मंगलवार, १ ६ अप्रेल, २ ० १ ३
भल कह जग जे भलमनसाहू । असमरथ जेहिं समरथ दाहू ॥
नहीं त जग मह जन बहु बासे । तमो गुनी नख नगन अगासे ॥
संसार उसी को भला कहता है, जो असमर्थ को समर्थता प्रदान करते हुवे भलाई के कार्य करते हैं ॥ अन्यथा जगत में
बहुत से लोग बसते है जो गगन के नगण्य तारों के जैसे होते है जो धरती को प्रकाशित नहीं करते ॥
नगरी नतैत करि बहु सहाए । ताके सह लिखि कही न जाए ॥ बहुत से लोग बसते है जो गगन के नगण्य तारों के जैसे होते है जो धरती को प्रकाशित नहीं करते ॥
एक नतेत निज निकट भवन में । ना कह हठ करि ले गए सन में ॥
जहाँ बालक का उपचार हो रहा था वहाँ बसे सगे सम्बन्धियों ने बहुत ही सहायता की । उनकी सहायता लिख कर कही
नहीं जा सकती ॥ उनमे से एक समबन्धि, पालक के द्वारा ना कहने पर भी हठ पूर्वक वास हेतु अपने निकट के भवन
में ले गए ॥
बर-बधु तहही तनि सकुचाहीं । बिनय करत कहिं नाहीं नाहीं ॥
करे सेव ते बिना सुवारथ । चित मह रह बस पूनि के अरथ ॥
वहां पर वर वधु को थोड़ा संकोच तो हुवा और वे विय पूर्वक ना ना कहने लगे । किन्तु उन सगे-सम्बन्धियों ने बिना
किसी स्वार्थ के मन में पुण्य प्राप्त करने की इच्छा रखते हुवे बालक की बहुंत ही सेवा की ॥
दीठ बाल बहु पाल अकुलाएँ । बार बार जब कंठ भर लाएँ ॥
तब नतेत भल भाव गति गाएँ । बयस करहीं कह कही बुझाएँ ॥
जब बालक को देखते हुवे पालक व्याकुलित होते हुवे बार-बार गला भर लाते तब वह सम्बन्धी, बालक अवश्य ही स्वास्थ
वर्द्धन करेगा ऐसा कह कर सुन्दर विचारों का पाठ करते ॥
भवन खन सयन आसनदेई । अनुग्रह कर मुख रासनदेई ॥
भवन खंड में सयन कक्ष दिया और अनुग्रह पूरित भोजन की भी व्यवस्था की ॥
अस बिधि बाल दोलत रहि जीउ मरनि के झूल ।
पर अब देहि रहे नही सर सायक के सूल ॥
इस प्रकार बालक जीवन मरण का झुला झुलता रहा । किन्तु सुख की बात यह थी की अब उसके देह में बाणों की शूल -
सय्या नहीं थी ॥
बुधवार, १ ७ अप्रेल, २ ० १ ३
पोंछत मल बहु कटि भरि छाला । देखि पाल दुःख सन्मुख बाला ।।
काल के फाँस कंठन घारे । नयन मीच सिसु बदनन डारे ॥
मल पोंछते पोंछते कुलाहों में छाले भी हो गए थे । बालक के ये सारे दुःख पालक विवश होकर दख रहे थे ॥ काल का फांस
था की बालक के कंठ में घेरी लगाए हुवे था शिशु के अयन बंद हो गए थे और उसकी देह निढाल हो चली ॥
रोगनु रसरी गल रसे रसे । परे सिथिल ना बहु कास कसें ॥
सिसु सरीर सब सार निचूरे । रोग जुधत भए थकि बहु चूरे ॥
रोगाणुओं की रस्सी धीरे-धीरे गले में कसती जा रही थी वह किसी भी उपाय से शिथिल नहीं हो रही थी शिशु के शारीर की सारी
शक्ति निचुढ़ गयी और वह रोग से जूझते-जूझते थक गया था ॥
पद पेटक कर हाड़ न मांसे । धंसे गाल पर पेशी कासे ॥
देउ समऊ को पाल निभाएँ । औषधि भवन निस दिवस सिधाएँ ॥
पेर पेट और हाथ में की हड्डियों में बचा धंसे गाल पर की मांस पेशियाँ उभर आईं ॥ पालक दिए हुवे समय को निभाते हुवे
प्रत्येक दिवस औषधि सदन जाते ॥
रक्त रवन जे तन संचारे । कहि धावन ते अब हम हारे ॥
बर बधुटी गह गोद कुंआरे । जोगि बयस कर धीरजु धारे ॥
विचरण करता हुवा रक्त संचार तंत्र भी उत्तर देते हुवे कहने लगा अब हम नाड़ियो में दौड़ दौड़ कर थक चुके हैं वर वधु-वधु,
बालक को गोद में धरे धैर्य पूर्वक स्वास्थ के प्राप्ति की प्रतीक्षा कर रहे थे ॥
पालक नयन नेह कार बालक रहे निहार ।
तिलछ्त हिय करुनाधार तिरत तोय के धार ॥
स्नेह पूर्वक बालक को निहारते हुवे करुणा के आधार होकर, व्याकुलता में पालक के आँखों से जलधारा प्रवाहित होने लगती ॥
गुरूवार, १ ८ अप्रेल, २०१३
बालक कभु कभु सुधी सहारे । कोउ पल नयन पलक उघारे ।
मनु कह रहे हम जी हारे । बहु कातर कर मात निहारे ॥
बालक कभी-कभी ही सुध में होता, कोई पल को ही वह पलकें उठाता बहुत ही कातर दृष्टि से माता को निहाराते हुवे मानो वह
कहता की हे माता ! अब हम जीवन हार चले हैं ॥
रोवहिं सोक कर दोउ पाले । सिसकत बहु उर लावत लाले ॥
रोग दे लाह रोधन मनाएँ । पर मल के कछु मन नहीं आए ॥
माता-पिता शोक के विवश होकर रोते और बहुत ही सिसकते हुवे उसे छाँती से लगा लेते । रोग को लालच दे कर रुकने के लिए
मनाते किन्तु मल के कुछ भी मन नहीं आता ॥
उर भित ममता बालक चाहे । विपद करक कह काहे काहे ॥
पालक सिहरे सोच उसाँसे । कहीं ले जइ न सिसु के साँसे ॥
ह्रदय अंतस का ममत्व बालक को चाहता । किन्तु विपदा कठोरता पूर्वक कहती क्यों, क्यों । पालक उच्छवांस लेते हुवे यह
सोच कर सिहर जाते, कहीं यह विपदा शिशु की सांस न हरण कर ले ॥
रोगानु के सहस बल बाहू । औरउ पासे लंबित लाहू ॥
बहुसह बिनय करें कर जोरे । छोरु लाल को पाँ परि तोरे ।।
रोगाणुओं के बलशाली सहस्त्र हस्त थे वह और भी लम्बे होकर बालक को कसते चले गए । पालक हाथ जोड़ कर बहुत याचना
करते हुवे कहते तुम्हारे पाँव पड़ते हैं, हमारे लाल का पीछा छोड़ दो ॥
नगरी नगरी डगरी डगरी लै बाल पाल भँवरे ।
बहु सयन धरे औषधी करे रोग कहुँ न सँभरे ॥
गहरर गहबर करुना सागर नयनन ते उतरे ।
दोनु कंठ भरि निर्नय करि अब चरनन बहुरै ॥
नगर नगर, डगर-डगर बालक को लिए पालक घुमते रहे, आरोग्य सदनों की बहुंत सी ग्रहण की किन्तु व्याधि का कहीं भी
रोकथाम नहीं हुई ॥ भावपूर्ण एवं शोक विह्वल होकर वर वधु की आखो से करुणा का सागर उमड़ पड़ा ॥ दोनों ने भरे कंठ से यह
निर्णय लिया की अब हमें वापस लौट चला चाहिए ॥
धरे बयस के आस फेर चरन चहुँओर ।
फिरे जनमन निवास हो हतास हतस्वास ॥
शिशु के स्वास्थ की आशा में चोरो दिशाओं में भ्रमण कर वर-वधु हताश व निराश होकर जन्म स्थान हेतु लौट चले ॥
शुक्रवार, १ ९ अप्रेल, २ ० १ ३
चतुर पाख बर नगरी होरे । डरपत कांपत चरन बहोरे ॥
जाग करत जब अलसत भोरे । तेहि दिवस रहि होरक होरे ॥
महानगरी में कुल चार पक्ष अर्थात दो मास तक अधिवासित होने के पश्चात वर-वधु, इस विचार से डरते और कांपते हुवे कि शिशु को
कही कुछ हो न जाए जन्म नगरी में वापस लौट आए ॥ उस दिन भोर, अलसाते हुवे बस जागृत हो रही थी और होली का त्यौहार था ॥
पुरजन कहँ भइ होरि आई । उलस उमग भरि लोग लुगाई ॥
पर बर बधु कह ह्रदय हिलोरे । को बिध सिसु के सांसनु जोरे ॥
नगरवासी होली के उत्सव में मग्न होकर कह रहे थे कि भाई होली आई, और समस्त स्त्री-पुरुष उमंग एवं उल्लास से परिपूर्ण थे ॥
किन्तु वर-वधु का ह्रदय विचार उठ रहे थे कि किस प्रकार बालक की सांस सहेजें ॥
सांझनु बालक बहुत कसकाए ।रोगन आरति बदन दरसाए ।।
मात दिसत बहु बिलखत रोई । गहन राति भुज सिरु धरि सॊई ॥
साझ के समय बालक बहुत ही तड़प रहा था मुख पर रोग जनित कष्ट दर्शित हो रहा था ॥यह देखकर माता बिलखते हुवे रोते हुवे
शिशु का सर अपनी भुजाओं पर रख कर देर रात में सोई ॥
दिनु कांत जूँ द्योतिस दाने । पाखि कलरव कह भए बिहाने ॥
उयस मात जब बाल सँभारे । बिमोचित कंठ मुख चित्कारे ॥
सूर्य ने जैसे ही ज्योति का दान किया पक्षियों ने कलरव करते हुवे कहा भोर हुई जागृत होकर माता ने जब बालक को सम्भाला तो
मुख से तीव्र रुदन चीत्कार का उद्घोषण हुवा ॥
भूत प्रभंजन कार भव सूल सिन्धु के पार ।
निकस देह जंजार बिमुकुति पंथ प्रान चरे ॥
अनिल,अनल, अवनि, जल और आकाश से युक्त पंचतत्व से विघटित शिशु के प्राण, इस संसार सागर के भौतिक दुखो को पार
करते हुवे, देह रूपी जंजाल से निकल कर मुक्ति मार्ग पर प्राण चलायमान हुवे ॥
आए पवन के झौंक ते पोथी दिये उड़ाए ।
आए काल के धौंक ते पत पत दिए बिथुराए ॥
वायु का एक झोंका आया और जीवन ग्रन्थ उड़ा ले गया । काल की तीप्त वायु बही और सांस रूपी पृष्ठों को बिखरा दिया ॥
काल ने फूंक मारि के दीपक दिए बुझाए ।
पालक भवन अटारि पै गहन अँधेरी छाए ॥
काल ने फूंक मार कर दीपक को बुझा दिया पालक के भवन खंड में गहन अन्धकार छा गया ॥
संवत दू सहस छप्पन पावत पाल सनेह ।
चैते कृष्ना एकम दिन तज्यो बालक देह ॥
संवत २०५६ के चैत्र मास के कृष पक्ष की प्रथम तिथि को, पालक का स्नेह प्राप्त करते हुवे बालक ने अपने प्राण
त्याग दिए ॥
शनिवार, २ ० अप्रेल, २ ० १ ३
नौ मास दोइ बासर धारे । बाल बयस मह बाल सिधारे ॥
पीर असक सक उरसक भीते । मानहु जस एक जुग ही जीते ॥
नौ माह और दो दिन की अवधि लिए बाल आयु अवस्था में ही शिशु का देहावसान हुवा । ह्रदय ने असहनीय पीड़ा को इस प्रकार
सहा कि यह बाल काल जैसे एक युग के समान हो गया ॥
पुत प्रसूत भइ पुत हीना । आजु हिया धरि धीर कहीं ना ॥
बिलपत बालक कंठ लगाई । उर बिदर जस बिद्रित बदराई ॥
आज पुत्रवती माता का ह्रदय पुत्र हीन होकर धैर्यहीन हो गया, वह बालक को कंठ से लगा कर रोती बिलखती रही, उसका ह्रदय
ऐसे विदीर्ण हुआ जैसे कही कोई जल की बदली विद्रित होती हो ॥
घारे घन कन नयन पपोटे । रहे बाँधि जे बहु दिन ओटे ॥
धारि धार रूप धारासारी । दिसत लघुत सरि सागर बारी ॥
जिन जल बूंदों को बहुत दिन से पलकों ने बाँध कर रखा था । आज वो घनी बूंदें पलकों पर उतर आईं और लगातार बहती हुई
महा वृष्टि के रूप में परिवर्तित होते हुवे एक लघु सागर जल के स्वरूप में संचित होती दिखाई देने लगी ॥
घनबर रस धर बाहन बादे । लागे लघुतम घन के नादे ॥
कँह जनन उमग भवन छलकाए । कँह मरन विलाप धुनि निकसाए ॥
माता का मुखड़ा स्थिर होकर हथौड़े के प्रहार के जैसे शोर करने लगे इअके आगे बादलों की गर्जना भी निन्दित हो रही थी ॥ कहाँ
तो भवन में शिशु के जन्म के उत्सव का उल्लास छलक रहा था, और कहाँ मृत्यु के विलाप ध्वनी निकल रही है ॥
को दिन जब बर भूषित नारी । आइ भवन जनु जात तिहारी ॥
को दिन अब कर कंठन भारे । बहुत बिलापत बधुटि सँभारे ॥
वह भी कितना शुभ दिन था कि जब हिहू जन्म के उत्सव पर उत्तम विभूषण युक्त होकर नारीयाँ भाव में चली आ रहीं थीं और एक
यह दिन जब नारीयाँ कंठ भारी करके बहुत ही विलाप करती हुई वधु को संभाल रही थी ॥
को दिन रस सुर मंगल रागी । आजु अमंगल राग अरागी ॥
को दिनु बालक बहु झुरे झुराए । आजु ले सव उड़ने उड़ाए ॥
एक वह भी दिन था भामिनी रसमय, सुन्दर स्वर युक्त, मंगल गीत गा रही थी, एक आज का दिन है कि यही भामिनी स्वर हीन
अमंगल गा कर रहीं थी । एक वह दिन था जब बालक को गोद ली सबजन झुला रहे थे और आज का यह अशुभ दिवस की सब
उसे शव आच्छादन उड़ा रहे है ॥
को दिनु जब बहु फुरि फुरबारी । चारु चँवर अट दुअर अटारी ॥
आजु बिलापत अटारि डारी । सोक करष कर संतत हारी ॥
वह भी एक शुभ दिवस था कि भवन की फुलवारी प्रफुल्लित थी, छज्जा और द्वारी झालरों से अटी हुईं थीं और आज का यह अशुभ
दिन है कि अटारी और पुष्प डालियाँ शोकाकुल होकर विलाप करती हुई दुःख के ताप से कांटेसे युक्त हो गईं है ॥
ताप सागर ते तपकर सोक के सरयु छाए ।
बिलपत धरनि सन अम्बर लोचन जल बरसाए ॥
दुःख के सागर से तापित होकर शोक की बदली आच्छादित हुई धरती के साथ आज अम्बर भी विलाप कर आखों से जल की वर्षा
कर रहें हैं ॥
रविवार, २ १ अप्रेल, २ ० १ ३
सुतदा बत्सर गहि गोदी कर । कहत दुलारन धरु पयस अधर ॥
भए दुखित बचन बैने परिजन । सुत जननी के धरनी के तन ॥
पुत्रवती माता, वात्सल्य रस में अनुरक्त होकर बालक को गोदी में पकडे कह रही है की मेरे दुलारे दूध पियो दुखमय होकर परिजनों
ने माता से कहा पुत्र जाई का है और तन अब पार्थिव अर्थात धरती का है ॥
सिस पितावन माँगे लैजावन । माता रही पर लसित लालन ॥
अंबांब भर अंक रहित कर । बालक हठ धर छीने प्रियबर ॥
और शिशु को पितृ उद्यान में ले जाने हेतु माँगने लगे । किन्तु माता लाल को गोद में चिपकाए रही ॥ आँखों में जल भर कर और
गोद को रिक्त कर प्रियवर ने बालक हठ करते हुवे छीन लिया ॥
करुनोदक के उदधि उछाही । तात उरस ले सिस अवगाही ॥
सोक बिकल बल उदमदनै तँह । भुज दल अंतर धरे पितामह ॥
करुणा जल का सागर उमड़ पडा और पिता बालक को ह्रदय से लगाए उस सागर में डूबते चले गए । जब शोकाकुल होकर सुध
बुध गवाँ बैठे तब पितामह ने बालक के पार्थिव शरीर को गोद में भर लिया ॥
न कोउ सिबिका न कोउ साधन । बाल गहे एक सव आछादन ॥
गोद भरे सव सयन लई जाए । सव गह भवन सुख सयन सुलाए ॥
न कोई अर्थी न कोई शास्त्रोक्ति बालक केवल एक शव आच्छादन से आच्छादित किये गोद में भरे शव स्थान ले चले । और शव
भवन की सुख-सयनिका में सुला दिया ॥
निरखत कोनइ कोर माइ बिकल रही न थोर ।
बाल गयउ किस छोर भरे उरस पयसन बहुत ॥
समस्त कोनों में सभी कगारों में देखते हुवे माता बहुंत ही व्याकुलित होकर पूछने लगी । बालक कहाँ गया ? मरे वक्षो में बहुत
ही परम रस उतर रहा है,वह पिता क्यों नहीं ॥
आसित बासित थोर आसन बासन सब छोर ।
बाल गयउ किस ओर पथ निहारे नयन बहुत ॥
थोड़ा ही बैठा है थोड़ा ही सोया है वह आसन स्थान छोड़ कर किस दिशा में चला गया । माता उसके आने की बहुत ही प्रतीक्षा कर
रही है ( वधु ने विलाप करते हुवे ऐसा प्रलाप किया ) ॥
रे भोरी तव बाल कर कवल लै गई काल ।
तनिक चेत संभाल कँह प्रियजन रोऊ बहुत ॥
तब प्रियजनों ने बहुंत हो रोते हुवे कहा अरे अबोध ! तेरा बेटा काल के ग्रास हो गया। अचेतन मस्तिष्क को चेत में लाते हुवे
विवेक को जगा ॥
सोमवार, २ २ अप्रेल,२ ० १ ३
तनिक बेर मँह चेतस लाई । छिन छबि उर पर छीतीछाई ॥
मेघ पुहुप मुख मंडल माले । नयनोतर धरे धरनि भाले ॥
थोड़ी ही देर में वधु की चेतना जागृत हुई । एक बिजली सी गिरी और ह्रदय को विदीर्ण कर गई ॥ मुख मंडल पर घने बादल छा
गए , नयनों से पुष्प स्वरूप जल माल धरती के माथे पर उतारते चले गए ॥
जनम दाए दुःख करि बहु भाँती । बाल बिथुर भै बिदरित छाँती ॥
कलप अलापत आरति राधी । दुःख पूरित मुख बादन नादी ॥
जन्म दात्री बहुत प्रकार से शोक कर रही थी । बाल-वियोग से उसका ह्रदय विदीर्ण हो उठा आह का अलाप करती पीड़ा से विकलित
होकर मुख से शोक पूर्णित कथन कहने लगी ॥
सोचत सुमिरत बाल मुकुन्दे । कहति चरित छबि मुखारविन्दे ॥
बखत ऐसन दुह दिन दरसाए । को कर कहुँ कर सके न सहाए ॥
बालक का स्मरण और ध्यान करते हुवे उसके कमल के समान मुख की छवि का गुण गान करती ॥ समय ने ऐसा कठिन दिवस
दिखाया जो किसी भी प्रकार से कही से भी सहनशील नहीं था ॥
रोग सरन करि मरनिहि काले । लै गइ पासत कंठन घाले ॥
कह प्रियजन जग बिधि के मंचन । जिउत मरब सब बिधित प्रपंचन॥
रोग के प्रसस्त किए मार्ग पर मृत्यु आई और बालक के कंठ में फंदा डाल कर ले गई ॥ वधु के ऐसे वचन सुनकर प्रियजनों ने कहा: --
यह संसार विधाता के कार्य कलापों का क्षेत्र है जीवन -मरण सब इसी के द्वारा रचाई हुई माया है ॥
सोक जुगत भए पहर अढ़ाई । रँह गहजन बहु धीर बँधाई ॥
रहे जुरे जे सकल समुदाए । साद सरनय निज भवन सिधाए ॥
शोक युक्त होते हुवे दोपहर हो आई । गृहजन बहुत ही ढांडस बंधा रहे थे ॥ समुदाय के जो पुरजन एकता हुवे थे वे दुखित होते, अपने
अपने घर को प्रस्था किये ॥
कह चले जन कोमलि वय दारक दारक दाप ।
दु हृदया भै एकल ह्रदय गहे सोक संताप ॥
ये पुरजन कहते जा रहे थे कि, एक तो वधु की यह बाल अवस्था, उसपर बालक का यह विदीर्ण करता हुवा दुःख । जो वधु बालक
के साथ दो ह्रदय की हो गई थी वह अब एकल ह्रदय में बालक का यह दुःख गहन किये है ॥
मंगलवार, २ ३ अप्रेल, २ ० १ ३
नैनन निर्झरि रूधत नाही । दिन मह अँधेरि रात समाही ॥
बीतत दिवस कहूँ को भाँती । कोउ जुगत उर परे न सांती ॥
वधु के यानों की निर्झरणी थम नहीं रही थी, झरती ही चली जा रही थी । ( संताप के कारण ) इवस म ही अधेरी रात्रि का समावेश
प्रतीत हो रहा था । किसी भी प्रकार से ह्रदय शान्त नहीं हो रहा था ॥
डूब पहर दुज रयनि रुराई । अरु कुल दीप बुझावत आई ॥
देखि बहुस दिन पर अस नाही । भयऊ बधु के दुःख दुरगाही ॥
पहर समाप्त हुवा दिवस रूपी एक रात्रि का अवसान हुवा तो कुल का दीपक बुझाते हुवे दूसरी रात्रि रुलाने आ गई ॥ वधु इ बहुत दिन
देखे थे किन्तु ऐसा दिवस नहीं देखा था वधु को ऐसा दुःख आन पड़ा जिसको नियंत्रित करना कष्ट साध्य था ॥
पुनि प्रियजन बधु कह समुझाईं । जिउ जावन सह जाए न जाई ॥
टारे न टरत रचे बिरंची। मरनिहि माया बहुत प्रबंची ॥
प्रियजनों ने वधू को पुन: समझाया, जाते हुवे जीवन के साथ जाया नहीं जाता । विधाता ने जो रच रखा है उस कोई चाह कर भी
परिवर्तित नहीं कर सकता ॥ मर की जो यह माया है वह बहुत ही कौटिल है ॥
व्यथित बिथकित बधु लै जाईं । सयन सदन पलकन पौढ़ाईं ॥
बारि नयन भर सदन बिलोके । बाँधी हिचकी मुख रो रो के ॥
व्यथित एवं दिन भर की थकी वधु को ले जाकर प्रियजनों ने सयन कक्ष में पलंग पर लेटा दिया ॥ वधु आँखों में आश्रय भर कर
कक्ष को निहारती रही और मुख में हिचकी बाँध कर रोती रही ॥
तहही सदन तहहीँ सयनिके । तहही बसित तहहीँ बसनिके ॥
तह हीं छाजन तह हीं छयनिके । तहहीं बसति लोगन बसति के ॥
वही कक्ष है और वही पलंग है । वही बसावट है और वही वस्त्र आवरण हैं ॥ वही छज्जा है, वही छाया है । वही वस्ती है, और वस्ती
के लोग भी वही हैं ॥
तहहीं असन रहे न असनिके । बस चिन्ह चरन रहे चरनि के ॥
तह्ही पाल तहहीं पालिके । रहे न बाल सब रहे बसिते ॥
वही भजन है किन्तु भोजन करने वाला नहीं है गमन करने वाले के केवल चरण चिन्ह ही शेष थे । वही पिता तथा माता भी वही
थी केवल बालक ही नहीं था शेष सभी वहीं के वहीं थे ॥
तहह़ी केलि केल लहे रागिन रंजन रंग ।
जागत पंथ जोग रहे केलन बेली संग ॥
गात बजात उत्सव करते खेल खिलौने भी वही थे जो क्रीडा करने हेतु अपने साथी के साथ की प्रतीक्षा कर रहे थे ॥
बुधवार, २ ४ अप्रेल, २ ० १ ३
कंकनी कल किंकनी जूथे । कंठ मनि नभ मंडल गूंथे ॥
कलरव करि परिवादिन वादे । कंठ कलित कटि नंदन नादे ॥
घुंघरुओं के गुच्छों से युक्त मोहनी करधनी , गगन मंडल को गुंथे कंठ मालिका बालक के कंठ एवं कति में सुन्दर ध्वनी करती
हुई वीणा के जैसे मधुरस्वर भरती ॥
गहज गह तज गयौ बहु दूरे । सुख सयन सब गहनहि कूरे ॥
तरस परस तन झंगुर झोरे । बालक हीन हले हिंदोले ॥
कुल दीपक वस्त्र आभूषणों सहित समस्त सुख साधन को त्याग कर बहुंत दूर चला गया ॥ चँवर भरा झुगुला बालक को स्पर्श
करने के लिए तरस गया, पालना बालक के बिना ही हिले जा रहा था ॥
जे चौतनि चढ़ि मस्तक ऊपर । क्रंदन करि माता के कर धर ॥
बिधिहि काल कर बिधि कर जन्मे । जने ते मरनि रहि को खन में ॥
जो चौकोर शिखावरण शिखर पर चढ़ी हुई थी वह माता का हाथ पकड़े क्रंदन कर रही थी ॥ विधाता ही मृत्यु कारित करता है और
विधाता ही जन्मदाता है । जिसने जन्म लिया है, चाहे वह कही भी हो उसकी मृत्यु अवश्यम्भावी है ॥
सब जीउ बँधे भव बंधन में । सब जीवन काल के फंदन में ॥
ते मरनिहि पर बहु दुखदाई । जे पूरित बय पूरब आई ॥
सभी जीव जीवन मरण के चक्र से बंधे हैं । सभी जीव का जीवन काल के नियंत्रण में हैं ॥ किनती वह मृत्यु बहुंत ही दुखदाई होता
है, जो आयु पूर्ण से पहले ही अर्थात अकाल मृत्य होती है ॥
सात समुद के लै मसि धानी । सकल जगत की सरबस बानी ॥
गगन अबरन धरनि के पाती । दसा बधुटि की कही न जाती ॥
वधु की ऐसी दशा है कि, यदि सात समुद्र की मसि लें, और संसार की समस्त भाषाओं को लें, गगन का आवरण एवं धरती के पृष्ठ
लें तो भी उसका वर्णन नहीं हो सकता ॥
जे सुजाता जात जने बरे जननी उपाधि ।
जनम जातक हीन धरे मनहु गहित को आधि ॥
जिस कुल सुन्दरी ने पुत्र को जन्म दिया और माता की उपाधि का वरदान प्राप्त की ॥ अब जन्म जातक से रहित होकर मानो उसने
कोई शाप ग्रहण कर लिया है ॥
गुरूवार, २ ५ अप्रेल, २ ० १ ३
तनिक बखत मँह लिए आहारे । सजन चरन सद सयन पधारे ॥
कहत मूक मुख सन्मुख ठाढ़े । दोनउ के लोचन जल बाढ़े ॥
थोड़ी ही देर में हाथ में भोजन लिए प्रियतम, सयन सदन में प्रवेश किए और मूक होकर भी बहुंत कुछ कहते सामने खड़े हो
गए । प्रियतम एवं प्रिया दोनों ही की आँखों में जल धारा प्रवाहित हो रही थी ॥
भरे घोर घन नयन अगासे । बधू बाल चरितावलि भासे ॥
कहि क्रन्दत मम दीपक नाई ॥ आए काल बहि जोत बुझाई ॥
आँखों के आकाश में घन घोर घटा घिर आई । वधु बालक की बाल लीलाओं का बखान करने लगी ॥ वह क्रंदन करती कहने
लगी मेरा बालक कुल का दीपक ही था । काल ने आकर उसके जीवन की ज्योति बुझा दी ॥
कहे पिया बहु कर कठिनाई । बिधि मोहनि एहि भाँति बनाई ॥
नयन सयन तन असन चहाहे । जिउतै ह्रदय चाहे न चाहे ॥
तब प्रियतम ने बहुंत ही कठिनाई से ये कथन कहे की विधाता ने इस माया को इस प्रकार रचा है कि दुःख हो या सुख आँख
नींद चाहती है और शरीर भोजन चाहता है, चाहे ह्रदय जीना चाहे या न चाहे ॥
कहि बधु जे भुज दल लाहे । तेहि तनुज बिधि लै गए काहे ॥
पुनि कह पी एहि मोहन बंचे । तबहि बिध तेहिं कहत प्रपंचे ॥
फिर वधु ने कहा किन्तु ये बाहें चाहती थी उस बेटे को विधाता क्यों ले गए । तब पीया ने पुन: कहा इसलिए ही तो मोह को धूर्त
कहते है और विधाताकी इस संरचना को सांसारिक जाल कहते है ॥
ऐसेउ कह बुझात पिया धरे अधर दो कौर ।
कवले लोचन कण प्रिया कर आँचर के छौर ॥
इसी प्रकार समझाते-बुझाते प्रियतम ने प्रिया के अधर में दो कौर रखे । जिन्हें प्रिया ने अपनी आँखों के अश्रु को आँचल से पोंछते
हुवे ग्रहण किया ॥
शुक्रवार, २ ६ अप्रेल, २ ० १ ३
चित धरे बधु लाल की लोई । नीर बहावत रोवत सोई ॥
निद्रा नयन बहु सपन सँवारी । निरखत बालक देइ हुँकारी ॥
चेतना में बालक की सुदरता धारण किए वधू रोती आंसू बहाती हुई सो गई । निद्रा युक्त होकर स्वप्न में बालक का स्मरण हो आया ।
जहां बालक को देखते ही वधु उसे पुकारने लगी ॥
चारु भेस भर लावन लोके । देखि मात बहु मोहित होके ।।
धरे दांडिक पाल झुलावै । बाल अरुन अम्बर मुसुकावै ॥
बालक सुन्दर वेश भूषा में सुशोभित हो रहा था । जिसे माता बहुंत ही मोहित हो कर पालने की रस्सी को पकडे उसे झुलाते हुवे देखे
जा रही थी । बालक के लालिमा युक्त अधर मुस्करा रहे थे ॥
चारु पदुम कर चरन चलावै । भ्रकुटि नचावत बहुँत सुहावै ॥
कंठ मनि बर करधनी धारे । रुर नूपुर झुर खनकन कारे ॥
बालक, कमल के जैसे सुन्दर हाथ और चरण को चलाते हुवे भौं को इधर-उधर नचाते बहुंत ही सुहावना प्रतीत हो रहा था ॥ गले में
वरण किए मणियुक्त आभूषण एवं कति में धारण की हुई करधनी के सुन्दर घुंघरू झूलते हुवे खनक रहे थे ॥
हुंकृत कर कल कंठन बादै । कंठन कलस कुलीनस नादै ॥
नीक नयन सिसु सुधाधारधर। इब को कमलक कल कमलाकर ॥
बालक के कंठ से हुंकार की मधुर ध्वनी का उच्चारण ऐसे प्रतीत होता मानो घड़े के कंठ मुख से जल छलकता हुवा निनाद कर रहा
हो ॥ सुन्दर आँखें और सुधा के पात्र स्वरूप अधर युक्त शिशु जैसे कोई कमल से भरे सरोवर में छूता सा कमल हो ॥
आवनु तात ले गोदी भरे । मुद मदनानन बहु केलि करे ।।
पूछि मात कब चरनन पाही । एक जुग अंसक बयस धराही ॥
( इतने में ही) पिता आए और उसे गोद में भर लिया । सुन्दर मुखड़े से युक्त शिशु के साथ बाल क्रीडाएं करते हुवे माता से पूछा कि
यह कब अपने चरणों से चलेगा ( तो माता ने उत्तर दिया ) जब यह एक वर्ष का हो जाएगा ॥
गोद मैं भरि मुख पट धरि अधर पयस लपटात ।
बिहसति मुख लखति घरि घरि करत मोह सपनात ॥
(इस प्रकार)माता बालक को गोद में लिए और उसके मुख को आँचल से ढांके कभी अधर से रस पान करवाती । कभी वह हंसते हुवे
उसका मुख निहारती और सपना देखते हुवे घड़ी घड़ी उससे मोह करती ॥
शनि/रवि , २ ७/२ ८अप्रेल, २ ० १ ३
रयनि गगन सों सौंहनु खाई । नखत नभस चष लस दरसाई ॥
रयनिहि दै सो बचन निभाई । निद्रा नयन घर सपन रचाई ।।
रजनी, गगन के सन्मुख प्रतिज्ञा ली थी कि वह चाँद तारे चमकाते हुवे उसके पटल पर दर्शाएगी अत: उसने वह प्रतिज्ञा पूर्ण की ॥
निद्रा ने रजनी को जो वचन दिया था सो वो निभाया और नयन मंदिर में सुन्दर स्वप्न रचाए ॥
सौंहँ लैय जे पयस मयूखे । करीत किरनित खन खन भू के ॥
जगन गगन जे कथनन गाँठे । सौर बरन क्रम मंडल साँठे ॥
शशी ने भी प्रतिज्ञा ली थी कि वह भूमि के खंड-खंड में किरणे बिखेरेगी सो उसने भी अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की ॥ गगन ने जग को यह
वचन दिया था कि वह बिम्ब प्रतिबिम्ब युक्त सूर्य की परिक्रमा करने वाले नौ ग्रहों, अट्ठाईस उपग्रहों और पिंड आदि के समूह को
धारण करेगा सो उसने वह वचन निभाया ॥
कासित करन जे बचन धराए । उयसि सूर ते कहन्हि निभाए ॥
लय जे सौं सौंहनु रत्नाकर । तेहि पूरन करत घनाकार ॥
पृथ्वी को प्रकाशित करने का जो वचन सूर्य ने लिया था उदय होकर उसने उस वचन को निभाया । समुद्र ने सन्मुख होकर जो घन
करने का वचन लिया था सो वो वचन वह घन के भण्डार भर कर पूर्ण कर रहा है ॥
धूरि धार जल किरिया कारी । भरि हरिआरी फुरि फुरबारी ॥
साक पात फुर सौंहि उठाई । गंध मंद करी पौ पविताई ॥
धूल ने हाथ में जल धारण कर जो सौगंध ली थी उसे फुलवारी को हरा भरा करके उसे पूर्ण किया । पत्तियों और शाखाओं ने भी सौगंध
उठाई थी उन्होंने ने भी वायु को सुगन्धित और सुखदायक करके उसे पवित्र किया ॥
साथ साथ जे लिए सौगंधे । दायत जीवन सांसन रंदे ॥
जगत प्राण प्रभु जगती कारे । जगत सँभारत जग सौंकारे ॥
साँसों ने भी उनके साथ ही जो सौगंध लीं थी उसे प्राण वायु बनकर पूरा किया । संसार के प्राण स्वरूप एवं सृष्टि के कारण रूप परमेश्वर
संसार का भार स्वीकार करते हुवे जग में सवेरा किया ॥
सृजन के पूरनित बचन बहु सुख पावत लोग ।
राउ के कहन पूरनन देस बासि रहि जोग ॥
सृष्टि के परिपुर्नित वचनों ने लोगों को बहुत सुख पहुंचाया । अब देशवासी राजा द्वारा ली हुई सौगंध को पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ॥
पनपत पोखर पत पौनारे । चसकत बधुन्ह पलक उघारे ॥
नयन सपन जे भेरि चढ़ाई । भोरि पाँ फोरि बिसमाई ॥
पद्माकर में पद्मों से पत्र प्रस्फुटित हुवे । टीस उठाते हुवे वधु ने भी अपने पलक पत्र खोले । नयनों पर जो स्वप्न के पिंड बन गए थे भोर
ने उसे पाँव से फोड़ते हुवे बिखरा दिया ॥
जाग उठत करि प्रात स्नाने । पात फूल फर चलि अन्हाने ॥
भर जल कन सब नैन झुकाईं । मंद प्रभा रहि मुख पर छाई ॥
वधु जाग-उठी और प्रात स्नान कर पत्र पुष्प युक्त पौधों को भी नहलाने चली । वहां सबकी अश्रुपूरित आँखें थी और झुकी हुई थी । मुख
पर उदासी की छाया थी ॥
करून कलित बहु आरति सानी । द्रवित ह्रदय हरि मुख धरि बानी ॥
सोक बिकलि हे कोमलि देही । कहाँ बाल कँह सकल सनेही ॥
अत्यधिक करुना ग्रहण की हुई और क्लान्ति युक्त वाणी द्रवित ह्रदय से उतर कर मुख पर आ रुकी । शोक से व्याकुल कोमल देहि वधु
से सभी स्नेही (पत्र पुष्प शाख आदि)पूछने लगे कि बालक कहाँ है ॥
बधु उर परिहर धीरज के कर । नयनज कन उतरे भू पर ॥
समझाउत के जे उर चाही । तेहि सकल बहु बिधि समुझाईं ॥
दराज के हाथों से वधु का ह्रदय छुट गया । और नयन के अश्रु कण धरती पर उतर आए ॥ समझ की जिसके ह्रदय को आवश्यकता
थी । वही पुष्प पत्रों को बहुंत प्रकार से समझा रही थी ॥
मूर जल न घारे तन न सहारे पत पत घनबर खिन्न रहे ।
मूक रही डारी बदन उतारी अँखि पखमन अंभ गहे ॥
मंद प्रभा छाई कुसुम कुमलाई मुकुत हार परन धरे ।
हरि हरि हरियारी हरि फुरबारी सोक बिकल हरिद भरे॥
जड़ों ने जल त्याग दिया, वृक्षकोटर शिथिल रहे, पर्णों के मुख कष्ट संकुलित रहे । डालियाँ भी मौन व्रत लिए थीं, उनकी मुखाकृति
उतरी हुई थी औरपलकें जलमग्न थी ॥ उदासी छाई रही कुसुम खिले नहीं उनहोंने जल स्वरूप मोती की मालाओं को भी दूर हटा
दिया ॥ हरीभरी हरियाली, प्रफुलित फुलवारी शोक से व्याकुल होकर पीली पड़ गईं ॥
जलकन उदर न घारि बधु देत बहु बिनति करी ।
उर भर सोक बिचारि गंधी न रहि मूँद नयन ॥
यद्यपि वधु ने उन्हें भोजन ग्रहण करने हेतु बहुत विनती की किन्तु भोजन का त्याग कर और ह्रदय में शोक का विचार धारण किए
आज फुलवारी खिल कर सुगन्धित नहीं हुई अर्थात शोक विह्वालित रही ॥
सोमवार, २ ९ अप्रेल, २ ० १ ३ ने उसे पाँव से फोड़ते हुवे बिखरा दिया ॥
जाग उठत करि प्रात स्नाने । पात फूल फर चलि अन्हाने ॥
भर जल कन सब नैन झुकाईं । मंद प्रभा रहि मुख पर छाई ॥
वधु जाग-उठी और प्रात स्नान कर पत्र पुष्प युक्त पौधों को भी नहलाने चली । वहां सबकी अश्रुपूरित आँखें थी और झुकी हुई थी । मुख
पर उदासी की छाया थी ॥
करून कलित बहु आरति सानी । द्रवित ह्रदय हरि मुख धरि बानी ॥
सोक बिकलि हे कोमलि देही । कहाँ बाल कँह सकल सनेही ॥
अत्यधिक करुना ग्रहण की हुई और क्लान्ति युक्त वाणी द्रवित ह्रदय से उतर कर मुख पर आ रुकी । शोक से व्याकुल कोमल देहि वधु
से सभी स्नेही (पत्र पुष्प शाख आदि)पूछने लगे कि बालक कहाँ है ॥
बधु उर परिहर धीरज के कर । नयनज कन उतरे भू पर ॥
समझाउत के जे उर चाही । तेहि सकल बहु बिधि समुझाईं ॥
दराज के हाथों से वधु का ह्रदय छुट गया । और नयन के अश्रु कण धरती पर उतर आए ॥ समझ की जिसके ह्रदय को आवश्यकता
थी । वही पुष्प पत्रों को बहुंत प्रकार से समझा रही थी ॥
मूर जल न घारे तन न सहारे पत पत घनबर खिन्न रहे ।
मूक रही डारी बदन उतारी अँखि पखमन अंभ गहे ॥
मंद प्रभा छाई कुसुम कुमलाई मुकुत हार परन धरे ।
हरि हरि हरियारी हरि फुरबारी सोक बिकल हरिद भरे॥
जड़ों ने जल त्याग दिया, वृक्षकोटर शिथिल रहे, पर्णों के मुख कष्ट संकुलित रहे । डालियाँ भी मौन व्रत लिए थीं, उनकी मुखाकृति
उतरी हुई थी औरपलकें जलमग्न थी ॥ उदासी छाई रही कुसुम खिले नहीं उनहोंने जल स्वरूप मोती की मालाओं को भी दूर हटा
दिया ॥ हरीभरी हरियाली, प्रफुलित फुलवारी शोक से व्याकुल होकर पीली पड़ गईं ॥
जलकन उदर न घारि बधु देत बहु बिनति करी ।
उर भर सोक बिचारि गंधी न रहि मूँद नयन ॥
यद्यपि वधु ने उन्हें भोजन ग्रहण करने हेतु बहुत विनती की किन्तु भोजन का त्याग कर और ह्रदय में शोक का विचार धारण किए
आज फुलवारी खिल कर सुगन्धित नहीं हुई अर्थात शोक विह्वालित रही ॥
बाल बिरह घर पहर मलाने । पूरत दिन रतियन अवसाने ।।
अस दुःख बस दुइ दिवस बिहाने । दिबाकर तीसर दिन अवताने ॥
बाल वियोगित गृह के पूर्ण होते पहर दिन और पूरी होती रात दुःख से कुम्हलाई रही । इस प्रकार शोक के अधीन दो दिवस बीते ।
फिर दिवाकर ने तीसरे दिन को प्रस्तारित किया ।।
दिन दिवस तिसर पहर प्रथमेतर । प्रथानुकूल गृह के बिरध बर ॥
बाल द्विज दे न्योत बुलाए । बहु मान करत आसन बैसाए ॥
तीसरे दिन के दुसरे पहर में, पारिवारिक परम्परानुसार घर के बड़े-बूढों ने एक बालक ब्राम्हण को निमंत्रित किया और उसे
सम्मान पूर्वक आसन पर बैठाया ।।
उदक चमस ते पयस पियाई । देइ असीस पुत पंडिताई ॥
हाय! मेरा बालक प्राण-दुलारा, ऐसा कहकर माता पुत्र को बहुंत प्रकार से स्मरण करती हुई बाल द्विज को पेय पात्र से दूध पिलाते
हुवे बहुंत से शुभाशीर्वाद दी ।।
असन बसन धन दे सनमाने । करे बिदा धर मनस मलाने ॥
सोक संकुल भए सकल गृहजन । धारा बाहे तातहु लोचन ॥
भोजन वस्त्रादि दक्षिणा से बालक द्विज की मान-प्रतिष्ठा की और मन में दुःख उठाते हुवे उसे विदा करते हुवे घर के सारे परिजन
शोक से घिर गए । पिता की आँखों से भी जल की अविराम गति बहने लगी ||
बत्सल उरस नयन बहत सुमिरत पय के धार ॥
मेरा दुलारा, मेरा बालक, मेरा वत्स ऐसा कह कर माता ह्रदय में वात्सल्य प्रेम में डूब गई और माता के नयन एवं स्तन से प्रेम की
रस धारा फूट पड़ी ।।
तिस दिन बधु भै बहुँत दुखारी । गवनु सदन सुर बदन निहारी ॥
सुत के बत्सल बाउर भोली । मन ही मन गल रुधती बोली ॥
उस दिन वधू बहुंत ही दुखान्वित रही, वह देवालय गई और भगवान की मूर्ति निहारते हुवे, पुत्र के वात्सल्य में निमग्न होकर उस
अबोध ने रुंधे गले से मन ही मन में भगवान से कहा ॥
सरल काल कहिं होत कहूँ के । नियती समुझत हृदय न हूँके ॥
धर लै तब सब हिय पर पाथर । मानत काल कल्प के क्रमबर ॥
यदि कहीं, किसी की सरल मृत्यु होती है तब ऐसी मृत्यु ह्रदय को इतनी टीस नहीं पहुंचाती, सब इसे अपनी नियति जान कर और
विधाता की इच्छा समझ कर धर्य पूर्वक सह लेते हैं ॥
पर अस कालक कलपन कातर । धरें धैर अब कौन बिधि कर ॥
बधु अस संतप बस बौराई । लालन के सुमिरन उर लाई ॥
किन्तु जैसी उस बालक को हुई है ऐसी मृत्यु की कल्पना भी कष्ट दायी है अब किस प्रकार से ह्रदय धैर्य के वश में हो ॥ इस प्रकार
वधु चित बालक की सुधि को ह्रदय से लगाए संताप के वश में भ्रमित सा हो गया ॥
दुखारति धरे चितबत चितते । बधू के पहर पलछन बितते ॥
चुपही रहत सोचत सँकोची । सब संसारिक बिषय अरोची ॥
इस प्रकार दुःख एवं आर्त से उद्धृत ह्रदय लिए वधु के प्रत्येक क्षण एवं पहर बितते । सांसारिक विषयों से अरुचित रहते हुवे
संकुचित सोच के सह, वह चुपचाप रहने लगी ॥
जे सुर सुन्दर सदन बहि सरस सरित सिंगार ।
ते सोषित सुर ताप लहि रूखी रस की धार ॥
जिस देव तुल्य सुन्दर सदन में श्रृंगार रस की सरिता बह रही थी । उसे दुःख के सूर्य ने शोषित कर लिया और वह रस की धारा
सूख गई ॥
भरि मन मैं बैराग परिहर सकल रंग राग ।
रहत लाल के लाग रमनी रयनी जागती ॥
मन में वैराग्य भर समस्त प्रेम प्रसंगों को त्याग कर, बालक के प्रेम में अनुरक्त हुई, वह सुन्दरी रातों को जागती रहती ॥