बन खन आँगन नयन अम्बारी । मनहरि चौलरि चाँवर घारी ॥
बर बरन भीति चारक रंगे । पहन भवन चौपत सारंगे ।।
भवन के खंड, आँगन,उपवन और छज्जे- झरोखे, मन को हरने वाली चतुर लडियो की झालरों से सुशोभित हुई ॥
भित्तियों को वर्णकार ने श्रेष्ठ रंगों से रंगा, इसके पश्चात भवन ने परत दार बहुरंगी वस्त्र आवरण धारण किये ।।
चरन चरन पर अल्पन कोरी ।देहरि दोहरि चित रंगोरी ॥
परिजन सम सुम सींच सुगंधे । पाहुन अगहुन अगुवन वन्दे ॥
पद-पद पर अल्पना उकेरी गईं । इहली पर दो परतो वाली रंगोली की चित्रकारी की गई । पारिजन के समान कुसुम भी
सुगंध सारे आगे बढ़ बढ़ कर अतिथियों की अगवानी कर नमस्कार करने लगे ॥
आए नारि भर सुन्दर सारी । कंध कूर उर आँचर धारी ॥
ता सँग नर अभरित बर भेसे । मनहु भए नागर अवधहि देसे ॥
नारियाँ ह्रदय और कंधे पर आँचल की धारियाँ समेटे सुन्दर साडी पहन कर आईं ॥ उनके साथ सुदर वेश से आभूषित हो कर
पुरुष ऐसे लग रहे थे मानो ये अयोध्या के निवासी हों ॥
कन धरि धुनि कल रव करि नाना । बाज ढोर घन घोर निसाना ॥
कंठन बल कल कोकिल बाने । भामिन गावहिं मंगल गाने ॥
विभिन्न प्रकार की मधुर-स्वर एवं ध्वनि कानों में शब्दमान हो रहे है । बादलो के गर्जन के समान मृदंग और ढोल बज रहे हैं ।
कोयल के जैसे मधुर कंठ से स्त्रियाँ मंगल गीत गा रही हैं ॥
आजु भवन पूरित रीति भरे न रागनि रंग ।
छरक आ गिरे बट बीथि पुर भरपूर उमंग ॥
आज भवन रीति आचार से परिपूर्ण हैं, हर्ष और आनंद भवन में समाहित नहीं हो पा रहा वह उछल उछल कर बाहर गिर
रहा है जिससे नगर के गलीयो के मार्ग में भी उल्लास से भर रहे है ॥
मंगलवार, ०२ अप्रेल, २०१३
चारु चँवर बहु चटक चोटिके । कारू असन मनु धनब आ टिके ॥
पहने बधू सिंगार सजाए । बरे बिरध कर कूप पूजाए ॥
सुन्दर झालरी युक्त गहरे रंग का लहँगा और उस पर कार्य ऐसा मानो आकाश अर्थात चढ़ सूर्य तारे सभी टांक दिया गय हों
को पहन कर वधु ने भूषण भरे । फिर बढ़े वृद्धों ने कूप पुजवाया ॥
पर बधु के मुख लघुता छाई । जस तस कर पूजन निपटाई ॥
पुनि सिसु तन ज्वर जोर जराए । भूर पयस पय देही गिराए ॥
पर वधु का मुख उदास था ( श्रृंगार से उत्पन तेज नहीं था) उसने जैसे तैसे पूजा समाप्त की । क्यों की शिशु को पुन: ज्वर
हो गया था उसने दुग्ध पान करना छोड़ कर उसकी देह लस्त हो गई थी ॥
जन ते सिसु रहि बहु मल कारे । एहि कारन तन भार न घारे ॥
रुधे न मल करि बहु उपचारे । सिसु रोग रुधिर आमासारे ॥
शिशु जन्म से ही बहुंत अधिक उत्सर्जन करता था यही कारण था की उसका भार नहीं बढ़ रहा था ॥ वधु ने बहुत से उपचार
किये किन्तु मल रुके नहीं । और उसे मल के साथ रुधिर भी आने लगा जिसे आमासार का रोग कहते हैं ॥
साद सरीरन सरिता धारे । तपित रुधिर रस नस नस जारे ॥
मात पिता पद चाकर घारी । एक घर ते एक बैद अटारी ॥
यह रोग शरीर को पीड़ा पहुंचा कर अत्यधिक मल कारित करता है । और शरीर में ज्वर उत्पन्न कर रुधित को जलाता है ॥
उपचार हतु माता पिटा के पाँव में चक्र जैसे हो गए । एक पाँव घर में तो एक वैद्य के द्वार में फेरी लगाते ॥
पेख पुतक तन पीर तात मात के जिय जरे ॥
कभु पोंछि नयन नीर कभू लाल करि निर्मल ।
पुत्र की पीड़ा को देखकर माता पिटा का ह्रदय जलता ह्रदय में आरति रख कर पीड़ा वश वे कभी आंसू पोछते कभी शिशु को
निर्मल करते ॥
बुधवार, ०३ अप्रेल, २०१३
देखे बैद कारन न चिन्हे । लाख लखन लिख औषधि दिन्हें ॥
त्रसत लसत सिसु ताप अधीना । रोग ग्रसत तन भए पंच दिना ॥
वेद्य ने परिक्षण किया किन्तु रोग का कारन ज्ञात नहीं कर पाए । परन्तु लक्षणों को देखकर आषधियाँ लिख कर दे दीं ॥
ज्वर शिशु को अपने वश में करके व्याकुलित किये जा रहा था । रोग की पीड़ा सहते शिशु को पांच दिन हो गए ॥
कभु कहँ तप बस दो हीं दिन के । तात मात हारे गिन गिन के ॥
तपत भयऊ दस दिबस ऊपर । धरे अधर सिर सीतर कापर ॥
वैद्य कभी कहते ज्वर दो दिन में ठीक हो जाएगा । और पालक स्वास्थ वर्द्धन की प्रतीक्षा कर के थक जाते ॥
ऐसे ही ज्वर से जलते और सर पर ठंडा कपड़ा रखे शिशु को दस दिवस से ऊपर हो गए ।
जब दुःख आपन ह्रदय ब्यापे । तबहि जानें तेहिं संतापे ॥
फिर तौ सुरतै कुल बिस्वेसे । रहे न सेष बिष्नु महेसे ॥
दुःख जब अपने ह्रदय को दुखित करता है तब ही उसकी टीस का अनुभव होता है ॥ फिर तो सार कुल देव
स्मरण हो आते हैं । क्या विष्णु क्या महेश, कॊइ भी शेष नहीं रहते ॥
कटे दिबस बहु कसकन कारे । एक एक कर भए सप्तक चारे ॥
तप उतरे पर मल न सुधारे । दै औषधी बहु बिधि कारे ॥
दिन बहुंत कठिनता से बीत रहे थे । एक एक कर एक मॉस का समय हो आया । ताप तो उतर गया किन्तु मल
की संख्या न्यून नहीं हुई । वेद्य-विधा के साथ औषधियां तो बहुंत सी दी थी ॥
तप तरे पर भरे तनिक गौर कर्पूर काय ।
खिले नयन नीरज नीक नीरद मुख मुसुकाए ॥
ताप उतरने के कुछ समय पश्चात शिशु का कर्पुर के सरूप गौर शरीर थोड़ा भरा । उअसकी कमल जैसी आँखें चमक
उठी और दन्त रहित अधरों पर मुस्करा उठे ॥
गुरूवार, ० ४ अप्रेल, २ ० १ ३
बयस बयस कर बालक साँसत । असन पयन पै मुख लै रासत ॥
पूरे चातुर ऊपर मासे । अजहुँ केलि कर बालक हाँसे ॥
रोग की यंत्रणा से मुक्त होकर स्वास्थ वर्द्धन अवस्था में अब शिशु दुग्ध रूपी भोजन को रूचि पूर्वक ग्रहण करने लगा ॥
आयु अवस्था चार महीने से ऊपर हो गई । अब बालक क्रीडा कारित कर हंसने खेलने लगा ॥
बाल चरन अस चर संचारे । जनु कोउ रथ के चक्रक चारे ॥
करत मोहक भंगिमन अंगे । अलटे पलटे पाल पलंगे ॥
छोटे छोटे पैर ऐसे चलते मानो कोई रथ का पहिया चला रहा हो ॥वह अब मनोहारी चेष्टाएं करने लगा पलंग रूपी पालने
में उलटने-पलटने लगा ।
अंग अंग भू मर्दनी माए । पालि पालि लै पाल खेलाए ॥
लसित ललित मुख मात निहारे । च चकारे कर चक चौकारे ॥
माता पुत्र के अंग मलहारती और पिता पालने से उठा कर गोद में खिलाते ॥ उसके चमकते सुन्दर मुखड़े को निहारती
हुई माता च च के चकारे ले कर चकोर के समान चकित लक्षित होती ॥
भए पीठ बले तहँ कर पेटे । झोल झगुलि लंगोट लपेटे ॥
चुभर चुभर कर कस कै मूठे । ले रस चुषके चबर अँगूठे ॥
पहल पीठ के बल फिर उदर पर फिराकर लंगोट लपेटती और झालरदार झगुला पहनाती ॥ चुभर-चुभर की ध्वनि कर
शिशु मुट्ठी कसके अंगूठा चूसते हुवे उसका रस लेता ॥
बल बालक बलकाए जनु अम्बर बाल मयंक ।
माँ बलिहारी जाए बल कर करज माथ धरे ॥
बालक उत्साह पूर्वक ऐसे करवट लेता मानो आकाश में उदय होता चाद करवट ले रहा हो । माता निछावर होती उंगलिया
वार कर माथे पर रख लेती ॥
कभु धर पयस पियाए ढाँक अम्बर भरे अंक ।
बछुवन दूध चुमाए जनु गौ कोउ साथ करे ॥
कभी वह गोद में भरे कपड़ो से ढंके शिशु को प्रेम रस का पान करवाती ऐसी प्रतीत होती मानो कॊइ गाय के साथ बछड़ा
दुग्ध पान कर रहा हो ॥
शुक्रवार, ० ५ अप्रेल, २ ० १ ३
किलक किलक धर मुख भर हूँ हे । कुँवर कुतूहल कल कौतूहे ॥
कभु कोल मँह महि तात गाहे । कभु कला कर गह मातु माहे ॥
मुख से किलकारी कर हूँ हां करते बालक की लीलाएं बहुंत ही कुतूहलयुक्त थी ॥ कभी वह पितामह की गोद में कभी
मातामह की गोद में मनोहारी क्रीडाएँ करता ।
कभु तौ सब जन एक टक ताके । पालन सोवन कभु मुख बाँके ॥
झरि गए सब बल कुंतल कारे ॥ सिरु अम्बर बर चाँद निकारे ॥
कभी वह सभी प्रियजनों को अपलक देखता कभी पाले में श्या की चाह रखते अंगड़ाई लेता ॥ आर घुंघरालू केश झड
चुके थे और सिर पर सुंदर चाँद निकल आया था ॥
सबजन बीच मात पहिचाने । जोर रुदन अब मांगे दाने ॥
इत उत जावन त नयन नचाए । दरसत नीरदन बसन डसाए ॥
सभी जनों क बीच में वह अब माता को पहचानने लगा । अब वह रो रो कर माता से दूध मागने लगा ।। यदि माता इधर
उधर हो जाती तो आँख नचा कर उसे ढूंडने लगता । और माता को देखते ही मुस्कराने लगता ॥
लाए तात बहु केलि खिलौने । अल बल कंदल औने बौने ॥
बाल गढ़ पाल गद गद गंती । कोउ बल कुँवरी घुँघरु वंती ॥
पिता ने भांति भांति के मधुर ध्वनि करने वाले छोटे-बढ़े बहुंत से खेल खिलौने लाकर दिए ॥ छोटे से गढ़पति, गड़-गड़
कराती बेलगाडी और कमर को बल देती घुंघरू बांधे राज कुमारी भी लाए ॥
बाल कंठन बाल उदर बाल के असन थोर ।
बाल कनक कन कंठ धर बालक भूषन थोर ॥
छोटा सा कंठ छोटा उदर, बालक का भोजन थोड़ा सा है । स्वर्ण कण से आभारित बालक के आभूषण भी थोड़े से है ॥
बाल कर करज बाल पद बाल के बसन थोर ।
बाल नयन मुख रस पद बालक भासन थोर ॥
छोट छोटे हाथ-पैर में, छोटी छोटी उंगलियाँ बालक के वेश-वस्त्र भी थोड़े से हैं ॥ छोटी-छोटी आँख छोटे-छोट होंठ युक्त
छोटे से मुंह में छोटी सी जीभ, बालक की शब्द ध्वनि भी थोड़ी सी है ॥
बालक मति लघु बोध बालक के बालक थोर ।
बाल पन बहु अबोध अंग कोपलि कमल मृदुल ॥
बालक की बुद्धि में थोड़ी ही समझ है, बालक के सर पर बाल भी थोड़े से हैं । बचपन भी बहुंत ही नासमझ होता है और
बच्चे के अंगप्रत्यंग कमल की नव पल्लवित पल्लव के समान होता है ॥
बाल शयन बाल पलंग बाल के आधि थोर ।
बाल सदन पालक संग बाल के गाधि थोर ॥
छोटी छोटी नींद और छोटा सा पालने मन बालक का शयन स्थान भी थोड़ा सा है । मता-पिता के साथ बालक का छोटा
सा कक्ष है कक्ष में बालक के पालने इ थोड़ा सा स्थान घेरा हुवा है ॥
बालक के दोइ दोने बाल बिछौने थोर ।
बाल बहु केलि खिलौने बाल बिलौने थोर ॥
बालक के भोजन के दो ही पात्र है और बिछोने भी थोड़े से हैं ॥ बालक के खेल-खिलौंने बहुंत से हैं किन्तु बालक उन्हें
थोड़ा ही गिराता-ढुलकाता है ॥
बालक बेलि अलोन बालक के आलख थोर ।
बाल गाल बहु सोन पाल लालक सकल कुल ॥
बालक के संगी-साथी रसहीन हैं क्योंकि बालक देखता-समझता थोडा ही है । बालक के कपोल लालिमा युक्त हैं बालक को
सभी कुल जन गोद में लेकर लाड-दुलार करते है ॥
शनिवार ० ६ अप्रेल, २०१३
किन्तु सकल सुख चिन्ह चिन्ह कै । जोगि बिपद ले जावन बिन कै ॥
कोल कौमुदी रह दउ दिन के । बाल पीर गहि ओटन तिन के ॥
किन्तु सारे सुख साहन को देख-देख कर बिन के ले जाने हेतु विपदा प्रितीक्षा कर रही थी ॥ चांदी का आलिगन दो ही दिन रहा
अर्थात दो चार दिन ही सुख पूर्वक बीते । बालक की पीड़ा तिनके के ओट में अर्थात छोटे रोग में बडा कष्ट छुपा था ॥
बाल मुकुल की चंचलताई । बदन लाख लोचन के लाई । ।
बाल कमल की कोमलताई । हरनन बिपदा हरि हरि आई ॥
विपत्ति, बालक की चंचलता, मुख की लालिमा और आँखों की चमक, कमल की पखुडियों के जैसी कोमलता का हरण
करने के लिए धीरे धीरे आई ॥
रहे बदन जे सुहासन सिन्धु । रद आछादन बिन्दुहि बिंदु ॥
सोषन अल-बल सादन साधे । सिद्धत राधे रोग बियाधे ॥
मुख पर जो मृदुल हंसी का सागर था और होठो पर उस सिन्धु की बिन्दुएँ लक्षित थी ऐसे सिधु को शोषण करने के लिए
विपदा, क्लान्ति की साधना करते हुवे रोग व्याधि की सिद्धियाँ प्राप्त कर रही थी ॥
कोतुकि कल दल खेलन खेटे । डाह दहन जल सकल समेटे ॥
अब कल कलरव नाद न नादे । पँवर पीर कै बादर बादे ॥
इर्ष्या की आग में जलती हुई विपदा ने, बालक के कौतुक उत्पन्न करने वाले, मधुर ध्वनि युक्त, समस्त खेल-खिलौने को
रौदते हुवे समेट लिया ॥
बाल नयन कर पाद, बाल असन भासन थोर ।
उदर गुहा बल बाद, उत्सर्ज कर मल बहुस ॥
छोटी-छोटी आँख, छोटे हाथ पाँव हैं, बालक का भोजन थोड़ा सा है, और थोड़े से बोल हैं । उदार गुहा में वायु बल लेती हुई
मल का बहुत ही त्याग कर रही है ॥
रविवार, ० ७ अप्रेल, २ ० १ ३
ठाढ़ न मल दिन प्रति दिन बाढ़े । बहु जतन करे बाढ़ ठाढ़े ॥
बयस अस बदन बोल न आए । बाल पीर कस बोले बताए ॥
मलोत्सर्जन स्थिर नहीं हुवे वे दिन प्रतिदिन बढ़ते गए । वर-वधु ने बहुंत से उपाय किये किन्तु यह बढ़त नहीं रुकी ॥
बालक की आयु अवस्था ऐसी थी कि मुख से बोलना नहीं आता था फिर वह अपनी पीड़ा को कैसे बताता ॥
दुखद बिपद पीडन संकासे । उन्मुख कर सुख परन प्रबासे । ।
तात मात करि रोध प्रयासे । रहि औषध अरु भगवन आसे ॥
दुःख, विपदा और पीड़ा, पास आ गए । मुख ऊँचा कर घमं पूर्वक सुख कहीं और के प्रवासी हो गए ॥ तात -मात
ने मॉल को रोकने के बहुत प्रयास किए । वे भगवा और औषधि की ही आस रखे थे ॥
अब तौ सिसु उत्सर्जन जितौ । मिलै रुधिर रँग बिरेचन तितौ ॥
कौन दिसा को साधन सूले । बेद ज्ञात कर सके न मूले ॥
अब तो शिशु जीते भी मल का त्याग करता उतने में ही दस्तकारी रुधिर का रंग दिखाई देता ॥ कौन सी दिशा से
और किस साधन से यह पीड़ा उपजी । वैद्य पीड़ा के उस मूल को ज्ञात नहीं कर सके ॥
पुनि एक दिन कर कालिक केसे । काल कपट के अभरन भेसे ॥
कूट बचन बस कुटुम कलेषे । अपबाँचन कछु रहे न सेषे ॥
पुन: एक दिन केशों को काला किये, कपट के काले भेष भूषा में मिथ्यावादी वचन के वश होकर कुटुंब में क्लेष
उत्पन्न हो गया ।कहने हेतु कोई भी दुर्वाचन शेष नहीं रहा ॥
एक तौ बालक दिसा बस दुज दसा बिपर्यास ।
दुखित ह्रदय बधु भइ बिबस गमनी पितु के बास ॥
बालक, एक तो अतिसार की व्याधि से ग्रस्त था दुसरे यह विपरीत दशा आन पड़ी । दुखित ह्रदय से वधु विवश
होकर पुन: पिता के घर चली गई ॥
सोमवार, ० ८ अप्रेल, २०१३
पितु घर दिन दुइ चार सिराए । बाल उदर बल दिसा तरलाए ॥
गोद भर माए बैद पहि धाए । पुनि घर औषधी धाम बसाए ॥
पिता के घर रहते दो चार दिन ही हुवे थे कि बालक का पेट ऐंठ कर पतले मल उतारे लगा ॥ गोद में लेकर माता उसे
वैद्य के पास ले कर गई । वैद्य के निर्देशानुसार चिकित्सालय में ही फिर से घर बस गया ॥
जों जों जल मल बाल निकसाए । तों तों घट कै भार घटियाए ॥
निर्जल देह जल सूल चढ़ाए । रोधे उपाए बैद ना पाए ॥
जैसे जैसे जल युक्त मल बालक उत्सर्जित करता वैसे वैसे उसके शारीर का भार घटता जाता । शारीर में जल की मात्रा
न्यून हो जाने के कारण उसे शूल के द्वारा जल आपूर्ति की गई । किन्तु इस उपचार के पश्चात भी वैद्य को मल अवरुद्ध
करने का उपाय नहीं आया ॥
बाल बदन बहु साद दरसाए । ताप धरे जनु कुसुम कुमलाए ॥
नीर नयन बधु बाल बिलोके । पीर सहिर सह असहय होके ॥
बालक का मुख बहुत ही क्लांति दर्शा रहा था । व्यथित हो कर वह ऐसा कुम्हलाया जैसे कोई पुश कुम्हलाता हो ॥
बालक को ऐसी अवस्था में देखकर वधु की आख में आंसू आ गए । वह असहाय हो कर ऐसी पर्वत सी पीड़ा को सह
रही थी ॥
साथ बसे जे आरोग सदन । कही बुझाई बाँच एहि बचन ॥
रहे न तव एक बाल अकेरे । देखु रोग बस भए बहुतेरे ॥
आरोग्य सदन में जो साथ में वासित थे उन्होंने ने वधु को ऐसा कह कर समझाया कि तुम्हारा ही बालक एक अकेला
नहीं है । देखो कितने बच्चों को रोग ने ग्रसित कर रखा है ॥
अरोग सदन रहत बसत पूरित दुइ पखवार ।
बैद जन उपचार करत बिहान मह गए हार ॥
आरोग्य सदा में रहते बसते वधु को एक महीना हो आया । वैद्य गण उपचार करते करते अंत में हार गए ॥
मंगलवार, ० ९ अप्रेल, २० १ ३
बैद बिदित सहुँ नैनन झुकाए । कहे कोउ बर नगर लै जाएँ ॥
मर्म बचन मन भेद प्रहारे । बैद बिदित सन पालक हारे ॥
बैद्य विद्वान इ वधु-वर के सन्मुख आँख झुकाते हुवे कहा बालक को कोई बड़े नगर में ले जाएं ॥ वैद्य के कठोर वचन
के आघात से ह्रदय विदीर हो गया । और उअके साथ पालक भी रोग से लड़ते लड़ते हार गए ॥
भयउ चितबत जी दाइनि दाए । जीउ मरन नंदन हिन्दोलाए ॥
बरे बिरध कहि मंथन कारे । जथा जोग साधन संभारे ॥
माता एवं पिता स्तब्ध हो गए, जीवन और मरण बालक को झुलाए जा रहे थे ॥ घर के बड़े वृद्धो ने सोच विचार कर
कहा, यथा योग्य आवश्यक वस्तुएं एकत्र करें ॥
बालक पालक पठैउ तहवाँ । तनि बर आरोग सदन जहवाँ ॥
एक मुठ अद्य एक पून पुनीते । सोचे देखु अब का फल बीते ॥
तत पश्चार बड़े वृद्धो ने बालक को पालक सहित वहां भेजा जहाँ थोड़ा सा बढ़ा आरोग्य सदन था ॥ एक मुट्ठी में पाप और
एक में पावन पुण्य बांधे, वर-वधु ने सोचा, देखे अब क्या फलीभूत होता है ॥
बाल काय अस रोग न जोगे । पीर बहुस फुर मूरति भोगे ॥
की परिनय पुत के परिनामा । होय भाग अब बधु के बामा ॥
बालक का शरीर ऐसे गंभीर रोग के योग्य नहीं था वह फुल की मूरत बहुत अधिक पीड़ा भोग रहा था परिणय किया तो
परिणाम पुत्र स्वरूप में मिला किन्तु अब रोग ग्रस्त होने के कारण वधु का भाग्य विपरीत हो गया ॥
कारूक कर जब काल कलापे । कल्प कार के कल्पन काँपे ॥
पीछु होइ जानत सब कोई । को जान न अगहुन का हॊई ॥
कला करके जब काल अपने क्रियाकलाप दिखलाता है तो सृष्टि कर्त्ता की कल्पना भी कांप जाती है ॥ भूतकाल की घटना
सर्व विदित है किन्तु भविष्य में क्या घटित होगा यह अविदित है ॥
पर पुर पालक पग परे जुगत जुगत कै साँस ।
ब्यास कर के आस करे सिसु बयस भए छमास ॥
बालक की सांस संजोत पालनहार पराए नगर में पहुँचे । स्वास्थ वर्द्धन की आस करते करते बालक की आयु अवस्था छह
मास की हो गई ॥
बुधवार, १ ० अप्रेल २ ० १ ३
नैनन धनब बादर बांधे । बाल के भुज सिर धरे काँधे ॥
दुज औषधि भवन चरण बढ़ाए । पुनि पालक नव गृहसी बसाए ॥
आँखों के आकाश में अश्रु के बादल को बांधकर और बालक की भुजा और सिर को कंधे से लगा कर पालक ने दुसरे
आरोग्य भवन में प्रवेश किया, नए स्थान पर पुन: एक गृहस्थी बस गई ॥
नव बैदक नव औषधि धामा । घोषत जामिक अर्धन जामा ॥
तहही ब्याधि तह्ही असाधे । नव सिध सुध नव साधन साधे ॥
नए वैद्य गण एवं औषधि सदा में नई नई औषधियां थी । द्वार-पहरी आधी रात की घोषणा कर रहा था ॥ व्याधि वही थी
असाध्यता भी वही थी नए विद्वान वैद्य सुधि लकर नए नए साधो से रोग साधने का प्रयास करने लगे ॥
सूचि मुख भेद सूल सलाके । बाल पानि पद लागे लाखे ॥
भेद बिद्ध बहु सूजत दूखे । नंद नयन भए मंद मयूखे ॥
सुई की नोक का भेदन शलाकाओं सी वेदना उत्पन्न कर रही थीं । जो बालक के पाद और चरण को लाल करती हुई लगी
हुई थी ॥ ओके का यह भे बिन्धित होकर एजी भाग को फुला कर पीड़ा उत्पन्न कर रहे थे । पीड़ा से नादाँ का आँख की कांति
मंद हो गई ॥
सुधाधार धर सरबस सूखे । मलिन प्रभा कर कमलिन मूखे ॥
ह्रदय बिदारित दसा दुखदाई । को बिध कहँ लिखि लेखि न जाई ॥
सुधा के आधार स्वरूप अधर पूर्णतः शुष्क हो गए । बालक की ऐसी अवस्था को किसी भी प्रकार से लेखनी से कहते हुवे
लिखी नहीं जा रही, यह दुखदाई दशा ह्रदय को विदारित करने वाली थी ॥
मृदु मूरति गह सूलक भाले । हे भगवन हमारे तन घाले ॥
कहत बचन अस कलस दुआरे । माँगत बर पितु झोरी पसारे ॥
कोमल मूर्द्धा से शूल और भाले लेकर हे भगवान इन्हें हमारे शरीर में लगा दो । ऐसे वचन कहते हुवे मंदिर की चौखट पर
पिता झोली पसार के वरदान मांग रहे थे ॥
बट बट कोर कलस बने भगवन एकहु न पाए ।
जब लालन मुख लाखने बाल सरुप मुसुकाए ॥
मार्ग मार्ग पर मंदिर बने हुवे थे किन्तु भगवान एक में भी नहीं मिले जब लाल का मुख देखा तो वह उसमें मुस्कराते बालक
स्वरूप में मिले ॥
गुरूवार, १ १, अप्रेल, २०१३
मात पिता पुत चितब निहारे । भरे कंठ कँह का रे का रे ॥
बार बार मुख चुम्बत माथे । सिसक सिसक सिरु फेरत हाथे ॥
माता -पिता पुत्र को एकटक निहारते हुवे भरे कंठ से कह उठे क्या हुवा ! क्या हुवा रे ! बार बार बालक के मुख और माथे का
चुम्बन लेते सिसकते हुवे सर पर आशीर्वाद स्वरूप हाथ फेरते ॥
लख लख लाखन लाखन लैखे । बुद्ध प्रबुद्ध बैद बहु पैखे ॥
मति मथित कर परस्पर बोधे । को सिद्धि पर मल ना रोधे ॥
बड़े बड़े विद्वान वैद्य बहुश: बार बालक की निरीक्षा-परीक्षा करते, रोग लक्षणो को लिखते ।। मत विचार कर परस्पर बात करते
किन्तु ऐसी कोई सिद्धि नहीं मिली जिससे मल को अवरुद्ध किया जा सके ॥
कहन उपचरक चारै चारे । सके न उपचित मल संभारे ॥
कारक जान न कारन जाने । बिषय बिषेसग जग जन माने ॥
कहने को तो शास्त्र- विहित, चिकित्सा-कार्य का अभ्यास करने वाले विद्वान सेवक थे किन्तु बढ़े हुवे मॉल का उपचार
करने में असमर्थ थे । न तो रोग उत्पन्न करने वाले कारक को जान पाए न ही उसके कार को जान पाए और थे वे
बालरोग के जाने-माने विषय विशेषज्ञ थे ॥
करुबर रोगह उदर उतारे । असक कसक सिसु सक कसकारे ॥
सोष सार सत सकल सरीरे । रोग हरिक सरि हरनै हीरे ॥
कड़वी कड़वी औषधियाँ पेट में उतारते, शिशु असहनीय पीड़ा को भी कसकाते हुवे सह लेता ॥ रोग शरीर के समस्त
सार-तत्व को शोषित कर चोर के सदृश्य शिशु की शक्ति की चोरी कर रहा था ॥
हरिन ह्रदयारत कारत रोग बिषनि के बीष ।
भए सिसु के सांसन फाँसत पर पुर बासर तीस ॥
सर्प के विष के सदृश्य रोग कोमल ह्रदय में टीस भरते हुवे,सर्पों द्वारा शिशु की सांस को फांसते हुवे पराए नगर में रहते
एक मास की अवधि हो आई ॥
शुक्रवार, १ २ अप्रेल, २०१३
जीउ रुपन रुप रन घन घोरे । कवलन काल कराल अगोरे ॥
रोगह जोध रोगानु हराए । इहहीं भय सब बैदु असहाय ॥
जीवन घघोर युद्ध के रूप में रूपांतरित हो गया था । भयंकर काल कवलित करने हेतु प्रतीक्षा कर रहा था ॥ औषधि रूपी
योद्धा को रोग के विषाणुओं ने हरा दिया । यहाँ भी सभी वैद्य असहाय हो गए ॥
तहहि देइ सकल बुद्ध उत्तर । कहें जाएँ नगरी औरन बर ॥
श्रवन ऐसेउ बचन कठोरे । नयनज बांधि ठहरे न ठोरे ॥
यहाँ भी सभी वैद्य विद्वानों ने उत्तर देते हुवे कहा कि बालक को किसी और भी बड़ी नगरी मन ले जाएं ( जहां उत्तम उपचार
व्यवस्था उपलब्ध हो )। ऐसे कठोर वचन सुनकर अश्रु का बाँध अपे स्था पर रुका नहीं अर्थात बह चला ॥
सौम सरिल सरि सूखी बानी । जनु तपस तप सुखे कन धानी ॥
रोदत बधु कहि कछु कर सोचें । मोर पिया तुम संकट मोचे ॥
जो वाणी शांत रस के जैसी थी वह शुष्क हो गई मानो तपते सूर्य ने खेत की उपज को शुष्क कर दिया हो वधु ने रोते हुवे
कहा मेरे प्रियतम तुम तो संकट के मोचक हो अत: कुछ भी सोचो कितु बालक को स्वस्थ कर दो ॥
धरे दो ही अखरी में आखर । हां हां हि कहे सीस हिला कर ॥
बोले अब को नगर ले जाएँ । कहि बयस कर जहँ रोग सिराए ॥
प्रियतम न वर्ती में दो ही अक्षर पिरोते हुवे सिर हिला कर केवल हाँ हाँ कहा और बोले अब कौन सी नगरी ले जाएँ जहाँ
बालक स्वास्थ वर्द्धन करे और रोग से पीछा हूटे ॥
पूछे सकल जन परिजन संकट सोच बसाए ।
बिरध बुध नात सयाने तब एक नगर सुझाए ॥
संकट का विचार करते हुवे प्रियतम ने सभी बुद्ध जनों एवं कुटुम्बियों से मंथन किया । बड़ों ने और सयाने सगे-सबंधियों
ने फिर एक नगर सुझाया ॥
शनिवार, १ ३ अप्रेल, २ ० १ ३
बढ़े रोग भए दनु बिकराले । गहनु गहि तेहि दंस कराले ॥
कहे बैद अनु बहु संचारे । लै जाहु तनिक कर संभारे ॥
रोग ने बढ़ कर विकराल दानव का रूप ले लिया, और उसके भयंकर दांत बालक के शरीर में गहरे धंसते चले गए ॥ वैद्यक
ने कहा रोगाणु बहुंत अधिक संक्रामित हो गए हैं अत: बालक को थोड़े ध्यान पूर्वक ले जाएं ॥
कछु लहने जीवन के लाहू । सरल सुगम अस साधन जाहू ॥
ऐसेउ ठोर डेरन डारें । जे कर सक एहि रोग सुधारे ॥
ऐसे सरल एवं सुगम साधा में जाएँ कि बालक के जीवन को कुछ लाभ प्राप्त हो ॥ ऐसे स्थान पर उपचार करवाएं जो ऐसे
गंभीर रोग का उपचार करने में सक्षम हों ॥
पिया तुर जनि नगरी अहोरे । गुहिल बहेरन एक दिन होरे ॥
गहे गुहेरे तनि निज जोरे । तुरंग गति तुर तुरत बहोरे ॥
प्रियवर तत्काल ही जन्म नगर गए । धन संकलित करने हेतु वहा एक दिवस ठहरे ॥ कुछ अभिभावकों ने दिया और कुछ
स्वयं द्वारा संचयित किया हुवा लिया, और घोड़े जैसी गति से चलकर तु्रन्त लौटे ॥
अरोग सदन पर पुर रहे जे । ले सन संजुग सकल सहेजे ॥
पवन बिमाने बहु द्रुत गति कर । गवनु बर धानि राजत ता पर ॥
पराई नगरी के आरोग्य सदन में जो वास वस्तुवे थीं उन्हें संगृहीत कर बहुत द्रुत गति से वायुयान में विराजित होकर बड़ी
धानी गये ।
दुइ काल खंड गह तहँ असने । पुनि नव पुर महँ बासे बसने ॥
कर बैद नउ सेव आरम्भे । प्राग रोग पर नौ आलम्बे ॥
दो घंटे में ही पालक वहां पहुँच गए नए नगर में पुन : नई वसति वासित हो गई ॥ वाद्य गणों ने नई चिकित्सा सेवा आरम्भ
कर दी, रोग वही पुराना था कितु सहारा नया था ॥
तहँहि बहु रहे सिद्धित साधे । धरे बहुस बर उपाधि राधे ॥
बालक बिभु बेदक बिधि धारे । जूथक करी गहन उपचारे ।।
वहाँ भी निर्धारित मत के आधार पर लिखित चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन द्वारा प्राप्त उपाधि को धारण किये श्रेष्ठ चिकित्सक थे ।
बहु बिधानत बैद बिदुर बाल बिषय के जोग ।
पेखि पर कहि बाढ़े बहुर बालक के मल रोग ॥
फिर इन शिशु रोग के विशेषज्ञ वैद्य विद्वानो ने विधान पूर्वक निरिक्षनोपरांत कहा कि बालक का रोग बहुत ही बढ़ गया है ॥ ( हम
स्वस्थ करने का प्रयास करेंगे)
रविवार, १ ४ अप्रेल, २ ० १ ३
परखन नलिके सूल सँभारे । सीकर सीकर रुधिर निकारे ॥
कभु को नलि उत्सर्जन लहने । बहु प्रजोग कर निरिखत गहने ॥
परख नलियाँ और सूचिका तैय्यार कर शिशु के रक्त की बूंद बूंद इकाल लीं । कभी वे किसी परखनली में उत्सर्जित मल-मूत्र
को एकत्र करते और बहुत सारे प्रयोग कर उसकी गहन परीक्षा करते ॥
जानन अनु को मूल उगाहू । बार बार पर हार अलाहू ॥
लेवत लेवत रुधिर घट आए । बारहि बार दै सूल चड़ाए ॥
यह ज्ञात करने के लिए कि रोग के अणु कहाँ से उत्पन्न हो रहे है किन्तु यह ज्ञान अप्राप्त होता और वे बार बार असफलत होते
बार बा लेने के कारण शिशु के शारीर में रक्त की मात्रा न्यून हो जाती । और वैद्य बार बार उसे सूचिका द्वारा चढ़ाते ॥
निरखत बालक के कसकारी । झरि पालक के लोचन बारी ॥
बाल चरन कर भालक बाने । लाग जनु को साँसत प्राने ॥
बालक का यह कष्ट देखकर पालक की आँखों से जलधारा बहने लगती ।। बालक के हाथ-पैरों में बाण और भाले ऐसे प्रतीत
होते जैसे कोई बालक को प्रताड़ित कर रहा हो ॥
धँसे देह जनु सायक सेजे । जान न कहँ पर प्रान सहेजे ॥
जान न बोल बाल कस भासे । रोग दुःख धँसे सूलक कासे ॥
ये बाण और भाले देह में ऐसे धसे थे मानो यह सर सय्या हो । जी खान था यह तो था किन्तु शिशु ने प्राण सहेजे हुवे थे ।। शिशु को
वाणी का ज्ञान नहीं था वह हँसे हुवे शुलों की दुःख पीड़ा और कष्ट कैसे जताता ।
दहत देह दरसत कार जरत रोग के भाड़ ।
चामोभर चित्रन उतार दरसे तन के हाड़ ॥
रोग की भट्टी में जलते हुवे शिशु की देह में सांवलापन आ गया । और त्वचा पर शरीर की हड्डियों का चित्र दिखाई देने लगा ॥
सोमवार, १ ५ अप्रेल, २ ० १ ३
एक बार ते मूर्छित वासे । बालक साँसे करत उसाँसे ॥
जतन बैद बह जंत्र बहाए । सयनित प्रतिबोध बिधाए ॥
एक बार तो बालक, ऊपर की और खिचते लम्बी-लम्बी सांस लेते हुवे मूर्छित हो गया । तब वैद्यगण ने वायु प्रवाहित यन्त्र से
वायु प्रवाहित कर मूर्छा के कारण सुप्तावस्था में गए बालक को जागृत किया ॥
भए बहु दिन इहहीं बिष्ठे । मात-पिता नहिं रूधत दृष्टे ॥
सूझ न पाए को अरु उपाए । को रथ-पथ अब कोन पुर जाएँ ।।
माता-पिता को यहाँ भी देखते बहुत दिन हो गए, मॉल था की रूढ़ता ही नहीं था । और उन्हें कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा था कि
अब बालक को किस रथ-वाहन से, किस पथ में कौन सी नगरी ले जाएं कि जहां वह स्वास्थ वर्द्धन करे ॥
असकत कसकत दुसर दुआरे । भए दुइ पाखे बहु दुखबारे ॥
पुनि एक अह अह औषध आले । बैद बिरध जन करि हट ताले॥
दुसरे द्वार में असहाय कष्ट भोगते बालक को बहुंत ही दुःख करते दो पखवाड़े अर्थात एक मास का समय व्यतीत हो गया था कि
तभी आह ! एक दिन उस औषधि सदन में वैद्य विद्वानों ने किसी कारण वश हड़ताल कर दी ॥
हरि हरि रोगिन दैं अवकासे । सब जन जहिं कहिं औरन बासें ॥
बर बधु सन कहि एहिं पुर रहहू । समउ पर हमर निदेस लहहू ॥
धीरे धीरे वे रोगियों की छुट्टी करने लगे और खा सब रोगीगन कोई और औषधि सद में उपचार करवाएं ॥वर-वधु को भी छुट्टी
देते हुवे खा की अभी आप वापस मत जाइए, यही इसी नगर में कहीं निवास कीजिए और समय-समय पर हमसे उपचार से
सम्बंधित निर्देश लेते रहिए ॥
पाल बाल हिरदे लाए नीरुज सद के पास ।
लै दसन पुनि बसि बसाए एक भल नतैत बास ॥
पालक, बालक को ह्रदय से लगाए आरोग्य सदन के निकट ओढ़-बिछौने लेकर एक भले सम्बन्धी के निवास में पुन: घर बसा लिया ॥
बर बरन भीति चारक रंगे । पहन भवन चौपत सारंगे ।।
भवन के खंड, आँगन,उपवन और छज्जे- झरोखे, मन को हरने वाली चतुर लडियो की झालरों से सुशोभित हुई ॥
भित्तियों को वर्णकार ने श्रेष्ठ रंगों से रंगा, इसके पश्चात भवन ने परत दार बहुरंगी वस्त्र आवरण धारण किये ।।
चरन चरन पर अल्पन कोरी ।देहरि दोहरि चित रंगोरी ॥
परिजन सम सुम सींच सुगंधे । पाहुन अगहुन अगुवन वन्दे ॥
पद-पद पर अल्पना उकेरी गईं । इहली पर दो परतो वाली रंगोली की चित्रकारी की गई । पारिजन के समान कुसुम भी
सुगंध सारे आगे बढ़ बढ़ कर अतिथियों की अगवानी कर नमस्कार करने लगे ॥
आए नारि भर सुन्दर सारी । कंध कूर उर आँचर धारी ॥
ता सँग नर अभरित बर भेसे । मनहु भए नागर अवधहि देसे ॥
नारियाँ ह्रदय और कंधे पर आँचल की धारियाँ समेटे सुन्दर साडी पहन कर आईं ॥ उनके साथ सुदर वेश से आभूषित हो कर
पुरुष ऐसे लग रहे थे मानो ये अयोध्या के निवासी हों ॥
कन धरि धुनि कल रव करि नाना । बाज ढोर घन घोर निसाना ॥
कंठन बल कल कोकिल बाने । भामिन गावहिं मंगल गाने ॥
विभिन्न प्रकार की मधुर-स्वर एवं ध्वनि कानों में शब्दमान हो रहे है । बादलो के गर्जन के समान मृदंग और ढोल बज रहे हैं ।
कोयल के जैसे मधुर कंठ से स्त्रियाँ मंगल गीत गा रही हैं ॥
आजु भवन पूरित रीति भरे न रागनि रंग ।
छरक आ गिरे बट बीथि पुर भरपूर उमंग ॥
आज भवन रीति आचार से परिपूर्ण हैं, हर्ष और आनंद भवन में समाहित नहीं हो पा रहा वह उछल उछल कर बाहर गिर
रहा है जिससे नगर के गलीयो के मार्ग में भी उल्लास से भर रहे है ॥
मंगलवार, ०२ अप्रेल, २०१३
चारु चँवर बहु चटक चोटिके । कारू असन मनु धनब आ टिके ॥
पहने बधू सिंगार सजाए । बरे बिरध कर कूप पूजाए ॥
सुन्दर झालरी युक्त गहरे रंग का लहँगा और उस पर कार्य ऐसा मानो आकाश अर्थात चढ़ सूर्य तारे सभी टांक दिया गय हों
को पहन कर वधु ने भूषण भरे । फिर बढ़े वृद्धों ने कूप पुजवाया ॥
पर बधु के मुख लघुता छाई । जस तस कर पूजन निपटाई ॥
पुनि सिसु तन ज्वर जोर जराए । भूर पयस पय देही गिराए ॥
पर वधु का मुख उदास था ( श्रृंगार से उत्पन तेज नहीं था) उसने जैसे तैसे पूजा समाप्त की । क्यों की शिशु को पुन: ज्वर
हो गया था उसने दुग्ध पान करना छोड़ कर उसकी देह लस्त हो गई थी ॥
जन ते सिसु रहि बहु मल कारे । एहि कारन तन भार न घारे ॥
रुधे न मल करि बहु उपचारे । सिसु रोग रुधिर आमासारे ॥
शिशु जन्म से ही बहुंत अधिक उत्सर्जन करता था यही कारण था की उसका भार नहीं बढ़ रहा था ॥ वधु ने बहुत से उपचार
किये किन्तु मल रुके नहीं । और उसे मल के साथ रुधिर भी आने लगा जिसे आमासार का रोग कहते हैं ॥
साद सरीरन सरिता धारे । तपित रुधिर रस नस नस जारे ॥
मात पिता पद चाकर घारी । एक घर ते एक बैद अटारी ॥
यह रोग शरीर को पीड़ा पहुंचा कर अत्यधिक मल कारित करता है । और शरीर में ज्वर उत्पन्न कर रुधित को जलाता है ॥
उपचार हतु माता पिटा के पाँव में चक्र जैसे हो गए । एक पाँव घर में तो एक वैद्य के द्वार में फेरी लगाते ॥
पेख पुतक तन पीर तात मात के जिय जरे ॥
कभु पोंछि नयन नीर कभू लाल करि निर्मल ।
पुत्र की पीड़ा को देखकर माता पिटा का ह्रदय जलता ह्रदय में आरति रख कर पीड़ा वश वे कभी आंसू पोछते कभी शिशु को
निर्मल करते ॥
बुधवार, ०३ अप्रेल, २०१३
देखे बैद कारन न चिन्हे । लाख लखन लिख औषधि दिन्हें ॥
त्रसत लसत सिसु ताप अधीना । रोग ग्रसत तन भए पंच दिना ॥
वेद्य ने परिक्षण किया किन्तु रोग का कारन ज्ञात नहीं कर पाए । परन्तु लक्षणों को देखकर आषधियाँ लिख कर दे दीं ॥
ज्वर शिशु को अपने वश में करके व्याकुलित किये जा रहा था । रोग की पीड़ा सहते शिशु को पांच दिन हो गए ॥
कभु कहँ तप बस दो हीं दिन के । तात मात हारे गिन गिन के ॥
तपत भयऊ दस दिबस ऊपर । धरे अधर सिर सीतर कापर ॥
वैद्य कभी कहते ज्वर दो दिन में ठीक हो जाएगा । और पालक स्वास्थ वर्द्धन की प्रतीक्षा कर के थक जाते ॥
ऐसे ही ज्वर से जलते और सर पर ठंडा कपड़ा रखे शिशु को दस दिवस से ऊपर हो गए ।
जब दुःख आपन ह्रदय ब्यापे । तबहि जानें तेहिं संतापे ॥
फिर तौ सुरतै कुल बिस्वेसे । रहे न सेष बिष्नु महेसे ॥
दुःख जब अपने ह्रदय को दुखित करता है तब ही उसकी टीस का अनुभव होता है ॥ फिर तो सार कुल देव
स्मरण हो आते हैं । क्या विष्णु क्या महेश, कॊइ भी शेष नहीं रहते ॥
कटे दिबस बहु कसकन कारे । एक एक कर भए सप्तक चारे ॥
तप उतरे पर मल न सुधारे । दै औषधी बहु बिधि कारे ॥
दिन बहुंत कठिनता से बीत रहे थे । एक एक कर एक मॉस का समय हो आया । ताप तो उतर गया किन्तु मल
की संख्या न्यून नहीं हुई । वेद्य-विधा के साथ औषधियां तो बहुंत सी दी थी ॥
तप तरे पर भरे तनिक गौर कर्पूर काय ।
खिले नयन नीरज नीक नीरद मुख मुसुकाए ॥
ताप उतरने के कुछ समय पश्चात शिशु का कर्पुर के सरूप गौर शरीर थोड़ा भरा । उअसकी कमल जैसी आँखें चमक
उठी और दन्त रहित अधरों पर मुस्करा उठे ॥
गुरूवार, ० ४ अप्रेल, २ ० १ ३
बयस बयस कर बालक साँसत । असन पयन पै मुख लै रासत ॥
पूरे चातुर ऊपर मासे । अजहुँ केलि कर बालक हाँसे ॥
रोग की यंत्रणा से मुक्त होकर स्वास्थ वर्द्धन अवस्था में अब शिशु दुग्ध रूपी भोजन को रूचि पूर्वक ग्रहण करने लगा ॥
आयु अवस्था चार महीने से ऊपर हो गई । अब बालक क्रीडा कारित कर हंसने खेलने लगा ॥
बाल चरन अस चर संचारे । जनु कोउ रथ के चक्रक चारे ॥
करत मोहक भंगिमन अंगे । अलटे पलटे पाल पलंगे ॥
छोटे छोटे पैर ऐसे चलते मानो कोई रथ का पहिया चला रहा हो ॥वह अब मनोहारी चेष्टाएं करने लगा पलंग रूपी पालने
में उलटने-पलटने लगा ।
अंग अंग भू मर्दनी माए । पालि पालि लै पाल खेलाए ॥
लसित ललित मुख मात निहारे । च चकारे कर चक चौकारे ॥
माता पुत्र के अंग मलहारती और पिता पालने से उठा कर गोद में खिलाते ॥ उसके चमकते सुन्दर मुखड़े को निहारती
हुई माता च च के चकारे ले कर चकोर के समान चकित लक्षित होती ॥
भए पीठ बले तहँ कर पेटे । झोल झगुलि लंगोट लपेटे ॥
चुभर चुभर कर कस कै मूठे । ले रस चुषके चबर अँगूठे ॥
पहल पीठ के बल फिर उदर पर फिराकर लंगोट लपेटती और झालरदार झगुला पहनाती ॥ चुभर-चुभर की ध्वनि कर
शिशु मुट्ठी कसके अंगूठा चूसते हुवे उसका रस लेता ॥
बल बालक बलकाए जनु अम्बर बाल मयंक ।
माँ बलिहारी जाए बल कर करज माथ धरे ॥
बालक उत्साह पूर्वक ऐसे करवट लेता मानो आकाश में उदय होता चाद करवट ले रहा हो । माता निछावर होती उंगलिया
वार कर माथे पर रख लेती ॥
कभु धर पयस पियाए ढाँक अम्बर भरे अंक ।
बछुवन दूध चुमाए जनु गौ कोउ साथ करे ॥
कभी वह गोद में भरे कपड़ो से ढंके शिशु को प्रेम रस का पान करवाती ऐसी प्रतीत होती मानो कॊइ गाय के साथ बछड़ा
दुग्ध पान कर रहा हो ॥
शुक्रवार, ० ५ अप्रेल, २ ० १ ३
किलक किलक धर मुख भर हूँ हे । कुँवर कुतूहल कल कौतूहे ॥
कभु कोल मँह महि तात गाहे । कभु कला कर गह मातु माहे ॥
मुख से किलकारी कर हूँ हां करते बालक की लीलाएं बहुंत ही कुतूहलयुक्त थी ॥ कभी वह पितामह की गोद में कभी
मातामह की गोद में मनोहारी क्रीडाएँ करता ।
कभु तौ सब जन एक टक ताके । पालन सोवन कभु मुख बाँके ॥
झरि गए सब बल कुंतल कारे ॥ सिरु अम्बर बर चाँद निकारे ॥
कभी वह सभी प्रियजनों को अपलक देखता कभी पाले में श्या की चाह रखते अंगड़ाई लेता ॥ आर घुंघरालू केश झड
चुके थे और सिर पर सुंदर चाँद निकल आया था ॥
सबजन बीच मात पहिचाने । जोर रुदन अब मांगे दाने ॥
इत उत जावन त नयन नचाए । दरसत नीरदन बसन डसाए ॥
सभी जनों क बीच में वह अब माता को पहचानने लगा । अब वह रो रो कर माता से दूध मागने लगा ।। यदि माता इधर
उधर हो जाती तो आँख नचा कर उसे ढूंडने लगता । और माता को देखते ही मुस्कराने लगता ॥
लाए तात बहु केलि खिलौने । अल बल कंदल औने बौने ॥
बाल गढ़ पाल गद गद गंती । कोउ बल कुँवरी घुँघरु वंती ॥
पिता ने भांति भांति के मधुर ध्वनि करने वाले छोटे-बढ़े बहुंत से खेल खिलौने लाकर दिए ॥ छोटे से गढ़पति, गड़-गड़
कराती बेलगाडी और कमर को बल देती घुंघरू बांधे राज कुमारी भी लाए ॥
बाल कंठन बाल उदर बाल के असन थोर ।
बाल कनक कन कंठ धर बालक भूषन थोर ॥
छोटा सा कंठ छोटा उदर, बालक का भोजन थोड़ा सा है । स्वर्ण कण से आभारित बालक के आभूषण भी थोड़े से है ॥
बाल कर करज बाल पद बाल के बसन थोर ।
बाल नयन मुख रस पद बालक भासन थोर ॥
छोट छोटे हाथ-पैर में, छोटी छोटी उंगलियाँ बालक के वेश-वस्त्र भी थोड़े से हैं ॥ छोटी-छोटी आँख छोटे-छोट होंठ युक्त
छोटे से मुंह में छोटी सी जीभ, बालक की शब्द ध्वनि भी थोड़ी सी है ॥
बालक मति लघु बोध बालक के बालक थोर ।
बाल पन बहु अबोध अंग कोपलि कमल मृदुल ॥
बालक की बुद्धि में थोड़ी ही समझ है, बालक के सर पर बाल भी थोड़े से हैं । बचपन भी बहुंत ही नासमझ होता है और
बच्चे के अंगप्रत्यंग कमल की नव पल्लवित पल्लव के समान होता है ॥
बाल शयन बाल पलंग बाल के आधि थोर ।
बाल सदन पालक संग बाल के गाधि थोर ॥
छोटी छोटी नींद और छोटा सा पालने मन बालक का शयन स्थान भी थोड़ा सा है । मता-पिता के साथ बालक का छोटा
सा कक्ष है कक्ष में बालक के पालने इ थोड़ा सा स्थान घेरा हुवा है ॥
बालक के दोइ दोने बाल बिछौने थोर ।
बाल बहु केलि खिलौने बाल बिलौने थोर ॥
बालक के भोजन के दो ही पात्र है और बिछोने भी थोड़े से हैं ॥ बालक के खेल-खिलौंने बहुंत से हैं किन्तु बालक उन्हें
थोड़ा ही गिराता-ढुलकाता है ॥
बालक बेलि अलोन बालक के आलख थोर ।
बाल गाल बहु सोन पाल लालक सकल कुल ॥
बालक के संगी-साथी रसहीन हैं क्योंकि बालक देखता-समझता थोडा ही है । बालक के कपोल लालिमा युक्त हैं बालक को
सभी कुल जन गोद में लेकर लाड-दुलार करते है ॥
शनिवार ० ६ अप्रेल, २०१३
किन्तु सकल सुख चिन्ह चिन्ह कै । जोगि बिपद ले जावन बिन कै ॥
कोल कौमुदी रह दउ दिन के । बाल पीर गहि ओटन तिन के ॥
किन्तु सारे सुख साहन को देख-देख कर बिन के ले जाने हेतु विपदा प्रितीक्षा कर रही थी ॥ चांदी का आलिगन दो ही दिन रहा
अर्थात दो चार दिन ही सुख पूर्वक बीते । बालक की पीड़ा तिनके के ओट में अर्थात छोटे रोग में बडा कष्ट छुपा था ॥
बाल मुकुल की चंचलताई । बदन लाख लोचन के लाई । ।
बाल कमल की कोमलताई । हरनन बिपदा हरि हरि आई ॥
विपत्ति, बालक की चंचलता, मुख की लालिमा और आँखों की चमक, कमल की पखुडियों के जैसी कोमलता का हरण
करने के लिए धीरे धीरे आई ॥
रहे बदन जे सुहासन सिन्धु । रद आछादन बिन्दुहि बिंदु ॥
सोषन अल-बल सादन साधे । सिद्धत राधे रोग बियाधे ॥
मुख पर जो मृदुल हंसी का सागर था और होठो पर उस सिन्धु की बिन्दुएँ लक्षित थी ऐसे सिधु को शोषण करने के लिए
विपदा, क्लान्ति की साधना करते हुवे रोग व्याधि की सिद्धियाँ प्राप्त कर रही थी ॥
कोतुकि कल दल खेलन खेटे । डाह दहन जल सकल समेटे ॥
अब कल कलरव नाद न नादे । पँवर पीर कै बादर बादे ॥
इर्ष्या की आग में जलती हुई विपदा ने, बालक के कौतुक उत्पन्न करने वाले, मधुर ध्वनि युक्त, समस्त खेल-खिलौने को
रौदते हुवे समेट लिया ॥
बाल नयन कर पाद, बाल असन भासन थोर ।
उदर गुहा बल बाद, उत्सर्ज कर मल बहुस ॥
छोटी-छोटी आँख, छोटे हाथ पाँव हैं, बालक का भोजन थोड़ा सा है, और थोड़े से बोल हैं । उदार गुहा में वायु बल लेती हुई
मल का बहुत ही त्याग कर रही है ॥
रविवार, ० ७ अप्रेल, २ ० १ ३
ठाढ़ न मल दिन प्रति दिन बाढ़े । बहु जतन करे बाढ़ ठाढ़े ॥
बयस अस बदन बोल न आए । बाल पीर कस बोले बताए ॥
मलोत्सर्जन स्थिर नहीं हुवे वे दिन प्रतिदिन बढ़ते गए । वर-वधु ने बहुंत से उपाय किये किन्तु यह बढ़त नहीं रुकी ॥
बालक की आयु अवस्था ऐसी थी कि मुख से बोलना नहीं आता था फिर वह अपनी पीड़ा को कैसे बताता ॥
दुखद बिपद पीडन संकासे । उन्मुख कर सुख परन प्रबासे । ।
तात मात करि रोध प्रयासे । रहि औषध अरु भगवन आसे ॥
दुःख, विपदा और पीड़ा, पास आ गए । मुख ऊँचा कर घमं पूर्वक सुख कहीं और के प्रवासी हो गए ॥ तात -मात
ने मॉल को रोकने के बहुत प्रयास किए । वे भगवा और औषधि की ही आस रखे थे ॥
अब तौ सिसु उत्सर्जन जितौ । मिलै रुधिर रँग बिरेचन तितौ ॥
कौन दिसा को साधन सूले । बेद ज्ञात कर सके न मूले ॥
अब तो शिशु जीते भी मल का त्याग करता उतने में ही दस्तकारी रुधिर का रंग दिखाई देता ॥ कौन सी दिशा से
और किस साधन से यह पीड़ा उपजी । वैद्य पीड़ा के उस मूल को ज्ञात नहीं कर सके ॥
पुनि एक दिन कर कालिक केसे । काल कपट के अभरन भेसे ॥
कूट बचन बस कुटुम कलेषे । अपबाँचन कछु रहे न सेषे ॥
पुन: एक दिन केशों को काला किये, कपट के काले भेष भूषा में मिथ्यावादी वचन के वश होकर कुटुंब में क्लेष
उत्पन्न हो गया ।कहने हेतु कोई भी दुर्वाचन शेष नहीं रहा ॥
एक तौ बालक दिसा बस दुज दसा बिपर्यास ।
दुखित ह्रदय बधु भइ बिबस गमनी पितु के बास ॥
बालक, एक तो अतिसार की व्याधि से ग्रस्त था दुसरे यह विपरीत दशा आन पड़ी । दुखित ह्रदय से वधु विवश
होकर पुन: पिता के घर चली गई ॥
सोमवार, ० ८ अप्रेल, २०१३
पितु घर दिन दुइ चार सिराए । बाल उदर बल दिसा तरलाए ॥
गोद भर माए बैद पहि धाए । पुनि घर औषधी धाम बसाए ॥
पिता के घर रहते दो चार दिन ही हुवे थे कि बालक का पेट ऐंठ कर पतले मल उतारे लगा ॥ गोद में लेकर माता उसे
वैद्य के पास ले कर गई । वैद्य के निर्देशानुसार चिकित्सालय में ही फिर से घर बस गया ॥
जों जों जल मल बाल निकसाए । तों तों घट कै भार घटियाए ॥
निर्जल देह जल सूल चढ़ाए । रोधे उपाए बैद ना पाए ॥
जैसे जैसे जल युक्त मल बालक उत्सर्जित करता वैसे वैसे उसके शारीर का भार घटता जाता । शारीर में जल की मात्रा
न्यून हो जाने के कारण उसे शूल के द्वारा जल आपूर्ति की गई । किन्तु इस उपचार के पश्चात भी वैद्य को मल अवरुद्ध
करने का उपाय नहीं आया ॥
बाल बदन बहु साद दरसाए । ताप धरे जनु कुसुम कुमलाए ॥
नीर नयन बधु बाल बिलोके । पीर सहिर सह असहय होके ॥
बालक का मुख बहुत ही क्लांति दर्शा रहा था । व्यथित हो कर वह ऐसा कुम्हलाया जैसे कोई पुश कुम्हलाता हो ॥
बालक को ऐसी अवस्था में देखकर वधु की आख में आंसू आ गए । वह असहाय हो कर ऐसी पर्वत सी पीड़ा को सह
रही थी ॥
साथ बसे जे आरोग सदन । कही बुझाई बाँच एहि बचन ॥
रहे न तव एक बाल अकेरे । देखु रोग बस भए बहुतेरे ॥
आरोग्य सदन में जो साथ में वासित थे उन्होंने ने वधु को ऐसा कह कर समझाया कि तुम्हारा ही बालक एक अकेला
नहीं है । देखो कितने बच्चों को रोग ने ग्रसित कर रखा है ॥
अरोग सदन रहत बसत पूरित दुइ पखवार ।
बैद जन उपचार करत बिहान मह गए हार ॥
आरोग्य सदा में रहते बसते वधु को एक महीना हो आया । वैद्य गण उपचार करते करते अंत में हार गए ॥
मंगलवार, ० ९ अप्रेल, २० १ ३
बैद बिदित सहुँ नैनन झुकाए । कहे कोउ बर नगर लै जाएँ ॥
मर्म बचन मन भेद प्रहारे । बैद बिदित सन पालक हारे ॥
बैद्य विद्वान इ वधु-वर के सन्मुख आँख झुकाते हुवे कहा बालक को कोई बड़े नगर में ले जाएं ॥ वैद्य के कठोर वचन
के आघात से ह्रदय विदीर हो गया । और उअके साथ पालक भी रोग से लड़ते लड़ते हार गए ॥
भयउ चितबत जी दाइनि दाए । जीउ मरन नंदन हिन्दोलाए ॥
बरे बिरध कहि मंथन कारे । जथा जोग साधन संभारे ॥
माता एवं पिता स्तब्ध हो गए, जीवन और मरण बालक को झुलाए जा रहे थे ॥ घर के बड़े वृद्धो ने सोच विचार कर
कहा, यथा योग्य आवश्यक वस्तुएं एकत्र करें ॥
बालक पालक पठैउ तहवाँ । तनि बर आरोग सदन जहवाँ ॥
एक मुठ अद्य एक पून पुनीते । सोचे देखु अब का फल बीते ॥
तत पश्चार बड़े वृद्धो ने बालक को पालक सहित वहां भेजा जहाँ थोड़ा सा बढ़ा आरोग्य सदन था ॥ एक मुट्ठी में पाप और
एक में पावन पुण्य बांधे, वर-वधु ने सोचा, देखे अब क्या फलीभूत होता है ॥
बाल काय अस रोग न जोगे । पीर बहुस फुर मूरति भोगे ॥
की परिनय पुत के परिनामा । होय भाग अब बधु के बामा ॥
बालक का शरीर ऐसे गंभीर रोग के योग्य नहीं था वह फुल की मूरत बहुत अधिक पीड़ा भोग रहा था परिणय किया तो
परिणाम पुत्र स्वरूप में मिला किन्तु अब रोग ग्रस्त होने के कारण वधु का भाग्य विपरीत हो गया ॥
कारूक कर जब काल कलापे । कल्प कार के कल्पन काँपे ॥
पीछु होइ जानत सब कोई । को जान न अगहुन का हॊई ॥
कला करके जब काल अपने क्रियाकलाप दिखलाता है तो सृष्टि कर्त्ता की कल्पना भी कांप जाती है ॥ भूतकाल की घटना
सर्व विदित है किन्तु भविष्य में क्या घटित होगा यह अविदित है ॥
पर पुर पालक पग परे जुगत जुगत कै साँस ।
ब्यास कर के आस करे सिसु बयस भए छमास ॥
बालक की सांस संजोत पालनहार पराए नगर में पहुँचे । स्वास्थ वर्द्धन की आस करते करते बालक की आयु अवस्था छह
मास की हो गई ॥
बुधवार, १ ० अप्रेल २ ० १ ३
नैनन धनब बादर बांधे । बाल के भुज सिर धरे काँधे ॥
दुज औषधि भवन चरण बढ़ाए । पुनि पालक नव गृहसी बसाए ॥
आँखों के आकाश में अश्रु के बादल को बांधकर और बालक की भुजा और सिर को कंधे से लगा कर पालक ने दुसरे
आरोग्य भवन में प्रवेश किया, नए स्थान पर पुन: एक गृहस्थी बस गई ॥
नव बैदक नव औषधि धामा । घोषत जामिक अर्धन जामा ॥
तहही ब्याधि तह्ही असाधे । नव सिध सुध नव साधन साधे ॥
नए वैद्य गण एवं औषधि सदा में नई नई औषधियां थी । द्वार-पहरी आधी रात की घोषणा कर रहा था ॥ व्याधि वही थी
असाध्यता भी वही थी नए विद्वान वैद्य सुधि लकर नए नए साधो से रोग साधने का प्रयास करने लगे ॥
सूचि मुख भेद सूल सलाके । बाल पानि पद लागे लाखे ॥
भेद बिद्ध बहु सूजत दूखे । नंद नयन भए मंद मयूखे ॥
सुई की नोक का भेदन शलाकाओं सी वेदना उत्पन्न कर रही थीं । जो बालक के पाद और चरण को लाल करती हुई लगी
हुई थी ॥ ओके का यह भे बिन्धित होकर एजी भाग को फुला कर पीड़ा उत्पन्न कर रहे थे । पीड़ा से नादाँ का आँख की कांति
मंद हो गई ॥
सुधाधार धर सरबस सूखे । मलिन प्रभा कर कमलिन मूखे ॥
ह्रदय बिदारित दसा दुखदाई । को बिध कहँ लिखि लेखि न जाई ॥
सुधा के आधार स्वरूप अधर पूर्णतः शुष्क हो गए । बालक की ऐसी अवस्था को किसी भी प्रकार से लेखनी से कहते हुवे
लिखी नहीं जा रही, यह दुखदाई दशा ह्रदय को विदारित करने वाली थी ॥
मृदु मूरति गह सूलक भाले । हे भगवन हमारे तन घाले ॥
कहत बचन अस कलस दुआरे । माँगत बर पितु झोरी पसारे ॥
कोमल मूर्द्धा से शूल और भाले लेकर हे भगवान इन्हें हमारे शरीर में लगा दो । ऐसे वचन कहते हुवे मंदिर की चौखट पर
पिता झोली पसार के वरदान मांग रहे थे ॥
बट बट कोर कलस बने भगवन एकहु न पाए ।
जब लालन मुख लाखने बाल सरुप मुसुकाए ॥
मार्ग मार्ग पर मंदिर बने हुवे थे किन्तु भगवान एक में भी नहीं मिले जब लाल का मुख देखा तो वह उसमें मुस्कराते बालक
स्वरूप में मिले ॥
गुरूवार, १ १, अप्रेल, २०१३
मात पिता पुत चितब निहारे । भरे कंठ कँह का रे का रे ॥
बार बार मुख चुम्बत माथे । सिसक सिसक सिरु फेरत हाथे ॥
माता -पिता पुत्र को एकटक निहारते हुवे भरे कंठ से कह उठे क्या हुवा ! क्या हुवा रे ! बार बार बालक के मुख और माथे का
चुम्बन लेते सिसकते हुवे सर पर आशीर्वाद स्वरूप हाथ फेरते ॥
लख लख लाखन लाखन लैखे । बुद्ध प्रबुद्ध बैद बहु पैखे ॥
मति मथित कर परस्पर बोधे । को सिद्धि पर मल ना रोधे ॥
बड़े बड़े विद्वान वैद्य बहुश: बार बालक की निरीक्षा-परीक्षा करते, रोग लक्षणो को लिखते ।। मत विचार कर परस्पर बात करते
किन्तु ऐसी कोई सिद्धि नहीं मिली जिससे मल को अवरुद्ध किया जा सके ॥
कहन उपचरक चारै चारे । सके न उपचित मल संभारे ॥
कारक जान न कारन जाने । बिषय बिषेसग जग जन माने ॥
कहने को तो शास्त्र- विहित, चिकित्सा-कार्य का अभ्यास करने वाले विद्वान सेवक थे किन्तु बढ़े हुवे मॉल का उपचार
करने में असमर्थ थे । न तो रोग उत्पन्न करने वाले कारक को जान पाए न ही उसके कार को जान पाए और थे वे
बालरोग के जाने-माने विषय विशेषज्ञ थे ॥
करुबर रोगह उदर उतारे । असक कसक सिसु सक कसकारे ॥
सोष सार सत सकल सरीरे । रोग हरिक सरि हरनै हीरे ॥
कड़वी कड़वी औषधियाँ पेट में उतारते, शिशु असहनीय पीड़ा को भी कसकाते हुवे सह लेता ॥ रोग शरीर के समस्त
सार-तत्व को शोषित कर चोर के सदृश्य शिशु की शक्ति की चोरी कर रहा था ॥
हरिन ह्रदयारत कारत रोग बिषनि के बीष ।
भए सिसु के सांसन फाँसत पर पुर बासर तीस ॥
सर्प के विष के सदृश्य रोग कोमल ह्रदय में टीस भरते हुवे,सर्पों द्वारा शिशु की सांस को फांसते हुवे पराए नगर में रहते
एक मास की अवधि हो आई ॥
शुक्रवार, १ २ अप्रेल, २०१३
जीउ रुपन रुप रन घन घोरे । कवलन काल कराल अगोरे ॥
रोगह जोध रोगानु हराए । इहहीं भय सब बैदु असहाय ॥
जीवन घघोर युद्ध के रूप में रूपांतरित हो गया था । भयंकर काल कवलित करने हेतु प्रतीक्षा कर रहा था ॥ औषधि रूपी
योद्धा को रोग के विषाणुओं ने हरा दिया । यहाँ भी सभी वैद्य असहाय हो गए ॥
तहहि देइ सकल बुद्ध उत्तर । कहें जाएँ नगरी औरन बर ॥
श्रवन ऐसेउ बचन कठोरे । नयनज बांधि ठहरे न ठोरे ॥
यहाँ भी सभी वैद्य विद्वानों ने उत्तर देते हुवे कहा कि बालक को किसी और भी बड़ी नगरी मन ले जाएं ( जहां उत्तम उपचार
व्यवस्था उपलब्ध हो )। ऐसे कठोर वचन सुनकर अश्रु का बाँध अपे स्था पर रुका नहीं अर्थात बह चला ॥
सौम सरिल सरि सूखी बानी । जनु तपस तप सुखे कन धानी ॥
रोदत बधु कहि कछु कर सोचें । मोर पिया तुम संकट मोचे ॥
जो वाणी शांत रस के जैसी थी वह शुष्क हो गई मानो तपते सूर्य ने खेत की उपज को शुष्क कर दिया हो वधु ने रोते हुवे
कहा मेरे प्रियतम तुम तो संकट के मोचक हो अत: कुछ भी सोचो कितु बालक को स्वस्थ कर दो ॥
धरे दो ही अखरी में आखर । हां हां हि कहे सीस हिला कर ॥
बोले अब को नगर ले जाएँ । कहि बयस कर जहँ रोग सिराए ॥
प्रियतम न वर्ती में दो ही अक्षर पिरोते हुवे सिर हिला कर केवल हाँ हाँ कहा और बोले अब कौन सी नगरी ले जाएँ जहाँ
बालक स्वास्थ वर्द्धन करे और रोग से पीछा हूटे ॥
पूछे सकल जन परिजन संकट सोच बसाए ।
बिरध बुध नात सयाने तब एक नगर सुझाए ॥
संकट का विचार करते हुवे प्रियतम ने सभी बुद्ध जनों एवं कुटुम्बियों से मंथन किया । बड़ों ने और सयाने सगे-सबंधियों
ने फिर एक नगर सुझाया ॥
शनिवार, १ ३ अप्रेल, २ ० १ ३
बढ़े रोग भए दनु बिकराले । गहनु गहि तेहि दंस कराले ॥
कहे बैद अनु बहु संचारे । लै जाहु तनिक कर संभारे ॥
रोग ने बढ़ कर विकराल दानव का रूप ले लिया, और उसके भयंकर दांत बालक के शरीर में गहरे धंसते चले गए ॥ वैद्यक
ने कहा रोगाणु बहुंत अधिक संक्रामित हो गए हैं अत: बालक को थोड़े ध्यान पूर्वक ले जाएं ॥
कछु लहने जीवन के लाहू । सरल सुगम अस साधन जाहू ॥
ऐसेउ ठोर डेरन डारें । जे कर सक एहि रोग सुधारे ॥
ऐसे सरल एवं सुगम साधा में जाएँ कि बालक के जीवन को कुछ लाभ प्राप्त हो ॥ ऐसे स्थान पर उपचार करवाएं जो ऐसे
गंभीर रोग का उपचार करने में सक्षम हों ॥
पिया तुर जनि नगरी अहोरे । गुहिल बहेरन एक दिन होरे ॥
गहे गुहेरे तनि निज जोरे । तुरंग गति तुर तुरत बहोरे ॥
प्रियवर तत्काल ही जन्म नगर गए । धन संकलित करने हेतु वहा एक दिवस ठहरे ॥ कुछ अभिभावकों ने दिया और कुछ
स्वयं द्वारा संचयित किया हुवा लिया, और घोड़े जैसी गति से चलकर तु्रन्त लौटे ॥
अरोग सदन पर पुर रहे जे । ले सन संजुग सकल सहेजे ॥
पवन बिमाने बहु द्रुत गति कर । गवनु बर धानि राजत ता पर ॥
पराई नगरी के आरोग्य सदन में जो वास वस्तुवे थीं उन्हें संगृहीत कर बहुत द्रुत गति से वायुयान में विराजित होकर बड़ी
धानी गये ।
दुइ काल खंड गह तहँ असने । पुनि नव पुर महँ बासे बसने ॥
कर बैद नउ सेव आरम्भे । प्राग रोग पर नौ आलम्बे ॥
दो घंटे में ही पालक वहां पहुँच गए नए नगर में पुन : नई वसति वासित हो गई ॥ वाद्य गणों ने नई चिकित्सा सेवा आरम्भ
कर दी, रोग वही पुराना था कितु सहारा नया था ॥
तहँहि बहु रहे सिद्धित साधे । धरे बहुस बर उपाधि राधे ॥
बालक बिभु बेदक बिधि धारे । जूथक करी गहन उपचारे ।।
वहाँ भी निर्धारित मत के आधार पर लिखित चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन द्वारा प्राप्त उपाधि को धारण किये श्रेष्ठ चिकित्सक थे ।
बाद्य शिशु रोग की विशेषज्ञता धारण किये हुवे वैद्य समूह ने शिशु का गहन उपचार हेतु किया ॥
बहु बिधानत बैद बिदुर बाल बिषय के जोग ।
पेखि पर कहि बाढ़े बहुर बालक के मल रोग ॥
फिर इन शिशु रोग के विशेषज्ञ वैद्य विद्वानो ने विधान पूर्वक निरिक्षनोपरांत कहा कि बालक का रोग बहुत ही बढ़ गया है ॥ ( हम
स्वस्थ करने का प्रयास करेंगे)
रविवार, १ ४ अप्रेल, २ ० १ ३
परखन नलिके सूल सँभारे । सीकर सीकर रुधिर निकारे ॥
कभु को नलि उत्सर्जन लहने । बहु प्रजोग कर निरिखत गहने ॥
परख नलियाँ और सूचिका तैय्यार कर शिशु के रक्त की बूंद बूंद इकाल लीं । कभी वे किसी परखनली में उत्सर्जित मल-मूत्र
को एकत्र करते और बहुत सारे प्रयोग कर उसकी गहन परीक्षा करते ॥
जानन अनु को मूल उगाहू । बार बार पर हार अलाहू ॥
लेवत लेवत रुधिर घट आए । बारहि बार दै सूल चड़ाए ॥
यह ज्ञात करने के लिए कि रोग के अणु कहाँ से उत्पन्न हो रहे है किन्तु यह ज्ञान अप्राप्त होता और वे बार बार असफलत होते
बार बा लेने के कारण शिशु के शारीर में रक्त की मात्रा न्यून हो जाती । और वैद्य बार बार उसे सूचिका द्वारा चढ़ाते ॥
निरखत बालक के कसकारी । झरि पालक के लोचन बारी ॥
बाल चरन कर भालक बाने । लाग जनु को साँसत प्राने ॥
बालक का यह कष्ट देखकर पालक की आँखों से जलधारा बहने लगती ।। बालक के हाथ-पैरों में बाण और भाले ऐसे प्रतीत
होते जैसे कोई बालक को प्रताड़ित कर रहा हो ॥
धँसे देह जनु सायक सेजे । जान न कहँ पर प्रान सहेजे ॥
जान न बोल बाल कस भासे । रोग दुःख धँसे सूलक कासे ॥
ये बाण और भाले देह में ऐसे धसे थे मानो यह सर सय्या हो । जी खान था यह तो था किन्तु शिशु ने प्राण सहेजे हुवे थे ।। शिशु को
वाणी का ज्ञान नहीं था वह हँसे हुवे शुलों की दुःख पीड़ा और कष्ट कैसे जताता ।
दहत देह दरसत कार जरत रोग के भाड़ ।
चामोभर चित्रन उतार दरसे तन के हाड़ ॥
रोग की भट्टी में जलते हुवे शिशु की देह में सांवलापन आ गया । और त्वचा पर शरीर की हड्डियों का चित्र दिखाई देने लगा ॥
सोमवार, १ ५ अप्रेल, २ ० १ ३
एक बार ते मूर्छित वासे । बालक साँसे करत उसाँसे ॥
जतन बैद बह जंत्र बहाए । सयनित प्रतिबोध बिधाए ॥
एक बार तो बालक, ऊपर की और खिचते लम्बी-लम्बी सांस लेते हुवे मूर्छित हो गया । तब वैद्यगण ने वायु प्रवाहित यन्त्र से
वायु प्रवाहित कर मूर्छा के कारण सुप्तावस्था में गए बालक को जागृत किया ॥
भए बहु दिन इहहीं बिष्ठे । मात-पिता नहिं रूधत दृष्टे ॥
सूझ न पाए को अरु उपाए । को रथ-पथ अब कोन पुर जाएँ ।।
माता-पिता को यहाँ भी देखते बहुत दिन हो गए, मॉल था की रूढ़ता ही नहीं था । और उन्हें कोई उपाय भी नहीं सूझ रहा था कि
अब बालक को किस रथ-वाहन से, किस पथ में कौन सी नगरी ले जाएं कि जहां वह स्वास्थ वर्द्धन करे ॥
असकत कसकत दुसर दुआरे । भए दुइ पाखे बहु दुखबारे ॥
पुनि एक अह अह औषध आले । बैद बिरध जन करि हट ताले॥
दुसरे द्वार में असहाय कष्ट भोगते बालक को बहुंत ही दुःख करते दो पखवाड़े अर्थात एक मास का समय व्यतीत हो गया था कि
तभी आह ! एक दिन उस औषधि सदन में वैद्य विद्वानों ने किसी कारण वश हड़ताल कर दी ॥
हरि हरि रोगिन दैं अवकासे । सब जन जहिं कहिं औरन बासें ॥
बर बधु सन कहि एहिं पुर रहहू । समउ पर हमर निदेस लहहू ॥
धीरे धीरे वे रोगियों की छुट्टी करने लगे और खा सब रोगीगन कोई और औषधि सद में उपचार करवाएं ॥वर-वधु को भी छुट्टी
देते हुवे खा की अभी आप वापस मत जाइए, यही इसी नगर में कहीं निवास कीजिए और समय-समय पर हमसे उपचार से
सम्बंधित निर्देश लेते रहिए ॥
पाल बाल हिरदे लाए नीरुज सद के पास ।
लै दसन पुनि बसि बसाए एक भल नतैत बास ॥
पालक, बालक को ह्रदय से लगाए आरोग्य सदन के निकट ओढ़-बिछौने लेकर एक भले सम्बन्धी के निवास में पुन: घर बसा लिया ॥
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