बुधवार,१ मई, २ ० १ ३
जदपि तातहु उर दुःख अधीना । बाल बिरह बस रहि बहु दीना ॥
तद्यपि पुरुष भए करक सुभाऊ । नारि धैर धरि बिधि कसि काऊ ॥
यद्यपि पिता का ह्रदय भी दुःख के अधीन, बालक के वियोग के वश होकर व्याकुलता से परिपूरित था ॥ ताध्यापी पुरुष
जाति का ह्रदय कठोर प्रकृति का माना जाता है, अत: वह धीरज धर कर दुःख सह लेता है । किन्तु नारी जिसे कोमल
हृदया कहा गया है बालक- बियोग के दुःख को किस प्रकार सहे ॥
बधु के करून दसा दुखदाई । बर के लोचन लखत न जाई ॥
सोचे बधु के पीर पहारे । कौन सहारे कवन उपारें ॥
वधु की करुणा मयी दशा अत्यंत दुखदाई थी । जिसे वर की आँखें देख नहीं पा रही थी उसने सोचा, वधु की पीड़ा तो पहाड़
जैसी हो गई है अब ऐसे पहाड़ को कैसे,किस उपाय से उपाड़ें ॥
बूढ़त अस संतप के सागर । सिराउ न जाइ बपु बपुर्धर ॥
सूझ बूझ एक दिवस बहोरे । ले गए बहिअर पीहरू पौरे ॥
शोक व संताप के सागर में ऐसे डूबते हुवे कहीं यह सुन्दरा की मूरत विसर्जित न हो जाए । सो सोच समझ कर एक दिन उसे
उसके पीहर घर में ले गए ॥
जडत ह्रदय हर जड़ हारी । हरिद मुखी तनी हरि हरियारी ॥
पर नारी मन भेद न पाई । का गति रहि का देत दिखाई ॥
वहां उसके निश्चेष्ट ह्रदय की चेतना लौटी । पिले पड़े मुख पर हरियाली छा गई ॥ किन्तु नारी के मन के भेद कोई जान नहीं
सका । वह रहती कुछ औउर ही अवस्था में है और दिखाई कुछ और ही देती है ॥
अस दुखि उर पर नैन भर प्रेम प्रीत अनुराग ।
पुनि चारति जीवन चाक प्रिय के लागी लाग ॥
सेज सयन थरि सर नीकासे । अबरन सीतल जल संकासे ॥
फुर भव भूषित पत प्रस्तारे । मनहु कुमुदहि सुरंगन सारे ॥
शयन भवन अथल के और शयनिका सरोवर के जैसे प्रतीत हो रही थी । और शय्यावरण शीतल जल अनुभव प्रस्तुत कर रहा
था ॥ अलंकृत किये हुवे सरस पुष्प की पंखुड़ियां से युक्त शय्या मानो उस सरोवर में गाड़े लाल रंग के कुमुद ही विस्तारित हों ॥
कुसुमित केसर पल्लव पूरे । लाह मनिक मनु कोपर रूरे ॥
सरस सुगन्धित साँस सुबासे । केतन बन बहु केतक बासे ॥
पूर्ण स्वरूप में प्रफुलित पुष्प पत्र के रंग की कांति ऐसी थी मानो परांत में माणिक्य चमक रहे हों ॥ शुद्ध सुरभित गंध साँसों को
भी सुगन्धित कर रही थी क्योंकि भवन के छोटे से उद्यान में केवड़े के बहुंत सारे पुष्प प्रस्फुटित हुवे थे ।।
ज्योति थंब बहु जुगत जराहीं । रतनाकर मनि रतन धराही ॥
किरनन कर कन कनक बिकिरने । बिकल करन कर बिदयुत पर्ने ॥
प्रकाश स्तम्भ अत्यधिक तीव्रता पूर्वक ज्वलित थे । मानो रत्नाकर ने अपने समस्त मणि रत्न ही उन्हें प्रदान कर दिए हों ॥ उनकी
किरणे स्वर्ण की आभा बिखेर रही थीं, जो की विद्युत् अप्सरा की भी सुन्दरता को निन्दित कर रही थीं ॥
जस फुरित फूर बर फुरबारी । अरु को दीप धरे चिंगारी ॥
लाह बसन तन कर्पुर गौरे । प्रान समा अस पिया अँकौरे ॥
जैसे पुष्पित पुष्पिका उद्यान के आलिंगन में हो, जैसे ज्वाला कण दीपक के आलिंगन में हो ।
जैसे धवली देह पर वस्त्र लब्धित हों वैसे ही अर्द्धागिनी अपने प्राणाधार को आलिंगित की हुई थी ॥
एहि प्रेम प्रसंग को न देखे । लखत लखित को लेख न लेखे ॥
अस सुरती रत तम अट घेरे। दुअर दरस बन दइ पट भेरे ॥
इस प्रेम प्रसंग को कोई ना देखे और देख समझ कर कोई लेख न लिख दे ॥ ऐसा ध्यान करके रात ने उन्हें अपने अन्धेरे का घेरा
किया और द्वार पालिका बन कर द्वार के पट मोचित कर दिए ॥
अधरन बधु कलित कल हँस, नैनन धरे सनेह ।
साईँ ह्रदय सौंप दियौ सौंपी आपन देह ॥
वधु ,अधरों पर मृदु हास्य विभूषित करते और नैनों में स्नेह धारण करते हुवे प्राणाधार को ह्रदय सहित देह भी सौंप दी ॥
गुरूवार, ० ९ मई, २ ० १ ३
बधु अस जस रति सहस सँवारी । सरबस रूप रस प्रिय पर बारी ॥
प्रिय के वपुधर रुचिरत ढारे । अंग कोटि कमन न्यौछारे ॥
त्योंहि प्रिया पिय सह सुहाई । तन मन सन करी सेवकाई ॥
फुलवारी में जैसे पुष्प प्रस्फुटित होकर समाप्त हो जाता है । जैसे दीपक में ज्वाला कण जल कर समाप्त हो जाती है । वैसे ही प्रिया
भी प्रियतम के साथ सुशोभित हुई और उनकी तन मन से सेवा की ॥
जस चन्द्रानन चातक चहही । असही प्रिय बधु निरखत रहही ।
मधुकर छबि भर पिया अनंदे । सोषत बधु के रूप मकरंदे ॥
जैसे चन्द्रमा के मुख को चातक चाहता है । ऐसे ही अली वल्लभ भी वल्लभा को देखते ही रह गए । उन्होंने मधूप की छवि रूप
धारण कर अपनी प्रियतम के रूप रस को शोषन कर आनंदित हो रहे थे ॥
लता ओट जब किरन लखाई । परन करत रत मुसुकाई ॥
चहत ससि गृह लोचन झाँके । मनै करत रत झट पट राखे ॥
लतिकाओं का ओत लेकर जब किरणे ऐसा दृश्य देखने लगी । तो मुस्कुराती हुई यामिनी ने उअसे दूर हटा दिया ॥ जब शशी ने
झरोकों से झांकना चाहा । तो उसे भी मना करते हुवे रात्रि ने झरोखे के द्वार बंद कर दिए ॥
अधर उँगरी धरी कहत चुप सरी कोउ न कलरव करीं ।
भए मुखरित बैनी लोचन सैनी देखु तनिक अवसरी ॥
हम पर कोऊ ना देखन दौ ना हठ करि मुद मदयन्ति ।
कहि नाहि नाहि रद छदन दसाही दुआरि रत रतियन्ति ॥
अधरों पर उंगली रखकर, कही की थोड़ी चुप्पी साधो कोई भी शोर मत मचाओ । संकेत वाणी से आँखे मुखरित हो उठी और कहने
लगी किंचित अवसर तो देखो । तब मेहंदी की पंखुड़ियां कहने लगी हम कोई पराए नहीं है किंचित हमें तो देखने दो ॥ तो यामिका
ने मुस्करा कर दुआर से लग कर कहा नहीं नहीं ॥
कामिनि कंचन सन कमन करें सुन्दर सँजोग ।
सुन्दर सेज सयन सदन सुन्दरि रत रहि जोग ॥
धनलक्ष्मी के संग कामदेव स्वरूप हरी सुन्दर स्वरूप में संयुक्त हैं। और सदन की सुन्दर शयनिका यामिका यामिक संकास है॥
शुक्रवार, १ ० मई, २ ० १ ३
लेइ बिदा रत चलि पिय पाहीं । सकुचहिं गहि बिहान के बाहीं ॥
उयइ प्रभा बहोर अलसाई । जल सुत सेचत सजन जगाई ॥
यामिका ने अपने प्रियतम के पास जाने हेतु विदाई ली । और संकोच कराती हुई प्रभात के भुजाओं में समा गई ॥ फिर भोर में प्रभा अलसाती हुई उठी और जल के मोती स्वरूप ओस कानों का सिंचन करते हुवे अपने प्रियतम सूर्य को जगाया ॥
चली नाउ जल नभस नभौके । नभ केतन थित चासत चौंके ॥
चारु हाट लग बाट अँबारी । बैठ बस्तु ले बनि मनिहारी ॥
जल में नौकाएँ चलने लगी नभ में पक्षी विचरने लगे । फिर सूर्य ने समस्त चौंक चौराहों को प्रकाशित कर दिया ॥ मार्ग पर स्थित
भवन खण्डों से लग कर पणिकाएँ सज गईं । और श्रृंगार सामग्री के विक्रेता और व्यापारी गण विभिन्न वस्तुओं लेकर
विराजित हुवे॥
तापन तप बहु ताप चढ़ाई । गली गली सब करत सिंचाई ॥
एक बर्निक पुर मंजुल पेखे । बरन बर्ति ले चित्र बर लेखे ॥
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य बहुंत ही उष्णता उत्पन्न कर रहा था । उष्णता से बचने के लिए सब गलियों को सिंच रहे थे ॥ एक लेखक ने
जब ऐसा सुन्दर नगर देखा तो उसने तुलिका लेकर चित्र-शैली में उस नगर का सुन्दर वर्णन किया ॥
बहत धरनि जल पवन अगासे । परत धूरि पर फूर उकासे ॥
कहुँत उमग कहुँ सोक निबासे । कहुँत आस जी कहूँ निरासे ॥
धरती पर जल प्रवाहित है और गगन में वायु प्रवाहित है । धुल की परतों पर पुष्प विकसित हुवे । कहीं उमंग उत्सव कहीं शोक
का निवास है । कहीं जीवन आशा हैं तो कहीं निराशा है ॥
जीवन धूर्बाहन सम सुख दुःख जाके चाक ।
एक अड़ंग ते दुज बाढ़ चालत जात दे हाँक ॥
जीवन एक भार वाहक वाहन है, सुख और दुःख उसके पहिये हैं यदि एक रुकता है तो दुसरा उसे हांक देते हुवे बढ़ा ले जाता है ॥
जीवन एक मासहू सम सुख दुःख जाके पाख ।
एक आवन एक पयाने मावस राका राख ॥
जीवन, वर्ष के एक मॉस के समान भी है जिसके दुःख, कृष्ण और सुख, शुक्ल स्वरूप में दो पक्ष है। एक के आते ही अमावस-
पूर्णिमा अर्थात उत्सव-दिवस एवं शोक-दिवस रखते हुवे दुसरा प्रस्थान करता है ॥
शनिवार,१ १ मई,२ ० १ ३
इत जग सन जग मोहिनि जागी । बसन सँभारत सयनि तियागी ॥
सयित सजन छबि बदन लखाई । सुरत रैन अँखि पखि झुकि आई ।।
तनि सकुचाह मंद मुसुकाई । लाग लगावत लाज लजाई ॥
बरनत बर्निक रूप सुँदरी के । अद्भुत अनुपम अतुलित लीखे ॥
पुनि समऊ पख पाखिहि लागे । पहर दिवस लखवन भागे ॥
को पल तापत को सुखदाई । जनु धूप कहुँत कहुँ परछाई ॥
सुमिरत सुत कभु चित कर भारे । बेसिक झोरि धर रोवति हारे ।
कतहूँ तर जार नैन हिमालै । फिरै नहीं फिर जावनुवाले ॥
सोक बिषाद कभु पावति प्रियतम प्रेम प्रसाद ।
दिवस रात बधु बितावति धर उर सुत अवसाद ॥
रविवार, १ २ मई, २ ० १ ३
सुख के लाखन कही न जाए । दुःख दौ उर बहु निकट लै आए ।।
जौ दिन बधु प्रिय संग बिहाई । अनु रति निज प्रति बढ़तहि पाई ।।
तइ नारी बहु होत सुभागी । जै रहि प्रिय पिय चित एकागी ।।
नहि त पुरुष भए मनस पतंगे । लागे एक रँग रह बहु रंगे ।।
जे कभू प्रिय पुट के सुधि करहीं । उर भरतहि लोचन जल धरहीं ।।
पेख पिया अस प्रिया बिकलाए । समझ बचन कहि बहुसह सुहाए ।।
पुतहिनू पितु तिलछाते कैसे । रामायन बन दसरथ जैसे ।।
सेव जोग बधु करतति ऐसे । चरफर पर जर देवति तैसे ।।
एहि बिधि गह सुख दुःख गृह बसाए । बार बधु के कल कहनी सुहाए ।।
लिखनि लिखी बधु पुत अवसानी । लघु मम मुख सन जनम बखानी ।।
आखर जनि बरनत बर बानी । जथा जोग जो जितै ग्यानी ।।
रस गाहत जे पाठक बादे । छमा दान दे लिपिक प्रमादे ।।
आखरी बर्निक रंगन असित हरित लखि लाल ।
लेख साधन गुरुबर गन प्रनत लिखनी भाल ।।
सोमवार, १ ३ मई, २ ० १ ३
प्रेम पूरनित बिषय बिलासे । जाके फल जग जातक बासे ॥
जीवन धन रस मरन जनाई । ताके बल बिधि करत बिधाई ॥
भिनु भिनु ठियाए भिनु भिनु ठौरे । कोमलि कामिनि कोउ कठोरे ॥
कोउ को रूप कोउ को रंगे । सुंदरतम भइ अर्धन अंगे ॥
जदपि सरीर पीर पर भारी । जानत जात बहु होत दुखारी ॥
ता परहू सब जग नारी । धारन चाहति पद महतारी ॥
प्रथम प्रसव जे सोंह धराई । तेहिं सुरति बधु सुध बिसराई ॥
माए ममत सों कर अस साँचे । लगत धूँक भए कन कन काँचे ॥
ममता मै मन लालक लाहे । भुज अंतर पुनि बालक चाहे ॥
असं बसन सन अवसथ साथे । जहाँ मनोरथ तहँ पथ पाथे ॥
सतकारु गूँथ गुनसूत केरत रजस प्रबेस ।
तहँ संसेचत सत गर्भ धारन उदार प्रदेस ॥
मंगलवार, १ ४ मई, २ ० १ ३
पुनि एक दिन मनि रतनन सजाए । जोत भरत जब जगत उजियाए ॥
काज उसारति गृह अँगनाई । बार बार बधु लइ उबकाई ॥
उदार पर कंठ बदन दुआरे । खान पान सब आए बहारे ॥
निरखि बैद कहि बचन पुनीता । गर्भ सहित रहि प्रीतम प्रीता ॥
सुभ समाचार श्रुति रंजन के । हर्षे आनन सकल गृहजन के ॥
बनत बिलोकत प्रियतम चाऊ । लाजटी बधु धरि लजवति नाऊ ॥
दुःख बिरात चलि पौ पुरबाई । कुल मंदिर सुख संपद लाई ॥
ताप दिवस पर छाया छाई । फार ते लद फद फुरि अमराई ॥
तरी तरंगत तरनी धारा । राग अरुन सुर रंग क्गारा ॥
कनक कामिनि के रूप सनाते । हिरन मई कन बरनत हाथे ॥
समउ गति कर तनि बिश्राम, साध सुन्दर सँजोग ।
धारे नवल गर्भ धाम पञ्च भूत के जोग ॥
बुधवार, १ ५ मई, २ ० १ ३
जे रहि बधु के सरूप स्वामी । मन मंदिर के अंतर जामी ।।
बन सेवक धावत करि सेवा । पुर गमनत लावत फार मेवा ।।
ऐसन भाई पिय की सेवकाई । जस भगवत करि प्रभु वन्दाई ।।
पूछ पूछ कर चरन धराहीं । रूचिटी रचित कर काज कराहीं ।।
पुनि एक बारहि तार बिसारी । चाँद नयन सन जगत निहारी ।।
समनी बन सद सयन पालिका । गंध पवन भरि सुबर सालिका ।।
प्रिया पिया के संग सुहाई । मुख सुस्मित भरि पूछ बुझाई ।।
तुम्हरी भगति लहि सुख सोभा । कहु तुहरे मन को बरु लोभा ।।
हँसत कहे पिय रजत न सोना । चाहूँ तव मन के एक कोना ।।
अरु कहिं पिय कर कंठन भारी । जे भगवन के चरना चारी ।।
जदपि तातहु उर दुःख अधीना । बाल बिरह बस रहि बहु दीना ॥
तद्यपि पुरुष भए करक सुभाऊ । नारि धैर धरि बिधि कसि काऊ ॥
यद्यपि पिता का ह्रदय भी दुःख के अधीन, बालक के वियोग के वश होकर व्याकुलता से परिपूरित था ॥ ताध्यापी पुरुष
जाति का ह्रदय कठोर प्रकृति का माना जाता है, अत: वह धीरज धर कर दुःख सह लेता है । किन्तु नारी जिसे कोमल
हृदया कहा गया है बालक- बियोग के दुःख को किस प्रकार सहे ॥
बधु के करून दसा दुखदाई । बर के लोचन लखत न जाई ॥
सोचे बधु के पीर पहारे । कौन सहारे कवन उपारें ॥
वधु की करुणा मयी दशा अत्यंत दुखदाई थी । जिसे वर की आँखें देख नहीं पा रही थी उसने सोचा, वधु की पीड़ा तो पहाड़
जैसी हो गई है अब ऐसे पहाड़ को कैसे,किस उपाय से उपाड़ें ॥
बूढ़त अस संतप के सागर । सिराउ न जाइ बपु बपुर्धर ॥
सूझ बूझ एक दिवस बहोरे । ले गए बहिअर पीहरू पौरे ॥
शोक व संताप के सागर में ऐसे डूबते हुवे कहीं यह सुन्दरा की मूरत विसर्जित न हो जाए । सो सोच समझ कर एक दिन उसे
उसके पीहर घर में ले गए ॥
जडत ह्रदय हर जड़ हारी । हरिद मुखी तनी हरि हरियारी ॥
पर नारी मन भेद न पाई । का गति रहि का देत दिखाई ॥
वहां उसके निश्चेष्ट ह्रदय की चेतना लौटी । पिले पड़े मुख पर हरियाली छा गई ॥ किन्तु नारी के मन के भेद कोई जान नहीं
सका । वह रहती कुछ औउर ही अवस्था में है और दिखाई कुछ और ही देती है ॥
अस दुखि उर पर नैन भर प्रेम प्रीत अनुराग ।
पुनि चारति जीवन चाक प्रिय के लागी लाग ॥
ऐसे दुखित ह्रदय से, किन्तु आँखों में प्रेम प्रीति और अनुराग भरे वधू, जीवन के चक्र को फिर एक बार चलाती हुई प्रियतम
आसक्ति में ही प्रवृत हो गई ॥
आसक्ति में ही प्रवृत हो गई ॥
गुरूवार, २ मई, २ ० १ ३
पुनि एक दिन अट भवन अटारी । मंद मंद रहि चलत बयारी ॥
सुरभि गंध रस राजन सानी । सरसति परसति रति रत रानी ॥
पुन:एक दिवस भवन अटारियों को छूती, सुगन्धित सुगंधसा, गुग्गुल, बेला,मोगरा,चन्दन में घूलि और रात की रानी के स्पर्श
से अनुरागित हुई, मंद मंद वायु बह रही थी ॥
से अनुरागित हुई, मंद मंद वायु बह रही थी ॥
ढरत रहि बस साँझ सिंदूरी । रजत रजस लस रयनिहि रूरी ॥
हरि हरि रख नख अम्बर घारी । होत निरंतर गहरत कारी ॥
सिंदूरी सांझ बस अपने ढलान पर ही थी । पराग के उज्जवल कणों से लिपटती रजनी शोभायमान हुई ॥ अम्बर में धीरे धीरे
तारों को बिछाती वह , निरंतर गहराती ही जा रही थी ॥
लावन सस लख लोचन तरसे । ततछन सम्मुख दरसी अरसे ॥
मौलि मयूख अस आकारषे । मनु नउ दुलहिन दर्पन दरसे ॥
आँखें शशि की सुन्दरता के दर्शन करने के लिए तरस गईं । तभी लोचन के सम्मुख वह अक्ष पर दिखाई दी ॥ उसके मुख की
कांति ऐसी आकर्षक थी कि मानो कोई नई दुलहन दर्पण देख रही हो ॥
नभ प्रकास बिथुरि कर ऐसे । प्रभा श्याम मनिक सर जैसे ॥
तारों को बिछाती वह , निरंतर गहराती ही जा रही थी ॥
लावन सस लख लोचन तरसे । ततछन सम्मुख दरसी अरसे ॥
मौलि मयूख अस आकारषे । मनु नउ दुलहिन दर्पन दरसे ॥
आँखें शशि की सुन्दरता के दर्शन करने के लिए तरस गईं । तभी लोचन के सम्मुख वह अक्ष पर दिखाई दी ॥ उसके मुख की
कांति ऐसी आकर्षक थी कि मानो कोई नई दुलहन दर्पण देख रही हो ॥
नभ प्रकास बिथुरि कर ऐसे । प्रभा श्याम मनिक सर जैसे ॥
उदित मुदित मुद कुमुद बिकासे । मनहु मानस मानिक कासे ॥
नभ में उसके दीप्ती की शोभा ऐसे बिखरी जैसे नीलम हीरे आदि रत्न अपनी शोभा बिखरते हैं ॥ (ऐसे सुखपूर्वक वातावरण को
देखकर ) हर्षित और आनंदित होकर प्रस्फुटित होते कुमुद मानो मन सरोवर में चमकते माणिक्य का आभास दे रहे थे ॥
अरु पखारविंदे अरारीलिंदे मुकुलित मुख मुद मुद्रिते ।
कौमुदनी ताला कौमुदि माला तरि जल गल करि कलिते ॥
उद कन उदकाती चलि इठलाती सरिद सरा सरि सरिते ।
हिरनन संकासे कन कन कासे यामिनि जोबन लसिते ॥
कमलों के नयन के द्वार पटल रूपी पंखुड़ियां आनंद मुद्रा में बंद होती चली गईं ॥ चांदनी, मालाएँ लिए कुमोदों के सरोवर मेंउतरी
और जल के कंठ को विभूषित कर गईं॥ उदक कणों को उछालती गंगा के जैसी नदी इठलाती हुई प्रवाहित होने लगी । उसके जल
कण चमकते हुवे स्वर्ण का आभास देने लगे और रात अपने पूर्ण यौवन श्री को प्राप्त हुई ॥
नभ में उसके दीप्ती की शोभा ऐसे बिखरी जैसे नीलम हीरे आदि रत्न अपनी शोभा बिखरते हैं ॥ (ऐसे सुखपूर्वक वातावरण को
देखकर ) हर्षित और आनंदित होकर प्रस्फुटित होते कुमुद मानो मन सरोवर में चमकते माणिक्य का आभास दे रहे थे ॥
अरु पखारविंदे अरारीलिंदे मुकुलित मुख मुद मुद्रिते ।
कौमुदनी ताला कौमुदि माला तरि जल गल करि कलिते ॥
उद कन उदकाती चलि इठलाती सरिद सरा सरि सरिते ।
हिरनन संकासे कन कन कासे यामिनि जोबन लसिते ॥
कमलों के नयन के द्वार पटल रूपी पंखुड़ियां आनंद मुद्रा में बंद होती चली गईं ॥ चांदनी, मालाएँ लिए कुमोदों के सरोवर मेंउतरी
और जल के कंठ को विभूषित कर गईं॥ उदक कणों को उछालती गंगा के जैसी नदी इठलाती हुई प्रवाहित होने लगी । उसके जल
कण चमकते हुवे स्वर्ण का आभास देने लगे और रात अपने पूर्ण यौवन श्री को प्राप्त हुई ॥
हिम किरन नग नगन नखत सुन्दर गगन बिसाल ।
अति रुचिर प्रति बिम्ब परत दर्सत कुमुदित ताल ॥
अति रुचिर प्रति बिम्ब परत दर्सत कुमुदित ताल ॥
पीयूष मयूख, रत्नों के समान अनगिनत नक्षत्र और अति सुन्दर विशाल आकाश का अत्यंत ही सुन्दर प्रतिबिम्ब कुमुदों
का ताल पर दर्शित हो रहा है ॥
का ताल पर दर्शित हो रहा है ॥
शुक्रवार, ० ३ मई, २ ० १ ३
इत प्रीतम पर भोजनु किन्हें । सयन सदन चर चरनन चिन्हे ।।
पेख प्रिया के पल छल हीना । मंद कमल मुख दर्पन दीना ॥
इधर भोजन करने के पश्चात प्रियतम ने अपने चरण शयन सदन में उद्धृत करते हुवे प्रियतमा की निच्छल पलकें और
मुरझाए हुवे कमल की भांति उदास मुखड़े को देखा ।।
आए निकट गह कोमल हाथे । प्रिय कलत्र कर प्रेयषी साथे ॥
पाटन पट भए पाटल बरना । परत जुगल के कोमल चरना ॥
निकट आ कर कोमल हाथों के हाथ में लेकर अत्यंत स्नेह पूर्वक अपनी प्रेयषी को संग ले चले ।। इस युगल दम्पति के
चरण पड़ते ही छत और उसके आवरण पर बसंत छा गया ।।
प्रियतम बैने रमनत रैने । देखु रयनि के सुन्दर सैने ॥
राग लता रूप लावन धारी । हेम किरन वर भइ रतनारी ॥
उस रात छत पर भ्रमण करते हुवे प्रियतम बोले देखो सुन्दर की प्राण समा का रूप धरी और चंद्रमा के वरण से ललामित
हुई यह यामिका कितने सुन्दर सन्देश दे रही है ।
हंस गमन तस चरनन चारे । नख नखत नेमि हंसक हारे ॥
मंजुल गमनी जब तनि दोले । हँसक हार हिलमिल हँस बोले ॥
हंस की भांति मोहक चाल चलने वाली के चरणों पर उद्धृत होते, तारे चाँद स्वरूप में इसके चरण आभूषणों की मुक्ता
मालाओं को देखो ।। जब यह सुन्दर चाल चलती है तो तनिक दोलित होकर इसके सारे आभूषण आपस में मिलजुल कर
कैसे प्रसन्न होते हैं ।।
कल मोर मन हर हरसाई । दुइ पल ठहरत रत बतियाई ॥
अस श्रवनत बधु कह मुसुकाई । तव कर गहि कहु का गुठियाई ॥
कल इसने मेरे मन को हरण कर लिया । और आह्लादित होती हुई दो पल के लिए ठहर कर लगन पूर्वक मुझसे थोड़ी बात-
चीत करने लगी ।।
मैं पूछा सुन त रैनी कहन तक तोरी थाह ।
तिरछ्त नैन कर सैनी जँह प्रभात की बाँह ॥
मैने पूछा अरे यामिका सुन तो तेरी थाह कहाँ तक है । तो उसने नयन नचाते हुवे संकेत करते बड़े ही बांकपन से मुझे उत्तर
दिया, जहां प्रभात की बहियाँ हैं ।।
शनिवार, ० ४ मई, २ ० १ ३
श्रवनत पिय के बदनन रसने । बधु के मृदु रद छाजन दसने ॥
पल भर मँह हर हँसक अराधे । मनहु मानस हंस निनादे ॥
पिया की रसमयी वाणी को सुन कर । वधू के कोमल अधर प्रस्तारित हो गए ।। और तत्क्षण ही हंसी उन होठों की सेवा करने
लगी । मानो मान सरोवर में हंस मधुर ध्वनि भर रहे हों ॥
जे मल प्रभ मुख अवरन दासे। नैनन रहि पट पलकन डासे ॥
ते अबरित अन अबरन कैसे । सेज सयन नउ दुलहिन जैसे ॥
मुख पर जो उदासी का आवरण आच्छादित था । और आँखों पर पलकें प्रतिच्छादित थीं ॥ इन आवरणों का अनावरण कैसे
हुवा जैसे सुन्दर और कोमल सदन शयनिका पर बैठी नव दुल्हन का आवरण, अनावृत होता हो ॥
मुख दर्पन चित्र कर कृत लाहे । चंदु बदन बधु बर चक चाहे ॥
चाह नयन भर प्रियबर वन्दे । तव हँस धुनि सुन नंदन नंदे ॥
मुख रूपी दर्पण पर कांटी यूके छवि उभरी । वर वधु के मुख ऐसे निहार रहा था जैसे चकोर चाँद को निहारता हो ॥ आँखों में
चाहत भर के प्रियतम ने इस प्रकार स्तुति की : -- तुम्हारी इस हंस ध्वनि से तो सारा नंदन आनंदित हो गया ॥
कोर कलित तव कज्जल नैने । उठी भृकुटि सुठि कुटिलक लैने ॥
दिसित गोचर काम सर षंडे । चलत जात कस कर कोदंडे ॥
काजल से विभूषित हुवे तुम्हारी आँखों के ये कगारे और हुवे यह उठी हुई सुन्दर भृकुटी ऐसी दर्शित हो रही है मानो काम देव
सारंग कास कर अपने सरासन समूह को छोड़ रहें हों ॥
समऊ परे तोहरि छबि लिनी । तेहि ससी बहुरत देइ दिनी ॥
लबध लवन लव श्री कर राजे । मनहुँ देइ हों साथ बियाजे ॥
बहुत समय पहले चाँद ने जो तुम्हारे मुख छवि ले ली थी, अब उसे उसने लौटा दिया है । प्राप्य लावण्य तनिक अधिक ही
सुशोभित हो रहा है । मानो उसने सुदरता के मूल के सह ब्याज भी दिया हो ॥
सुधाम्बर कपोल लाल मोहत मुखारविंद ।
भूमि भाल भरे तमाल केस काल कलिंद ॥
अमृत से भरे होंठ, कपोल पर अरुण राग मोहित करता कमलमुख, माथे की भूमि पर यमुना के जैसे काले केश रूपी तमाल
वृक्ष के सदृश्य हैं ॥
एक हिमकर गगन धरे एक प्रीतम के पास ।
गगन धरनि के सम कास धरनि गगन संकास ॥
एक चाँद गगन धारण किए है एक प्रियतम अर्थात मेरे पास है । गगन, धरती के जैसे चकासित है और धरणी गगन के जैसे
प्रकाशित है ॥
रविवार, ० ५ मई, २ ० १ ३
अस प्रिय के मुख वंदन उचरे । ताकत वधूटि मंजुल मुखरे ॥
जोंहि नयन पख मिलवन उधरे । पिया चरन मन मानस उतरे ॥
इस प्रकार प्रियवर के मुख वधु की सुन्दरा की स्तुति का उच्चारण कर वधु के सुन्दर मुखड़े को देखने लगा ॥ ज्यों ही वधु की
पलकें मिलने के लिए ऊपर उठीं त्यों ही प्रियतम के चरण मन के मान सरोवर में उतर गए ॥
बाहु शिखर दल सार प्रलंबे । तरे वधुटि मुख अम्बर अंबे ॥
बाँधि प्रिया प्रियबर कर पासे । रति बल्लर प्रिय कोटर कासे॥
पिया ने कंधे सहित अपनी लम्बी भुजाएं प्रस्तारित की, तो वधु के अश्रु मुख पर उतर आए ॥ प्रिया ने प्रियतम को अंक में बाँध
लिया तो प्रिया ने भी अनुराग पूर्वक भुजा पार्श्व में कस लिया ॥
पूर निभ बदनु सन्मुख किन्हे। कपोल रद पत के पग चिन्हे ॥
लौकित कन के लवनित ओटे । धरे कंपत होठ पर होठे ॥
पूर्णिमा के चाँद के जैसे मुख को सम्मुख करके प्रिया के कपोल पर अपने अधर पद चिन्हांकित किए ॥ लाउकित होते अश्रु कणों
की लवणता ग्रहण करते हुवे प्रियतम ने प्रियतमा के कम्पायमान होंठों पर अपने होंठ रख दी ॥
अधरोपर अधरामृत पागे । रूचि कर कारक अति अनुरागे ॥
प्रीति प्रतीति रति रमन रुचिते । मनहु मीलित मधु परक सुधिते ॥
अधरों के दोनों पदों का मधुर अमृत का रसपान करते हुवे प्रिया अत्यंत अनुराग मयी स्थिति में थे ॥ प्रेम,विश्वास, आसक्ति,
सुन्दरता और मधुरता का मिश्रण इस प्रकार था कि जिस प्रकार से मधु पर्क का उचित संयोजन हो ॥
प्रियबर के अस परम रूप कोटि कमन रहि जीत ।
प्रिया के अस रुचिर सरूप सहस रति न उपमीत ॥
प्रियवर का ऐसा अनूठा रूप की तुलना करोड़ों कामदेव से भी नहीं हो सकती थी । और प्रिया के ऐसे मनोहर स्वरूप की सहस्त्रों
राग लतिकाओं की उपमा भी नहीं दी जा सकती थी ॥
दिस अस दर्शन दीठ देवन रतबत बरदान ।
धनु कर काँधन पीठ रति रमन कर सर सुधरे ॥
ऐसे दर्शन देखकर सुन्दर वरदान देने हेतु रति एवं रतिनाथ के काँधे व पृष्ठ ने काम धनुष को सुशोभित किया , और हाथ बाणों
के दोषों को दूर कर शिल्प का स्वरूप देने लगे ॥
सोम/मंगल , ० ६/७ , मई, २ ० १ ३
मुद इत मदयित त्रिबिध बयारी । लहत बहत चलि बहु सुखकारी ॥
हिलग मिलग लग उरत पटोरे । बिगलित कुटल लेत हिलोरे ॥
इधर मोद-प्रमोद से भरी त्रिबिध शरणी ( शीतल,मंद,सुगंध) बह रही थी, जो आनन्द उत्सव उत्पन्न करती हुई अत्यंत ही
सुखकारी प्रतीत हो रही थी ॥
मंद मधुर रुर स्वर सप्तिके । गूंज करत रहि कहूँ अंतिके ॥
मुरज तुरज तुर तार तरंगे । कंठ कूनिक सार सरंगे ॥
संगीत के सात स्वरों के समूह की धीर मधुर ध्वनी कहीं पास में ही गूंज रही थी ॥ ढोल,मृदंग,तुरही के साथ तंत्र वाद्य की तरंग
और वीणा सारंगी स्वरामृत भर रहीं थीं ॥
सुबर ग्राम कर कम्पत नादे । बाँध भेद जुग बाहन बादे ॥
सुध सिध साधत सँग संगीते । बादन कारूक कह बहु रीते ॥
स्वर सरगम कम्पायमान होकर मधुर सुर उत्पन्न कर रहे थे । ताल-स्वर में बंधे हुवे गीत स्वरांतर ग्रहण करते हुवे स्वर वर्णों
की संधि से युक्त होकर केवल स्वरयंत्रों के साथ निनाद कर रहे थे ॥
सुर सिंगारें सुरत सुरीले । बढ़ चढ़ उतरत कल रल मीलॆ ॥
सकल रागिनी रागत रंगे । गावत रहि कर संगति संगे ॥
एक सजन दुलारे सयन दुआरे एक अति न्यारी रयना ॥
बिधु बदना बारे अधर अँगारे लहकारे पट नयना ।
जल बलन पधारे पुहुप पियारे ललक ढारे पट नयना ॥
एक प्राणों के समान प्रिय प्रियतमा है, एक भवन अट्टालिका है, और एक ललामिक यामिका है । एक शयन द्वारिका में एक
प्यारे से साजन हैं, एक अत्यंत ही अनूठी यामिका है ॥ चन्द्रमा की मुखाकृति, अधरों पर जलते अंगार, और उन्हें झुनका देते
नयन पंख ॥ पतंग स्वरूप प्रियतम जलकर भस्म होने के लिए पधारे तो नयनों ने झट से पंख ढाल लिए ॥
श्री जौबन के सौं साजन के नयनन दर्पन लई ।
लख रूप सिंगारत निरखे रतिबति निस दिन लागत नई ।
रुप बर्धन बर लावन श्री धर लाजत लाग लगई ।
भुजान्तर धारत प्रिया निहारत भाँवर साँवर सईं ॥
यौवन के सौंदर्य साधन हैं, सन्मुख साजन के नयनों का दर्पण लिये दर्पण में छवि निहारती,रूप- लावण्यता का श्रृंगार करती एक
सुंदरी सदैव नव अंगना प्रतीत होती है ॥ रूप लावन्यता को तब और अधिक श्री प्राप्त होता है जब वह लज्जा में अनुरक्त हो जाती है ।
अंक में भरते हुवे प्रिया को निहारते पिया संग में भंवर रहे हैं ॥
रत रात सुनहरी रति रूप सँवरी जोग जुगल पर छाहिं ।
प्रमद्त बहु लहरी पलभर ठहरी बिसर प्रात की बाहिं ॥
गावनी मंडली धुनी मंगली मधुरित सुर बरनई ।
स्वर सुवागत रागिनि रागत रसित रमित रवनई ॥
रात अनुरक्त होती हुई यामिका राग लता का रूप धरे युगल दम्पति पर छाँव कर रही है । और आनन्द प्रमोद में लहराती प्रभात की
आलिंगन को भूल कर थोड़ी देर ठहरती है ॥
कल नादी करतल कलित ताल बल अरु अति आनँद भरै ।
तरंगित ताल जल हंसक हलबल झनक झंकार करें ।।
रंग राग परिमल कौमुदनी तल मानहु मानिक तरें ।
ज्योति पथ मंडल अवतरित स्थल मनि मनि जगमग करें ॥
मधुर स्वरसाधक की हथेलियाँ, मधुर स्वर ताल के आभूषण धारण करते हुवे और अधिक आनन्द भर रही हैं । हंसों की हलचल
से सरोवर का जल आरोहित-अवरोहित हो रहा है और झनकते हुवे झंकार उत्पन्न कर रहा है ॥ कुमकुम के रंग में अनुरक्त होते
जल की सतह पर प्रस्फुटित कौमुदनी ऐसे तैर रहीं रहे हैं मानो मणियाँ ही तैर रहे हों । आकाश मंडल ने भूमि पर अवतरित होने
से सारी मणियाँ जगमगाने लगी ॥
एक छात दौ बल्लभा रस सिंदूरी रंग ।
एक बियोगित पिया जोग दुजी पिया के संग ॥
एक छत में श्रृंगार रस में अनुरक्त हुई दो प्रियतमा हैं । एक पिया से वियोग दूसरी पिया के संग में है ॥
दिरिस देहरि दुआर पर चिन्हित चरन उतार ।
अरुनार्विंद आधार प्रियबर मन मानस बसे ॥
इत प्रीतम पर भोजनु किन्हें । सयन सदन चर चरनन चिन्हे ।।
पेख प्रिया के पल छल हीना । मंद कमल मुख दर्पन दीना ॥
इधर भोजन करने के पश्चात प्रियतम ने अपने चरण शयन सदन में उद्धृत करते हुवे प्रियतमा की निच्छल पलकें और
मुरझाए हुवे कमल की भांति उदास मुखड़े को देखा ।।
पाटन पट भए पाटल बरना । परत जुगल के कोमल चरना ॥
निकट आ कर कोमल हाथों के हाथ में लेकर अत्यंत स्नेह पूर्वक अपनी प्रेयषी को संग ले चले ।। इस युगल दम्पति के
चरण पड़ते ही छत और उसके आवरण पर बसंत छा गया ।।
प्रियतम बैने रमनत रैने । देखु रयनि के सुन्दर सैने ॥
राग लता रूप लावन धारी । हेम किरन वर भइ रतनारी ॥
उस रात छत पर भ्रमण करते हुवे प्रियतम बोले देखो सुन्दर की प्राण समा का रूप धरी और चंद्रमा के वरण से ललामित
हुई यह यामिका कितने सुन्दर सन्देश दे रही है ।
मंजुल गमनी जब तनि दोले । हँसक हार हिलमिल हँस बोले ॥
हंस की भांति मोहक चाल चलने वाली के चरणों पर उद्धृत होते, तारे चाँद स्वरूप में इसके चरण आभूषणों की मुक्ता
मालाओं को देखो ।। जब यह सुन्दर चाल चलती है तो तनिक दोलित होकर इसके सारे आभूषण आपस में मिलजुल कर
कैसे प्रसन्न होते हैं ।।
अस श्रवनत बधु कह मुसुकाई । तव कर गहि कहु का गुठियाई ॥
कल इसने मेरे मन को हरण कर लिया । और आह्लादित होती हुई दो पल के लिए ठहर कर लगन पूर्वक मुझसे थोड़ी बात-
चीत करने लगी ।।
तिरछ्त नैन कर सैनी जँह प्रभात की बाँह ॥
मैने पूछा अरे यामिका सुन तो तेरी थाह कहाँ तक है । तो उसने नयन नचाते हुवे संकेत करते बड़े ही बांकपन से मुझे उत्तर
दिया, जहां प्रभात की बहियाँ हैं ।।
शनिवार, ० ४ मई, २ ० १ ३
श्रवनत पिय के बदनन रसने । बधु के मृदु रद छाजन दसने ॥
पल भर मँह हर हँसक अराधे । मनहु मानस हंस निनादे ॥
पिया की रसमयी वाणी को सुन कर । वधू के कोमल अधर प्रस्तारित हो गए ।। और तत्क्षण ही हंसी उन होठों की सेवा करने
लगी । मानो मान सरोवर में हंस मधुर ध्वनि भर रहे हों ॥
जे मल प्रभ मुख अवरन दासे। नैनन रहि पट पलकन डासे ॥
ते अबरित अन अबरन कैसे । सेज सयन नउ दुलहिन जैसे ॥
मुख पर जो उदासी का आवरण आच्छादित था । और आँखों पर पलकें प्रतिच्छादित थीं ॥ इन आवरणों का अनावरण कैसे
हुवा जैसे सुन्दर और कोमल सदन शयनिका पर बैठी नव दुल्हन का आवरण, अनावृत होता हो ॥
मुख दर्पन चित्र कर कृत लाहे । चंदु बदन बधु बर चक चाहे ॥
चाह नयन भर प्रियबर वन्दे । तव हँस धुनि सुन नंदन नंदे ॥
मुख रूपी दर्पण पर कांटी यूके छवि उभरी । वर वधु के मुख ऐसे निहार रहा था जैसे चकोर चाँद को निहारता हो ॥ आँखों में
चाहत भर के प्रियतम ने इस प्रकार स्तुति की : -- तुम्हारी इस हंस ध्वनि से तो सारा नंदन आनंदित हो गया ॥
कोर कलित तव कज्जल नैने । उठी भृकुटि सुठि कुटिलक लैने ॥
दिसित गोचर काम सर षंडे । चलत जात कस कर कोदंडे ॥
काजल से विभूषित हुवे तुम्हारी आँखों के ये कगारे और हुवे यह उठी हुई सुन्दर भृकुटी ऐसी दर्शित हो रही है मानो काम देव
सारंग कास कर अपने सरासन समूह को छोड़ रहें हों ॥
समऊ परे तोहरि छबि लिनी । तेहि ससी बहुरत देइ दिनी ॥
लबध लवन लव श्री कर राजे । मनहुँ देइ हों साथ बियाजे ॥
बहुत समय पहले चाँद ने जो तुम्हारे मुख छवि ले ली थी, अब उसे उसने लौटा दिया है । प्राप्य लावण्य तनिक अधिक ही
सुशोभित हो रहा है । मानो उसने सुदरता के मूल के सह ब्याज भी दिया हो ॥
सुधाम्बर कपोल लाल मोहत मुखारविंद ।
भूमि भाल भरे तमाल केस काल कलिंद ॥
अमृत से भरे होंठ, कपोल पर अरुण राग मोहित करता कमलमुख, माथे की भूमि पर यमुना के जैसे काले केश रूपी तमाल
वृक्ष के सदृश्य हैं ॥
एक हिमकर गगन धरे एक प्रीतम के पास ।
गगन धरनि के सम कास धरनि गगन संकास ॥
एक चाँद गगन धारण किए है एक प्रियतम अर्थात मेरे पास है । गगन, धरती के जैसे चकासित है और धरणी गगन के जैसे
प्रकाशित है ॥
रविवार, ० ५ मई, २ ० १ ३
अस प्रिय के मुख वंदन उचरे । ताकत वधूटि मंजुल मुखरे ॥
जोंहि नयन पख मिलवन उधरे । पिया चरन मन मानस उतरे ॥
इस प्रकार प्रियवर के मुख वधु की सुन्दरा की स्तुति का उच्चारण कर वधु के सुन्दर मुखड़े को देखने लगा ॥ ज्यों ही वधु की
पलकें मिलने के लिए ऊपर उठीं त्यों ही प्रियतम के चरण मन के मान सरोवर में उतर गए ॥
बाहु शिखर दल सार प्रलंबे । तरे वधुटि मुख अम्बर अंबे ॥
बाँधि प्रिया प्रियबर कर पासे । रति बल्लर प्रिय कोटर कासे॥
पिया ने कंधे सहित अपनी लम्बी भुजाएं प्रस्तारित की, तो वधु के अश्रु मुख पर उतर आए ॥ प्रिया ने प्रियतम को अंक में बाँध
लिया तो प्रिया ने भी अनुराग पूर्वक भुजा पार्श्व में कस लिया ॥
पूर निभ बदनु सन्मुख किन्हे। कपोल रद पत के पग चिन्हे ॥
लौकित कन के लवनित ओटे । धरे कंपत होठ पर होठे ॥
पूर्णिमा के चाँद के जैसे मुख को सम्मुख करके प्रिया के कपोल पर अपने अधर पद चिन्हांकित किए ॥ लाउकित होते अश्रु कणों
की लवणता ग्रहण करते हुवे प्रियतम ने प्रियतमा के कम्पायमान होंठों पर अपने होंठ रख दी ॥
अधरोपर अधरामृत पागे । रूचि कर कारक अति अनुरागे ॥
प्रीति प्रतीति रति रमन रुचिते । मनहु मीलित मधु परक सुधिते ॥
अधरों के दोनों पदों का मधुर अमृत का रसपान करते हुवे प्रिया अत्यंत अनुराग मयी स्थिति में थे ॥ प्रेम,विश्वास, आसक्ति,
सुन्दरता और मधुरता का मिश्रण इस प्रकार था कि जिस प्रकार से मधु पर्क का उचित संयोजन हो ॥
प्रियबर के अस परम रूप कोटि कमन रहि जीत ।
प्रिया के अस रुचिर सरूप सहस रति न उपमीत ॥
प्रियवर का ऐसा अनूठा रूप की तुलना करोड़ों कामदेव से भी नहीं हो सकती थी । और प्रिया के ऐसे मनोहर स्वरूप की सहस्त्रों
राग लतिकाओं की उपमा भी नहीं दी जा सकती थी ॥
दिस अस दर्शन दीठ देवन रतबत बरदान ।
धनु कर काँधन पीठ रति रमन कर सर सुधरे ॥
ऐसे दर्शन देखकर सुन्दर वरदान देने हेतु रति एवं रतिनाथ के काँधे व पृष्ठ ने काम धनुष को सुशोभित किया , और हाथ बाणों
के दोषों को दूर कर शिल्प का स्वरूप देने लगे ॥
सोम/मंगल , ० ६/७ , मई, २ ० १ ३
मुद इत मदयित त्रिबिध बयारी । लहत बहत चलि बहु सुखकारी ॥
हिलग मिलग लग उरत पटोरे । बिगलित कुटल लेत हिलोरे ॥
इधर मोद-प्रमोद से भरी त्रिबिध शरणी ( शीतल,मंद,सुगंध) बह रही थी, जो आनन्द उत्सव उत्पन्न करती हुई अत्यंत ही
सुखकारी प्रतीत हो रही थी ॥
मंद मधुर रुर स्वर सप्तिके । गूंज करत रहि कहूँ अंतिके ॥
मुरज तुरज तुर तार तरंगे । कंठ कूनिक सार सरंगे ॥
संगीत के सात स्वरों के समूह की धीर मधुर ध्वनी कहीं पास में ही गूंज रही थी ॥ ढोल,मृदंग,तुरही के साथ तंत्र वाद्य की तरंग
और वीणा सारंगी स्वरामृत भर रहीं थीं ॥
सुबर ग्राम कर कम्पत नादे । बाँध भेद जुग बाहन बादे ॥
सुध सिध साधत सँग संगीते । बादन कारूक कह बहु रीते ॥
स्वर सरगम कम्पायमान होकर मधुर सुर उत्पन्न कर रहे थे । ताल-स्वर में बंधे हुवे गीत स्वरांतर ग्रहण करते हुवे स्वर वर्णों
की संधि से युक्त होकर केवल स्वरयंत्रों के साथ निनाद कर रहे थे ॥
सुर सिंगारें सुरत सुरीले । बढ़ चढ़ उतरत कल रल मीलॆ ॥
सकल रागिनी रागत रंगे । गावत रहि कर संगति संगे ॥
सुरों का श्रृंगार करते हुवे आरोहवरोह क्रम से मधुर मिश्रण करते हुवे, संगी साथी संगती कर कोरस स्वरूप में समस्त रागिनियों
को रंजित कर इस प्रकार उनमें रंग भर रहे थे ॥
एक प्रान पियारी भवन अटारी एक रतनारी रयना ॥ को रंजित कर इस प्रकार उनमें रंग भर रहे थे ॥
एक सजन दुलारे सयन दुआरे एक अति न्यारी रयना ॥
बिधु बदना बारे अधर अँगारे लहकारे पट नयना ।
जल बलन पधारे पुहुप पियारे ललक ढारे पट नयना ॥
एक प्राणों के समान प्रिय प्रियतमा है, एक भवन अट्टालिका है, और एक ललामिक यामिका है । एक शयन द्वारिका में एक
प्यारे से साजन हैं, एक अत्यंत ही अनूठी यामिका है ॥ चन्द्रमा की मुखाकृति, अधरों पर जलते अंगार, और उन्हें झुनका देते
नयन पंख ॥ पतंग स्वरूप प्रियतम जलकर भस्म होने के लिए पधारे तो नयनों ने झट से पंख ढाल लिए ॥
श्री जौबन के सौं साजन के नयनन दर्पन लई ।
लख रूप सिंगारत निरखे रतिबति निस दिन लागत नई ।
रुप बर्धन बर लावन श्री धर लाजत लाग लगई ।
भुजान्तर धारत प्रिया निहारत भाँवर साँवर सईं ॥
यौवन के सौंदर्य साधन हैं, सन्मुख साजन के नयनों का दर्पण लिये दर्पण में छवि निहारती,रूप- लावण्यता का श्रृंगार करती एक
सुंदरी सदैव नव अंगना प्रतीत होती है ॥ रूप लावन्यता को तब और अधिक श्री प्राप्त होता है जब वह लज्जा में अनुरक्त हो जाती है ।
अंक में भरते हुवे प्रिया को निहारते पिया संग में भंवर रहे हैं ॥
रत रात सुनहरी रति रूप सँवरी जोग जुगल पर छाहिं ।
प्रमद्त बहु लहरी पलभर ठहरी बिसर प्रात की बाहिं ॥
गावनी मंडली धुनी मंगली मधुरित सुर बरनई ।
स्वर सुवागत रागिनि रागत रसित रमित रवनई ॥
रात अनुरक्त होती हुई यामिका राग लता का रूप धरे युगल दम्पति पर छाँव कर रही है । और आनन्द प्रमोद में लहराती प्रभात की
आलिंगन को भूल कर थोड़ी देर ठहरती है ॥
कल नादी करतल कलित ताल बल अरु अति आनँद भरै ।
तरंगित ताल जल हंसक हलबल झनक झंकार करें ।।
रंग राग परिमल कौमुदनी तल मानहु मानिक तरें ।
ज्योति पथ मंडल अवतरित स्थल मनि मनि जगमग करें ॥
मधुर स्वरसाधक की हथेलियाँ, मधुर स्वर ताल के आभूषण धारण करते हुवे और अधिक आनन्द भर रही हैं । हंसों की हलचल
से सरोवर का जल आरोहित-अवरोहित हो रहा है और झनकते हुवे झंकार उत्पन्न कर रहा है ॥ कुमकुम के रंग में अनुरक्त होते
जल की सतह पर प्रस्फुटित कौमुदनी ऐसे तैर रहीं रहे हैं मानो मणियाँ ही तैर रहे हों । आकाश मंडल ने भूमि पर अवतरित होने
से सारी मणियाँ जगमगाने लगी ॥
एक छात दौ बल्लभा रस सिंदूरी रंग ।
एक बियोगित पिया जोग दुजी पिया के संग ॥
एक छत में श्रृंगार रस में अनुरक्त हुई दो प्रियतमा हैं । एक पिया से वियोग दूसरी पिया के संग में है ॥
दिरिस देहरि दुआर पर चिन्हित चरन उतार ।
अरुनार्विंद आधार प्रियबर मन मानस बसे ॥
चरणों को चिन्हांकित कर दृष्टि द्वार की देहली के पार करते ह्रदय रूपी आरु अरविन्द पर आधारित होते प्रियवर मन के मान
सरोवर में बस गए ॥
बुधवार, ० ८,बुधवार, २ ० १ ३
सरोवर में बस गए ॥
बुधवार, ० ८,बुधवार, २ ० १ ३
सेज सयन थरि सर नीकासे । अबरन सीतल जल संकासे ॥
फुर भव भूषित पत प्रस्तारे । मनहु कुमुदहि सुरंगन सारे ॥
शयन भवन अथल के और शयनिका सरोवर के जैसे प्रतीत हो रही थी । और शय्यावरण शीतल जल अनुभव प्रस्तुत कर रहा
था ॥ अलंकृत किये हुवे सरस पुष्प की पंखुड़ियां से युक्त शय्या मानो उस सरोवर में गाड़े लाल रंग के कुमुद ही विस्तारित हों ॥
कुसुमित केसर पल्लव पूरे । लाह मनिक मनु कोपर रूरे ॥
सरस सुगन्धित साँस सुबासे । केतन बन बहु केतक बासे ॥
पूर्ण स्वरूप में प्रफुलित पुष्प पत्र के रंग की कांति ऐसी थी मानो परांत में माणिक्य चमक रहे हों ॥ शुद्ध सुरभित गंध साँसों को
भी सुगन्धित कर रही थी क्योंकि भवन के छोटे से उद्यान में केवड़े के बहुंत सारे पुष्प प्रस्फुटित हुवे थे ।।
ज्योति थंब बहु जुगत जराहीं । रतनाकर मनि रतन धराही ॥
किरनन कर कन कनक बिकिरने । बिकल करन कर बिदयुत पर्ने ॥
प्रकाश स्तम्भ अत्यधिक तीव्रता पूर्वक ज्वलित थे । मानो रत्नाकर ने अपने समस्त मणि रत्न ही उन्हें प्रदान कर दिए हों ॥ उनकी
किरणे स्वर्ण की आभा बिखेर रही थीं, जो की विद्युत् अप्सरा की भी सुन्दरता को निन्दित कर रही थीं ॥
जस फुरित फूर बर फुरबारी । अरु को दीप धरे चिंगारी ॥
लाह बसन तन कर्पुर गौरे । प्रान समा अस पिया अँकौरे ॥
जैसे पुष्पित पुष्पिका उद्यान के आलिंगन में हो, जैसे ज्वाला कण दीपक के आलिंगन में हो ।
जैसे धवली देह पर वस्त्र लब्धित हों वैसे ही अर्द्धागिनी अपने प्राणाधार को आलिंगित की हुई थी ॥
एहि प्रेम प्रसंग को न देखे । लखत लखित को लेख न लेखे ॥
अस सुरती रत तम अट घेरे। दुअर दरस बन दइ पट भेरे ॥
इस प्रेम प्रसंग को कोई ना देखे और देख समझ कर कोई लेख न लिख दे ॥ ऐसा ध्यान करके रात ने उन्हें अपने अन्धेरे का घेरा
किया और द्वार पालिका बन कर द्वार के पट मोचित कर दिए ॥
अधरन बधु कलित कल हँस, नैनन धरे सनेह ।
साईँ ह्रदय सौंप दियौ सौंपी आपन देह ॥
वधु ,अधरों पर मृदु हास्य विभूषित करते और नैनों में स्नेह धारण करते हुवे प्राणाधार को ह्रदय सहित देह भी सौंप दी ॥
गुरूवार, ० ९ मई, २ ० १ ३
बधु अस जस रति सहस सँवारी । सरबस रूप रस प्रिय पर बारी ॥
प्रिय के वपुधर रुचिरत ढारे । अंग कोटि कमन न्यौछारे ॥
वधु ऐसे प्रतीत हो रही थी जैसे सहस्त्र रति संवारी गई हों । उसने अपना सर्वस्व रूप पीया पर वार दिया । प्रियतम सुन्दर का
स्वरूप लिए हुवे थे । उनके अंग ऐसे थे मानों करोड़ों मदन न्यौछावर हो रहे हों ॥
फुर फर बारिहि फूरत सिधाए । ज्यूँ चिंगारी बरत सिराए ।। स्वरूप लिए हुवे थे । उनके अंग ऐसे थे मानों करोड़ों मदन न्यौछावर हो रहे हों ॥
त्योंहि प्रिया पिय सह सुहाई । तन मन सन करी सेवकाई ॥
फुलवारी में जैसे पुष्प प्रस्फुटित होकर समाप्त हो जाता है । जैसे दीपक में ज्वाला कण जल कर समाप्त हो जाती है । वैसे ही प्रिया
भी प्रियतम के साथ सुशोभित हुई और उनकी तन मन से सेवा की ॥
जस चन्द्रानन चातक चहही । असही प्रिय बधु निरखत रहही ।
मधुकर छबि भर पिया अनंदे । सोषत बधु के रूप मकरंदे ॥
जैसे चन्द्रमा के मुख को चातक चाहता है । ऐसे ही अली वल्लभ भी वल्लभा को देखते ही रह गए । उन्होंने मधूप की छवि रूप
धारण कर अपनी प्रियतम के रूप रस को शोषन कर आनंदित हो रहे थे ॥
लता ओट जब किरन लखाई । परन करत रत मुसुकाई ॥
चहत ससि गृह लोचन झाँके । मनै करत रत झट पट राखे ॥
लतिकाओं का ओत लेकर जब किरणे ऐसा दृश्य देखने लगी । तो मुस्कुराती हुई यामिनी ने उअसे दूर हटा दिया ॥ जब शशी ने
झरोकों से झांकना चाहा । तो उसे भी मना करते हुवे रात्रि ने झरोखे के द्वार बंद कर दिए ॥
अधर उँगरी धरी कहत चुप सरी कोउ न कलरव करीं ।
भए मुखरित बैनी लोचन सैनी देखु तनिक अवसरी ॥
हम पर कोऊ ना देखन दौ ना हठ करि मुद मदयन्ति ।
कहि नाहि नाहि रद छदन दसाही दुआरि रत रतियन्ति ॥
अधरों पर उंगली रखकर, कही की थोड़ी चुप्पी साधो कोई भी शोर मत मचाओ । संकेत वाणी से आँखे मुखरित हो उठी और कहने
लगी किंचित अवसर तो देखो । तब मेहंदी की पंखुड़ियां कहने लगी हम कोई पराए नहीं है किंचित हमें तो देखने दो ॥ तो यामिका
ने मुस्करा कर दुआर से लग कर कहा नहीं नहीं ॥
कामिनि कंचन सन कमन करें सुन्दर सँजोग ।
सुन्दर सेज सयन सदन सुन्दरि रत रहि जोग ॥
धनलक्ष्मी के संग कामदेव स्वरूप हरी सुन्दर स्वरूप में संयुक्त हैं। और सदन की सुन्दर शयनिका यामिका यामिक संकास है॥
शुक्रवार, १ ० मई, २ ० १ ३
लेइ बिदा रत चलि पिय पाहीं । सकुचहिं गहि बिहान के बाहीं ॥
उयइ प्रभा बहोर अलसाई । जल सुत सेचत सजन जगाई ॥
यामिका ने अपने प्रियतम के पास जाने हेतु विदाई ली । और संकोच कराती हुई प्रभात के भुजाओं में समा गई ॥ फिर भोर में प्रभा अलसाती हुई उठी और जल के मोती स्वरूप ओस कानों का सिंचन करते हुवे अपने प्रियतम सूर्य को जगाया ॥
चली नाउ जल नभस नभौके । नभ केतन थित चासत चौंके ॥
चारु हाट लग बाट अँबारी । बैठ बस्तु ले बनि मनिहारी ॥
जल में नौकाएँ चलने लगी नभ में पक्षी विचरने लगे । फिर सूर्य ने समस्त चौंक चौराहों को प्रकाशित कर दिया ॥ मार्ग पर स्थित
भवन खण्डों से लग कर पणिकाएँ सज गईं । और श्रृंगार सामग्री के विक्रेता और व्यापारी गण विभिन्न वस्तुओं लेकर
विराजित हुवे॥
तापन तप बहु ताप चढ़ाई । गली गली सब करत सिंचाई ॥
एक बर्निक पुर मंजुल पेखे । बरन बर्ति ले चित्र बर लेखे ॥
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य बहुंत ही उष्णता उत्पन्न कर रहा था । उष्णता से बचने के लिए सब गलियों को सिंच रहे थे ॥ एक लेखक ने
जब ऐसा सुन्दर नगर देखा तो उसने तुलिका लेकर चित्र-शैली में उस नगर का सुन्दर वर्णन किया ॥
बहत धरनि जल पवन अगासे । परत धूरि पर फूर उकासे ॥
कहुँत उमग कहुँ सोक निबासे । कहुँत आस जी कहूँ निरासे ॥
धरती पर जल प्रवाहित है और गगन में वायु प्रवाहित है । धुल की परतों पर पुष्प विकसित हुवे । कहीं उमंग उत्सव कहीं शोक
का निवास है । कहीं जीवन आशा हैं तो कहीं निराशा है ॥
जीवन धूर्बाहन सम सुख दुःख जाके चाक ।
एक अड़ंग ते दुज बाढ़ चालत जात दे हाँक ॥
जीवन एक भार वाहक वाहन है, सुख और दुःख उसके पहिये हैं यदि एक रुकता है तो दुसरा उसे हांक देते हुवे बढ़ा ले जाता है ॥
जीवन एक मासहू सम सुख दुःख जाके पाख ।
एक आवन एक पयाने मावस राका राख ॥
जीवन, वर्ष के एक मॉस के समान भी है जिसके दुःख, कृष्ण और सुख, शुक्ल स्वरूप में दो पक्ष है। एक के आते ही अमावस-
पूर्णिमा अर्थात उत्सव-दिवस एवं शोक-दिवस रखते हुवे दुसरा प्रस्थान करता है ॥
शनिवार,१ १ मई,२ ० १ ३
इत जग सन जग मोहिनि जागी । बसन सँभारत सयनि तियागी ॥
सयित सजन छबि बदन लखाई । सुरत रैन अँखि पखि झुकि आई ।।
तनि सकुचाह मंद मुसुकाई । लाग लगावत लाज लजाई ॥
बरनत बर्निक रूप सुँदरी के । अद्भुत अनुपम अतुलित लीखे ॥
पुनि समऊ पख पाखिहि लागे । पहर दिवस लखवन भागे ॥
को पल तापत को सुखदाई । जनु धूप कहुँत कहुँ परछाई ॥
सुमिरत सुत कभु चित कर भारे । बेसिक झोरि धर रोवति हारे ।
कतहूँ तर जार नैन हिमालै । फिरै नहीं फिर जावनुवाले ॥
सोक बिषाद कभु पावति प्रियतम प्रेम प्रसाद ।
दिवस रात बधु बितावति धर उर सुत अवसाद ॥
रविवार, १ २ मई, २ ० १ ३
सुख के लाखन कही न जाए । दुःख दौ उर बहु निकट लै आए ।।
जौ दिन बधु प्रिय संग बिहाई । अनु रति निज प्रति बढ़तहि पाई ।।
तइ नारी बहु होत सुभागी । जै रहि प्रिय पिय चित एकागी ।।
नहि त पुरुष भए मनस पतंगे । लागे एक रँग रह बहु रंगे ।।
जे कभू प्रिय पुट के सुधि करहीं । उर भरतहि लोचन जल धरहीं ।।
पेख पिया अस प्रिया बिकलाए । समझ बचन कहि बहुसह सुहाए ।।
पुतहिनू पितु तिलछाते कैसे । रामायन बन दसरथ जैसे ।।
सेव जोग बधु करतति ऐसे । चरफर पर जर देवति तैसे ।।
लिखनि लिखी बधु पुत अवसानी । लघु मम मुख सन जनम बखानी ।।
आखर जनि बरनत बर बानी । जथा जोग जो जितै ग्यानी ।।
रस गाहत जे पाठक बादे । छमा दान दे लिपिक प्रमादे ।।
आखरी बर्निक रंगन असित हरित लखि लाल ।
लेख साधन गुरुबर गन प्रनत लिखनी भाल ।।
प्रेम पूरनित बिषय बिलासे । जाके फल जग जातक बासे ॥
जीवन धन रस मरन जनाई । ताके बल बिधि करत बिधाई ॥
भिनु भिनु ठियाए भिनु भिनु ठौरे । कोमलि कामिनि कोउ कठोरे ॥
कोउ को रूप कोउ को रंगे । सुंदरतम भइ अर्धन अंगे ॥
जदपि सरीर पीर पर भारी । जानत जात बहु होत दुखारी ॥
ता परहू सब जग नारी । धारन चाहति पद महतारी ॥
प्रथम प्रसव जे सोंह धराई । तेहिं सुरति बधु सुध बिसराई ॥
माए ममत सों कर अस साँचे । लगत धूँक भए कन कन काँचे ॥
ममता मै मन लालक लाहे । भुज अंतर पुनि बालक चाहे ॥
असं बसन सन अवसथ साथे । जहाँ मनोरथ तहँ पथ पाथे ॥
सतकारु गूँथ गुनसूत केरत रजस प्रबेस ।
तहँ संसेचत सत गर्भ धारन उदार प्रदेस ॥
मंगलवार, १ ४ मई, २ ० १ ३
पुनि एक दिन मनि रतनन सजाए । जोत भरत जब जगत उजियाए ॥
काज उसारति गृह अँगनाई । बार बार बधु लइ उबकाई ॥
उदार पर कंठ बदन दुआरे । खान पान सब आए बहारे ॥
निरखि बैद कहि बचन पुनीता । गर्भ सहित रहि प्रीतम प्रीता ॥
सुभ समाचार श्रुति रंजन के । हर्षे आनन सकल गृहजन के ॥
बनत बिलोकत प्रियतम चाऊ । लाजटी बधु धरि लजवति नाऊ ॥
दुःख बिरात चलि पौ पुरबाई । कुल मंदिर सुख संपद लाई ॥
ताप दिवस पर छाया छाई । फार ते लद फद फुरि अमराई ॥
तरी तरंगत तरनी धारा । राग अरुन सुर रंग क्गारा ॥
कनक कामिनि के रूप सनाते । हिरन मई कन बरनत हाथे ॥
समउ गति कर तनि बिश्राम, साध सुन्दर सँजोग ।
धारे नवल गर्भ धाम पञ्च भूत के जोग ॥
बुधवार, १ ५ मई, २ ० १ ३
जे रहि बधु के सरूप स्वामी । मन मंदिर के अंतर जामी ।।
बन सेवक धावत करि सेवा । पुर गमनत लावत फार मेवा ।।
ऐसन भाई पिय की सेवकाई । जस भगवत करि प्रभु वन्दाई ।।
पूछ पूछ कर चरन धराहीं । रूचिटी रचित कर काज कराहीं ।।
पुनि एक बारहि तार बिसारी । चाँद नयन सन जगत निहारी ।।
समनी बन सद सयन पालिका । गंध पवन भरि सुबर सालिका ।।
प्रिया पिया के संग सुहाई । मुख सुस्मित भरि पूछ बुझाई ।।
तुम्हरी भगति लहि सुख सोभा । कहु तुहरे मन को बरु लोभा ।।
हँसत कहे पिय रजत न सोना । चाहूँ तव मन के एक कोना ।।
अरु कहिं पिय कर कंठन भारी । जे भगवन के चरना चारी ।।
नाम जपत प्रभु मूरत धारहिं । ते सत करमन गुनज बिचारहिं ।।
असहि मैं वंदौं तुहरे स्वत्व बोधि सरूप ।
जे थित चित तव सरीरे तत्व दरस गुण रूप ।।
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