Monday, May 28, 2012

-----|| SHASHISAMUDRAM ||-----

उष्ण उलटती उषर्बुध उपोद्धात उभारती ..,
उद्धाहर्क्ष उर्मियाँ उद्दीप्तकर उल्काएं उतारती..,
उत्क्लेद उदधि उपरोपरी उपाधियाँ उपहारती..,
उपवर्णका उपरंज्यकर उषाकर उदघोत  उपसंहारती.....




रसातल  के तल-लोक  की वह तलहटी थी..,
ह्रदय तालांक के तालपत्र की चित्रपटी थी..,
समग्र सृजित सभ्यता की असित जलराशि उरपर..,
सलिलालय के हृदयान्तर में तलघर के समकर..,


दिव्य दिवाकर के पग-पंकज को प्रक्षालन कर रही..,
चारु-चरण में नख कांति लेकर अर्णाऐ निकल रही..,
सुपथ सरथ पर शपथ लेकर शनै -शनै थी चल रही..,
वीरांगनाऐ सवार्थ-कुशल सुपक्ष्म प्रकीर्तन कर रही..,


द्विरंग सुरंग रंगरूप रंजक के रंग-विरंग प्रसंग को..,
सलिल-सरि के सप्तवर्ण में ढलते अंग-प्रत्यंग को..,
सत्य-शिव की सुन्दर स्रष्टा सी पवित्र जल-गंग को..,
रक्तारुण की श्वेत्प्रभा के जलाकाश से पय परिरंभ को..,


कवि कविता सूना रहा था ..,
काव्य रेणु बिखरा रहा था.....

 मौजे-दवाँ आबे-रवाँ शादमां समंदर हूँ..,
अरगबान लबों से चंद कतारों की तिश्नगी है..,




इक विसाले-खातिरे शब् आहें भर के उढी है..,
मौजे नॉ-जमाल गजब समंदर से उढी है..,

गुजिस्तां दास्ताने तलब हाय जिगर से उढी है..,
इक शोर क़यामत की साजे-सहर से उढी है..,

रुख तलक उढी तो लब सराबोर कर गई..,
इश्क की अंगढ़ाईयाँ महताबी नजर से उढी है..,

 बुझ गया शम्स शब् के रंग शफक तले..,
शमा शमई लपटकर दरबदर से उढी है..,

चंद लम्हों की गुजारिश वस्ल शब् भर की..,
हाय चाँद की नजर एक कहर से उढी है.....








 





उमड़..,
उदयन..,
उढ़े उदधर उन्मुखर..,
उदगत..,
उद्धटन..,
उढ़े उदभर उन्मुखर..,
उद्धत..,
उद्धरण..,
उढ़े उदपर उन्मुखर..,
उदारथि..,
उन्नयन..,
उढ़े उपर उन्मुखर.....



नुपुर-निकुंज के समीरण सजनी स्वर सिंजनकर..,
स्नेहिल स्पंदित सप्त सुरमन्यम सुर सुनाती थी..,
मधुर-मधुर वीणा विस्मित स्वांग स्वंजन कर..,
सुरनिर्झरणी का रूप देह दर्पण पर दर्शाती थी..,

सुमत शीश-पग धरकर द्र्व्यणपुर पर..,
सुभ्र-श्वेत पाणिग्रहण कर एक चित्र बनाती थी..,
अखिल-सिन्धु पर मुग्धा मोहितातुर पर..,
निर्जित निर्झरणी नृत्य लग्न दिखलाती थी..,

सु-रज का मुरज-रथ रज-रस रस लेकर..,
चले घनघोर पलक प्रत्यंजन सजाने को..,
काल-कलित के विकलित कल-कल पर..,
कनक-कनक कंकण कर कण-कण वर्षाने को..,

यह दृश्य देख हर्षा रहा था..,
कवि काव्य वर्षा रहा था.....




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