Monday, December 16, 2013

----- ॥ सोपान पथ ४ ॥ -----

अजहुँ दू चारि दिवस के फेरे । गवनु गाँव पिय डारैं डेरे ॥ 
बसइँ गवइँ जँह अतिसय भोरे । ठारइँ रहँ सौमुख कर जोरे ॥ 
अब प्रियतम दो चार दिवस के फेर में ही गाँवों में जाते और वहीँ डेरा लगा लेते ॥ वे भारत के निवासी जो वहाँ बसे हुवे थे वे बहुंत ही भोले थे, वे हाथ जोड़े सम्मुख खड़े रहते ॥ 

पंच सचिव जन भवन रचियाए । फटिक मनि भित चित्र बिचित्र बनाए ॥ 
तिन आगिन सोहित बनबारी । सह हय गज रथ बाहिनि ठारी ॥ 
सरपंच एवं सचिवों ने भवन रचा इए थे । बिल्लौरी पत्थरों में अद्भुद चित्र अंकित रहते । उसके आगे सुन्दर वाटिकाएं सुशोभित रहती । साथ में हाथी,घोड़ों की वाहिनियां ,भवन के सम्मुख सुशोभित रहती ॥ 

कहत पिय रे पञ्च तुहारे । बिषय बिभूति बढ़त न हारे ।। 
मनि खचित रथ बहनि तनि देखो । बिहा परन दिए बछियन पेखो ॥ 
प्रियतम कहते रे सरपंच तुम्हारी विषयों के विभूतियां की बढ़नी बढ़ती ही जा रही है इसे हराने वाला कोई नहीं है ॥ ये मणि रत्नों  से खचित वाहिनियों को तो देखो । एक के साथ दूसरी ब्याह लाए हैं अब तो सुन्दर सुन्दर बच्चे भी दे रहीं है देखो देखो ॥ 

तुहरे डोरी बिय पथ जोगे । अरु तुम्ह रत बिषयन्ह भोगे ॥  
पञ्च को उतरु देंइ ना पाएँ । रद छानी सन दन्त डसाए ॥ 
तुम्हारी उपजाऊ भूमि बीजों की प्रतीक्षा कर रहीं है और तुम विषयों का भोग करने में लगे हो ॥ पञ्च कोई उत्तर नहीं दे पाते  केवल दांत निपोर कर रह जाते ॥ 

कारज निरखत लेखित लेईं । बहुरत पत्र पालक कर देईं ॥ 
तब कहि पालक एतिक न दौलैं । दुइ सहसै न ऐसेउ बोलैं ॥ 
निर्माण कार्यों का निरिक्षोपरांत उसका क्रम पत्र में लेखित कर प्रियतम जब वह पत्र कार्य पालन अधिकारियों को देते तो वे कहते इतना नहीं डोलते, दो सहस्त्र मानदेय पाने वाले ऐसे नहीं बोलते ॥ 

जहाँ न पूछें जोगता, पूछे धन अरु जात । 
ऐसे राजन के राज, मारो धर दुइ लात ॥ 
जहां योग्यता की पूछ न हो नियुक्ति से पूर्व केवल धन एवं जात पूछते हों ऐसे राजा के राज को दो लात मारनी चाहिए ॥ 

मंगलवार, १७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

दिवा संजातत साँझ बिहाए । आए प्रीतम जब सीस झुकाए ।। 
कार घर के कबहु  कहानी । तब बहियर अस बचन बखानी ॥ 
दिनभर का कार्य संपन्न कर जब संध्या का अवसान होता, तब प्रियतम शीश झुकाए आते । और कार्यालय की कभी राम कहानी सुनाते । तब वधु उन्हें उपरोक्त वचन कहती ॥ 

सुनु प्रानसमा कह पिय बाँचे । अजहुँ अवधि अहहीं एहि साँचे ॥ 

गाँव गँवइ भुइँ भीत धसाहैं । सेवक सचिब बढ़तइँ अहाहैं ॥ 
कहते सुनो प्राणों में समाने वाली प्रियतमा अद्यावधि यही सत्य वचन है कि गान में बसे लोग भूमि में गहरे धंसते जा रहे हैं । और सेवक-सचिव अर्थात शासन-प्रशासन उन्नतोन्नति करते जा रहे हैं ॥ 

हलधर भू धनि करइँ बिकाईं । जोगे जोइ धन छन सिराईं ॥ 
भएउ  कारक हमरेहु कामा । सबही मिल किए जे परिनामा ॥ 
कृषक अपनी खेतिहारी भूमि को धनिकों/उद्योगपतियों के हाथों विक्रय कर रहे हैं । जिसके रूपांतर जो धन प्राप्त हो रहा है वह क्षण में ही समाप्त हो जा रहा है ( कारण व्यसन के साधन सरल सुलभ हो गए हैं) ॥ हमारी भी महत्वाकांक्षाएं भी इसकी कारक हैं । क्या हैम क्या दूजे सभी की मिलीभगत का यह परिणाम है ॥ 

सत्य कहत सब हम अति लघुबर । कँह राजभोग कँह चिला चँवर ॥ 
पहले लरिबो आप लराईं । बहोरि दूजन  दोष धराईं ॥ 
सब सत्य ही कहते हैं हम बहुंत छोटे लोग हैं । कहाँ राजभोग और कहाँ चावल का चिला ॥ पहले अपनी महत्वाकाक्षाओं से ही लड़ लें फिर किसी दूसरे पर दोषारोपण करें ॥ 

भए मुख कान्त मलिन पिय, जब अपमानु हिय लाए । 
प्रियवर बदन निहारती, बहियर के जिउ दुखाए ॥ 
वधु ने जब अपमान को हृदय से लगाए प्रियतम को ऐसा मुरझाया हुवा मुखड़ा देखा तब उसका मन बहुंत ही आहत हुवा ॥ 


बुधवार, १८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                         

ऐसेउ करत लघुबर काजा । रहत बसत निज नगर समाजा॥ 
जिन्हु कोहु सन लोचन मिलाएँ । कभु कभु को जन नीच देखाएं॥ 
इस प्रकार से छोटे कार्य करते अपने नगर के समाज के मध्य वास करते जब वधु के प्रियतम जिस किसी से आँख मिलाते कभी-कभी कोई नीचा भी दिखाता ।। 

कार करन के त जहि बखाने । कभु को कभु को पालक आने ॥ 
तँह के निरादर के का ग्लानी । जँह पद लह पत अपदक हानी ॥ 
कार्यालय की तो यही राम-कहानी है । कभी कोई पालक आता है फिर कभी कोई आ जाता है ॥ वहाँ का निरादर की ग्लानी क्या। वहाँ पद प्राप्त करते ही प्रतिष्ठा है  पद से हटते ही प्रतिष्ठा भी हट जाती है॥ 

अपने जोगता आप सुहाए । संतन्ह के कछु काम न आए ॥ 
धरम चरन निज सद आचारे । संतन के जीवन उद्धारे ॥ 
स्वयं की योगयता स्वयं के लिए ही सुखकर होती है, वह संतानों के कुछ काम नहीं आती ( कमाऊ पिता से कमाऊ पुत उत्तम होता है)॥ धर्म के चार आचरण एवं सद्व्यवहार यही वे गुण है जो संतानों के जीवन को उद्दृत करते हैं ॥ 

जो पत परिजन नगर समाजा । तिन्ह के पतन होहहि लाजा ॥ 
अस पत पानी को बिधि धारें । सोचि बधु सुख सम्पद सँभारे ॥ 
जो प्रतिष्टा परिजनों एवं वासित नगर के समाज में होती है । उसके निपातन से लज्जित होना पड़ता है ॥ ऐसी प्रतिष्ठा किस विधि से वरण की जाए । तब बधु ने विचार किया, धन-सम्पदा संजो कर ?  

भवन आपनादि ए हेतु , एक एक कर जोहारि । 
पिय लगावन पत लगाए, लगी तिनकी लगारि ॥ 
जो भवन आपण भूमि इत्यादि एक एक कर संकलित किये थे वे वधु ने इस हेतु ही किये थे । प्रियतम के अनुरागवश उनकी पत-प्रतिष्ठा में प्रवृत्त होकर अचल सम्पत्तियों के विक्रय का क्रम चल पड़ा ॥ 

 गुरूवार,१९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                             

कछुक दिनमल त रहि सन लाईं । बहोरि तनि पिय जुगत लगाईं ॥ 
निकट जनपद मह कारज पाए । जल गहन परिजोजन अधमाए ॥ 
कुछेक मास तो प्रियतम मुख्या कार्यालय में ही संलग्न रहे । फिर थोड़ा उपाय कर पास के जनपद में जो जलग्रहण कि एक अधूरी परियोजना का कार्य भार लिए ॥ 

किए थापन जिन खंड बिकासे । रहहि निकट सो नगर निबासे ॥ 
चढ़त तुरग गत प्रात अहोरे । कार करत ढरि साँझ बहारें ॥ 
जिस विकास खंड में पदस्थापना की गई थी वह निवास नगर के निकट था ॥ प्रियतम अश्वारोहित हो प्रात: प्रस्थान करते और दिवसावसान के पश्चात लौटते ॥ 

कार भार एहि कर लिए कासे । तँहा जोग के रहि बहु आसे ॥ 
दुज को पालक सीस न ठाढ़े । रहि अधकर्मी एकै अगाढ़े ॥ 
यह कार्य भर इस कारण से ग्रहण किया वहाँ भ्रष्टाचार के धन-प्राप्ति की आस थी ॥ दूसरे यहाँ कई कार्यपालक सिर पर खड़े रहते थे वहाँ केवल एक अधिकारी था अर्थात लज्जित करने वाला केवल एक ही था ॥ 

कारज सीकर श्रमकर गहिते । कर्मिकहु श्रम सील जित लहिते ॥ 
जोई कारज धन कन उपजाए । सोइ कर श्रम बिनयनहु सुहाए ॥ 
कार्य श्रम बिंदु योगित करने वाला था अर्थात सरल नहीं था किन्तु कर्मी भी परिश्रमी एवं श्रम कि जयता को प्राप्त था ॥ फिर जिस कार्य से धन की प्राप्ति होती हो उस कार्य की तो क्लान्ति भी सुहावनी हो जाती है ॥ 

पंथन के धूरी, जो पद जूरी पिय बपुरमन आ लहीं । 
कंत कर कासे हिरन संकासे, जस रतन मनि लालहीं ।।  
कभु गमनै उछँगे चढत तुरंगे, कभु लौह पथ गामिनी । 
कभु सांझ ढराईं, फिरि फिरियाईं कबहु गहनइ जामिनी ॥ 
पथ की धूली जो चरण से युग्मित होकर शरीर पर आ लगती । उनका चमकता हुवा प्रकाश स्वर्ण कण एवं माणिक्य लाल रत्नों के जैसे प्रतीत होता ॥ कभी प्रियतम अश्व की तो कभी लौह पथ गामिनी के गोद में चढ़ कर गंतव्य स्थान को प्रस्थान करते । कभी वे सांझ ढले ही लौट आते कभी लौटने लौटते गहरी रात हो जाती ॥  

कबहु बधु पिय सोंह कहत, लिए बहु चिंतन धार । 
पहिले भइ बहु अनहोनि, गवनहु जोग निहार ॥  
कभी मन में अतिशय छोटा करते हुवे प्रियतम से कहती पहले भी ( छोटी बड़ी ) दो चार अनहोनियां हो चुकी हैं तुम देख भाल कर ही यात्रा किया करो ॥ 

शुक्रवार, २० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                 

कलुख अचार त कलुख अचारे । भनित कबित सन पवित न घारे ॥ 
चोंच चरन जूँ बक ललनाई । चाल चरत कँह हंस कहाई ॥ 
भ्रष्ट आचरण तो भ्रष्ट आचरण है । वह छंदोबद्ध कथन के सह पवित्र ग्रहण नहीं करता । चोंच एवं चरण को रंग कर हंस की चाल चलता बगुला हंस कहाँ कहलाता है ॥ 

जो होवैं भूखे भंडारी । असन हुँते भए कलुख अचारी ॥ 
बसन हीन हो देह उहारे । दोष करम कर दिए ओहारे ॥ 
जो भूखे भंडारी हैं केवल भोजन हेतु कलुषित आचरण के हो गए हैं । जो वस्त्र हिन् है जिनके तन का ओहार नहीं है वह दूषित कर्म कर यदि तन ढंकते हैं । 

तिनते अगहुँत अधिकाधिकाए । जथा जोग कर्पर धरे छाए ॥ 
करत दोष  धन जोइ सँजोगे । सो दूषित जन छम के जोगे ॥ 
और आगे इससे अधिकाधिक जो यथा योग्य सिर ऊपर छाया धारण कर लेते हैं जो दोष करते हुवे धन संजोते हैं वह दूषित जन ( कदाचित ) क्षमा के अधिकारी  हों ॥ 

एक त दूज दूज ते तिज चिते । फटिक मनि भवन सुबरन रचिते ॥ 
उजबल बसन बिलास सँजोईं । सो दूषन छम जोग न होई ॥ 
एक से दूजा, दूजे से तीजे भवन उठा कर जो बिल्लौरी पत्थरों में स्वर्ण अट्टालिकाओं कि रचना करते हैं । उज्जवल वस्त्र एवं विलास सामग्रियों का संग्रह करते हैं वह भ्रष्टता क्षमा के योग्य नहीं होती ॥ 

 जे परबचन अबोध बधु, नित्य बढ़ात उछाहु ।  
प्रीतम दोष करम करन, धन सम्पद के लाहु ॥  
ऐसे प्रवचनों से अनभिज्ञ वधु धन सम्पदा की लालसा में प्रतिदिन प्रियतम को दूषित कर्म करने हेतु उत्प्रेरित करती ॥ 


शनिवार, २१ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                          

पिय जस अदयावधि अहाहीं । पहले रहि अस दूषित नाहीं ॥ 
कछु भए बधु के कहनहि केरे । कछुक गृहस के पासुल घेरे ॥ 
जैसे प्रियतम इस समय भ्रष्ट थे वैसे वह पहले नहीं थे । कुछ तो वधु के कहने से हो गए । कुछ घर-गृहस्थी की फांस ने घेर लिया ॥ 

दोषा चरन जो बिय बिआइहीं । बधु के उछाहु किए सिँचाइहीं ॥ 
अंग भूत धर अंकुर जागे । हरियर हरि धर  बाढ़न लागे । 
दोष आचरण का जो बीज जो बोया हुवा था उसे वधु के उत्साह ने सींच दिया । अंग-प्रत्यंग धारण कर वह बीज अंकुरित हो गया और धीरे धीरे हरियाली पकड़ कर बढ़ने लगा ॥ 

कहि कहि बधु बोधति कैसे । बिरवा बाढ़न उर्बर जैसे ।। 
बधु के कहनी मानेहु जी तें । जस सो कह पिय तैसेउ कृते ॥ 
वधु कह कह के कैसे समझाती जैसे उर्वरक किसी पौधे को बढ़ने के लिए कह रही हो ॥ प्रियतम वधु के कथन को ह्रदय से मानते जैसा वह कहती वे करते जाते ॥ 

कबहुक त सबहि कहनइ माने । कबहुक कहत बहुस खिसियाने ॥ 
जेतैक खाल के बिद्या होहीं । लागसि तुम्ह सिखावन मोही ॥ 
कभी सारे कथन मान एते कभी यह कहते हुवे रुष्ट हो जाते कि जितनी भी भ्रष्ट आचरण की जितनी भी विधाएं हैं तुम मुझे उसकी  शिक्षा दे रही हो ॥ 

जे भुँइ भवन आपन जे, धन सम्पद के लाहि । 
जाहि सन सद चरन सेष, सब जहि रहि जाहिं ॥  
यह भूमि यह भवन यह आपण , धन-सम्पदा का ऐसा लोभ ? । यह सब यहीं रह जाना हैं कुछ साथ जाएंगे तो वो सद्कार्य ही जाएंगे ॥ 

बुधवार, २५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                   

सब रह रहहि जथारथ जेई । पथ निहारत गेह धन देई ॥ 
उर प्रिय प्रियता भर ममताई । प्रिया संग रहि जात जनाई ॥ 
सभी बातों के रहते यथार्थता थी कि वरवधू  का घर धन की देवी की प्रतीक्षा कर रहा था ॥ ह्रदय में प्रियतम कि प्रियता एवं ममता गरहन किये वह प्रिया संतानों की जन्मदात्री भी थी ॥ 

अंस दाइ पर धरत उधारे । इत उत सम्पद त लेइ धारें ॥ 
मांगत रहि धन तिनके कूपा । कहुँ त एक भार कहुँ एक सूपा ॥ 
अंस दाई योजना के आधार पर इधर-उधर संपत्ति उधार में लेकर धारण तो कर लिए ॥ अब उनका उदार का कुँआ धन मांग रहा था । कोई सम्पति एक भार तो कोई एक सूप ॥ 

बहुरि एक दिवस पिय भुज  काखे । दुइ तिनु पोथी पंगत राखे ॥ 
बहुर करम थरि गेह पधारे । कँह हू कहत बधू हँकारे ॥ 
फिर एक दिन प्रियतम काख में दो तीन पोथियों की पंक्तियाँ दबाए कर्म स्थली से लौट कर घर में पधारे और कहाँ हो! ऐसा कहते हुवे वधु को पुकार लगाई ॥ 

आवत बधु कहि तनिक सुहाँसे । न्याय पति के पद निस्कासे ॥ 
आईं बड़ी बिधि कि ग्यानी । जे पद बरु त  भरे हम पानी ।। 
वधु के आते ही प्रियतम सुहासित होकर कहने लगे न्यायाधीश का पद निकला है ॥ बड़ी आई बिधि की ज्ञानी यदि ये पद वरन कर लो तो हम तुम्हारा पानी भर देंगे ॥ 

पढ़ लिख पहिले गुण गिन लेवें । नियत दिवस जा परिखा देवें ॥ 
तुहरे वरण पदासन जोगें । दोष करम जोगत  बहु लोगे ॥ 
पढ़ लिख कर पहले अपने गुणों को गिन लो फिर जाकर इस पद की परीक्षा दो । क्या है की उस पद का सिंहासन तुम्हारे वरण की प्रतीक्षा कर रहा है । और बहुंत से लोग तुम्हारे इस भ्रष्ट आचरण की प्रतीक्षा में हैं ॥ 

नीच पलक नयन अवनत, कहत बधू सकुचाइ । 
हम  कँह कहे तुमसे हम, बिधि ग्यानी धियाइ ॥ 
नयन नीचे कर पलक झुकाते हुवे वधु ने सकुचाते हुवे कहा । हमने तुमसे कब कहा था की हम बिधि की ज्ञानी ध्यानी हैं ॥ 

बृहस्पतिवार, २६ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                

नाहि नाहि तुम भै बहु भोरी । गाँठ गठित किए रस की कोरी । 
बिधि बिज्ञान का श्रुति का बेदा । जान भइ तुम गजाजुरबेदा ॥ 
नहीं नहीं तुम तो बहुंत ही भोली हो । गाँठ गठित की हुई ईख हो तुम ॥ क्या  विधि क्या विज्ञान क्या वेद-श्रुतियां तुम तो हाथी के दांतो की चिकित्सा भी जानती हो ॥ 

पुनि पिय बधु कर पोथी धराए । दुइ दिनमल लग नैन फुरबाए ॥ 
संग ले गत बाजी बैसाईं । नियत दिवस परिखिअहिं दिवाईं ॥ 
फिर प्रियतम ने वहु के हाथो में पोथियाँ पकड़ा दीं।  और दो मास तक आखें फुड़वाईं ॥ निर्धारित दिवस को अश्व पर आरोहित कर संग ले गए और परीक्षा दिलवाई ॥ 

प्रथम चरन दरसत परिनामा । इहाँ नहीं कहि तुहरे नामा ॥ 
करत उपधि का उपाधि जोई । रे मूर्ख तुम असफल होई ॥ 
प्रथम चरण के परिणाम दर्श कर प्रियतम कहने लगे यहाँ तुम्हारा नाम अंकित नहीं है ॥ ये उपाधियां तुमने छल-कपट कर संजोई थी क्या मूर्ख कहीं की तुम असफल हो गई ॥ 

कहुँ उपक्रम कहुँ साधन हीना । कहुँ श्रम तरतम भाव बिहीना ॥
दइ उतरु गिन कारन अनेका । कहि बधु का हम सिस परबेका ॥ 
कहीं कार्ययोजना की न्यूनता, कहीं साधनो की न्यूनता, कहीं श्रम तो कहीं तारतम्य की न्यूनता ॥ इस प्रकार अनेक कारण गिनाकर वधु ने ऊत्तर दिया  हम क्या कोई प्रावीण्य सूचि के शिष्य थे ? 

के तो सफल के असफल, परिखन के पख दोइ । 
जब कोउ को पद लहई, अनलहि कोइ न कोइ ॥ 
या तो सफल या असफल परीक्षा के ये दो पक्ष होते हैं । जब कोई किसी पद को ग्रहण करता है, तो कोई न कोई अग्राह्य भी होता है ॥ 

शुक्रवार, २७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                 

करत अध्ययन बधु दिन राती । दोई चारिन अरु एहि भाँती ॥ 
बिलगन बिलग परिखिअहिं दाईं । पर सकल गही असफलताईं ॥ 
दिन-रात अध्ययन करते हुवे वधु ने इस प्रकार और दो चार विभिन्न प्रकार की परीक्षाएं दीं किन्तु सभी में असफलता ही प्राप्त हुई ॥ 

ऐसेउ करत गहस के बाही  । ठेरत अरु तनि दूरहिं आही ॥ 
कहुँ जे धाँसी त लिए उठानै । उदर भरन दिए धन के दाने ॥ 
ऐसा करते घर-गृहस्थी की वाहिनी ठेलते हुवे थोड़ी और दूर आ गई ॥ कहीं पर  वह धंसी तो उसे दम्पति ने उठाकर उसके उदार में श्रमधन के दाने दिए तब वह फिर से चल पड़ी ॥ 

काल करम कहुँ किए अँधियारे । धर्म पुन कहुँ पंथ उजियारे ॥ 
दुःख संगत सुख सम्पद भ्राजी । कलह के सह सांति बिराजी ॥ 
काले कुकर्म कहीं अंधियारा करते । किये गए धर्म पुण्य कहीं उजाला भर देते । दुखों के सह सुख भी शोभायमान रहा कलह क्लेश के सह उस वाहिनी में शान्ति भी विराजित रही ॥ 

चरत चरत पथ कूल अहाहीं । प्रनय प्रीत की सरित प्रबाही ॥ 
भए मन तिसनित तो भइ कंजन । कण्ठन उतरी बिंदु बिंदु बन ॥ 
चलते-चलते पथ के कगारे प्रणय- प्रीती की सरिता प्रवाहित हो दृष्टिगत होती ॥ जब मन तृष्णा से भर उठता तब वह कंठ में बूंद बूंद उतर कर अमृत हो जाती ॥ 

लही तन त्रिबिध बायु सम, बालक के अनुराग । 
तिनके बिहसन अरु रुदन, जस को गाए बिहाग ॥ 
बालकों का अनुराग देह में शीतल-मंद-सुगन्धित वायु का आभास देता । उनका हँसना और रोना ऐसा होता जैसे कोई कहीं बिहाग राग गा रहा हो ॥ 

शनिवार, २८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                           

भावज भगिनी बंधुहु भाई । कै नैहर के कै ससुराई ॥ 
बधु बर बासित निलयं माही । हिलन मिलन आवहिं बहुताही ॥ 
वधु-वर के निवास स्थान में मिलने-जुलने को भावजें, बहने, भाई बंधू क्या तो नैहर के क्या ससुराल के ऐसे बहुंत से लोग आते ॥ 

को सन रहि न घन मित मिताई । आगंतुक रहि सबहि सजाईं ॥ 
तिनमें एक संबंधी अस रहहीं । बधुर ससुर तिन सब सिख दहहीं ॥ 
उनकी किसी के साथ घनिष्ठ मित्रता नहीं थी । सभी आगंतुक सगे-सम्बन्धी ही होते ॥ उनमें से एक सम्बन्धी ऐसे थे जिन्हें वधु के श्वसुर न सारी शिक्षाएं दी थीं ॥  

बालइ बै मह लिखाए पढ़ाए । ब्यवहारी सब काज सिखाए ॥ 
बित समउ सोइ भए धनमानी । बर बहुटी के परन बिहानी ॥ 
बालावस्था में ही उन्हें लिखाया पढ़ाया एवं व्यवहारी कार्य का सारा ज्ञान दिया था ॥ समय बीता वर-वधु के विवाह के पश्चात वे ( रातोंरात ) धनवान हो गए ॥ 

एक दिवस आगत सोइ सगाए । बर सन लागे बैस बतियाए ॥ 
बोलि रे हमरे पीछु घारे । गहियन बही राउ रखबारे ॥ 
एक दिन वे ही सम्बन्धी आए और वर से कहने वार्तालाप करते हुवे बोले सुन रे हमारी लेखा-बही पकड़ने के लिए राजा के रक्षक हमारे पीछे लगे हैं ॥ 

कहि बधु ऐसेइ जब तिन पिय जे बात बताए । 
परिजन्ह के संकट मह, परिजन होत सहाए ॥ 
 प्रियतम ने वधु को जब यह बात बताई तो उसने कहा ऐसी बात है तो संकट में परिजनों की परिजन ही सहायता करते हैं ॥ 

रविवार, २९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                            

नाथ सेष अब कीजिए सोई । जोइ उचित अरु सबहित होई ।। 
सो परिजन जब दुबरइ आहीं । प्रीतम जेइ बचन उचराहीं ॥ 
हे मेरे स्वामी ! अब आप वही कीजिए जो सर्वस्व उचित हो एवं सर्वहित हो ॥ जब वे परिजब दुबारा आए । तब प्रियतम ने उन्हें ऐसा कहा : -- 
लिखि बही के चिंतन न लेवें ॥ चाहु त हमरे घर धरि देवें ॥ 
लिखे पत्र भर एक झोरे । परिजन बर बधु के घर छोरे ॥ 
अब लिखे खाता-बही की चिंता न करें । यदि चाहें तो उन्हें हमारे घर में रख देवें ॥ फिर उन लिखे बही-पत्रों को एक थैले में भर कर परिजन ने उन्हें वर-वधू के घर पर छोड़ दिया ॥ 

धरे धरे भए बहुसहि मासे । बहोरि सगाए आए निबासे ॥ 
कुचित बचन पिय अरन पिरो लै । तिन झोरन लए जावन बोलै ॥ 
उन्हें रखे रखे बहुंत मास हो गए । फिर एक बार जब वाही परिजन मेल-जोल हेतु घर आए तब प्रियतम ने वचनों में संकोच के शब्द पिरो कर कहा अब आप अपने थैले को ले जावें ॥ 

ते समउ त सोइ लेइ गवनै । तनि दिनमल पर अरु लै अवनै ॥ 
झोरन गहि गरुबर एहि बारी । एक न दुइ रहहि तीनै चारी ॥ 
उस समय तो वे उस थैले को ले गए । फिर कुछ मास पश्चात और ले आए ॥ अबकी बार वे झोले अतिशय भार ग्रहण किये हुवे थे और एक दो नहीं तीन चार थे ॥ 

घारे एक बर पालना, छोटे सयनागार । 
तापर बर साजन पुनि, घेरे झोरे चार ॥  
एक छोटा शयनागार था उसमें एक बड़ा पलंग था । उसपर बड़े से साजन और फिर ये चार झोले घेर लिए ॥ 

सोमवार, ३० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

बाहु प्रलंबित परिगत कोटे । दुइ ठन बालक छोटे छोटे ॥ 
बहुरि एकै लघु बैठक ऐंठे । एतिक साज कहु कँह कँह बैठे ॥ 
एक हाथ जितना लंबा चहारभित से घिरा वह कक्ष फिर उसमें नन्हे मुन्ने  दो छोटे-छोटे  बालक । फिर एक छोटी सी बैठक इतराए । अब इतनी गृह-सज्जा कहो तो कहाँ बैठे कहाँ जाए ॥ 

दरसत तिन्हन गतागताईं । बधु बार सौंहे पूछ बुझाईं ॥ 
को छठी बरही को बिहाने । कहूं सन आनै कि कहु पयाने ॥ 
और फिर उन झोलों को आते जाते अतिथि गण तिरछी दृष्टि से देखते हुवे वर-वधु से पूछते । किसी के जन्मिवस पर किसी के विवाह अवसर पर कहो तो, कहीं से आए हो या कहीं जा रहे हो ॥ 

कवन को कवन को बतलाहीं । देत उतरु बधु भै सिथिराहीं ॥ 
अपन आप पुनि  कोसत सोची । निपट पाँवर होहि मति पोची ॥ 
किसी को कुछ कहते, किसी को कुछ कहते । उनका उत्तर देते देते वधु थक जाती,श्रमित हो जाती ॥ फिर वह अपने आप को कोसते हुवे सोचती रे निपट मूर्ख छोटी बुद्धि 

कौन गहरी को अनह फिराई । कपट क्रिया के बनह सहाई ॥ 
अनहुत झबारि कण्ठन घारी । बनइ अहुट न बनै ओहारी ॥ 
जाने कौन सी अमंगल घडी में, कौन से अशुभ दिवस में इसे फिरा ली । जो छल -कपट कि क्रियाओं में सहायक बन गईं ॥ बिन होई के जंजाल को गले में गरहन कर लिया जिसे न तो उबारते बने न घारते ॥ 

सहसह सहाए किये कवन के । भोग बिलास दास बिषयन के ॥ 
जो परिनेता नीच दिखाईं । तिन माह रहहि एहु एकताईं ॥ 
अचानक यह किसकी सहायता कर दी जो भोग विलास एवं विषयों के दास हैं ॥ जो जन प्रियतम को नीचा दिखाते आए जो उन्हीं में से एक हैं ॥ 

सुबुधी कहत चले आए, चौरन चोर सहाइ ।  
भूरि बहु भई सो भई, निजमन बधु समुझाइ ।।  
विद्वान सदा कहते आए हैं चोरों के तो चोर ही सहायक होते हैं ॥ भूल तो हो गई हो गई, हो गई सो हो गई, फिर वधु ने अपने मन को समझाया ॥ 

मंगलवार, ३१ दिसंबर, २०१३                                                                                  

पुनि एक दिन बधु सासु ससुराहिं । मेल मिलन गवनी तिन्ह पाहिं ॥ 
जोग भए जब सास बहुरानी । निज निज नैहर रर बर मानी ॥ 
फिर एक दिवस वधु सास-श्वसुर से हेल-मेल हेतु उअनके पास गई । जब सास-बहु एक स्थान पर एकत्र होते हैं तब वे अपने-अपने नैहर को श्रेष्ठ बताती हैं ॥ 

सैन सरासन बोलइ बाने । छाँड़सि उरस सास कस ताने ॥ 
सुधी बूधी बहु बिदित बिधाने । श्रमन सील  सब करमन जाने ॥ 
संकेतों का धनुष धारण कर बोलों के बाण लिए सास ने फिर तानों के गुण कस कर उन बाणों को ह्रदय पर छोड़े ॥सुद्धिमान, बुद्धिमान सभी विद्या में प्रवीण श्रमशील सभी कार्यों में कुशल : -- 
   सबहि के जात बिभूति लै पोटे  । रहि जहि तहि एक हमरे ठोटे ॥  
सिखि  तब न जब निबरै कलेसा । बधु भरि अभरन पुत तप भेसा ॥ 
सब लोगों के पुत्र विभूतियां धारण कर पुष्ट होकर प्रगति कर रहे हैं । और एक ये हमारे बेटे हैं कि वहीँ के वहीँ हैं ॥ कुछ सीखे तब न जब गृह के कलह-कलेशों से उबरें । वधुएँ  तो आभरण भरी हैं और बेटे तपस्वी वेश में वन -वन फिर रहे हैं ॥ 

जब तिनके मुख कहि पूर पाए । बाँच रहे त हमरे घर आए ॥ 
कोमलि कंटक कहि कटु बानी । श्रवनत कठिनत बधु अकुलानी ॥ 
जब इनके मुंह की कही पूरी हो जाए आयर कुछ बचे तो हमारे घर आए ॥ कोमल कंटिका सास ने इसप्रकार कटूक्तियां की जिसे वधुओं ने बड़े ही कठिनता पूर्वक सूना सुनते ही वे व्याकुल हो उठी ॥ 

सिरु अचरा डारी, लोचन थारी, मनियारी मुकुति भरे । 
सर हरिदै लाई बहु बहराई सास ससुर पाउ परे ।। 
द्वार देहराउ परे न पाउ मन मस जस तस भितरी । 
उर झाँकन लाखी, दिसि पिय झाँकी, कहि बहु बिद बल्लभ रे ॥ 
सिर पर आँचल  सास-श्वसुर के पड़ उनके बाणों को ह्रदय से लगाई, लोचन की थाली में चमकते मोतियों को सजाई फिर वधु लौट चली ॥ निवास द्वार की देहली पर पाँव नहीं धरा रहे थे कठिनता पूर्वक ही गृह के अंतर प्रवेश किया और जब ने वधु ह्रदय में झाँक कर देखने लगी,  तो उसे प्रियतम की ही झाँकी दिखाई दी, वह मन ही मन कहने लगी अरी प्रियतम कहाँ बुद्धू है वह तो विद्वान हैं ॥ 

तिनकी नित कि बानि रही, निसदिन के रहि माख । 
बहियर तिन हरुबर बचन, लहि मन गहनहि राख ॥     
सास-श्वसुर की ऐसे कहने की तो सदा की रीति रही ।प्रतिदिन का ही झींखना है,॥ वधु ने उनके हलके वचनों को मन में गहरे ही ले लिया ॥ 






Sunday, December 1, 2013

----- ॥ सोपान पथ ३ ॥ -----

कलित कुलीनस कलसी थापे ॥ पूजन गुंजन गगन ब्यापे ॥ 
गृह मुखिया निज निज परिबारे। बैठे जग गठ बंधन डारे ॥ 
अमृत ग्रहण किये हुवे कलश स्थापित हुवे । पूजा की गूंज गगन में विस्तारित हो गई ॥ अपने अपने परिवार के मुखिया गठ बंधन बाँध के युग्मित होकर आसीत हुवे ॥ 

सोहत अति धृत सुन्दर भेसे । अनुकर रत महि सुर निर्देस ।। 
भाव भगती के भवन समाए । अहर्निसा हरि कीरतन गाएँ ॥ 
श्रद्धा भक्ति के भवन में समाहित होकर वे सांझ -सवेरे हरी कीर्तन गाते, शास्त्रो के विद्वान जनों के निर्देशों का पालन करते वे सुंदर वेश धारण कर अतिशय शोभायमान हो रहे थे ॥ 

कौटुमिक जन सकल जग सिंधुहु । जुगे बिराध लघु भाइ बंधुहु ॥ 
समित समाहित संजम साधे । समासंग सब करत अराधे । 
भव संसार के बड़े छोटे भाई बंधू सहित समस्त कुटुंब जन वहाँ संकलित हुवे ॥ और स्वीकृति पूर्वक सुव्यवस्थित होकर संयम का पालन करते परस्पर मिलकर आराध्य देवताओं की आराधना कर रहे थे, अर्थात समस्त कुटुम जनों का यह मेल सुहावना प्रतीत हो रहा अथा ॥ 

मंगल द्रब्य कल कीलाला । देइ देवन्ह भोग रसाला ॥ 
देव पितर हरि कह कर जोगे । जथा जोग रस आगत भोगें ॥ 
सभी मांगलिक पदार्थों एवं पवित्र  द्रव सहित डिवॉन को भोजन अर्पित किया जाता ॥ और हाथ जोड़ के देवताओं का आह्वान किया जाता हे देव ! यह भोजन जो यथा योग्य है इसे साक्षात उअपस्थित होकर ग्रहण करें ॥ 

परिजन मृदु बानि आसन, राजे सरसइ सेष  । 
सुनि श्राद्ध भुगतिक देव । गहे असन  उपबैस । 
परिजनों के मृदुल वाणी के आसान में जैसे स्वयं माता सरस्वती एवं भगवान धरणीधर शेष विराजित थे । जिसे श्रवण कर श्राद्ध-भोक्ता देव मानो उस प्रसाद को साक्षात ग्रहण कर रहे थे ॥ 

सोमवार, ०२ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

को जन तँह पूरनावधि होरें । को तनिक अधिक त कोउ थोरे ॥ 
कोउ आरम्भ दिवस लग बैठे । को जन मज्झन मह लिए पैठे ॥ 
कोई वहाँ पूर्ण अवधि हेतु कोई थोड़े अधिक तो कोई सिमित अवधि हेतु वहाँ ठहरा रहा ॥ कोई प्राम्भ दिवस से ही वहाँ निवासित रहा कोई स्वजन मध्यावधि में पहुंचा ॥ 

दंपतहु  जूग  सँजोइन के । कछु आपन कछु बालकिन्ह के ॥ 
तँहवाँ जँह सुभ करम बिठाईं । गवनै चारि दिवस के ताईं ॥ 
दंपत ने भी कुछ अपनी तो कुछ बालकों की यात्रा सामग्री तैयार कर ली ॥ और वहाँ जहां इस शुभ कर्म का आयोजन किया गया था चार दिवस के लिए प्रस्थान किये ॥ 

पैठत तहाँ मन बहु सुख पाए । भवन भुँइ भुवन भजन सुर छाए ॥ 
कहु चन्दन कहुँ अगरु सुगंधे । चहुँ पुर अष्टक सुरभित गंधे ॥ 
वहाँ पहुँचते ही मन में सुख की बहुंत ही अनुभूति हुई । वहाँ भवन से होते हुवे  पृथ्वी से लेकर बृह्मांड तक भजन के स्वर गुंजायमान थे ॥ कहीं चन्दन तो कहीं अगर सुगंध सहित चारों दिशाओं में अष्टक गंध सुवासित हो रहा था ॥ 

परिजन सन भरि भवन अटारी । सोहन सँजूग सोंह सँवारी ॥ 
माली निज निज फुर फुरबारी । मानहु लोक प्रदर्सन कारी ॥ 
शरणाश्रय सजावट की सामग्रियों से सुरुचि पूर्वक सुसज्जित था उसका खंड खंड  परिजनों से परिपूर्ण थे ॥ परिवारों के माली स्वरुप मुखिया अपनी अपनी फुलवारियों के फूल-पौधे मानो लोगों के प्रदर्शन हेतु लाए हों ॥ 

कली मुकुल प्रफूटित फर, डार डार संजोग । 
भाँति भाँति के रंग धरि, सबहि निहारन जोग ॥ 
 शाखा -शाखा  कली मुकुल प्रस्फुटित फलों से भरी थीं । वे सभी विविध वर्ण धारण किये देखने योग्य नमूने थे ॥ 

मंगवार, ०३ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                           

भगवद कथोधात सों भोरे । बिप्र बरनन करनन रस घोरे ॥ 
बाजि बहु बाज मुख करत भजन । रयनै भगति मै बाताबरन ॥ 
श्री मद भगवद् कथा प्रात: काल से ही आरम्भ हो जाता ॥ विद्वानों के द्वारा ईश्वर की वर्ण-व्याख्या कानों में रस घोलती ॥ उनके श्री मुख बहुंत से वाद्य यन्त्र का प्रसंग कर भजन करते । इससे वहाँ का सारा वातावरण भक्तिमय हो उठा ॥ 

पाए पितर गन के परसादे । राधे राध कह पदाराधे ॥ 
बड़े बिरध के आयसु लेईं । सीस धरत कर असीस देईं ॥ 
पितृ जनों का पवित्र प्रसाद प्राप्त कर और राधे राधे कहते हुवे उनकी चरणाराधना कर, बड़ों एवं वृद्धजनों की की फिर आज्ञा ली, उन्होंने शीर्षोपर कराधारित कर शुभाशीर्वाद प्रदान किया ॥ 

नमत पदुम पद दोइ कर जोरी । बर बधु मुद तँह बहोरि बहोरि ॥ 
बासन तँहहि बहुस अकुलाहीं । बहुरन किए दुहु के मन नाहीँ ॥ 
उनके पद्म-चरणों पुनश्च प्रणाम कर फिर वर-वधू मुदित मन से वहाँ से लौटे । वहाँ रहने को बहुंत व्याकुल थे किन्तु उनका मन लौटने को नहीं का रहा था ॥ 

श्रम कारज करमने कारनू । निवासित पूरी दुहु आगवनू ॥ 
आवागमन अस फेर बँधाए । कभु को अवाए कभु को गवनाऍ ।। 
किन्तु काम-काज के कारण वे निवास पुरी को लौट आए ॥ इस प्रकार वहाँ आवागमन निरंतर चटा रहा किसी का आगमन होता तो किसी का निर्गमन ॥ 

आवत बूझतनगत जन, तँह के कहन कहान । 
बर बधूटी मनस मुदित, तब करि मधुर बखान ॥ 
जो स्वजन किन्हीं कारणों से गमन करने में असमर्थ थे, वर-वधू के निवास स्थान में आते ही वे सारी कथा-कहानी पूछते ।  तब वर-वधू मुदित मन से बड़े ही मधुरता पूर्वक उन्हें वहाँ का सारा वृत्तांत कह सुनाते ॥ 

बुधवार, ०४ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                              

जुगबन स्वजन मन धरि सांती । सकल करम पूरित भलि भाँती ॥ 

प्रणमत बिप्रबर दिए अनुदाने । गया पुरी गत पिंडक दाने ॥ 
सभी स्वजनों ने मन में शांति रखते हुवे मिलजुल कर पितृ कर्म-काण्ड को भली प्रकार से पूर्ण किया । विप्रवर को प्रणाम कर यथायोग सहायता करते हुवे  फिर श्री गया पुरी में जाकर पिंड दान किया ॥ 

निरमल जल कल कंठ लगाईं । सुरसरि के नीराजन गाईं ॥ 
धरत बदन गुन भज हरि नामा । चारे चरन पुनि तीरथ धामा ॥ 
वहाँ बहती हुई निर्मल गंगा के जल को कंठ से लगाया और उसकी आरती गाई ॥ मुख में प्रभु का नाम  लेते हुवे फिर उनके चरण चार धाम की यात्रा करने चले ॥ 

 हर्षित मन त्रिबेनी अन्हाए । गह गह मज्जनु मलिन धूराए ॥ 
न जान मलिन  दूरे कि नाहिं । भोर के भूरे सांझ बहुराहि ।। 
सबने प्रसन्न मुद्रा से त्रिवेणी ( गंगा, जमुना , सरस्वती का संगम स्थल ) में स्नान करते हुवे गहरी डुबकी लगाते हुवे पापों को धोया ॥ पाप तो ज्ञात नहीं धूले कि  नहीं किन्तु सबेरे के भूले संध्या को अवश्य ही लौट आए ॥ 

वाके लेखे गवनए धोई । प्राग भूर नउ पंथ सँजोई ॥ 
आन फिरत बहु बिध  उपहारे । दिए जोग दिए लेइ कर धारे ॥ 
उनकी समझ से तो धूले गए थे  वास्तव में पुराने पाप बिसराए गए नए पाप करने का मार्ग खुल गया । यात्रोपरांत उनका  आगमन विभिन्न प्रकार उपहारों के वितरण के साथ हुवा देने वालों को  दिया लेने वालों से लिया ॥ 

जोग लोचन जथा जोग, दाई बिबिध बिधान । 
अस पितरगन करमन भए, भाव पूरित बिहान ॥  
जिनके नयन प्रतीक्षारत थे उन्हें विभिन्न प्रकार के विधानों से सस्नेह दान किया इस पकार पितृ गण का कार्य श्रद्धा एवं भक्ति पूर्वक संपन्न हुवा ॥ 

गुरूवार,०५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                               

चित्र बिचित्र बरनन रंजनाई । जे उत्सव नउ दरसन दाईँ ॥ 
भए चितबत चित छनिक ठहराए । पुनि जीवन चक निज पंथ धाए ॥ 
यह उत्सव भी विचित्र  प्रकार के वर्णों से वर्णित नए नए चित्रों को दर्शा कर चला गया । एक बार के लिए होकर जीवन जैसे स्तब्ध होका ठहर गया । किन्तु पुनश्च उसके चक्र अपने पथ पर गमन करने लगे ॥ 

इत ललना रुज बहुस दुखारिहि । पालएँ पालक उर कर धारिहिं ॥ 
आत झटक त साँस बहुरिन्है । लाए मात पितु बिनवत चिन्है ॥ 
इधर बाल मुकुंद का रोग अतिशय दुखदाई हो गया । पालक उसे उसके  ह्रदय भवन पर हाथ रखे पाल रहे थे ॥ जैसे ही झटका आता उसकी सांह कहीं लौट जाती फिर मात-पिता फिर उसे चिन्ह परख कर कहीं से वापस लाते ॥ 

गवन निरुज गह बारहि बारइ । कभु मास परे कभु दिन चारइ ॥ 
जाके पद भुँइ पलक न ठारे ।  पल भर ठहरे पुनि एक बारे ॥ 
कभी एक मास तो कभी दो चार दिवसोपरांत ही वे वारंवार निदान भवन जाते ॥ जिसके चरण धरती पर पल भर को भी स्थिर नहीं होते थे । फिर एक दिन वह किंचित समय के लिए ठहरे ॥ 

ललन चरन चर आस बँधाई । अरु भाग सोंह निकट निकाई ॥ 
नवेक सकलांग गृहोधाए । तँहवा तनय निसदिन ले जाएँ  ॥ 
ललना के चलने की आस बंध गई । और सौभाग्य वश निवास के निकट ही एक नया सकलांग केंद्र का आरम्भ हुवा । मात-पिता पुत्र को नित्यप्रति वहाँ ले जाते ॥ 

कछुकन तिन्ह के जतने, कछुक जतन किए आप । 
छन भूमि होरि के लाल, चल दु पद दिए चाप ॥  
कुछ उनके प्रयासों से एवं कुछ पालक के निज उपायों से कुछ समय तक खड़े होने के अभ्यास के उपरान्त वह बालक दबाव देकर कुछ दो चरण चला ॥ 

शुक्रवार, ०६ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                                         

हरिहर पगतर चारन लागे । कहत मात पितु भए बड़ भागे ॥ 
तासु मन एक चिंतन परिहारि । कहत कृपा प्रभु सुरतिहि धारीं ॥ 
धीरे धीरे पुत्र के पाँव चलने लगे, माता-पिता ने कहा  अहो भाग हमारे॥ उअनके मन से एक चिंता तो हटी उन्होंने  ईश्वर का स्मरण कर उसे धन्यवाद दिया ॥ 


पीर गहन काया जब लैने । तोल तुला मुख रसनी बैने ॥ 
बोल कोइ जब तोल न बताइ । सोइ पीर सौ सैन समुझाइ ॥ 
जब काया में गहरी पीड़ा होती है । तब मुख- तराजू से जिह्वा की रस्सी उसका भार बतलाती है ॥ यदि किसी की जिह्वा बॉल कर नहीं बतलाती, तब वह उस पीड़ा का भार बहुंत से संकेत करते हुवे समझता है ॥ 

पर ललना धरे न मुख बैने । मंद मतिहि मह घरे न सैने ॥ 
मात पिता दुःख भाव तुलाई । होत बिकल बस मान लगाईं ॥ 
किन्तु उस बालक को बोलना नहीं आता । मंद मति में संकेत भी नहीं धरे ॥ माता-पिता दुःख को उसके भाव से तौलते और व्याकुल होकर केवल अनुमान ही लगाते ॥ 

दरस तेहि जब मन नहि माने । गए देखावें आनइ आने ॥ 
फेर फिरी के सब अस्थाने । अंततो गवने बड़ रौ धाने ॥ 
उसे ऐसी अवस्था में देख जब मन नहीं माना तब उसके रोग के निरीक्षण हेतु कहीं कहीं गए ॥ सब स्थानों से घूम फिर कर अंततोगत्वा बड़ी राजधानी गए ॥ 

पुनि तहहिं केहु भिषकगन, देख निरख सब जोग । 
पर तिन्हहु मिलवई ना, रोगाधार निजोग ॥   
 निरक्षणोपरांत वहाँ के भी वैद्य गण को उसके रोग के  नियोजन का आधार नहीं मिला ॥ 

शनिवार, ०७ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                                        

दोइ भाँति का भेषज धारे । बहुरे निज पुर पौर पँवारे ॥ 
जीवन रुज जस पीछा घारे । छाड़न कहि  अरु कास कै धारे ॥ 
दो पकार की औषधि लेकर फिर वर-वधू अपने निवास स्थान को लौट आए ॥ जीवन  में रोग जैसे पीछे ही पड़ गए थे, पीछा छुआने को कहते तो वो और कास के पकड़ लेते ॥ 

अजहुँ त ललना कछुक न जाने । जी लमाए लम पथ सोपाने ॥ 
मात पिता के पीठ पालकी । पंथ चरन पुनि बनै लाल की ॥ 
अभी तो ठोटे के मनोमस्तिष्क को कुछ संज्ञान नहीं हुवा था । और प्राण एक लंबे सोपान के पथ से थे ॥ उस पथ पर संचरण करने के लिए माता-पिता की पीठ फिर उस बालक की पालकी बनी ॥ 

पीर कंटक  कंकर मग केरे । उरझन के बहु कंटकि घेरे ॥ 
धाँस गहन जब जरत दुखारी । जननि जनक दैं नेह फुहारी ॥ 
मार्ग पीड़ा के कंटक और कंकड़ से परिपूर्ण था उलझनों कि बहुंत सी झाड़ियाँ थीं ॥ जब यह धंस कर दुःख की ज्वाला उत्पन्न करते । तब जननी और जनक स्नेह की फुहारी देकर उसे शांत करते ॥ 

धरे हृदय भय गह अँधियारे । दरसत जग जन गवनु सकारे ॥ 
लखत लाल मुख जिउति उछाहू । पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥ 
रात्रि के अन्धकार में हृदय के भीतर पुत्र के जीवन-मरण का भय उत्पन्न हो जाता । जब भोर में जब ओगों को देखते तब यह भय मुक्त होता ॥ उद्वह के मुख पर जीवन जीने का उत्साह देखकर किसी को मार्ग की थकावट और उसके कष्ट का आभास नहीं होता ॥ 

कबहु दुःख पीरत आरत, कबहुँक हाँसत खेल । 
चढ़े ढरे पथ संचरें, जीवन बाहनि ठेल ॥ 
कभी दुःख कभी पीड़ा कभी कष्ट कभी हँसी कभी क्रीड़ा और मार्ग के आरोह अवरोह का क्रम में जीवन की वाहनी किसी प्रकार से संचालित थी ॥ 

रविवार, ०८ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

चरत चरत जब भए सिथिलाईं । पाएँ पंथ कहुँ सुख के छाईं ॥ 
दोइ घरी बैसत एक कोरे । कहि निज निज बर बधु सिरु जोरे ॥ 
चलते-चलते जब वह श्रमित हो जाते और पंथ में कहीं सुख की छाया मिलती । तब वे दो घड़ी के लिए थम जाते और एक कोने बैठ वे युगल दंपत सिर जोड़ कर अपनी अपनी बात कहते ॥ 

बहुरि एक दिवस मदरस सानी । बोलइ पिया मधुरित बानी ॥ 
अजहुँ त आपनि  छॉँत ढरियाइँ । काहु न हम एक रथ लैइ आएँ ॥ 
फिर एक दिन मधुरस में पागी हुई प्रियतम मधुर वाणी में कहने लगे । अब तो अपनी छत भी ढली गई, क्यों न हम एक रथ ले आएं ॥ 

रचित रुचित चक बाहिन चारी । सोहहि ठहरी गृह बनबारी ॥ 
चारू चरन जब पथ संचरहि । दरसत तिन्ह जन जन बलिहरहिं ॥ 
चार चक्रों का वह सुंदरता पूर्वक रचा वह वाहन अपने घर की वनवाटिका में खड़ा कितना सुन्दर लगेगा ॥ उसके कुमकुम लगे चरण जब पथ पर टप टप करते हुवे संचालित होंगे तब उस रथ को देखकर आते-जाते लोग कितनी बलाएं लेंगे ॥ 

भेस बसन धर साजित होहू । ता पर जब तुम राजित होहू ॥ 
तासु रथासन केतक सोहहि । बाल मुदित तव सन अवरोहहि ॥ 
वेश भूसा धारण कर जब तुम सुसज्जित होगी । फिर जब तुम उसपर विराजित होवोगी । तब उस रथ का सिंहासन कितना सुन्दर लगेगा । और ये बाल-बच्चे प्रसन्नचित होकर तुम्हारे साथ उस रथ पर चढ़े कितने अच्छे लगेंगे ॥ 

कहत जेइ पिय मृदुल प्रसंगे । दरस बधु मुख पीठिका रंगे ॥ 
नाम नाथ जे तुहरे दासा । परे रहीं तव चरनन पासा ॥ 
यह मृल प्रसंग कहते-कहते जब प्रियतम ने वधु की मुख पृष्ठिका के वर्ण देखे तब प्रसंग परिवर्तित करते हुवे कहा यह तुम्हारा नाथ केवल नाम का ही नाथ है  यथार्ट्स यह तुम्हारा दास है । यह भी पडा रहेगा कहीं, तुम्हारे चरणों के पास ॥ 

भाँति भाँति किए कल्पना, पिया पलक पट नैन । 
रथ के चरन क्रांत कर, थिरकइ सों सुर बैन ॥  
तब फिर प्रियतम के नयन पलक के पट,विभिन्न प्रकार की कल्पनाएं करने लगे । रथ के चरण, ध्वनी करते हुवे उनकी मधुर-वाणी में जैसे नृत्य ही करने लगे ॥ 

सोमवार, ०९ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                         

श्रवनत अस बधु भृकुटिहि ऐंचे । कोउ सरासन गुन जस खैंचे ॥ 
निर्दइ  दयित लखत तिरछाई । श्रृंग सिख सोंह बिसिख चराई ॥ 
ऐसा सुनकर वधु की भृकुटियां तन गई जैसे किसी ने धनुष का गुण खैंच लिया हो ॥ वह निर्दयी अपने प्रीतम को तिरछे देखती श्रृंग के जैसे बाण चलाने लगी ॥ 

अरु कहि पिय सों यह तौ लेखें । हमरे पालक कभु रथ देखें ॥ 
रथ बाहिन तजु का को घोरे । बाँधि मिलै कभु तिनके ठौरे ॥ 
और पिया से कहने आगी यह तो समझाएँ क्या हमारे पालकों ने कभी रथ देखा है ? रथ वाहिनी तो छोड़ों क्या उनके आँगन में कभी कोई घोड़ा भी बंधा मिला है ? 

न जान कवन चक बर्ती राए । जिनके बे तुम हरन करि लाए ॥ 
जो तव अतिसय प्रान पियारे । केत न केत उदर कन घारे ॥ 
जाने किस चक्रवर्ती राजा हैं जिनके घोड़े को तुम हरण कर लाए हो । जो तुम्हे प्राणों से भी अधिक प्रिय है देखो वह कितना खाता है, अर्थात रथ फिर और कितना खाएगा ॥ 

दूजे रचे जो रुचिर अटारी । तिन के हुँत बधु कहत चकारी ॥ 
धन्य धन्य कह पिय अनुरागे । लाग लगे जौ  तुहरे लागे ॥ 
दूजा तुमने जो अटारी निर्माण करवाई है उसके तो बस पूछोई मत सारा घर खा गई ॥ तब प्रिया ने बड़े ही अनुराग पूर्वक खा धन्य हो तुम धन्य हो तुम्हारे जैसी लुगाई को तो आग लगे ॥ 

कल्पकार चित्र कल्पने, जामे भरे न रंग । 
पर भीतर अंकित होत, रहि तिनके चित संग ॥ 
प्रियतम ने एक छत्र की कल्पना की जिसमें रंग नहीं भर पाया । किन्तु वह उनके चित्त के साथ अंतर में रेखांकित हो गया अर्थात उसमें कभी न कभी रंग भरना ही था ॥ 

मंगलवार, १० दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

तौं पिय रहि रथ किरन बिहीना । बधूटि सों भए तिनके हठ हीना ॥ 
जिन्ह अधार रथ लाहन होई । जुगावनई जे जोग सँजोई ॥ 
इस प्रकार परिणेता रथ कि किरणों के विहीन ही रहे । उनका हाथ वधु के सम्मुख फीका रहा ॥ जिसके आधार पर रथ लाने की लालसा जागृत हुई । एकत्रित कर जो धन संजोया गया था ॥ 

झट लोचन पट चौखन ढारत  । एक तज दूजै कल्पन कारत ॥ 
दंपत सीतरहि मनस बिचारे । तिन्ह ते होनिहार सँवारे ॥ 
उस संचय धन के आधार पर पलक झपकते ही एक कल्पना के प्रारूपण दूसरी कल्पना किये ॥ डम्प्टी ने शांत मस्तिष्क से विचार किया । क्यों न उस धन से भविष्य संवारा जाए ॥ 

जान समउ का आगिन आहीं  । कार करन जे होहि सहाहीं ॥ 
जिन बिधि पुरइन पुर क्रय कारहिं । तिन बिधि एक आपन लए धारहिं ॥ 
आगे जाने कैसा समय आ जाए । यह कार्य करने हेतु सहायक होगाकि जिस विधि से हमने पुरातन अचल सम्पदा क्रय की थी उसी विधि से एक आपण ले धारें ॥ 

एक कोन कलित दुइ मुख धारी । पौर पँवर लागे मग चारी ॥ 
नउ नवल भवन पगतर ढरियाइ । लख अष्टक मह एकल ईकाइ ॥ 
फिर एक कोने में वह दौमुखी आपण जिसकी ड्योढ़ी से चौपथ लग रहा था । और वह क्रय किये गए नए नवेले ढले भवन के ठीक तल में स्थित थी जो कुल रूपए अष्ट लाख में एक ईकाई थी ॥ 

एक बपुरमन दोइ बदन, जनु एक जुगल बिहाए । 
वाका सुठि अंतह करन, को बिधि बरनि न जाए ॥ 

बुधवार,११ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                               

जुगावनी पिय जो धन रासी । कौड़ी कौड़ी जुग धरि कासी ॥ 
तिन्ह के रहहि भिनु भिनु सोते । संजम करि कहुँ क़तर बियोंते॥ 
प्रियतम ने जो धनराशि एकत्र  की थी । कौड़ी कौड़ी करते हुवे जो मुठिका में जोड़ी थीं ॥ उसके विभिन्न प्रकार के स्त्रोत थे । कुछ निज जीवन में संयम का पालन किये,कुछ जोड़-तोड़ किये ॥ 

जे भुँइ खन पहिए लिए धारें । बहुरि तिन्ह कहुँ बिकरइ कारें ॥ 
मोलाइ रुपए सहस चालिसा । अंतरि लख दुइ सहस पचीसा ॥ 
पहले जिस भूमि के खंड को क्रय किया था फिर उसे किसी को विक्रय किया ॥ जिसका मूल्य रूपए चालीस सहस्त्र था । वह दो लाख पच्चीस सहस्त्र में परिवर्तित हो गई ॥ 

बहुरि हरिएँ नउ भवन लहाने । दिए पिय मात पिता के काने ॥ 
किरपा कारत दया निधाने । लाख  दोइ कर दिए अवदाने ॥ 
धीरे से नए भवन के क्रय की बात प्रियतम ने माता-पिता के कानों तक पहुंचा दी थी ॥ वे कृपालु हैं एवं दया के भण्डार स्वरुप हैं । उन्होंने रूपए दो लाख की सहायता राशि प्रदान की ॥ 

अरु लिए भुँइ एक दूर डहारी । बड़ भगिनी सह निकट पहारी ॥ 
मोल धरि कुल सहस चौरासी । दोउ बहिन दिए अध् अध् रासी ॥ 
नगर से सुदूर पहाड़ी के निकट और एक भूमि-खंड क्रय किये । जो वधु की बड़ी भगिनी की भागीदारी में थी । उसका मूल्य कुल रूपय चौरासी सहस्त्र था । दोनों बहनों ने उस भूमि की आधी आधी धन राशि चुकाई ॥ 

जोट कछुक गृह भाटक बाढ़े । कछुकन कारत मुठिका गाढ़े ॥ 
अस दंपत सामरथ बढ़ाईं । बिंदु बिंदु नभ घन के नाईं ॥ 
कुछ नए भवनों के भाड़े से कुछ कृपण आचरण के कारणवश धन राशि का योग बढ़ा । ऐसे करते दम्पति ने अपना सामर्थ्य बढ़ाया जैसे नभ में बिंदु बिंदु कर मेघ गहराते हैं ॥ 

दुइ भवन लख दुइ,एक त्रय, आपन महुँ लख चार । 
जुगल दम्पति आपन कर,, धरे सम्पद अपार ॥ 
दो अगहु भवनों में दो-दो लाख एवं एक में कुल रूपए तीन लाख एवं आपण में कुल रूपय चार लाख की धनराशि चुका कर इस प्रकार से युगल दम्पति ने अपने 

बृहस्पतिवार, १२ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                            

एहि बिच पिय जीविकोपार्जन । हेर फेर किए कारज बहुकन ॥ 
अंस कालिन अध्यापन सोहि । एक निज समिति सन जोगित होहिं ॥ 
इसी मध्य वधू के प्रियतम ने जीविकोपार्जन उलट-फेर कर बहुंत प्रकार के कार्य किये अश कालीन अध्यापन के सह वे एक अशासकीय संस्था से संयोगित हुवे ॥ 

जब छूटि रहि राउ सेउकाइ । तब सब मिल तिन गठित धराईं ॥ 
कार करन पंचायत माहीँ । पावन कारज फेर लगाहीँ ॥ 
जब राजा कि सेवाकर्म से निष्कासन हुवा  तब प्रियतम के सह सभी निष्कासित जनों ने सम्मिलित होकर उक्त संस्था का गठन किया ॥ फिर पंचायत विभाग में कार्य करने के कामना से कार्य प्राप्ति हेतु चक्कर लगते ॥ 

समिति सदस सन परे न पारे । आपई आप गठन बिचारे ॥ 
कहु के ईंटा कहु के रोरै  । भानुमान एक कौटुम जोरै ॥ 
जब उस असमिति के सदस्यों के साथ पार नहीं पड़ी तब पानी ही समिति के गठन का विचार किया फिर कहीं की इष्टिका एवं कहीं की कंकरी लेकर भानुमान ने एक कुटुंब जोड़ा ॥ 

चार पतर लिख चारै बैने । अधिकोष एक लेखा लहैने ॥ 
पत्तर मह त लेखे बहु हेतु । जथारथ रहहि बँधए धन सेतु ॥ 
चार पत्रों मन चार पंक्तियाँ लिखी अधिकोषालय में लेंन -देन प्रारम्भ किया ॥ पत्रों में तो समिति के बहुंत से उद्देश्य लिखे । वास्तव में उस समिति का उद्द्श्ये था कि धन का एक पुल निर्मित हो ॥ 

लघु रौ धानी लेख कर, गठे  समिति के गात । 
जनमि सजग जन सहजोग, पुत जनमन के साथ ॥ 
फिर छोटे राजा की छोटी राजधानी में समिति का पंजीकरण कर समिति का स्वरुप तैयार हो गया । और सजग जनसहयोग नाम से यह समिति बनी जो पुत्र के जन्म के समय अर्थात विक्रम संवत् २०५९ के लगभग गठित हुई ॥ 

शुक्रवार, १३ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

कार करन पुनि पिय अस दौरे । धुरी धरे जस भँवरे भौंरे ॥ 
लगत जोगत बहु जुगत भिराए । पर कारज कछु मिलबैं न पाएँ ॥ 

दिवस रैन लग जोग जुटाईं । कभु को मुख कभु को कहबाईं ॥ 
ते जग कारज सोइ कर पाएँ । जोइ के पैठ जेतक लमाए ॥ 

योजना रूप रेखन कारें ।एक लघु कारज फिर कर धारें ॥ 
बहोरि बहोरि भँवर लगाईं । भुगतान मह आध लख लाहीं ॥ 

एक कच्छ माह खोरे अनुमति लह । एकै कछ के महा बिद्या गह ॥ 
पाठन सीस एक सुल्क धराए  । सहस छठदस जा उदर समाए ॥ 

बिहने खाए खवाए के, तेतिक जोगन पाए । 
समिति गाँठी लगाएं मह, जेतैक जोग लगाए ॥  

शनिवार, १४ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                        

भयउ मीन केतक घरियाला । थाह लहे पिय सासन ताला ॥ 
कीच गाहे को केतक जानी । को के कंठ गहि कितौ पानी ।। 

कृत कृत दिन सरि दूषित राता । अंदर बहिर सबहि के बाता ॥ 
तिन सन बहुकन अनुभव धारे । दूषन केतक चरन पसारे ॥ 

खाट खटौरे हारी बैठे । कछु दिन पिय जब खारी बैठे ॥ 
बहुरि एक लघुबर ठिका उठाए । एक सिस अबास लगे जतनाए ॥ 

कहि नृपसेवक चलउ सुधारौ । जोग प्रभंजन करपर धारौ ॥ 
निबास दूर बसइँ एक गाँवा । रहहि तहहिं सो आश्रम छाँवा ॥ 

निसदिन ठान बाजि चढ़ि जाहीं । तन बहुकन धूरी धर आहीं ॥ 
श्रम जित पिया पूरत निजोगे । रूपै बीस सहस कर जोगे ॥ 

बोलइ बधु पिय उछाहत, अजहूँ दूजां कारु । 
कहि पिया मैं एतिक पढ़े, कर सक तिन अनपढ़ारु ॥ 

रविवार, १५ दिसंबर, २ ० १ ३                                                                                       

समिति कार हुँत जो भँवराहीं । वाके प्रीतम भए एहि लाहीं ॥ 
तनि दिन पर धरि सोइ निजोगे । दुर्घटन कर सयन जब भोगे ॥ 
समिति के कार्य हेतु कार्यालय के चक्कर लगाने का प्रियतम को यह 

पद जोजन समनबयक सोहीं । हस्त सिद्धि दुइ सहसहि जोही ॥ 
एतिक भूति मैं प्रगस सरूपा । भरे नाहि उदरन के कूपा ॥ 

कारज पालक आयसु दाईं । पंचायत करनन सन लाईं ॥ 
राज मह राज योजन कारें । जन के धन सन जन उपकारें ॥ 

ग्राम कूट सइँ सेवक लोगे । पंच महपंच  सचिव निजोगे ॥ 
पुर पंचाययत निसदिन आईं । लए निज गाँउ करम रचनाई ॥ 

लग करमन जो धन अनुमाने । तिन्ह के पिय निकासत काने ॥ 
तों परिकलन कलित कर जोई । पालक तिन कर सही सँजोईं ॥ 

ऊपर लेइ नीचै लग, सबके बाँध बँधाए । 
रूपए एक को दोइ पिया, पैसे दस बिस पाए ॥ 
















Saturday, November 16, 2013

----- ॥ सोपान पथ २ ॥ -----

जननी धिय दुइ गुन समुझाई । बहु समदत पुनि किए बिदाई ॥ 
जोरत कर सब बाहिनि बैठे । सुभ घरि नउ बधु किए  घर पैठे ॥ 
वधु की माता ने उसे दो गुण समझा कर ,बहुंत प्रकार के उपहार  देते हुवे फिर उसे विदा किया ॥ सब बाराती भी हाथ जोड़ कर विदा  हेतु अनुमति लेते हुवे वाहनों में विराजित हुवे और शुभ घडी में नव वधु ने गृह प्रवेश किया ॥ 

तासु पूरतस हिल मिल हेले । जामि जुगबन खोरिया खेरे ॥ 
कोए बनबई बनरा नीके । कोउ बनाउन भरि बनरी के ॥ 
उसके पहले मेल मिलाप कर राग रंग सहित रास करते हुवे घर की बहु-बेटियां साथ में खोड़िया खेला ॥ किसी को बन्ना बनाया गया । किसी ने बन्नी का वेश धारण किया ॥ 

नउ बधु बिरध चरन परसावा । आवत बधु कारत बहु चावा ॥ 
आए पाहुन धरि कर सीसे । लीन्हि बिदा दीन्हि असीसे ॥ 
नव वधु के आते ही गृहजनों ने बहुंत ही लाड़-चाव किया और वृद्ध जनों के चरण स्पर्श करवाए ॥ जो अतिथि आमंत्रित थे उन्होंने उसके शीश पर हाथ रखते हुवे आशीष देते हुवे विदाई ली ॥ 

बहुरि बहुरि सब जनमन बिहाइँ  । तुहरी सास सुरसरि अन्हाइँ ॥ 
भरित बियाहु  उछाहु अनंदु । जात सराहत कहत बधु चंदु ॥ 
यह कहते हुवे कि हे बहुओं ! सारी संतानों का विवाह कर अब तो तुम्हारी सास गंगा नहा ली ॥ विवाह का उत्साह और आनंद को ह्रदय में भरे वे जाते हुवे नव वधु को चाँद कि उपमा देते गए ॥ 

दरसत बधुबर ऐसेउ,जस दुहंस के जोरि । 
नेग सहित रीति निबेर, पुनि का कंकन खोरि ॥  
और कहा : -- वर वधु ऐसे दर्श रहे हैं जैसे कोई हंस का जोटा हों । फि नेग सहित रीती पूर्णिंत करते हुवे वर वधु के खोले गए ॥ 

रविवार, १७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

काल कर्निक पलक जल कृते । पहर करन किए अहिरात सरिते ।। 
कलप धरा अस नौका चरिते । प्रीत पूरिते कछुक बय बिते ॥ 
समय कर्णधार हुवा ,क्षण एवं पल जल स्वरुप हुवे । जब  पहर पतवार अनुरूप  हुई  तो पलों को संजो कर दिवस और रात्रि सरिता प्रतिमान हो गए ॥ 

तमोगुन गहन किए अँधियारे । तमोहन जग उजरन न हारे ॥ 
पावनहार देयन उलासे । देवनहार पावन ललासे ॥ 
अज्ञान और आलस्य जैस दुर्गुण मानस के मन मस्तिष्क में अन्धेरा करते रहे । इस अन्धकार को नष्ट करने वाले प्रतिक हार नहीं मानते  और ज्ञान और चैतन्य का उजाला भरते ॥   

बहुरि बहुरि खल देइँ उजराए । उपबन फिर फिर फर फूर सुहाए ॥ 
पाए पवन पखि भरि भर्राटे । बहेलियन के जालन काटे ॥ 
दुष्ट वारम्वार उअपवन उजाड़ देते परन्तु वह पुनश्च:पुनरुज्जीवित होकर सुहावना हो जाता ॥ बहेलियों के जाल काटते हुवे , पवन का संग प्राप्त कर पक्षी अति तीव्रता पूर्वक उड़ान भरते ॥ 

तरल तपनोपल धुनन धूरी । गहनई रयनइ दिन को घूरी ॥ 
मनुज बल सोंह सिंह डिराहीं । ससा हिरन के बरनि न जाहीं ॥ 
मणि स्वरुप सूर्य की कांति तरलता को, वायु धूल को, गहन रात्रि दिवस की वैरी हो जाती ॥ मनुष्य से स्वयं वांके राजा सिंह को ही भय लगता फिर खरगोश एवं हिरन जैसे निरीह प्राणी तो वर्णनातीत हैं ॥ 

अगजग लेइ सकल जगत, छाए जीव उत्कर्ष । 
चहुँत दिसा ब्यापत रहि, जीवन के संघर्ष ॥ 
जगत के समस्त चराचर में जीवन के प्रति उत्कंठा बनी रही । संक्षेप स्वरूप, चारों दिशाओं में जीवन संघर्ष रत रहा ॥ 

सोमवार, १८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

न्यूनाधिक परस्पर प्रीती । सब जन करहिं सुवारथ नीती ॥ 
दैहिक दैविक भौतिक तापे । बार बधूटि जीवन ब्यापे ॥ 
लोगों में आपस की प्रीति थोड़ी-बहुंत ही थी, सभी स्वार्थ परक नीतियां अपना रखी थीं ॥ दैहिक,दैविकऔर भौतिन वर-वधु का जीवन इन त्रयीताप से व्याप्त था ॥ 

अंगज के रहि रुजित सरीरा । अल्पायु अरु ऐ महा पीरा ॥ 
दोउ रोग भय सोक अधीना । संतति प्रति सुख लच्छन हीना ॥ 
वर-वधु के बाल मुकुंद का शरीर रोग ग्रसित था अल्पायु और रोग की यह महापीड़ा ॥ दोनों सुख के लक्षणों से विहीन होकर रोग, भय और शोक के अधीन थे जो संतानों के प्रति था ॥ 

केतक जलद सुधा बरखाईं । पर बेत प्रफुर फरइँ न पाईं ॥ 
ऐसेउ बहुस बयस गहाहे । दंपत पुत चलि फिरैं न पाहें ॥ 
बादल कितना ही सुधा बरसाए । पर बेत प्रस्फुटित होकर फलीभूत नहीं होता ॥ उसी प्रकार वह बालक भी चलने फिरने कि अवस्था पार करता जाता किन्तु पैरों से चल फिर नहीं पाता ॥ 

रूज गहन कर लिए झटकारे । कछुक दिवस के अंतर पारे ॥ 
नाना बैदु भवन किए फेरे । मात पिता करि जुगत घनेरे ॥ 
रोग, झटके देने वाला था और गहरा था । यह झटके उसे कुछ दिनों के अंतर पर आते ॥ विभिन्न प्रकार के वैद्यों एवं उनके भवनों के चक्कर काट काट कर माता-पिटा अतिशय युक्ति करते की किसी प्रकार से यह झटके अवरुद्ध हों ॥ 

भाँति भाँति के नेम किए, जथा जोग पुनि दान । 
दंपत जोगत जुगे रहि, पुत के साँसत प्रान ॥  
अनेको रीतियाँ अपनाईं, यथायोग्य दान-पुण्य भी किया ॥ इस प्रकार बालक के यंत्रणा में फंसे प्राणों की देख-रेख में ही जूटे रहते ॥ 

मेरा भाव गहे रहे, बहोरि किए पुनि दान । 
जोइ सकल जगती लहे सोइ करै कल्यान ॥  
चूँकि किया हुवा पुण्य दान यदि  'मेरा ' भाव ग्रहण किये हुवे हो तो वह सफल नहीं होता  । जिस पुण्य दान में समस्त चराचर के कष्ट निवारण की कामना की जाए वही कल्याण कारी होता है ( अत: दंपत का वह कृतकार्य वह असफल सिद्ध होता प्रतीत हुवा ) ॥ 

मंगलवार, १ ९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                            

मुखकृति सुठि रहि सौंह साँवरी । पर वाकी बुद्धि रहि बावरी ॥ 
भोजन जल तौ खालै हेरी ।  पर रसना कछू धूनि न केरी ॥ 
बालक की सुनार मुखाकृति सांवरे के सदृश्य थीं । किन्तु उसकी बुद्धि मंद थी । भोजन जल को तो उसकी जिह्वा ढूंड लेती किन्तु शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाती ॥ 

उदर ज्वाल बूझन ललसाए । उत्सर्जन कछू भान ना पाए ॥ 
तिन्ह आवइ न कछु जानपनी । रही चित्त भ्रमित वाकी नयनी ॥ 
क्योंकि उदराग्नि ऐसी है कि वह बूझण को लालायित रहती किन्तु उत्सर्जन का उसे ज्ञान नहीं था ॥ उसे कुछ समझदारी नहीं थीं जो उसकी आयु के बालक को होनी चाहिए उसके नेत्र भी भ्रमित रहते अर्थात नेत्र से नेत्र का मिलान करने पर  स्थिरता नहीं आती ।। 

आप नींद सुत केलि किलौले । दूजन अनमन कछु नहि बोले ॥ 
पालक हीं मुख असन धराईं । चरण त्रान तन बसन बसाईं ॥ 
वह अपने आप में मगन होकर आप अनुसार ही खेल करता दूसरे के भावों को ध्यान नहीं देता ॥ उसे पालक ही भोजन कराते और उसके वेश को भूषित करते ॥ 

बिहारन उदकत बारहि बारी। चलत बाहि जब त्रिबिध बयारी ॥ 
धरत उच्चलत उरस उछावा । तिन्ह परस अतिसय मन भावा ॥ 
वह विहार करने हेतु  वारंवार स्वरुप में उत्कंठित रहता । गतिशील अवस्था में  चलते वाहन की शीतल मंद और सुगन्धित वायु उसके हृदय को आनंदित करती उसका स्पर्श उसे बहुंत अधिक ही भाता ॥ 

पेख पालक बालक मुख, सुहेलाहि एहि भाँत । 
पेखत भानु उदयित जस, पदम् मुकुल सकुचात ॥ 
बालक के ऐसे मुदित मुख को देख कर उसके पालक , सुख की अनुभूति करते हुवे  इस प्रकार से  प्रसन्न होते जैसे मुरझाए हुवे मुकुलित पद्म पुष्प को देखकर उदितमान भानु प्रसन्न होता है ॥ 

बुधवार, २०  नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                    

करत लाल धिय बहु बिधि लालै । सीँच नेह दुहु गृहबन पालें ॥ 
एक  कलिका कल कोमलि अंकी । एक मन मोहक मुकुल मयंकी ॥ 
दंपत, बाल मुकुंद एवं बालिका का बहुत प्रकार से दुलार करते और अपने स्नेह से सिंचित कर  गृह रूपी उस उपवन में उनका लालन पालन करते ॥ 

कलिका पद पद फुरत बिकासे । मुकुल कंत मुख मलिनइ भासे ॥ 
जे रत सकल बिषय रस कोरी । यह अधम ग्राम धरत निचोरी ॥ 
कलिका तो चरण-चरण पर प्रफुल्लित होकर  संवृद्ध होती रही किन्तु, मुकुल का मुख मुरझाया हुवा सा धूमिल प्रभा का आभास देता ॥ कालिका संसार के विषयी रसदालिका  के सभी रसों में अनुरक्त थी किन्तु मुकुल विषय समूह के अधभागी होते हुवे केवल अवसृष्ट का
अधिकारी था ॥ 

चलत पयादे पयादेहि धिअ । धरि पद पुत पर अपद अबोधिअ ॥ 
चाहे जो धिय हठ करि लेईं । बाल मुकुन पुचुकारत देईं ॥ 
पुत्रिका पैर पैर चलती । पुत्र चरण धारी होते हुवे भी मंद मति के कारण चल नहीं पाता ॥ पुत्रिका हाथ कर जो चाहती ले लेती किन्तु बाल मुकुंद को मात-पिता पुचकार पुचकार कर देते ॥ 

जाति जनित जग धरम समाजा । बसत भवन करि हित के काजा ॥ 
बिकसित भाव बिषय गत बोधे । एहि कर मनु पसु बिलग बिरोधें ॥ 
उत्पत्ति, समूह, सांसारिक धर्म, और समाज  गृहस्थ जीवन, कल्याण कारी कार्य,विकसित भाव,विषयों का पूर्णकारी बोध गमन, ये कारक मनुष्य को पशुओं से भिन्न करते हुवे पृथक करता है ॥ 

ढोर हो चाहे पसु हो, हो को नर को नारि । 
जो प्रानि मतिहिन् का सो, ताड़न के अधिकारि ॥ 
ढोल हो, चाहे पशु हो, या कोई नर-नागर कि नारी हो । जो प्राणी मति हिन् हैं क्या वे मार खाने के योग्य होते हैं ॥ 

गुरूवार, २ १ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

उत बधु पितु बय बर्धन भूले । परे पालउ धरे रुज सूले ॥ 
अजहुँ त प्रात करम उहिं कारैं । मिल भावज करि सौच अचारें ॥  
उधर वधु के पिता जैसे स्वास्थ का लाभ लेना ही भूल गए रोगों से पीड़ित होकर पलंग ही पकड़ लिया । अब तो नित्य क्रिया भी वही होने लगी । भावज मिल जुल कर उनका शुद्धिकरण करती ॥ 

जे कभु दंपत के मन आईं । दोउ असुख कर दरसन जाईं ॥ 
सयनै संजुग जड़ता धारहिं । रसना असन अरसकर अलपतर धारहिं ॥ 
जो कभी दम्पति का मन होता तो दोनों शोक पूर्णित होकर दर्शन कर आते ॥  पलंग पकड़ने के पश्चात शरीर ने जड़ हो गया । स्वादेंद्रिय अब अल्प मात्रा में ही भोजन गर्हण करने लगी ॥ 

करक धूनि धरि तीख सुभावा । चार कोस जो देइ सुनावा ॥ 
बेगि बिहिन अरु गति छिन होई । मंदक सुर धरि धवनिहि सोई ॥ 
मुख ध्वनि जो कभी कर्कश एवं तीक्ष्ण स्वभाव की थी । जो चार कोस ऊरी पर भी सुनाई देती थी ॥ उसी ध्वनि के स्वर मंद हो गए उसकी गति मद्धम और तीव्रता क्षीण हो गई ॥ 

झुरत चरम छबि मुख मलिनाई । बिरध सिंधु तरंग धराई ॥ 
दिए दरस दीन दरपक हीनी । कर्दम भरि काया भइ झीनी ॥ 
मुख की त्वचा झूलने लगी और उसकी शोभा मलिन हो गई जैसे मुख कोई वृद्ध सिंधु हो और और झुर्रियां तरंग हों ॥ मांस से भरी काया कृषकाय हो कर विकलता दर्शाते हुवे दर्प हीन हो गई ॥ 

अजहुँत मम दिवस पूरे, कहत बहोरि बहोरि । 
जेइ जगमग जगती जग, अरु तनि बय के होरि ॥ 
पितु वारंवार कहते अब मेरे दिन पूरे हो गए । इस जगमग करते घर-संसार में, मैं कुछ ही समय का अतिथि हूँ ॥ 

शुक्रवार, २२ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                       

देखत नातिन बहुस स्नेहे । रोग पीरान हरिदै लेहें ॥ 
बैस बर्धाहि धीरहि धीरे । कहत धिया सों भै न अधीरें ॥ 
पिता नातिन को देखते तो बहुंत स्नेह करते उसके रोग पीड़ा को हृदय में लेते हुवे द्रवित हो जाते ॥ यह धीरे धीरे ठीक हो जाएगा , तुम अधीर मत होओं पुत्री को ऐसा कहकर सांत्वना देते ॥ 

जब तब बधूटि पितु घर जाईं । मात चढत चित अति सुरताईं ॥ 
सुमिरत तिन्ह लोचन जल छाए । सयन सदन जब जननी न पाए ॥ 
वधु जब भी अपने पिता के घर जाती । तो माता का ध्यान चित्त में चढ़ जाता ॥ जब शयन सदन में वह नहीं दिखाई देती तब उन्हें स्मरण करते हुवे उसकी आँख भर आती ।  

बसन भूषन वाके बिछावन । रहि ऐतक कि उँगरीहि मह गन ॥ 
धर्म बचन अरु सत सदाचरन । रहि जेतैक के नख नभ अनगन ॥ 
उनके वस्त्र आभूषण शयनाच्छादन इतने थे की उँगलियों में गिना जा सके । और धर्म पूरित आचरण सत्य सद आचार इतने थे कि जितने आकाश में अनगिनत तारे हैं ॥ 

धारी मुठिका करन्हि दाना । कबहुँक चौरस कबहु लुकाना ॥ 
मानख मति  जस तस गति पाईं । जस कारज तरु तस फर आईं ॥ 
जब मन आया मुठिका धरी और दान कर दिया । कभी सबके सम्मुख कभी छीपा कर ॥ मानुष की जैसी बुद्धि होती है उसकी गत भी वैसी ही होती है । उसके जैसे कर्म वृक्ष होते हैं, उसमें वैसे ही फल लगते हैं ॥ 

जुग सिधाए सती बिहाइ, बिते बरस अह रात । 
तिन्ह संग लोग सिधाए, रह रहि तिनकी बात ॥ 
युग समाप्त हो जाते हैं शताब्दियां समाप्त हो जाती हैं वर्ष,दिवस, रात्रि  बितते जाते हैं । उनके साथ लोग भी परलोक पहुँच जाते हैं रह जाते हैं बस उनके विचार ॥ 

शनिवार, २३ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                  

एक दिन बैसै सों बर भ्राता । बधूटि करत ऐसोइ बाता ॥ 
लालइ लाल अंक बैसाई । पुनि एतादिसी पूछ बुझाईं ॥ 
  एक दिन अपने ज्येष्ठ भ्राता के साथ बैठ कर वधु इस प्रकार वार्तालाप कर रही थी वह पुत्र को सस्नेह गोद में बैठाए हुवे उसने प्रश्न भ्राता से किया : - 

कभु कछु कभु कछु हेलत बुलाएं । कहु तौ तनुज का नाम धराएँ ॥ 
दुइ छन ठारत भ्रात बिचारे । तब मधुरित जे बचन उचारे ॥ 
 अभी तक ठोटे को भाँति -भाँति नामों से पुकारते थे । कहो तो इसका क्या नाम रखें ? तब भ्राता ने कुछ समय थाहा कर विचार कर  इस प्रकार के मधुरित वचनों का उच्चारण किया  ॥ 

केस सिखर तरि सीस अलिंदे । बैठि भेस भर जस अलि बृंदे ॥ 
अरुन नयन मुख सुधा अधारे । मनहु कंजन कंज पत धारे ॥ 
केश शिखर से उतर कर शीर्ष के चबूतरे पर ऐसे विराजित हैं जैसे मधुकर के समूह ने वेश भर लिया हो ॥ अरुणित लोचन और मुख सुधा के आधार हैं विधाता ने मानो वहाँ कमल ही प्रतिष्ठित कर दिया हो ॥ 

चंचर मन तन बदन स्यामा । तव सुत सुभ लच्छन के धामा ॥ 
कहत भ्रात एक नाम सुखारे  । धरे मात सो भविस कुमारे ॥ 
मन चंचल है, और शरीर और मुखाकृति सांवल है । तुम्हारा पुत्र  शुभ लक्षणों का जैसे धाम ही है ॥ फिर भ्राता ने एक सुख करने वाला नाम बताया । वह नाम था भविष्य कुमार जिसे माता ने ग्रहण कर लिया ॥ 

एहि भाँति भ्रात के कहे, नाम देइ जनि धार । 
पुचकारत बोलि मुख सन , हे रे भविस कुमार ॥   
इस प्रकार भ्राता के कहे अनुसार, माता ने अपने पुत्र का नामकरण किया । औ फिर प्यार से पुकारने लगी हे रे ! भविष्य कुमार !!

रविवार, २४ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                   

उत बधूबर के कुटुंबी गन । श्री गया पुर पितु करमन करन ॥ 
सब हिल हेरत किये बिचारे । मंगल दिवस संकलप धारे ॥ 
उधर वधू-वर के कौटुंबिक गण ने हिलमिल कर श्री गया जी श्राद्ध कर्म-काण्ड करने का शुभ विचार किया ॥ और मंगल दिवस में संकल्प धरा ॥ 

जेइ करमन तबही सँजोई । जब सकल कुटुम जन सुध होईं ॥ 
को मरनी को जनम न धारें । जग मह रह जेतक परिबारे ॥ 
यह कर्म-काण्ड हेतु तभी कटिबद्ध होते हैं जब सर्व कौटुम्बिक पवित्र हों । अर्थात निश्चित अवधि के अंतर्गत जग में जितने भी कौटुम्बिक हों उनके गृह में किसी का न मरण हुवा हो न किसी का जन्म हुवा हो ॥ 

सब सास्त्र सब बेद पुराने । करतब रूप ते करम बख्नाने ॥ 
तिन्ह तईं उपदेस उचारे । श्री  भगवद गीता अनुहारे ॥ 
सभी शास्त्रों सभी वेद पुराणों ने कर्त्तव्य स्वरुप में इस कर्म-काण्ड का वर्णन किया है ॥ इसके सम्बन्ध में श्रीमद्भगवद्गीता में किये गए उपदेशानुसार : - 

जो पितु करमन सकही कोई । सोइ जनित बड़ भागी होईं ॥ 
जो पितु मुकुतिहि अभिलाखे । पाए धर्म पद लाखन लाखे ॥ 
जो कोई संतति पितृ-कर्म काण्ड करने में समर्थ हो वह अतिशय भाग्यशाली होती है । जो अपने पितर जनों की मुक्ति की अभिलाषा करता है वह अधिकाधिक पुण्य का पात्र होता है ॥ 

सब हेली जोगत, भए सब सहमत दिए सबहि असीस बचन । 
जो जथा बिधाने, जोग प्रदाने, भए सम्भव आयोजन ॥ 
पुनि बंस चरित के, जोग लिखित के,  हेर पुर पट्टन गली । 
मिलजुल सब लोगे, साख सँजोगे, बनि बिटप बिरदावली ॥ 
फिर सभी कुम्ब जनों ने आह्वान कर सभी की सहमति एवं आशीर्वचन एकत्रित किया ॥ जो जैसे जिस प्रकार से भी योजन प्रदान करने में समर्थ था उसने वैसा किया और फिर यह आयोजन सम्भव हुवा ॥ फिर वंश का इतिहास अन्वेषण कर सभी स्थानों से लिखित में संकलित कर सबने परस्पर मेल करते हुवे उसकी शाखाएं निरूपित कर उसे वृक्ष का स्वरुप दिया ॥ 

डेढ़ सदी पूर्बीने, जे आयोजन कारि । 
अद्यावधि सोइ कुटुम, बहुरि संकल्प धारि ॥ 
वधू-वर के कौटुम्बिक ने जिस आयोजन को (लगभग) डेढ़ सौ वर्ष पूर्व किया था, अद्यावधि कुटुंब जनों ने पुनश्चर उसी आयोजन का संकल्प धरा ॥ 

सोमवार, २ ५ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

तिन करम तईं बेद पुराना । लेखि कछुक कर नेम बिधाना ॥ 
पर पद परसन बर्जित अहहैं । ते अवधि कोउ दाए न लहहैं ॥ 
इस कर्म-काण्ड के सम्बन्ध में वेद -पुराणों में किंचित नियम-विधान किये गए हैं ॥ जिसमें संकप अवधि में पराए जनों का चरण वंदन वर्जित होता है न किसी से कुछ लिया जाता है, न दिया जाता है ॥ 

जब लग परिजन किए संकल्पा । सुरति प्रभु मन आहारै अल्पा ॥ 
जस निगमागम जस श्रुति गाईं । जनम मरन मह कहहुँ न जाईं ॥ 
जब तक यह सकल्प पूर्ण नहीं होता तब तक अल्प आहार ही ग्रहण कर चित्त में केवल ईश्वर का स्मरण के निर्देश हैं ॥ जैसे वेद-शास्त्रों एवं श्रुतियों ने व्याख्यान किया है कि न तो किसी के जन्म में गमन करें एवं न ही किसी के मरण में गमन करें ॥ 

तेहि माझ मह पीहर देसे । आए जेइ आरत संदेसे ॥ 
बधुटि तव पितु रहि न जग माहे । छाड़े तन अरु सुरग सिधाहें॥ 
इसी बीच के पीहर देस से यह  दुखमय सन्देश आया ।। हे वधु ! तुम्हारे पिता अब इस लोक में नहीं रहे, वे देह त्याग कर लोकांतरित हो गए हैं ॥ 

होत सोकित बधु बै तिपाई । सँदेसी सौं कछु कह न पाईं ॥ 
कातर दृग भइ सोकत लोकी । अरु वाके मुख लोकत सोकी ॥ 
( यह सुनते ही ) वधु  दुखित होकर  पीड़ित  अवस्था में संदेशी से कुछ कह नहीं पाई ॥  कातर दृष्टी से शोकपूर्ण होकर वधु उसे और उसके मुख को रात्रि देखती  रही ॥ 

आरत रत बिलाप  करत, धारे दुःख उर भीत । 
रयनि श्रवनत सन क्रंदत, बधु के करुणा गीत ॥  
दुःख संकुलित ह्रदय से वह दुखपूर्ण विलाप करने लगी । उसके इस करुणा गीत को सुनकर साथ में रयनी भी रो पड़ी ॥ 

मंगलवार, २ ६ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                     

कवन भाँति बिरती तम राती । आइ भोर पितु जस गुन गाती ॥ 
किरन सोशन ओस कन कूखे । बधु के पोटल कनक न सूखे ॥ 
दुखभरी वह अंधेरी रात किसी भांति व्यतीत हुई । जनक के गुण गाती हुई फिर भोर प्रकट हुई ॥ किरणों के शोषण से ओस शुष्क होने के कारण कलपने लगे  किन्तु वधु के पलकों की जल बुँदे शुष्क नहीं हुईं ॥ 

पिहर गवन बात जब आई । करन जनक जग बिदा बिहाई ॥ 
गृह जन चिंतत पूछ बुझाने । बुधी सुधी सन सोंह सयाने ॥ 
और जब जनक कि अंतिम विदाई हेतु वधु के पीहर जाने की बात चली तब गृहजानों ने सोच विचार कर बड़े बूढ़ों के साथ बुद्धिवंत विद्वान की राय ली ॥ 

कहि सब बनउन नेम बनाईं  । मानन मैं ही भयउ भलाई ॥ 
जान समुझ रचि आपन नुग्रहन । एकांग होहि हेतु को कारन ॥ 
सबने यही कहा जब रचनाकार ने  नियम रचे ही हैं तो उन नियमों को मानने में ही भलाई होगी ॥ इन नियमों के रचित करने पीछे उनका अवश्य ही कोई कारण कोई उद्देश्य होगा जो हम कलयुगी जातक नहीं जानते ।  ये हमारे अनिष्ट के निवारण के िे जान समझ कर ही रचे गए होंगे ॥ 

पुनि सोंह बधू परिजन कहहीं । सोइ करौ जो तव मन चहहीं ॥ 
निगम रचिते नेम पुराने । तोर न तोरे मान न माने ॥ 
फिर वधु के सम्मुख होकर परिजनों ने कहा । जो तुम्हारा मन कह रहा है तुम वही करो ॥ निगमागम में रचे गए नियम यद्यपि पुराने हैं तोड़ना चाहो तो तोड़ दो मानना चाहो तो मान लो ॥ 

पितु पराए आपन ससुरारी । होइहि संतत पियहि पियारी ॥ 
बहोरि बधु के बुद्धि सुजाना । बिरध बचन देवत सनमाना ॥ 
पिता पराए होते हैं, स्त्री कि अपनी उसकी संतान होती है और वह प्रीतम की प्यारी होकर ससुराल की ही होती है ॥ फिर वधु की सुबुद्धित मति ने बड़े बूढ़ों के कथनों का सम्मान किया ॥ 

निगमागम निगदित नेम, कारत अंगीकार । 
नियमित भई संकल्पित, निज पितृ जन उद्धार ॥ 
वेद-शास्त्रों में वर्णित नियमों को अंगीकार करते हुवे उनके अधीन हो कर वह अपने पितृ जनों के उद्धरण हेतु कृत संकल्पित हुई ॥ ( पति पक्ष द्वारा आहूत कर्म काण्ड- क्रिया में पत्नी के माता-पिता  का भी उद्धरण होता है ऐसा शास्त्रों में वर्णित है ) 

बुधवार, २ ७ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                    

कैसेउ अहइ एहि बिडंबना । पितु के सिरान बधु गमन मना ॥ 
अंत समउ भइ मुख नहि देखें । उपल धात कस हरिदै लेखेँ ॥ 
यह कैसी विडंबना है, पिता का देहांत हो गया पर वधु का जाना मना है ॥ अंतिम समय में पिता का मुख भी न देखें । ह्रदय पर वधु कैसे तो पत्थर रखे और कैसे उसे समझाए  ॥ 

जन्में जग में रज सन तिनके । अजहुँ तरस गए दरसन तिनके ॥ 
प्रियति पिया नारी धिय धाती । पर मुख मौलि मूर्धन पाती ॥ 
जिनके राज से इस जगत में जन्म लिया । आज नयन उनके दर्शन को तरस गए ॥ प्रिय को अति प्रिय नारी पुत्री एवं माता होती है । किन्तु मुख मस्तक के शिखर पत्र पर : -- 

अंतर धर अह सों नर धाता । लिखे लेख का भाग बिधाता ॥ 
पौरुख के पहराइन नारी । पहरी के को पहरनहारी ॥ 
भाग्य विधाता ने ऐसे लेख लिखे नरनागर और नारी में अंतर किया ॥ नारी को पुरुष के पहरे में किया किन्तु उस प्रहरी का कौन प्रहरी हो यह उल्लेखित नहीं किया ॥ 

अस कह जब बधु बहस बिलापी । धुनी बरन सन हरिहर काँपी ॥ 
बेस निकट पिय कहि  समुझाईं । मोह करत निज दिए दोहाई ॥ 
ऐसा कहते हुवे फिर वह कुछ समय पश्चात अतिशय विलाप करने लगी और शब्द वर्ण भी जब हहर कर कांपने लगे ॥ तब निकट बैठे प्रियतम ने मोह करते हुवे अपनी दुहाई दे कर वधु को समझाया ॥ 

उत पितु कर कीर्ति करतूती । धर्म सील गुन गात बहूती । 
पुर परिजन सव सिबिका बाँधे । करत सवय धरि पुत के काँधे ॥ 
उधर पिता के कृत की कीर्ति कर उनकी धर्मशीलता, और गुणों की अतिशय प्रशंसा करते पुरजन एवं परिजन अर्थी जोड़ने लगे और अंतिम क्रिया के समय के समस्त कृत्य करते हुवे पिता के पार्थिव शरीर को पुत्रों के कन्धों पर रखा ॥ 

राम नाम है साँच, कहत पुत पितु लेइ चरे । 
इत लोचन जल राँच, बिलपत बधु धीर न धरे ॥  
राम नाम सत्य है, पुत्र ऐसा कहते हुवे पिता को लिए चले इधर वधु आँखों को अश्रु धारा में अनुरक्त कर धैर्य हिन् होते हुवे विलाप कर रही थी ॥ 

गुरूवार, २ ८ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                               

जगत परिहरि गयउ सुर धामा । रहे रहि जनक जारन कामा ॥ 
जिनके असीस रहि सुख दाइ  । अनरथ कर तिन काल बिलगाइ ॥ 
संसार को त्याग कर पिता स्वर्ग धाम को चले गए । केवल उनके दाहन की क्रिया शेष रह गई ॥ जो जीवन हेतु सुखदायक थे ॥ काल ने अनर्थ करते हुवे उस स्नेहाशीष से पृथक कर दिया ॥ 

कहत बधु आह हे मम पितुरे । नलिन नयन जस सागर उतरे ॥ 
तपन उटाइँ न दुःख गहराई । धीर आपै आप अधिराईं ॥ 
ऐसा कहते हुवे वधु ने आह !भरी और उसके आँखों से जैसे अश्रु का सागर ही उमड़ पड़ा ॥ उसके कष्ट की तो ऊंचाई नहीं थी और दुःख की कोई गहराई नहीं थी ॥ धीरज, वह तो स्वयं ही अधीर हो रहा था ॥ 

तों  पिया सोंह गइ न सँभारी ॥ प्रिया तात हा तात पुकारी ॥ 
बिकल बिलोक ससुर समुझावति । कबहुँक सास छाँति लगावति ॥ 
उस समय प्रियतम से प्रिया सहेजी न गई, वह बार बार अपने पिता को स्मरण करती ॥ उसे ऐसे व्याकुल देख कर कभी श्वशुर सांत्वना देते तो कभी सास हृदय से लगा लेती ॥ 

कही धिय काहु बिलपहिं मम माता । कहत तात सिरु फेरत हाथा ॥ 
रे धिया मातामह तुम्हरे । छाँड़त  प्रान  अरु सुरग सिधरे ।। 
पुत्री ने जब माता को बिलपति देखा तो अपने पिता से प्रश्न किया, मेरी माता बिलाप क्यों कर रही हैं तब उन्होंने उसके सर पर हाथ फेर कर उत्तर दिया ॥ 

खंड खंड हरिदै किये, दरकन भरत बिषाद । 
फिर फिर धीर धरावहीं, पिया करत संबाद ॥ 
प्रिया का ह्रदय खंड खंड हुवा जा रहा था उसके दरक रेखाओं में विषाद भर गया था । प्रियतम बातचीत करते हुवे वारम्वार उसे धैर्य बंधाते ॥ 

शुक्रवार, २ ९ नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                            

आन पैठत पितु सव मंदिर । काठ साँठ सन अगरहु चंदिर ॥ 
नदी तीर रचि चिता पौढ़ाए । क्रिया करमन कर दाहन दाए ॥ 
पिता  का मरघटी में प्रवेश करने के पश्चात । अगर-कर्पूर के सह लकड़ियां संजो कर । नदी के तट पर रचाई हुई शव शयनिका पर सुलाया गया ॥ फिर शास्त्र विहित अंत्येष्टि कर्म कर उन्हें अग्नि के अधीन कर दिया ॥ 

पूर्णित क्रिया करम कलापे । हवि दान धूम गगन ब्यापे ॥ 
पाँच भूत जग भयउ सुवाहा । कहत सुता सुत स्वजन आहा ॥ 
अंत्येष्टि क्रिया कलाप पूर्ण होने पर हवं दान का धुंआ गगन में व्याप्त हो गया ॥ पञ्च भुत कि यह मूर्ति स्वाह हो गई । पुत्र-पुत्रियों के सह परिजनों के मुख से शोक सूचकोद्गार व्यक्त होने लगे ॥ 

महि मह जनमें महि माह लीने । महि सहि उपजे महिहि मिलीने ॥ 
महि जनि जननी महतिमहाही । महि के महिमन कहि नहि जाही ॥ 
( आह। हमारे तात ) धरा में ही जन्म लिए, धरा ही में विलीन हो गए । धरणी से उत्पन्न हुवे धरणी में ही सम्मिलित हो गए । यह धरणी जन्म देने वाली माता से भी महान है । इस धरणी का महात्म्य वर्णनातीत है ॥ 

कीन्ह त्रयदस गात बिधाने । द्विज गृह गरुढ़ कथा बखाने ॥ 
बिसुधि पर अनधन धेनु दाने । हेतु पितु चढ़े सुर सोपाने ॥ 
फिर विधि विधान से उनका त्रयोदश गात्र  किया गया । द्विज ने गृह में गरुड़ कथा का आख्यान किया । विशुद्ध होने पर यथायोग्य अन्न धन एवं धेनु आदि का दान किया गया । इस उद्देश्य से कि पिता स्वर्ग की सीडियां चढ़े ॥ 

सब सुख दरसत जगत के, भै परिपूरन काम । 
कुल करतब पूर्नित कर, गवनै पितु सुर धाम ॥  
संसार के समस्त सुख दर्श कर, पूर्णकामी स्वरुप में । कुल के सारे कर्त्तव्य पूर्ण कर फिर पिता स्वर्ग धाम को चले गए ॥ 

शनिवार, ३० नवम्बर, २ ० १ ३                                                                                             

पुनि सील सरिल सागर सरिसे । जपत श्री रमन रमापति इसे ॥ 
सब गृह जन उर धारत साँती । कल्हार करहिं कहु न को भाँती ॥ 

भारत भूमि झारखन देसू । धन नगरि के दुआरि प्रबेसू ॥ 
बसहीं एक जन घनतम गाँवा । अहहीं झरिया वाके नावाँ ॥ 

निज सिरु धारे जे अवदाने । जोइ अजोजन कार प्रधाने ॥ 
ते बहु परिजन बासहिं तहहीं । धर्म चरन रुचि समरथ रहहीं ॥ 

कार करम किए एक जन धामा । जुग सब तँह तिन सरनइ श्रामा ॥ 
श्राद्ध पख अरु देव पुकारे । द्विज मुख भगवद कथा बिठारे ॥ 

बृंदा बन के बाँकुरे, राधा के प्रिय प्रान । 
मुरइधर मनोहर के, कारत गुन जस गान ॥