Wednesday, January 16, 2013

----- ।। सांझ-सकारे ।। -----

सह् बस रति रत रहस रिताई । भोर दुइ पहर भै साँझ सिराई ।।
मिलजुल मंजुल सो सुख भीते । सपेम सहित तनिक दिन बीते ।।
अनुराग पूर्वक साथ में कई आनंदमयी रातें बीती । भोर दोपहर में, दोपहर 
सांझ में परिवर्तित होकर समाप्त होती रही । मिल जुल कर सुन्दर सुख पूर्वक प्रेमके साथ 
कुछ दिन बीते ।। 

मुकुल फूल तरुबर बहु फ़ूरे । पाके फर भुर भुर झुर झूरे ।।
दिसित दरसत बखत भए पारे । दिन दिन धार पाँख पखवारे ।।
पेड़ों पर कलियाँ फुल में परिवर्तित होकर पुष्पित हुई । और पुष्प गूदेदार 
फल में परिवर्तित होकर पेड़ की शाखाओं में झुलने लगे ।। देखते ही देखते समय जाने 
कहाँ पार हो गया । दिन पंखों पर धरे पखवाड़ों में परिवर्तित हो गए ।।
    
सजन त्रिबिध ब्यसन परिहारे । श्रमन बहुल जित बिनयन कारे ।।
सीत सील सिथिल सरल सुभाएँ । पर क्रोध धरें तौ मूर्छाएँ  ।।
साजन तीनों प्रकार के व्यसन ( मद्य, पराईस्त्री, चौसरक्रीडा ) से मुक्त हैं श्रम साध्य 
अथक क्लान्ति एवं दरिद्रता से दूर रखने वाले हैं । स्वभाव शीतल, सुशील, शांत 
एवं सरल है किन्तु यदि कर्ध के वश हों तो आपे से बाहर हो जाते हैं ।। 

जुगत जतन घर सुघर सजाई । बधु सकल परिबारु सुहाई ।।
पुरा परि जन रूप गुन गिन गाए । काम कुसल के प्रसंसन पाए ।।
वधु ने बहुंत ही लगन एवं यत्न पूर्वक गृहस्थी सजाई और समस्त परिवार 
को भली लगी ।। पडोसी एवं गृहजन ने वधु का रूप एवं गुण गान करे लगे ।
कार्यकुशलता की वधु ने प्रशंसा प्राप्त की ।।
काल कलह कर कुटुंब कलिते । कली कालेय गह गह भीते ।।
कही कहाबत कलुष कलेषा । पेम बास भए सांत सुबेसा ।।
कलह-काल के हाथ तो समस्त कुटुंब विभूषित हैं । कलयुग का समय में
कलह का वास तो घर घर में है । कहावत कहि गई है कि क्लेषका वास  क्रोध 
के वेश में होता  है और प्रेम  का वास सुदर शांत परिवेश में होता है ।।
 

बधु  पिहर समाचार लहिं लोभ लखत लय जोग ।
तात मात नित ग्रसित रहिं बिरध बयस के रोग ।। 
वधु पीहर का समाचार प्राप्ति हेतु उत्सुक होकर प्रतीक्षित रहती ।
( इस कारण की ) मात-पिता  वृद्धावस्था के कारण दिनोदिन रोगग्रसित रहते हैं    

गुरूवार, 17 जनवरी, 2013                                                               

कार कुसल पति कर्मठ कर्मी । कर्म अंत कर कर्मन धर्मी ।।

दूर गमन थर धूसर धूरे । भोर भँवर भर साँझ बहुरें ।।
पति अपने कार्यो में कुशल एवं परिश्रमी कर्मकार है । कार्य को पूर्ण कर के ही पारिश्रमिक 
की धारणा करते हैं । कर्त्तव्य पालन हेतु धूल धूसरित दूर स्थित स्थल पर भोर में ही प्रस्थान
 कर भ्रम करते हुवे सांझ ढले घर को लौटते हैं ।।
  
पद कोमल तल तृपल कठौरे । सेवा टहर करि टेकर ठौरे ।।
गृहजन नहिं रहिं तिनके भारे । ससुर सकल पोसन परिवारे ।।
कोमल पाँव है और भूमि की सतह पथरीली एवं कठोर है । ऐसी ऊँची नीची पथरीली 
भूमि पर सेवा टहल कर जीवकोपार्जन हेतु धन अर्जित करते है ।। कुटुंब जन के जीवन 
यापन का भार वर के ऊपर नहीं है ससुर द्वारा उपार्जित धन से समस्त परिवार का पोषण 
हो जाता है ।।

मैं मंद मति लघु मुख बानी । चरित चित्रण गठ कहहुँ कहानी ।।
प्रीत प्रतीतित पयोधि थाहूँ । पेम भगति के मूकुति चाहूँ ।।
मैं मद बुद्धि को धारण किये हुवे हूँ । अपने छोटे मुख व् सिमित  वाणी से चरित्र का चित्रण को गाँठ कर  कहानि कहते हुवे 
प्रीति और विश्वास रूपी समुद्र की थाह की अभिलाषा कर प्रेम भक्ति के मुक्ता की कामी हूँ 

कोउ कहें इहि अगनी सिन्धु । कोउ कहत नहिं सुधाकर बिंदु ।।
कोउ उलट धार पार उतारें । हम कलस पयसय  रस रस धारें ।।
इस प्रेम भक्ति क सिशय में कोई कहता है कि यह तो अग्नि का सागर है । कोई कहता 
नहीं यह तो अमृत सदृश्य किरणों वाले चन्द्र-सुधा की बूंदों के समान है ।। कोई इसे 
उलटी धार कहकर पार अवतरित करता है । और हम कलश में भरा रसा-अमृत कहते 
है ।।

सरीर के सीर्ष प्रान प्रान सीर्षक साँस ।।
साँस ह्रदय के अवतान हिय पिय प्रान निधान ।।
शरीर के शीर्ष प्राण है प्राण का शीर्षक साँस है सांस विस्स्तारित होकर ह्रदय के शीर्षक है,
ह्रदय पिया के प्राण कोष का शीर्षक है ।।

शनिवार, 19 जनवरी, 2013                                                             

 एक बार छत्त पैढ़ी पौरे । बैस जुगल जुर जौंरे भौंरे ।।
 चितब चितवन भर चारु चौंके । परस पवन तन उपबन झौंके ।।
एक बार छत  के द्वार की सीढ़ी पर युगल दम्पति एक साथ बैठे हुवे थे । और चौराहे 
की सुन्दरता को नयन भर के निहार रहे थे । उपवन से चलती हुई पवन तन को स्पर्श 
कर रही थी ।।

बीथिक पुरजन चलत पयोदे । कहुँ पथ गामिन बाहनु मोदे ।।
फिरे भवन सब काज उसारे । भामिनी भरू जोगें दुवारे ।।
मार्ग पर नगर के लोग पैदल चल रहे थे । कहीं वाहन पर चलते हुवे प्रसन्नचित्त 
होते हुवे दृश्यमान थे । सब अपने अपने कार्य समाप्त कर घर की ओर लौट रहे थे ।
घर में सुन्दर स्त्रियाँ  पतियों के आगमन को  जोह रही थी ।।

साँझ सरन बर सुन्दर जोरे । ससी अंबर स्यामल गौरे ।।
परछन सयन सदन अस सोहीं । जनु भुइँ सिन्धु सयन सइ होहीं ।।
सांय काल में  यह सुन्दर जोड़ा ऐसा प्रतीत होता जैसे की रात्रि काल, काले आकाश में 
गौर वर्ण लिए शशी सुशोभित हो । परछत्ती में सयन सदन  और उसकी सय्या ऐसे शोभित 
थी जैसे की परछत्ती रूपी भूमि पर सदन रूपी सागर में शेष सय्या ही हो ।।
  
विभावर कांति मुख मंडिते । रसै रसै बर दीपक रीते ।।
सरित सरिल सरि सररन सरसे । सुधा किरन कर रतनन बरसे ।।
 तारों भरी उस रात्रि में देदीप्यमान चन्द्रमा सजा था । दीपक भी धीरे धीरे जलते रिक्त
हो रहा था । सरिता का जल अपनी दिशा में सरसरा कर प्रवाहित है । चन्द्रमा की किरणें 
अपने हाथों से जैसे मोती बरसा रही थी ।।

भू खन मंडप तारा गन भवन मंडप  मयूख ।
भू खन भास चंद किरन भवन भास चंद मुख ।।
भूखंड के चरों ओर तारा मंडल आच्छादित था । और भाव में उसकी दीप्ती 
भूखंड चन्द्रमा की किरण से प्रकाशित था और भवन चद्रमा के जैसे मुख से
अर्थात भवन वधु के मुख से प्रकाशित था ।। 

रविवार, 20 जनवरी, 2013                                                                  

उत चित्र अभरन नयन भरमाए । इत प्रियतम रहीं सीस झुकाए ।।
भयउ मगन एक कागद पेखें । बाँक चाक चित्र लेखन रेखें ।।
उधर चित्र रूपी आभुष मन को लुभा रहे थे । इधर प्रियतम शीश झुकाए एक कागद को 
मगन होकर देखते हुवे आदि तिरझी रेखाओं को लिखकर चित्र चाक रहे थे ।।

देख पिय के बिचित्र चित्रकारी । खँच खतियन करि चितबत बारी ।।
पूछी बधु  तुम हो चित्रकारे । चौखट कर कला कृति उतारें ।।
पिया का ऐसी  विचित्र चित्रकारी एवं स्तब्ध करते हुवे चिन्हांकित लेख खंडो को देखेते हुवे 
वधू ने पीया स पूछा क्या तुम की चित्रकार हो जो कागद को ऐसे चौखट में खाँच कर कला 
कृति बना रहे हो ।।

हँस पिय कहिं हम चित्रक नाहीं । कहतहीं बास कारी ताही ।।
जे हम खतियन रेखन खाँचे । तबहिं धारै भवन के ढांचे ।।
तब हंसते हुवे प्रियतम ने कहा नहीं हम चित्रकार नहीं हैं इस चित्रकारी को वास्तु कारी 
कहते है जब हम उल्लेखित करते हुवे रेखाओं को खींचते हैं तब इसके आधार पर ही 
भवनों के ढांचे रखे जाते हैं ।।

कहुँ पथ बाँध कर सेतु सारें । तब हमहि सेतुकार पुकारें ।।
निरखर अनपढ़ अब जान भईं । भर लौ झोरी पिय ज्ञान दईं ।।   
और कहीं पर मार्ग बाँध कर यदि सेतु का निर्माण किया जाता है तब हमें सेतुकार 
कहा जाता है ।। तुम अनपढ़ निरक्षर ( जैसे स्वभाव से युक्त ) अब जान गईं अब अपनी 
रिक्त झोली भरती जाओ पिया तुम्हे ज्ञान देते जाएँगे ।। 

सोमवार, 21 जनवरी, 2013                                                                  

पर सेवा धन धरूँ तनि थोरे । प्रिया ऐहिं एक अवगुन मोरे ।।
श्रवण बचन अस बधु अकुलाई ।  दुःख उरस धर कंठ भर लाई ।।
किन्तु हे प्रिये मैं सेवा स्वरूप किंचित धन ही अर्जित करता हूँ । हे प्रिये ये मेरा एक 
अवगुण है ।। प्रियतम के ऐसे वचन सुन कर वधु व्यथित हो उठी । हृदय में दुःख रखे 
वधु के कंठ भर आए ।।

पिय तव श्रम कन सोन समाना । अरु श्रमन दान मम अभिमाना ।।
तव श्रम धन सिरु नाथ धारहौं । जितो देव उतो जी सारहौं ।।
और वधु ने कहा तुम्हारे श्रम जीत स्वेद बिंदु मेरे लिए स्वर्ण कण के समान हैं । और 
तुम्हारा श्रम दान मेरा गौरव है ।। तुम्हारे श्रम जीत धन को  शीश पर धारण करुँगी  ।
तुम जीतना  धन दोगे  उतने में ही में जीवन यापन करुँगी ।।

मोहि प्रिय प्रभु साथ तुम्हारा । सबु अतिरेक तव एक निहारा ।।
भोग तोष भृत लाभ बिलासे । पिय प्रेम बिहिन एकहुँ नहिं रासें ।।
हे प्रभु मुझे तो तुम्हारा साथ ही प्रिय है । सबसे बढ़ कर तुम्हारी एक प्रीत पूरित दृष्टि है ।।
 भूख प्यास सेवक धन एवं भोग विलास की वस्तुएँ पति की प्प्रीति के बिना तो एक भी भली 
नहीं लगती । 
पर चुपर ते निज सूखि सुहाए । पर धन काल निज केलि कहाए ।।
मोहे नहि प्रिय अति धन आसा । आस धरूँ पिया प्रेम पिपासा ।।
पराये के चुपढ़े से तो अपनी सुखी ही भली है । पराया धन काला होता है जबकि अपना 
श्रम जनित धन कुबेर के कोष के सदृश्य होता है । मुझे तो अधिक धन की लालसा ही 
नहीं है ।  मे तो केवल पिया के प्रेम की प्रेम की प्यासी हूँ ।।

सुखदायक बधु के बचन सुनि पिया धर ध्यान ।
उर महुँ प्रीति प्रिया नयन भरि अधर मुसुकान ।।  
सुख प्रदा करे वाले प्रियतमा के ऐसे वचन पिया ने  ध्यान धर कर सुना ।
और ह्रदय में प्रीति नयन में प्रिया तथा अधरों में मुस्कान भर गई ।।

मंगलवार, 22 जनवरी, 2013                                                  

सुद्ध भाव सत बैनी रचना । बिषय जान गुनि बधु के बचना ।।
लोचन रोचन पिय अनुरागे । दृढ़ पास परु प्रेम के धागे ।।  
वधु के वचन पवित्र ह्रदय से उत्तम उच्चारित वाणी रचना एवं विषय ज्ञान
तथा गुणों से युक्त हैं ।। आँखों में पीया का औराग शोभायमान है जो प्रेम के सूत्र को 
और अधिक दृढ़ता पूर्वक गाँठ लगा कर बाँध रहे हैं ।।   

देखि पिया मुख मधु मुसुकाने । लागे ह्रदय प्रिय परम सुहाने ।।
सजन नयन भर चितबत ताकें । सैन नैन कहि करि भौ बाँके ।।
पिया के मुख पर मधुर मुस्कान को देख वह ह्रदय को और अधिक प्रिय व सुहावने 
लगने लगे । साजन नया भर के स्तब्ध होकर देखे जा रहे है ।वधु भौंह को तिर्यक 
कर नैनो के संकेत से कहती है : --

काज पूर कर लिखिक रेखें । प्रानपिया पुनि जी भरि देखें ।।
कहें पिया तुम रूप कै पूँजी । नैन निकुंज धरूँ कुंचउँ कुँजी ।।
पहले लेखनी से रेखांकित कर अपना कार्य पूर्ण करें पराओ से प्रिय हे प्रियतम 
 तत पश्चात हमें जी भर कर देखें ।। पिया कहे लगे तुम रूप की पूंजी हो । तुम्हें 
नयनो के निकुंज में रख कर उस पर कुंजी लगा दूँ ।।

जे हम पुंज तुम धन स्वामी । भाग कल्प फल भाजन भामी ।।
धरि धरि गाढ़े हरि हरि काढ़ें । जों जों बरतें तों तों बाढ़े ।।
वधु कहती हैं यदि हम पूंजी है तो तुम इसके स्वामी हो । प्रियतमा रूपी पूंजी के 
प्रत्येक अंश के योग्य अधिकारी हो ।। इस पूंजी को दबा कर रखें और 
धीरे धीरे व्यय करें । जैसे जैसे इसे व्यय करते जाएंगे यह वैसे वैसे बढ़ती 
जायेगी अर्थात रूप का निवेश यदि प्रेम के व्यापार  में करें तो लाभ होकर रूप 
बढ़ता ही है ।।

पिया हथेरी कास कहिं बरतन दो धन थोर ।
दुत दुत करि प्रिया कसकहिं छुरवन कर बरजोर ।।  
पिया ने प्रिया की हथेली कास कर कहा तो अब थोड़ा धन 
व्यय करने हेतु दो । तो प्रिया ने दुतकारते, कर्षते 
हुवे बल पूर्वक हथेली छुड़ वाने लगी ।।

बुधवार, 23 जनवरी 2013                                                                     

तन तपित कंचन रूपक लवना । लसित ललित लव लवकन अँगना ।।
दिपित बरन धर दीपक  अंगे । करस अगन जर पिया पतंगे ।।

देह तपाए हुवे स्वर्ण के समान शुद्ध रजत रूप का सौंदर्य आँगन में दीपक की लौ के तुल्य 
दैदीप्यमान है । अंग दीपक की स्वर्ण प्रभा धरा किये हुवे हैं । इस अगिन रूप के आकर्षण 
में प्रियतम पतंग होकर संतप्त हो रहे हैं ।।

कनक प्रभ कुंडल कुंतल कँजन । निंदक निसित नभ निसी रंजन ।।
लाह टीक लीक नीक अलिके । निभ नग रख नख नछत नासिके ।।
कुंडलित कृष्णवर्ण केश की प्रभा भी कनक- प्रभा के तुल्य सुनहरी सी प्रतीत होती हुई 
 आकाश की तीक्ष्ण श्याम-स्वर्ण प्रभा को नीचा दिखा रही है । माथे का दमकता हुवा 
 टिका मांग की लाल रेखा लावान्यित है ।  और नासिका  पर मानो नक्षत्र  रूपी रत्न 
 ही जढ़ा हो ।।

नयन पलक पत पंकज पोटे । अयन अलक पद पंगत ओटे ।।
खुल कुंतल घुल गाल गुलाला  । कन कल धौतन  दोलित बाला ।।
नयन पलक कमल की पत्तियों के सद्रश्य गंठित है ।  पलक पदों की अधरोत्तर अलकावली 
ने नयनों को ढांप रखा है । खुले हुवे केश कपोलों की लालिमा से जैसे घुले हुवे हों । कानों के 
बाले झुलते हुवे मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रहे हैं ।।
 

सुधाधार धर कोकिल कंठी । कल कंगन कर गजमनि गंठी ।।
रुचिर रूप अस एक झलक सुहाए । गगन लाजन निरख नयन झुकाए ।।
अधर अमृत का पात्र है और कोकिल कंठ में गजमुक्ता( उत्कृष्ट मुक्ता ) का हार एवं हाथों में कंगन
की श्रुति मधुरित है ।। ऐसा सुन्दर रूप की जिसका क्षणिक दर्शन अभिभूत कर दे और गगन
 जिसकी सुन्दरता के दर्शन कर लज्जा से नत मस्तक हो जाए ।।

जे बधु रुपु बर छबि देख पहर निमेष परिहर ।
लख अभिलाखन लबि लेख लाखें कवन कबिबर ।। 
जिसे भी वधु का रूप एवं वर की छवि  देखी वह पलक झपकाना ही 
भूल गया कविवर ऐसी सुंदरता को अक्षरित  करना चाहे भी तो लेश 
मात्र भी न कर पाएँ ।।
 
 गुरूवार, 24 जनवरी, 2013                                                                        

मास बास भए दुइ पखवारे । एक पख उज्वल  एक पख  कारे ।।
रत अँधियारी दिन अंजोर । तस दुःख सुख सन जीवन जोरे ।।
एक मास में दो पक्ष होते हैं एक कृष्ण और एक शुक्ल ।। रात अंधियारी है तो दिन 
उज्जवल है । इसे ही जीवन का स्वरूप सुख दुःख से बंधा है ।।

मधु मास अपर मनोहरताए । अस रयनि जस रत रास सिराए ।।
परस बरस रस काल घटा घन । घंकन आवनु  पहिला सावन ।।

मधु मास अद्वितीय एवं सुन्दरता लिए हुवे थे शेष राते ऊपर उल्लेखित रातों जैसी ही
व्यतीत हुईं ।। कालिघताओ से युक्त मेघ की बूंदों का स्पर्श होते ही गरजता बरसता 
विवाह पश्चात के पहले सावन का आगमन  हुवा ।। 

बूँद बूँद बिध बरत बिँधारे । स्याम मनि सर मुकुतिक सारे ।।
धार बारिद धर धरनि चमके ।  नूपुर पद पुर  दामिनि दमके ।।
 नीलम, हीरे, मोती जेस रतनोत्तम स्वरूप जल की बूंद-बूंद डोर में गुंठित होकर 
पिरोई हुई ।। झड़ी स्वरूप अविरल रत्न वर्षा को धारण कर धरणी का रूप भी 
लावाण्यित हो उठा ।  बिजली भी चरण में नुपुर बाँध दमक रही है ।।

उदक धर बिंदु गिर गिर घोषे । कूल कूलिन कूलीनस कोसे ।।
कुंभ कलस लस रस राखे । रसरी कास कूप के चाके ।।
बादल भी इन नूपुर रूपी बूंदों को जलाशयों से पूर्ण पर्वतों पर गिरा कर निनाद रहे हैं ।
और नदी के तट जल घुंघरू के कोष हो गए हैं ।। कुम्भ शिखर अर्थात ऊपर तक जल 
नुपुर को रखे हिलोरे ले रहें हैं । कूएँ की घिर्री रस्सियों की भुजाओं में कसती चल रही हैं ।।

घरी घरी गर्जन गगन घेर घटा घन घोर ।
भरि सरि सर ताल तरियन हरि चाप चहूँ ओर ।।
क्षण-क्षण गरजती घनघोर घटाओ ने गग को घेरा हुवा है ।।
सरिताएं, तालाब और सरोवर गहरे तक भरी हैं,  इन्द्रधनुष, हरि-चरण, मेघ-चरण,
हंस-चरण, इन्द्र के अश्व-चरण, मंडूक-चरण, कोकिल-चरण और भूमिखंड  हरीतिमा
लिए चारों और लक्षित है ।।   

शुक्रवार, 25 जनवरी, 2013                                                                     

सोन सगुन सुभ सोभा सुन्दर । लोन लगन लुभ सावन बधु बर ।।
पहलइ दिन बधु के ससुराई । रीत निबर बधु पिहर पठाई ।।

रज बिरज बिरल बिमल प्रबेनी । तरी धरी दोउ तीर धेनी ।।
राग रमन रति बिरहन धारे । रयन रलन अस रस सिंगारे ।।

सहस नयन घन मेचक मीचे । घोर बरन बर छाजित बीचे ।।
दीपन नादान लागहु रिसने । पर सावन साजन मन तिसने ।।

सहुँ सागर अरु बूंद पियासे । प्रिय बिनु बारिद रितु नहिं रासे ।।
मेघ माल जुग जोवन रंगे । बिरह बिहित सब रंग निरंगे ।।

बिथुर बिथुर बिथर बियहनबोंय बिय बिरहन रज ।
करषें कियारीं बन खन बिढ़वन मीलन उपज ।।

शनिवार, 26 जनवरी, 2013                                                             

सावन बिगतहिं भादु पद आए । बाहु बिजुरी धर बदरी छाए ।।
कुंज कुसुम कुल मंजुल पुंजे । कन केसर भर मधुकर गुंजे ।।
सावन के व्यतीत होने पर भाद्र मास का आगमन हुवा । भुजाओं में बिजली धरे बदली 
छा गई । उद्यान में कुसुम की सुन्दर प्रजातियाँ स्फुरित हुईं । पुष्प के कोष केसर में पराग 
कण भरते भ्रमर गुजायमान हो उठे । 
   
ब्याधि बिबस कर  सइँ गहिं गाता । भा रोगन बस बधु कै माता ।।
रितत बितत दी जों जों चाढ़े । रोगन आरति तों तों बाढ़े ।।
रोग के वश हुई वधु की माता का शरीर व्याधि की विवशता के कारण अस्वस्थ होकर
शायिका को ग्रहन कर लिया ।। रिक्त हुवे से जैसे जैसे दिन चढ़ते हुवे व्यतीत होते । रोग 
और अधिक कष्टमय होता गया ।। 
   
संता समाजु बहु बिधि बरने । देह करतहि बंध भुज धरने ।।
जे तनु भवनु ते प्राण नेईं । ढल बल उबरन ढार ढहेईं ।।
संतों के समाज ने बहुंत प्रकार से देह का वर्णन किया है । पञ्चमहाभूत के संगठन से 
शरीर धारी का जीवन बंधा है । यदि तन एक भवन है तो परा उसकी नींव के सामान है 
प्राण रूपी इस नींव के हिलने से शारीर रूपी ढाचे का ढहना तय है ।।

बैद राज करिं रोग निदाना । देवइँ रोधन औषधि नाना ।।
हरिद नयन हनु वामन रुधिरे । हट जी हनवन धीरे धीरे ।।
श्रेष्ठ वैद्यजनों ने रोग के निदा हेतु कई उपाय किये । रोगोपचार हेतु विभिन्न प्रकार की 
औषधियाँ दीं । कितु रक्त वामा के कारण वश पिली होती आँखों में जीवन को क्षति 
ग्रस्त स्वरूप दिखाई देने लगा ।।
   एक बर गृहजन तब देइ राउ  । काल बिकल भए आढ़ न धराउ ।।
बुलबन बर धिय तुरतै बिदाएँ । करस सनेह ससुरार पठाएँ ।।
तब एक अनुभवी गृह सदस्य ने राय दी कि समय बहुंत ही कष्ट प्रद है अब कोई आढ़ न
धरते हुवे बुलावा भेज कर वर के साथ पुत्री को तत्काल विदा कर सस्नेह ससुराल भेज देवें ।।
  
अरुन करून कर नीरु भर नीरज नयन अगाध ।
अंतिम परस कर सिरु धर इति करतन कर साध ।।  
 अरुणाई  लिए हुवे करुणता से परिपूर्ण  कमल के सदृश्य नयनों में 
जल भर आया ।  अंतिम सपर्श स्वरूप माता ने सर पर हाथ रखा और 
सिद्ध साधना कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री की ।।

रविवार, 27 जनवरी, 2013                                                                                

जल जल नयन गगन बदराई । झरी लगाए पिया घर आई ।।
घन घन नादन घन घनकारे । हा हत हहरत हिय बैठारे ।।
 बदली से गगन और नयन दोनों जल युक्त हुवे नयन त्रास से व गगन बिजली से 
दग्ध थे । जल की झड़ी सी लगाते  हुवे वधु का पिया के गढ़ में आगमन हुवा । बादल,
हथौड़े से इआद करते हुवे गंभीर गरजा कर रहे थे इधर काल रूपी घन के प्रहार से(वधु का) 
 हृदय बैठा जा रहा था ।।

त्रिबिध ताप धरी अधर सुखाए । त्रस बस बिबरन बदन लटकाए ।।
दिवस दुखत रति बूझी बुझी । मातु कुसल पिय पल पल पूछी ।।
तीन प्रकार के दुःख आधिभौतिक, आधिदैविक, आधि आध्यात्मिक धरा करके वधु 
के अधर शुष्क हो उठे । भय दुःख के वश मुख वर्ण हिन  होकर कांति हिन हो गया ।।
दी दुखदाई हो गए रातें बुझी बुझी सी हो गई । वधु वर से माता के स्वास्थ की कुशलता 
प्रत्येक क्षण पूछती ।।

को मुख  बचन पिय का बताई । दुःख दसा ताहि कही न जाई ।।
निर्जर जीव जी जरित  घाते । बूंद बिदु बिनु बिदरै धाते ।।
किस मुख एवं किन वाचों से पिया भी क्या बताते । माता की दुखमयी दशा वर्णन करने 
योग्य नहीं थीं ।। बिया जल के तो पप्राणियों  का जीवन भी जल के नष्ट हो जाता है और जल 
की बूदों की बिन्दुओं के बिना धरै की सतह भी विदीर्ण हो जाती है ( अत: प्राणों के बिना मानव 
का भी क्या अस्तित्व है )।।
बार बार लखि रख अवसादे । भयउ बिकल बल बिषय बिषादे ।।
भज भज याचे भगवन भवने । अस कर रत तर दिन दिन बवने ।।
वधु हृदय में अवसाद रखे पीया को बार बार देखती है विषय ही विशद पूर्वक था जो व्याकुलता 
से घिरा था ।। वधु भगवा के मदिर में माता के प्राणों की रक्षा हेतु पूजा प्रार्थना करती । इस प्रकार 
रात से उतर कर दिन बिखरते गए ।।

आवनु पाछु बधु पी घर दिन भयउ कुल सात ।
सास कही फिरू तुरत पिहर गहन दसा तव मात ।। 
वधु के पिया के घर आगम के पश्चात कुल सात ही दी बीते थे कि ।
सास ने कहा की तत्काल ही तुम पुन: पीहर जाओ तुम्हारी माता की 
दशा अति गंभीर है ।। 
  
सोमवार, 28 जनवरी, 2013                                                                         


सुध बुध भुल बधु पितु गृह पहुँची । तब देइँ सब सोक संसूची ।।
नित्यन नियमन नियति नियंता । चिर निद्रा धरि देह करि अंता ।।
सुध बुध भुला कर वधु पिता के घर पहुंची तब सब गृहजनों ने यह शोक प्रकट किया कि
जन्म- मृत्यु को नियंत्रित करने वाली नियति का यह निर्णय था  मृत्यु को प्राप्य कर 
माता का देहात हो गया ।।

पूर्व पहर जे देह धारी । भव भवा भवन भूमि बिसारी ।।
थरी तरी धरी तृपल देही । तनि बखत बिरतहिं  भय बिदेही ।।
पूर्व समय जो देह धारी थीं अर्थात माया मोह के बंधन में थीं । उसने  पुत्र, पुत्री, घार गृहस्ती 
को त्याग दिया है पार्थिव शरीर भूमि की सतह पर रखा है और कुछ  समय व्यतीत होने पर 
देह भी न धरेगी ।।
 
दुःख दारुन धी धीर न थापी । बिलख बिलख लख लगन बिलापी ।।
सोक बिकल कुल कर्सन कारा । बेग संतत आरति अपारा ।।
दुःख की तीव्रता को धारे पुत्री का धीरज न रखते हुवे  वह माता से लिपट कर 
बिलख बिलख कर विलाप करने  लगी ।। वियोगजन्य पीढ़ा से व्यथित एवं व्याकुलित 
हो तीव्र सताप एवं कष्ट असीमित हैं ।।

नीर नयन धर जीवन आसा ।  हिचकी बाँध लेहि न उसासा ।।
ममतइ मइ भइ मातु बिहीना । पत  पोतक जनु धरि हरि हीना ।।
 जल भरे आया  की  होने की आश लिय हुवे हैं । हिचकी ऐसी बंधी की स्वांस भी जैसे रुक गई हो ।।
धी ममता मयी माता से ऐसे वंचित हुई जैसे पौधा और उसका पत्ता सहारे से विहीन होकर हरित 
हीन हो गया हो ।।

ह्रदय बिदारित दिसि दिक् दरसे । मनु बीजू बिदरत बदरा बरसे ।।
यथा ब्यथा बहुस दुखदाई । तथा कथा बिध कही न जाई ।।
यह ह्रदय विदारित द्रश्य दृष्टि में इस प्रकार दिखाई डी रहा है मानो बदरा वज्र से  विदीर्ण 
होकर बरस रही हो ।। यह व्यथा जैसे बहुंत ही दुखदाई है कि इस अनुरूप कथा  की विधि 
कही नहीं जाती ।।

 अवरित सव सवय साधें अर्ध्य अर्थी जोर ।
तनु करि बाँध धरि काँधे रहि लाल चुनर ओढ़ ।। 
आच्छादित  शव को पुज्यगण शास्त्रोक्त उच्चारित मंत्रो की द्वारा अंतिम संस्कार क्रिया हेतु 
ले जाने से पूर्व की क्रिया कर अर्थी सजा रहे हैं  । माता का मृत प्राय शरीर अर्थी में बंधा काँधे
 पर धरा लाल चूँदरी से ढंका है ।।

मंगलवार, 29 जनवरी, 2013                                                                         

दीन दयालुहिं दानिन दाती । ध1रम करम करि नाना भाँती ।।
सत कारित सथ सत्यत सँजोए । सद करमन अस स्वानहू रोए ।।
माता दुर्दशाग्रसितों पर दया धरने वाली एवं दानमयी एवं दानदी की प्रवृत्ति धारे हुवे थीं 
जिओ विभिन्न प्रकार से धार्मिक कार्य किया करती थीं ।। सदा सत्य के साथ रहकर 
सत्कार के योग्य थीं । हित की भावा से युक्त कर्म ऐसे थे कि स्वान भी रुदन करे लगे
अर्थात अब हमें आहार देने वाला नहीं रहा ।।
   
पुन करि कृति कै भलमनसाही । जसु अपजसु सब इहिं रहि जाहीं ।।
काम क्रोध मद लोभु लुभाहीं । जे भय काला तारित ताहीं ।।
पुण्य कार्य करने वाले की भलाई उसका यश उसका अपयश सब इसी जगत में रह जाते 
है केवल मनुष्य एवं उसका शरीर ही नहीं रहता । मनुष्य को काम,क्रोध,लोभ, मोह की 
संसार में बहुंत अधिक लालसा होती है किन्तु जब काल आता है तो वह सब कुछ छीन 
 लेता है ।।
    
प्रिय पुरी जन सिबिका लइँ जाइ । बिलखत बिलपत पीछु धी धाइ ।।
गृहजनु धारि ढाँढ़सि बँधाई । दुःख दीन  दसा बरन जाई ।।
प्रियजन एवं नगरजन जब अर्थी को ले जाने लगे तो धिया भी पीछे पीछे विलाप करती 
बिलखती हुई भागने लगी ।। तब गृहजनों ने उसे पकद कर ढाढ़स बधाया । दुःख 
व्याकुलित धिय की दशा ऐसी थी कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।।

उत माई इत धिय हिय दाहू । दुःख दुसहहि दिन धीर न थाहू ।।
क्रिया कलाप करि करम कठोर । काल बस देही के का ठोर ।।
उधर माता तो इधर धिया का ह्रदय दहन शील था । दिन बहुत ही असहनीय दुःख से 
भरा था जिसमें धीरज की थाह पाना कठिन था ।। शास्त्र विहित अंत्येष्टि का कठोर 
कार्य संपन्न हुवा । यदि देह काल अर्थात मृत्य के वश में हो तो उसका  ढोर न 
ढिकाना अर्थात मृत्यु के पश्चात देह का कॊई अस्तित्व नहीं ।।

गत काल जीवन काल कलपन गात कौनु गतिक धरे ।
खल कै गत का कहबत तेहिं भली जे भल करम करें ।।
भए भव सिन्धु भविन बिन्दु भव धरन बंधन धारहीं ।
सुख कामौ कलित धरि किंचित भोगु भव सूल अपारहीं ।।
मृत्यु के कारक स्वरूप काल के द्वारा मृत्यु को प्राप्त जीवधारी की गति क्या है ।
दुष्ट की गति का क्या कहना गंगागति तो उअकि ही है जो जगत एकच कर्म करते हैं ।।
इस संसार सागर में मनुष्य एक बिंदु के सदृश्य है यहाँ परमेश्वर ने भी जब जीवन-मरण 
के चक्र को अपनाया अब सुख की प्राप्ति तो लेश मात्र ही हुई किन्तु दुःख इतने भोगे कि 
जिसकी कोई सीमा नहीं ।।

रुदन करत नीरू नयनन अस रचित बिधि बिरंच ।
भव बंधन के दुइ चरन जन्मन काल प्रपंच ।।
 नयन में नीर भरा है और धी क्रंदन कर रही है ब्रम्हा ने कुछ ऐसी ही विधि का 
विधान किया है संसार चक्र  दो पद,  जन्म तथा मृत्यु के भवजाल से बंधा है ।।

बुधवार, 30 जनवरी, 2013                                                                             


जनु जननी जड़ चित चितकारे । मातु मातु हा मातु गुहारे ।।
सोक बदरिया घर भर छाई । चली बिकलित पीर पुरवाई ।।
जन्म देने वाली जननी को निश्चेत चीत्कार कर माता, माता कह कर पुकार रहा है 
शोक की बदली  घर भर को घेरे हुवे है व्याकुलित पीड़ा की पुरवाई बह रही है ।।
  
नयन गगन घन जल जल मीचे । जल धरनी तल झल झल सींचे ।।
अस कर जस तस उरस सँभारे । भाबि प्रबल एहीं भाव बिचारे ।।
नयनों के गगन में घन बिजली से जलाते मिचे जा रहें हैं । और उसका जल धरती की सतह 
को झर झर करता हुवा सा सीच रहा है । ऐसा करते हुवे जैसे तैसे धिय ने ह्रदय को सम्भाला ।
होई प्रबल है ऐसा भाव विचार किया ।।

बिधि पूरित दाह करम किन्हीं । जेठ पूत मुख अगनी दिन्हीं ।।
भय सर सीत तब फूल उठाए । गयउ  प्रयाग बहाहु  प्रबाहे ।।
माता का विधि अनुसार डाह संस्कार किया गया । ज्येष्ठ पुत्र ने मुखाग्नि दी ।।
जब चिता ठंडी हुई तो अस्थियां संकलित कर प्रयाग जाकर गंगा नदी में विसर्जित 
किया ।।

बेद बिधा तस करि दसगाते । बाँच बर बिप्रबर गरुड गाथे ।।
भए बिसुद्ध भूमिसुर सनमाने । दसन बसन धनु धेनू दाने ।।
वेद विधान के अनुसार दसगात-विधान (दस दिनों का कृत्य) किया । श्रेष्ठ ब्रम्हजनों ने 
गरुड कथा का प्रवचन किया ।।  विधि पूर्वक शुद्ध होकर ओढ़-बिछाव, वस्त्र ध एवं गाय 
आदि का दान कर ब्राम्हण गण को सम्मानित किया ।।
   
मातु कहँ कहँ तव माई चेतत चितवन चाढ़ ।
छन छन नयन छबि छाई सुमिरत प्रेम प्रगाढ़ ।।  
माता कहाँ? हे माता तुम कहाँ हो ? ऐसा स्मरण कर माता धिय के मन में 
समाई है । उनकी छवि प्रत्येक क्षण नयों पर छा जाती हैऔर उनका गहन प्रेम 
धिया ध्यान करती है ।।


गुरूवार, 31 जनवरी, 2013                                                                          

सुदिन विदाए धिय पितु निवासे । भारै मन अइ पिय के वासे ।।
कर अरुँनै अरु दुःख धरि भारी । मातु सोकबर भोजु बिसारी ।।
शुभ दिन देखकर पिता ने पुत्री को घर से विदा किया । भारी मन से पुत्री पीया के घर आ गईं ।।
आँखों में अरुणाई लेकर ह्रदय में भारी दुःख धारे हुवे वधु ने माता के शोकवश भोजन भी त्याग 
दिया ।। 

ओस ओस परि नयनन कोचे । भुज भर तिय पिय असुवन पोछे ।।
एते अवधि कहिं दुःख न धराहू । दह दुःख दाहू जी न जराहू ।।
उदासिन हो कर नयन भी संकुचित हो गए । तब पिया  ने  प्रिया को भुजाओं में धारण कर 
उसके आंसू पोछते हुवे कहा कि इस सीमा तक दुःख मत धारण करो । इस इस दुःख रूपी 
अग्नि में दाह कर अपने जी को मत जलाओ ।।

  मन संतप सहि सईं सँभारे । उर गह धारे करि मनुहारे ।।
जात पास गह जे जन्माहीं । ते जन एक ना एक दिन जाहीं ।।
स्वयं भी मन में संताप रख कर सैंय्या ने प्रिया को ह्रदय में बसा कर समझाने का यत्न कर 
कहा कि जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधकर जिनका जन्म होगा उनको तो एक ना एक दिन 
जाना ही होगा ।।

ऐ जग मोहहि जिवतत प्राना । तनु चेतनु चित चीर समाना ।।
मानु पी कहि पीर परिहरहू । दृक दुअर बध मुक्ति गह धरहू ।।
यह दुनिया तो मुनुष्य के साँस चले तक मोहित करती है । ता तो आत्म चेतन के वस्त्र के 
समान है अर्थात जिस प्रकार पुराने वस्त्र को त्याग कर नए वस्त्र धारण किये जाते हैं उसी 
प्रकार यह आत्मा भी है । पीया का कहना माँ कर पीड़ा को त्याग दो । और इन अश्रु मुक्ता को 
सीप रूपी नयनों में धार कर पलक रूपी पट को बंद कर दो ।।

सिसकत सीस नयन नत देखे । जित तित चारु चरन नख लेखे ।।
कुँवर कवल कलित कर पोरे । करू कवलन धरि अधरन कोरे ।।
सिसकती हुई प्रिया का शीश एवं नयन झुके हुवे हैं । सुन्दर चरन के नख से जहां तहां 
रेखा खिंच रहे है । कुँवर भोजन के कौर को हाथ की उँगलियों में ग्रहित कर होठों के 
छोर पर रख ग्रास करे को कहते हैं ।।

हिम सिखर सीत  समरूप संतत हिय संताप ।
परस पिय के प्रेम धूप तरलै तृपलित ताप ।। 
दुखभरी पीड़ा ह्रदय में हिमालय पर्वत की शीतलता के समान है ।
प्रियतम की प्रेम-धूप के स्पर्श  ताप से पीड़ा रूपी शैल पिघलने लगी ।।  



      




 

   


 



Tuesday, January 1, 2013

----- ।। बर-अहोरा बधु-बहोरा ।। -----

पद्य पद्य पथ पत पत पावा । सुर रूर नूपुर नत नत नावा ।।
कहत कोपलि कुसुम के काना । निरखु सुरनारि तवहि समाना ।।
उपवन के पथ के कगारों पर की पंगडंडियों पर चलते सुन्दर स्वरमय नूपुर से युक्त पाँव को पत्ते अवनत होकर प्रणमन कर रहे हैं | कोपलियाँ कुसुम के कानों में कहती हैं देखो इस देवांगना को यह तुम्हारे ही समदृश्य है | 

 पल्लव पव रव काननचारी । फिरि भुजि बंधन उपरन धारी ।।
उरि उरि बहु फुर कार कुराई । अगिन उठाई पछिन ढहाई ।।

 पद चाप से पवनमय पल्लवों में मधुर ध्वनि उत्पन्न करती  वह उपवन में विचरण कर रही है  भुजा बंधों उपरन धारण किए इधर-उधर भ्रमण करते ह हुवे उडते उपरन  को आगे से उठाकर पीछे ढहाती है जिससे उसपर की हुई फूलकारी एकत्र होकर उपवन में उपवन की सी शोभा दे रहे हैं  | 

पद अनुगमन पव अलक अलिके । पावन ढूँढ़इ पल झलकि पी के ।।
मृगदृगि कहँ बन साजन बूझी । अरुन अरुन बन अरुरै सूझी ।।
मस्तक पर के अलक पवन के पदानुगामी हो रहे हैं  प्रीतम के एक पल का झलका प्राप्त करने हेतु प्रीतम को ढूंढती,  मृगलोचनि ने  उपवन से पूछा  साजन कहाँ हैं ?प्रीतम की  झलकी न देकर संध्या की अरुणिमा से अरुणित उपवन को कष्ट देने की ही सूझी है  | 



 हँसि कौसुम गहि पिय कर बाहीं  । अगहुन पठाहि पछिन बैसाहीं ।।
अरन दर्पन दरसन दरसाएँ । तरस न धराएँ दरस न कराएँ ।।
प्रीतम की भुजाओं को गहे कुसुम हास-परिहास करते कभी उन्हें आगे भेज देते कभी पीछे बैठा देते | जल दर्पण का दर्शन हो रहा है किन्तु कौसुम  प्रिया पर तरस नहीं करते हुवे  उसपर प्रीतम की छवि का दर्शन नहीं करवाते |  

जल बिनु मीनु जस अस तरपाएँ । मनु दुबर दुइ आसार सिराएँ ।।
मरू मृग तिसने तोय पियासे । लभ बल्लभ दइँ दकन अकासे ।।
वधु को जल बिन मीन के जैसे  तड़पाते हुवे वह  मानो दुबले पर दो आषाढ़ समाप्त कर रहे थे | मरुस्थल में जिस प्रकार मृग तृष्णा को जल की प्यास होती है उसी प्रकार वधु को वल्लभ के दर्शन की प्यास है और वह मरीचिका के जल प्रतिबिंबि में आभाषित स्वरूप में प्राप्त हो रहे हैं 

दरस न दैं देइँ तरपन दर्पन दरपन तार ।
दयित न दयित दुखन दुगन दुलहन दरस अधार ।। 
मृग मरीचिका का दर्पण  प्रियतम का दर्शन न देकर तड़पन दे रहा है  | नवब्याहता को प्रियतम के दर्शन की आस है और वह उसे प्रियतम को न देकर उनके अदर्शन का  दुगुना कष्ट देते हैं | 

बुधवार, 2 जनवरी, 2013                                                                       

फूल मूल फल तरुबर बृंदा  ।  अलापत अलि पिय लुपुत नदिंदा  ।।
एकै गाँछि तुर लवइ लुकाठी । कर तल धरै गहै लइ गाँठी ।।
फूल मूल फल एवं वृक्षों का श्रेष्ठ समूह तथा नदी  तट के आलाप करते भौरों ने पिया को छुपा रखा है तत्पश्चात वधु ने एक वृक्ष की टहनी  को तोड़कर उस हथेली पर लेकर उसे अँगुलियों से आबद्ध कर लिया  ।।

 सार दुइ चार लगाए सोंटे । धूरि ध्वज धाए धूरि ओंटे ।।
पिछु पिछु सुमन पंख सुकुवाँरे । घुरइ सुकुरै भय के मारे ।।
और सार कर हवा में दो चार सोंटे लगाए जिससे धुल से अटी वायु  तिव्र गति से 
दौड़ने लगी  ।वायु  के पीछे पीछे भागते भयभीत होकर पुष्प के कोमल पंख भी सिकुड़ कर प्रिया को घूरने लगे । 

ताड़ तिरछ करि दृग कोदंडे । गंध मदनि रँग कोमलि गंडे ।।
कास मुठिक मुठ लकुटि उठाई । मृदुल अधर सुमधुर हँसि छाई  ।।
पुष्प के भय युक्त मनोभावो का आभास कर वधु ने भंवें कुटिल करते हुवे 
दिखावटी क्रोध का प्रदर्शन किया । जिसके कारण उसके कोमल गाल लाख के 
रँग जैसे लाल हो गए । मुट्ठि में लाठी की मुठ कस कर ( ज्यों ही )
उठाई । ( त्यों ही ) उसके मृदुल  वधु के अधरों पर मीठा सुहास 
छा गया  ।

छाँड़ छरि धरि परिहर पारे । पुनि पुचकारत पुहुप बुझारे ।।
निज स्वास सुख  गंधन घोले । कुंज कुंज गुँज मंजरि बोले ।।
 उसने छड़ी को छोड़ दूर कही फेंक दिया । और पुचकारते हुवे फिर पुष्पों से 
पिया का पता पूछा |  अपनी स्वांस से  वायु में सुगंध घोलते हुवे वन वन में कुसुम मंजरी गुंजायमान होकर बोल उठी  -

रहसन रहस रहस रमन दयत देंय संकेत ।
उ बैसे तव मन भावन केत निकुंज निकेत ।।   
 दयावस प्रिया को प्रीतम  के स्वर्ग निवास का रहस्य चिन्ह देकर उनका 
पता बताते हुवे कहा कि वे बैठे तुम्हारे मन भावन, लतामंडप 
के नीचे केतकी के वास स्थान के निकट ।।

गुरूवार,  03 जनवरी, 2013                                                                  

तबहि तरुबर  छाँह तरियाई । पल्लौ बिच पिय  दियो दिखाई  ।।
हहरत चापत चरन धराहीं । धरकत हिय ते  पहुँचि पिय पाहीं ।।
तभी पेड़ की छाँव के निचे बैठे पल्लवों के मध्य पिय दिखाई दिए ।
प्रिया, पिया मिलन की उत्सुकता के कारण कांपते पद चाप व् धड़कते ह्रदय से  पिय के
पास पहुंची ।।

अदरस प्रियबर दरसन कैसे । मनु मन मंदिर देवहि बैसे ।। 
तन चितहर  रंग घनेरा । रोहि पूस रथ जनु घन घेरा  ।।
अदर्शित प्रियवर का साक्षात दर्शन कैसा है मानो मन के मंदिर में मन के देव 
विराजमान हों  पिया का विग्रह  चित को चुराते हुवे ऐसे गहरे रंग से रंगा है मानो बूंदों के रथ पर आरोहित बादलों का घेरा हो  ।।

चितब छबि जब चितवन जोरे । छिनु छित चित्र चित रेखन खोरे ।।
पिय हिय होरे खिंच लइ डोरे । दरस प्रगस सिँगार एकु ठोरे  ।।
पिया की छवि का दर्शन करते जब नैन से नैन मिले तब क्षण भर में ही छवि के कण बिखर कर 
ह्रदय पर रेखा उकेर चित्र में परिणत हो गए    ह्रदय चित्र पर स्थिर प्रिय को नयनो की डोरियाँ 
 खिंच कर साक्षात स्वरूप अर्थात निर्गुण रूप से सगुण स्वरूप में ले आईं ।  साक्षात 
दर्शन ऐसा है मानो सारा श्रंगार रस उस एक छवि में एकत्र हो गया हो ।।  
 
मगन प्रीतम  प्रियाहि निहारे । रुँधी प्रिया पट नयन  दुआरे ।।
अरुन रूप बिरहारति हारे । हिय दुखारे ते भए सुखारे ।।
प्रिय निमग्न हो प्रिया को निहार रहें है । प्रिया ने पलको से नयन रूपी द्वार को बंद 
कर लिया । अरुणमय रूप ने पिया की विरह पीड़ा को हरते हुवे दुखित ह्रदय को सुख-
मयी कर दिया ।।

झूर झूर पात कुसुम साथ मिलन मंडप सजावहीं ।
डारि डारि भरी फुरवारी घेर घारी सुहावहीं ।।
कर कल  कंगन लोलहि सुमधुर  सुर सरगम धारिके ।
 गहत लसित प्रीतम करषत कहत तनि उर सँभारिके ।।
 कुसुम के साथ पल्लव  झूल झूल कर मिलन -मंडप अभिमण्डित कर रहे हैं भरी पूरी शाखाओं से घिरी फूलवारी अत्यंत मनमोहक प्रतीत हो रही है | स्वरों की सुमधुर  सरगम को धारण कर कलाइयों पर कंगन हिल-डुल रहे हैं जिसे पकड़ कर खैंचते हुवे प्रियतम कहते हैं किंचित हृदय को संभाल रखिए | 

प्रतीति दूबि प्रीति पयस ते निलय कँचन थार ।
अवनत पलक अवलि परस लइ पिय चरन पखार ।। 
 अवनत पलकावली से प्रियतम के चरण-स्पर्श कर  ह्रदय के कंचन थाल में प्रीति के पयस व्  दृढ़ विश्वास की दूर्वा लिए  प्रक्षालन करते हैं  - ( आतिशयोक्ति अलंकार )

शुक्रवार, 04 जनवरी, 2013                                                              

पूछ कुसल कहिं पिय मम हीना । कवन बिधि बीते कहु तव दिना ।।
पूरे न दिन साँझ हो आई । पूरन देब तब दएँ कहाई ।।
और कुशल क्षेम पूछते हुवे  प्रियवर कहत्ते है  : - कहो तो मेरे बिना आपके दिन किस भांति व्यतीत हुवे ? अभी संध्या की बेला है दिवस पूर्ण नहीं हुवा है उसे पूर्ण होने दो फिर कह सुनाएंगे ( प्रिया ने कहा ) | 
हँसे पिय कहे का बात कही । हंसगमनि तक तव चातकही ।।
पियूख मयूख मुख परिहारे | पय पियास तज तवहि निहारे ।।
प्रियतम ने हंसकर कहा  : -- अहा ! क्या बात कही हे हंसगमनी ! तुम्हें तो चातक भी तकते हैं | चन्द्रमा के मुख का तिरष्कार कर स्वाति बूँद को त्याग वह तुम्हारे रूप का रसपान करते हैं | 

भनिति भीति भर रस सिंगारे । हास बीच कर करून कगारे ।
रूप गुन गिन कीर्तित कारें । पिय कविकर बर भाग हमारे ।।
श्रृंगार रस से परिपूरित भनिति में हास्य के मध्य करुण रस का आलम्बन लेकर हमारे रूप का गुणगान कर रहे हैं, अहो भाग !  प्रियवर कितने श्रेष्ठ कवि हैं | 

बैन बचन भरि बिंग नैनी । पुंख पुंगित फर श्रँगी सैनी ।।
भरे भर पूर उर इव भाथे । तव रन निबिरन बाहन नाथे ।।
नैनों के बाणों से व्यंग भरे वचन वो भी पंख की सघन राशि वाले ? जिनके संकेत स्वरूपी फल तीक्ष्ण हैं | तुम्हारा ह्रदय इन बाणों से भरपूर तूणीर है जो इस रण की रक्षा पंक्ति का सेनापति भी है | 
  
प्रेम ब्रम्ह नग निर्गुन रूपा । रूप सगुन गुनी अगिन सरुपा ।।
भेष भूषन भयउ बर भाले । बसन दसन धर दन्त कराले ।।
तुम्हारा प्रेम निर्गुण ब्रह्म स्वरूप में अदृश्य है तुम्हारा अलौकिक रूप अग्नि के स्वरूप में दृश्यमान है | तुम्हारी अभरित आभूषण सुन्दर भाले हैं और ये यह वेश भूषा उसके विकराल दंष्ट्र हैं | 

लव निमेष परमानु जुग कलप सर सिंगारि ।
मंत्र मुग्धा साध सजुग प्रियतम ह्रदय निहारि  ।।
तुम्हारा श्रृंगार लव,निमेष, परमाणु, युग और कल्प नामक प्रचंड आयुध हैं | जो प्रियतम को मंत्र मुग्ध कर उसके हृदय का लक्ष्य किए हुवे हैं |   

शनिवार, 05 जनवरी, 2013                                                       

देखहु रुर जुर उर उपरैनी । का हम लागत तव सों सैनी ।।
मति मंद गति धरि धूरिन धूमि । एहिं सुन्दर बन नहीं रन भूमि ।।
हमारे ह्रदय से लगी यह  सुन्दर ओढ़नी  देखो । क्या हम तुम्हें सैनिक जैसे लगते हैं ? 
तुम्हारी बुद्धि की वैचारिक गति  धूल-धूमिल होकर धुंधला गई है । ( क्यों कि )
यह सुन्दर उपवन है कोई युद्ध भूमि थोड़े ही है ।।

हे मृगनयनी हे पिक बैनी । बउर फुर भँउर पउँ मउरैनी ।।
कोर काय कर कंचन काँची । एहिं उपमति मन रंजन राँची ।।
पिया कहते हैं हे मृग के जैसे नयनों वाली हे ! कोयल के जैसी वाणी की स्वामिनी ।
बौर के फूलते ही अर्थात वसंत ऋतु में नृत्य करने वाली मोरनी । तुम्हारे हाथ के कगारे 
पर का स्वर्ण तुम्हारी काँच सी काया में प्रतिबिंबित है । क्या यह तुलना तुम्हारे मन 
को प्रभावित कर ( मेरे प्रति ) अनुराग के वर्द्धन के योग्य है ।।

ए उपजुगति अस लोगन जोगहि । रच्छन रत जौ बिरहा रोगहि  ।।
कटख कथन कस धँसि जस गाँसे । ररकत साँसे पिय बहु हाँसे ।।
इसका उपयोग तो ऐसे लोगों के लिए उपयुक्त है जो विरह की रोगजनित पीड़ा से 
रोग प्रतिरक्षा कर उससे निवृत्ति चाहते हों ।। ऐसे कसे हुवे कटाक्ष कथन ह्रदय में गाँसे 
के जैसे धंस गए । और प्रियतम त्राहि त्राहि कहते हुवे ( दिखावे स्वरूप ) अतिशय परिहास करते हैं  ।।

सायक लछ  लग पिय हिय माढ़े । तासु राग जुज  रंजत  गाढ़े ।।
अरसन परसन पिय अनुरागे । रति रूप पुहुप परागन लागे ।।
इस प्रकार प्रेम बाण लक्ष्य साधते हुवे पिया के ह्रदय में स्थित हो गए। और वह उसके अनुराग 
में रागान्वित होकर गहरे आनंद को प्राप्त हुवे । प्रीतम के इस अनुराग के स्पर्श प्राप्त कर 
उपवन के कुसुम भी रति का रूप लिए परागित होने लगे ।।

करत हास परिहास दुहु रसिक गमनहि कर गहि 
पेखत रास बिलास मंजरी मुद मुगुध मगन 
हाथों में हाथ लिए हास-परिहास करते क्रीड़ाप्रेमी युगल दम्पति टहल रहें हैं ।
और इस प्रेम-क्रीडा को पुष्प-मंजरियाँ आनन्द विभोर हुई 
मंत्र मुग्ध होकर  देख रही हैं ।।

रविवार, 06 जनवरी, 2013                                                          

भए दिन अंत दिन कंत सिराए । नदी नग नभ नव पट पहिराए ।।
बिखरेउ किरन सुमन सम सोंहि  | बहुरन अरुन रथ रबि अबरोहि || 
सूर्यास्त होकर दिन का अत हुवा । आकाश ने नदी, पहाड़ आदि को नव वस्त्र पहनाए ।। विकरित किरणे,  पुष्पों के सदृश्य प्रतीत हो रही है | सूर्यदेव लौटने हेतु अरुण रथ में आरोहित हो गए हैं 

आह एहि रंगबिरंगि रोरी | चले रबिहि पथ देउ रँगोरी | 
चौंक  सजाउ अगोहन साँझी  । बाँधै बहनु फिरत कहँ माँझी ।।
( सांझ के स्वागत में ) माँझी घर लौटने हेतु नाव बांधते मांझी कह रहे हैं चौंक सुसज्जित कर सांझ की अगवानी करो  

बिथिक बिथिक बिज बिचरहिं बाँके । धर बर कर बधु पटिका झाँके ।।
बिति पहर भै साँझ हो आई । बेर भयउ कहि देव बिदाई ।।
हवा में थके हुवे से पक्षी भी टेड़े-मेढ़े विचार कर रहे हैं । ( इस प्रकार का पहर देख ) वधु ने 
वर के हाथ बंधी घडी में समय देखा और कहा अब पहर व्यतीत हो रहा है संध्या हो आई है 
बहुंत देर हो चुकी अब हमें जाने  की आज्ञा दो ।।

नैन लगा गहनहि गाहे । निबियहुत नहि हम भए बियाहे ।।
कह गह लंपट लिपटइ लाहे रहिं गल बाहें बिथुरन काहे ।।
नयनों से नयन बांधे प्रियतम गहरे गोते लगाते हुवे कहा कि बिना ब्याहे थोड़े ही हैं 
बियाह हो गया हमारा ऐसा कह कर कामलुब्ध पकड़ कर लिपटाते हुवे मेलमिलाप 
कर आलिंगन करते हुवे कहा कि हम अब विलग क्यों हों ??

बही बियाहीं सागर सारें । पूर रीति जन पुनि नग धारें ।।
सरिस सुर सरित धरित पहारा । धरी तरीं तब ही तव धारा ।।
विवाह कर बहते बहते हम सागर रूपी पीया संग जा मिले ।  पुराइ  लोगों की पुरानी 
रीति निभाने हेतु   पर्वत पर अर्थात पिता के घर आए । अब तुम्हारी इस वधु रूपी 
गंगा को हिमालय धारे हुवे हैं । पुन जब धरा पर बहेगी तब ही यह गंगा की धारा 
तुम्हारी होगी ।।

फूल सइ प्रफुलित बारी बानि बानि के संग ।
चंद्र सइ रतियन कारी सजनी मैं किस अंग ।।
फूलो के साथ उद्या प्रसन्नचित है रंग के साथ चमक 
काली रात के साथ चाँद है हे! सजनी में किसके साथ मन रमाऊँ ??

चिठिया सँगत हरकारा आखर कारे रंग ।
बाँचि प्रिया कर धार के सजनी मैं किस ढंग ।।   
चिट्ठी के साथ डाकिया है अक्षर काले रंग के साथ ।
उसे  हाथो में रख प्रिया ने बांच लिया 
सजनी ये कहो मुझे कौन बांचेगा  ।।

सोमवार, 07 जनवरी 2013                                                                  

धूरि धरा धर निधान । धूली मूल संधान ।।
मूल तन तरुबर तान । तरुबरी डारि बितान ।।
धूल को धरा सहेज कर रखती है । धुल जड़ क साधे रखती है ।।
जड़ तरुवर(पाधे)  के तने को ताने रखता है । पौधा डाली को तान 
कर रखता है ।।
  
डारि डारि पात धार । फूर फुर पाति अधार ।।
फूर दल कोष कपाट । दल गंध उपबन पाट ।।
डालियाँ पत्तियों को धारण किय हव है । पत्तियों पर पुष्प प्रफुल्लित हो 
कर आधारित है । पुष्प पर उनका दल समूह संचयित है । इन दल समूहों 
की सुगंध से उपवन अटा हुवा है ।।

फुरहर फूर दल पुंज । बवर झवर भवर गूँज ।।
रुर सुर मधुर मधुर रुंज । खील खील मुकुल निकुँज ।।
 स्फुरित फूलों क दल समूह पर भँवरे बावरे होकर गुंजत हुवे चक्कर लगा
रहे हैं सुंदर मीठे मीठे सुर बज रह हैं और उपवा में अधखिली कलि पुष्पित 
हो रहीं हैं ।।

बिलस बिपिन सोभन हास । लखी चिन चंदन बास ।।
रँग धरि हर हरदि लाल ।मालन माल ।।
वन में कमल एवं वनहास नामक पुष्प सुशोभित है । चीड़ एवं सुगंधित 
चन्दन शोभा वर्द्धन कर रह हैं । हल्दी अर्थात पीले हरे एवं लाल रंग से 
रँगे पुष्पों को धारण किये वनपालिका उहे पो कर मालाओं में पुर रही है ।।


बउर पउर फुर मंजरि । झूर डोर डोर फीरि ।।
धुर ऊपर फर फैरे । साम काम सर पैरे ।।
बौर अर्थात अमिया के छोटे छोट पुष्प पुष्पित हो गए ।
जो डालियों की डोर से झुले के जैसे झूल रहे हैं । कोमल आम
पैरे अर्थात धान की सुखी पत्तियों के मध्य विराजित है ।।

धान धान भरी बाल । फली फली धरी दाल ।।
धान मिसाए ओखरी । चाक पात दार दरी ।।
 बालियाँ धान से भरी हुई हैं । दाल फलियों में फली है ।।
धा ओखली में कूटा जा रहा है । दाल चाकी में दली जा रही है ।।


तार तर तीर तरंग । ताल ढोलक के संग ।।
राग राज बँसरि रंध्र । रुर सुर समीर सुगंध ।।

सुर तरंगे तारो में उतर कगारों पर विराजित हैं । ताल ढोलक के साथ है ।।
राग बाँसुरी के क्षिद्र में विराजित है । हवा में सुन्दर सुर एवं गंध विराजित हैं ।

 सुधाकर कर मयूख । अगनी सूरज के मुख ।।
धर भर मन बिरहन दुःख । सजन सजनी नयन सुख ।।
सुधा का आकर चन्द्रमा की किरणों में है । अग्नि सूरज के मुख में स्थापित है ।
मन में विरह का दुःख भरे । साजन सजनी के नयनों में चैन प्राप्त कर रहे हैं ।।

घट पनघट घटा प्यास धरा घटा के पास ।।
धारा धरि सागर आस मैं साजन के साँस ।।
शरीर पनघट में तृप्त होता है । धरती घटा स तृप्त होती है ।
धारा सागर की आस धरे है साजन मे तुम्हारे साँस में हूँ ।।

मंगलवार, 08 जनवरी, 2013                                                         

असन बचन कहि एक ही सांसा । बन साजन धर उरस निरासा ।।
पहलि परिहरइ भुज सँह साथे । तहँ छुर चुनर करज महँ हाथे ।।

उर उर ऊपर उपरन अंचल । धरि अंतर पद कमलिन कोमल ।।
चल तौ दिए अस रसे रसेऊ । कहु कर परिहर उरस बसेऊ ।।

बिहर गए घर बर बधु बिहीना । सहन बिरहन बस बिति दुइ दिना ।।
बसंत अगवन फुर दिन फिरे । तस लवनइ दिन अवनइ धीरे ।।

भोरि भवन बर पाट पटीरे । नील बरन अपबरन पहीरे ।।
लग दुअर सथ सिबीरथ साजे । धृत धुरबह बर धीर बिराजॆ ।।

धूर दूर रथ चरन सँचारे । द्रुत गति पहिं पहुँचे ससुरारे ।।
एक लघु पुर के लघु गुन गाही । जे सुनत जाहिं अति सुख पाहीं ।।

गए पहुँचहिं निज ससुरार परिजन पाए अगोर ।
सबहिं करँय जय जुहार अगुवन बर कर जोर ।।

बुधवार, 09 जनवरी, 2013                                                          

लै घर भीतर कोत कुठारे । सादर आसन पर बैठारे ।।
बैसे बर के सोभा कैसी ।  राज रतन रति मुँदरी जैसी ।।
वर को घर के अन्दर कक्ष की और लेजाकर आदर सहित ( सुन्दर ) आसन पर बैठाया ।।
बैठे हुवे वर की शोभा ऐसी है मानो किसी मुद्रिका में कोई रत्न अनुलग्न होकर विराज 
रहा हो ।।

चीर रुचिर सरूप रूप रतन निधि । दीपित दिनमन जनु गगन परिधि ।।
मगन मुद मंजुल छबि निहारी । देखत रही पुलक महतारी ।।
सुन्दर वस्त्र से रूप का स्वरूप  साक्षात विष्णु रूप में ऐसे दैदीप्यमाँ है मानो आसन रूपी गगन 
की परिधि में स्वयं दिनकर ही हों ।। मगन एवं प्रसन्नचित होकर वर की सुदर छवि को निहारते 
माता पुलकित होकर जडवत हो गईं ।

सुधित सुधा जल सुखफल थारे । मधुर मोदकिक परुस अगारे ।
करू करू कहिं कँवरजी कलेवा । भावहिं भवन भामिनी सेवा ।।
थाल में सुव्यवस्थित मधुत्रय मिश्रित दूध,रसाला, ठंडाई,गर्मपेय, सुखेफल जैसे काजू,
 मधुर स्त्रवा, मिश्री, फलस्नेह(अखरोट) , बादाम, अंजीर,द्राक्षा, दारुफल(पिस्ता) आदि 
तथा मधुर मिष्ठान बर के सामे परोसटे हुवे मनुहार पूर्वक करते हुवे कहा कुँवर जी कलेवा 
कीजिये । घर की स्त्रियाँ ऐसे सेवासुश्रुता कराती मन को प्रस कर रही हैं ।।
    
भोज पहर सुघर जेवनारि । बनवन बिंजन बहु छरस चारि ।।
जोग जामातु भोज जिमाई । लोक रीति कर मंगल गाई ।।
भोजन के समय स्रुचिपुर्वक भोज में नाना प्रकार के षष्ट रस युक्त (जैसा कि वेदों में 
वर्णित है ) व्यंजन बनवाए ।। प्रतीक्षारत होकर जवाईं को भोजन करवाया एवं लोक 
रीति का निबाह कर मंगल गान गाए ।।

दीठ पीठ भित करे धर प्रिया करज महँ कान ।
नैन सन नैन लरे तर पिया अधर मुसुकान ।।
भीत से पीठ टिकाकर प्रिया अपनी उंगलियों में का को धारण किये वर को निहार 
रही है ऐ मिले तो वर के अधरों पर मुस्कान उतर गई ।।

गुरूवार, 10 जनवरी, 2013                                                                            

गोर गात तहँ सारंग सारी । चित चोरइ प्रान ते प्यारी ।।
कनखन सजवन नखत तै सिखा । मृदु मन अरु तन सुमन सरीखा ।।
शुभ्र शरीर उसपर सुन्दर रंग युक्त साड़ी प्राणों से प्यारी जैसे चित को चुरा रही है ।
पिया ऐसी सजावट को नख से शिख तक काखियों से देख रहे हैं । एक तो कोमल मन 
उस पर फूलों के जैसा शरीर ।।

बिगत बेर धरि कोर कलाई । लइ प्रिया पिय पौर चढ़ आई ।।
गव निज खन भित पलंग डसाए । फेन बहनु पर पिया बैसाए ।।
( थोड़ा ) समय व्यतीत होने पर प्रिया ने प्रियतम की कलाई को पकड़ कर सीडिया 
चढ़ कर निज कक्ष में ले गईं और समुद्री फे के सामान कोमल बिछावन पर बैठाया ।।

जुग सजुगबध सजन तन संगा । भुज दंड कर सर सिखर अंगा ।।
अधर कंज भर कंज कपोले । मनु मुकुलित कलि मधुकर कोले ।।
सजन के तन के साथ संयुक्त होकर हाथो को कंधो पर धरते आलिनगा बद्ध किया ।
पिया ने अधरों में कमल के जैसे कपोल का अमृत भरा मानो अधखिली कलि को 
भ्रमर आलिंगन कर रहा हो ।।

लइ कर धर पिय दृग भर देखे । मेहँदी के कृति कारि लेखे ।।
सोभन सुभगा सुभ सिंगारे । रँग सुरंग सुरभित गंधारे ।।
और  प्रिया के हाथ को विह्वल नयन से उस पर रचित मेहंदीकी रेखाओं को 
देखन लगे । यह सौभाग्य श्रृंगार पतिप्रिया को शोभायमान कर सुन्दर रंग से 
रंगा सुगंध से भर रहा है ।।

तल्प तल नव जुगल लाग अस खन भवन कुठार ।।
दुइ अलि बल्लभ अनुराग जस रति रतन अगार ।।
भवन के उपरी खंड कक्ष में पलंग ऊपर नव युगल ऐसे लग रहे हैं ।
जैसे की समुद्र में दो लाल कमल अनुराग रत हों ।।

 शुक्रवार, 11 जनवरी, 2013                                                  

जूत सँजूत सब जॊउ जोरें । साँझ संग महुँ जावन मोरे ।।
अय लवन तौ जवन न लासें । एक दौ दिन मम पितु गह बासें ।।

सुन पिय हाँसे हाँस बिलासे । राग रंग रस राज पियासे ।।
चंद्र बदन बर बिम्बहिं बासे । भुज के कासे सिन्धु संकासे ।।

सयन सदन तव पंथ निहारें । पर परिहारे गहन गुहारें ।।
मम सइ कहवइ सहइ तुर आएँ । पिया पलोवन लाग छुराएँ ।।   

हँस बधु कहि हम गहि पद अंका । रमन रूप राज हम रम रंका ।।
हम दयनिय तुम दया निधाने । भए दीन दसा तुम धनवाने ।।

नाम दयाकर अभिधान धरे । हैं दीन बंधु अभिमान करें ।।
धर्म चरन चर कर दव दाने । तव अभिधाने तब ही माने ।।

ओढ़ जतन उत पाँव पसारें । देव न सक तौ लव न उधारे ।।
दीन दया धर हीन न धारें । हीन श्रम हर देन परिहारे ।।

कॊऊ दरसन को तरस कोऊ परसन तरस ।
प्रिया पिया पीहु पारस सबहिं हिरन को करस ।।



 प्रियतम प्रिया परस तरस पपीहा दरस तरस ।
 पीतर तरस लस पारस सब हिरन कर्षन बस ।।


शनिवार, 12 जनवरी, 2013                                                             

तब लेंइ बन धन दुहाए धारु । दूँ मूलक सहि बियाजु उतारूँ ।।
एहि बखत तौ दुज अंस धराएँ । तर मूर तुर सुर सिंधु नहाएँ ।।
( प्रियतम कहत हैं ) स समय तो तुमने बनाते हुवे सौगंध लेकर धन उधार लिया था 
कहा था कि तुम्हारे मूल को ब्याज सहित उतार देवेंगे ।। सो इस समय ब्याज्का दूसरा 
भाग दें फिर शीघ्रातिशीघ्र मूल चुका कर गंगा नहाए हो जाएँ ।।

जान भए तुम्ह को करि आसा । रास बिलासँय पेम पिपासा ।।
कहें बर अजहु लहनहु थोरे । चित चीतन जे चाँद चकोरे ।।
वधु ने कहा हम जा ग तुन्हें किस की आशा है । प्रेम के प्यासे  कामक्रीडा 
का तुम्हें लोभ है ।।  वर ने कहा अभी तो हमें थोड़े की ही चाह है । चाह वही जो 
चाँद से चकोर चाहता है ।।

केस कपोले कर तल धारे । प्रिया अधर पिय अधर पधारे ।।
करस कस लस सुधा रस सोषे । सुध बुध बिसरा तन मन तोषे ।।
गाल को और उस पर के केश को हथली पर धारण कर प्रिया के  अधरों पर पिया  ने 
अपे अधर रख दिए । और उसके आकर्षण में दबावपुर अवस्था में उस परके रसामृत का 
पान करते हुवे सुध बुध बुला कर तन और मन को जसे तुष्टि प्रदान करने  लगे  ।।

  रत अनुरागत रंजन रंगे । रमा रति रूपक रमन अनंगे ।।
अस रूप अनूप सरूप सरोबर । सरस सरसीज मधुप मनोहर ।।
अनुराग के पाश में आबद्ध आनन्द प्राप्त करते युगल दम्पति ने  रति- मदन का ही रूप
प्राप्त कर लिया  । रूप ऐसा अद्वितीय जैसे की किसी सरोवर के सरस कमलिन में सुन्दर 
मधुप उसका रस पा कर रहा हो ।।

काँप काँप काया कँपन अधर अधर बस  बंध ।
लग बिलग बधु अभिषंजन निसँसन साजन कंध ।।

अधर से अधर के  बंधन  वश वधु की काया के कंपन से कानो के कर्णफूल कम्पन करने  
लगे   अधरों से अलग हो, आलिंगन वश साजन के कंधे पर वधुय की सांस द्रुत गति से 
गमन करने लगी ।।

रविवार, 13 जनवरी, 2013                                                              

अटपट लपटइ लट गल बाहीं । तूल तरुबर बेली बलाही ।।
चंद्रानन लवन पिय अगहुड़े । नयन दर्पन सजन सन जुड़े ।।
अटे वस्त्र लपटी हुए केश और ग्रीवा में बाँह तरुवर में वलयित लतिका के तुल्य 
प्रतीत हो रही हैं । चन्द्रमा के जैसे मुख को पीया ने आगे की ओर किया तो 
दर्पण स्वरूप प्रिया के  नयनों में पिया की छवि से जुड़ गए ।।

भावइ पियबर अंतर ताड़े । चलउ हटउ कहि मनुहर छाँड़े ।।
उझक उझप रुझ भुज बल गीवाँ । लही बही जिमि धरि सरि सीवाँ ।।
पिया के अंतस ( रति) भाव को भांप कर चलो हटो कह कर छोड़ने का मुहार करे लगी ।।
भूली हुई सुध का संज्ञान ले काठ से उलझी भुजाओं को विमुक्त किया । और ऐसे चली 
जैसे कोई सरिता लहरा कर अपि मर्यादा में चलती हो ।।

पेम के आदि मध्य न अंता । न्यून न अति न नियत नियंता ।।
भव भव बिभव नहीँ एहि भाँति । न सम्मोहन अस सुपत सुपाति ।।
प्रेम का न तो आरम्भ ही है न ही मध्य है एवं न ही कॊई अंत है । इसका न तो कोई 
न्यूनतम है अ ही अधिकतम इसका अ तो कॊई निर्धारक है न ही कोई इस पर शासन 
कर सकता है ।। ससार में सर्वव्यापक हुवा अहि कोई इसके जैसा । प्रेम के जैसा न तो 
कोई सम्मोहन है अ ही इससे कोई प्रितिष्ठित है और न ही पात्रता प्राप्त ।।

  बूढ़ भए अधिक अधिक अधिकाए । गह गह गहरन गहन गहराए ।। 
घना घन गगन मगन बिबराए । कन कन कंचन बिभन बिथुराए ।।
जो जितना अधिक डूबा वह और अधिक डूबता चला । जिसने जीतनी गहनता प्राप्त की 
वह और गहराता चला । जैसे घना मेघ गगन में निमग्न हो गहरा वर्ण ले कर चमकता 
हुवे स्वर्ण कण बिखराता है उसी प्रकार भी प्रेम गहरा हिकार स्नेह के कण की वर्षा करता
 है ।।

 सब लोकन तें एक लोक लोकन लोग बिलोग ।
कभु रत कभु बिरह सोक बस जहँ प्रेमी जोग ।।
लोगो ने देखा है कि सभी लोकों में एक ( उत्तम ) लोक है जहां कभी मिलन 
तो कभी विरह के शोक वश प्रेमी युगल का वास रहता है ।।

सोमवार, 14 जनवरी, 2013                                                                   

गइ पूरिते प्रभा पग फेरे । भास भानु चौखट पट भेरे ।।
ढरि ढरि डहरहि सांझ सुहाई । स्याम बरन बर रतियन छाइ ।।
किरओन ने अपनी  पूर्णता प्राप्त कर जब चरण फेरे तो सूर्य ने भी अपि कल्पन के 
चौखट के द्वार बंद कर लिए ।। डगर पर ढलती हुई संध्या भी अति सुहावनी प्रतीत 
हो रही है । और सुन्दर श्याम वर्ण में रजनी ने अपनी छाया बिखरा दी ।।
    
प्रभा प्रिय ससी भूषन सीसा । नीलय निलय नभ बिलय निभ निसा ।।
दूर धरनि धुर उर उजियारे । दिक् गति दर्सन दीपक बारे ।।
चाँद का  मुख मंडल तारो के मोतियों के आभूषण से युक्त हो कर प्रकाशित है । नभ के 
ह्रदय की नीलिमा भी प्रकाशित निशा में विलापित हो गयी ।। दूर धरती की धुरी तक 
उसके ह्रदय में उजाला भरते जलता हुवा दीपक  दृष्टि की पहुँच तक दृश्यमान है ।।

साँझ बिरत भए भोजनु काला । एक ते एक हैं भोग रसाला ।।
अहार बिहार रुचिबर  किन्हें । कह बीनितइ बर अब बिदइ दिन्हें ।।
सांझ बीती भोज का समय हुवा । विभीन्न रसों से युक्त शुद्ध, मार्जित, मीठा, मधुर, रसीला 
सुपाच्य, सुस्वादु भोजन- आवास को औराग पूर्वक ग्रहण किया ।। तत्पश्चात विनय पूरित
वाचा से जाए की आज्ञा मांगी ।।
  
ले लवन तूल तिलकन माथे । मान दान देइ दृढ़ मूल हाथे ।।
सन सनमान धर सीस सुभागे । सास ससुर बर पागन लागे ।।
तात-मात ने सुदर लाल तिलक माथे पर लगाया । तथा मान  सम्मान पूर्वक दान सहित 
 नारिकेल भेंट स्वरूप दिया ।। सम्मान सहित उसे शीश पर धार अपना सौभाग्य मान 
वर इ सास-ससुर के चरण सपर्श किये ।।

अंब अंबर धर अंजन छाए । धीय उर धुर मिल  सलिल बहाए ।।
तात मात बर सौंप धराए । समधिक समदन कर धिय बिदाए ।।
पुत्री के काले नयन में काले बादल छ गए फिर भारी मन से सबसे मिलकर जल बरसाइ 
लगे । अतिशय उपहार प्रदान कर टाट मात इ पुत्री को वर के हाथों में सौप कर विदा की ।।
  
लय ह्रदय भर  धीर राख सिबीरथ धिय बैसाए ।
ता पर बर अँधेरपाँख तुर अति आतुर धाए ।। 
भरे ह्रदय में धीरज को धरा कर पुत्री को सिवीरथ में बैठाया ।
उस पर बैठे बार ने अधेरे के पंखों पर सिवीरथ को अत्यधिक 
द्रुत गति से दौड़ाया ।।


 मंगलवार, 15 जनवरी, 2013                                                                        

लह लह बाहनु बह बह जाही । तीर त्रिबिध बध बायु बहाही ।।
पग पग खग मृग तरुबर बृंदा । नग नग नदी बन मगन निंदा ।।
 लहराती हुई वाहनी दूर होती चली गई । बाहनी के कगारे तीन प्रकार की ( शीतल, मंद, 
सुगन्धित) वायु प्रवाहित होने लगी ।  चरन ,चरन पर पशु, पक्षी एवं वृक्षों के समूह व 
पर्वत-पर्वत तथा नदी-वन सब निद्रामग्न हैं ।।

निरव रथय रव पथ कोलियाए । डगर ढुकाए ढुर घर नियराए ।।
पंथ पुरी जन सोए समूचे ।  भँवर भँवर पी पँवरी पहुँचे ।।
शांत सकरे पथ पर रथ के पहिये कोलाहल करते डगर को पार कर गम करते घर के 
निकट आए । पथ एवं अड़ोसी-पडोसी सब सो चुके हैं । घूमते-घुमाते पिया के घर पहुच 
गए ।।
 
बधु सहित बर भित दुअर धामा । तिलक-दान दे मात प्रनामा ।।
तात जाउ कह करें बिश्रामा । आवन जुगल तब सयन श्रामा ।।
 वर -वधु साथ में घर के भीतर पधारे । तिलक-दान माता को देकर कर चर स्पर्श किया ।।
फिर पिता ने वर-वधु से कहा जाओ अब विश्राम करो । तब युगल सयन-मंडप में विश्राम 
हेतु आए ।।
 
 भर भुजंतर बर बधु  धारे । ऋनोद गहन कर समुद्धारे ।।
 बर ने वधु को गोद में उठाकर ऋण धारिणी वधु से सम्पूर्ण
ऋण ग्रहण कर ऋन धारी का ऋणोंद्धार किया  ।।

लव लाल भाल ललित गाल हिरनय होठी धरावहिं ।
हर हहर अधराधर गहन उतर हिम कन पिय पावहिं ।।
पेम पियूष परस पूस परागन रागन रजस रजे ।
अधस्तात अधीर रात रति पिय नाथ मंदिर सजे ।। 

तापित धरनि जलधि आस जलधित कासिक कास ।

पिय तिय तन मन धन त्रास बूँद सभी के पास ।।      
तपती हुई भूमि बादल की बूंदों के आस है समुद्र प्रकाश वान के 
आकर्षण में  अर्थात सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र ( विशेष कर स्वाति ) के आकर्षण है 
प्रियतम प्रियतमा के तन-मन  रूपी धन के प्यास को तरसे है जबकि बुँदे 
( धरती के पास समुद्र, समुद्र के पास जल, पियाके पास हिरण्य ) सभी के पास है ।।