Friday, March 1, 2013

----- ।। सुक्ति के मनि 3।। -----

शुक्रवार, ०१ मार्च, २०१३                                                                                         

लाल नील मसि कारिख राखे । कृतिकार कबित कँह बहु भाखे ॥ 
अखर सिन्धु पा हिमबर काँखें । नौ रस राज लावन लाखें ॥ 
लाल, नीली और साँवरी अम्बु धारण किये  कवियों एवं रचानाकारों ने विविध  भाषाओं में कथन करते  हुवे सागर से मनोवांछित  अक्षर स्वरुप मोतियों  को प्राप्त कर नौ रसो के राजा अर्थात श्रृंगार रस के सौंदर्य का वर्णन किया ॥ 

कापर करतल धुरी जल धोए । आखर धूरि धुरे ज्ञान भिजोए ॥ 
आखर शोषन जर कन झारें । बुध रस राज  कहें बिसतारे॥ 
कपडे की धूल हथेली से जल के द्वारा धुलती है। अक्षरों की धूल ज्ञान की अनुरक्ती  से धुलती है ॥ जलकणों को झाड़कर अक्षरों को सुखा विद्वान कवि रस राज को विस्तारपूर्वक कहते है ॥ 

सुन्दर बर सुचि रूप सुरूपा । कबि बिकिरत कर अर्न अनूपा ॥ 
पञ्च बिषय जस कार कलेबर । रसन श्रवन दिसि गंध परस भर ॥ 
सौदर्य के श्रेष्ठ रूप के पवित्र स्वरूप को कवियों ने  अक्षरों की किरणों अनूठे स्वरुप में प्रस्तारित किया है । शरीर आकृति जैसे पांच विषय इन्द्रियों  दर्शन,श्रवण, स्वाद, स्पर्श एवं गंध से युक्त होती है ॥ 

रसन रस दोउ करूर मधुरे  । श्रवनन रस कर्कस कल कूरे ॥ 
गंध गहन सुरभित दुर्गंधे । रूप कुरुप दिसि रज कर बंधे  ॥ 
स्वाद में द्वि स्वरूप के होते हैं कढुवा एवं मीठा । श्रवण ग्रथि में कर्कस एवं मधुर ध्वनि राशि का रस होता है ॥ गंध, सुगंध एवं दुर्गन्ध ग्रहण किये हुवे है । और दर्शा रूपता एवं कुरूपता के रश्मि कणों में बंधे है ॥ 

अस ही बिरहा रस सिंगारे । एक बिरहा दुःख एक सुख सारे ॥ 
दुख रंग अनुराग बिधाना । सुख रंजन रति भाव प्रधाना ॥ 
बस ऐसे ही श्रृंगाररस का विरहरस द्विरुपी है । एक विरह दुखमयी है तो एक सुखमयी ॥ दुखमयी विरहा के रस का जो स्वरूप है
वह अनुराग का विधान है ।  और सुख मयी विरहा मन रति की भाव प्रधानता है ॥ 

बिषय बिदित बिदु कहत बियोगे । एहि पर बधु दुःख बिरहा रोगे ॥ 
घरी घरी घन नयन बन छाए । भरी भरी हाय जर झरकाए ॥
वियोग के सन्दर्भ में इस विषय के कुशल कवियों ने कहा है कि यहाँ पर वधु दुखमयी विरहा के प्रसंग से पीड़ित है । प्रतिक्षण बादल नयनो के उपवन में छाए रहते है और हाय! भरे भरे से ये घन जल वर्षा करते हैं ( जो दुखमयी विरह का लक्षण है) ॥  

नयन पीठ पट बारि बर उर बन कन कन कूर । 
जुते हलबल हलि हलधर बिकसे रागन फूर ॥ 
नयन के पलक पृष्ठ का वरण कर वर्षा ह्रदय के उपवन में बूँद कणों का ढेर लगा दिया । हलचल रूपी किसान द्वारा ह्रदयक्षेत्र पर जोती हुई क्यारियों में अनुराग के पुष्प प्रस्फुटित हुवे ॥ 

शनिवार, ०२ मार्च, २०१३                                                                        

आपन बाल गर्भ धरि बाले । निठुर पिया बधु देखि न भाले ॥ 
जिन के बिनु एक छिनु नहि रीते । तिन कै बिनु अब रत दिनु रीते ॥ 
एक तो बधू की स्वयं की बाल अवस्था फिर गर्भ में बालक और पीया की कठोरता कि वह देख-भाल भी नहीं करते ॥ जिन के बिना कोई भी क्षण रिक्त नहीं था उनके बिना अब दिन-रात भी रिक्त हैं ॥ 

बिरहा नाना बिचारु बिठाए । बहु जिय जराए जग जी उठाए ॥  
कार कलप जग जहँ तहँ ठाढें । बढ़े न आगिन रयनि न गाढ़े ॥ 
विरह अवस्था में मन के भीतर विभिन्न प्रकार के विचार आते हैं जो मन को बहुंत ही जलाते हैं और संसार विरक्त सा लगने लगता है ( मन इस प्रकार की अनुभूति करने लगता है कि )  जगत के क्रियाकलाप जहां हैं वहीँ रुक जाएँ आगे न बढ़ें रात भी और ना गहराए ॥ 

को कर नाथ कहु प्रीति जोरी । दीनु उर भर नयन जर घोरी ॥ 
कास पाख रहिं सस के पोषे । तम गुण पिय काहू हुवे सोषे ।। 
हे नाथ ऐसी प्रीति किस कारण से जोड़ी ।  आँसू में घुल कर जिसने ह्रदय में दुःख भरा ।। हे नाथ आप तो शुक्ल पक्ष के स्वरूप थे जो चन्द्रमा को बढ़ने वाला अर्थात प्रिया को निखारे वाला था फिर क्यों कर आपने कृष्ण पक्ष का गुण धारण किया और चन्द्रमा के शोषक और प्रिया के मंद कान्त बने ॥ 
   
सीत सरन ना जरन हिया के । जाग नयन भी सपन पिया के ॥  
सुमिरै पी बधु जी भरि भरि के । बूँद बूँद भर नयनन ढरके ॥ 
इस प्रकार प्रिया का जलता हुवा ह्रदय शीतलता को प्राप्त नहिं हो रहा था  जागते हुवे भी पीया के स्वप्न आ रहे थे भरे ह्रदय से वह पिया का स्मरण करती । और बूंद बूंद कर नयों से जल बहाती ॥ 

एक ठोर सरित जल की धवनि कल कल की मुकुति भुज दल धरे । 
बलयित बर्तिक बल दीप तैल तल जल धरा उजवल करे ॥ 
कल कलश कंचन प्रियतम अंकन कृष्ना अभिसारिका । 
सीस खंखर बर स्याम सुन्दर राग मुद्रा धर राधिका ॥  
एक  छोर  पर  अदि  के  जल  की  ध्वनि कलरव करती बूंद मुक्तिक  को हाथो में धरा किये हुवे है ।  वलयित वर्तिका  स्निग्ध तरल की सतह  पर  दीपक के सह वलयित होकर जलाते हुवे धरा को उज्जवल  कर रही है कंचन युक्त सुन्दर देवालय में प्रियतम  के आलिंगन यह प्रियतमा अँधेरी रात्रि में अभिसार करने वाली है। और शीर्ष पर घंटिका की ध्वनि से युक्त श्री श्याम सुन्दर  का वरण किये राधिका आकर्षक मुद्रा धारण किये हुवे है ॥ 

एक ठोर दुइ निलय नयन दोउ घेरे उदास । 
एक घेरि घन घन बिरहन दुज अँधेर आकास ॥       
तो एक छोर पर गृह एवं गृहाक्ष तथा हृदय एवं हृदयाक्ष दोनों को उदासी घेरे हुवे है । एक को विरह रूपी  सघनघन ने घेरा है दुसरे को आकाश के अँधेरे ने घेरा है ॥ 

निर्झरी झर तर तलहट सागर तट मिल जाए । 
जे तरी झर नैनन  पट ताके कौन मिलाए ॥ 
झरती हुई नदी तलहटी से उतर कर सागर तट म मिल जाती है । यदि यही पलक से उतरे तो फिर इसका मिलान कहाँ हो  ॥ 

रविवार, ०३ मार्च, २०१३                                                                                         

निसमत दिन रत रति रितु सिराए  । एक दिवस हाय पिया न आए ॥ 
चाहि लेख तैं कछु बात कहै  । लिख न पाए रही पात गहै  ॥ 
ऋतु दिन रात पर अनुरक्त हो समाप्त होती दिख रही है और प्रियतम है कि एक दिवस को भी नहीं दर्शे ॥ वधु ने लेख के द्वारा ही कुछ बात कहना चाही किन्तु कवल पत्र पकड़ी रही लिख कुछ भी नहीं पाई ॥ 

कहुँ पत ते कहुँ पिय बिसराई । अखर जननी कहुँ आखर गँवाई ॥ 
निसा सकल मसि मल मल मीसी । मंद प्रभा मुख धानी रीसी ॥ 
कहीं पत्र ने तो कहीं प्रियतम ने भुला दिया कही लिखनी तो कहीं अक्षर खो गए । निशा ने सारी मलिनंबू मल मल कर मिश्रित का लिया मसि ढाई का मुख रिसते हुवे मुरझा  गया है ॥ 

 को जोर जुगति  कोउ उपाए । हिय के लाए कस पिय पहुँचाए ॥ 
बधु  भाव भास न बिधु बिभासे । बर कासे न बिभा कर कासे ॥ 
न कोई जोड़ -जुगाड़ न ही कोई उपाय सूझ रहा की वधु ह्रदय की जलन प्रियतम के पास किस प्रकार पहुँचाए ॥ वधु के पास न तो कोई मित्र  ही कोई परिचित नहीं था  उधर चन्द्रमा कातियुक्त था वधु वर के आकर्षण में नहीं थी, चद्रमा सूर्य  के द्वारा प्रकाशित हो रहा था और भोर हो गई ॥ 

बार बिरत न बारता लापे । बाल करत बहु गर्भ कलापे ॥ 
निसदिन नियता नव नटि कारे । इत भाल उतर पत कटि धारे ॥  
दिन बिता पर प्रियतम से कोई वार्तालाप न हुई इधर शिशु गर्भ में बहुंत सी क्रिया कलापे कर रहा था  नियंता प्रत्येक दिन नई नई क्रियाए करता इधर शिशु का सिर नीचे उतर कर जानी की कति में स्थापित हो गया था अर्थात प्रसव काल समीप था ॥ 
   
न धीर परे न पीर परे पर परे परे पिया । 
न धीर धरे न पीर हरे पर हरे धरे हिया ॥ 
न धैर्य ही ठहरता न पीड़ा जाती किन्तु इस पर पिया भी दूर दूर है । तो वे धैर्य देते न पीड़ा हरते और ह्रदय हरण किये हुवे है ॥
   
दरस बिधु  दीन मगन निसिथ के नयन नीर बहे । 
दिरिस दीन बनसुमन मंद कांति मुख मुकुलित ॥
चन्द्रमा व्याकुलता से भरा हुवा दर्शित हो रहा है, आधी रात्रि में उसकी आखें अश्रु पूरित होकर  बही जा रही है वन वाटिका के सुमन का मुख भी मुरझाऐ हुवे से अधखिले रूप में दर्शित हो रहे है ॥ 

 सोमवार, ०४ मार्च, २०१३                                                                                  

जे नहि परने तेहिं परनाए । बिपरीत बयस बहु नाच नचाए ॥ 
नीर निहारे नयनन हारे । भर भर भीतर भारहि भारें ॥ 
जिसे कभी प्रणाम नहीं किया विपरीत स्थिति उन्हें भी प्राम करवा कर बहुंत ही नाच नचाती है ॥ आँसुओं को निहार निहार कर नयन भी हार गए । और इनका बोझ उठा उठा कर अंतस भारी हो जाता ॥ 

भै एकु रत जन तिथित बहोरी । बधु बिकलित पीर धरी घोरी ॥ 
जान भए न जिन्ह होइ जाई । जिन्ह के रजस देहु जनाई ॥ 
फिर जन्म तिथि अंकित कर एक रात हुई वधु घोर पीड़ा से व्याकुल हो उठी ॥ जिनकी संतान को औरजिनके रज से वधु देह स्वरूप जन्म देंने वाली थी वह ही नहीं जाने कि पीड़ा हो रही है ।। 

जान भावज कहीं धीर गहें । एहि प्रसव पीर तनि पीर सहें  ॥ 
प्रथम दरस तव प्रथम अनुभूति । बढ़त जान दौ पीर बहूती ॥ 
भावजों ने प्रसव पीड़ा को ज्ञान कर कहा कि धैर्य रखें । यह प्रसव की पीड़ा है इसे थोड़ा सहें ।। यह तुम्हारा पहला दृष्टांत एवं पहली अनुभूति है । अभी पीड़ा को अधिकाधिक बढ़ने  दो ॥ 

 बेर बखत भइ रत दुज पहरे । घेरे घिर बधु चिंतन गहरे ।। 
राम राम करी राति बिताए  । पीर दसा अस बरनत न  जाए  ॥ 
समय अधिक हो कर रात का दूसरा पहर हो रहा था  । वधु गहन चिंता के घेरे से घिरी हुई थी । राम राम करके वधु रात व्यतीत कर रही थी । पीड़ा की स्थिति ऐसी थी कि  जिसका  वर्णन करना कठिन हो चला ॥ 

कल कपोल राग भए पीत जाग उदर अंग पीर गहे । 
कभु छाजु टहल कभु पालौ बल पलकन छम छम नीर बहे ॥ 
बन सुमन कलित लोचन ललित ब्याकुलित बधु निरख रहे । 
बहु बरत उरस भीत भरे तरस रहें निरबस त कछु न कहें ॥      
गालों की अरुणाई का सौंदर्य जागृत अवस्था में एवं उदार की पीड़ा सहते सहते कांतिहीन हो गया । कभी छत पर तो कभी पलंग में बल लेते हुवे वधु की पलकों से आँसू टपक रहे थे  ॥ व में सुशोभित कुसुम के सुन्दर नयन वधु की ऐसी व्याकुलता को निहार रहे थे । 
भीतर  तरस से भरा उनका ह्रदय भी पीड़ित हो उठा पर निर्वशता के कारण वे कुछ कह ना सके ॥ 

पेखि बधु के पीर सुमन बिनत करे कर जोर । 
हे हरि तमोहर तत छन  प्रगस हो धरी भोर ॥ 
वधु की पीड़ा को देख कुसुम हाथ जोड़ कर विनती करने लगे । हे सुरु हे अँधकार के हरण कर्त्ता तत्काल 
धरा पर भोर को प्रकट करें ॥ 

नादे नंदन नलिन मुख जागे सहस लोचन । 
रथिक सारथि रबि मयूख  देखु तरे धौल गिरि ॥  
इंद्रउद्यान के कमलों के मुख हर्ष ध्वनि कर कहे 'सूर्यदेव जागृत हुवे' । रथ पर सारथी अर्थात अरुण, रवि और उसकी प्रभा आरोहित है ।देखो वे हिमालय पर्वत पर उतरे ॥ 

मंगलवार, ०५ मार्च, २०१३                                                                                         

साद गहन सह पेट पिटारी । अलस भोर महु उतर अटारी ॥ 
बैस बहनु बह सह बही जाए । बारही बार कोख कसकाए ॥ 
कोख में अवसाद ग्रहण  किये हुवे तड़के ही बहुखंडी भवन से उतरी और वाहन में बैठ कर हवा से बाते करती दूर होती चली गई । बारम्बार उसकी उदर कोष में पीड़ा का प्रवाह हो रहा था ॥ 

जस तस औषध आले पैठे । प्रसवंती वधु रह रह ऐंठे । 
पात्र प्रसादु कह पट पितराए । प्रसव सदन सीध चरन सिधाए ॥ 
जैसे तैसे करके उसे औषधालय में प्रवेश किया प्रसव वेदना से ग्रस्त वधु घरी-घरी ऐंठ रही थी । अपने  कृपापात्र पूर्वजों के सम्मानार्थ शिरोवस्त्र का आचमन कर वधु के चरण  सीधे प्रसव स्थल की ओर बढ़े ॥ 

ततक्षन परे पीर तै पीरे । नव जी जन्मे धीरहि धीरे ॥ 
प्रथम सिसु के सिर तीर तीरे । भयौ बहिर तहँ सकल सरीरे ॥ 
तत्काल ही पीड़ा पर पीड़ा उठने लगी । धीरे-धीरे अव जीवन का जन्म होने लगा ॥ सर्व प्रथम नवजात का सर बाहर निकला फिर सम्पूर्ण  देही बाहर आ गई ॥ 

गर्भ गरल जल नाभिक नाले । तर धरनी तल बाँधित बाले ॥ 
बाँधि मूठ रुदन करे भारी । भूखन भोजू दौ महतारी ॥ 
गर्भ में जो भी विषामृत था वह नाभिका नली सहित बाहर आ गया जिसके साथ बंधकर ही शिशु धरती पर उतरा ॥ मुट्ठियों को बांधे वह बहुंत ही रोदन करते हुवे माता से भोजन की आकांक्षा कर रहा था  ॥ 

उत महतारी पीर अपारे  । गर्भ न धरूँ कह किरिया पारे ॥ 
सदोजात लै हँसी भौजाए । पुतवती भई कहीं मुसुकाए ॥ 
इधर माता शुशु का  ध्यान न करते हुवे अपार पीड़ा से विमुक्त होते सौंगंध कर रही थी कि अब वह कभी गर्भ धारण नहीं करेगी । तत्काल उत्पन्न हुवे शिशु को गोद में लेकर भावज हँसने लग गई और पुत्रवती हुई यह 
कह कर मुस्कराने लगी ॥ 

 नंदत नभ कर रागन रंगे । श्रुति कन कोटर कूज बिहंगे ॥ 
निर्झरी नीर झर झर उतरे । उदक उदक बूंद धानी चरे ॥  
नभ किरणों के संग हर्षित होकर आनंद उत्सव कर रहा है । पुत्र जनम का समाचार सुनकर पक्षी वृक्ष के खोल में चहचहा उठे । झरने से निकलने वाली नदी से पानी झर झर कर बह रहा है बुँदे आनंदतिरेक से उचक कर जलधानी अर्थात कुम्भ में चढ़ जा रहीं हैं ॥ 
  
सुनि सुमन कानन कानन नंदन नंदन घोस । 
बार फेरे कंचन कन खुरे नियति के कोस ॥ 
उद्यान के कुसुम ने जब पुत्र का रुदन रूपी हर्षनाद सुन कर हर्षित हो उठे । प्रकृति ने भी अपने  धनकोष खोल कर ओस रूपी स्वर्ण कणों की वार फेरी की ॥ 

बुधवार, ०६ मार्च, २०१३                                                                                        

कल कमल चपल धवल निराला । लख जननी मुख मंडल लाला ॥ 
दाने दयन निवेदन बोधे । करत बिनत मुख लेप अबोधे ॥ 
कमल के समान सुन्दर चंचल बालक के अलौकिक गोरे  मुखड़े को माता निहार रही है । शिशु  दयनीय आँखों से मुख में भोलेपन का लेप कर दाना देने हेतु विनती करते हुवे निवेदन करता है ॥ 
        
बाल ससी सम सिसु के लीला । राग कपोल कल कासि कीला ॥ 
रुदनानन सिर धरनि उठाई । मधुधर हँसि जननी मुसुकाई  ॥ 
शिशु की लीलाएँ बाल चन्द्रमा के समान है । गालो की लाली मानो प्रकाश का स्तम्भ हैं ॥ रो रो कर उसने धरती को सर पर उठा लिया है । शिशु की एई क्रीडाओं को देखकर माता की हँसी और मुस्कान मधुरता लिए हुवे है ॥ 

उमर घुमर इब उद भार रहे । जलकन झलकन धर गगन गहे ॥ 
जलकन कुम्भन गहनहि जैसे॥ स्तन पयोधन बंधन ऐसे ॥ 
जैसे बादल उमड़ते घुमड़ते हैं और जल के कण को धार गगन में गहराते हुवे दिखाई देते हैं ॥ जैसे कुम्भ में जल कण ग्रह किये होते है ऐसे ही अमृतजोड़ स्तनों में बंधा है ॥ 

अमिष क्षुधा भर पयस पिपासे । पद कर बिचर भुजंतर रासे ॥ 
लालन लोचन  ललचइँ लाखें । भूजन जनु  बरसन  ताकें ॥ 
शिशु, निश्छल भूख की कामना करते हुवे दूध का प्यासा है। हाथ पैर चलाता हुवा माता की गोद में क्रीडाएं कर रहा है । शिशु की आँखें लालच करते हुवे ऐसे  देख रही हैं जैसे धरती पर लोग वर्षा को तक रहें हों  ॥ 

स्तन गृह तट पान पयस स्तनँधय मंडल मुख । 
जनु बदरि बर दान बरस दे धान कर जन सुख ॥ 
स्तन धाम के द्वार को घेरे शिशु दुग्धपा कर रहा है । मानो बरखा  बूंदों का वर दान देकर मनुष्य जनों  को धान से वैभववान कर रही हो ॥ 

गुरूवार, ०७ मार्च, २०१३                                                                            

तात भ्रात कर महु लिए बधाए । ससुरार सुभ उदन्त पहुँचाए ॥ 
बाट बिटप चौहट ससुरारे । आजु अपर दै दरस दुआरे ॥ 
पिता  और भ्राता हाथ मन बधाई लिए वधु के ससुराल में पुत्र जन्म का शुभ समाचार दिए । सुसुराल की चौक चौबारे और उस पर का पेड़और घर का द्वार  आज कुछ अनूठे ही दिख रहे थे ॥ 

जानन यह बधु के मन तरसे । सुनि भए ताता पिय कस हरसे ॥ 
पर कहु सन कछु पूछ न पाई । भित भरि भरि रहि नैन झुकाई ॥ 
वधु का ह्रदय यह जानने को तरस गया कि पिता बनने का समाचार सुनकर पीया किस प्रकार हर्षित हुवे ।। पर किसी से भी कुछ पूछ नहीं पाई भरे हुवे अंतस से उसने नयन झुका लिए ॥ 
 दिवा बसु चरन  दु पहरि परे । पद अंतर भर सह  साँझि तरे ॥ 
दिसा अंत पर अम्बर साजे । आए दुनौ सथ सैल बिराजे ॥ 
सूर्य के चरण दोपहर को पार किये । सांझ भी उतर कर साथ चलने लगी ॥क्षितिज पर वेश विभूषित होकर दोनों पर्वत पर विराजित होकर बालक को देखने आए  ॥ 

नखत नेमि पथ मालै खचाए । नगन नग अनमोलक लाए ॥ 
रावचाव करे रयनिहि राए । पुत्र दरसन पर पिया न आए ॥ 
चन्द्रमा ने भी भ्रमण मार्ग से तारो की मालाओं में खचित नगण्य अनमोल रत्न  उपहार स्वरूप लेकर आए । रात ने भी छोटे से राजा के बहुंत लाड चाव किये । किन्तु पुत्र को देखने प्रियतम नहीं आए ॥ 

लख अपलक पलक बिछाए प्रीतम पंथ निहार । 
अलक राग रत गहराए निरख निरख गै हार ॥  
पलकें झपकाए बिना पलक पावढ़े बिछाए वधु प्रियतम की प्रतीक्षा करती रही रात काले रंग में गहराती गई और वधु प्रतीक्षा करती रही ॥ 

शुक्रवार, ०८ मार्च, २०१३                                                                                           

कवनु बिबस को कारन जाने । जान मनिक अहेतु अभिमाने ।। 
को अंकुस को बंधन रोके । निठुर पिया निज जात न लोके ॥ 
ऐसी कौन सी विवशता थी जाने क्या कारण था ।  समझदार होकर भी अकारण ही अभिमान किये हुवे है थे ॥ कौन सा बाधा थी काऊ से बंधन रोक रहे थे कि निष्ठुर प्रियतम अपने ही जातक को देखे नहीं आए ॥ 

नयन नीर बधु कंठ भरि लाइ । पयोधि परस पै पावस पाइ ॥ 
मुखरित मुख मन मान मलाना । निरखें पुत्र न जीउ किमि माना ॥ 
 नयन में आँसू वधु के गले में भर आये  मानो  सागर को स्पर्श करके बादलों में जल भर गया हो  ॥ मन के मुख पर वेदना छा गई और वह शब्दायमान  होकर कहने लगा कि पुत्र का मुख देखे बिना पिता कैसे रह गए ॥ 

जरन सुभाऊ काठि कठोरे । अहं कर आह  हर हिय तोरें ॥ 
चल सक नहिं का चारहि चरना । अजहुँ बास बधु भए पितु घर ना ॥ 
पिटा का स्वभाव संताप देने वाला और लकड़ी के जैसे कठोर है  ह्रदय को हरण कर हाय उसे अहंकार के कारण तोड़ रहे हैं ॥ पुत्र का मुख देखे के लिए क्या वह चार चरण भी चल ना सके । अब तो वधु का वास पिता  के घर में नहीं  है अर्थात उसका वास सूतिकागृह में है ॥  

बिरह बयस बधु सजन सुरताइ । लखतइँ बाले बदन बिसराइ ॥ 
जनि मुख पेम रस रासन पाए ।  चित निस्चित सिसु सयनै सुहाए ॥ 
विरह की अवस्था में वधु प्रियतम को स्मरण करती है । कितु जैसे ही बालक का मुख देखती समर भूल जाती है ॥ मुख से जाने का प्रेम रस का आनंद प्राप्त कर बालक निश्चिन्त होकर सोता हुवा  बहुत ही भला लग रहा है ॥ 

मंजुल मुकुलित नयनन कैसे । कोमलि कमलिन कलि के जैसे ॥ 
उसके सुदर अधमुँदे नयन कैसे है जैसे कोमल कमल की कलि के ही नयन हों ॥ 

जनक जननी बैर पड़े पुत्र सन कैसन बैर । 
पुरुख मान द्वेष तरे धरनी पड़े न पैर ॥ 
फिर वधु का मन मुखरित होकर कहने लगा पालक का आपस में बैर होता है पुत्र के साथ कैसा बैर । पुरुष का पुरुषत्व जब दवश पर उतर आता है तो वह आपे में नहीं रहता ॥ 

शनिवार, ०९ मार्च, २०१३                                                                                     

निंद नैन जे परे धराई । सपदि पद नैन पट तर आई ॥ 
पद चापत बसि भवन अटारी  । बोझिल बधु दै पाटि दुआरी ॥ 
जो नींद नयनों से परे धरी हुई थी वह तुरंत ही अयन पटल पर पेर रखती उतर आई ॥ पद संचालन करते हुवे नींद नयनों के  भवन खंड में वासित हुई तो वधु ने भवन कपाट को बंद कर दिए  ॥ 

 आखरी कंठ कर  उत्कासे । इत उत  चितबत  चरन नियासे ॥ 
अगुवन अगंतु  सपन सलोने । कलपन दरसे दोनौ लोने ॥ 
इधर नींद ने उच्चारण करने हेतु जैसे ही गला खखाते हुवे  इधर उधर देखते चरण उद्धृत किये ।  सुन्दर स्वपन ने अतिथि का आगे बढ़ कर अभिनन्दन किया । सुसज्जित हुवे दोनों बहुत ही सुशोभित हो रहे थे ॥ 

निंद बधु रूप ते सपन पियाए । प्रिय संगमन उर लवन दिठाए ॥ 
प्रनय कोपि तज बाहु  प्रसारे । अरस परस कर सूतक धारे ॥ 
नींद वधु के रूप में थी और स्वपन पिया के स्वरूप में थे । प्रिय का यह सयोग हृदय को अत्यत ही प्यारा लग रहा था ॥ प्रणय कलह के कारण वश रूठे पिया कोप को त्याग के भुजाओं को फैला कर प्रसारित कर आलिगा करते हुवे प्रेम के बंधन में ब्वान्न्ध लिया ॥ 

रसित लसित मुकुलित मुद  नैने । प्रिय कर रूप बर बदने बैने ॥ 
नैन कंज कन रागिन घुल कै । परस चरन पी धरनिहि ढुल कै ॥ 
आनंद निमग्न होकर मुदित हो नयन  अधमुंद हो गए ।  और प्रिय से हर्षयुक्त, मधुरित एवं सुन्दर वचन कहने लगे ॥ नैनो के अश्रु स्वरूप अमृत कण अनुराग में घुल कर धरा पर ढुलक आए और प्रिय के चरणों को स्पर्श करने लगे ॥

नीर नैनन कंचन कन, पलक कपोलक पोर । 
पिया सपन प्रपंचन धन, कास कलस कर जोर ॥ 
स्वप्न में प्रकट होने वाले संसार में पलकों के छोर से कपोल पर के अश्रु स्वरूप स्वर्ण कणो को पिया ने हथेली में बंद कर सचित कर लिया ॥ 

रविवार, १० मार्च, २०१३                                                                                          

खंड सयन सन सपन बिसमाए ।  छितरत छिन भिन लवन कन पाए ॥ 
आह अहन अहो रतन दरसे  । मुख कांति कमल किरन परसे ॥ 
निद्रा खंडन के सह  स्वप्न भी विखंडित हो गए । और उन  सुन्दर कणों को वधु ने छिन्न- भिन्न स्वरुप में छितरे हुवे पाया आह ! दिवस हुवा और सूर्य  का साक्षात्कार हुवा  । वधु के कमल जैसे कांति युक्त मुखड़े को उसकी किरणो ने स्पर्श किया ॥ 

रुदन राग कल रवनै काने । कहत बछुवन मइ दौ ना दाने ॥ 
सिसु अधरं धर सुधा आधारे । रस के कन कन  कंठ उतारे ॥ 
रोने की मधुर राग ध्वनि कानों में शब्दायमान हो उठी ।  मानो रोते हुवे वह कह रहा था हे माता ! मुझे भोजन दो ॥ फिर बालक ने सुधा के आधार पात्र को अपने अधरों पर रखते हुवे प्रेमरस की बूंदें  कंठ में उतरती  चली गई ॥ 

सुख सुधा  भर पूरित  बिहिते  । रद आछद  रस रसमस  लिहिते ॥ 
मुख पटल पाटल बरन पिहिते । पै पयसन नयन नींद निहिते ॥ 
 वधु के वक्ष में सुख की सुधा भरपूर निर्मित हो रही थी । शिशु के होंठ ने चाटते हुवे प्रेम रस का स्वाद लिया ॥ ( तृप्त होने  के पश्चात) मुख पटल,  गुलाबी रंग से आच्छादित हो गया  । और पयस पीने के पश्चात बालक की आखों में नींद  भर गई ॥ 

दिसत मुख माइ  ममताई । मुद्रित मोहित मनोहरताई ॥ 
मुख सोभित किमि बाल मुकुंदा । जिमि बर बाल मुकुल अरविंदा ॥ 
माता सोते हुवे शिशु के मुख को  ममता से परिपूर होकर निहारने लगी ।  उसकी मुख मुद्रा मोहित करने वाली और मन को हरने वाली थी । बालक का मुख कैसे सुशोभित हो रहा था मानो कोई सुन्दर कमल की अधखिली कलि हो ॥ 

अलि बल्लभ अलि अलक अलीके । लाल ललामन लावन लीके ॥ 
दोइ पद रेड अछद  छबि भोरी । मृदुल मुकुल तुल रंगत रोरी ॥  
बालक के माथे पर झुलते बाल,  लाल कमल पर भँवरे के समान  दिखाई दे रहे थे । माथे की रेखा- चिन्ह बालक के मुख में सुन्दरता भर रही थी । भोली छवि  से युक्त मुख पर  अधर के दो पद, कलि की कोमल पंखुडियो  के समान लाल-लाल थे  ॥ 


बाल कल बल अंग प्रत्यंगे  । गगन गमन जनु बाल पतंगे । 
चारु चरन कर कोमल कैसे । कलि कल के दल कोपल जैसे ॥ 
बालक के समस्त अंग अवयव सुदर स्वरूप लेकर ऐसे वलयित थे जैसे कि आकाश में किरो से वलयित होकर सूर्य का उदय हो रहा हो सुन्दर कोमल पैर और हाथ कैसे थे जैसे कलि के पल्लवित दल कोमलता लिए हुवे  होते हैं ॥ 

चरन  कर करन बर रंग नयनन कूटक गोल । 
लाल भाल बाल बिहंग कपूर गौर कपोल ॥ 
हाथ-पैर, का आदि सभी अग श्रेष्ठ वर्ण के थे आँखों की पुतलियाँ काले राग की थी । बालक का माथे पर मानो सूर्योदय हो रहा हो 
और गाल कर्पुर के समा गौर वर्ण के थे ॥ 

 अंक अंक अँख अंकुरित अंकुर अंग दुआर । 
अपूरब दर्सन रूप कृत अंग अंग रस सार ॥  
सभी अंग प्रत्यंग समस्त देह पर आँख खोलते हुवे अंकुरित हो रहे थे । बालक के इस रूप का दर्शन रूप अद्वितीय था । अंग अंग 
रस अर्थात बल युक्त थे ॥ 

सोमवार, ११ मार्च, २०१३                                                                                         

दै गौ ग्रासन गोदन ठोटे । धरी आँचर पोंछि कर होंठे ॥ 
उय गमनै करमन नित कारे । गर्भ जनन तन लाग न भारे ॥ 
गोद में भरे बछड़े रूपी बालक को गाय अवरूप माता ने भोजन दिया और अपने आँचल से उसका मुख पोछ कर प्रात : के नित्य कार्य करने हेतु चली गई । प्रसूति के पश्चात अब तन भारी नहीं लग रहा था  ॥ 

कहँ भावज लौउ न आहारे । असन अंगन सनेह सारे ॥ 
प्रसूति प्रासन  प्रास बिमूखे । भवज मनुहर रख धरे मूखे ॥ 
भावज कहती आहार लो आहार अंग को बल देता है और सुधा भी उत्पन्न करता है ॥ किन्तु प्रसूति भोजन करने से मना कराती 
क्योंकि वह भोजन बड़ा विचित्र था  और भावज मान मनुहार कर मुख पर रख देती ॥ 

भै दुइ पहरी सूर चढ़ आए । गगन गमन बहुस ताप बढाए ॥ 
देइ पी के पद चाप सुनाए । कुँवरहु ममतै बँध चले आए ॥ 
दोपहर हुई सूर्य शिखर पर चढ़ गया गगन में विचरता वह ताप को बहुत ही बढ़ा रहा था । इतने में ही पिया के पदचाप की ध्वनि सुनाई पड़ी । पिया  बालक के मोह में बांध कर चले आए ॥ 

मोह्कारिनि बहु खेरि खेरे । पाद पास पूरन लय घेरे ॥ 
जिन के आवनु आस न पैठे । नत सिस सन्मुख आसन बैठे ॥ 
यह मोह माया भी बहुत खेल करती है । बेदी में बाँध कर पूरा घेर लेती है ॥ जी के आने की कोई आस नहीं थी वे ही शीश झुका कर 
सामने बैठ थे ॥ 

बैसे नवन नयन सजन ललचहि लालन लाढ़ । 
जस कोउ महराउ रजन अहम् सिहासन छाढ़ ॥ 
नयन झुका कर बठे हुवे प्रियतम लाड-चाव हेतु ऐसे ललायित हैं । जैसे कोई राज्य का महाराजा अपना अहंकार रूपी सिंहासन का त्याग कर दिया हो ॥ 

मंगलवार, १२ मार्च, २०१३                                                                                                

निरख बधु प्रिय मन महँ मुसुकाए । लेइँ भावज सिसु गोदि धराए ॥ 
भुज अंतर पितु चितबत चीते । नव जात चरित चित हर जीते ॥ 
प्रियतम का ऐसा स्वरूप  देखकर वधु मन में मुस्कराती हैं । और भावज शिशु को लेकर प्रियतम की गोद में दे देतीं हैं ॥ शिशु को भुजाओं में धारण कर पिता उसे स्तब्ध होकर निहार रहे हैं । उस नवजात के चरित्र ने पिता के मन को हरण कर उसे जित लिया ॥ 

पाद पदुम पद अरुनै पोरे । पाल लोकनु कर पलने पोढ़े ।।
हँकरत हलरत अरु नख मेलें । अरस परस पितु सिसु सन खेलें ॥ 
बालक के चरण कमल के सदृश्य है और चरणों की उंगलियाँ अरुणाई लिए है । शिशु को हंकारते और हिलोरे देते पिता उसके आँख-नाक़ से स्वयं का मेल करते हुवे पिता शिशु को अंक में लिए क्रीडा करते सुशोभित हो रहे हैं ॥ 

तात करज सिसु कर गह धारे । का रे कह घरि घरि पुचकारें ॥ 
कभु मुँदरित पट नयन उघारे। कभु उघरित सिसु पाट दुआरे ॥ 
जब शिशु ने पिता की उँगलियों को हाथों में पकड़ लिया तब क्या रे! क्या रे! कहते हुवे बार-बार उसे पुचकारते हैं ॥ शिशु कभी तो मूंदे हुई आँखों को खोल लेता है कभी खुली हुई आँखें बंद कर लेता है ॥ 

पुत पितु मीलन अति सुखदाई ।  देखि दिरिस मूदित भइ माई ॥ 
जब पी सन रय नयनन राँचे । बधु कछु कही न पी कछु बाँचे ॥ 
पिता -पुत्र का यह मिलन अति सुख दाई है । इस दृश्य के दर्शन प्राप्त कर माता अति प्रसन्नचित है ।। और जब नयन प्रियतम के साथ संयुक्त होते हैं । तब न वधु कुछ कहती हैं न प्रियतम से कुछ कहते बनता है ॥ 

दुनौ बरत बिरह मह जस दीपक बर्ति प्रसंग । 
तरस दोनौ अरस परस एक दूजन के संग ॥      
दोनों दीपक और वर्तिका के प्रसंग, विरह अग्नि में जल रहे हैं, परस्पर आलिंगन और संग प्राप्त करने को दोनों ही तरस रहे हैं ॥ 

बुधवार, १३ मार्च, २०१३                                                                                      


कबहुक बधु कभु दरस दुलारे। सुख सम्पद नेह न्यौछारे ।। 
दुइ बानिक अनुराग मिलीते । कहि न सकै बुध बिदित भनीते ।। 
कभी वधु को तो कभी पुत्र को देखते हुवे सुखराशि और स्नेह को न्यौछावर करते ॥ दो रीति का जो अनुराग समिश्रित था उसका वर्णन प्रख्यात कवी भी नहीं कर सकते ॥ 

अजहुत रहिं दुइ जुगतहि जोटे । करत बाल किर्या बहु खोटे ।। 
तात मात बन भयउ तिगाढ़े । गहस्त के करतब अरु बाढ़े ।। 
नटखट बाल क्रियाएं करते हुवे अभी तक वर-वधु दो ही थे । अब वे पालक बन कर तीन हो गए और उनकी गृहस्थ से सम्बंधित कर्त्तव्य और अधिक बढ़ गए ॥ 

सार बचन अस कहा बुझाई । सैन सकुचित कहि भौजाईं ।। 
गुनत सुनत अस  बोल बतियाए । अरु तनि बेरि महँ सजन सिधाए ।। 
ऐसे सार वचन कह कर, संकेत पूर्ण वाणी में संकोचित भाव से भावजों ने समझाया ॥ इस भाँति श्रव्य वचनों से ज्ञान लेते प्रिय वार्त्तालाप में व्यस्त रहे और किंचित समय के पश्चात प्रस्थान किये ॥ 

चले नयन पट पीछइ पीछे । भए ओझर ते बधु पग खींचे ।। 
निठुर पिया पुनि लेइ न सोरे । तब के गवने फिर न बहोरे ॥ 
वधु के नयनों के द्वार पट प्रियतम के पीछे पीछे चले और जब प्रिय ओझल हुवे तब पट के चरण वापस हो लिए ॥ निष्ठुर प्रियतम ने फिर वधू की सुध नहीं ली । उस दिन के गए फिर वो वापस नहीं आए ॥ 

छठी के राउ राज मह फाटे फाटे टाँक ।
पुनि बिरहा अवसाद सह भइ बधु छड़ी छटाँक ।। 
प्रीत संपति का जन्म से ही दरिद्र राजा का शासन था । अत: अपने फटे हृदय को टांका लगाना ही उचित था । और फिर ऐसे फटे ह्रदय को धारण किये वधु विरह के अवसाद में पुन: एकांकी हो गई ॥ 

अम्बर अम्बर ढांक के बीते दिन कुल पाँच । 
आई चुनर नख टाँक के छठी लालन राँच ।।   
आकाशों को पार कर पांच दिवस चले गए । और फिर लाल रंग में अनुरक्त चुनरी में रत्न टांक कर लल्ले की छठी आई ॥ 

गुरूवार, १४ मार्च, २०१३                                                                                                  

औषध सदन दिन पाचम पूरे । छठी दिन सब जन भवन बहुरे ॥ 
आवतहि नव जात अन्हवाए  । सुखद सलिल सिस सरीर सुहाए ॥ 

ललन बसन लख लवनित लाले । कंचन खन घन घुंघरुहु घाले ॥ 
कूर कुसुम कहुँ कलि कलियाई । कनक कला करि कारू कलाई ॥ 

झन झन झगुलन झालरी झुरे । झौंर झौंर चार चंचरी फुरे ॥ 
दूर दूर दुइ धारी धारे । कलित कलापक कंठ कगारे ॥ 

चौतनि ऊपर फुंदरि लटके । चारु भेस अस अँख जा अटके ॥ 
सुन्दर झाबर जोर सँवारे । रूपांकन धर रूपब सारे॥ 

नभ केतु कर कुमकुम दै काजर रैनी कार । 
बड़ा लावन सुम सुम लै सजी सिंगारि थार ॥   

शुक्रवार, १५ मार्च, २०१३                                                                                                              

ललन गोदि लै पट पहराई । मुद भौजाई मंगल गाई ॥ 
अभरित लावा लोकन कैसे । दिब्य बसन मनि रतनन जैसे ॥ 

नैन करज कर काजर घीरे । जनु अम्बर घिर घन गम्भीरे ॥ 
केस भंवरिहि भर घुँघरारे । अह केसव कह माए सहारे ॥ 

कहुँ कल कुंचित कुण्डल कारे । जनु को कुंडनि डोरे डारे ॥ 
कट कन पाछे तुर धरि बिंदे । लखत बदन जनु  अलि अर्बिंदे ॥ 

तेजो रूप अस चौरस भाला । जस वर्धन कर तेजस लाला ॥ 
तेज तूल तुल लाखन रंगे । कुल दीपक धर तिलक नियंगे ॥ 

चाँद चकासित बदन प्रकासित छबि ऊरे ऊरे छितराए  ।  
छबिबत नंदन निरखत कानन फूर फुरे फुरे मुसुकाए ।। 
बसन ललन के बरन धरे कि ललन बसन के बरन भरे । 
अभरित अभरन वपुर्धरे कि अभरन अभरित वपुर हरे ॥  

मोल लइ मौली गाँठी रचि मल मंगल माल । 
पो सकल मंडल कांठी कंकनी घुँघरु घाल ॥ 

कंठी मनि श्री बलित कलित करधनी कल धौत । 
लखत ललन लौ ललित भए कंठ हिर हिरन मयी ॥ 



  
 






      
  



















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