शनिवार, १६ मार्च, २०१३
भाग नखत बल संपद रेखे । कहैं बिरध तिन बिरंचि लेखे ॥
जाने का जुगतिहि जोग लिखाए । भावी बचन कहु को कह पाए ॥
भाग्य के तारे पर चमकती सौभाग्य शक्ति की रेखाओं को इस दी स्वयं विधाता ही लिखते है
ऐसा बढ़े वृद्धों का कहना है ॥ न जाने कौन सी योग्यता की युक्ति यह शिशु लिखाए अब भविष्य को
तो कोई पढ़ नहीं पाया है ॥
भाग धेय जे भाजक देई । कही बधु निज करम कर लेई ॥
भव सागर जे भूषन जोगे । पार तर करहीं तेहिं लोगे ॥
दाता जो भी सौभाग्य देता है वह स्वयं कर्म करने से ही प्राप्त होते है ॥ जो मनुष्य जगत के भूषन रूप
की योग्यता रखते हैं केवल वे ही इस संसार के बंधन को पार कर पाते हैं ॥
जनम मरन के नियति नियंता । सेष सकल मत मनु के मंता ॥
काचे पाके फर बहु फ़ूरे । कोउ ढुरके को डारि झूरे ॥
जन्म-मरण का नियंत्रक तो यह विधाता है । शेष सभी विचार लोगों के विचारे हुवे हैं॥ कच्चे-पक्के रूप
में फल तो बहुत ही फूलते हैं किन्तु कोई गिर जाता है तो कोई दाल में प्रफुलित रहता है ॥
दान धरम सद करम सहारे । मनु भव बंधन पार उतारे ॥
सिन्धु तर बहु नदी अरु नाले । एक गौर मधुर एक करू काले ॥
दानशील स्वभाव और सदकर्मो के सहारे मनुष्य इस जन्म-मृत्य के चक्र से विमुक्त हो सकता है । सागर
में नदी और नाले दोनों ही समाते हैं किन्तु एक स्वच्छ और मधुर प्रकृति का और एक कडुवा और मलिन
होता है ॥
भोगी पाप भार भरे भले मन भार परे ।
अमल नीर ऊपर तरे मैल मलि नीच धरे ॥
जो मनुष्य भोग वादी होते हैं वे पापो के भार से युक्त होते हैं जबकि भलेमानस पापों के भार से विमुक्त होते हैं ।
मलहीन जल ऊपर तरता है और माली जल नीचे रहता है ( उसी प्रकार मनुष्य की भी गति होती है ) ॥
रविवार, १७ मार्च, २०१३
सुनत घर बर अस बचन भनिते। कहि आ भए धिय त्रिगुनी गनिते ॥
सुन अस धिय के मुख हँसि छाई । जे न बिकसि ते कलि बिकसाई ॥
घर के बड़ों जब ऐसी कथा-वचन सुने तो कहाने लगे कि पुत्री को माया की गणित आ गई ॥ ऐसा सुन कर धिय
को हँसी आ गई ॥ जो कलियाँ अब तक नहीं स्फुटित नहीं थी वह भी प्रस्फुटित हो उठी ॥
बोलि मधुर अब भइ महतारी । आई मोहिहु जग चतुरारी ॥
सकल दिसा भै बहु सुखदाई । ममतइ बधु पी सुध बिसराई ॥
वह मीठे से बोली अब मे माता बन गई हूँ मुझे भी सारे सांसारिक प्रपंच आ गए हैं ॥ ( इस प्रकार ) सारी दिशाए
बहुत ही सुखदाई हुई । और बालक की ममता में वधु पीया की स्मृति भी भूलती रही ॥
बिरह बदरि पर गगन न छोरे । लगे छटे झट भए घन घोरे ॥
काम क्रोध मद लोभ लिपसाए । प्रान पिया के मतिहि घेराए ॥
किन्तु विरह के बादल गगन से विलुप्त ही नहीं होते । थोड़े से छटे प्रतीत होते किन्तु पुन: सघन स्वरूप हो जाते ॥ काम,
क्रोध, मद और लोभ के लालच की लिप्सा ने प्रान पिया की बुद्धि को घेर लिया है ( अत : वधु की सुध ही नहीं ले रहे )
मंगल अवसर चारन चारे । तुरहि खंड सुर भवन दुआरे ॥
एहि बिधि छठ के उत्सव पूरे । अरु सिसु पितु रहि दूरहिं दूरे ॥
शुभ अवसर में रीती पूर्वक आचरण से पीहर का के भवन-द्वार ढोल की थापों से सुरमई हो उठे ॥ इस प्रकार छठी का
उत्सव उल्लास पूर्वक समाप्त हुवा । और शिशु के पिता दूरियाँ बनाए हुवे थे ॥
जथा जोग बसन भूषन दै दिज भामिन दान ।
करत बहु मंगल वादन हरसत किए प्रस्थान ॥
यथा योग्य वस्त्र आभूषण को ब्राम्हण की स्त्री को दान दिया । बहुंत से आशीर्वचन कहते हुवे हर्ष पूर्वक ब्राम्ह स्त्री चली
गई ॥
सोमवार, १८ मार्च, २०१३
पुत के चित दुइ करमन जाने । निंद नयन अरु उदर दाने ॥
सिसु के रहि तनि दुबरै काई । कही भवज पी पय भरजाई ॥
पुत्र का ह्रदय तो दो ही काम जानता, आखो से सोना और उदर में खाना ।
शिशु की काया थोड़ी दुबली थी , भावज बोली उह पीने से शरीर भर जाएगा ॥
काल कलित क्रम क्रमसह बीते । भर बिरह अह अहर्निस रीते ॥
अस्त गमनु अहि कालहु भाला । उयऊ अहुटे भालहु काला ॥
काल अपना क्रम ग्रह कर क्रमश: बितता गया । विरह से भरे दिन-रात भी व्यतीत हों लगे ॥
डूबते हुवे सूर्य को अन्धेरा खा जाता और उदित होता सूर्य अँधेरे का काल बन जाता ॥
कोटिक छिनु पर भए एक मासे । पीहर घर महँ बधु रहि बासे ॥
पुनि एक दिन बहु दुःख कर पोई । कुँवर काय जाने का होई ॥
करोड़ छन के बाद एक महिना हुवा । और वधु का निवास पीहर में ही रहा ॥
पुन: एक दिवस बहुंत ही दुःख लेकर अंकुरित हुवा । बेटे की काया को जाने क्या हो गया ॥
ताप तनुज तन तापन थापे । कोउ जतन जुत दाप न थापे ॥
बयस लघुत पर गढ़ ताप बढ़े । घडी घड़ी बढ़ बहुस ही चढ़े ॥
तुज के तन ने ज्वर पकड़ लिया । और कोई भी उपाय से वह स्थिर नहीं हो रहा था अर्थात
बढ़ता ही जा रहा था । हुशु की अवस्था तो छोटी थी किन्तु ज्वर विकराल रूप धारण किये हुवे था
और क्षण प्रतिक्षण उसका आकार बढ़ कर ऊपर चढ़ता ही जा रहा था ॥
मनु तापित देही अँगारि में ही अगनित बसन बसे ।
दरस द्रोन कलस दृग द्रविनोदस अरनित यजमन से ॥
माए बहु सनेही चूमकर लेही लालन निलयन लसे ।
हो जहि कछु अस लघु बाल बयस गहबरन गह गसे ॥
तपती हुई देह मानो अंगीठी स्वरूप हो और उसे अगि के वस्त्र धारण कर लिए हों वह ऐसे दर्शित हो
रहा है जैसे वह कोई यज्ञ का पात्र हो और उसकी आंखें अग्नि प्रदान करने वाले काठ के यंत्र के समान
होकर यज्ञ का आयोजन कर रही हों ॥ माता का स्नेह उमड़ पडा उअसन लाल को चूमकर ह्रदय लगा लिया ।
ऐसी लघु अवस्था में कही कुछ हो जाए यह सोचकर बहुंत ही घबरा जा रही थी ॥
भोर भए नभ भानु भरे बाल पलक रह मूँद ।
मंद कान्त मुख ना धरे प्यास के एकहु बूँद ॥
भोर हुई अभ उरु से आभर्णित हो उठा, कितु बालक पलको को बंद किए हुवे था । और मुख मुरझा गया था
वह माँ के दूध की एक भी बूंद भी ग्रहन नहीं कर रहा था ।।
मंगलवार, १९ मार्च, २०१३
ताप तपन भए कुंदन लाला । तपित पदुम पद कर उर भाला ॥
नीर भरी धिय जी भरी लाए । बारहि बार सिसु कंठ लगाए ॥
ज्वर के ताप से लाल का सोने जैसा शरीर मानो कुंदन हो चला था । ज्वर कमल जैसे चरण एवं हाथ और छाँती
से लकर माथे तक को तपा रहा था ॥ नीर भर के पुत्री का जी भर आया और वह बार-बार सिसु को कंठ से लगाने
लगी ॥
एक बार त बिलख बिलापी । रोदन कर बहु थर थर काँपी ॥
तब तात भ्रात साद अकुलाहि । लै जहु कहि बेदु राज पाहिं ॥
एक बार तो वह बहुत ही बिलख कर रोई । और रोने से बहुंत ही कम्पित हो गई । तब पिता और भ्राता क्लांत होकर
व्याकुलित हो उठे ॥ और शिशु को श्रेष्ठ वैद के पास ले जाने को कहा ॥
अरु अरुँनई कर करुन सरिते । गै बेदुहु पहिं लालन लसिते ॥
उर कम्पन गति नाभि निरीखे । लालन लोचन तीर परीखे ॥
आँखों में लालिमा भर कर माओ करा की नदी ही प्रवाहित हो रही है । और बालक को चिपकाए वधु वैद्य के पास गई
।। वैद्य ने ह्रदय की स्पंदन गति और नाभि का निरिक्षण किया तथा पुत्र की आँखों को फैला कर उसका परिक्षण किया ॥
ताप मापित तप अंक कलिते । गुन गनित कर औषधि लखिते ॥
कहि दौ तेहि समउनुसारे । पान कराहु सह सुधाधारे ॥
ताप मापक लेकर तापांक गिह कर फिर सोच विचार कर औषधि लिखी ॥ और कहा इस औषधि को समय अनुसार देवें ।
और साथ में माता के प्रेमरस का पान कराते रहें ॥
बैदु राज के बचन सुन बधु के उर परि थाप ।
औषधि ले के नियम गुन घर आपन लइ धाप ॥
श्रेष्ठ वैद्य के वचन को सुन कर वधु का हृदय पर ठंडक पड़ी । औषधि लेने की विधि पूछ कर घर पहुच कर संतोष धरा ॥
बुधवार, २० मार्च, २०१३
पहर पहरि चढ़ दिन मनि बाढ़े । साँझ ढरी ते रजनी गाढ़े ॥
सरर सरित सित सरयु तरंगे । पर ताप तरित न तनु भवंगे ॥
पहरों पर चढ़ कर सूर्य आगे बढ़ा । साख के ढले पर रात भी गहरा गई ॥ नदी की शीतलता वर कर वायु सर्प के जैसे तरंग
धरे सर-सर करके प्रवाहित हो रही थी । किन्तु पुत्र के शरीर का ताप नहीं उतरा ॥
सकल रैन नैनन महँ काटी । किरन पानि तर बाटिहि बाटी ॥
आह अह हत न आधि बियाधि ।अहरा न अहरे औषधि आदि ॥
सारी रात आँखों में ही अर्थात जाग कर काटी । किरण पति मार्ग,कुञ्ज और भवनों में उतरे ॥
आह! दिन के अहिष्ठाता देवता ने भी मन और शरीर के पीड़ा रूपी दानव का वध नहीं किया ॥
निवार न रोधि अनु बहु रोगे । अकुल बियाकुल बालक भोगे ॥
पुनि गवनै बधु बैदु दुवारे । कहि आले महि भरतिहि कारें ॥
रोगाणु रोग फैला रहे थे वे न तो न उनका निवारण हुवा न वे रोधित हुवे । आकुलित यावं व्याकुलित कर वे बालक को ग्रसे
जा रहे थे ॥ पुन: वधु , वैद्य के भवन गई तो वैद्य ने कहा को चिकिसाल की देखरेख में रखो ॥
हृत कंप मापि कंठन धारे । बेद राज करि बहु उपचारे ॥
सुन सिसु के भर्ति समाचारे । दौउ पहरि पर पिया पधारे ।।
स्पंदन-मापी को गले में लटकाए वैद्यविशेषज्ञ ने बहुत प्रकार के उपचार किये ॥ शशु के ऐसी देखरेख के समाचार सुन कर
दोपहर पश्चात पिया का आगमन हुवा ॥
पित प्रीत के परस तरस भरन तनुज भव अंक ।
मनहु चातक रैन तरस अंकन बाल मयंक ॥
पितृ -प्रेम के स्पर्श से पिया पुत्र को गोद में लेने हेतु तरस रहे थे । मानो पपीहा रात्रि में उगते हुवे चाँद को अंक में भरने हेतु
तरस रहा हो ॥
गुरूवार, २१ मार्च, २०१३
बोलत बाल मिले अवलोके । अंक भर लिए परस्पर होके ॥
भुज दल अंतर बहु पुचकारे । अजहूँ तनु तनि सीतल धारे ॥
बालक से बोलते बतलाते हुवे मिले और उसे गोद में भरकर देखा ॥ भजाव मन भरे हुवे उसे बहुंत पुचकारा । अब शिशु का
तन का ताप थोड़ा शीतलता को प्राप्त कर चुका था ॥
दीन भाव धर मुख कर भोरे । प्रिया नैन सन नैनन जोरे ॥
पूछे गहि कर आँचर ओरे । का तव चलहु संग महँ मोरे ॥
मुख पर भोलापन लाते हुवे, व्यथित भाव से भरे एओ को प्रिया के नयनचार करके आँचल का छोर पकड़ हाथ में लेकर पूछा
क्या तुम मर साथ मन चलोगी ?
धीरज के उर उपल धराई । बधु रुप धरी निर्झरी नाईं ॥
नयन पटल तल तरि तरलाई । झर झर निर्झर नीर बहाई ॥
धैर्य के पाषाण को धारण किये हुवे ह्रदय से युक्त वधु का स्वरूप मानो पहाड़ी के जैसे हो गया । आखो के सतह पृष्ठ की तलहटी
द्रवित हो उठी क्योंकि वहां से झर झर करता हुवा जल का झरना फूट पडा ॥
करज धरे तौ करज अहुटाए । करक धरे तौ करक छुटवाए ॥
जे केरे करेरे कलाई । बदन बचन कछु कहि करुवाई ॥
पिया उंगली पकड़ें तो उंगली हटा दे । हाथ पकडे तो कसकर छुटवा ले ॥ जब कठोरता पूर्वक कलाई पकड़ी तो मुख से कुछ
कुछ कड़वी बात बोले लगी : --
भै रसवंती रस की रूखी । करुर करेरे कह के करुखी ॥
नाम धरे श्री दया निधाने । पर दया के धर्म न जाने ॥
तो पिया ने कहा है तो रसीली किन्तु रस बिलकुल भी नहीं तो उत्तर में कड़वे करेले कह कर वधु ने तिरछे से देखते हुवे कहा
-- नाम तो इतना बड़ा रखा श्री दया के भंडारी किन्तु किन्तु दया का व्यवहार बिलकुल नहीं जानते ॥
मुख कांति रमन प्रभास, दिया प्रिया ससि संग ।
तीनौ के कर्षन कास, पीहू पिया पतंग ॥
दीपक, प्रेयषी, चद्रमा के मुख का सौंदर्य वैभव अति दैदीप्यमान होता है । पतंगा, प्रियतम एवं
पपीहा, तीनों को यह मुखद्युति ही आकर्षित करती है ॥
शुक्रवार, २२ मार्च, २०१३
दहन गर्भ के दाहु न मेटे । एकहु दिवस कहु काहु न भेटें ॥
माने हम बहु निगुन समेटे । पर एहि सिसु तव बुढ़तइ खेटे ॥
किस कारणवश तुम हमसे एक भी दिन नहीं मिले बताओ तुमे क्रोध क्यों नहीं त्यागा ॥
माना हमने बहुत से दुर्गुण एकत्र किये हुवे हैं । किन्तु यह बालक तो तुम्हारे बुढ़ापे की लाठी है ( फिर
इससे कैसा बैर )॥
मन महँ भरे भार निकसाई । चार कटुक बहु बचन सुनाई ।
एक कंठ रसन बानि मुखरिते । करुर मधुर जने कहाँ कलिते ।।
भीतर के भारीपन को हल्का करते हुवे वधु ने पिया को चार कड़वी बात सुनाई । एक ही गले और
एक ही जीभ से वाणी मुखरित होती है । किन्तु यह वाणी, कड़वी एवं मीठी जाने कहाँ से होती है ॥
पाटि पलंग बैसे सकुचाए । पिय मौन श्रवनु नयन झुकाए ॥
चित बहु चीते पर कह न पाए । लै बिदाए अरु चरन बहुराए ॥
(ऐसे कड़वे वचन सुनकर ) पलंग की पट्टिका पर बैठे हुवे प्रियवर को बहुत ही संकोच हुवा । और मौन
धारण कर झुकी आखों से सब सुनते रहे ॥ फिर विदा ले कर वापस लौट गए ॥
दुइ दिन औषध भवन बिश्रामे । तहँ लहुट आए पीहर धामे ॥
ताप तरत सिसु मांगे दाने । रद छद रुचिकर पयसन पाने ॥
दो दिन चिकित्सालय में उपचारित होने के पश्चात पीहर लौट आई ।। ज्वर के उतरते ही माता का प्रेमरस
पीने के लिए रोया । और होठ से रूचि पूर्वक प्रेमरस पीने लगा ॥
घरी भइ पहर पहरि दिन, दिन भए दुइ चार ।
घरी पहर दिन कर अधिन, लै सत्दिन आकार ॥
घडिया पहर बनी, पहर दिनबने, और फिर दिन दो चार हुवे ॥ घडियो को, पहरों को एवं दिवस को अधीन करते
हुवे सप्ताह ने आकार धरा ॥
बारहि बार आए ससुर करें मान मनुहार ।
भए बहु बखत अब बधु तुर पठो दौउ ससुरार ॥
फिर वधु के स्वसुर मान मनौवल करते हुवे बार बार पीहर आने लगे वे कहते वधु को यहाँ रहते बहुंत दिवस
हो गए अब उसे तत्काल ही ससुराल के लिए विदा कर दो ॥
शनिवार, २३ मार्च, २०१३
समझ बूझ पितु सोच बिचारे । धिया पठावन निर्नय धारे ।।
धिय ते कहि बस अब न एठाहू । रजु तूर जहि जे अति कसाहू ।।
दे भेट बहु चारन कीन्हें। बर संग बधू पितु पठै दीन्हें ।।
कल्याणकारी एवं अनुकूल दिवस देख कर पितृ भाव में रहे वाली सुहागिन को उसका सुहाग ले जाने के लिए आया ॥
रीति आचार करते हुवे तात -भ्रात ने बहुत से उपहार देकर वर के साथ उसकी वधु को भेज दिया ॥
भर अभरन बहु बसन सुबासे । सुभगा सुत धर चलि घर सासे ।।
ससी बर अम्बर अंत बिराजे । बधु बर जुग कर भू पर साजे ।।
सुगन्धित वस्त्र एवं आभूषण से सुसज्जित पति की प्राण प्यारी ने पुत्र के साथ ससुराल की ओर प्रस्थान किया ॥
जिस प्रकार चद्रमा को वरन किये हुवे अम्बर क्षितिज पर विराजमान है उसी प्रकार वर वधु युग्मन धरती पर
सुशोभित हो रहा है ॥
लिके लगे ॥ नीलम वर्ण की आभा से युक्त लालमणि के वर्ण को प्राप्त स्वर्ण का दैदीप्य लिए रजनी अवतरित हुई ॥
सुरथ सुहासित सस संकासे । चकित चकासित कर नीकासे ।।
नभस नभ चमस दिसि निसि नीके । निभ निभ नव अनंगनि ही के ।।
सुन्दर रथ पर मृदु हास्य से अलंकृत चन्द्रवदनी का रूप किरणों के समान दैदीप्त होकर विस्मित कर रहा है ।। रात्रि में
गगन का चाँद बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रहा है । मानो चाँद का देदिप्त मुग्ध करने वाली प्रियतमा का ही हो ॥
अम्बर बर बधु बिधु बियुग भइ बहु कारी रात ।
जब दौनउ दरस संजुग अभरन धारी रात ।।
आकाश और चाँद के वियोग से तथा वर एवं वधु के वियोग से रात बहुत काली होकर अमावस्या की रात हो गई ॥
जब ये युगल जोड़े में दिखाई देने लगे तो मानो रात ने आभूषण भर लिए हो ( अर्थात वह पूर्ण हो गई ) ॥
रविवार, २४, मार्च, २०१३
बधु अगमन के श्रवन सँदेसे । उदित मुदित सुम अभरन भेसे ।
कहत बिनत करि बन के भोना । अभरन बसन सजन दै दौ ना ॥
वधु के आगमन-सन्देश को सुनकर, पुष्प प्रफुल्लित और हर्षयुक्त होकर वेश भरने हेतु उपवन के चक्कर
लगा लगा कर उससे विनती करने लगे कि हमें सुसज्जित होना है अत: वस्त्र और आभूषण दो ना ॥
दिब्य बसन बन भौतिक भासे । बहुत बरनत माँगे प्रभा से ॥
सुमन सुमन भँवरे बन सँवरे । पत पत पग धर प्रियघर भँवरे ।।
तब उपवन ने प्रभा से बारम्बार याचना करके, अलौकिक वस्त्र और चमकते मुक्तिक मांगे ॥ उपवन के सारे
पुष्प और भ्रमर इन वस्त्र भूषण को आभरित कर सज सँवरे और तैयार हो पिया के घर में पत्तों पर चरण
रखकर घुमने लगे ॥
नीर नुपूर पुर मुकुति माले । तिरन किरन कन कंचन वाले ॥
हिरन सकल कल कंठी घाले । लोकत उपवन नयन निराले ॥
जल कण के नुपूर और मोती की माला जिसपर सोने के कन झालरों पर झूल रहे थे ऐसे के कल अंश स्वरूप
इन पुष्पों के कंठ में विभूषित यह माला उपवन में अनूठी ही प्रतीत हो रही थी ॥
बहु आगमन के समाचारे । परस पूछ डारि बारहि बारे ।।
बेर बहुंत भै रयनि ढराई । मंद कांति प्रभा मुख छाई ॥
और वधु के आगमन का सूचना-सन्देश को डालियों को छू कर बार बार पूछ रहे थ कि वधु आ गई क्या ॥ समय
बहुंत हो गया वधु की प्रतीक्षा करते करते रात हो गई । पुष्पों के खिले हुवे मुख पर उदासी छा गई ॥
हरे हरे हर हेरे हारे । हिरन सकल कल कंठ उतारे ।।
बोझिल पलक निंदन धारे । शनै शनै सुति गै सुम सारे ॥
धीरे-धीरे अवधारित किये हुवे हार को निकालते हुवे समस्त स्वर्ण कणों को कंठ से उतार दिए ॥ थकी भारी पलको
पर नींद का अधिकार हो गया । धीरे-धीरे सारे सुमन निद्रा-मग्न हो गए ॥
केस रचित कर बिन्यास उरझ सँवारी रात ।
सिख तरु धर बंधन कास कोरि कियारी रात ॥
चाँदी का पत्र चढ़ी हाथी के दांतो से निर्मित पिटारी को ग्रहण किये रात की ज्योतिर आभा, सुंदरी का रूप धारण करने
हेतु स्वयं पर समस्त श्रृगार के साधन न्यौछावर किए ॥
सोमवार, २५ मार्च, २०१३
पिया की बाटिक के बाटिके । बह बहनु चाक बहिर आटिके ॥
गह बधु कुँवर की कटि घाटिके । कमल चरन धरि सकल साटिके ॥
पिया का भवन और भवन की वाटिका के बाहर दूर स्थित वाहन के चक्र आ कर रुके ॥ पुत्र के कुल्हे और गले के पृष्ठ
को अंक में भरे हुवे साड़ी समटते वधु ने वाटिका में अपने चरण-कमल उतारे ॥
निद्रा मगन सुम बन अवलम्बे । हरि हरि सुत बरि पग धरि अंबे ॥
एक छिनु तनि रोदन सुकुमारे । अधर करज धर कहिं चुप कारें ॥
सुमन नीद में डूबकर उपवन के सहारे सो रहे थे । पुत्र को ग्रहण किये हुवे माता ने धीरे धीरे चरण बढ़ाए ॥ एक क्षण के
लिए जब सुन्दर रोने लगा तो माता ने उसके अधरों पर उंगली रख कर चुप रहने को कहा ( इस हेतुक सुमनो की निद्रा
में विध्न न हो ।) ॥
भँवर पँवर पा पाइल पासे । हंस गमनि हिल हंसक हाँसे ।
सुमन सुत मगन अस न बिलासो । कहे पग पहरि हरि हरि हाँसो ॥
पाँव की ड्योढ़ी पर पायल मंडलित होकर बंधी थी । हंस के जैसे चलने वाली चलने वाली सुरांगना के हिलाने से उसके
घुंघरू हंस पड़े । सुमन सो रहे हैं अत: ऐसी क्रीडा मत करो चरन पादुका ने कहा थ थोड़ा धीरे धीरे हंसो ॥
कर कंगन कहि काहे काहे । हमहूँ बधू सन लगन लगाहें ॥
मनि मानिक भए लाल भभूके । देखु मूक कहि दै एक ढूके ॥
हाथ के कंगन कहने लगे क्यों? क्यों? हम भी तो सुमन के जैसे वधु के दुलारे हैं ॥ तो उनके मणि माणिक्यों को क्रोध आ
गया । कहे देखो यह मुक्का दें क्या एक दुक्का ॥
कुंडल कल बल कंठन रवने । कहे ए न माने कहु करु कवने ॥
लवंग लतिके कहिं बन भोले । चुप रहि कहु तौ सब ही बोले ॥
फिर कुण्डल, कोमल मधुर ध्वनि से धीमे स्वर में मीठे से बोले: -- कैसे भी कर लो ये कहे के माने नहीं हैं ॥ इतने में ही लौंग
ललाटिकाएं भोली बन कर बोली वधु ने चुप रहने को कहा था, देखो सारे ही बोल पड़े ॥
मधुर हँसत मसि पथ धानी मिस मलहारी रात ।
नैनन गहन घन पानी काजर घारी रात ॥
मधुर हंसी से हंसते हुवे काजल की डिबिया को शलाका से मिश्रित कर एवं मलहारते हुवे रात ने गहन घटा के जैसी काजल को
हाथो से आखो में उतारा ॥
कमल कपोल अधरोपर रुषन अधारी रात ।
रागारुनित रंजनी भर धरी अँगारी रात ॥
कमल के जैसे होंठ और अधरों को विभूषित करते हुवे उन्हें अरुण राग में रंगकर रात ने मानो अंगार ही भर दिए हों ॥
नभो नयन लट बीथि रथ चाँद उतारी रात ।
रचित खचित नगन नग पथ तरियर तारी रात ॥
फिर गगन की ऊँची अट्टालिकाओं के छाया पथ पर रात ने रथ पर से चाँद रूपी बिंदिया उतारी । और पथ के बहुमूल्य रत्नों
के सदृश्य नगण्य तारों से ढाँकते हुवे सजाया-सँवारा ॥
भाग नखत बल संपद रेखे । कहैं बिरध तिन बिरंचि लेखे ॥
जाने का जुगतिहि जोग लिखाए । भावी बचन कहु को कह पाए ॥
भाग्य के तारे पर चमकती सौभाग्य शक्ति की रेखाओं को इस दी स्वयं विधाता ही लिखते है
ऐसा बढ़े वृद्धों का कहना है ॥ न जाने कौन सी योग्यता की युक्ति यह शिशु लिखाए अब भविष्य को
तो कोई पढ़ नहीं पाया है ॥
भाग धेय जे भाजक देई । कही बधु निज करम कर लेई ॥
भव सागर जे भूषन जोगे । पार तर करहीं तेहिं लोगे ॥
दाता जो भी सौभाग्य देता है वह स्वयं कर्म करने से ही प्राप्त होते है ॥ जो मनुष्य जगत के भूषन रूप
की योग्यता रखते हैं केवल वे ही इस संसार के बंधन को पार कर पाते हैं ॥
जनम मरन के नियति नियंता । सेष सकल मत मनु के मंता ॥
काचे पाके फर बहु फ़ूरे । कोउ ढुरके को डारि झूरे ॥
जन्म-मरण का नियंत्रक तो यह विधाता है । शेष सभी विचार लोगों के विचारे हुवे हैं॥ कच्चे-पक्के रूप
में फल तो बहुत ही फूलते हैं किन्तु कोई गिर जाता है तो कोई दाल में प्रफुलित रहता है ॥
दान धरम सद करम सहारे । मनु भव बंधन पार उतारे ॥
सिन्धु तर बहु नदी अरु नाले । एक गौर मधुर एक करू काले ॥
दानशील स्वभाव और सदकर्मो के सहारे मनुष्य इस जन्म-मृत्य के चक्र से विमुक्त हो सकता है । सागर
में नदी और नाले दोनों ही समाते हैं किन्तु एक स्वच्छ और मधुर प्रकृति का और एक कडुवा और मलिन
होता है ॥
भोगी पाप भार भरे भले मन भार परे ।
अमल नीर ऊपर तरे मैल मलि नीच धरे ॥
जो मनुष्य भोग वादी होते हैं वे पापो के भार से युक्त होते हैं जबकि भलेमानस पापों के भार से विमुक्त होते हैं ।
मलहीन जल ऊपर तरता है और माली जल नीचे रहता है ( उसी प्रकार मनुष्य की भी गति होती है ) ॥
रविवार, १७ मार्च, २०१३
सुनत घर बर अस बचन भनिते। कहि आ भए धिय त्रिगुनी गनिते ॥
सुन अस धिय के मुख हँसि छाई । जे न बिकसि ते कलि बिकसाई ॥
घर के बड़ों जब ऐसी कथा-वचन सुने तो कहाने लगे कि पुत्री को माया की गणित आ गई ॥ ऐसा सुन कर धिय
को हँसी आ गई ॥ जो कलियाँ अब तक नहीं स्फुटित नहीं थी वह भी प्रस्फुटित हो उठी ॥
बोलि मधुर अब भइ महतारी । आई मोहिहु जग चतुरारी ॥
सकल दिसा भै बहु सुखदाई । ममतइ बधु पी सुध बिसराई ॥
वह मीठे से बोली अब मे माता बन गई हूँ मुझे भी सारे सांसारिक प्रपंच आ गए हैं ॥ ( इस प्रकार ) सारी दिशाए
बहुत ही सुखदाई हुई । और बालक की ममता में वधु पीया की स्मृति भी भूलती रही ॥
बिरह बदरि पर गगन न छोरे । लगे छटे झट भए घन घोरे ॥
काम क्रोध मद लोभ लिपसाए । प्रान पिया के मतिहि घेराए ॥
किन्तु विरह के बादल गगन से विलुप्त ही नहीं होते । थोड़े से छटे प्रतीत होते किन्तु पुन: सघन स्वरूप हो जाते ॥ काम,
क्रोध, मद और लोभ के लालच की लिप्सा ने प्रान पिया की बुद्धि को घेर लिया है ( अत : वधु की सुध ही नहीं ले रहे )
मंगल अवसर चारन चारे । तुरहि खंड सुर भवन दुआरे ॥
एहि बिधि छठ के उत्सव पूरे । अरु सिसु पितु रहि दूरहिं दूरे ॥
शुभ अवसर में रीती पूर्वक आचरण से पीहर का के भवन-द्वार ढोल की थापों से सुरमई हो उठे ॥ इस प्रकार छठी का
उत्सव उल्लास पूर्वक समाप्त हुवा । और शिशु के पिता दूरियाँ बनाए हुवे थे ॥
जथा जोग बसन भूषन दै दिज भामिन दान ।
करत बहु मंगल वादन हरसत किए प्रस्थान ॥
यथा योग्य वस्त्र आभूषण को ब्राम्हण की स्त्री को दान दिया । बहुंत से आशीर्वचन कहते हुवे हर्ष पूर्वक ब्राम्ह स्त्री चली
गई ॥
सोमवार, १८ मार्च, २०१३
पुत के चित दुइ करमन जाने । निंद नयन अरु उदर दाने ॥
सिसु के रहि तनि दुबरै काई । कही भवज पी पय भरजाई ॥
पुत्र का ह्रदय तो दो ही काम जानता, आखो से सोना और उदर में खाना ।
शिशु की काया थोड़ी दुबली थी , भावज बोली उह पीने से शरीर भर जाएगा ॥
काल कलित क्रम क्रमसह बीते । भर बिरह अह अहर्निस रीते ॥
अस्त गमनु अहि कालहु भाला । उयऊ अहुटे भालहु काला ॥
काल अपना क्रम ग्रह कर क्रमश: बितता गया । विरह से भरे दिन-रात भी व्यतीत हों लगे ॥
डूबते हुवे सूर्य को अन्धेरा खा जाता और उदित होता सूर्य अँधेरे का काल बन जाता ॥
कोटिक छिनु पर भए एक मासे । पीहर घर महँ बधु रहि बासे ॥
पुनि एक दिन बहु दुःख कर पोई । कुँवर काय जाने का होई ॥
करोड़ छन के बाद एक महिना हुवा । और वधु का निवास पीहर में ही रहा ॥
पुन: एक दिवस बहुंत ही दुःख लेकर अंकुरित हुवा । बेटे की काया को जाने क्या हो गया ॥
ताप तनुज तन तापन थापे । कोउ जतन जुत दाप न थापे ॥
बयस लघुत पर गढ़ ताप बढ़े । घडी घड़ी बढ़ बहुस ही चढ़े ॥
तुज के तन ने ज्वर पकड़ लिया । और कोई भी उपाय से वह स्थिर नहीं हो रहा था अर्थात
बढ़ता ही जा रहा था । हुशु की अवस्था तो छोटी थी किन्तु ज्वर विकराल रूप धारण किये हुवे था
और क्षण प्रतिक्षण उसका आकार बढ़ कर ऊपर चढ़ता ही जा रहा था ॥
मनु तापित देही अँगारि में ही अगनित बसन बसे ।
दरस द्रोन कलस दृग द्रविनोदस अरनित यजमन से ॥
माए बहु सनेही चूमकर लेही लालन निलयन लसे ।
हो जहि कछु अस लघु बाल बयस गहबरन गह गसे ॥
तपती हुई देह मानो अंगीठी स्वरूप हो और उसे अगि के वस्त्र धारण कर लिए हों वह ऐसे दर्शित हो
रहा है जैसे वह कोई यज्ञ का पात्र हो और उसकी आंखें अग्नि प्रदान करने वाले काठ के यंत्र के समान
होकर यज्ञ का आयोजन कर रही हों ॥ माता का स्नेह उमड़ पडा उअसन लाल को चूमकर ह्रदय लगा लिया ।
ऐसी लघु अवस्था में कही कुछ हो जाए यह सोचकर बहुंत ही घबरा जा रही थी ॥
भोर भए नभ भानु भरे बाल पलक रह मूँद ।
मंद कान्त मुख ना धरे प्यास के एकहु बूँद ॥
भोर हुई अभ उरु से आभर्णित हो उठा, कितु बालक पलको को बंद किए हुवे था । और मुख मुरझा गया था
वह माँ के दूध की एक भी बूंद भी ग्रहन नहीं कर रहा था ।।
मंगलवार, १९ मार्च, २०१३
ताप तपन भए कुंदन लाला । तपित पदुम पद कर उर भाला ॥
नीर भरी धिय जी भरी लाए । बारहि बार सिसु कंठ लगाए ॥
ज्वर के ताप से लाल का सोने जैसा शरीर मानो कुंदन हो चला था । ज्वर कमल जैसे चरण एवं हाथ और छाँती
से लकर माथे तक को तपा रहा था ॥ नीर भर के पुत्री का जी भर आया और वह बार-बार सिसु को कंठ से लगाने
लगी ॥
एक बार त बिलख बिलापी । रोदन कर बहु थर थर काँपी ॥
तब तात भ्रात साद अकुलाहि । लै जहु कहि बेदु राज पाहिं ॥
एक बार तो वह बहुत ही बिलख कर रोई । और रोने से बहुंत ही कम्पित हो गई । तब पिता और भ्राता क्लांत होकर
व्याकुलित हो उठे ॥ और शिशु को श्रेष्ठ वैद के पास ले जाने को कहा ॥
अरु अरुँनई कर करुन सरिते । गै बेदुहु पहिं लालन लसिते ॥
उर कम्पन गति नाभि निरीखे । लालन लोचन तीर परीखे ॥
आँखों में लालिमा भर कर माओ करा की नदी ही प्रवाहित हो रही है । और बालक को चिपकाए वधु वैद्य के पास गई
।। वैद्य ने ह्रदय की स्पंदन गति और नाभि का निरिक्षण किया तथा पुत्र की आँखों को फैला कर उसका परिक्षण किया ॥
ताप मापित तप अंक कलिते । गुन गनित कर औषधि लखिते ॥
कहि दौ तेहि समउनुसारे । पान कराहु सह सुधाधारे ॥
ताप मापक लेकर तापांक गिह कर फिर सोच विचार कर औषधि लिखी ॥ और कहा इस औषधि को समय अनुसार देवें ।
और साथ में माता के प्रेमरस का पान कराते रहें ॥
बैदु राज के बचन सुन बधु के उर परि थाप ।
औषधि ले के नियम गुन घर आपन लइ धाप ॥
श्रेष्ठ वैद्य के वचन को सुन कर वधु का हृदय पर ठंडक पड़ी । औषधि लेने की विधि पूछ कर घर पहुच कर संतोष धरा ॥
बुधवार, २० मार्च, २०१३
पहर पहरि चढ़ दिन मनि बाढ़े । साँझ ढरी ते रजनी गाढ़े ॥
सरर सरित सित सरयु तरंगे । पर ताप तरित न तनु भवंगे ॥
पहरों पर चढ़ कर सूर्य आगे बढ़ा । साख के ढले पर रात भी गहरा गई ॥ नदी की शीतलता वर कर वायु सर्प के जैसे तरंग
धरे सर-सर करके प्रवाहित हो रही थी । किन्तु पुत्र के शरीर का ताप नहीं उतरा ॥
सकल रैन नैनन महँ काटी । किरन पानि तर बाटिहि बाटी ॥
आह अह हत न आधि बियाधि ।अहरा न अहरे औषधि आदि ॥
सारी रात आँखों में ही अर्थात जाग कर काटी । किरण पति मार्ग,कुञ्ज और भवनों में उतरे ॥
आह! दिन के अहिष्ठाता देवता ने भी मन और शरीर के पीड़ा रूपी दानव का वध नहीं किया ॥
निवार न रोधि अनु बहु रोगे । अकुल बियाकुल बालक भोगे ॥
पुनि गवनै बधु बैदु दुवारे । कहि आले महि भरतिहि कारें ॥
रोगाणु रोग फैला रहे थे वे न तो न उनका निवारण हुवा न वे रोधित हुवे । आकुलित यावं व्याकुलित कर वे बालक को ग्रसे
जा रहे थे ॥ पुन: वधु , वैद्य के भवन गई तो वैद्य ने कहा को चिकिसाल की देखरेख में रखो ॥
हृत कंप मापि कंठन धारे । बेद राज करि बहु उपचारे ॥
सुन सिसु के भर्ति समाचारे । दौउ पहरि पर पिया पधारे ।।
स्पंदन-मापी को गले में लटकाए वैद्यविशेषज्ञ ने बहुत प्रकार के उपचार किये ॥ शशु के ऐसी देखरेख के समाचार सुन कर
दोपहर पश्चात पिया का आगमन हुवा ॥
पित प्रीत के परस तरस भरन तनुज भव अंक ।
मनहु चातक रैन तरस अंकन बाल मयंक ॥
पितृ -प्रेम के स्पर्श से पिया पुत्र को गोद में लेने हेतु तरस रहे थे । मानो पपीहा रात्रि में उगते हुवे चाँद को अंक में भरने हेतु
तरस रहा हो ॥
गुरूवार, २१ मार्च, २०१३
बोलत बाल मिले अवलोके । अंक भर लिए परस्पर होके ॥
भुज दल अंतर बहु पुचकारे । अजहूँ तनु तनि सीतल धारे ॥
बालक से बोलते बतलाते हुवे मिले और उसे गोद में भरकर देखा ॥ भजाव मन भरे हुवे उसे बहुंत पुचकारा । अब शिशु का
तन का ताप थोड़ा शीतलता को प्राप्त कर चुका था ॥
दीन भाव धर मुख कर भोरे । प्रिया नैन सन नैनन जोरे ॥
पूछे गहि कर आँचर ओरे । का तव चलहु संग महँ मोरे ॥
मुख पर भोलापन लाते हुवे, व्यथित भाव से भरे एओ को प्रिया के नयनचार करके आँचल का छोर पकड़ हाथ में लेकर पूछा
क्या तुम मर साथ मन चलोगी ?
धीरज के उर उपल धराई । बधु रुप धरी निर्झरी नाईं ॥
नयन पटल तल तरि तरलाई । झर झर निर्झर नीर बहाई ॥
धैर्य के पाषाण को धारण किये हुवे ह्रदय से युक्त वधु का स्वरूप मानो पहाड़ी के जैसे हो गया । आखो के सतह पृष्ठ की तलहटी
द्रवित हो उठी क्योंकि वहां से झर झर करता हुवा जल का झरना फूट पडा ॥
करज धरे तौ करज अहुटाए । करक धरे तौ करक छुटवाए ॥
जे केरे करेरे कलाई । बदन बचन कछु कहि करुवाई ॥
पिया उंगली पकड़ें तो उंगली हटा दे । हाथ पकडे तो कसकर छुटवा ले ॥ जब कठोरता पूर्वक कलाई पकड़ी तो मुख से कुछ
कुछ कड़वी बात बोले लगी : --
भै रसवंती रस की रूखी । करुर करेरे कह के करुखी ॥
नाम धरे श्री दया निधाने । पर दया के धर्म न जाने ॥
तो पिया ने कहा है तो रसीली किन्तु रस बिलकुल भी नहीं तो उत्तर में कड़वे करेले कह कर वधु ने तिरछे से देखते हुवे कहा
-- नाम तो इतना बड़ा रखा श्री दया के भंडारी किन्तु किन्तु दया का व्यवहार बिलकुल नहीं जानते ॥
मुख कांति रमन प्रभास, दिया प्रिया ससि संग ।
तीनौ के कर्षन कास, पीहू पिया पतंग ॥
दीपक, प्रेयषी, चद्रमा के मुख का सौंदर्य वैभव अति दैदीप्यमान होता है । पतंगा, प्रियतम एवं
पपीहा, तीनों को यह मुखद्युति ही आकर्षित करती है ॥
शुक्रवार, २२ मार्च, २०१३
दहन गर्भ के दाहु न मेटे । एकहु दिवस कहु काहु न भेटें ॥
माने हम बहु निगुन समेटे । पर एहि सिसु तव बुढ़तइ खेटे ॥
किस कारणवश तुम हमसे एक भी दिन नहीं मिले बताओ तुमे क्रोध क्यों नहीं त्यागा ॥
माना हमने बहुत से दुर्गुण एकत्र किये हुवे हैं । किन्तु यह बालक तो तुम्हारे बुढ़ापे की लाठी है ( फिर
इससे कैसा बैर )॥
मन महँ भरे भार निकसाई । चार कटुक बहु बचन सुनाई ।
एक कंठ रसन बानि मुखरिते । करुर मधुर जने कहाँ कलिते ।।
भीतर के भारीपन को हल्का करते हुवे वधु ने पिया को चार कड़वी बात सुनाई । एक ही गले और
एक ही जीभ से वाणी मुखरित होती है । किन्तु यह वाणी, कड़वी एवं मीठी जाने कहाँ से होती है ॥
पाटि पलंग बैसे सकुचाए । पिय मौन श्रवनु नयन झुकाए ॥
चित बहु चीते पर कह न पाए । लै बिदाए अरु चरन बहुराए ॥
(ऐसे कड़वे वचन सुनकर ) पलंग की पट्टिका पर बैठे हुवे प्रियवर को बहुत ही संकोच हुवा । और मौन
धारण कर झुकी आखों से सब सुनते रहे ॥ फिर विदा ले कर वापस लौट गए ॥
दुइ दिन औषध भवन बिश्रामे । तहँ लहुट आए पीहर धामे ॥
ताप तरत सिसु मांगे दाने । रद छद रुचिकर पयसन पाने ॥
दो दिन चिकित्सालय में उपचारित होने के पश्चात पीहर लौट आई ।। ज्वर के उतरते ही माता का प्रेमरस
पीने के लिए रोया । और होठ से रूचि पूर्वक प्रेमरस पीने लगा ॥
घरी भइ पहर पहरि दिन, दिन भए दुइ चार ।
घरी पहर दिन कर अधिन, लै सत्दिन आकार ॥
घडिया पहर बनी, पहर दिनबने, और फिर दिन दो चार हुवे ॥ घडियो को, पहरों को एवं दिवस को अधीन करते
हुवे सप्ताह ने आकार धरा ॥
बारहि बार आए ससुर करें मान मनुहार ।
भए बहु बखत अब बधु तुर पठो दौउ ससुरार ॥
फिर वधु के स्वसुर मान मनौवल करते हुवे बार बार पीहर आने लगे वे कहते वधु को यहाँ रहते बहुंत दिवस
हो गए अब उसे तत्काल ही ससुराल के लिए विदा कर दो ॥
शनिवार, २३ मार्च, २०१३
समझ बूझ पितु सोच बिचारे । धिया पठावन निर्नय धारे ।।
धिय ते कहि बस अब न एठाहू । रजु तूर जहि जे अति कसाहू ।।
पिता ने सोच विचार कर समझदारी पूर्वक तनया को ससुराल भेजने का निर्णय लिया । और तनया से कहा अब
और अधिक अकड़ना ठीक नहीं । अधिक कसोगी तो डोरी टूट जाएगी ॥
मंगल कर शुभ दिवस धराए । सुबासिननि कुंवर लेवन आए ।।और अधिक अकड़ना ठीक नहीं । अधिक कसोगी तो डोरी टूट जाएगी ॥
दे भेट बहु चारन कीन्हें। बर संग बधू पितु पठै दीन्हें ।।
कल्याणकारी एवं अनुकूल दिवस देख कर पितृ भाव में रहे वाली सुहागिन को उसका सुहाग ले जाने के लिए आया ॥
रीति आचार करते हुवे तात -भ्रात ने बहुत से उपहार देकर वर के साथ उसकी वधु को भेज दिया ॥
भर अभरन बहु बसन सुबासे । सुभगा सुत धर चलि घर सासे ।।
ससी बर अम्बर अंत बिराजे । बधु बर जुग कर भू पर साजे ।।
सुगन्धित वस्त्र एवं आभूषण से सुसज्जित पति की प्राण प्यारी ने पुत्र के साथ ससुराल की ओर प्रस्थान किया ॥
जिस प्रकार चद्रमा को वरन किये हुवे अम्बर क्षितिज पर विराजमान है उसी प्रकार वर वधु युग्मन धरती पर
सुशोभित हो रहा है ॥
सुभगा सुत सह साजन देखे । रसित सुभाषित सुबिदित लेखे ।।
असित अभासित लसित ललाई । कनक प्रभासित रयनिहि छाई ।।
पति को प्यारी स्त्री एवं उससे उत्पन पुत्र को उसके पति के साथ देखकर कवि, विद्वान रस एवं कवित्तमयी उक्ति लिके लगे ॥ नीलम वर्ण की आभा से युक्त लालमणि के वर्ण को प्राप्त स्वर्ण का दैदीप्य लिए रजनी अवतरित हुई ॥
सुरथ सुहासित सस संकासे । चकित चकासित कर नीकासे ।।
नभस नभ चमस दिसि निसि नीके । निभ निभ नव अनंगनि ही के ।।
सुन्दर रथ पर मृदु हास्य से अलंकृत चन्द्रवदनी का रूप किरणों के समान दैदीप्त होकर विस्मित कर रहा है ।। रात्रि में
गगन का चाँद बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रहा है । मानो चाँद का देदिप्त मुग्ध करने वाली प्रियतमा का ही हो ॥
अम्बर बर बधु बिधु बियुग भइ बहु कारी रात ।
जब दौनउ दरस संजुग अभरन धारी रात ।।
आकाश और चाँद के वियोग से तथा वर एवं वधु के वियोग से रात बहुत काली होकर अमावस्या की रात हो गई ॥
जब ये युगल जोड़े में दिखाई देने लगे तो मानो रात ने आभूषण भर लिए हो ( अर्थात वह पूर्ण हो गई ) ॥
रविवार, २४, मार्च, २०१३
बधु अगमन के श्रवन सँदेसे । उदित मुदित सुम अभरन भेसे ।
कहत बिनत करि बन के भोना । अभरन बसन सजन दै दौ ना ॥
वधु के आगमन-सन्देश को सुनकर, पुष्प प्रफुल्लित और हर्षयुक्त होकर वेश भरने हेतु उपवन के चक्कर
लगा लगा कर उससे विनती करने लगे कि हमें सुसज्जित होना है अत: वस्त्र और आभूषण दो ना ॥
दिब्य बसन बन भौतिक भासे । बहुत बरनत माँगे प्रभा से ॥
सुमन सुमन भँवरे बन सँवरे । पत पत पग धर प्रियघर भँवरे ।।
तब उपवन ने प्रभा से बारम्बार याचना करके, अलौकिक वस्त्र और चमकते मुक्तिक मांगे ॥ उपवन के सारे
पुष्प और भ्रमर इन वस्त्र भूषण को आभरित कर सज सँवरे और तैयार हो पिया के घर में पत्तों पर चरण
रखकर घुमने लगे ॥
नीर नुपूर पुर मुकुति माले । तिरन किरन कन कंचन वाले ॥
हिरन सकल कल कंठी घाले । लोकत उपवन नयन निराले ॥
जल कण के नुपूर और मोती की माला जिसपर सोने के कन झालरों पर झूल रहे थे ऐसे के कल अंश स्वरूप
इन पुष्पों के कंठ में विभूषित यह माला उपवन में अनूठी ही प्रतीत हो रही थी ॥
बहु आगमन के समाचारे । परस पूछ डारि बारहि बारे ।।
बेर बहुंत भै रयनि ढराई । मंद कांति प्रभा मुख छाई ॥
और वधु के आगमन का सूचना-सन्देश को डालियों को छू कर बार बार पूछ रहे थ कि वधु आ गई क्या ॥ समय
बहुंत हो गया वधु की प्रतीक्षा करते करते रात हो गई । पुष्पों के खिले हुवे मुख पर उदासी छा गई ॥
हरे हरे हर हेरे हारे । हिरन सकल कल कंठ उतारे ।।
बोझिल पलक निंदन धारे । शनै शनै सुति गै सुम सारे ॥
धीरे-धीरे अवधारित किये हुवे हार को निकालते हुवे समस्त स्वर्ण कणों को कंठ से उतार दिए ॥ थकी भारी पलको
पर नींद का अधिकार हो गया । धीरे-धीरे सारे सुमन निद्रा-मग्न हो गए ॥
केस रचित कर बिन्यास उरझ सँवारी रात ।
सिख तरु धर बंधन कास कोरि कियारी रात ॥
(इधर) बालो की उलझन को सुधारते हुवे उन्हें संवार कर माँग पट्टिका अनुरेखित रूपी दीपक आधार पर किरण रूपी
लौ प्रज्वलित कर केश- कालिमा को कसके बांधकर रजनी जोड़ कर क्यारियाँ बनाईं ॥
रजत पति रज गज दंती धरे पिटारी रात ।
लवन लौ रुपन रूपवंती साधन बारी रात ॥ लौ प्रज्वलित कर केश- कालिमा को कसके बांधकर रजनी जोड़ कर क्यारियाँ बनाईं ॥
रजत पति रज गज दंती धरे पिटारी रात ।
चाँदी का पत्र चढ़ी हाथी के दांतो से निर्मित पिटारी को ग्रहण किये रात की ज्योतिर आभा, सुंदरी का रूप धारण करने
हेतु स्वयं पर समस्त श्रृगार के साधन न्यौछावर किए ॥
सोमवार, २५ मार्च, २०१३
पिया की बाटिक के बाटिके । बह बहनु चाक बहिर आटिके ॥
गह बधु कुँवर की कटि घाटिके । कमल चरन धरि सकल साटिके ॥
पिया का भवन और भवन की वाटिका के बाहर दूर स्थित वाहन के चक्र आ कर रुके ॥ पुत्र के कुल्हे और गले के पृष्ठ
को अंक में भरे हुवे साड़ी समटते वधु ने वाटिका में अपने चरण-कमल उतारे ॥
निद्रा मगन सुम बन अवलम्बे । हरि हरि सुत बरि पग धरि अंबे ॥
एक छिनु तनि रोदन सुकुमारे । अधर करज धर कहिं चुप कारें ॥
सुमन नीद में डूबकर उपवन के सहारे सो रहे थे । पुत्र को ग्रहण किये हुवे माता ने धीरे धीरे चरण बढ़ाए ॥ एक क्षण के
लिए जब सुन्दर रोने लगा तो माता ने उसके अधरों पर उंगली रख कर चुप रहने को कहा ( इस हेतुक सुमनो की निद्रा
में विध्न न हो ।) ॥
भँवर पँवर पा पाइल पासे । हंस गमनि हिल हंसक हाँसे ।
सुमन सुत मगन अस न बिलासो । कहे पग पहरि हरि हरि हाँसो ॥
पाँव की ड्योढ़ी पर पायल मंडलित होकर बंधी थी । हंस के जैसे चलने वाली चलने वाली सुरांगना के हिलाने से उसके
घुंघरू हंस पड़े । सुमन सो रहे हैं अत: ऐसी क्रीडा मत करो चरन पादुका ने कहा थ थोड़ा धीरे धीरे हंसो ॥
कर कंगन कहि काहे काहे । हमहूँ बधू सन लगन लगाहें ॥
मनि मानिक भए लाल भभूके । देखु मूक कहि दै एक ढूके ॥
हाथ के कंगन कहने लगे क्यों? क्यों? हम भी तो सुमन के जैसे वधु के दुलारे हैं ॥ तो उनके मणि माणिक्यों को क्रोध आ
गया । कहे देखो यह मुक्का दें क्या एक दुक्का ॥
कुंडल कल बल कंठन रवने । कहे ए न माने कहु करु कवने ॥
लवंग लतिके कहिं बन भोले । चुप रहि कहु तौ सब ही बोले ॥
फिर कुण्डल, कोमल मधुर ध्वनि से धीमे स्वर में मीठे से बोले: -- कैसे भी कर लो ये कहे के माने नहीं हैं ॥ इतने में ही लौंग
ललाटिकाएं भोली बन कर बोली वधु ने चुप रहने को कहा था, देखो सारे ही बोल पड़े ॥
मधुर हँसत मसि पथ धानी मिस मलहारी रात ।
नैनन गहन घन पानी काजर घारी रात ॥
मधुर हंसी से हंसते हुवे काजल की डिबिया को शलाका से मिश्रित कर एवं मलहारते हुवे रात ने गहन घटा के जैसी काजल को
हाथो से आखो में उतारा ॥
कमल कपोल अधरोपर रुषन अधारी रात ।
रागारुनित रंजनी भर धरी अँगारी रात ॥
कमल के जैसे होंठ और अधरों को विभूषित करते हुवे उन्हें अरुण राग में रंगकर रात ने मानो अंगार ही भर दिए हों ॥
नभो नयन लट बीथि रथ चाँद उतारी रात ।
रचित खचित नगन नग पथ तरियर तारी रात ॥
फिर गगन की ऊँची अट्टालिकाओं के छाया पथ पर रात ने रथ पर से चाँद रूपी बिंदिया उतारी । और पथ के बहुमूल्य रत्नों
के सदृश्य नगण्य तारों से ढाँकते हुवे सजाया-सँवारा ॥
मंगलवार, २६ मार्च, २०१३
पार पँवर करि पा पौनारे । अंतर धर घर भीतर धारे ॥
सकल परिजन जग अगुवन आए । पाउँ परत पर पीढ़ पौढ़ाए ॥
इधर पद्म चरण से ड्योड़ी पार कर दाग भरते हुवे वधू ने घर के भीतर प्रवेश किया ॥ समस्त गृहजन जाग गए और
वधु का स्वागत किया । गृहजनों के चरण स्पर्श पश्चात आसन पर विराजित हुई ॥
नब अंकुर लै बर अँगबारे । भर मुठी फेरि बार उतारे ॥
पा अदेस सिसु गोदि बिठारे । चारु चरन निज सयन सिधारे ॥
वृद्ध जनों ने नवजात शिशु को गोद में लेकर मुट्ठी भर कर उसकी वार फेरी की ॥ आदेश प्राप्त कर वधु शिशु को गोद में
लिए वधु के सुन्दर चरण शयन भवन की और बढ़े ॥
सुधा धार सुत सीघ्र सयनिके । लसित बलित हित रंध यवनिके ॥
पाय समउ तै सदन रमनिके । हंस गमन लखि हरिन नयनि के ॥
अमृत रस का पान कर पुत्र शीघ्र ही सो गया । वधु ने ओढ़ने के वस्त्र से लपेट कर उसे कीट पतंगों इ बचाव करने वाली
क्षिद्रयुक्त छतरी से आच्छादित कर दिया ॥ रिक्त समय मिला तो सदन का भ्रमण किया और सुन्दर चाल चलते हुवे
मृगनयनो सदन को निहारने लगी ॥
मलिन मुख कांति मंद मंदर । बधु मुख छबि पर भए कमलाकर ॥
पट पाटन धर धूरि सकुचाए । बधुटि पग पाए झरी मुसुकाए ॥
वधु की अनुपस्थिति में दर्पण का मुख मुरझाया हुवा कुछ उदास सा था । वधु की मुख छवि पड़ते ही मानो वह कमलों
का सरोवर हो गया ॥ झरोखे एवं द्वार आवरण युक्त पुरछत्ति धुल युक्त होकर संकोच कर रही थी जैसे ही वधु के पैर पढ़े
धुल को झाड़ते हुवे मुस्कुराने लगे ॥
कल कुंतल बल मौलि मुकुलिते । मंद समीरन सरन बिगलिते ॥
पैठ पिया पग पाटल पौरे । पीठ तस प्रिया अंक अँकौरे ॥
सुन्दर केश वलयित होकर जो वधु के शीश पर अध्बंधे थे । हलकि सुखद वायु के साथ सरकते हुवे खुलते चले गए ॥
पिया के चरणो ने छत के द्वार से प्रवेश किया । और चुपचाप पीछे की ओर से प्रिया को आलिंगित कर लिया ॥
हरि चाप युग बर चयनित सुन्दर सारी रात ।
अम्बरंतर बलित ललित उरस उरारी रात ॥
इंद्र धनुष के संकलन से सुन्दर एवं उत्कृष्ट साडी का चयन कर रात ने उसे वलयित कर आँचल को सुन्दरता पूर्वक ह्रदय में
प्रशस्त किया ॥
रत रतन मनि सर स्याम रति रतनारी रात ।
नयंगन नयनाभिराम अलि लंकारी रात ॥
मणि,माणिक्य, हीरे, नीलम आदि रत्नों से युक्त होकर अनुरक्त हो रात लावान्यित हो उठी । विभूषित रात , आँखों को प्रिय
लगने वाली मुग्धा सखी सी प्रतीत हो रही थी ॥
बुधवार, २७ मार्च, २०१३
धरे परे पद परिहर अंके । करे सहुँत पिया भरे लंके ॥
कोप कुपित अरु अरुनत नीचे । प्रणय कर्ष प्रिय अंतस भीचे ॥
वधु ने आलिंगन छुड़वाकर चरण फेर लिए तो पिया ने कमर पर से आलिंगन कर पुन: सामने ले आए ॥ नीचे की और
झुकी हुई लाल आँखें प्रणय- कलह के कारण रुष्ट प्रतीत हो रही थीं । तो प्रियतम ने प्रणयातिरेक में प्रिया को ह्रदय से लगा
लिया ॥
बहुस समउ पर पा पिय परसे । नीर नयन रज नीरज बरसे ॥
अधो गमन पत पलकन नीके । आह आ करे असिक रसीके ॥
बहुंत समय के पपश्चात प्रियतम का प्रणय-स्पर्श प्राप्त होने के कारण नयो में नीर विराजित होकर मोतियों के सदृश्य बरसने
लगे । पलकों पर विस्मय भरते ये सुन्दर मोती से नीचे को ओर आते हुवे होंठ और ठुड्डी के मध्य स्थान को रसात्मक कर
रहे हैं ॥
पिया परस कर प्रथम अलीके । तहँ सहुँ मुख करि बाहु बलयिके ॥
उपरोतर धरे अधर असिके ॥ अधरोपर लै रस रस लसिके ॥
पिया ने पहले तो माथे को स्पर्श किया फिर बाहू में वलयित करते हुवे मुख आगे करते हुवे माथे से अधर उतार कर असिक
पर रख दिए । और फिर अधरों से लिपटते हुवे रस रूपी अमृत का पान करे लगे ॥
भुज अंतर कर पौढ़ पलंगे । अरस परस दो भए एक संगे ॥
हरि हरि हर हरिचाप के रंगे । रयनि कर रंग कार भुजंगे ॥
ततपश्चात गोद में लेकर पलग पर लेटाया और आलिंगन बद्ध होकर दोनों एक में मिल गए । धीरे धीरे इंद्र धनुष के सात रगों
को ग्रह कर रयनी ने रंगों की कला कृति ऐसी कलाकृति की कि आठवें रंग की रचना हो गई ॥
हँसक नादत पद गमनै रुप धर नारी रात ।
लब्ध बर लावन लखिनै लस लहकारी रात ॥
हंस के समान कलरव ध्वनी उत्पन कर मोहक चाल चलती रात ने नारी का रूप धरा कर लिया और अत्यधिक सुन्दरता को
अर्जित कर उससे उद्भूत होती आग की लपटों सी दिखाई दे रही है ॥
सोलह साधन सन सँवर सुभ सिंगारी रात ।
लोकित रोचित ललित बर बहुँत न्यारी रात ॥
श्रृंगार के सोलहो शुभ साधन से सुसज्जित रात सौंदर्य की श्रेष्ठता को प्राप्त कर बहुत ही न्यारी और प्यारी लग रही थी ॥
गुरूवार, २८ मार्च, २०१३
अपूरब रूप धर अंतर रात । जोगे जगत पुर पंथ प्रभात ॥
प्रात पाद जस पधरित पँवरे । कर मँह गह कर सँग सँग भँवरे ॥
अद्भुत एवं अद्वितीय सुन्दर स्वरूप को प्राप्त कर रात, ससार के द्वार पथ पर प्रभात की प्रतीक्षा कर रही है ॥ जैसे ही प्रात: के चरण
ड्योडी पर पधारे । तो रात और प्रात हाथो में हाथ लिए साथ-साथ घुमने लगे ॥
दिन के रथ रवि रथिक अरोही । अरुन सूत सथ चले बटोही ॥
नियतन रसरी किरन के रासि। सप्त अश्व के मुख कर कासि ||
दिन के रथ में रवि रथारोहीत होकर रथ के सारथी अरुण के साथ यात्रा पर निकल पड़े ॥ रथ की नियंत्रक रस्सी किरण पुंज हैं
और इस किरणपुंज को सात घोड़ों के मुख से सारथि के हाथ में कसी हुई है ||॥
बाह चरन पथ बिम्बित लोके । कहे रथी रथ सारथि रोकें ।।
श्रवन रथिक के नम्र अनुराधे । संचरि चरन रन रस्मि साधे ।।
घोड़ो एवं चक्रों सहित रथ का प्रतिबिम्ब मार्ग पर दिखाई देने लगा । रथारोही ने कहा हे सारथी ! रथ को मार्ग पर स्थिर करें ॥
रथिक के विनम्र अनुरोध को सुनकर सारथी ने मार्ग पर, रथ के चक्रों की गति को घोड़ो से बंधी रस्सीयों से साधा ॥
कहरथी देखु रयनि प्रभाते । समित रमित रत रमनित साथें ॥
रतिवर रतिगर रति रूपा । एक जग मोहिनि दुज सुर भूपा ॥
रथारोही ने कहा रात और प्रात को देखो तो एक प्रेम पाश में आबद्ध परस्पर संयुक्त होकर कैसे एक साथ विचरण कर रहें हैं ॥
प्रभात, कामदेव का रूप हैं तो रात रति का ही स्वरूप है । एक मोह कारीणी शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी हैं तो दुसरे विष्णु का स्वरूप है ॥
सहस नयन अस दरसन देखे । चितचौरन चित चित्रकर लेखे ।
देखि रथिक अस सूत मुसुकाए । कासित किरन रन चरन बढ़ाए ॥
सात रथों के आरोही सूर्य देव ऐसे दर्शन का साक्षात्कार किया । और इस मनोहारी चित्र को चित में आलेख कर अंकित कर लिया ॥
रथ वाहित को ऐसी मुद्रा में देखकर सारथि अधर मुस्कराए । और पुन: घोड़ों से बंधी किरण रूपी रस्सी को कास कर रथ के चक्रों को
गति प्रदान की ॥
भब्य भूमि मंडल भुवन राज गगन दिननाथ ।
भावै जुगत भवन भवन भव भूषन दिन नाथ ॥
भव्य भू मंडल लोक में गगन पर गगन पर सूर्य का राज है । और वे भवन-भवन के चिन्तक संसार के भूषण स्वरूप हैं ॥
मढ़ मनि सर स्याम रतन सिंहासन दिननाथ ।
राजित बिदुर सहि भासन भू राजन दिननाथ ॥
सूर्य का सिन्हासन नीलम हीरे जैसे रत्न किरणों से खचित है। राज्य के कुशल विद्वाओं के साथ भूमि को प्रकाशित करने के लिए जिस पर विराजित हैं ||॥
नय विद न्याय परायन नय नियमन दिननाथ ।
देहरी के दीपक बन सभा सदन दिननाथ ॥
दिन के अधिष्ठाता, नीति विशारद न्याय परायण, मार्ग दर्शक एवं नियंता हैं ।।
सूर्य,सभा सदन में देहली का दीपक अर्थात समान न्याय वादी के रूप में विराजित हैं ।।
करमन जन दै अन्न धन दिब्य बसन दिननाथ ।
देखत दरिद दुःख दीनन सहस नयन दिननाथ ॥
सूर्य देव, कर्मष्ठ जन हेतु सुख एवं वैभव के प्रदाता हैं । दारिद्र एवं कष्ट प्राप्त लोगों को
सहस्त्र आँखों से देखते हैं ।।
शुक्रवार, २९ मार्च, २०१३
समर सुयस समराट के सुबर्निम राज काल ।
बस्तु भरे बर हाट सुख संपद घर घर घले ॥
युद्ध में विख्यात राजाओं के राजा सूर्य देव के अतोत्तम शासन काल में बाजार श्रेष्ठ वस्तुओं से भरा है और घर घर
सुख की संपत्ति से पूर्णित है ॥
बीर सुर के लिलाट तेज मूर्ति तिलक लाल ।
दे कुटिल कंठ काट हीन हेतु भए बहु भले ॥
वीर सूर्य के मस्तक पर तेज स्वरूप लाल तिलक सुशोभित है । राजन कुटिल के लिए काल हैं और दीनो पर दया
करे वाले है ॥
बावरि बहु बावरी कहुँ सेल देही बिसाल ।
निर्झरि कहुँ निर्झरी बहु मनि मुकुति माल बले ।।
( इनके शासन में ) बावली बहुत ही भरी हुई हैं और कहीं पर विशाल पर्वत विशाल स्वरूप में स्थित हैं । कहीं पहाड़ी से
मणि- मोती की माला से वलयित जल कणों से भरा झरना प्रस्फुटित हो रहा है ॥
कोटि कोटि कोटिके कहुँ कोटि कोट पाल ।
चौहटि बट हाटिके कहुँ रथ चारु चाल चले ॥
कहीं पर बहुंत सारे भवन है तो उअकि सुरक्षा हेतु बहुत से पहरी भी है । कहीं चौक युक्त स्वर्णिम मार्ग है जिस पर सुन्दर
रथ चले जा रहे है ॥
बाटि के बर बाटिके रमत रमनीक ताल ।
घाट घाट घट टिके कहुँ उद बिंदु भर भर निकले ।।
मार्ग के ऊपर सुन्दर वाटिकाएं हैं और मुग्ध करने वाले भ्रमण करने योग्य तालाब हैं । कहीं घाटो पर कुम्भ रखे हैं और
कहीं वह जल बिंदु संग्रह कर बाहर निकल रहे है ।
जलनिधि तप घन करे कहुँ कर नहीं अकाल ।
कन कन धनकर भरे पुर जनों के भवन ढले ॥
समुद्र तपित होकर बहुत ही बादल करते हैं कहीं पर भी अकाल नहीं है खेत खलिहान अनाज ऊपज से भरपूर हैं और नगर
वासियों के ढले हुवे भवन हैं ॥
शनिवार, ३० मार्च, २०१३
बधु बर नागर अस रउ धानी । जहँ भइ अस एक भोर सुहानी ॥
ज्योतिर पथ रथ रवि प्रकासे । दिन निकरे कहि सब संकासे ॥
वधु-वर ऐसे राजा की राजधानी के नागरिक है । जहा ऐसी ही एक सुखद भोर हुई ॥ आकाश में सूर्य का उदय हुवा ।
पडोसी कहने लगे भई दिन निकला ॥
पोखर पोखर पुरइन बिकसे । पटल बरन बर पाखुर निकसे ॥
नभो गति गमनु नयन नभौके । नौचर चारन नियसत नौके ॥
तालाब-तालाब में कमल के पुष्प विकसित हुवे । सुन्दर गुलाबी रंग लिए हुवे उनकी पखुडियाँ निकल आईं ॥
विचरण करने हेतु पक्षीयों की आँखे आकाश की और देख रही थीं । नाविक नौकाओ के संचाला की तैयारी कर रहे थे
उदउ बधुटि करि नीर निमज्जन । धरे चरन बन अवतरि छज्जन ॥
लैकरजल कल सुत सुत सींचे । उयउ कुसुम दल दृग मलि मीचे ॥
जागृत होकर प्रात: के स्नानादि नित्य कर्म कर वधु के चरण दुछत्ती से उतर कर उपवन में पधारे । नल से मोती रूपी जल की
बूंदों से को लेकर जब सोए हुवे पुष्पों के मुख पर छींटा । तो सारे पुष्प बंद आँखों को मलते हुवे उठ बैठे ॥
रुद्र छुद्रा बली कलबल कारी । कर महँ धारी पूजन थारी ॥
कंज कलस कण कंठन नादे । चले अराधन मोहन राधे ॥
और रूद्र ग्यारह ग्यारह अंकों की घंटियों से गुंथी मालाएँ से सुसज्जित पूजा थाली हाथ में थी । कलश के अमृत कण कलश
के उपर उठ कर मधुर स्वर में कहने लगे कि हम राधे-मोहन की आराधना करने चले ॥
गई बहुरि बधु बहुस सुख पाए । पर बिनु अभरन सुमन सकुचाए ॥
एहि जान बधु दैइ उपहारे । बाँधे कंठन मनिसर हारे ॥
गए हुवे सखा को पुन: प्राप्त कर यूँ तो सारे सुमन बहुंत ही हर्षित हुवे कितु वेश भूषा से रहित होकर वधु से मिलाने में उन्हें
बहुंत ही सकोच हो रहा था ॥ ऐसा जा कर वधु ने जल्कानो स युक्त हीरे का सुन्दर हार उनके गले में पहनाते हुवे उपहार
स्वरूप प्रदान किया ॥
कंठ कलित कर कुसुम प्रफूले । सुख आसन गत गंधत झूले ॥
पत सन कंजन चरनन चिन्हे । थरित अवतरित मंगल किन्हें ॥
कंठ को विभूषित कर कुसुम बहुत ही प्रसन्न हुवे और डालियों के झूले में सुगंध बिखराते हुवे लहलहाने लगे ॥ पत्तो के साथ अमृत
तल पर जब चरण उद्धरित किये तो पूजन थाली ने आगंतुक का श्रद्धा पूर्वक स्वागत किया ॥
पत्र पुष्प फल थल पुष्कल गंध राज दल काठ ।
बलकल कलस तल दृडजल बधु करि पूजन पाठ ॥
पत्र, पुष्प, फल अगर और चन्दन के मिश्रण से परिपूर्ण थाल में असितफल के तल में कलश देश रखे वधु ने प्रात : काल में पाठ
करते हुवे पूजा की ॥
रविवार, ३१ मार्च, २०१३
पेखत पुहुप बधुटि पहलौठे । कहे आह का सुन्दर ठौटे ।।
अरु कहि सुत अंग मृदुल कैसे । बोली बधु तुर तुम्हहिं जैसे ॥
तत पश्चात पुष्पों ने वधु के प्रथम गर्भोत्पाद को देखते हुवे कहा, अहा ! क्या सुन्दर पुत्र है । और कहने लगे पुत्र के कोमल
अंग प्रत्यंग कैसे हैं ? तो वधु इ शीघ्रता पूर्वक उत्तर दिया तुम्हारे ही जैसे॥
अधर कपोल जुगत अनुरागे । जस तव पल्लब लाखन लागे ॥
अखि गत पखमन नीक नासिके । तव अलि नंदन नलिन नालिके ॥
पुष्पों ने पुन: पूछा : - होठ और गाल पर अरुणाई कैसी है ? तो बधू ने उत्तर दिया जैसे तुम्हारे कोपलें ललाई लिए हुवे हैं ॥
फिर पूछा भौं और नाँक की सुन्दरता कैसी दिखाई दे रही हैं । तो वधु ने कहा उद्या में जो तुम्हारे मित्र कमल हैं उन्ही के
नलिका के जैसी ॥
बाल भाल बल काल कलिन्दे । अरु ललित बहित अलिक अलिंदे ॥
पलक बली बल नयनन बृंदे । अरु अर्नव तव अलि अरविंदे ॥
माथे के कुंडलित केश काली यमुना के जैसे है । तो वधु ने कहा और माथे के छज्जे पर बहते हुवे से सुंदर लग रहे हैं ॥
पलाकावली से घिरे नयन समूह वे कैसे है ? तुम्हारे मित्र जल के कमल के आखों के जैसे ॥
करक कलस तल अति लघुताई । जनु को कुसुम कली कल्लाई ॥
चारु भेस भर चरनन चारे । जस तुम दोलत दंठलि डारे ॥
छोटी सी अंजुलि और छोटी सी हथेली कैसी है ? जेसे कोई नई कलि की कोपले हों ॥ उत्तम वस्त्र धारी के चरण कैसे संचालित
हो रहे हैं । वधु ने कहा : -- जैसे तुम डालियों की दंथाली पर लहलहाते हो ॥
पूछे पुहुप बहु कर किलकारे । कहु त सिसु के नाम का धारे ॥
नाम तेहिं हम धरें बिसेसर । लघु रूप मह कहे इसू घरभर ॥
ऐसा सुनकर सुमन बहुंत किलकारी भर कर पूछने लगे, कहो तो बालक का नाम क्या रखा है ?? इसका नाम हमे विश्व्वेश्वर
रखा है और छोटे स्वरूप में घरभर में इसे ईशू कहते हैं ॥
सुगंधित संधु गंध बंधु मोह राज रसे रासिते ।
निरखत नंदन नन्द बदन हंस नाद हँसे हर्षिते ॥
बालक मोदित कभु रुदरित बहु रोचित लखित लालिते ।
गोदी पलवन जनी ललन अपूरब नयन रूप पालिते ॥
आम, चम्पा, बेला,मोगरा,चन्दन, गुग्गुल आदि सब साथ में सुगन्धित होकर कोलाहल कर रहरहे है ।
वाटिका नंदन का मुख देखते हुवे हंस के समान कलरव कर हर्षित होते हुवे हास्य मग्न हैं ॥
बालक प्रसन्न होताहुवा , कभी रोता हुवा, बहुत ही सुदर एवं मनोरंजक लगता ।
दुलारे को गोद पाए हुवे माता रूप पालनहारी के स्वरूप अद्भुत दिखाई दे रहा है ॥
रीति पूरन परिजन घर द्विज राजन बुलाए ।
सुभ दिवस अति मंगल कर पूजन कूप धराए ॥
पुत्र जन्म की रीती आचरण के परिपूरण हेतु परिजनों ने वेद-विद्वान को घर बुलाया ।
विध ने अति कल्याण कारी शुभ दिवस को कूप पूजन हेतु निर्धारित किया ॥
पार पँवर करि पा पौनारे । अंतर धर घर भीतर धारे ॥
सकल परिजन जग अगुवन आए । पाउँ परत पर पीढ़ पौढ़ाए ॥
इधर पद्म चरण से ड्योड़ी पार कर दाग भरते हुवे वधू ने घर के भीतर प्रवेश किया ॥ समस्त गृहजन जाग गए और
वधु का स्वागत किया । गृहजनों के चरण स्पर्श पश्चात आसन पर विराजित हुई ॥
नब अंकुर लै बर अँगबारे । भर मुठी फेरि बार उतारे ॥
पा अदेस सिसु गोदि बिठारे । चारु चरन निज सयन सिधारे ॥
वृद्ध जनों ने नवजात शिशु को गोद में लेकर मुट्ठी भर कर उसकी वार फेरी की ॥ आदेश प्राप्त कर वधु शिशु को गोद में
लिए वधु के सुन्दर चरण शयन भवन की और बढ़े ॥
सुधा धार सुत सीघ्र सयनिके । लसित बलित हित रंध यवनिके ॥
पाय समउ तै सदन रमनिके । हंस गमन लखि हरिन नयनि के ॥
अमृत रस का पान कर पुत्र शीघ्र ही सो गया । वधु ने ओढ़ने के वस्त्र से लपेट कर उसे कीट पतंगों इ बचाव करने वाली
क्षिद्रयुक्त छतरी से आच्छादित कर दिया ॥ रिक्त समय मिला तो सदन का भ्रमण किया और सुन्दर चाल चलते हुवे
मृगनयनो सदन को निहारने लगी ॥
मलिन मुख कांति मंद मंदर । बधु मुख छबि पर भए कमलाकर ॥
पट पाटन धर धूरि सकुचाए । बधुटि पग पाए झरी मुसुकाए ॥
वधु की अनुपस्थिति में दर्पण का मुख मुरझाया हुवा कुछ उदास सा था । वधु की मुख छवि पड़ते ही मानो वह कमलों
का सरोवर हो गया ॥ झरोखे एवं द्वार आवरण युक्त पुरछत्ति धुल युक्त होकर संकोच कर रही थी जैसे ही वधु के पैर पढ़े
धुल को झाड़ते हुवे मुस्कुराने लगे ॥
कल कुंतल बल मौलि मुकुलिते । मंद समीरन सरन बिगलिते ॥
पैठ पिया पग पाटल पौरे । पीठ तस प्रिया अंक अँकौरे ॥
सुन्दर केश वलयित होकर जो वधु के शीश पर अध्बंधे थे । हलकि सुखद वायु के साथ सरकते हुवे खुलते चले गए ॥
पिया के चरणो ने छत के द्वार से प्रवेश किया । और चुपचाप पीछे की ओर से प्रिया को आलिंगित कर लिया ॥
हरि चाप युग बर चयनित सुन्दर सारी रात ।
अम्बरंतर बलित ललित उरस उरारी रात ॥
इंद्र धनुष के संकलन से सुन्दर एवं उत्कृष्ट साडी का चयन कर रात ने उसे वलयित कर आँचल को सुन्दरता पूर्वक ह्रदय में
प्रशस्त किया ॥
रत रतन मनि सर स्याम रति रतनारी रात ।
नयंगन नयनाभिराम अलि लंकारी रात ॥
मणि,माणिक्य, हीरे, नीलम आदि रत्नों से युक्त होकर अनुरक्त हो रात लावान्यित हो उठी । विभूषित रात , आँखों को प्रिय
लगने वाली मुग्धा सखी सी प्रतीत हो रही थी ॥
बुधवार, २७ मार्च, २०१३
धरे परे पद परिहर अंके । करे सहुँत पिया भरे लंके ॥
कोप कुपित अरु अरुनत नीचे । प्रणय कर्ष प्रिय अंतस भीचे ॥
वधु ने आलिंगन छुड़वाकर चरण फेर लिए तो पिया ने कमर पर से आलिंगन कर पुन: सामने ले आए ॥ नीचे की और
झुकी हुई लाल आँखें प्रणय- कलह के कारण रुष्ट प्रतीत हो रही थीं । तो प्रियतम ने प्रणयातिरेक में प्रिया को ह्रदय से लगा
लिया ॥
बहुस समउ पर पा पिय परसे । नीर नयन रज नीरज बरसे ॥
अधो गमन पत पलकन नीके । आह आ करे असिक रसीके ॥
बहुंत समय के पपश्चात प्रियतम का प्रणय-स्पर्श प्राप्त होने के कारण नयो में नीर विराजित होकर मोतियों के सदृश्य बरसने
लगे । पलकों पर विस्मय भरते ये सुन्दर मोती से नीचे को ओर आते हुवे होंठ और ठुड्डी के मध्य स्थान को रसात्मक कर
रहे हैं ॥
पिया परस कर प्रथम अलीके । तहँ सहुँ मुख करि बाहु बलयिके ॥
उपरोतर धरे अधर असिके ॥ अधरोपर लै रस रस लसिके ॥
पिया ने पहले तो माथे को स्पर्श किया फिर बाहू में वलयित करते हुवे मुख आगे करते हुवे माथे से अधर उतार कर असिक
पर रख दिए । और फिर अधरों से लिपटते हुवे रस रूपी अमृत का पान करे लगे ॥
भुज अंतर कर पौढ़ पलंगे । अरस परस दो भए एक संगे ॥
हरि हरि हर हरिचाप के रंगे । रयनि कर रंग कार भुजंगे ॥
ततपश्चात गोद में लेकर पलग पर लेटाया और आलिंगन बद्ध होकर दोनों एक में मिल गए । धीरे धीरे इंद्र धनुष के सात रगों
को ग्रह कर रयनी ने रंगों की कला कृति ऐसी कलाकृति की कि आठवें रंग की रचना हो गई ॥
हँसक नादत पद गमनै रुप धर नारी रात ।
लब्ध बर लावन लखिनै लस लहकारी रात ॥
हंस के समान कलरव ध्वनी उत्पन कर मोहक चाल चलती रात ने नारी का रूप धरा कर लिया और अत्यधिक सुन्दरता को
अर्जित कर उससे उद्भूत होती आग की लपटों सी दिखाई दे रही है ॥
सोलह साधन सन सँवर सुभ सिंगारी रात ।
लोकित रोचित ललित बर बहुँत न्यारी रात ॥
श्रृंगार के सोलहो शुभ साधन से सुसज्जित रात सौंदर्य की श्रेष्ठता को प्राप्त कर बहुत ही न्यारी और प्यारी लग रही थी ॥
गुरूवार, २८ मार्च, २०१३
अपूरब रूप धर अंतर रात । जोगे जगत पुर पंथ प्रभात ॥
प्रात पाद जस पधरित पँवरे । कर मँह गह कर सँग सँग भँवरे ॥
अद्भुत एवं अद्वितीय सुन्दर स्वरूप को प्राप्त कर रात, ससार के द्वार पथ पर प्रभात की प्रतीक्षा कर रही है ॥ जैसे ही प्रात: के चरण
ड्योडी पर पधारे । तो रात और प्रात हाथो में हाथ लिए साथ-साथ घुमने लगे ॥
दिन के रथ रवि रथिक अरोही । अरुन सूत सथ चले बटोही ॥
नियतन रसरी किरन के रासि। सप्त अश्व के मुख कर कासि ||
दिन के रथ में रवि रथारोहीत होकर रथ के सारथी अरुण के साथ यात्रा पर निकल पड़े ॥ रथ की नियंत्रक रस्सी किरण पुंज हैं
और इस किरणपुंज को सात घोड़ों के मुख से सारथि के हाथ में कसी हुई है ||॥
बाह चरन पथ बिम्बित लोके । कहे रथी रथ सारथि रोकें ।।
श्रवन रथिक के नम्र अनुराधे । संचरि चरन रन रस्मि साधे ।।
घोड़ो एवं चक्रों सहित रथ का प्रतिबिम्ब मार्ग पर दिखाई देने लगा । रथारोही ने कहा हे सारथी ! रथ को मार्ग पर स्थिर करें ॥
रथिक के विनम्र अनुरोध को सुनकर सारथी ने मार्ग पर, रथ के चक्रों की गति को घोड़ो से बंधी रस्सीयों से साधा ॥
कहरथी देखु रयनि प्रभाते । समित रमित रत रमनित साथें ॥
रतिवर रतिगर रति रूपा । एक जग मोहिनि दुज सुर भूपा ॥
रथारोही ने कहा रात और प्रात को देखो तो एक प्रेम पाश में आबद्ध परस्पर संयुक्त होकर कैसे एक साथ विचरण कर रहें हैं ॥
प्रभात, कामदेव का रूप हैं तो रात रति का ही स्वरूप है । एक मोह कारीणी शक्ति स्वरूपा लक्ष्मी हैं तो दुसरे विष्णु का स्वरूप है ॥
सहस नयन अस दरसन देखे । चितचौरन चित चित्रकर लेखे ।
देखि रथिक अस सूत मुसुकाए । कासित किरन रन चरन बढ़ाए ॥
सात रथों के आरोही सूर्य देव ऐसे दर्शन का साक्षात्कार किया । और इस मनोहारी चित्र को चित में आलेख कर अंकित कर लिया ॥
रथ वाहित को ऐसी मुद्रा में देखकर सारथि अधर मुस्कराए । और पुन: घोड़ों से बंधी किरण रूपी रस्सी को कास कर रथ के चक्रों को
गति प्रदान की ॥
भब्य भूमि मंडल भुवन राज गगन दिननाथ ।
भावै जुगत भवन भवन भव भूषन दिन नाथ ॥
भव्य भू मंडल लोक में गगन पर गगन पर सूर्य का राज है । और वे भवन-भवन के चिन्तक संसार के भूषण स्वरूप हैं ॥
मढ़ मनि सर स्याम रतन सिंहासन दिननाथ ।
राजित बिदुर सहि भासन भू राजन दिननाथ ॥
सूर्य का सिन्हासन नीलम हीरे जैसे रत्न किरणों से खचित है। राज्य के कुशल विद्वाओं के साथ भूमि को प्रकाशित करने के लिए जिस पर विराजित हैं ||॥
नय विद न्याय परायन नय नियमन दिननाथ ।
देहरी के दीपक बन सभा सदन दिननाथ ॥
दिन के अधिष्ठाता, नीति विशारद न्याय परायण, मार्ग दर्शक एवं नियंता हैं ।।
सूर्य,सभा सदन में देहली का दीपक अर्थात समान न्याय वादी के रूप में विराजित हैं ।।
करमन जन दै अन्न धन दिब्य बसन दिननाथ ।
देखत दरिद दुःख दीनन सहस नयन दिननाथ ॥
सूर्य देव, कर्मष्ठ जन हेतु सुख एवं वैभव के प्रदाता हैं । दारिद्र एवं कष्ट प्राप्त लोगों को
सहस्त्र आँखों से देखते हैं ।।
शुक्रवार, २९ मार्च, २०१३
समर सुयस समराट के सुबर्निम राज काल ।
बस्तु भरे बर हाट सुख संपद घर घर घले ॥
युद्ध में विख्यात राजाओं के राजा सूर्य देव के अतोत्तम शासन काल में बाजार श्रेष्ठ वस्तुओं से भरा है और घर घर
सुख की संपत्ति से पूर्णित है ॥
बीर सुर के लिलाट तेज मूर्ति तिलक लाल ।
दे कुटिल कंठ काट हीन हेतु भए बहु भले ॥
वीर सूर्य के मस्तक पर तेज स्वरूप लाल तिलक सुशोभित है । राजन कुटिल के लिए काल हैं और दीनो पर दया
करे वाले है ॥
बावरि बहु बावरी कहुँ सेल देही बिसाल ।
निर्झरि कहुँ निर्झरी बहु मनि मुकुति माल बले ।।
( इनके शासन में ) बावली बहुत ही भरी हुई हैं और कहीं पर विशाल पर्वत विशाल स्वरूप में स्थित हैं । कहीं पहाड़ी से
मणि- मोती की माला से वलयित जल कणों से भरा झरना प्रस्फुटित हो रहा है ॥
कोटि कोटि कोटिके कहुँ कोटि कोट पाल ।
चौहटि बट हाटिके कहुँ रथ चारु चाल चले ॥
कहीं पर बहुंत सारे भवन है तो उअकि सुरक्षा हेतु बहुत से पहरी भी है । कहीं चौक युक्त स्वर्णिम मार्ग है जिस पर सुन्दर
रथ चले जा रहे है ॥
बाटि के बर बाटिके रमत रमनीक ताल ।
घाट घाट घट टिके कहुँ उद बिंदु भर भर निकले ।।
मार्ग के ऊपर सुन्दर वाटिकाएं हैं और मुग्ध करने वाले भ्रमण करने योग्य तालाब हैं । कहीं घाटो पर कुम्भ रखे हैं और
कहीं वह जल बिंदु संग्रह कर बाहर निकल रहे है ।
जलनिधि तप घन करे कहुँ कर नहीं अकाल ।
कन कन धनकर भरे पुर जनों के भवन ढले ॥
समुद्र तपित होकर बहुत ही बादल करते हैं कहीं पर भी अकाल नहीं है खेत खलिहान अनाज ऊपज से भरपूर हैं और नगर
वासियों के ढले हुवे भवन हैं ॥
शनिवार, ३० मार्च, २०१३
बधु बर नागर अस रउ धानी । जहँ भइ अस एक भोर सुहानी ॥
ज्योतिर पथ रथ रवि प्रकासे । दिन निकरे कहि सब संकासे ॥
वधु-वर ऐसे राजा की राजधानी के नागरिक है । जहा ऐसी ही एक सुखद भोर हुई ॥ आकाश में सूर्य का उदय हुवा ।
पडोसी कहने लगे भई दिन निकला ॥
पोखर पोखर पुरइन बिकसे । पटल बरन बर पाखुर निकसे ॥
नभो गति गमनु नयन नभौके । नौचर चारन नियसत नौके ॥
तालाब-तालाब में कमल के पुष्प विकसित हुवे । सुन्दर गुलाबी रंग लिए हुवे उनकी पखुडियाँ निकल आईं ॥
विचरण करने हेतु पक्षीयों की आँखे आकाश की और देख रही थीं । नाविक नौकाओ के संचाला की तैयारी कर रहे थे
उदउ बधुटि करि नीर निमज्जन । धरे चरन बन अवतरि छज्जन ॥
लैकरजल कल सुत सुत सींचे । उयउ कुसुम दल दृग मलि मीचे ॥
जागृत होकर प्रात: के स्नानादि नित्य कर्म कर वधु के चरण दुछत्ती से उतर कर उपवन में पधारे । नल से मोती रूपी जल की
बूंदों से को लेकर जब सोए हुवे पुष्पों के मुख पर छींटा । तो सारे पुष्प बंद आँखों को मलते हुवे उठ बैठे ॥
रुद्र छुद्रा बली कलबल कारी । कर महँ धारी पूजन थारी ॥
कंज कलस कण कंठन नादे । चले अराधन मोहन राधे ॥
और रूद्र ग्यारह ग्यारह अंकों की घंटियों से गुंथी मालाएँ से सुसज्जित पूजा थाली हाथ में थी । कलश के अमृत कण कलश
के उपर उठ कर मधुर स्वर में कहने लगे कि हम राधे-मोहन की आराधना करने चले ॥
गई बहुरि बधु बहुस सुख पाए । पर बिनु अभरन सुमन सकुचाए ॥
एहि जान बधु दैइ उपहारे । बाँधे कंठन मनिसर हारे ॥
गए हुवे सखा को पुन: प्राप्त कर यूँ तो सारे सुमन बहुंत ही हर्षित हुवे कितु वेश भूषा से रहित होकर वधु से मिलाने में उन्हें
बहुंत ही सकोच हो रहा था ॥ ऐसा जा कर वधु ने जल्कानो स युक्त हीरे का सुन्दर हार उनके गले में पहनाते हुवे उपहार
स्वरूप प्रदान किया ॥
कंठ कलित कर कुसुम प्रफूले । सुख आसन गत गंधत झूले ॥
पत सन कंजन चरनन चिन्हे । थरित अवतरित मंगल किन्हें ॥
कंठ को विभूषित कर कुसुम बहुत ही प्रसन्न हुवे और डालियों के झूले में सुगंध बिखराते हुवे लहलहाने लगे ॥ पत्तो के साथ अमृत
तल पर जब चरण उद्धरित किये तो पूजन थाली ने आगंतुक का श्रद्धा पूर्वक स्वागत किया ॥
पत्र पुष्प फल थल पुष्कल गंध राज दल काठ ।
बलकल कलस तल दृडजल बधु करि पूजन पाठ ॥
पत्र, पुष्प, फल अगर और चन्दन के मिश्रण से परिपूर्ण थाल में असितफल के तल में कलश देश रखे वधु ने प्रात : काल में पाठ
करते हुवे पूजा की ॥
रविवार, ३१ मार्च, २०१३
पेखत पुहुप बधुटि पहलौठे । कहे आह का सुन्दर ठौटे ।।
अरु कहि सुत अंग मृदुल कैसे । बोली बधु तुर तुम्हहिं जैसे ॥
तत पश्चात पुष्पों ने वधु के प्रथम गर्भोत्पाद को देखते हुवे कहा, अहा ! क्या सुन्दर पुत्र है । और कहने लगे पुत्र के कोमल
अंग प्रत्यंग कैसे हैं ? तो वधु इ शीघ्रता पूर्वक उत्तर दिया तुम्हारे ही जैसे॥
अधर कपोल जुगत अनुरागे । जस तव पल्लब लाखन लागे ॥
अखि गत पखमन नीक नासिके । तव अलि नंदन नलिन नालिके ॥
पुष्पों ने पुन: पूछा : - होठ और गाल पर अरुणाई कैसी है ? तो बधू ने उत्तर दिया जैसे तुम्हारे कोपलें ललाई लिए हुवे हैं ॥
फिर पूछा भौं और नाँक की सुन्दरता कैसी दिखाई दे रही हैं । तो वधु ने कहा उद्या में जो तुम्हारे मित्र कमल हैं उन्ही के
नलिका के जैसी ॥
बाल भाल बल काल कलिन्दे । अरु ललित बहित अलिक अलिंदे ॥
पलक बली बल नयनन बृंदे । अरु अर्नव तव अलि अरविंदे ॥
माथे के कुंडलित केश काली यमुना के जैसे है । तो वधु ने कहा और माथे के छज्जे पर बहते हुवे से सुंदर लग रहे हैं ॥
पलाकावली से घिरे नयन समूह वे कैसे है ? तुम्हारे मित्र जल के कमल के आखों के जैसे ॥
करक कलस तल अति लघुताई । जनु को कुसुम कली कल्लाई ॥
चारु भेस भर चरनन चारे । जस तुम दोलत दंठलि डारे ॥
छोटी सी अंजुलि और छोटी सी हथेली कैसी है ? जेसे कोई नई कलि की कोपले हों ॥ उत्तम वस्त्र धारी के चरण कैसे संचालित
हो रहे हैं । वधु ने कहा : -- जैसे तुम डालियों की दंथाली पर लहलहाते हो ॥
पूछे पुहुप बहु कर किलकारे । कहु त सिसु के नाम का धारे ॥
नाम तेहिं हम धरें बिसेसर । लघु रूप मह कहे इसू घरभर ॥
ऐसा सुनकर सुमन बहुंत किलकारी भर कर पूछने लगे, कहो तो बालक का नाम क्या रखा है ?? इसका नाम हमे विश्व्वेश्वर
रखा है और छोटे स्वरूप में घरभर में इसे ईशू कहते हैं ॥
सुगंधित संधु गंध बंधु मोह राज रसे रासिते ।
निरखत नंदन नन्द बदन हंस नाद हँसे हर्षिते ॥
बालक मोदित कभु रुदरित बहु रोचित लखित लालिते ।
गोदी पलवन जनी ललन अपूरब नयन रूप पालिते ॥
आम, चम्पा, बेला,मोगरा,चन्दन, गुग्गुल आदि सब साथ में सुगन्धित होकर कोलाहल कर रहरहे है ।
वाटिका नंदन का मुख देखते हुवे हंस के समान कलरव कर हर्षित होते हुवे हास्य मग्न हैं ॥
बालक प्रसन्न होताहुवा , कभी रोता हुवा, बहुत ही सुदर एवं मनोरंजक लगता ।
दुलारे को गोद पाए हुवे माता रूप पालनहारी के स्वरूप अद्भुत दिखाई दे रहा है ॥
रीति पूरन परिजन घर द्विज राजन बुलाए ।
सुभ दिवस अति मंगल कर पूजन कूप धराए ॥
पुत्र जन्म की रीती आचरण के परिपूरण हेतु परिजनों ने वेद-विद्वान को घर बुलाया ।
विध ने अति कल्याण कारी शुभ दिवस को कूप पूजन हेतु निर्धारित किया ॥