बात कही लगे सरसित भासी । पर लहि रहि बहु दुःख की रासी ॥
सुधाधार धर बर अंतस रूखे । सुखोपर बधू भीतर हूँके ॥
छन महँ सुत सुमिरत घन गाढ़े । दोनौ के लोचन जल बाढ़े ॥
कहँ पिय मम पुत पुनि अवतारे । घारे रूप रह गर्भ तिहारे ॥
एहीं बचन सुन वधु हरषाई । एक भाँतिहि भै मंगलताई ॥
जे दरसन दे नयन दिखाई । पट आँगन को बदरी छाई ॥
छिनु भर कबि थर सोच बिचारे । अस भाउ कास ब्यंजन कारे ॥
गहन प्रबन बार सरग उतारे । करुनारुन कहि कर सिंगारे ॥
कभु धीरज हीन धेना कभु सुख सागर सार ।
थिरत अवगाहत दौनौं करना बच्छल धार ॥
शुक्रवार, १ ७ मई, २ ० १ ३
बस दौ चारि दिन उपर कलिते । गही बधुटी गातक सममिते ॥
जान परख प्रसूत पहिलौठे । करत सँभारी दूजन औठे ॥
इत कुल गेही रीति बनाईं । गृह जाई पर कलह न जाईं ॥
को कारन कर कही न जाई । परख परस्पर लाग लड़ाईं ॥
भरे दोष के अगणित अंतर । सिधि धर विभ्रंस मारे मंतर ॥
महिमा रति की अति दुर्गति कर । मन मति तमो गुनी के प्रति कर ॥
हबिर गेह दै हबिश कलित कर । दुर भासन के भुज आहुति भर ॥
धूनिहि रमाए धुबित धूति धर । धूम केतु कर बर धू धू कर ॥
उरप तरप धूर्त रचना कर । धूमलायन गृह धुर ऊपर ।।
आराधन बिघन जे कोऊ कर । जरत परजरन धरे परेतर ॥
जारी सदनि सुख सम्पद करत कुल निस्तेज ।
जह घर जनि कलह कलेष सह चालत बोल मुख तेज ॥
क्रोध कलित बचन दै तस छनमहँ तिनका तोर ।
जस कुलिस अस्थि उपल जस लोह कराल कठोर ॥
शनिवार, १ ८ मई, २ ० १ ३
सदन सभा सद सबहिं उपाधी । कोउ लउ लेस को बहु राधी ॥
अनभल गरुएँ हरियरि भलाई । मंगल समऊ बाम बनाईं ॥
गर्ज तर्ज कभु अस गरियाएँ । हरिन हृदय पल महँ डरी जाएँ ॥
को दिन कलबलि कुडकुड भाँती । को दिन करकत करकट जाती ॥
कटु भाषन जस कलह काटिके । कुल काजरि करि बचन गारि के ॥
कमाए धमाए कुल मर्जादे । खोवति आपन कर दुर्बादे ॥
कभु बधुटी के दोषन छाँटे । दुःख बहुल कर बहुतन्ह डाँटे ॥
कभू बरतें दुह साध सुभाऊ । कह्बत नहीं होत पछिताऊ ॥
हंसनी कला जननी की महिमा अपरम्पार ।
सुथरी कंठ बिराजि कै बिगरी बदन दुआर ॥
रविवार १ ९ मई, २ ० १ ३
पर एहि बारी सजन सलौने । द्वेष दीप मह रहे न मौने ॥
कहत सकल जन समझ बुझाई । आप लराई केलि पराई ॥
पिया उपदेस अस गुनताई । ढोल कुलाहल तुतरि बजाई ॥
उलट पडत सब बहुतहि सुनाए । हमरेहि जाए आँखी दिखाए ॥
बदन बचन तन चामी चढ़ाए । तेहि चरन हम पे चढ़ी आए ॥
बानी तिख बर उर पर सारे । मरम भेद कस घाव उकारे ॥
सुन प्रिय जन के भली बुराई । लोचन पट पिय सीस झुकाईं ॥
गही कपट सयान प्रभुताई । बिधि करबस गृह कुमतिहि छाई ।।
कलि कलह पियारे सदन मुख छोरत चिंगार ।
बुझा कोयरा जरा तन तस बर अगनी धार ॥
अस कह्बत बधु सइ कहत सयन सदन पिय रैन ।
मंद गति गहे सबहि जन समझे ना मम बैन ॥
सोमवार, २ ० मई, २ ० १ ३
एक पुत दुःख दुज गर्भन गाहे । तिस पर कुल कलेष बिलखाही ॥
तेहिं बले अस कुल के नाईं । तरु बलयित बेली के ताईं ॥
लाग पाछ पुनि कपट कुचाला । बक जातिहि जस चाल मराला ॥
रहे अस फेरन की कुल फोरुँ । मधुर नतैति बिच माहुर घोरुँ ॥
पुनि एक बासर रोष अधीना । मंत्र रसन मुख मन मति हीना ॥
कँह गृहजन कथन कुठारे। आप गृहस्तिहि आप सँभारें ॥
निसंकोच लै खाट खटोरे। रहू दुनौ को औरन ठोरे ।।
धरनिहि फाटे बदरी मिलाए । कहें संत उर कौन सिलाए ॥
चढ़ बढ़ ऊपर छोलत छाँती । घर मँह बोली साढ़े साती ॥
दुरभावन जुग बचन बखाने । हीत अन्हीत कछु नहि जाने ॥
एक बाल उदर प्रबेसहि, एक निर्गम संसार ॥
एक दुखार्त बिरतत नहि दूजन खड़े दुआर ॥
मंगलवार, २ १ मई, २ ० १ ३
मन ही मन बधुटी एहि चहही । कलेश ते बर कहुउत रहहीं ॥
अघ वधु उर पिय भलमनसाही । पालक तज कहुँ जाउ न चाही ॥
सोचि पीया मन ऊंच निचाही । अजहुँ त लघु बहिन अन बियाही ॥
पहलहि बर भ्राता अपर अवासे । कलहन कारन बिलगत बासे ॥
नात नतेत लोग लोगाही । जित मिल मूँ उत बात बनाहीं ॥
सकल समुदाए कहन कहाहीं । देखौ तौ कैसे बिलगाहीं ॥
घर भाजन ना सोभ समाजू । जे कारज तौ होत बियाजू ॥
चरत बिचारत पिय मति ओढ़े । समाधान समऊ पर छोड़े ॥
भाग्य क्रम बिपरीत कर नखत लिखत बल लेख ॥
सोचे पिय कर्म निज बर लेखीं लेख सुलेख ॥
बुधवार, २ २ मई, २ ० १ ३
इत घर परे न को कर सांती । कलि कर गृह जन दिनु राती ॥
कबि अनदेखत मानस दोषे । बार बार कलजुग को कोषे ॥
सिख लिख कँह जे आखर भेंटे । ते ज्ञानी जे सार समेटे ॥
रहे सदस गन बड़ गुन राधे । धारे कर बर मान उपाधे ॥
ऊंच बिचारी नीचक कारे। बर बुध मति अति दुर मति घारे ॥
रही ना को बस बिषया सक्ती । केवल कारे कलह के भक्ति ।
अंत कलह कर एहि फल भीते । योजक हारे भाजक जीते ।।
कारन नहि रहि धन के ताईं । कौतुक रहि जी के अलगाई ॥
लागे देखन कहुँ को अन्तिके । भाट भवनु अलि रवन रंतिके ॥
पर पी ऐतक अर्थ न जोगे । बस रहि भोजन छादन योगे ॥
पर राउ के पिया रही सेवक बहुत श्रम सील ।
खोजे ते मीलै नहीं, धरे कर कांति कील ॥
सोमवार, २ ७ मई, २ ० १ ३
गयउ प्रिय कार पालक पाहीं । अरु निज सकल बिपदा सुनाहीं।।
रहि पालक प्रिय के श्रम तोषे । देइ सासकी गृह परितोषे ॥
पिया जे के रहि न अधिकारे । नियमन नियतन बंधन धारे ॥
पर कार पालक किए उपकारे । दुइ कछ के छादन कर धारे ॥
ते छादन रहि बहुतहि दूरे । मात-पिता सन बहिनि बंधु रे ॥
एहि सोच प्रिय तनिक अरु ठाढे । गृहजन चरन मधुरता बाढ़े ॥
बचपन ते रँह गहज दुलारे । कभु कोउ कभु कोउ कर धारे ॥
कभू तात लिए गोद बिहारे । कभु बंधु बहिन कँह रे आरे ॥
बिलगत पीया के नें भरी आए । ताके भावना कही न जाए ॥
मात-पिता भगिनी प्रिय भाई । देखि पीया कातर दृग ताईं ॥
अंत मह सकल संजुग जोरे । पाँ परी बधु दु बूँद निचोरे ॥
लेइ सकल आसन छदन, धरे बाहिका जोर ।
देखत पिया फिरत फिरत, नयनन मह भर नोर ॥
मंगलवार, २ ८ मई, २ ० १ ३
जे गंध राज गृहबन बासे । देख बदन बधु कहत उदासे ॥
बोलि बचन मुख करत मलाना । हम बालक तुम पाल समाना ॥
सखा बंधु तुम प्रान पियारे । मृदुल नयन पल सजल निहारे ॥
आगिन कहि जोरत दौ हाथे । ले जाउ न हमहूँ निज साथे ॥
सकल सुम जब बिनति कर पाई । नलिन नयनी कंठ भर लाई ॥
अली कली कल रंग सुरंगे । बिकल बधुन्ह सकल लिए संगे ॥
बही बहनु बहु धूरि उराई । धुंध कार नभ ऊपर छाई ॥
दुआर अटार भवन मुहूटे । मात-पिता प्रिय पाछिन छूटे ॥
सुन्दर बिपिन बीच बसे सुभग सासकी धाम ।
नदि सेतु कर पार पहुँच किये दुआर प्रनाम ॥
बुधवार, २ ९ मई, २ ० १ ३
पर राउन्ह एक नियम बनाए । सुफल भै ना को काम कमाए ॥
जब लगि दै ना दान दखीना । चाहे कैतक भयौ प्रबीना ॥
देइ दखीना भवन प्रबेसे । जै कर ब्रम्हा बिष्नु महेसे ॥
भीत भवन रहि धूरि धुराई । को खनि कल मल काल कुराई ॥
कंकर कंटक कोट कटीले । बहिर भवन रहि बिमौट टीले ॥
कहुँ बेली के तरु सुखदाई । कहूँ पात धर झुरि अमराई ॥
पाछिन भइ पीपर की छाई । पहिले रहि ते मकै उगाईं ॥
ठाढ़ रही इमरी एक कोरे । दूर जमुन लागे बहु भोरे ॥
पीत भीत अरु कोर कियारी । फूर फूर फिर फुरि फुरबारी ॥
जीवित जीव जंतु सहित, सकल बिपिन रहि सोह ।
कल कंठी के कल कूज, बधू के लिए मन मोह ॥
गुरूवार, ३ ० मई, २ ० १ ३
जुग दम्पति अस सँजोउ जोईं । असन रसन ते साजि रसोई ॥
सकल भवन बन जतन बिलासे । सयन सदन एक बैठक बासे ॥
जब बधूटि सन नैन मिलाई । मिलतहि उपबन भू सकुचाई ॥
फिरत बन माहि बधु मुसुकाई । सकल चरन रिपु उपल हटाई ॥
परसत बधु के पदुम पाद कर । सकल बाटिका भै अति सुन्दर ॥
पाँख पेख पख बहु सुख पाई । पद पद उलसित पत सरसाईं ॥
अली कली कल जल सुत सींचे । भयउ मगन सब नैनन मीचे ॥
मरग करक कठोर कन चिन्हे । मृदा मृदित कर कोमलि किन्हें ॥
सुर सरि उपवन सँगायन धरा गगन के संग ।
श्रील निवास रमा रमन भरे प्रकृति मह रंग ॥
शुक्रवार, ३ १ मई, २ ० १ ३
सखा सुमन जे भए ससुरारी । बधू करतल तेहिं के धारी ॥
फूर प्रफूर परस्पर मिलाए । बहु कुटुंबी कर बीच बैसाए ॥
बाड़ी सुमनस अस रलमीले । जल बूँदी मह जस जलमीले ॥
दो दिन लिए अरु पोषन पाईं । सुर भवन के सोभा बढ़ाईं ॥
जोग जुगलिन्ह घर जतनाही । अनुकूल दिन पिय गए दिज पाहीं ॥
तब दिज पोथी पत्तर पेखे । सुभ दिन करतन हवि हुति लेखे ॥
हवं रसन हवि पूजन भोरे । हव्य कव्य अहवन पिय जोरे ॥
श्रिया श्रीकर की कथा कराए । हविर बहनु ते भवन पविताए ॥
श्री के सह श्रीधर मंडप प्रियकर मंगल घट तीर धरे ।
ले सत्य अनुरक्ति ह्रदय मह भक्ति दिज श्री मुख कथा करे ॥
धर बधु के आँचर बर के पट तर देवत दिज गत जोढ़े ।
बिधिबत पूजन कर साँकल कर धर दंपति आसन पौढ़े ॥
दै अंतिम हवन आहुति करत स्वाहा कार ।
भयौ निर्मल सकल भवन मंत्रोदक कन धार ॥
सुधाधार धर बर अंतस रूखे । सुखोपर बधू भीतर हूँके ॥
छन महँ सुत सुमिरत घन गाढ़े । दोनौ के लोचन जल बाढ़े ॥
कहँ पिय मम पुत पुनि अवतारे । घारे रूप रह गर्भ तिहारे ॥
एहीं बचन सुन वधु हरषाई । एक भाँतिहि भै मंगलताई ॥
जे दरसन दे नयन दिखाई । पट आँगन को बदरी छाई ॥
छिनु भर कबि थर सोच बिचारे । अस भाउ कास ब्यंजन कारे ॥
गहन प्रबन बार सरग उतारे । करुनारुन कहि कर सिंगारे ॥
कभु धीरज हीन धेना कभु सुख सागर सार ।
थिरत अवगाहत दौनौं करना बच्छल धार ॥
शुक्रवार, १ ७ मई, २ ० १ ३
बस दौ चारि दिन उपर कलिते । गही बधुटी गातक सममिते ॥
जान परख प्रसूत पहिलौठे । करत सँभारी दूजन औठे ॥
इत कुल गेही रीति बनाईं । गृह जाई पर कलह न जाईं ॥
को कारन कर कही न जाई । परख परस्पर लाग लड़ाईं ॥
भरे दोष के अगणित अंतर । सिधि धर विभ्रंस मारे मंतर ॥
महिमा रति की अति दुर्गति कर । मन मति तमो गुनी के प्रति कर ॥
हबिर गेह दै हबिश कलित कर । दुर भासन के भुज आहुति भर ॥
धूनिहि रमाए धुबित धूति धर । धूम केतु कर बर धू धू कर ॥
उरप तरप धूर्त रचना कर । धूमलायन गृह धुर ऊपर ।।
आराधन बिघन जे कोऊ कर । जरत परजरन धरे परेतर ॥
जारी सदनि सुख सम्पद करत कुल निस्तेज ।
जह घर जनि कलह कलेष सह चालत बोल मुख तेज ॥
क्रोध कलित बचन दै तस छनमहँ तिनका तोर ।
जस कुलिस अस्थि उपल जस लोह कराल कठोर ॥
शनिवार, १ ८ मई, २ ० १ ३
सदन सभा सद सबहिं उपाधी । कोउ लउ लेस को बहु राधी ॥
अनभल गरुएँ हरियरि भलाई । मंगल समऊ बाम बनाईं ॥
गर्ज तर्ज कभु अस गरियाएँ । हरिन हृदय पल महँ डरी जाएँ ॥
को दिन कलबलि कुडकुड भाँती । को दिन करकत करकट जाती ॥
कटु भाषन जस कलह काटिके । कुल काजरि करि बचन गारि के ॥
कमाए धमाए कुल मर्जादे । खोवति आपन कर दुर्बादे ॥
कभु बधुटी के दोषन छाँटे । दुःख बहुल कर बहुतन्ह डाँटे ॥
कभू बरतें दुह साध सुभाऊ । कह्बत नहीं होत पछिताऊ ॥
हंसनी कला जननी की महिमा अपरम्पार ।
सुथरी कंठ बिराजि कै बिगरी बदन दुआर ॥
रविवार १ ९ मई, २ ० १ ३
पर एहि बारी सजन सलौने । द्वेष दीप मह रहे न मौने ॥
कहत सकल जन समझ बुझाई । आप लराई केलि पराई ॥
पिया उपदेस अस गुनताई । ढोल कुलाहल तुतरि बजाई ॥
उलट पडत सब बहुतहि सुनाए । हमरेहि जाए आँखी दिखाए ॥
बदन बचन तन चामी चढ़ाए । तेहि चरन हम पे चढ़ी आए ॥
बानी तिख बर उर पर सारे । मरम भेद कस घाव उकारे ॥
सुन प्रिय जन के भली बुराई । लोचन पट पिय सीस झुकाईं ॥
गही कपट सयान प्रभुताई । बिधि करबस गृह कुमतिहि छाई ।।
कलि कलह पियारे सदन मुख छोरत चिंगार ।
बुझा कोयरा जरा तन तस बर अगनी धार ॥
अस कह्बत बधु सइ कहत सयन सदन पिय रैन ।
मंद गति गहे सबहि जन समझे ना मम बैन ॥
सोमवार, २ ० मई, २ ० १ ३
एक पुत दुःख दुज गर्भन गाहे । तिस पर कुल कलेष बिलखाही ॥
तेहिं बले अस कुल के नाईं । तरु बलयित बेली के ताईं ॥
लाग पाछ पुनि कपट कुचाला । बक जातिहि जस चाल मराला ॥
रहे अस फेरन की कुल फोरुँ । मधुर नतैति बिच माहुर घोरुँ ॥
पुनि एक बासर रोष अधीना । मंत्र रसन मुख मन मति हीना ॥
कँह गृहजन कथन कुठारे। आप गृहस्तिहि आप सँभारें ॥
निसंकोच लै खाट खटोरे। रहू दुनौ को औरन ठोरे ।।
धरनिहि फाटे बदरी मिलाए । कहें संत उर कौन सिलाए ॥
चढ़ बढ़ ऊपर छोलत छाँती । घर मँह बोली साढ़े साती ॥
दुरभावन जुग बचन बखाने । हीत अन्हीत कछु नहि जाने ॥
एक बाल उदर प्रबेसहि, एक निर्गम संसार ॥
एक दुखार्त बिरतत नहि दूजन खड़े दुआर ॥
मंगलवार, २ १ मई, २ ० १ ३
मन ही मन बधुटी एहि चहही । कलेश ते बर कहुउत रहहीं ॥
अघ वधु उर पिय भलमनसाही । पालक तज कहुँ जाउ न चाही ॥
सोचि पीया मन ऊंच निचाही । अजहुँ त लघु बहिन अन बियाही ॥
पहलहि बर भ्राता अपर अवासे । कलहन कारन बिलगत बासे ॥
नात नतेत लोग लोगाही । जित मिल मूँ उत बात बनाहीं ॥
सकल समुदाए कहन कहाहीं । देखौ तौ कैसे बिलगाहीं ॥
घर भाजन ना सोभ समाजू । जे कारज तौ होत बियाजू ॥
चरत बिचारत पिय मति ओढ़े । समाधान समऊ पर छोड़े ॥
भाग्य क्रम बिपरीत कर नखत लिखत बल लेख ॥
सोचे पिय कर्म निज बर लेखीं लेख सुलेख ॥
बुधवार, २ २ मई, २ ० १ ३
इत घर परे न को कर सांती । कलि कर गृह जन दिनु राती ॥
कबि अनदेखत मानस दोषे । बार बार कलजुग को कोषे ॥
सिख लिख कँह जे आखर भेंटे । ते ज्ञानी जे सार समेटे ॥
रहे सदस गन बड़ गुन राधे । धारे कर बर मान उपाधे ॥
ऊंच बिचारी नीचक कारे। बर बुध मति अति दुर मति घारे ॥
रही ना को बस बिषया सक्ती । केवल कारे कलह के भक्ति ।
अंत कलह कर एहि फल भीते । योजक हारे भाजक जीते ।।
कारन नहि रहि धन के ताईं । कौतुक रहि जी के अलगाई ॥
लागे देखन कहुँ को अन्तिके । भाट भवनु अलि रवन रंतिके ॥
पर पी ऐतक अर्थ न जोगे । बस रहि भोजन छादन योगे ॥
पर राउ के पिया रही सेवक बहुत श्रम सील ।
खोजे ते मीलै नहीं, धरे कर कांति कील ॥
सोमवार, २ ७ मई, २ ० १ ३
गयउ प्रिय कार पालक पाहीं । अरु निज सकल बिपदा सुनाहीं।।
रहि पालक प्रिय के श्रम तोषे । देइ सासकी गृह परितोषे ॥
पिया जे के रहि न अधिकारे । नियमन नियतन बंधन धारे ॥
पर कार पालक किए उपकारे । दुइ कछ के छादन कर धारे ॥
ते छादन रहि बहुतहि दूरे । मात-पिता सन बहिनि बंधु रे ॥
एहि सोच प्रिय तनिक अरु ठाढे । गृहजन चरन मधुरता बाढ़े ॥
बचपन ते रँह गहज दुलारे । कभु कोउ कभु कोउ कर धारे ॥
कभू तात लिए गोद बिहारे । कभु बंधु बहिन कँह रे आरे ॥
बिलगत पीया के नें भरी आए । ताके भावना कही न जाए ॥
मात-पिता भगिनी प्रिय भाई । देखि पीया कातर दृग ताईं ॥
अंत मह सकल संजुग जोरे । पाँ परी बधु दु बूँद निचोरे ॥
लेइ सकल आसन छदन, धरे बाहिका जोर ।
देखत पिया फिरत फिरत, नयनन मह भर नोर ॥
मंगलवार, २ ८ मई, २ ० १ ३
जे गंध राज गृहबन बासे । देख बदन बधु कहत उदासे ॥
बोलि बचन मुख करत मलाना । हम बालक तुम पाल समाना ॥
सखा बंधु तुम प्रान पियारे । मृदुल नयन पल सजल निहारे ॥
आगिन कहि जोरत दौ हाथे । ले जाउ न हमहूँ निज साथे ॥
सकल सुम जब बिनति कर पाई । नलिन नयनी कंठ भर लाई ॥
अली कली कल रंग सुरंगे । बिकल बधुन्ह सकल लिए संगे ॥
बही बहनु बहु धूरि उराई । धुंध कार नभ ऊपर छाई ॥
दुआर अटार भवन मुहूटे । मात-पिता प्रिय पाछिन छूटे ॥
सुन्दर बिपिन बीच बसे सुभग सासकी धाम ।
नदि सेतु कर पार पहुँच किये दुआर प्रनाम ॥
बुधवार, २ ९ मई, २ ० १ ३
पर राउन्ह एक नियम बनाए । सुफल भै ना को काम कमाए ॥
जब लगि दै ना दान दखीना । चाहे कैतक भयौ प्रबीना ॥
देइ दखीना भवन प्रबेसे । जै कर ब्रम्हा बिष्नु महेसे ॥
भीत भवन रहि धूरि धुराई । को खनि कल मल काल कुराई ॥
कंकर कंटक कोट कटीले । बहिर भवन रहि बिमौट टीले ॥
कहुँ बेली के तरु सुखदाई । कहूँ पात धर झुरि अमराई ॥
पाछिन भइ पीपर की छाई । पहिले रहि ते मकै उगाईं ॥
ठाढ़ रही इमरी एक कोरे । दूर जमुन लागे बहु भोरे ॥
पीत भीत अरु कोर कियारी । फूर फूर फिर फुरि फुरबारी ॥
जीवित जीव जंतु सहित, सकल बिपिन रहि सोह ।
कल कंठी के कल कूज, बधू के लिए मन मोह ॥
गुरूवार, ३ ० मई, २ ० १ ३
जुग दम्पति अस सँजोउ जोईं । असन रसन ते साजि रसोई ॥
सकल भवन बन जतन बिलासे । सयन सदन एक बैठक बासे ॥
जब बधूटि सन नैन मिलाई । मिलतहि उपबन भू सकुचाई ॥
फिरत बन माहि बधु मुसुकाई । सकल चरन रिपु उपल हटाई ॥
परसत बधु के पदुम पाद कर । सकल बाटिका भै अति सुन्दर ॥
पाँख पेख पख बहु सुख पाई । पद पद उलसित पत सरसाईं ॥
अली कली कल जल सुत सींचे । भयउ मगन सब नैनन मीचे ॥
मरग करक कठोर कन चिन्हे । मृदा मृदित कर कोमलि किन्हें ॥
सुर सरि उपवन सँगायन धरा गगन के संग ।
श्रील निवास रमा रमन भरे प्रकृति मह रंग ॥
शुक्रवार, ३ १ मई, २ ० १ ३
सखा सुमन जे भए ससुरारी । बधू करतल तेहिं के धारी ॥
फूर प्रफूर परस्पर मिलाए । बहु कुटुंबी कर बीच बैसाए ॥
बाड़ी सुमनस अस रलमीले । जल बूँदी मह जस जलमीले ॥
दो दिन लिए अरु पोषन पाईं । सुर भवन के सोभा बढ़ाईं ॥
जोग जुगलिन्ह घर जतनाही । अनुकूल दिन पिय गए दिज पाहीं ॥
तब दिज पोथी पत्तर पेखे । सुभ दिन करतन हवि हुति लेखे ॥
हवं रसन हवि पूजन भोरे । हव्य कव्य अहवन पिय जोरे ॥
श्रिया श्रीकर की कथा कराए । हविर बहनु ते भवन पविताए ॥
श्री के सह श्रीधर मंडप प्रियकर मंगल घट तीर धरे ।
ले सत्य अनुरक्ति ह्रदय मह भक्ति दिज श्री मुख कथा करे ॥
धर बधु के आँचर बर के पट तर देवत दिज गत जोढ़े ।
बिधिबत पूजन कर साँकल कर धर दंपति आसन पौढ़े ॥
दै अंतिम हवन आहुति करत स्वाहा कार ।
भयौ निर्मल सकल भवन मंत्रोदक कन धार ॥