने आकृति लेते हुवे भ्रूण स्वरूप देह का अंकुरण आरम्भ हो गया और अंग विकसित होने लगे । पक्ष व्यतीत हुवे और आषाढ़ मास का पदार्पण हुवा । जल से भरे काले बाल आकाश में गहराने लगे ॥
गह गह गहरर गढ़ गढ़ गाजे । ढोल नगाढे घढ़ घढ़ बाजे ॥
फूर प्रफुर भुरहरु रुर राँचे । पत पत पथ पद अवली बाँचे ॥
वे हर्ष-उत्साह के साथ बड़ी धूमधाम से गढ़गढ़ाते हुवे गर्जने लगे। जैसे ढोल नगाढ़े घढ़घढ़ाते हुवे निनादित हो रहे हों ॥ भोर में पुष्प प्रफुल्लित होकर सुन्दर रंगों में रंग गए और उनके पत्रिकाएँ पथ पर किसी पदावली का पाठ करने लगीं ॥
नीर नूपुर नटत नटवर के । अवनत बवनत भू पर ढर के ।।
सतसुर सागर सरि सर पर के । जिमि कंठ कूनिके कल हर के ।।
नृत्य करते हुवे घनश्याम के जल स्वरूप घुंघरू नत मस्तक होकर बिखरते हुवे भूमि पर ढुलक गए ॥ सागर, सरिता, सरोवरों के सप्तसुर मानो वीणा के स्वर हरण कर लिए ॥
धूलि कनिक सन रागन रंगे । कोकिल कंठ कूजएँ बिहंगे ॥
मोर पँख बर मूर्धन खाँचे । चरन अरन नूपुर धर नाचे ॥
धूल-कणिकाओं ने साथ में रागिनी छेड़ दीं , और कोयलों के साथ पक्षियों के कंठ भी मधुर ध्वनि करने लगे ॥ मोर, माथे पर सुन्दर पंखों को वरण किये इन जल घुंघरुओं को चरणों में बाँध कर नृत्य करने लगे ॥
नभ घन मंद्र निसान धरातरि माध निनादे, ।
छेड़े मलिहर तान बूँद बूँद लय लीन भइ ॥
धरातल मध्यम स्वरों में निनाद करने लगा । नभ में गंभीर गर्जना करते हुवे घन मृदंग निनाद करते हुवे मल्हार गाने लगे और बुँदे उस लय मग्न हो गई ॥
चंदु बरस भए पंचक मासे । आवन श्रावन सस रस बासे ॥
जलकन गृहबन छन छन बरसे । श्री कीर्ति कर तरु पत हरसे॥
एक चंद्र वर्ष के बारह महीने में से पाँचवे महीने का पदार्पण हुवा, सावन के आने से अन्न कानों में रसमयी हो गए ॥ जल कण घरों एवं उपवनों में छन छन की ध्वनी कारित करते बरसनेलगे जिससे सम्पद,संपत्ति,शोभा,सौंदर्य,विभूति,साधन,आदि का श्लोक करते हुवे वृक्षों की पत्र हरिषित हो उठे ॥
बदरि बदरि लइ मेचकताई । गहन गान करि जोत जराई ॥
मेघ जोनि कर पर फुर धारी । नीराजन करि नीरज बारी ॥
बदली कृष्ण वर्ण में परिवर्तित हो गई और समूह स्वरूप घने स्वरूप में गान करते हुवे ज्योतिका रूप में बिजली चमकने लगी ॥ मेघ समूह के हाथों में जल स्वरूप पुष्प वर्षा दे कर स्वयं आरती करती हुई मोती वारने लगी ॥
धरा तर धरनि धरि सुख तोई । झर जर सुत बर माल पिरोई॥
हिम गिरि तर सुर नदी नादे । श्रुत धर निर्झर निगदत साधे ॥
झरते हुवे मोतियों को धारण कर फिर उनकी माला पिरोकर धरातल पर उतरते इस सुख-सरिल को धारण करते हुवे फिर इन झरते हुवे मोतियों की एक सुन्दर माला बनाई ॥
हरिद प्रभा जे बिबरन लेईं । आछद पत धन हरि बर देईं ॥
हर्ष उत्फुर फुर फुर फरियाए । हरि दीठ द्रव धर फर हरियाए ॥
कान्तिहीन होकर रंग हीन हुवे आच्छादित पत्रों को यह धन देते हुवे उन्हें हरियाई का वरदान दिया ॥ वे पत्र प्रसन्नता से खिलते हुवे फूलों से भर गए । और हरीतिमा से सार ग्रहण कर उनमें ढेरों फल उत्पन्न हो गए ॥
अन्न धन ध्वज प्रहरन ताने । धनकर कन धर भए धनवाने ॥
हल जुती हरिस धर खलिहाने। धन्य धनब निज धनमन माने ॥
अन्न का धन वायु में झंडे के जैसे तन्यता लिए खडा था । वह भूमि जिसमें यह धन बोया गया था, अन्न का धन धारण कर स्वयं को भाग्यशाली मानने लगी ॥
सोषि धरा सस सार , देवन हिरन सकल केर ।
खेतिहार कर धार , भर भंडारन कर कुबेर ।।
फिर धरती अन्न कणों में सार रस भरने लगी जिससे ये कण स्वर्ण स्वरूप होकर किसानों के हाथ में दायन योग्य हों, जिससे किसानों के अन्न कोष भर जाएँ और वह कुबेर के सदृश्य धनी हो जावें ॥
रविवार, ० ९ जून, २ ० १ ३
भव भादू पद नभ लै आपा । तरे हरे गिरि कर धर चापा ॥
केलि केर कुँआर कर हारे । तहँ कातिक पद कीर्ति कारे ॥
भाद्र पद का आगमन हुवा, नभ भी घमंड से भरा था । तभी इंद्र अपना धनुष लेकर उतरे । और क्रीड़ा करते आश्विन के हाथों हार गए , । यह देखकर कार्तिक मास आश्विन की विजय का यश गान करते हुवे अवतरित हुवा ॥
चौदह बरस बसन बन बासे । तपस चरन चर प्रभु परवासे ॥
सिया हरत पर रावन हाँसे । प्रभु पद तर लंका पत धाँसे ॥
तपस्वी आचरण वरण करते हुवे, चौदह वर्ष वन आवास में निवास हेतु प्रभु श्री राम चन्द्र का प्रवास हुवा ॥
माता सीता के हरण के प्रसंग में दुष्ट रावण अट्टाहस करने लगा । तो प्रभु के चरण लंका में अवतरे और उअसके पति एवं उसकी प्रतिष्टा को धूमिल कर दिया ॥
मौलि माल दस तीस नराचे । बिजया दसमी मह महि नाचे ॥
ध्वज कलस कर सकल निनादे । जयति जय दस कंठारि वादे ॥
दस मुखी माला और तीस तीर विजया दसमी के दिन धरती पर नाच रहे थे । हथेली में विजयी ध्वज धारण कर सभी दुष्ट दशानन का वध करने वाले श्री राम चन्द्र जी का जय घोष कर रहे थे ॥
अरन्य बास पर प्रभु सिधारे । पदुम चरन पुर अवध पधारे ॥
धुरियत धानी भै धुरी धुरी । दमकी दुल्हन जस नउ नउरी ॥
अरण्य आवास में के पश्चात प्रभु के पद्म स्वरूप चरण अवध पुरी में चिन्हांकित हुवे । धूल से लथ पथ अयोध्या धानी की धूल जैसे धूल सी गई और वह नई नवेली दुलहन सी शोभा देनी लगी ॥
बिरतित पद पावस दिवस अमावस कार्तिक मास पाख चढ़े ।
अजोधा नगरि जन पथ कन कंचन प्रभु के पद पदुम पड़े ॥
भारत महि भूते तिस दिवस हुँते दीप अलि दुआरि धरे ।
सरबस दम्पति गण कल कंज भवन तेहि तयौहार करे ॥
इस प्रकार वर्षा ऋतु के व्यतीत होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को अयोध्या नगरी के पथ पुरुष प्रभु श्री राम चन्द्र के पद्म चरण को धूलि कंचन ने सहर्ष स्पर्श किया ॥ और भारत भूमि के मानस जन उस उपलक्ष्य में इस दिन दीपकों की पंक्तियाँ द्वार पर अंकित करते हुवे सभी दम्पति गण, सुन्दर कमल भवनों में इस उत्सव को दीपावली स्वरूप में मनाते हैं ॥
दीपक ज्योति जगमगे, श्रीकर श्रीबर श्रीस ।
जुग दम्पति नीराजनै , जय जनि जय जगदीस ॥
दीपक ज्योतिर्मय हो उठे, कल्याण करने वाले श्री वल्लभ भगवान विष्णु विराजित हैं । और युगल दम्पती जगद जननी, जगदीशकी आरती करने लगे ॥
रंग रयन पट आवरन, नवलै साज समाज ।
तिन सुभ दिन दंपति भवन, दमकित देहरि धाज ॥
नव वर्ण में अनुरक्त, नविन पट आवरण लिए नवल शोभा सामग्री से सुसज्जित होकर उस शुभ दिवस (जिसको उल्लेखित किया गया है)में उन दंपति का भवन एवं भवन की देहरी सजकर दमकने लगी ॥
सोमवार, १ ० जून, २ ० १ ३
पूजन पर कर दीपक धारे । पद अंतर अलि धरे दुआरे ॥
नील पील लौ लोहित केसर। रंग रंग बर स्याम मनि सर ॥
पूजन कार्य पूर्ण होने के पश्चात हाथ में दीपक लिए पद पद पर अंतर करते हुवे द्वार पर रखे गए ॥ नीली,पीली और लाल केसरी ज्योति मानो हीरे नीलम और विभिन्न रत्नों के रंगों की सुन्दर आभा दे रही हों ॥
चौक चारि पद चाँवरि झूरे । रच रच काँचे खच खच कूरे ॥
मानहु मानस कुमुदनि फूरे । रयत रयनि अस रमनिक रूरे ॥
आँगन में चार लड़ियों वाली झालरी झूल रही थीं, जो कांच से सुरुचि पूर्वक रची एवं खची ऐसी परतीत होती मानो उस आँगन रूपी मान सरोवर में कुमुद पुष्प उत्फुलित हों ॥ जिसकी आभा में अनुरक्त होकर यामिनी भी अति सुन्दर एवं मनोहारी लग रही थीं ॥
वसति वास पर पूज प्रनामा । दोनौ जुग असने जनि धामा ॥
पद पद पथ गह गंधित बारी । भेष बसन नउ भरे पुरारी ॥
निवासित आवास में वंदन-पूजन के पश्चात दोनों युगल अपनी जननी के निवास पर पहुंचे ॥ मार्ग में चरण- चरण पर( नगर वासियों द्वारा) सुगन्धित वर्षा की गई थी । और सभी नागरिक नवल वेश भूषा धारण किये हुवे थे ॥
ढांप ससी भए गगन सियामा । निन्दबत भूमि नगर सुधामा ॥
चुम्बत नभ सब सदन धवलाए । संग बहु रंग रुरी रचियाए ॥
चंद्रमा विलोपित था और व्योम पर गहराये हुवे श्याम वर्ण को, भूमि की शशि स्वरूपा वह नगरी मानो आकाश को लज्जित कर रही हो ॥अनेक रंगों का प्रसंग लिए सुन्दर स्वरूप में रंगाए सभी भवन आकाश को लगभग स्पर्श करते हुवे, धुले धुले से प्रतीत हो रहे थे ॥
द्वार द्वार दीपक अलि धारे । वर्धन मनिमय बंदन बारे ॥
नलिन नाभ श्री नलिनइ निकाएँ। जन जन मुख श्रुति आरती गाएँ ।।
और द्वारि द्वारि पर दीपों की अवलियाँ सुशोभित हो रही थी । और मणिमय वन्दनवार उनकी शोभा में वृद्धि कर रहे थे ॥ श्री लक्ष्मी एवं विष्णु कमल के सदृश भवनों में विराजित थे । और नगर वासी के श्री मुख से वेद एवं आरती गा रहे थे ॥
पूजन कर्म करतन पर, सकल कुटुम जनि धाम ।
आपस मिल उपहारते, पद बर करत प्रनाम ॥
पूजन कार्य पूर्ण होने के पश्चात घर के सभी कुटुंब जनों का उपहारों का आदान-प्रदान करते हुवे सौहार्दिक मिलन हुवा और युगल दम्पति ने बढे वृद्धों के चरण स्पर्श किये ॥
मंगलवार, १ १ जून, २ ० १ ३
बहुरत सह बर लहत सुखारी । गवने बधु जनि जनक दुआरी ॥
चरन परसत सुख दुःख बतियाए । लिए तँह भाउ भीनीहि बिदाए ॥
इस सुख अनुभूति से अत्यधिक प्रफुल्लित होकर लौटते समय वर के साथ वधु अपने मात-पिता के द्वार भी गईं । चरण स्पर्श करने के पश्चात सुख दुःख की बातें होने लगीं ॥ तत पश्चात वहां से भाव भीनी विदाई ली ॥
आजु भयउ सब जग उजियारे । ज्योति हस्त रयनि तम हारे ॥
बल बल बर्तिक सकल सुहाईं । रूरी बसति बसंत के नाईं ॥
आज समस्त जगत उज्जवल हो गया, ज्योति के हाथों रात्रि का अन्धेरा हार गया । दीपक की बातीयाँ जल जल कर सुशोभित होती हुई सरसों के फूलों के जैसी पीले स्वरूप में पुष्प का गुच्छ प्रतीत हो रहीं थीं ॥
कातिक मावस चढ़ते मासे । विभावरि भूति भूषित भासे ॥
दीपावली सौंह आधारे । दीपित बरन बर बर्ति कारे ॥
कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या थी, और तारों से सुशोभित रात्रि का एवं श्री विभूषित होकर देदीप्यमान थीं॥दीपक की पंक्तियाँ सुन्दर आधारण लिए हुई थीं । जलती हुई बातियाँ तपाए हुवे स्वर्ण के आभा सी सुन्दर ज्योत्स्ना बिखेर रहीं थीं ॥
धनिक बनिक पत रुप स्वधामा । को मन पूरित को मन कामा ॥
कृषक खलि धन कटी करि सारे । जतन कनक कन किए भंडारे ॥
धनाड्य गण एवं व्यापारी जन अपने ही घरों के स्वामी स्वरूप थे । किसी की मन की पूर्ति हो गई थी, किसी के मन में आकाक्षाएँ थीं । कृषकों ने खलिहानों से उपज काट कर उठा ली थीं और यत्न पूर्वक उन स्वर्ण कानों का भंडारण कर लिया था ॥
पूजित श्री सुभ मंगल माई । लाभत मंदिर सकल सुहाई ॥
जे चितवन बहु लिपसा लाई । ते चित को कहु का कहि जाई ॥
सुख एवं कल्याणकारी श्री संपदा, माता स्वरूप में पूज्यनीय होकर भवनों को उपकृत करते हुवे सभी को सुहावनी प्रतीत हो रही थीं ॥ जिन के अंतस में अतिशय लाभ लिप्सा थी उनके विषय वर्णनातीत हैं ॥
भव भूति भूमि भवन के, दूर करत अँधकार ।
धन धान भरत बिती भइ, दीप अवली तिहार ॥
संसार की की वैभव स्वरूपा श्री लक्ष्मी के द्वारा भवनों के अन्धकार को दूर करते हुवे तथा उनको धन संपदा से परिपूर्ण करते हुवे दीपावली त्यौहार व्यतीत हुवा ॥
बुधवार, १ २ जून, २ ० १ ३
एहि बिधि सुखकर बासर बीते । को मनुहारे को मन जीते ॥
बधुटि गर्भ जे जीउ निवासे । तेहि बखत भए बय सतमासे ॥
इस प्रकार दिन सुख पूर्वक व्यतीत होने लगे, कोई दिवस मन को हर ले जाते तो किन्ही को मन जीत लाता ॥वधु के गर्भ में जिस जिव का अंकुर प्रस्फुटित हो रहा था । उस समय उस जीव की अवस्था सात मास की हो चुकी थी ॥
निरखन गर्भ बैद के पाहीं । जब बुलाइ दोनौ जन जाहीं ।।
असन के बर प्रबंध प्रभारे । बधू के करत सुघड़ सँभारे ॥
गर्भ की स्थिति का निरिक्षण करने हेतु जब वैद्यिका बुलाती, युगल दम्पती जाते, वर ने वधु के खान-पान सुन्दर प्रबंध किया हुवा था, वह वधु की देख-रेख भली प्रकार करता ॥
मूल फूल फल सकल सुवादे । लवन रमन रल रसन प्रसादे ॥
जो वधु रुचिकर कारक वादे । सो प्रीतम वधु रूचिधर ला दे ॥
सभी रुचिकर मूल फूल फलादि, लावण्या प्रिय, रसना युक्त सभी प्रकार भोजन प्रसाद जो वधु को स्वादिष्ट एवं प्रिय लगते थे वधु की रुचिनुसार वर वही प्रसाद ला कर दे देते ॥
औषधी मंत बैद बताईं । तेहि नियमतस बधुटि खवाईं ॥
अस गर्भस सिसु पावत पोषे । गर्भासय पद अष्टक सोषे ।।
प्रतिदिवस की औषधियाँ, जिन्हें भिषक ने परामर्श करते हुवे दी थीं । उन्हें वधु नियमातास ग्रहण करती ॥ इस प्रकार गर्भस्थ शिशु पोषण प्राप्त करते हुवे गर्भ धानी में आठ मास की अवस्था का हो गया ॥
देखत वधु फुर फर कंद, नउ पल्लव उदगाए ।
हर्षे मन भर आनंद करत सरयु सुखदाए ॥
वधू के देखते ही देखते जड़े फलीभूत हुई और नई कोपलें के सह पुष्प फल प्रस्फुटित हुवे । हवाए सुख सुहावनी हो कर मन को हर्षित कर और आनंद विभोर करने लगी ॥
गुरूवार, १ ३ जून, २ ० १ ३
कल कोमल कार्तिक पूरिते । पूरन काल सस दिवस बीते ॥
उयउ सूर अगहनु अगवाने । देखत दोनौ पाखि पवाने ॥
कार्तिक का सुहावना महीना पूर्ण हुवा पूर्ण कालिक चन्द्र दिवस अर्थात पूर्णिमा व्यतीत हुई । मार्ग शीर्ष का पद, उदित हुवे सूर्य का स्वागत कर रहा था । देखते ही देखते मार्ग शीर्ष के कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों ने भी प्रस्थान किया ॥
पत पत पथ पादंतर प्रस्तारे । बैस पुष्प रथ पौष पधारे ॥
भेष अभूषन भरी बाटिका । सारे सुमनइ नवल साटिका ॥
पत्र समूह पथ के ऊपर चरण-चरण पर बिछे हुवे थे । पुष्प रथ पर विराजित होकर पुष्य के पद अवतरित हुवे । वाटिकाएं वेश आभूषण से आभरित हो गईं और कुसुम कलित नए वस्त्र नई शाटिकाएं एवं जैसे पञ्च परिधानों में सुसज्जित हुईं ॥
ललित कलित कल कंठन हारे । कनक कन सम खनके निहारे ॥
सीत काल कर माल तरंगे । कंठ घाल अगुअइ किए संगे ॥
कंठ को सुन्दर हार से विभूषित कर स्वर्ण कण के सदृश्य निहार बिंदु खनकने लगे । शरद काल के हाथों में तरंगों की शीतल मालाएं थी । जिन्हें कंठ में अर्पण करते हुवे उसने भी वाटिका के साथ पुष्यपद की आगवानी की ॥
यामि रमन सन रल रलियाई । दपित धूप दिन दीप जराईं ॥
साथ पाथ पत फर फुर वंदन । नीराजन कर किए अभिनंदन ॥
रात्रि अपने प्रिय प्रभात के सह स्वागतार्थ सभी के साथ घुल मिल गई । और दिवस ने दीप्त होकर धुप का दीपक जलाया । जल, अक्षत, पत्र,फल,पुष्प ने भी सम्मिलित होकर आरती-वंदना करते हुवे पुष्य का अभिनन्दन किया ॥
आवपन पत चरन-चरन, किये द्वार प्रबेस ।
आवभगत पर आसिते,पौस अपनपो देस ॥
चरण-चरण पर (पुष्प) पत्र बिखरते चले गए, आवभगत के पश्चात द्वार प्रवेश कर पौष अपनत्व के आसनदेस पर विराजमान हुवा ॥
कुमुद कलित कर थाल सर, धारे दुर्बा केस ।
पखारत पद पंकज धर, रैनि संग राकेस ॥
थाल स्वरूप सरोवर में कैरव कुसुम एवं किरणों की दुर्वा सजाए, रजनी के संग राकेश ने पुष्य वर्ष कोष के पंकज के सदृश्य चरणों को नमन कर उनका प्रक्षालन किया ॥
शुक्रवार, १ ४ जून, २ ० १ ३
नवम चैल दिन ऊपर घाले । नियरै अगवनु प्रसवन काले ॥
एक दिन वधु बर कहति अधीरे । अजहुँ न गवनहु गेहु बाहिरे ॥
नौ महीना पूर्ण हुवे गर्भ ने कुछ दिवस और लिए । प्रसव काल निकट आ गया ॥ एक दिन वधू ने वर से अधीरता पूर्वक कहा अब तुम कहीं बाहर देस मत जाना ( क्योंकि प्रसव काल निकट आ गया है ) ॥
तेहि काल तौ बर दिए काना । समऊ परतस दिए न ध्याना ॥
कार पाल के करमन कारे । चारि दिन पर गवने बहारे ॥
उस समय वधु की बातें वर बड़े ध्यान से सुनी । समय व्यतीत होने पर फिर ध्यान नहीं दिया ॥ कार्य पालक के कार्य कर्तव्य पूर्ण करने हेतु फिर वधु के प्रियतम चार दिवस हेतु कहीं बाहर चले गए ॥
बहुरत बर बधू बहुत रिसाई । सौंतुख दु तीत बोल सुनाई ॥
भूर गहत बर कहे समुझाए । ऐसन कथन कर जोर मनाए ॥
लौटने पर वधु वर से बहुंत ही रुष्ट हुई । सन्मुख पड़ते ही दो तीखी बातें कह दीं ॥ भूल हो गई ऐसा कह कर वर ने वधु को समझाते हुवे याचना करते हुवे मनाया ॥
मैं धूप और तुम घन छाया । में सरूप तुम रूप सुकाया ॥
तुम अगनी में अगनि पतंगा । दोनौ के मन एक सर रंगा ।
और इस प्रकार स्तुति करने लगे कि में धूप हूँ, तुम छाया हो और धूप घर में अच्छी नहीं लगती । तुम सुन्दर काया का एक भेद हो, तो मैं काय कलेवर हूँ । तुम अग्नि हो तो में अग्नि का पतंग हूँ किन्तु दोनों के ह्रदय एक ही रंग में रंगे हुवे हैं ॥
बोली मह करुबर पर्क, बोलहि मह मधु धूर ।
बोलहि फर कंटक प्रिये, बोल मह झरे फूर ॥
बोलों में ही करेले का रस घुला होता है और बोलों में ही शक्कर घुली रहती है । हे प्रिये बोली में ही कांटे उगते हैं, और बोली में ही फूल
झड़ते हैं ॥
शनिवार,१ ५, जून, २ ० १ ३
श्रुत अस श्रवन बधु मंद हाँसी । रमित बचन बहु मधुरित भासी ॥
प्यारे पिया सुनहु मोरी । मोर कह्बती मानहु थोरी ।।
ऐसा सुनकर वधु धीमे से हँसी । लुभावने शब्द समूह के साथ मधुरता पूर्वक बोली । मेरे प्यारे पियातम हमारी बात सुनो और थोड़ा सा हमारा कहना मानो ॥
हँसे प्रिय ऊँगरी धर ठोरी । हाँ हाँ कहिं मुख कृति कर भोरी ॥
छिमा दान करू भूरन मोरी । अजहुँते करहुँ भगतिहि तोरी ॥
तब प्रियतम ठुड्डी पर उंगलियाँ रख कर हंसने लगे । और मुख की आकृति अबोध स्वरूप में करते हुवे हाँ हाँ करने लगे ॥ और बोले मेरी भूल को क्षमा करो अब से में तुम्हारी ही भक्ति करूंगा ॥
कहि बधु जो मम गर्भन जागे । सो जग अवनु कुलबुलन लागे ॥
कुल धर धारिनी जोउ होई । तव भाव भगति चहहीं सोई ॥
वधु ने कथन किया हमारे गर्भ में जो जीव अंकुरित हुवा था, वह संसार में जन्म लेने हेतु कुलबुलाने लगा है ॥ वह चाहे कुल का दीपक हो या दीपिका जो भी हो तुम्हारी भक्ति अनुराग उसे चाहिए हमें नहीं चाहिए ॥
श्रुत ऐसन प्रिय भए गंभीरे । बाहु पास लिए कहिं बहु धीरे ॥
सुनौ प्रिये मम प्रान समाही । तुम हो तौ को संकट नाही ॥
ऐसा सुन कर प्रियतम गंभीर हो गए और प्रियतमा को बाहु पाश में बांधते हुवे धीरे से कहने लगे ॥ सुनो मेरी प्रिया मेरी रान समा जब तुम हो तो फिर संकट कैसा ॥
दुइ दिवस गत भइ एक निसि, सन प्रसवन के पीर ।
हहरर बहियर होवती, गहबर अकुल अधीर ॥
दो दिवस के व्यतीत होने के पश्चात प्रसव पीड़ा के सह फिर एक यामिनी का आगमन हुवा ॥ गहन व्याकुलता और अधीरता लिए वधु आक्लांत होने लगी ॥
तपित तोए पा भू गंधाई । तृषा तोख क्षय सौंधि सुहाई ॥
हवन के मंत्र सुन कर गगन भी हरिषित हो गया । और हवनाग्नि के धूम्र प्रसाद को ग्रहण करते हुवे बूंदों की वर्षा की ॥ तपती
हुई भूमि जल प्राप्त कर भूमि सुगन्धित हो उठी । और अपनी तृष्णा का अंत कर सौंधती हुई भली लगी ॥
पूजित कर लिए भगवन नामा । भू भवन भए परम सुख धामा ॥
गावत गुन बन एहि गृह माहीं। बासन देवन के मन चाहीं ॥
पूज्यनीय होकर एवं भगवान् के नाम से गुंजित होते भवन और उसकी भूमि परम सुख का धाम हो गए ॥ उपवन उसका गुणगान
करते हुवे कहने लगा कि इस भवन में निवास करने हेतु तो स्वयं देवगन भी लालायित होंगे ॥
बिटप लतिक तृन पर्न प्रसंगे । नीड़ नीक नौ बिरचि बिहंगे ॥
यत तत फरवत झूरत डारी । जुगल संग भए अचर सुखारी ॥
वृक्ष, लताएँ, तृण एवं पर्ण इत्यादि के साथ पक्षी नए नीड़ की रचना कर रहे हैं ॥ यत्र-तत्र सर्वत्र फलयुक्त होकर डालियाँ झूल रही है ।
युगल दम्पती के साथ समस्त अचर ( नदी पर्वत वन कंदर आदि ) सुख पूर्वक वासित हैं ॥
तेहि बखत बधु गर्भन धारी । प्रिय सह सुर बन करत सँभारी ॥
गंध बल्लरी बहुंत सुहाई । सागर ताप घन गगन चढ़ाई ॥
उस समय वधु गर्भ धारण किए हुई थी । प्रीतम के साथ देव स्वरूप उपवन भी वधु की देखरेख कर रहे थे ॥ गंध वाहिनी वायु अत्यंत
ही सुहावनी प्रतीत होती । सागर भी तपकर गगन पर मेघ को आवृत कर रहे थे ॥
सिबेष्ट रही बहुत फर भृते । सारे गर्भ सब को रहि न रिते ॥
भाग खंड लै रसिक बनाई । प्रिय परिजन निज मुख रुचि पाई ॥
( शिवेष्ट= बेलफल ) बेल वृक्ष फलों से पूरित था । सभी फल सार ग्रहण किये हुवे थे कोई भी सारहीन न था ॥ उसके मीठे भाग को
लेकर वधु ने उसका रस बनाया और प्रियतम एवं स्वयं सहित प्रिय परिजनों के मुख में स्वाद भर दिया ॥
प्रियतमा अरु पिया परस , सोहत कुञ्ज निकेत ।
धूरिहि कन कंचन भये, जलसुत कलकल रेत ॥
प्रियतमा और प्रिया स्पर्श से, निकुंज निकेत अत्यधिक सुशोभित हो रहा था । धूल स्वर्ण कण हो उठी कल कल जल मोती स्वरूप
हो गए ।।
रवि/सोम, २/३ जून, २ ० १ ३
एक दिवस बहुरि पीहर ताईं । आगमनु सन बाल भोजाईं ॥
बर बधु अगुवन आए दुआरे । कर जोरत सादर बैठारे ॥
पुन: एक दिवस के पीहर से बालकों सहित उसकी भोजाइयों का आगमन हुवा ।। वर-वधू उनके स्वागत हेतु द्वार पर आए
और सम्मान देते हुवे आदर सहित उनको बैठाया ॥
एक बालक कहि दूजन काना । कहु तौ एहि भू कौन समाना ॥
एक कही करे नैनन तिरछन । ए तौ चित्रकूट के तीरथ बन ॥
तब एक बालक ने दुसरे बालक के कान में कहा । कहो तो तुम्हें यह भूमि कैसी प्रतीत होती है ॥ तो उअनमेन से एक बालक
ने आँखों से संकेत करते हुवे कहा: - मुझे तो ये भूमि चित्रकूट तीर्थ के उपवन के समान प्रतीत होती है ॥
जे रही पहिले अवध निवासी । इहँ बसत भए तपो बन बासी ॥
फ़ूरत फरत बहु कानन सोहा । नीक धरा निभ नभ उपरोहा ॥
जो पहले अवध देश के निवासी थे, यहाँ बसने के पश्चात वे तपोवन के वासी हो गए ॥ फलता फूलता यह चित्रकूट का उद्यान
कितना सुन्दर लग रहा है नीचे सुन्दर धरा और ऊपर प्रखर प्रकाशित्त गगन अवस्थित है ॥
देखु त उत गिरि कंदर खोही । वाल्मीकि इ थरि दिठाए होहीं ॥
सैल कटक मृग पख बहु रंगे । सुदूर बहत जात मह गंगे ।।
देखो तो दूर महा गंगा (महानदी ) बही जा रही है । और ये पहाड़ों की ढलान पर के मृग, बहुत से रंग लिए हुवे पक्षी चित्रकूट की सी शोभा
लिए हुवे हैं ॥ और उधर देखो तो पर्वत दीमक के टीले की कंदर और गुफाएँ । महर्षि वाल्मीकि ने ही यह स्थान निर्दिष्ट किया
होगा ॥
नदी धार नौ प्रीत पुरानी । सोए समोए संत के बानी ॥
चुम्बत मंद समीरन साँसे । हर अलहर तरंग उद कासे ॥
नदी की धाराएं नवीन थीं किन्तु उसकी प्रीत अर्थात अस्तित्व प्राचीन था । जिसमें संतों की परम वाणी का समावेश था ॥ मंद
सुखद वायु उस नदी को चुम्बित कर रही थी । और हिलकोरे लेती अलहड़ तरंगे उत्तोलित होती हुई आकर्षित हो रही थीं ॥
एक कहि कस पवित बाताबरन । लागत मोहे एहि दंडक बन ॥
नियराइ तट गोदावरी के । बहत पवन पै परस सरी के ॥
एक बालक ने कहा कैसा पवित्र वातावरण है । मुझे तो यह दंडक अरण्य प्रतीत होता है ॥ देखो वरवधू गोदावरी के निकट वासित हैं ।
और वायु उस सरिता का जल स्पर्श कर सुख पूर्वक प्रवाहित हो रही है ॥
जदपि भवनु ढारी पे टीके । लाहत छाईं परन कुटी के ॥
देखू तौ कस धाए गिलहरी । मनहु भई गृह उपबन पहरी ॥
यद्यपि वरवधू का भवन ढलाई पर स्थापित है । किन्तु यह पर्ण कुटी की प्रतिच्छाया का आभास दे रहा है ॥ देखो तो गिलहरी कैसे
दौड़ रही है । मानो यह इस घर एवं उसके उद्यान की पहरी हो ॥
मधुकर मंद्र मध तान सुनाए । बिटप बलित बर बेलि बौराए ॥
तब एक गत देखत छत छत्रिके । कहि नहि एहि आश्रम मुनि अत्रि के ॥
भँवरे स्वर्सप्तकों जैसे मंद्र, मध्य,और तान सूना रहे हैं । वृक्षों पर वलयित सुन्दर बेल कैसे बौराई हुई हैं ॥ । तब उनमें से एक
बालक ने भवन के छत छाते का अवलोकन कर कहा । कहीं यह मुनीश्वर श्री अत्रि का आश्रम तो नहीं है ॥
सोहत धर घट अवघट घाटे । बर बधु निज गह बाटिक बाटे ॥
थान बान धर चार पद चिन्हे । मगन गगन घन छाया किन्हें ॥
भूमि घाट, दुर्गम घाटियाँ आदि धारण करके सुशोभित हो रही हैं । वर वधू सुन्दर पगडण्डी युक्त गृह वाटिका में सुशोभित हैं ॥ यह
स्थान किसी धनुर्धर के पद चिन्ह से युक्त है । और गगन मगन होकर मेघ की छाया कर रहे हैं ( इस प्रकार बालक ने मुनि अत्रि के
आश्रम के चिन्ह बतलाये ) ॥
बाल बहिन कहि सुनि तौ भइया । पर इहाँ नही को अनुसुइया ॥
रिसि पतनी ना ही परखाई । नारि धर्म बधु को समुझाई ॥
फिर लघु वयस बहन ने कहा किन्तु सुनो तो भैया! यहाँ तो कोई माता अनुसुइया नहीं है । उस ऋषि पत्नी के एवं किसी पारखी के न
होने से अब वधु को नारी का धर्म कौन समझाएगा ?
पतिब्रता के अचार बिधि, ज्ञान के चारि बात ।
बेद पुरान संतन के, बधु गुन गहि को साथ ॥
पतिव्रता की आचरण विधि, ज्ञान के चार बातें संत सज्जनों तथा वेद पुराणों के ज्ञान गुण वधु किससे प्राप्त करेगी ॥
पंचवटी के बन भूमि, भये अलि अली अलिंद ।
निरखत कंदर सैल गिरि निरख न मुनि बर बृंद ॥
(यद्यपि) यह पंचवटी की वन भूमि के सरिस है यहाँ के भवन अटारी में तो भँवरों की भरमार है ॥ शैल पर्वत और कंदराएं तो लक्षित
हैं किन्तु मुनिवर का समूह लक्षित नहीं हो रहा ॥
मंगलवार, ० ४ जून, २ ० १ ३
सो का भइ कहत भाए छोटे । देखु तनिक उत गृह परकोटे ॥
निर्जन थर जाने को रेखे । हरिन नयनि हरि हरनन लेखे ॥
तो क्या हुवा ऐसा कहते हुवे छोटे भाई ने कहा । थोड़ा देखो तो उधर उस चारो और की भित्ति को । ऐसे निर्जन स्थल पर इसे जाने
किसने रेखांकित किया है । कोमल हृदया से हरण करने वाले को दूर करने हेतु मानो इसे चिन्हांकित किया हो ॥
एक बालक मुख मधुकर भासे । तनि मेटहु तौ मोर जिगासे ॥
तुम कहु एहि रामायन के बन । नाम धरे बर संकट मोचन ॥
फिर एक बालक का मुख भ्रमर के जैसे मुखरित हुवा और कहने लगा किंचित मेरी जिज्ञासा को भी शांत करो तो ॥ तुम सब कह
रहे हो की यह रामायण का वन है किन्तु वर ने तो संकट मोचन का नाम धारण किया हुवा है ( अत: ये कैसी रामायण हुई )
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे । दसा धर बधुन्ह भौं टेरे ॥
श्री कर लघु एक लकुट उठाई । सकल बाल के पाछिन धाई ॥
प्रिय जनों के प्रिय लगने वाले ऐसे वचनों को श्रवण कर वधु के मुख पर विहास छा गया और उसने भृकुटी कुटिल कर हाथ में एक
लघु छड़ी उठाई और सारे बालकों के पीछे भागने लगी ॥
गृह बाटिक इत उत छिटकारे । नादत बालक कलरव कारे ॥
धरत बधू कानन कस खैंचे । कहि पुनि लड़ाहु बातन पैंचे ॥
सारे बालक कोलाहल युक्त मधुर ध्वनि उत्पन्न करते गृह वाटिका में इधर उधर बिखर गए ॥ जिनके कान वधु ने पकड़ कर खींचे
और कहा कहो तो पुन: ऐसे बात के पेंच लडाओगे ॥
पुनि बाल मनोहर, सरि बन सुन्दर, धवनि मोद गूँज करे ।
बधु चीढ़ लगावत, हा हा कारत, धाए नीक कुञ्ज घरे ।।
कर लकुटी कास कै, तिरछन लखि के, धाए बाल धरी लिए ।
पुनि भ्रकुटी कस कै, अधरन दसि कै, दोउ साँट धरी दिये ॥
मनोहर बालक पुन: सुन्दर वन के सरिस उस वन में मन मुदित करने वाली ध्वनि गुंजारित करते । और वधु को चीड लगाते । हां हां
कर हंसते हुवे उस भवन के सुन्दर वन में भागे ।। फिर वधु ने हाथ में छड़ी कसते तिरछा देखते हुवे दौड़ते बालको को पकड़ लिया
और फिर से क्रोदित किन्तु बनावटी मुद्रा धारित कर, अधरों पर विहास लिए उनको दो सौंटी लगा ही दी ॥
एक दुजे के करनन मैं, करतहि कलबल नाद ।
कहत कबि बिनोद पूरित दुर्लभ एहि संवाद ॥
एक दूसरे के कानों में फुसफुसाते हुवे बालकों को देखकर कविगण कहते हैं कि बालकों का यह विनोद पुर्नित संवाद अति दुर्लभ है।।
बुध/गुरु, ० ५/६ जून, २ ० १ ३
अरस परस कर पंगत पारे । एक पलछिनु कर दूसर धारे ॥
सनै सनै कर चर दिनमाना । धरत पहर पद पथ सोपाना ॥
परस्पर आलिंगित होकर पंक्ति युक्त होकर एक पल ने क्षण में ही दुसरे पल का हाथ पकड़ लिया । और धीरे धीरे पहरों के सोपान
पथ पर चरण विराजित करते हुवे दिवस के मापक संचारित होने लगे ॥
दुःख सुख के एहि बिधि लिए घेरे । नियति नटी नत नित नउ केरे ॥
पावत दम्पत के कर छाही । चहल पहल कर सकल सिहाहीं ॥
इस प्रकार दुःख और सुख से घेरते हुवे नियति, नत मस्तक होकर नित नए क्रिया कलाप करती ॥ उन दम्पति का हाथ का आशीर्वाद
प्राप्त कर उस गृह वन के चर-अचर सभी आनंदित होकर प्रसन्न चित रहते ॥
रहे ना बसति बसिक अवासे । बासित नियरे लसित सँकासे ॥
मेल मिलावन आएँ निवासे । बैस भवन भित मधुरित भासें ॥
यह आवास बसाहट से रहित नहीं था । पास में ही पड़ोसीयों का आवास भी था जो आँखों से दिखाई देता था ॥ उस बसति के निवासी
मेल जोल करने आते और भवन के भीतर विराज कर मीठी वाणी में वार्तालाप करते ॥
दोउ संग मह रहत सुखारी । सुरतत प्रियजन होहिं दुखारी ॥
प्रेम प्रीति जब गहनहि बाढ़े । बर लोचन तर बादर गाढ़े ॥
वर-वधु दोनों वहां साथ-साथ सुख पूर्वक निवास करने लगे । किन्तु प्रियजनों का स्मरण होते ही दुखी हो जाते जब यह प्रेम-प्यार
अधिक बढता तो वर के लोचन से अश्रु रूपी बादल गहरे होकर उतरने लगते ॥
सर सुन्दर बर नदि नद धूरे । तात -मात भगिनी पर दूरे ॥
जदपि भए निकट कारज धामा । श्रम साध्य करि तनिक बिश्रामा ॥
सुन्दर सरोवर, श्रेष्ठ नद नदीयाँ निकट थीं किन्तु मात-पिता भगिनी दूर थीं ॥ यद्यपि कार्यालय( नए आवास के ) निकट था सो श्रम
साधना करके थोड़ा विश्राम प्राप्त हो जाता था ॥
बासन बसे जुग दम्पति, इते इरा एवम एव ।
बसत रँह जस पंचवटी, सिया राम स्वमेव ॥
युगल दम्पति का यहाँ की भूमि के आवास में इस प्रकार से वासित थे जैसे की पंचवटी में स्वयं भगवान श्री राम चन्द्र एवं माता
सीता स्वयम आवासित हों ॥
वपु अंतर जस ह्रदय अवासे । वधुबर स्याम छबि अस बासे ॥
प्रान समा प्रिय जोगे कैसे । अंतस रुधिरु ह्रदय गति जैसे ॥
शरीर के अंतस जिस प्रकार हृदय का आवास है । वधु के शरीर रूपी ह्रदय में वर की सांवली छवि ह्रदय बनकर उसी प्रकार वासित
थी ॥ प्रियतमा की प्रियतम देखभाल कैसे करते जैसे देह अंतस का रुधिर ह्रदय गति की देखरेख करता है ॥
थी ॥ प्रियतमा की प्रियतम देखभाल कैसे करते जैसे देह अंतस का रुधिर ह्रदय गति की देखरेख करता है ॥
सुख बन छाई धूप दुखारी । करत कारज जग हितकारी ॥
अंत रुदन हँस रदन दुआरे । बसहिं भवन बहु सोच बिचारे ॥ सुख छाया बनी और दुःख धूप बने । सुख-दुःख, धूप-छाया दोनों ही जगत का हीत कारी हुवे ॥ अंतर में रोदन ऊपर अधरोंपर सुहास
धारण किए । बहुंत ही सोच समझ कर युगल दम्पति उस वन भवन मे रह रहे थे ॥
पालक सन तनु भव बिलगाईं । भेस भूसा ए घर घर छाईं ।।
बानी होवत बान अचूके । समरथ भए कुटुंब कर टूके ॥
मात-पिता से पुत्र दूर हो रहे हैं, और यह चलन घर घर व्याप्त हो रहा है ॥ वाणी एक ऐसा अचूक वाण है, जो कुटुम्ब के तुकडे करने में समर्थ है ॥
जे कभु परिजन सुरति सताईं । दोनौ जा करि जोग मिताईं ॥
एहि जग मह को होवत काके । बालक सुख दुःख मात-पिता के ॥
वर-वधु को जब कभी परिजनों का स्मरण हो आता,तो दोनों जाकर उनसे मेल-मिलाप कर आते ॥ इस संसार में कौन किसका होता है । बच्चों के सुख-दुःख को माता और पिता ही जतनते हैं ॥
बिरतित बालक सुधि जब करहीं । नभो गज गति नयन नभ चरहीं ॥
ते बारिहि थिर को न उपाई । लिये परस्पर धीर बँधाई ॥
वर-वधु को जब दिवंगत बालक का स्मरण होता तब नयनों के आकाश में मेघ विचरने लगते ॥ परस्पर धीरज बंधाते हुवे फिर उस वर्षा को थामने का कोई उपाय नहीं रहता ॥
अस दुःख के ताप जुहार, सुखद छाए अधिकाए ।
पल पहर काल खन हार गहि बहति बहि सुहाए ॥
इस प्रकार दुखों के सूर्यों को संगृहीत करते और सुख की छाया पर अधिकार धरते हुवे, पल; पहर और काल खंड की मालिकाएं धारण किये हवाएँ अपनी गति से प्रवाहित होती रही ॥
चैत्र तरे चाँद चढ़ाए, जरत जेठ बैसाख ।
आषाढ़ अवनु जल पाए, धरनी सीतल लाख ॥
चैत्र आया शुक्ल पक्ष में वधु गर्भ वती हुई । जेठ और बैशाख बहुंत जले । आषाढ़ महीने के आते ही जल प्राप्त कर धरती शीतल स्वरूपा दिखाई देने लगी ॥
शुक्रवार, ० ७ जून, २ ० १ ३
गर्भ दिवस चढ़ लिये अकारे । अंक अंकुरत अंग सहारे ॥
बिरतत पाखे आए असाढ़े । घन स्याम सर घर भर गाढ़े ॥
दिवस बीते और गर्भ ने आकृति लेते हुवे भ्रूण स्वरूप देह का अंकुरण आरम्भ हो गया और अंग विकसित होने लगे । पक्ष व्यतीत हुवे और आषाढ़ मास का पदार्पण हुवा । जल से भरे काले बाल आकाश में गहराने लगे ॥
गह गह गहरर गढ़ गढ़ गाजे । ढोल नगाढे घढ़ घढ़ बाजे ॥
फूर प्रफुर भुरहरु रुर राँचे । पत पत पथ पद अवली बाँचे ॥
वे हर्ष-उत्साह के साथ बड़ी धूमधाम से गढ़गढ़ाते हुवे गर्जने लगे। जैसे ढोल नगाढ़े घढ़घढ़ाते हुवे निनादित हो रहे हों ॥ भोर में पुष्प प्रफुल्लित होकर सुन्दर रंगों में रंग गए और उनके पत्रिकाएँ पथ पर किसी पदावली का पाठ करने लगीं ॥
नीर नूपुर नटत नटवर के । अवनत बवनत भू पर ढर के ।।
सतसुर सागर सरि सर पर के । जिमि कंठ कूनिके कल हर के ।।
नृत्य करते हुवे घनश्याम के जल स्वरूप घुंघरू नत मस्तक होकर बिखरते हुवे भूमि पर ढुलक गए ॥ सागर, सरिता, सरोवरों के सप्तसुर मानो वीणा के स्वर हरण कर लिए ॥
धूलि कनिक सन रागन रंगे । कोकिल कंठ कूजएँ बिहंगे ॥
मोर पँख बर मूर्धन खाँचे । चरन अरन नूपुर धर नाचे ॥
धूल-कणिकाओं ने साथ में रागिनी छेड़ दीं , और कोयलों के साथ पक्षियों के कंठ भी मधुर ध्वनि करने लगे ॥ मोर, माथे पर सुन्दर पंखों को वरण किये इन जल घुंघरुओं को चरणों में बाँध कर नृत्य करने लगे ॥
नभ घन मंद्र निसान धरातरि माध निनादे, ।
छेड़े मलिहर तान बूँद बूँद लय लीन भइ ॥
धरातल मध्यम स्वरों में निनाद करने लगा । नभ में गंभीर गर्जना करते हुवे घन मृदंग निनाद करते हुवे मल्हार गाने लगे और बुँदे उस लय मग्न हो गई ॥
सारनी सार गहन कर, संगति कार मृदंग ।
स्वर ग्राम नादिन अधर, बांधे जोग तरंग ॥
क्षुद्र नदियों के अधरों ने उस बरसते अमृत को ग्रहण किया और वे घन स्वरूप मृदंग की संगती करते हुवे, स्वर तरंगों के साथ बंध कर सप्त स्वरों में गान करने लगी ॥
धरा तरि मंद्र निनादे, नभोपर मध निसान ।
अविरल वारि लय राधे, छेड़े मलिहर तान ॥
शनिवार, ० ८ जून, २ ० १ ३ स्वर ग्राम नादिन अधर, बांधे जोग तरंग ॥
क्षुद्र नदियों के अधरों ने उस बरसते अमृत को ग्रहण किया और वे घन स्वरूप मृदंग की संगती करते हुवे, स्वर तरंगों के साथ बंध कर सप्त स्वरों में गान करने लगी ॥
धरा तरि मंद्र निनादे, नभोपर मध निसान ।
अविरल वारि लय राधे, छेड़े मलिहर तान ॥
चंदु बरस भए पंचक मासे । आवन श्रावन सस रस बासे ॥
जलकन गृहबन छन छन बरसे । श्री कीर्ति कर तरु पत हरसे॥
एक चंद्र वर्ष के बारह महीने में से पाँचवे महीने का पदार्पण हुवा, सावन के आने से अन्न कानों में रसमयी हो गए ॥ जल कण घरों एवं उपवनों में छन छन की ध्वनी कारित करते बरसनेलगे जिससे सम्पद,संपत्ति,शोभा,सौंदर्य,विभूति,साधन,आदि का श्लोक करते हुवे वृक्षों की पत्र हरिषित हो उठे ॥
बदरि बदरि लइ मेचकताई । गहन गान करि जोत जराई ॥
मेघ जोनि कर पर फुर धारी । नीराजन करि नीरज बारी ॥
बदली कृष्ण वर्ण में परिवर्तित हो गई और समूह स्वरूप घने स्वरूप में गान करते हुवे ज्योतिका रूप में बिजली चमकने लगी ॥ मेघ समूह के हाथों में जल स्वरूप पुष्प वर्षा दे कर स्वयं आरती करती हुई मोती वारने लगी ॥
धरा तर धरनि धरि सुख तोई । झर जर सुत बर माल पिरोई॥
हिम गिरि तर सुर नदी नादे । श्रुत धर निर्झर निगदत साधे ॥
झरते हुवे मोतियों को धारण कर फिर उनकी माला पिरोकर धरातल पर उतरते इस सुख-सरिल को धारण करते हुवे फिर इन झरते हुवे मोतियों की एक सुन्दर माला बनाई ॥
हरिद प्रभा जे बिबरन लेईं । आछद पत धन हरि बर देईं ॥
हर्ष उत्फुर फुर फुर फरियाए । हरि दीठ द्रव धर फर हरियाए ॥
कान्तिहीन होकर रंग हीन हुवे आच्छादित पत्रों को यह धन देते हुवे उन्हें हरियाई का वरदान दिया ॥ वे पत्र प्रसन्नता से खिलते हुवे फूलों से भर गए । और हरीतिमा से सार ग्रहण कर उनमें ढेरों फल उत्पन्न हो गए ॥
अन्न धन ध्वज प्रहरन ताने । धनकर कन धर भए धनवाने ॥
हल जुती हरिस धर खलिहाने। धन्य धनब निज धनमन माने ॥
अन्न का धन वायु में झंडे के जैसे तन्यता लिए खडा था । वह भूमि जिसमें यह धन बोया गया था, अन्न का धन धारण कर स्वयं को भाग्यशाली मानने लगी ॥
सोषि धरा सस सार , देवन हिरन सकल केर ।
खेतिहार कर धार , भर भंडारन कर कुबेर ।।
फिर धरती अन्न कणों में सार रस भरने लगी जिससे ये कण स्वर्ण स्वरूप होकर किसानों के हाथ में दायन योग्य हों, जिससे किसानों के अन्न कोष भर जाएँ और वह कुबेर के सदृश्य धनी हो जावें ॥
रविवार, ० ९ जून, २ ० १ ३
भव भादू पद नभ लै आपा । तरे हरे गिरि कर धर चापा ॥
केलि केर कुँआर कर हारे । तहँ कातिक पद कीर्ति कारे ॥
भाद्र पद का आगमन हुवा, नभ भी घमंड से भरा था । तभी इंद्र अपना धनुष लेकर उतरे । और क्रीड़ा करते आश्विन के हाथों हार गए , । यह देखकर कार्तिक मास आश्विन की विजय का यश गान करते हुवे अवतरित हुवा ॥
चौदह बरस बसन बन बासे । तपस चरन चर प्रभु परवासे ॥
सिया हरत पर रावन हाँसे । प्रभु पद तर लंका पत धाँसे ॥
तपस्वी आचरण वरण करते हुवे, चौदह वर्ष वन आवास में निवास हेतु प्रभु श्री राम चन्द्र का प्रवास हुवा ॥
माता सीता के हरण के प्रसंग में दुष्ट रावण अट्टाहस करने लगा । तो प्रभु के चरण लंका में अवतरे और उअसके पति एवं उसकी प्रतिष्टा को धूमिल कर दिया ॥
मौलि माल दस तीस नराचे । बिजया दसमी मह महि नाचे ॥
ध्वज कलस कर सकल निनादे । जयति जय दस कंठारि वादे ॥
दस मुखी माला और तीस तीर विजया दसमी के दिन धरती पर नाच रहे थे । हथेली में विजयी ध्वज धारण कर सभी दुष्ट दशानन का वध करने वाले श्री राम चन्द्र जी का जय घोष कर रहे थे ॥
अरन्य बास पर प्रभु सिधारे । पदुम चरन पुर अवध पधारे ॥
धुरियत धानी भै धुरी धुरी । दमकी दुल्हन जस नउ नउरी ॥
अरण्य आवास में के पश्चात प्रभु के पद्म स्वरूप चरण अवध पुरी में चिन्हांकित हुवे । धूल से लथ पथ अयोध्या धानी की धूल जैसे धूल सी गई और वह नई नवेली दुलहन सी शोभा देनी लगी ॥
बिरतित पद पावस दिवस अमावस कार्तिक मास पाख चढ़े ।
अजोधा नगरि जन पथ कन कंचन प्रभु के पद पदुम पड़े ॥
भारत महि भूते तिस दिवस हुँते दीप अलि दुआरि धरे ।
सरबस दम्पति गण कल कंज भवन तेहि तयौहार करे ॥
इस प्रकार वर्षा ऋतु के व्यतीत होने पर कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को अयोध्या नगरी के पथ पुरुष प्रभु श्री राम चन्द्र के पद्म चरण को धूलि कंचन ने सहर्ष स्पर्श किया ॥ और भारत भूमि के मानस जन उस उपलक्ष्य में इस दिन दीपकों की पंक्तियाँ द्वार पर अंकित करते हुवे सभी दम्पति गण, सुन्दर कमल भवनों में इस उत्सव को दीपावली स्वरूप में मनाते हैं ॥
दीपक ज्योति जगमगे, श्रीकर श्रीबर श्रीस ।
जुग दम्पति नीराजनै , जय जनि जय जगदीस ॥
दीपक ज्योतिर्मय हो उठे, कल्याण करने वाले श्री वल्लभ भगवान विष्णु विराजित हैं । और युगल दम्पती जगद जननी, जगदीशकी आरती करने लगे ॥
रंग रयन पट आवरन, नवलै साज समाज ।
तिन सुभ दिन दंपति भवन, दमकित देहरि धाज ॥
नव वर्ण में अनुरक्त, नविन पट आवरण लिए नवल शोभा सामग्री से सुसज्जित होकर उस शुभ दिवस (जिसको उल्लेखित किया गया है)में उन दंपति का भवन एवं भवन की देहरी सजकर दमकने लगी ॥
सोमवार, १ ० जून, २ ० १ ३
पूजन पर कर दीपक धारे । पद अंतर अलि धरे दुआरे ॥
नील पील लौ लोहित केसर। रंग रंग बर स्याम मनि सर ॥
पूजन कार्य पूर्ण होने के पश्चात हाथ में दीपक लिए पद पद पर अंतर करते हुवे द्वार पर रखे गए ॥ नीली,पीली और लाल केसरी ज्योति मानो हीरे नीलम और विभिन्न रत्नों के रंगों की सुन्दर आभा दे रही हों ॥
चौक चारि पद चाँवरि झूरे । रच रच काँचे खच खच कूरे ॥
मानहु मानस कुमुदनि फूरे । रयत रयनि अस रमनिक रूरे ॥
आँगन में चार लड़ियों वाली झालरी झूल रही थीं, जो कांच से सुरुचि पूर्वक रची एवं खची ऐसी परतीत होती मानो उस आँगन रूपी मान सरोवर में कुमुद पुष्प उत्फुलित हों ॥ जिसकी आभा में अनुरक्त होकर यामिनी भी अति सुन्दर एवं मनोहारी लग रही थीं ॥
वसति वास पर पूज प्रनामा । दोनौ जुग असने जनि धामा ॥
पद पद पथ गह गंधित बारी । भेष बसन नउ भरे पुरारी ॥
निवासित आवास में वंदन-पूजन के पश्चात दोनों युगल अपनी जननी के निवास पर पहुंचे ॥ मार्ग में चरण- चरण पर( नगर वासियों द्वारा) सुगन्धित वर्षा की गई थी । और सभी नागरिक नवल वेश भूषा धारण किये हुवे थे ॥
ढांप ससी भए गगन सियामा । निन्दबत भूमि नगर सुधामा ॥
चुम्बत नभ सब सदन धवलाए । संग बहु रंग रुरी रचियाए ॥
चंद्रमा विलोपित था और व्योम पर गहराये हुवे श्याम वर्ण को, भूमि की शशि स्वरूपा वह नगरी मानो आकाश को लज्जित कर रही हो ॥अनेक रंगों का प्रसंग लिए सुन्दर स्वरूप में रंगाए सभी भवन आकाश को लगभग स्पर्श करते हुवे, धुले धुले से प्रतीत हो रहे थे ॥
द्वार द्वार दीपक अलि धारे । वर्धन मनिमय बंदन बारे ॥
नलिन नाभ श्री नलिनइ निकाएँ। जन जन मुख श्रुति आरती गाएँ ।।
और द्वारि द्वारि पर दीपों की अवलियाँ सुशोभित हो रही थी । और मणिमय वन्दनवार उनकी शोभा में वृद्धि कर रहे थे ॥ श्री लक्ष्मी एवं विष्णु कमल के सदृश भवनों में विराजित थे । और नगर वासी के श्री मुख से वेद एवं आरती गा रहे थे ॥
पूजन कर्म करतन पर, सकल कुटुम जनि धाम ।
आपस मिल उपहारते, पद बर करत प्रनाम ॥
पूजन कार्य पूर्ण होने के पश्चात घर के सभी कुटुंब जनों का उपहारों का आदान-प्रदान करते हुवे सौहार्दिक मिलन हुवा और युगल दम्पति ने बढे वृद्धों के चरण स्पर्श किये ॥
मंगलवार, १ १ जून, २ ० १ ३
बहुरत सह बर लहत सुखारी । गवने बधु जनि जनक दुआरी ॥
चरन परसत सुख दुःख बतियाए । लिए तँह भाउ भीनीहि बिदाए ॥
इस सुख अनुभूति से अत्यधिक प्रफुल्लित होकर लौटते समय वर के साथ वधु अपने मात-पिता के द्वार भी गईं । चरण स्पर्श करने के पश्चात सुख दुःख की बातें होने लगीं ॥ तत पश्चात वहां से भाव भीनी विदाई ली ॥
आजु भयउ सब जग उजियारे । ज्योति हस्त रयनि तम हारे ॥
बल बल बर्तिक सकल सुहाईं । रूरी बसति बसंत के नाईं ॥
आज समस्त जगत उज्जवल हो गया, ज्योति के हाथों रात्रि का अन्धेरा हार गया । दीपक की बातीयाँ जल जल कर सुशोभित होती हुई सरसों के फूलों के जैसी पीले स्वरूप में पुष्प का गुच्छ प्रतीत हो रहीं थीं ॥
कातिक मावस चढ़ते मासे । विभावरि भूति भूषित भासे ॥
दीपावली सौंह आधारे । दीपित बरन बर बर्ति कारे ॥
कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या थी, और तारों से सुशोभित रात्रि का एवं श्री विभूषित होकर देदीप्यमान थीं॥दीपक की पंक्तियाँ सुन्दर आधारण लिए हुई थीं । जलती हुई बातियाँ तपाए हुवे स्वर्ण के आभा सी सुन्दर ज्योत्स्ना बिखेर रहीं थीं ॥
धनिक बनिक पत रुप स्वधामा । को मन पूरित को मन कामा ॥
कृषक खलि धन कटी करि सारे । जतन कनक कन किए भंडारे ॥
धनाड्य गण एवं व्यापारी जन अपने ही घरों के स्वामी स्वरूप थे । किसी की मन की पूर्ति हो गई थी, किसी के मन में आकाक्षाएँ थीं । कृषकों ने खलिहानों से उपज काट कर उठा ली थीं और यत्न पूर्वक उन स्वर्ण कानों का भंडारण कर लिया था ॥
पूजित श्री सुभ मंगल माई । लाभत मंदिर सकल सुहाई ॥
जे चितवन बहु लिपसा लाई । ते चित को कहु का कहि जाई ॥
सुख एवं कल्याणकारी श्री संपदा, माता स्वरूप में पूज्यनीय होकर भवनों को उपकृत करते हुवे सभी को सुहावनी प्रतीत हो रही थीं ॥ जिन के अंतस में अतिशय लाभ लिप्सा थी उनके विषय वर्णनातीत हैं ॥
भव भूति भूमि भवन के, दूर करत अँधकार ।
धन धान भरत बिती भइ, दीप अवली तिहार ॥
संसार की की वैभव स्वरूपा श्री लक्ष्मी के द्वारा भवनों के अन्धकार को दूर करते हुवे तथा उनको धन संपदा से परिपूर्ण करते हुवे दीपावली त्यौहार व्यतीत हुवा ॥
बुधवार, १ २ जून, २ ० १ ३
एहि बिधि सुखकर बासर बीते । को मनुहारे को मन जीते ॥
बधुटि गर्भ जे जीउ निवासे । तेहि बखत भए बय सतमासे ॥
इस प्रकार दिन सुख पूर्वक व्यतीत होने लगे, कोई दिवस मन को हर ले जाते तो किन्ही को मन जीत लाता ॥वधु के गर्भ में जिस जिव का अंकुर प्रस्फुटित हो रहा था । उस समय उस जीव की अवस्था सात मास की हो चुकी थी ॥
निरखन गर्भ बैद के पाहीं । जब बुलाइ दोनौ जन जाहीं ।।
असन के बर प्रबंध प्रभारे । बधू के करत सुघड़ सँभारे ॥
गर्भ की स्थिति का निरिक्षण करने हेतु जब वैद्यिका बुलाती, युगल दम्पती जाते, वर ने वधु के खान-पान सुन्दर प्रबंध किया हुवा था, वह वधु की देख-रेख भली प्रकार करता ॥
मूल फूल फल सकल सुवादे । लवन रमन रल रसन प्रसादे ॥
जो वधु रुचिकर कारक वादे । सो प्रीतम वधु रूचिधर ला दे ॥
सभी रुचिकर मूल फूल फलादि, लावण्या प्रिय, रसना युक्त सभी प्रकार भोजन प्रसाद जो वधु को स्वादिष्ट एवं प्रिय लगते थे वधु की रुचिनुसार वर वही प्रसाद ला कर दे देते ॥
औषधी मंत बैद बताईं । तेहि नियमतस बधुटि खवाईं ॥
अस गर्भस सिसु पावत पोषे । गर्भासय पद अष्टक सोषे ।।
प्रतिदिवस की औषधियाँ, जिन्हें भिषक ने परामर्श करते हुवे दी थीं । उन्हें वधु नियमातास ग्रहण करती ॥ इस प्रकार गर्भस्थ शिशु पोषण प्राप्त करते हुवे गर्भ धानी में आठ मास की अवस्था का हो गया ॥
देखत वधु फुर फर कंद, नउ पल्लव उदगाए ।
हर्षे मन भर आनंद करत सरयु सुखदाए ॥
वधू के देखते ही देखते जड़े फलीभूत हुई और नई कोपलें के सह पुष्प फल प्रस्फुटित हुवे । हवाए सुख सुहावनी हो कर मन को हर्षित कर और आनंद विभोर करने लगी ॥
गुरूवार, १ ३ जून, २ ० १ ३
कल कोमल कार्तिक पूरिते । पूरन काल सस दिवस बीते ॥
उयउ सूर अगहनु अगवाने । देखत दोनौ पाखि पवाने ॥
कार्तिक का सुहावना महीना पूर्ण हुवा पूर्ण कालिक चन्द्र दिवस अर्थात पूर्णिमा व्यतीत हुई । मार्ग शीर्ष का पद, उदित हुवे सूर्य का स्वागत कर रहा था । देखते ही देखते मार्ग शीर्ष के कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों ने भी प्रस्थान किया ॥
पत पत पथ पादंतर प्रस्तारे । बैस पुष्प रथ पौष पधारे ॥
भेष अभूषन भरी बाटिका । सारे सुमनइ नवल साटिका ॥
पत्र समूह पथ के ऊपर चरण-चरण पर बिछे हुवे थे । पुष्प रथ पर विराजित होकर पुष्य के पद अवतरित हुवे । वाटिकाएं वेश आभूषण से आभरित हो गईं और कुसुम कलित नए वस्त्र नई शाटिकाएं एवं जैसे पञ्च परिधानों में सुसज्जित हुईं ॥
ललित कलित कल कंठन हारे । कनक कन सम खनके निहारे ॥
सीत काल कर माल तरंगे । कंठ घाल अगुअइ किए संगे ॥
कंठ को सुन्दर हार से विभूषित कर स्वर्ण कण के सदृश्य निहार बिंदु खनकने लगे । शरद काल के हाथों में तरंगों की शीतल मालाएं थी । जिन्हें कंठ में अर्पण करते हुवे उसने भी वाटिका के साथ पुष्यपद की आगवानी की ॥
यामि रमन सन रल रलियाई । दपित धूप दिन दीप जराईं ॥
साथ पाथ पत फर फुर वंदन । नीराजन कर किए अभिनंदन ॥
रात्रि अपने प्रिय प्रभात के सह स्वागतार्थ सभी के साथ घुल मिल गई । और दिवस ने दीप्त होकर धुप का दीपक जलाया । जल, अक्षत, पत्र,फल,पुष्प ने भी सम्मिलित होकर आरती-वंदना करते हुवे पुष्य का अभिनन्दन किया ॥
आवपन पत चरन-चरन, किये द्वार प्रबेस ।
आवभगत पर आसिते,पौस अपनपो देस ॥
चरण-चरण पर (पुष्प) पत्र बिखरते चले गए, आवभगत के पश्चात द्वार प्रवेश कर पौष अपनत्व के आसनदेस पर विराजमान हुवा ॥
कुमुद कलित कर थाल सर, धारे दुर्बा केस ।
पखारत पद पंकज धर, रैनि संग राकेस ॥
थाल स्वरूप सरोवर में कैरव कुसुम एवं किरणों की दुर्वा सजाए, रजनी के संग राकेश ने पुष्य वर्ष कोष के पंकज के सदृश्य चरणों को नमन कर उनका प्रक्षालन किया ॥
शुक्रवार, १ ४ जून, २ ० १ ३
नवम चैल दिन ऊपर घाले । नियरै अगवनु प्रसवन काले ॥
एक दिन वधु बर कहति अधीरे । अजहुँ न गवनहु गेहु बाहिरे ॥
नौ महीना पूर्ण हुवे गर्भ ने कुछ दिवस और लिए । प्रसव काल निकट आ गया ॥ एक दिन वधू ने वर से अधीरता पूर्वक कहा अब तुम कहीं बाहर देस मत जाना ( क्योंकि प्रसव काल निकट आ गया है ) ॥
तेहि काल तौ बर दिए काना । समऊ परतस दिए न ध्याना ॥
कार पाल के करमन कारे । चारि दिन पर गवने बहारे ॥
उस समय वधु की बातें वर बड़े ध्यान से सुनी । समय व्यतीत होने पर फिर ध्यान नहीं दिया ॥ कार्य पालक के कार्य कर्तव्य पूर्ण करने हेतु फिर वधु के प्रियतम चार दिवस हेतु कहीं बाहर चले गए ॥
बहुरत बर बधू बहुत रिसाई । सौंतुख दु तीत बोल सुनाई ॥
भूर गहत बर कहे समुझाए । ऐसन कथन कर जोर मनाए ॥
लौटने पर वधु वर से बहुंत ही रुष्ट हुई । सन्मुख पड़ते ही दो तीखी बातें कह दीं ॥ भूल हो गई ऐसा कह कर वर ने वधु को समझाते हुवे याचना करते हुवे मनाया ॥
मैं धूप और तुम घन छाया । में सरूप तुम रूप सुकाया ॥
तुम अगनी में अगनि पतंगा । दोनौ के मन एक सर रंगा ।
और इस प्रकार स्तुति करने लगे कि में धूप हूँ, तुम छाया हो और धूप घर में अच्छी नहीं लगती । तुम सुन्दर काया का एक भेद हो, तो मैं काय कलेवर हूँ । तुम अग्नि हो तो में अग्नि का पतंग हूँ किन्तु दोनों के ह्रदय एक ही रंग में रंगे हुवे हैं ॥
बोली मह करुबर पर्क, बोलहि मह मधु धूर ।
बोलहि फर कंटक प्रिये, बोल मह झरे फूर ॥
बोलों में ही करेले का रस घुला होता है और बोलों में ही शक्कर घुली रहती है । हे प्रिये बोली में ही कांटे उगते हैं, और बोली में ही फूल
झड़ते हैं ॥
शनिवार,१ ५, जून, २ ० १ ३
श्रुत अस श्रवन बधु मंद हाँसी । रमित बचन बहु मधुरित भासी ॥
प्यारे पिया सुनहु मोरी । मोर कह्बती मानहु थोरी ।।
ऐसा सुनकर वधु धीमे से हँसी । लुभावने शब्द समूह के साथ मधुरता पूर्वक बोली । मेरे प्यारे पियातम हमारी बात सुनो और थोड़ा सा हमारा कहना मानो ॥
हँसे प्रिय ऊँगरी धर ठोरी । हाँ हाँ कहिं मुख कृति कर भोरी ॥
छिमा दान करू भूरन मोरी । अजहुँते करहुँ भगतिहि तोरी ॥
तब प्रियतम ठुड्डी पर उंगलियाँ रख कर हंसने लगे । और मुख की आकृति अबोध स्वरूप में करते हुवे हाँ हाँ करने लगे ॥ और बोले मेरी भूल को क्षमा करो अब से में तुम्हारी ही भक्ति करूंगा ॥
कहि बधु जो मम गर्भन जागे । सो जग अवनु कुलबुलन लागे ॥
कुल धर धारिनी जोउ होई । तव भाव भगति चहहीं सोई ॥
वधु ने कथन किया हमारे गर्भ में जो जीव अंकुरित हुवा था, वह संसार में जन्म लेने हेतु कुलबुलाने लगा है ॥ वह चाहे कुल का दीपक हो या दीपिका जो भी हो तुम्हारी भक्ति अनुराग उसे चाहिए हमें नहीं चाहिए ॥
श्रुत ऐसन प्रिय भए गंभीरे । बाहु पास लिए कहिं बहु धीरे ॥
सुनौ प्रिये मम प्रान समाही । तुम हो तौ को संकट नाही ॥
ऐसा सुन कर प्रियतम गंभीर हो गए और प्रियतमा को बाहु पाश में बांधते हुवे धीरे से कहने लगे ॥ सुनो मेरी प्रिया मेरी रान समा जब तुम हो तो फिर संकट कैसा ॥
दुइ दिवस गत भइ एक निसि, सन प्रसवन के पीर ।
हहरर बहियर होवती, गहबर अकुल अधीर ॥
दो दिवस के व्यतीत होने के पश्चात प्रसव पीड़ा के सह फिर एक यामिनी का आगमन हुवा ॥ गहन व्याकुलता और अधीरता लिए वधु आक्लांत होने लगी ॥
No comments:
Post a Comment